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अन्तिम तीव्र इच्छाएं
पाती तो न जाने कितने देशी-विदेशी इतिहासकों की ग्रहम्मन्यता धूल धूसरित हो जाती । निःसन्देह उनकी यह देन मौलिक होती धौर भारतीय इतिहास मे नये प्रध्यायों का सृजन करती ।
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उनके संगृहीत चित्रों निगेटिव्स नोट्स आदि की प्रदर्शिनी की बात भाई नीरज जैन ने की है । बाबुजी के जीवनकाल में ही यह कार्य कलकत्ता के बेलगडिया मन्दिर मे प्रारम्भ हो गया था। समूचे भारत मे हो, यह मैं भी चाहता हूँ । किन्तु प्रदर्शिनी एक प्रचार का माध्यम हो सकती है, उसे हम ठोस जमीन पर मजबूत कदम नहीं कह सकते । एक बार बाबूजी ने इस सम्बन्ध मे मुझे लिखा था कि "इस सामग्री के आवार पर ग्रंथ लिखने का विचार था किन्तु मन तबियत ही ठीक नहीं रहती। क्या किया जाये।" सामग्री इतनी अधिक है कि उस आधार पर एक दो नहीं चार ग्रथ तैयार हो सकते है । किन्तु मुझे जंन समाज मे ऐसे मनस्वी, लगनशील युवा विद्वानों का प्रभाव दिखाई देता है । कोई ठोस काम नहीं करना चाहता । सब हलके-फुलके कार्यों के द्वारा स्पाति के उत्तुगशिखर पर बैठने के अभिलाषी है। जरा सी० पी-एच० डी० ले लो तो अपने को विद्वानो का शिरमौर समझने लगे। मेरी दृष्टि मे पी एच० डी० शोध का प्रारम्भ है अन्त नही । ऐसे-ऐसे जैन ग्रंथ और जैन विषय अधूरे पड़े है, जिन पर जैन युवा विद्वानों को खप जाना होगा। यदि वे चाहते हैं कि जैनधर्म, साहित्य दर्शन और इतिहास आदि के सम्बन्ध मे व्याप्त भ्रान्त धारणाओं का पुष्ट आधार पर निराकरण हो, तो उन्हें अपना जीवन देना होगा। इससे यह विदित हो सकेगा कि भारत राष्ट्र । को जैनों को देन कितनी अमूल्य है । बा० छोटेलाल जी के समूचे कार्य ठोस थे। उनकी विद्वत्ता ठोस थी। उनकी लगनशीलता ठोस आधार पर टिकी थी। उनके द्वारा सगृहीत जैन तीर्थों की सामग्री भी ठोस है क्या कोई इतिहास और पुरातत्व से सम्बन्धित विद्वान इस कार्य में सलग्न हो सकेगा। उसे समूचे भारतीय इतिहास पर पुरातत्व का अध्ययन करना होगा। उसे परिप्रेक्ष्य में जैन इतिहास के इस पहलू के मौलिदान का मूल्यांक जब
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किया जायेगा, दो इतिहास के अनुसन्धित्यु तक अपने हो देश के एक गरिमामय दृश्य को देख प्रातितो होंगे ही, प्रसन्नता भी कम न मिलेगी।
कभी न सुनी थी।
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इसी सन्दर्भ में शिखरजी का उल्लेख अप्रासंगिक न होगा। बाबू छोटेलाल जी ने इस तीर्थ की अनेक बार यात्रा की, कभी धार्मिक दृष्टि से धीर कभी अध्ययन की हौस और सूक्ष्मान्वेषण की ललक लेकर एक बार बीरसेवा मन्दिर मे बाबू जी ने मुझे शिखर जी के विषय मे बताना प्रारम्भ किया तो प्राध घंटे तक लगातार बोलते रहे, और यदि लांसी का दौरा न पड़ता तो शायद प्राथ घण्टा हो और बोल सकते थे। मैं जैसे कोई कहानी सुन रहा हूँ। ऐसी कहानी जो सत्य की नीव पर खड़ी हो और अनुभूतियों में सजी हो। मैंने सुनाने वाला गद्गद् था और सुनने वाला भी बिना सच्चे ज्ञान के ऐसा नहीं हो पाता। विगत महीनों मे शिखर जी को लेकर जो दुखद घटनाएँ पटित हुई, उनसे उन तथाकथित प्रयासों पर जबरदस्त प्राघात पहुँचा ओ दिगम्बर और श्वेताम्बर एकता के सन्दर्भ में रखे जा रहे थे। इससे बाबू छोटेलाल जी का मानस प्रपीड़ित हो उठा । उनकी यह पीड़ा समूचे दिगम्बर समाज की वेदना थी । न जाने कब नियति के किस दुदंसनीय प्रहार सं अध्यात्म का पुरातन और सजग प्रहरी दो भागों में फट गया था। आज तक कोई ऐसी दिव्यशक्ति उत्पन्न नही हुई जो इन्हें जोड़ पाती। जब जब प्रयत्न हुए हैं, कुछ-नकुछ अवरोधों ने उन्हे अवरुद्ध कर दिया है। काश ऐसा हो पाता अन्तिम दिनो में बा० छोटेलाल जी का । मस्तिष्क इस दिशा में तीव्र गति से दौड़ उठा था। उनकी भावनाए निर्मल थी, उनके विचार सुलझे हुए थे ।
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वीर-सेवा-मन्दिर की भांति ही धनेकान्त भी उन्हें अत्यधिक प्रिय था एक लम्बे व्यवधान के उपरान्त उन्होंने सन् १९६२ में अनेकान्त के पुनः संचालन और प्रकारे का बीड़ा उठाया। उस समय उनका शरीर भले ही जज हो गया हो, किन्तु मन पहले जैसा ही मजबूत और पक्का विचार था कि
दर्द था। कुछ लोगों का