Book Title: Agam Sagar Kosh Part 04
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 34
________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] भयंतार- भवन्तः-पूज्याः। आचा० ३३५। भयस्य त्रातारः। भयङ्करभयम्। जम्बू. १४३। भयेन भैरवाः सूत्र. २७१। भगवन्तः -साधवः। आचा० ३५८, ३६६। अत्यन्तसाध्वसोत्पादका भय-भैरवाः। उत्त०४१९। भय- मोहनीयप्रकृतिसमुत्थ आत्मपरिणामः। स्था० ३८९| | भयमाण-भज्जमानं-सेव्यमानम्। ज्ञाता०२३४। दुःखम्। उत्त. ३१८ प्रज्ञा०८१। परेषां भयोत्पादनम्। भयमाणा- भयमानाः रात्रिजागरणात्तदुपासनां प्रश्न. ३० भेदो। निशी० ७५अ। अपायोदवेगित्वं विदधानाः। स्था० ३४३। संकत्ति। निशी. ७५ अ। अपायोवेगित्वं संकत्ति। भयमोहणिज्ज- यदुदयवशात् सनिमित्तमनिमित्तं वा निशी. ९९ अ। निशी. २६३ । भयं-आकस्मि-कम्। तथारूप-स्वसङ्कल्पतो बिभेति तद भयमोहनीयम्। जम्बू. १४३। भीतिः नृपचौरादिभ्यः। स्था० ४८४। प्रज्ञा०४६९। भीतिमात्रम्। ज्ञाता० ३६। सिंहादिभयः। भग० ९१९। भयवं-भगवान् माहात्म्यवन्। उत्त० ४८३। भगो-बुद्धिर्यभयं-इहलोकादिभेदात्सप्तप्रकारम्। प्रज्ञा० ३। भयात् स्यास्तीति। भगवान्। उत्त० ३०६| धैर्यवान् श्रुतवान् यद्दानं तत् भयदानं, भयनिमित्तत्वाद्वा दानमपि वा। उत्त०३०७ भयमुपचारा-दिति। स्था० ४९६। भयसञ्जा- भयवेदनीयोदयजनितत्रासपरिणामरूपा। भयए- भृतकः-कर्मकरः। पिण्ड० ११०, १६२। भृतकः- जीवा० १५१ वेतनेनोदकाद्यानयनविधायी। सूत्र० ३३१| भयसन्ना- भयवेदनीयोदयाद भयोदभ्रान्तस्य भयक- भृतकः-भक्तदानादिना पोषितः। प्रश्न. ३८१ दृष्टिवदनविकार-रोमाञ्चोढ़ेदादिक्रिया सा भयसज्ञा। भयकर्म- यदुदयेन भयवर्जितस्यापि प्रज्ञा० २२२॥ जीवस्येहलोकादिस-प्तप्रकारं भयमुत्पद्यते तत्। स्था० | भयसा- यद् भयेन वन्दते तत्। कृति कर्मणि एकादशो ४६९। दोषः। माभूद गच्छादिभ्यो निर्दघाटनमिति। आव. भयग- भृतकः-कर्मकरः। प्रश्न. ९१। उत्त० २२५॥ १४४। भियते-पोष्यते स्मेति भृतः स एवानुकम्पितो भृतकः- भयाणि-राजविड़वरादिजनितानि भयानि। उत्त०४५९। कर्मकरः। स्था० २०३। भृतको-नियतकालमवधिं भयाणिया- भयमानीतं यया सा भयानीता, अथवा भयंकृत्त्वा वेतनेन कर्मकरणाय धृतः दुष्कालादौ निश्रितो __ भयहेतुत्वादनीकंवा। जम्बू० १२२ तत्पररिवारभूतमल्कास्फुलिङ्गादिसैन्यं यस्याः सा भयगत्ता- भृतकता-दुष्कालादौ पोषितता। भग. ५८१ भयनीका। भग. १७५ भयण-भज्यते सर्वत्रात्मा प्रह्वीक्रियते येन स भजन:- | भयानकः- भयजनकसङ्ग्रामादिस्तुदर्शनादिप्रभवो लोभः-सूत्र. १८० भयानको रसः। अनुयो० १३५५ । भयणा- भजना-विकल्पना। ओघ० २३, ८५ भजना- भयाली- जम्बूद्वीपस्य भरतक्षेत्रे आगामिन्यां प्ररूपणाविशेषः। आव० ३८२। भजना-विकल्पना। ओघ. चतुर्विशिकायां अष्टादशमतीर्थकरस्य पूर्वभवनाम। २३। आव० ३३५ पिण्ड० १४९। भजना-सेवना समर्थना सम० १५४ च। आव० ३३९| भयालु-भयबहुला। बृह० २३ आ। भयणिस्सिया- भयनिःसृता भर-भरः-क्षेत्राद्याश्रितराजदेयद्रव्यप्राय॑म्। विपा० ३९। यत्तस्करादिभयेनासमजसभा-षणम्। प्रज्ञा० २५६) भरः-वाढम्। नन्दी. १५३। भारा। उत्त० ५८१। भयनिसृता-मृषाभाषाभेदः। दशवै. २०९। भरए-भरकः। पिण्ड० १५४ ओघ. १५९। भरतःभयन्तारो- भक्तारो-निर्ग्रन्थप्रवचनसेवका भदन्ता वा प्रज्ञा०३०० भट्टारका भयत्रातारो वा। उपा० २९। भरगा- रूवगा। निशी. १६७ अ। भयभेरव- भैरवभया-अत्यन्तरौद्रभयजनकाः शब्दाः। | भरणी- नक्षत्रविशेषः। स्था० ७७। ज्ञाता० १५४। सूर्य. १३०| दशवै. २६७। प्राकृतत्वात्पदव्यत्यये भैरवभयं भरत- प्रामाणाङ्गलैदृष्टान्तः। ब्रह. २७६ आ। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [34] "आगम-सागर-कोषः" [४]

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