________________
१०५०
धर्मशास्त्र का इतिहास बना दे।" इससे प्रकट होता है कि राजा प्रायश्चित्तों के सम्पादन में सहायता करता था। नारद (प्रकीर्णक, श्लोक ३) ने प्रायश्चित्त की उपेक्षा को उन विषयों में रखा है जो केवल राजा पर ही आश्रित हैं, न कि व्यक्तिगत रूप से लोगों द्वारा उपस्थित किये गये अभियोगों या प्रतिवेदनों पर। देवल का कथन है-"राजा कृच्छों का दाता है (अर्थात् व्यवस्थित प्रायश्चित्तों के वास्तविक सम्पादन में उसकी सम्मति आवश्यक है), विद्वान् धर्मपाठक (धर्मशास्त्रज्ञ) प्रायश्चित्तों के व्यवस्थापक हैं,पापी प्रायश्चित्त-सम्पादन करता है और राजकर्मचारी प्रायश्चित्त-सम्पादन की देख-रेख करनेवाला है।" पराशर (८१२८) का कथन है-"राजा की अनुमति ले लेने के उपरान्त परिषद् को उचित प्रायश्चित्त का निर्देश करना चाहिए, बिना राजा को बतलाये निर्देश स्वयं नहीं करना चाहिए, किन्तु हलका प्रायश्चित्त बिना राजा को सूचित किये भी कराया जा सकता है।" परा० मा० (२, भाग १, पृ० २३२) ने व्याख्या की है कि ऐसी व्यवस्था केवल गोवध जैसे पापों या उससे बड़े पापों के लिए ही है। देवल के भी ऐसे ही वचन हैं (परा० मा० २, भाग १, पृ. २३२-२३३; प्राय० सा०, पृ० २१)। पराशर (८।२९) का कथन है कि राजा को भी परिषद् की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए और न अपनी ओर से प्रायश्चित्त-व्यवस्था करनी चाहिए। पैठीनसि (दण्डविवेक, पृ०७६) ने प्रायश्चित्त एवं दण्ड दोनों की व्यवस्था दी है और श्लोक के ढंग या गठन से झलकता है कि दोनों राजा द्वारा आज्ञापित होते थे।" इस प्रकार मध्यकाल की स्थिति कुछ सीमा तक स्पष्ट है।
दण्ड एवं प्रायश्चित्त के सम्बन्ध में एवं इन दोनों के लिए राजा की स्थिति के विषय में प्राचीन काल में जो कुछ कहा गया है उसके आधार पर कुछ निश्चित रूप से स्पष्ट नहीं कहा जा सकता। आप० घ० सू० (१।९।२४११-४) का कथन है कि क्षत्रिय या वैश्य या शुद्र की हत्या करनेवाले को वैर मिटाने के लिए क्रम से एक सहस्र, एक शत एवं दस गायें देनी चाहिए और इनमें से प्रत्येक दुष्कृत्य के प्रायश्चित्त के लिए एक बैल देना चाहिए। लेकिन ये गायें किसको दी जायेंगी, इस विषय में कोई स्पष्ट उक्ति नहीं है। टीकाकार हरदत्त ने लिखा है कि ये गायें ब्राह्मणों को दी जानी चाहिए। मनु (११११२७, १२९, १३०) एवं याज्ञ० (३।२६६-२६७) ने भी प्रायश्चित्तों के अध्याय में ऐसी व्यवस्थाएं दी हैं। किन्तु बौधा० ध० सू० (१।१०।२३) ने स्पष्ट रूप से कहा है कि गायें राजा को दी जानी चाहिए। सम्भवतः आपस्तम्ब के कहने का भी यही तात्पर्य था। राजा इन गायों को मृत व्यक्तियों के कुल को दे देता था, किन्तु यदि मृत के कुल के सदस्य अस्वीकार करते थे तो वह उन्हें अपने पास न रखकर ब्राह्मणों में बांट देता था। मनु (९॥ २४३-२४५) का कथन है कि हत्यारों के दण्ड से प्राप्त धन राजा को नहीं लेना चाहिए, प्रत्युत उसे वरुण के लिए जल में छोड़ देना चाहिए या विद्वान् ब्राह्मणों में बाँट देना चाहिए। मनु (९।२२६) का कथन है कि यदि चार महापातकों (ब्रह्महत्या आदि) के अपराधी उचित प्रायश्चित्त न करें तो राजा को उन्हें शारीरिक दण्ड (मस्तक पर दाग लगाने का दण्ड) देना चाहिए और शास्त्र के अनुसार अर्थ-दण्ड भी देना चाहिए। मनु (९।२३७ मत्स्य० २२७।१६४) एवं वसिष्ठ (५।४-७) का कहना है कि व्यभिचार, सुरापान, स्तेय एवं ब्राह्मण-हत्या के लिए क्रम से स्त्री के गुप्तांगों,
१६. कृच्छाणां दायको (दापको ५१) राजा निर्देष्टा धर्मपाठकः। अपराधी प्रयोक्ता च रक्षिता कृच्छपालकः॥ देवल (मदनपारिजात पृ० २७७); प्राय० सा०, ५० ८। राजश्चानुमते स्थित्वा प्रायश्चित्तं विनिर्दिशेत् । स्वयमेव न कर्तव्यं कर्तव्या स्वल्पनिष्कृतिः॥पराशर (८१२८)। इस पर पराशरमाधवीय का वचन है-"अत्र गोवधस्य प्रकृतत्वात्तमारभ्याधिकेषु राजानुजयव व्रतं निदिशेत् ।
१७. अकार्यकारिणामेषां प्रायश्चित्तं तु कल्पयेत् । यथाशक्त्यनुरूपं च दण्डं चैषां प्रकल्पयेत् ।। पंठीनसि (दण्डविवेक, पृ० ७६)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org