Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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२७३
काय
जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा उत्तग्पक्षके उत्तरका उद्धरण
२३६ । प्रश्नोसर ४ की समीक्षा २७२-३०९ जीवदवाके प्रकार
२३६-२३७ । १. प्रश्नोत्तर ४ को सामान्य समीक्षा २७२-२७८ पुण्यभूत प्याका विशेष स्पष्टीकरण २३७ पूर्वपशके प्रश्नका उद्धरण
२७२ निश्चयधर्मरूप दयाका विशेष स्पष्टी
उत्तरपक्षके उत्तरका उद्धरण
२७२ करण
२३७-२३९ धर्मका लक्षण
२५२-२७३ ध्यवहारधर्मरूप दयाका विशेष स्पष्टीकरण २३९ जीबकी भाववती और क्रियावती शक्तियोंके ।
आध्यात्मिक धर्मका विश्लेषण सामान्य परिणमनोंका विवेचन २३९-२४,
निवचमधमकी व्याख्या
२७४ जीत्रकी क्रियावती शक्तिके प्रवृत्तिरूप परिण
व्यवहारधर्मको व्याख्या
२७४-२७५ मनोका विवेचन २४०-२४१ । प्रासंगिक स्पष्टीकरण
२७५-२७६ जीवको क्रियावती शक्तिके दया और अदया
कतिपय ज्ञातव्य विशेषताएं
२७६-२७७ रूप परिणमन क चन
पक्षकी प्राप्ति निश्चयधर्म पूर्वक व्यवहारचर्मरूप दयाका विश्लेषण और | . होती है
२७७ २४१-२४२ | जीवको निश्चयधर्मकी प्राप्ति व्यवहारधर्मआचार्य वीरसेनके वचन में 'सुह-सुद्ध-परिणा
पूर्थक होती है
२७८ मेहि पदका ग्राह्य अर्थ २४२-२४५ ६. प्रश्नोत्तर ४ के प्रथम वोरको समीक्षा २७८-२८२ प्रकृतमें कोंके आस्रय और बन्ध तथा संवर प्रश्न प्रस्तुत करने में पूर्वपक्षकी दृष्टि २७८ और निर्जरणको प्रक्रिया २४५-२४७ उत्तरपक्षके उत्तरकी समीक्षा
२७८-२८२ उपर्युक्त विवेचनका फलितार्थ २४७-२४९ ३ प्रश्नोत्तर ४ के वितीयवोरको समीक्षा २८३-२८७ २. प्रश्नोत्तर ३ के प्रथम दौरको समीक्षा २४९-२५०/ द्वितीय दौरमे पुर्वपक्ष की स्थिति प्रश्न प्रस्तुत करनेमें पूर्वपक्ष की दृष्टि २४९ | द्वितीय दौरमें उत्तरपक्षको स्थिति और उत्तरपक्षका उत्तर विसंगत भी है, अर्धसम्मत
उसकी समीक्षा
२८३-२८७ भी हैं और अनुचित भी है २४९ -३५० ४. प्रश्नोत्तर ४ के तृतीय दौरकी समीक्षा २८७-३०९ ३. प्रश्नोत्तर ३ के द्वितीय दौरकी समीक्षा २५०-२५५ / ततीव दौरमें पूर्वपक्षकी स्थिति
२८७ द्वितीय दौरमै पूर्वपक्षकी स्थिति २५०-२५१ | ततोय दोरमें उतरपक्षकी स्थिति और द्वितीय दौरमें उत्तरपक्षका प्रारम्भिक कथन
उसकी समीक्षा
२८७-२१९ और उसकी समीक्षा २५१-२५२ | निष्कर्ष
२९९-३०३ प्रकृतमें उत्तरपक्ष द्वारा प्रस्तुत आगमवचनों- जैन शासनमें नयव्यवस्थाका बाधार ३०३-३०६ पर विचार
२५२-२५५ । नयव्यवस्थाको मान्य करना अनिवार्य है ३०६ ४. प्रश्नोत्तर ३ के तृतीय वौरकी समीक्षा २५५-२७२वस्तुविज्ञानको दृष्टि से नयब्यवस्थाका रूप ३०७ तृतीय दौर में पूर्वगक्षकी स्थिति २५५-२५६ | लोकजीवनमें नयव्यवस्थाका रूप तृतीय दोरमें उत्तरपक्षका प्रारम्भिक कथन आध्यात्मिक जीवन में नयव्यवस्थाका रूप ३०७-३०८ और उसकी समीक्षा
२५६-२६० आगमद्वारा व्यवहारमयकी उपयोगिताकी ततीस दौरमें निर्दिष्ट उत्तरपक्षके आगेंके
पुष्टि
३०८-३०९ कथनोंकी समीक्षा
२६०-२७२ । मोक्षमार्गमें व्यवहारधर्मका महत्त्व