Book Title: Agam Sagar Kosh Part 04
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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आगम-सागर-कोषः (भागः-४)
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जम्बू. ३८८1 वारिषेणा-दिक्कुमारीनाम। जम्बू० ३५६। | वालग्गकोडो- वालाग्रकोटी-वालेषु विदेहनरवालाद्यपेक्षया वारी- राजबन्धनम्। मरण| हस्तिपाशविशेषः। ओघ. सूक्ष्मत्वादिलक्षणोपेततयाऽग्राणि-श्रेष्ठनि वालाग्राणि १५९
कुरुनर-रोमाणि तेषां कोट्यः-अनेकाः कोटाकोटीप्रमुखाः वारीवसभ- वारीवृषभो-प्रवहणम्। आव०७०८५
सङ्ख्याः । जम्बू० ९५ वारुण- वारेणः-वारुणसमुद्रः। जीवा० ११८ आर्द्रामूला- वालग्गपोइया- वालाग्रपोडिका-जलस्योपरिप्रासादः। दिन-क्षत्रप्रभवम्। अनुयो० २१६। वारुणः। जम्बू० ४९१| जम्बू. १२१। (देशीपदं) वलभीवाचकम्। उत्त० ३१२। वारुणि-सुविधिनाथस्य प्रथमशिष्या। सम० १५२सुरा। वालग्गपोतिआसंठिओ- वालाग्रपोतिकासंस्थितः स्था० २८८१
तडागोपरि-प्रासादसंस्थितः। जीवा. २७९। वारुणिवर- वरवारुणी। जीवा० ३५०।
वालग्गपोतिया- वालाग्रपोतिका (देशी शब्दः) सूत्र०७० वारुणी- पञ्चमी दिशा। स्था० १३३। वरुणो-देवता, वारु- वालग्रपोतिकातडागादिजलस्वोपरि प्रासादः। जीवा. णीदिग्। भग० ४९३। वापीनाम। जम्ब० २७१। उत्तररु
२७६। चकवास्तव्या चतुर्थी दिक्कुमारी महत्तरिका। जम्बू. वालग्गपोतियासंठिय- वालाग्रपोतिकाशब्दः ३९१। पश्चिमदिक्। आव० २१५) व्यक्तमाता। आव. आकाशतडागमध्ये व्यवस्थितं क्रीडास्थानं, लघुप्रासादः २५५। वारुणी-उत्तररुचकवास्तव्या दिक्कुमारी। आव. तस्या इव संस्थितं-संस्थानम्। सूत्र० ७० १२२। सुरा। आव०७९८१
वालचिय- बालचितः लोमशः। पिण्ड० १२० वारुणोद- वारुणीरसास्वादसमुद्रविशेषः। अनुयो० ९०। वालधि- पुच्छम्। उत्त०५५१ वारुणोदय- वारुणसमुद्रः। प्रज्ञा० २८१
वालपुच्छभ- चामरम्। जम्बू. ५३० वारेज्ज-विवाहः। अनुयो० १३८५
वालय- वल्कजं शणप्रभृतिः। अनुयो० ३५) वार्तिक- यदेकस्मिन् पदे यदर्थापन्नं यदर्थापन्नं तस्य वालरज्जुय- वालरज्जूकः-गवादिवालमयीरज्जुः। प्रश्न. सर्वस्यापि भाषणम्। बृह. ३२आ।
५६। वार्द्वानी- गलन्तिका। जीवा० २६६।
वालवरिस- केसवरिसं। निशी. ७० अ। वालंभा- वागलोलइया। निशी० २५४ आ।
वालवायज- वैडूर्यम्। जम्बू. १९३। वाल- व्यालः। निशी० ३२। पालः-श्वापदभुजगः। भग० | वालवी- व्यालपी-व्यालान्-भुजङ्गान् पान्तीति १२२ वालः-केशः। नन्दी० १६५ वालः-चमर्यादि-नाम। | व्यालपास्ते विद्यन्ते यस्य सः। प्रश्न० ३७। दशवै. १९३। व्यालः-श्वापदः। ज्ञाता०७८ व्यालः- वालवीअणी- वालव्यजनी-चामरम्। स्था० ३०४। श्वप्रभृतिका। व्यव० १५९ अ। दृष्टसर्पः। बृह. ५। वाला- कश्यपगोत्रे भेदः। स्था० ३९०१ व्यालः। आव० २७३। व्यालः-श्वापदभुजङ्गः। राज० २८1 | वालि-किकिन्धपुराधिपतिः। प्रश्न० ८९| व्यालः-श्वापदभुजङ्गः। ज्ञाता०१४। बवालः-केशः। | वालिय- पलोट्टतितं। निशी० १२५आ। प्रश्न० ८व्यालः-श्वापदभु-जङ्गलक्षणः। भग० ४७१। | वालिहा- वालधानो-शकपुच्छम्। ज्ञाता० ९२ व्यालः-शिरोजः। जीवा. २७४। उण्णियवासाकप्पेण | वालिहाण- वालिधानं-पुच्छम्। जम्बू० ५२९। वालिधानपाउतो अडति। निशी. ३५४ अ।
पुच्छम्। उपा० ४४| वालधानं-पुच्छम्। भग० ४५९। वालगंड- वालगण्डं-चामरम्। जम्बू. ५२९।
वालुं चिर्भटम्। अनुत्त०६, ९। वालग- व्यालः-श्वापदभजगः। जीवा. १९९। गवादिवाल
लुङ्क-खादयविशेषः। पिण्ड० १७२ धिवालनिष्पन्नचालनकः। सुघरिकागृहको वा। आव० वालुंकि- वनस्पतिविशेषः। भग० ८०४। ३४७
| वालुंकी- गुच्छाविशेषः। प्रज्ञा० २३॥ वालग्ग- वालाग्रम्। भग० २७५। वालाग्रं-कुनररोमम्। वालंडयचम्मकोस- अन्त्यजचर्मकोत्थलः। तन्दु। जम्बू०९५
| वालु- वालुः-द्वादशमपरमाधार्मिकः। सूत्र० १२४।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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"आगम-सागर-कोषः" [४]

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