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अपराधों के अनुसार दण्ड का विचार
१०५१ शौडिक (कलवार) के ध्वज, कुत्ते एवं मुखविहीन शुण्ड (सूंड) के चिह्न दाग देने चाहिए। यदि किसी भी जाति का कोई व्यक्ति अनजान में किये गये पापों के कारण महापातकी हो और उसने उचित प्रायश्चित्त कर लिया हो तो राजा द्वारा उसके मस्तक पर दाग नहीं लगाना चाहिए, प्रत्युत भारी अर्थ-दण्ड देना चाहिए (मनु ९।२४०)। मनु (९। २४१-२४२) ने व्यवस्था दी है कि यदि अनजान में किसी ब्राह्मण ने महापातक कर दिया हो तो उसे मध्यम प्रकार का दण्ड मिलता है (यदि वह सदाचारी हो), किन्तु यदि किसी ब्राह्मण ने जान-बूझकर कोई महापाप किया हो तो उसे उसकी सम्पत्ति के साथ देश-निष्कासन का दण्ड देना चाहिए ; किन्तु यदि किसी अन्य जाति के व्यक्ति ने अनजान में महापातक किया हो तो उसकी सम्पूर्ण सम्पत्ति छीन ली जानी चाहिए और जब उसने जान-बूझकर महापाप किया हो तो उसे मत्य-दण्ड देना चाहिए। इन बातों से प्रकट होता है कि प्रायश्चित्त कर लेने पर भी महापातकी को दण्डित होना पड़ता था और यदि उसने प्रायश्चित्त न किया हो तो उसे चिन्ह लगाने, अर्थ-दण्ड आदि के दण्ड भुगतने पड़ते थे।
मनु (१११५६) के मत से कूटसाक्ष्य (झूठी गवाही) सुरापान के समान है और मनु (१११५७) एवं याज्ञ० (३१२३०) के अनुसार धरोहर को हड़प जाना सोने की चोरी के समान है। विष्णु (५।१६९) के मत से धरोहर हड़प कर जानेवाले को धन लौटाना पड़ता है या ब्याज के साथ उसका मूल्य देना पड़ता है और साथ ही साथ उसे चोरी करने का दण्ड (राजा द्वारा) प्राप्त होता है; झूठा साक्ष्य देनेवाले की सारी सम्पत्ति छीन ली जाती है (५।१७९) । इन उदाहरणों से व्यक्त होता है कि महापातकियों को राज-दण्ड एवं परिषद्-दण्ड (विद्वान् लोगों की परिषद् द्वारा व्यवस्थापित प्रायश्चित्त) दोनों भुगतने पड़ते थे। इस प्रकार महापातक राजापराधों में भी गिने जाते थे। कुछ विषयों में प्रायश्चित्त एवं दण्ड बराबर ही थे। उदाहरणार्थ, गौ० (२३।१०-११), वसिष्ठ (२०।१३), मनु (११।१०४), याज्ञ० (३।२५९) आदि स्मृतिकारों ने व्यभिचार (माता, बहिन, पुत्रवधू आदि के साथ व्यभिचार) के लिए अण्डकोश एवं लिंग काट लिये जाने एवं दक्षिण या दक्षिण-पश्चिम दिशा में तब तक चलते जाने के प्रायश्चित्त की व्यवस्था दी है जब तक व्यक्ति का शरीर गिर न पड़े। नारद ने व्यभिचार के लिए अण्डकोश काट लेने की व्यवस्था दी है। मिता. (याज्ञ० २।२३३) ने नारद को उद्धृत कर कहा है कि याज्ञ० द्वारा अण्डकोश एवं लिंग काट लेने की व्यवस्था केवल अब्राह्मणों के लिए है, और ऐसे विषयों में मृत्यु-दण्ड ही प्रायश्चित्त है। मनु (१११००) ने कहा है कि ब्राह्मण के सोने की चोरी करनेवाले ब्राह्मण को राजा के पास स्वय हाथ में लोहे की गदा लेकर जाना चाहिए, जिससे राजा स्वयं उसका सिर कुचल डाले। ऐसा करना प्रायश्चित्त ही है। अतः मदनपारिजात (पृ० ८२७) एवं मिताक्षरा के अनुसार ब्राह्मणों के लिए शरीर-दण्ड केवल उन्हीं बातों में (मनु ८।३८०) वर्जित है जो प्रायश्चित्त करने से भिन्न हैं, जैसा कि मनु (११।१००) के उपर्युक्त कथन से स्वतः सिद्ध है। कुछ बातों में राज-दण्ड ही पर्याप्त समझा जाता था और प्रायश्चित्त की आवश्यकता नहीं मानी जाती थी (मनु ८।३१८ वसिष्ठ १९।४५)। आप० ध० सू० (२।१०।२७।१५. १६) का कथन है कि नरहत्या, स्तेय एवं भूम्यादान (बलपूर्वक भूमि छीन लेने) के अपराधी की सम्पत्ति राजा
जानी चाहिए और उसे मत्थ-दण्ड मिलना चाहिए, किन्तु यदि वह अपराधी ब्राह्मण हो तो उसकी आँखें जीवन भर के लिए बाँध दी जानी चाहिए (अर्थात् उसे मृत्यु-दण्ड नहीं मिलता)। आप० ध० सू० (१।९।२५।४) के अनुसार, लगता है, प्राचीन काल में चोर राजा के पास लोहे या खदिर काष्ठ की गदा लेकर पहुँचता अपराध की घोषणा करता था, तब राजा उसे उसी गदा से मार देता था; इस प्रकार मरने से वह पाप से मुक्त था। यह प्रायश्चित्त एवं वैधानिक दण्ड दोनों था। इसी प्रकार मन (८३१४-३१५) ने भी कहा है-"चोर को कोई मुसल या गदा (खदिर की बनी) या दुधारी शक्ति (एक प्रकार की बों) या लोहदण्ड लेकर राजा के पास जाना चाहिए और यदि राजा के एक बार मारने से वह मृत हो जाय या अर्धमृत होकर जीता रहे तो वह चोरी के अपराध से मुक्त हो जाता है। और देखिए मिताक्षरा एवं शंख (याज्ञ० २।२५७) । यही बात मनु (११।१००-१०१-अग्नि
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