________________
१०५२
धर्मशास्त्र का इतिहास
१६९/२०, २१) ने चोरी के प्रायश्चित्त के लिए भी कही है। ब्राह्मण के सोने की चोरी में वसिष्ठ ( २०१४१), याज्ञ० ( ३।२५९), विष्णु ( ५२ १-२ ) एवं पराशर (१२।६९-७० ) ने भी कुछ ऐसे ही प्रायश्चित्त की चर्चा की है । वसिष्ठ एक महत्वपूर्ण परिवर्तन कर दिया है, यथा राजा उदुम्बर काष्ठ का बना एक हथियार चोर को दे देता है, जिससे चोर स्वयं अपने को मार डालता है ( सम्भवतः यह हथियार ताम्र का होगा, न कि लकड़ी का ) । लगता है, कालान्तर में राजा ने यह भद्दी विधि स्वयं छोड़ दी। नारद (परिशिष्ट, श्लोक ४६-४७) का कथन है कि जब चोर दौड़ता हुआ राजा के पास आता है और अपना अपराध स्वीकार कर लेता है तो राजा उसे ( गदा से प्रतीकात्मक रूप में ) छू लेता है और उसे छोड़ देता है, और चोर इस प्रकार अपराध स्वीकरण के कारण मुक्त हो जाता है। यहाँ यह स्मरणीय है कि चोर को चोरी की हुई वस्तु लौटा देनी पड़ती थी (मनु ८|४०; याज्ञ०२।३६ एवं २७०; बृहस्पति, प्रायश्चित्तप्रकरण पृ० ७७) । यदि चोर के लिए ऐसा सम्भव नहीं था तो राजा को अपनी ओर से धन देना पड़ता था, या चोरी रोकने के लिए नियुक्त किये गये राजकर्मचारियों को अपनी ओर से उतना धन देना पड़ता था ( आप० घ० सू० २।१०।२६।८ ) । और देखिए इस ग्रन्थ का खंड ३, अध्याय ५ । आगे चलकर मृत्यु दण्ड देने का कार्य चाण्डाल करने लगा था ( मनु १०/५६ एवं विष्णु १६ । ११ - वध्यघातित्वं चाण्डालानाम् ) ।
दण्ड देते समय या प्रायश्चित्त की व्यवस्था देते समय यह देख लेना पड़ता था कि जिस विषय पर विचार किया जा रहा है वह निश्चित रूप से वही होना चाहिए, यथा- दोष 'कामत:' है या 'अकामतः' अर्थात् ज्ञान में हुआ है या अनजान में; यह पहली बार हुआ है या कई बार किया गया है और दोष करते समय काल, स्थान, जाति, अवस्था (वय), योग्यता, विद्या, धन की स्थितियाँ क्या थीं। " देखिए कौटिल्य (४।१०), गीतम (१२।४८), मनु ( ७।१६ एवं ८।१२६), याज्ञ० ( ११३६८), विष्णु ० ( ५।१९४) एवं वसिष्ठ ( १९1९ ) -- दण्डों के लिए; और बौघा० घ० सू० (१1१1१६), याज्ञ० ( ३।२९३ = अत्रि २४८ = अग्नि० १७३।६), अगिरा (१४३), विश्वामित्र, वृद्ध हारीत ( ९:२९७ ) एवं व्याघ्र --- प्रायश्चित्तों के लिए। दण्ड एवं प्रायश्चित्त के इसी सम्बन्ध के कारण प्रायश्चित्ततत्त्व ने देवल को इस सिलसिले में उद्धृत कर कहा है कि यदि कोई वर्ष मर प्रायश्चित्त नहीं करता है तो उसे दूना प्रायश्चित्त करना पड़ता है। और राजा को दूना 'अर्थ- दण्ड भी देना पड़ता है; और नियम तो यह है कि दण्डों के आधार पर ही प्रायश्चित्तों की व्यवस्था करनी पड़ती है ।" प्रायश्चित्तमयूख ( पृ० १२४ - १२५ ) ने काश्यप को उद्धृत किया है जिसके अनुसार उसे प्रायश्चित्त करना पड़ता जो कूप, उद्यान, पुल, चहारदीवारी, मन्दिर, मूर्ति आदि को हानि पहुँचाता है। यहाँ विष्णु
१८. ज्ञात्वापराधं देशं च कालं बलमथापि वा । वयः कर्म च वित्तं च दण्डं दण्ड्येषु पातयेत् ॥ याज्ञ० (१ । ३६८ ) ; अनुबन्धं परिज्ञाय देशकालौ च तत्त्वतः । सारापराधौ चालोक्य दण्डं दण्ड्येषु पातयेत् ॥ मनु ( ८।१२६) । १९. यथा स्मृतिसागरे देवलः । कालातिरेके द्विगुणं प्रायश्चित्तं समाचरेत् । द्विगुणं राजदण्डं च वस्वा शुद्धिमवाप्नुयात् ॥ कालातिरेके संवत्सरातिरेके । संवत्सराभिशस्तस्य दुष्टस्य द्विगुणो बमः -- इति मनुयचन ( ८1 ३७३ ) संवत्सरात्परतो द्विगुणदण्डदर्शनेन दण्डवत्प्रायश्चित्तानि भवन्तीति न्यायेन एकत्र निर्णीतः शास्त्रार्यो बाधकमन्तरेणान्यत्रापि तथेति न्यायाच्च । प्राय० तत्त्व पृ० ४७४; और देखिए इसी न्याय के लिए यही ग्रन्थ पृ० ५३० । 'अथ मण्डपोद्यानाविदेवतागारादि - भेदने काश्यपः । वापीकूपारामसेतुलतातडागयप्रदेवतायतनभेदने प्रायश्चित्तम् । ... ब्राह्मणान्भोजयेत् । इति । एतच्चाल्पोपघाते । महदुपघातेऽभ्यासे प्राजापत्यादि कल्पनीयम् । देवता चात्र मुन्मयी पूजोज्झिता च ग्राह्या । प्रायश्चित्तस्याल्पत्वादन्यत्र दण्डगौरवदर्शनेन प्रायश्चित्तगौरवं कल्प्यं दण्डवत्प्रायश्वितानि भवन्तीति वचनात् । तथात्र दण्डगौरवमाह कात्यायनः । विष्णुरपि मनुः इति ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org