Book Title: Agam Sagar Kosh Part 04
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХ नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य आनन्द-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागरगूरूभ्यो REMEIN LITERALLIT IMITERREN ALLLLLITERA -IIILLITER MIRRITA IMARINEERINEERIERRITORIES TRI... 44XAXXNX.XXXAN MAIL IIEI VIRALLEL . IIEILLLLLL---- IIIIIIIIIMIRENIMIREER REEEEEELINEERIAL IIIIIIIIIIIIIIRLD IIIIIIIIIIIIIIII IIIIIIIIIIIIII. TETTERLETIMIL IIIIIIIIRLIIIRL TITT RRIERRRRENT HTTEEHEET आगम-सागर-कोष: [मूल शब्दसंकलनकर्ताः- पूज्य आगमोद्धारक आचार्यश्री आनन्दसागरसूरीश्वरजी महाराज CRIME LALI++ RE TOTREMIER TLEMIIIIRL RIIIIIIR VIIIIIINEMA RTHORITER HIMNEER LIREILLA TERRIEWARA REMIER HTTERIER TIMILLER MATTER LATED O RREILERIHITTTTT IITTTTTTTT LEARTIME PRELIERRA LEIRRRRRRRRIA TIMITTEEMA CHILLIERELLLLLA RELIERRIERRIERRIER ALLITI MERIEWERRIERRRRRRRRRRRIA IIIIIIIIIIIIIIEILLER HILLIATEL HTRAIL +ER IIIRELED HILITIES HLEELI ALLERRI.. IITTERRITO ALLLLLLLLLLLLLLLLLLLL ALLLLLLLLLLLLLLLLLLLLERS IIIIIIIIIIII RELI RETIRETTINE. TTERTILITIE (प्राकृत-संस्कृत-शब्द एवं तेषाम् ससंदर्भ-व्याख्या सह) ____कोष-रचयिता XOXO मुनिश्रीदीपरत्नसागरजी महाराज [M.com._M.Ed._Ph.D. श्रुतमहर्षि X XXXXXXX XXXXXAAAAAAAAVAVAAAAOXOXOXOXOXOX. AAVOXO XXXXXXX KARNAA MXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXNNNANNA XXXXXXXXXXX ANONAVANANOOXOXOXOXXXOXOXOXOXOXOXOXOXOX KOXXXXXXXXXXXXXXXXXWWWVVVVVVVVVVVVXOXOXOXOXO XXXXXXXXXXXXXXXXXWWWANWAAAYOOOXOXOXOXOXOXOXOXOXOXOXOXOXOXOXOXXXX XXXXXXXXXXXXXXXXXX Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] नमो नमो निम्मलदसणस्स - पूज्य आनन्द-क्षमा ललित-सुशील-सुधर्मसागरगूरूभ्यो नमः आगम-सागर-कोष:-४ [मूल शब्दसंकलनकर्ता:- पूज्य आगमोद्धारक आचार्यश्री आनन्दसागरसूरीश्वरजी ..पूज्यपाद आचार्य श्री आनन्दसागरसूरीश्वरजी महाराज.. प्राकृत-संस्कृत-शब्द एव तेषाम् ससंदर्भ-व्याख्या सह) कोष-रचयिता मुनिश्री दीपरत्नसागरजी महाराज - M.Com. M.Ed. Ph.D. श्रुतमहर्षि 12/11/2018 सोमवार, २०७५. कारतक सुद ५: Type Setting: - आशुतोष प्रिन्टर्स, जेतपुर Mobile: 9925146223 It's a Net publication of "jainelibrary.org? [North America] मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [2] "आगम-सागर-कोषः” [४] Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम-सागर- कोषः ( भाग : - ४ ) “आगम-सागर-कोषः ” विषयक किञ्चित् स्पष्टीकरण पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनन्दसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेबने अपने युगमे आगमो के बहोत से शब्दो एवं उन की व्याखाओ का चयन किया था, किन्तु ईसे शब्दकोष के रुपमे संकलन और मुद्रण पूज्य