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चौथा व्रत का अतिचार
क्योंकि उक्त समय तक दूसरे ने वेतन से रखी हुई होने के कारण परदारा है और मैं तो वेश्या ही का सेवन करता हूँ- परस्त्री सेवन नहीं करता, इस प्रकार सेवन करने वाले की कल्पनानुसार वह वेश्या है जिससे ।
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अपरिगृहीत याने अनाथ स्त्री उसका गमन अतिचार है, क्योंकि -लोक में वह पर स्त्री मानी जाती है और सेवन करने वाले की कल्पना में उसका स्वामी न होने से वह परद्वारा नहीं है ।
ये दोनों अतिचार स्वदार संतोषी को संभव नहीं क्योंकिस्वद्वारा के अतिरिक्त समस्त स्त्रियों का उसने त्याग किया हुआ है, अतः उसको ऐसी स्त्रियों के साथ गमन करने से तो व्रत भंग ही लगता है ।
अनंग याने काम, उसको जगाने वाली क्रीड़ा यथा-- ओष्ट काटना, आलिंगन करना, स्तन दाबना आदि ऐसे काम का मैंने त्याग कहाँ किया है, यह सोचकर पर स्त्री के साथ उनके करने से परदारावर्जक तथा स्वदार संतोषी इन दोनों को यह अतिचार लगता है ।
इसी विचार से स्त्री पर पुरुष के साथ वैसे काम करे तो वह अतिचार होता है ।
पर याने अपनी संतान के अतिरिक्त दूसरे । उनको कन्या देने का फल प्राप्त करने के हेतु वा स्नेह के कारण विवाह विधान कराना सो पर विवाह करण । परदारवर्जक और स्वदार संतुष्ट पुरुष और स्वपति संतुष्ट स्त्री. इन तीनों को अतिचार संभव है क्योंकि जब परदारा के साथ मैथुन न करू' और न कराऊं ऐसा अभिग्रह लिया है तब पर विवाह करते परमार्थ से मैथुन ही