________________
भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ ईशानेन्द्र का पूर्व भव
५७१
प्रविष्ट हुआ।
. भगवान् ने फरमाया कि-हे गौतम! कूटा कार शाला के दृष्टान्तानुसार, वह दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवकान्ति और दिव्य देवप्रभाव, ईशानेन्द्र के शरीर में गया, उसके शरीर में ही प्रविष्ट हुआ।
कूटाकार शाला के दृष्टान्त का आशय इस प्रकार है । जैसे—शिखर के आकार वाली कोई शाला (घर) हो और उसके पास बहुत से मनुष्य खड़े हों । इतने में बादलों की काली घटा चढ़ आई ही और वर्षा बरसने की तैयारी हो । उस काली घटा को देखते ही जैसे वे सब मनुष्य उस शाला में प्रवेश कर जाते हैं । इसी प्रकार ईशानेन्द्र की वह दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवकान्ति और दिव्य देवप्रभाव, ईशानेन्द्र के शरीर में ही प्रविष्ट हो गया।
ईशानेन्द्र का पूर्व भव
१७ प्रश्न-ईसाणेणं भंते ! देविंदेणं देवरण्णा सा दिव्वा देविड्ढी, दिव्वा देवज्जुई, दिव्वे देवाणुभागे किण्णा लदुधे, किण्णा पत्ते, किण्णा अभिसमण्णागए ? के वा एस आसी पुव्वभवे, किंणामए वा, किंगोत्ते वा, कयरंसि वा गामंसि वा नगरंसि वा, जाव सण्णिवेसंसि वा, किंवा सोचा, किं वा दचा, कि वा भोचा, किं वा किचा, किं वा समायरित्ता, कस्स वा तहारूवस्स वा समणस्सवा, माहणस्स वा अंतिए एगमवि आरियं, धम्मियं सुवयणं सोचा, निसम्म जं णं ईसाणेणं देविदेणं, देवरण्णा सा दिव्वा देविड्ढी
जाव-अभिसमण्णागया ? . १७ उत्तर-एवं खलु गोयमा ! तेणं काले णं, तेणं समए णं
गमा
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org