आचार्यश्री कंचनसागरसूरिजी आदिने करवाया | इस कोष का नाम ‘अल्प-परिचित-सैद्धान्ति-शब्दकोष:' रक्खा. परन्तु इसमे शब्दार्थ भी है, बहोत स्थान पर शब्दो की आगमिक व्याख्याए भी है और शब्दो के बीच अनेक स्थान पर खास नाम भी है । पूज्य गच्छाधिपति आचार्य सूर्योदयसागरसूरिजी कि सूचना एवं उनसे हुए विचार-विमर्श अनुसार हमने ईस 'कोष' के अध्ययनमे देखा की कई जगह पर सिर्फ़ शब्द है, कई जगह शब्द और संदर्भ है मगर अर्थ हि है, कई जगह पर संदर्भ के नाम है मगर पृष्ठांक नहि है तो कहीं कहीं शब्दो के अ-कारादि क्रममे गलति दिखी है । ऐसी अनेक मर्यादाओ का उल्लेख स्वयम् आचार्यश्री कंचनसागरसूरिजीने 'अल्पपरिचितसैद्धान्तिक शब्दकोष भाग -१ मे किया है | हमने इस कोष की रचना करते वक्त सिर्फ़ पूज्यपाद आनन्दसागर सूरीश्वरजी महाराज द्वारा संचित शब्दो एवं व्याख्याओ को ध्यानमे ले कर ईस 'कोष' की रचना की है । रचना करते वक्त विशेषावश्यकभाष्य उपदेशमाला, तत्त्वार्थसूत्र और पउमचरियं के शब्द निकाल कर सिर्फ़ आगमो के शब्दो को हि स्थान दिया है | अनेक स्थानो पर प्रत्यय या विभक्ति को हटा कर 'शब्दकोष' के नियमानुसार मूल शब्द रख दिये है, परिणाम स्वरुप जहा जहा समान शब्द प्राप्त हुए, उन शब्दो को एकसाथ रख कर उन के संदर्भ वहि नीचे जोड दिये है, कहीं कहीं एक हि शब्द की व्याख्या से पता चलता है की ये शब्द भले एक है मगर 'अर्थ' कि द्रष्टि से वे शब्द भिन्न भिन्न है, तो उन शब्दो को अलग अलग भी कर दिया है। जहा प्राकृत और संस्कृत दोनो शब्द है, वहा प्राकृत शब्द को पीछे से आगे ले कर बोल्ड टाईपमे रक्खे है। ऐसे अनेक परिवर्तन कर के कोष का उपोगिता मूल्य बढाकर हमने ईस कोष की रचना की है । हमने ईस 'कोष' का नाम “आगम-सागर- कोषः " पसंद किया है। यहा सिर्फ़ आगमिक शब्दो कोहि स्थान दिया है इसिलिए 'आगम' शब्द पसंद किया, सागरजी महाराज द्वारा शब्द संचित हु इसिलिए 'सागर' शब्द लिया, ईस कोषमे शब्द, खासनाम और व्याखयाए तिनो का समावेश हुआ है इसिलिए शब्दकोष नाम कि जगह सिर्फ़ कोष [Dictionary] शब्द रक्खा है | ईस 'कोष' को हमने पांच भागोमे प्रगट किया है, करीब 1200 पृष्ठोमें रहे हुए ईस ग्रन्थमे 41,000 से ज्यादा शब्दो [+नामो धातु] का समावेश हुआ है। अनेक शब्दों की व्याख्याए भी है और इन शब्दो या व्याख्याओं के आगमसंदर्भ भी दिये है। इस के साथ हम एक मर्यादा का भी स्वीकार कर लेते है- इस कोष के मूल संपादनमे बहोत से शब्द और अनेक व्याख्या समाविष्ट नहीं हुई है, इसिलिए यहा पर भी अनेक शब्द और व्याख्याए छूट गए है। शब्दों और खास-नामो के लिए आप हमारा [१] आगम सद्दकोसो भाग १ से ४ और [२] आगम नाम एवं कहाकोसो देख शकते है, और व्याख्याओ के लिए हम भविष्यमें 'जैन आगम कोष:' बनाने का आयोजन कर रहे है | परमात्मा की कृपा हुई तो मेरे पांच सो नब्बे [590] प्रकाशनो की तरह 'जैन आगम कोष:' भी अवश्य आप के कर कमलोमें समर्पित हो जायेगा | ...