Book Title: Agam Sagar Kosh Part 04
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 233
________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] वीर्याचारः। सम० १०८ वीसुंभेज्जा-विश्वरु-शरीरात् पृथग् भवे-जायेत् वीरूणी- पर्वगविशेषः। प्रज्ञा० ३३। नियेतेत्यर्थः। स्था० ३१० वीरुत्तरवडिंसग- षट्सागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। वीसु-विष्वक्-पृथक्। आचा०४०| विष्वग-भेदः। ओघ. सम. १२॥ १५ विष्वग्-पृथग्। ओघ० १९५ विष्वक्। स्था० ३३१| वीवाह-परिणयनम्। जीवा. २८१ वधूपक्षिणां विवाहः। एकाकिनो निद्रावशे सति। ओघ०७६। पृथग्-अन्यत्र व्यव० ३४२ आ। विवाहः परिणयनम्। जम्बू० १२३। वसतौ अवस्थानम्। आव० ३१०| विष्वक्-पृथग्। बृह. पाणिग्रहणम्। बृह. ४३ आ। २०२१ वीसंदति-विष्यन्दति-श्रवति। जम्ब०१००|विष्यन्दति- वीहि-वीथिः-पन्थाः। आव०४४| व्रीहिः। ओघ० १६० स्रवति। जीवा. २६६। वीथिः। उत्त. २२व्रीहिः-धान्यविशेषः। दशवै० १९३। वीसंभो- विश्रम्भः-विश्वासः। आव० ५६८१ उभयोरपि पार्श्वयोरेकैकश्रेणिभावेन यत् श्रेणिदवयं सा वीसंभघायग- | ज्ञाता० २३६) वीथी। जम्बू. २४। वीस-लोमपक्षिविशेषः। जीवा०४१। वीहिती-वीथिका-मार्गः। स्था० ३६६। वीसइम-विंशतितमः। सम० १५११ वीही-व्रीहिः-धान्यविशेषः, तृणपञ्चके द्वितीयो भेदः। वीसत्थ- विश्वस्तः-निर्भयः अन्त्स्को वा। औप० २ आव०६५२। वीथि-उभयोरपि पार्श्वयोरेकैकश्रेणिभावेन विश्वस्तः। आव० ३९४| विश्वस्तः-अप्रावृतशरीरः। बृह. यच्छ्रेणिद्वयं सा। जीवा० १८१। वीथी-मार्गः। जीवा० २०५ अ। विश्वस्तः-निरुदविग्नः। ब्रह. २९० आ। २७९| वीथ्या। आव० ३९७। व्रीहिः। सूत्र० ३०९। वीसत्था-जीतारीरायभारिया। निशी० ४२ अ। तणविशेषः। स्था० २३४। सामान्यशालिः। भग० २७४। वीसभई-विश्वभूतिः-त्रिपृष्ठवासुदेवपूर्वभवः। आव. औषधिविशेषः। प्रज्ञा० ३३ वीथी-क्षेत्रमार्गः। स्था० ४६९। १६३ वीहयण-वीजनः। आचा० ३४५) वीसरणालु-विस्मरणालुः। ओघ० १५४| वुइयं-उदितम्। आव० ३७० वीसरस्सर-अच्चायामेण रूवं तं। निशी० ७७ अ। वुक्कत-व्युत्क्रान्तः। दशवै० २०५१ वीससां-विश्रसा-स्वभावः, जरापर्यायः। भग० ५५। स्व- | वुक्कंति-व्युत्क्रान्तिः। निष्क्रमणम्। प्रज्ञा० ४४। भावः। भग. १७४| विश्रसा-स्वभावः। ज्ञाता० १७४। | वुक्कंती- व्युत्क्रान्तिः-प्रज्ञापनायां षष्ठं पदम्। जीवा. वीससेण-विश्वा-हस्तश्वरथपदातिचत्रङ्गः बलसमेता | ४०० सेना यस्य स चक्रवर्ती विश्वसेनः। सूत्र. १५०| वुक्कारेति-मुखेन बुक्कारशब्दं करोति। जीवा० २४८१ विश्वसेनः-अष्टा-दशममुहूर्त्तनाम। सूर्य १४६। | वुगाहिज्जइ- व्युद्ग्राह्यते। आव० ४३६। विश्वसेनः-अष्टादशममुहूर्त-नाम। जम्बू० ४९१। वग्गह-व्यग्रहः-मिथ्याभिनिवेशः। स्था० ३५१। विग्गहो वीसा- विस्रा। आमगन्धिका-परमदुरभिगन्धा विग्रहो वा-कलहः। अब्रह्मणो दवादशमं नाम। प्रश्न. मृतगवादिकले-वरेभ्योऽप्यतीवानिष्टदूरभिगन्धा। ६६। व्यग्रहः-विपरीतोऽभिनिवेशः। अब्रह्मणो प्रज्ञा०८० द्वादशमं नाम। प्रश्न०६६। व्यग्रहः-सङ्ग्रामः। आव० वीसास-विश्वासः-विश्रंभः। अहिंसाया एकपञ्चाशततमं ७३१। व्यग्रहः-दण्डा-दिघातजनितो विरोधः। उत्त. नाम। प्रश्र०९९ ४३५व्युद्ग्रहः-सङ्ग्रामः। दशवै २२२। विग्रहः-कलहः। वीसंकरेति-वीसंभोगं| निशी० २१८ अ। ओघ० ५६। व्यग्रहः-सङ्ग्रामः। व्यव० ६२ अ। व्य वीसुंभण्णति-वासासु अण्णं खेत्तं गच्छे वी भण्णति। ग्रहः-मिथ्याभिनिवेशः, विप्रतिपत्तिः। स्था० ३७५ निशी० ३३५आ। निशी० ७१। कलहो। निशी० ८४ अ। दंडिकः दविजो वीसुंभत-मृतः। निशी० २०९आ। वा। बृह. २४ आ। कलहो। निशी. ३५। सङ्ग्रामः। वीसुंभिओ-विष्वग्भूतः। बृह० २१२ आ। स्था० ४७७। व्युद्ग्रहः-परस्पर विग्रहः, मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [233] "आगम-सागर-कोषः" [४]

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