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चौथा व्रत का वर्णन और अतिचार
है । इस भांति अपनी कल्पना रहती है जिस रूप माना जाता है ।
इस प्रकार अतिचार सहित तीसरा अणुव्रत कहा | अब परदार विरमण स्वदार संतोष रूप चौथा अणुव्रत कहते हैं :
वहाँ पर याने अपने सिवाय पुरुष तथा मनुष्य जाति की अपेक्षा से देव, तियंच-उनकी द्वारा याने विवाहित वा संगृहीत स्त्रियां, देवियां, तियंचनियां सो परदारा उनका विरमण याने वर्जन.
यद्यपि अपरिगृहीत देवियों तथा तियंचनियों का कोई संगृह करने वाला या विवाह करने वाला न होने से वे वेश्या समान ही मानी जाती हैं तथापि वे परजाति को भोगने के योग्य होने से परद्वारा ही समझकर वर्जनीय है ।
तथा स्वद्वारा द्वारा संतोष याने कि परदारा के समान वेश्या का भी वर्ज़न करके अपनी स्त्रियों से ही कोई संतुष्ट रहे सो स्वदार संतोष ।
उपलक्षण से स्त्रियों ने अपने पति के अतिरिक्त सामान्यतः पुरुषमात्र का वर्जन करना, यह भी जान लेना चाहिये । यहां भी पांच अतिचार वर्जनीय है यथाइत्वरपरिगृहीतागमन, अपरिगृहीतागमन, परविवाहकरण और काम में तीव्राभिलाष ।
. इनका इस प्रकार विषय विभाग है:
परदारवर्जक को पांच अतिचार होते हैं और स्वदार संतोषी को तीन अतिचार होते हैं, वैसे ही स्त्री को भी तीन अथवा पाँच अतिचार भंग की विकल्पना करके समझ लेना चाहिये ।
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अनंगक्रीड़ा,
वहां इत्र याने थोड़े समय तक परिगृहीत याने किसी की रखी हुई वेश्या -- उसका गमन सो परदारवर्जक को अतिचार है