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अनेकान्त २४ परा। यह सब कार्य उन्होंने नितांत अकेले किया था। १९६१ के जून में उन्होंने मुझ से वीर-सेवा मन्दिर को किसी क्लर्क की भी सहायता न ली। वे अपनी देख-रेख एक 'Research Institute' बनाने के सम्बन्ध मे बातें में उसे एक सुव्यवस्थित रूप देना चाहते थे। कोई अंग्रेजी की थी। मुझसे एक रूपरेखा तैयार करवाई थी। मैंने भाषा का ऐसा जानकार चाहिए था, जो बाबूजी का दिल्ली विश्वविद्यालय के कतिपय मूर्धन्य विद्वानों के लिखा पढ़ सकता और उनके आदेशानुसार कार्य कर परामर्श के साथ एक रूपरेखा बनाकर बाबूजी को दे दी सकता । उन्होने मुझे लिखा कि ऐसा आदमी तलाश थी। कुछ दिनो बाद बाबूजीने मुझे बताया कि वीर-सेवा करूं। १५०) रु. पर कोई व्यक्ति कलकत्ता जाकर रहने मन्दिर को पार्श्वनाथ विद्याश्रम-जैसा रूप दिया जा सकता को तैयार नही हुया। उधर उनका स्वास्थ्य निरन्तर है । धनाभाव के कारण पूर्ण रूपरेखा' न खप बिगड़ता गया। वे स्वय ध्यान भी न दे सके। उन्होंने पायेगी। यदि अब खप सके तो वीर-सेवा-मन्दिर एक अन्त में मुझे बेचैनी के साथ लिखा कि यह कार्य पूरा हो, ख्याति प्राप्त शोध सस्शन के रूप में शीघ्राति शीघ्र ऐसा मैं चाहता हूँ। कतिपय दिनो बाद उनके निधन का परिणत किया जा सकता है। किसी-न-किसी विश्वविद्यासमाचार मिला।
लय से सम्बद्ध भी हो सकता है। विश्वविद्यालय जो
शर्ते रखते है, वह वीर-सेवा-मन्दिर में पहले से ही हैं। यदि बाबुजी उसका कोई प्रबन्ध कर गये हो, तब ,
सम्बद्ध होने के पश्चात् उसे 'यूनीवर्सिटी ग्रान्ट्स कमीशन तो ठीक है, अन्यथा उनके भाई नन्दलाल जी उसके । प्रकाशन का प्रबन्ध अवश्य करे। बाबजी की प्रात्मा को
से लाखों रुपया अनुदान के रूप मे मिल सकता है। यदि इससे शान्ति प्राप्त होगी। बाबजी ने मुझे विदेशी विद्वानो
ऐसा हो सका तो स्वर्गीय बाबजी की प्रात्मा को शान्ति के वे पत्र दिखाये थे, जिनमें उन्होंने इस प्रथ के शीघ्र
प्राप्त होगी। केवल किसी एक के कदम उठाने की मावप्रकाशित होने की प्रतीक्षा की थी। बाबूजी चाहते थे कि
श्यकता है । श्रीमान साहजी बाब छोटेलालजी के अभिन्न विगत 'International oriental conference' के समय
थे । यदि वे चाहे तो वीर-सेवा-मन्दिर को सहायता देकर यह प्रय प्रकाश में प्रा जाये। दिल्ली से कलकत्ता जाने मेरे उपर्युक्त सुझाव को पूरा कर सकते है। का उनका एक उद्देश्य यह भी था। जाते समय उन्होंने मुझसे कहा था कि वहा बैठकर मैं सबसे पहले 'Jain
सभी को विदित है कि बाबू छोटेलाल जी भारतीय vibliography' का काम पूरा करूँगा। वे न कर सके,
पुरातत्व के विशेषज्ञ थे। गुफा, चैत्य, मन्दिर, मूर्ति, स्वास्थ्य ने साथ नहीं दिया। हर इंसान की हर इच्छा
स्तम्भ, शिलालेखों के सम्बन्ध में उनका ज्ञान अप्रतिम पूरी नहीं होती। उनका अधूरा यह महत्वपूर्ण कार्य,
था। भारत के तीन प्रसिद्ध पुरातत्वज्ञ श्री टी० रामचन्द्रन, यदि अब भी पूरा हो सके, तो जैन साहित्य गौरवान्वित
डा. शिवराम मूर्ति और डा. मोतीचन्द्र जैन उनके ही होगा। वीर-सेवा-मन्दिर इस कार्य को अपने कार ले तो वह बाबूजी के प्रति एक सही श्रद्धांजलि होगी।
अनन्य भक्त थे। मैंने उन्हें पुरातात्विक समस्यामी के
सन्दर्भ में बाबूजी से परामर्श करते देखा है। बाबूजीको जनकी दूसरी प्रबल इच्छा थी-वीर-सेवा-मन्दिर के भारत के जैन तीर्थ क्षेत्रो की ऐतिहासिक और पुरातात्विक काम को ठीक करने को। वीर-सेवा-मन्दिर उन्हें अपने जानकारी की थी। यह केवल प्राचीन जैन ग्रन्थो पर जीवन से भी अधिक ग्यारा था। कुछ उलझने थी, कुछ प्राधत नहीं थी, अपितु उन्होने स्वयं यात्राएं की थी, और विवशताएं थी, उन्हे बेचन किये रहती थीं। किन्तु इधर तीयों के प्रत्येक पुरातात्विक स्थल के चित्र लिये थे, फिर वर्ष-दो वर्ष मे परिस्थितियां तेजी से बदली थी। अब इनका टेक्नीकल ज्ञान के आधार पर अध्ययन किया था। उन्हें पूर्ण विश्वास हो गया था कि यदि वे एक बार प्रतः उनकी यह जानकारी जितनी प्रामाणिक थी उतनी दिल्ली पा सकें तो सब कुछ ठीक हो जायगा। सन् ही गौरवपूर्ण भी। यदि वह एक अन्यके रूपमें संजोयी जा