Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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श्री वीतरागाय नमः
प्रथम दोर
: १ :
मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी । मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥
शंका १
द्रव्य कर्मके उदयसे संसारी आत्माका विकार भाव और चतुर्गति भ्रमण होता है या
नहीं ?
समाधान
द्रव्य कर्मो के उदय और संसारी आत्मा के विकार भाव तथा चतुर्गतिभ्रमण में व्यवहारसे निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है, कर्ता कर्म सम्बन्ध नहीं है । भगवान् कुन्दकुन्द इसी विषयको स्पष्ट करते हुए समयप्राभूतमें लिखते हैं
जीव परिणामहेदु कम्मतं पुग्गला परिणमति । पुग्गलकम्मणिमित्तं तव जीवो वि परिणमद्द ||८०|| वि कुम्बइ कम्मगुणे जोवो कम्मं तहेव जीवगुणे । अण्णोष्णणिमिते दु परिणामं जाण दोन्हं पि ॥ ८१ ॥ | एएण कारणेण दु कत्ता आदा सएण भावेण 1 सव्वभावानं ॥ ८२ ॥ पुग्गलकम्मकथाणे ण दु कत्ता
पुद्गल कर्मके अर्थ - पुद्गल जीवके परिणामके निमित्तसे कर्मरूप परिणमित होते हैं तथा जीव भी निमित्तसे परिणमन करता है। जीव कर्ममें विशेषताको (पर्यायको) उत्पन्न नहीं करता। उसी प्रकार कर्म जीव विशेषताको (पर्यायको) उत्पन्न नहीं करता, परन्तु परस्पर के निमित्तसे दोनों का परिणाम जानो । इस कारण से आत्मा अपने ही भावसे कर्ता है परन्तु पुद्गल कर्मके द्वारा किये गये समस्त मायोंका कर्ता नहीं है ||८०-८२॥
दो द्रव्योंकी दिक्षित पर्यायों में निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध व्यवहार नयसे है इसका स्पष्टीकरण पञ्चास्तिकायकी गाथा ८९ की श्रीमत् अमृताचन्द्राचार्यकृत टोकासे हो जाता हूँ । टीका इस प्रकार है"तत एकेषामपि गति स्थितिदर्शनादनुमीयते न तौ तयोर्मुख्यहेतु । किन्तु व्यव हारव्यवस्थापितो उदासीनौ ।
इस कारण एकके ही गति और स्थिति देखने में आती है, इसलिए अनुमान होता है कि वे गतिस्थिति के मुख्य हेतु नहीं हैं । किन्तु व्यवहारमय द्वारा स्थापित उदासीन हेतु हैं ।