Book Title: Agam Sagar Kosh Part 04
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 35
________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] नटविशेषः। बृह. १०६ आ। कर्मभूमिविशेषः। प्रश्न. भग० २७५ ९६। वर्ष-विशेषः। प्रज्ञा०७३। उत्त० ५०४। भग० ३०५। भरिज्जइ-भियते। आव. २१८ उत्त०६२४। अधर्मकारिनिग्रहकृत्राजा। भरिम- यद् ग्रन्थितं सद् वेष्ट्यते यथा पुष्पलम्बूसको अनमत्पार्थिवनमयिता। उत्त० ३१३| चक्रवर्ती गण्डूक इत्यर्थः। जीवा० २५३। मूच्र्छारहितत्वे दृष्टान्तः। प्रज्ञा. २० नन्दी० २१८ | भरिली- भरिलिः-चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः। प्रज्ञा० ४२। नटविशेषः। नन्दी०१४५। रामस्य मात्रान्तरसंबन्धी । जीवा० ३२॥ भ्राता। ८७ भग० ५८६। त्यागनिरूपणे भरतः। दशवै. भरुअच्छ- भृगुकच्छः । निशी. २६७ अ। ९३। चक्रवर्ती। आव० ५८५। चक्रवर्ती। आचा०८1 भरुकच्छ- जलस्थलनिर्गमप्रवेशपतनम्। व्यव० १६८ अ। भरतचक्रवर्ति- प्रथमश्चक्रवर्ती। बृह. ११० आ। भृगुकच्छ नगरविशेषः। आव० ४११| भरतादयः- पूर्वापरव्यवहारी। नन्दी० २१८ भरुकच्छाहरणी- भृगकच्छहरणी। आव०६६५१ भरद्दाओ- भारद्वाजः ब्राह्मणः, अग्निभूतिजीवः। आव० भरुयकच्छ- भृगुकच्छः । आव० ४११। १७२ भरुयच्छ- भृगुकच्छः । आव० ८९। जनपदविशेषः। नरभरनित्थरणसमत्थो- अतिगुरुकार्यं दुर्निर्वहत्वाद्धर इव वहापनगरी। बृह. २७ आ। नगरीविशेषः। बृह. २६७ अ। भरस्तन्निस्तरणे समर्थः भरनिस्तरणसमर्थः। आव. द्रव्यप्रणिधौ नगरम्। आव०७१२, ७१३। लवालवोदाहरणे ४२३ नगरम्। आव०७२१। भरुयच्छं-भरुक-च्छनयरं भरवह- भारवहा-पोट्टलिकावाहिका। बृह. १२५ अ। नरवाहनराजधानि। व्यव. २२७ आ। पोट्टलिकसार्थः। बृह. १२५अ। भरुयत्थ-नयरे। व्यव० २८० आ। भरह- भरतः प्रथमचक्रवत्ती। नरवरेन्द्रः आव०१५९ भरू-म्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा० ५५ ओघ० १७९। भरतः-आभ्यन्तरे प्रविष्टस्य भरेइ- पूरयति। ज्ञाता०८1 बाह्यकरणरहितस्यापि केवलज्ञानोत्पत्तौ दृष्टान्तः। | भलण-न भेतव्यं भवता अहमेव तद्विषये आव० ५२९। भरतः-रोहकः। आव०४१६ भलिष्यामीत्यादि-वाक्यैश्चोर्यविषयं प्रोत्साहनं प्रथमश्चक्रवर्ती। सम० १५२भरतः-आरा-धनाविषये भलनम्। प्रश्न. ५८१ विनीतानगर्यां राजा। आव०७२४। आत्माभि-षिक्तो भलिस्सामि- मेलयिष्यामि-मिलिष्यामि। आव० ३९४, भरतश्चक्रवर्ती। व्यव. १२९ आ। बृह. २५५अ। ४३१| निशी. २३आ। निशी. २७०| भरतः-चक्रवर्तिविशेषः। | भल्ल-भल्लः-व्याघ्रविशेषः। प्रश्न.७१ उत्त० ४४८१ स्था० ४३३। भरतः-आगामिकाले भरतक्षेत्रे भल्लओ- भल्लः । आव. २०७१ प्रथमश्चक्रवर्ती। सम.१५४१ भरतः-चक्रवर्ती राजा।। भल्लि-शस्त्रविशेषः। जीवा. १९३। उत्त० ५८२। कर्मभूमिविशेषः। स्था०६८। भरतः- भल्ली-शस्त्रविशेषः। नन्दी०१५२ निशी० ८ आ, ११७ अधःस्थानप्रतिपत्तौ सिद्धः। बृह. १६ आ भरतः । कर्मभूमिविशेषः। प्रज्ञा० ५५ भल्लंकी- वनजीवः। मरण | भरहकूड- भरताधिपदेवकूटम्। जम्बू० २९६। भवंति- भवन्ति-भ्रमन्ति वा। दशवै०७२ भरहजंबु-भरतजम्बुः । दशवै० २३॥ भव-स्वभवे स्थितिः भवजीवितम्। आव०४८०। भवः भरहदारओ-भरतदारकः-रोहकः। आव ४१६। कर्मसम्पर्कजनितो नैरयिकत्वादिकः पर्यायः। भवन्ति भरहराय- भरतराजः-साधनां भक्तेन निमन्त्रणकर्ता कर्मवशवर्तिनः प्राणिनोऽस्मिन्निति भवः। प्रज्ञा० चक्री। बृह० ५२ । ३२८। संसारो मनुष्यभवो वा। आव० ४४४। भवःभरा-भरा-यवसादिसमूहः। पिण्ड० ३६ नारकादि जन्म। प्रज्ञा० ५३९। नन्दी० ११२भवग्रहणंभरिए- भरितः-हस्तपाशितः। विपा० ५९। भरितः भृतः। । सर्वबन्ध-शाटयोरन्तरकालः। आव० ४६०। ईशानकल्पे मनि दीपरत्नसागरजी रचित [35] "आगम-सागर-कोषः" [४]

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