Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि०सं० ३७०-४०० वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
"पण सयरी वासाई तिन्निसया समन्नियाई अक्कमिउं । विक्कम कालाउतओ वल्लभी भंगो सम्प्पन्नौ || "
इसी प्रकार आचार्य धन्नेश्वरसूरि ने शत्रुञ्जय महात्म में भी वि० सं० ३७५ में वल्लभी का भंग हुआ लिखा है तथा भारत भ्रमन करने वाला डाँ० टाँड सावने राजपूताने का इतिहास नामक पुस्तक में लिखा है कि बल्लभी सं० २०५ ( वि० सं० ५८० ) में बल्लभी का भंग हुआ तब कई लोगों का अनुमान है कि वल्लभी का भंग विक्रम की आठवीं शताब्दी में हुआ होगा । उपरोक्त मान्यता का समय अलग अलग होने पर भी बल्लभी के भंग के समय वहाँ का राजा शिलादिल्य का शासन होना सब लेखक मानते हैं इसका कारण यह है कि वल्लभी के शासनकर्त्ताओं में शिलादित्य नाम के बहुत से राजा हो गये हैं अतः उपरोक्त संवत् में शिलादित्य राजा माना गया हो तो कोई विरोध की बात नहीं है ।
जैनमन्कारों के लेखानुसार यदि वल्लभी भंग का समय वि० सं० ३७५ का माना जाय तो इस समय के पश्चात् भी वल्लभी में अनेक घटनाएं घटी के उल्लेख मिलते हैं जैसे आचार्य जिनानन्द का वल्लभी में ठहरना दुर्लभादेवी और उनके जिनयश, यक्ष, और मल्ल एवं तीन पुत्रों को दीक्षा देना । श्राचार्य मल्लवादी ने वोधों को पराजय करना तथा श्रीदेवऋद्धिगणि क्षमाश्रमण ने वल्लभी में जैनागमों को पुस्तकारूढ़ करना और उनके गच्छाचार्यों का वल्लभी में वारम्वार जाना आना एवं चतुर्मास करना और अनेक भावुकों को दीक्षा देना इत्यादि वल्लभी के श्रास्तित्व के प्रमाण मिलते हैं अतः इस समय के बाद वल्लभी का भंग हुआ मानना चाहिये ?
उपरोक्त सवाल वि० सं० ३७५ में वल्लभी का भंग मानने में कुच्छ भी वाधा नहीं कर सकता हैं कारण वल्लभी का भंग होने से यह तो कदापि नहीं समझा जा सकता है कि वल्लभी के मकानादि तमाम इमारतें ही नष्ट हो गई थी भंग का मतलब तो इतना है कि म्लेच्छ लोगों ने वल्लभी पर आक्रमण कर वहां का धन माल लूटा एवं वहाँ का राजा भाग गया | वाद फिर से वल्लभी को श्रावाद करदी और वह आज भी विद्यमान है जो 'वला' के नाम से प्रसिद्ध है । जैसे उज्जैन तक्षशिला को विदेशियों ने उच्छेदकर दिया था और वे पुनः आवाद हुए इसी प्रकार वल्लभो का भंग होने के बाद पुनः वहाँ पर जैनों का आगमन एवं जैनागम पुस्तकारूढ़ हुआ हो वह सर्वथ संभव हो सकता है अतः ऊपर दिये हुए जैन प्रन्थकारों के प्रमाण से वल्लभी नगरी का सबसे पहिला भंग वि० सं० ३७५ में होना युक्तियुक्त ही समझना चाहिये ।
वल्लभी नगरी का भंग किस कारण से हुआ जिसके लिये यों तो प्रवन्ध चिन्तामणि एवं शत्रुञ्जय महात्म में संक्षिप्त से लिखा है पर उपकेशगच्छ पट्टावली में इस घटना को कुछ विस्तार से लिखी है अतः पाठकों की जानकारी के लिये उस घटना को यहाँ ज्यों की त्यों उद्धृत करदी जाती है ।
पाल्हिका नगरी (पाली) में उपकेशवंशीय बलाह गौत्र के काकु और पातक नामके दो सहोदर बसते थे। साधारण स्थिति के गृहस्थ होने पर भी बड़े ही धर्मीज्ञ थे एक समय उसी पाल्हिका नगरी से बाप्पनाग गौत्रीय शाह लुगा ने श्री शत्रु जयतीर्थ की यात्रार्थ विराट्रसंघ निकाला जिसमें काकु और पलक सकुटम्ब यात्रा करने के लिये उस संघ में शामिल हो गये जब संघ यात्रा कर वापिस लौट रहा था तो वल्लभी नगरी के कई उपकेशवंशी लोगों ने काकु पातक को धर्मीष्ट जानकर वहाँ रखलिये । और आर्थिक सहायता
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[ वल्लभी नगरी का भंग को मुख्य कारण
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