मुनि दीपरत्नसागर....... [Type text] - " मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [3] [Type text] "आगम-सागर-कोषः " [४] Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] संक्षेप ०४ चतु. आतु महाप. भक्त. तन्दु संस्ता . गच्छा . गणि ०६ देवे. ३३ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) संक्षेप-सूचि → क्रम आगम का नाम संक्षेप क्रम आगम का नाम ०१ । आचाराङ्ग आचा. ।। २४ | चत:शरणप्रकीर्णक सूत्रकृताङ्ग सूत्र. | २५ | आतुरप्रत्याख्यानप्रकीर्णक ०३ स्थानाङ्ग स्था . २६ | महाप्रत्याख्यानप्रकीर्णक समवायाङ्ग सम. २७ भक्तपरिज्ञाप्रकीर्णक ०५ | भगवती(अङ्ग) भग. | २८ तन्दुलवैचारिकप्रकीर्णक ज्ञाताधर्मकथाङग ज्ञाता. | २९ । संस्तारकप्रकीर्णक ०७ उपासकदशाङ्ग उपा. | गच्छाचारप्रकीर्णक अन्तकृद्दशाङ्ग अन्त. ३१ | गणिविदयाप्रकीर्णक | अनुत्तरोपपातिकदशाङ्ग अनुत्त 1 ३२ | देवेन्द्रस्तवप्रकीर्णक १० | प्रश्नव्याकरणाङ्ग प्रश्न | मरणसमाधिप्रकीर्णक ११ विपाकश्रुताङ्ग विपा. | ३४ | निशीथछेदसूत्र १२ | औपपातिकोपाङ्ग औप. | ३५ बृहत्कल्पछेदसूत्र १३ | राजप्रश्नीयोपाग राज. | ३६ | व्यवहारछेदसूत्र १४ जीवाजीवाभिगमोपाङग जीवा. | ३७ | दशाश्रुतस्कन्धछेदसूत्र १५ | प्रज्ञापनोपाङ्ग प्रज्ञा ३८ जीतकल्पछेदसत्र सूर्यप्रज्ञप्त्युपाङ्ग सूर्यः ।। ३९ । महानिशीथछेदसूत्र १७ | चन्द्रप्रज्ञप्त्यपाङ्ग चन्द्र० ।। ४० आवश्यकमूलसूत्र १८ | | जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्युपाङ्ग जम्बू० ।। ४१ ओघनियुक्तिमूलसूत्र | निरयावलियकोपाङ्ग निर० । ४१ | पिण्डनियुक्तिमूलसूत्र कल्पवतन्सिकोपाङ्ग कल्प. | ४२ | दशवैकालिकमूलसूत्र पुष्पिकोपाङ्ग पुष्पि . | ४३ | उत्तराध्ययनमूलसूत्र २२ पुष्पचूलिकोपाङ्ग पुष्प० ।। ४४ | नन्दीचूलिकासूत्र | वृष्णिदशोपाङ्ग वृष्णि . | ४५ अनुयोगद्वारचूलिकासूत्र देशीय शब्द चूर्णि मरण. निशी बृह. व्यव० दशाश्रुः १९ कि जीत. महानि आव. ओघ. पिण्ड दशवै. उत्त नन्दी अनुओ० २० दे सूचना- [१] उपरोक्त ४५ आगमो के जो शब्द या व्याख्या संदर्भ ईस कोषमे शामिल किये है, उसमें ६ छेदसूत्रो और चन्द्रप्रज्ञप्ति के अलावा बाकी सभी आगमो श्री सागरानन्दरिजी महाराज संपादित प्रतो से है, चन्द्रप्रज्ञप्ति के संदर्भ सूर्यप्रज्ञप्ति अनुसार है, सिर्फ ६ सूत्र के संदर्भ हस्तपोथी से लिए है [२] यहां आगमो के जो संदर्भ दिये है, वे उन आगमो की प्रत या पोथी के पृष्ठ-अंक है | __ [३] हमारा प्रकाशन “सवृत्तिक आगम सुत्ताणि” भाग १ से ४० मे ये सभी आगम मुद्रित है। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] नमो नमो निम्मलदंसणस्स बाल ब्रह्मचारीश्री नेमिनाथाय नमः पूज्य-आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः फंदइ- स्पन्दते-किञ्चिच्चलति। भग. १८३ फंदिआ-स्पन्दिता-व्यापारिता। जम्बू. १०१। फंदिय-स्फन्दितः-व्यापारितः। जीवा० २६६। फंदेति- सपन्दते। ज्ञाता०९७१ फंसेज्ज- उत्पादयिष्यति। पिण्ड० १४५१ फग्गु- अजितनाथजिनस्य प्रथमा साध्वी। सम० १५२| फग्गुण- फाल्गुनः-मासविशेषः। ज्ञाता०१२४१ फग्गुणी- गाथापतेर्भार्या। उपा० ५३| फाल्गुनी-उत्तर फाल्गुनी। जम्बू. ५०८। सूर्य. ११४१ फग्गुणीओ- फाल्गुन्यः-उत्तरफाल्गुनीपर्यन्तानि। सूर्य ११४। स्था० ७७ फग्गुरक्खिअ- फल्गुरक्षितः-आर्यरक्षितानुजः। आव० २९६| फग्गुरक्खित- फल्गुरक्षितः-गच्छप्रधानः। आव० ३०८। फल्गरक्षितः। उत्त. १७३। फग्गुरक्खिय- फल्गुरक्षितः-आर्यरक्षितभ्राता। उत्त० ९६। फट्टा- मइला। निशी० २१० अ। फडाडोव-स्फटाटोपः-फणासंरम्भः। ज्ञाता० १६२ स्फटाटोपः-फणाडम्बरः। उपा०२५ फड्डगपईए- मूलान्यपल्लीपतयः स्पर्द्धकपतयः। बृह. १२१ फड्डगफड्डगं-स्पर्धकस्पर्धकम्। आव. २९३। फड्डय- फड्डकं लघ्तरो गच्छदेश एव गणावच्छेदकाधिष्ठितः। औप०४५ स्पर्धकःसमूहविशेषः। निशी. २९९। फड्डयफड्ड-फड्डकफड्डकः। ओघ. ९३ फड्डा-अवधिज्ञाननिर्गमदवाराणि, गवाक्षजालादिव्यवहितप्र-दीपप्रभाफड़डकानीव वा फड्डकानि। आव०४३। फणग- फणकः-कङ्कतकः। उत्त० ३९३ फणस-पनसः। प्रज्ञा० ३६४। पनसः-फलविशेषः। प्रज्ञा० ३२८१ वृक्षविशेषः। भग०८०३। फणा- दी। जीवा० ३९ फणिज्जए- हरितविशेषः। प्रज्ञा० ३३। फणिस-पनसः-वृक्षविशेषः। प्रज्ञा० ३२ फणिह- ककतकः कांसकी ति लोके। अनुयो० २४। केशसं-यमनार्थं ककतकम्। सूत्र. ११७ फरल-दीपकाणः। प्रश्न. २५ फरिदोहए-परिखायाः-खातवलयस्योदकं परिखोदकम्। ज्ञाता०१७७ फरुसकर्मसंश्लेषाभावान्निर्गमत्वादल्पसत्त्वैर्दुरनुष्ठेयत्वा द्वा कर्कशमन्तप्रान्ताहारोपयोगाद्वा परुषः-संयमः। सूत्र. २५०| परुषः-क्रोधेनः। उत्त०५०| कुम्भकारो। निशी. ३५६। आ। जं पण हिंसगं मम्मघट्टणं च तं फरुसं। निशी. २९९ अ० निशी. २७७ अ। नेह रहियं णिप्पिवासं। निशी. २७७ आ। परुष-मर्मोद्घाटन-परम्। आचा० ३८८परुष-कठोरम्। भग० २३१। परुष-रे-मुण्ड? इत्यादिकम्। प्रश्न. १६०| परुष-स्न्नेहाननुगतम्। औप० ४२। परुष-अश्राव्यभाषम्। प्रश्न. ११९। कुम्भकारः। बृह. १७४ आ। परुषः-कुम्भकारः। बृह. १९१ । फरुसग- कुंभकारो। निशी० ३६अ। फरुसय- परुषतां-कर्कशतां पीडाकारिताम्। आचा० १५५) फरुसवयण- परुषं-दुष्टशैक्षेत्यादिवचनम्। स्था० ३७०| फरुससाला- कुम्भकारशाला। बृह२७१ आ। फरुसा- परुषा-निष्ठुरा भावस्नेहरहिता। दशवै० २१५) णेहवज्जिया। दशवै० १०८ फरुसासी-परुषाशिनः-रूक्षाशिनः रूक्षाशितया च प्रकृति क्रोधनाः। आचा० ३१११ फल- अर्थक्रियावाप्तिः। आचा० १९७। कर्मबन्धः। सूत्र. १७४१ महिमा। उत्त० १४७ क्षुरम्। आव० ७८३। आम्रफलादि। ज्ञाता० ५२। मुष्टिप्रहारः। उत्त० ३६४। योगभावितेन मातलिङ्गादिना। सम० ५२। बिल्वादि। उत्त. ३६४। फलं-क्रियाऽनन्तरभावि स्वर्गादिकम्। आव. ३७७। फलं-बाणाग्रभागः। भग० २२९। फलक- शयनभेदः। आवरणविशेषः। आचा० ६० अष्टापदद्यूतभेदः। जम्बू. १३७ आव० ८८1 दारुमयम्। जम्बू. २०५। स्फुकम्। ज्ञाता० २३९। फलकं यत्र लिखित्वा पठनम्। पडिका। बृह. २५३ आ। फलकसंपुट- विफलके-एकत्रकृते। व्यव० २१३ अ। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] फलकसंस्तारक- शय्यासंस्तारके प्रथमो भेदः। व्यव. फलहंतर- फलकान्तरः-सघटितफलकविवरः। ज्ञाता० २८४ । १५९ फलग- फलकं-चम्पकट्टादि। उत्त०४३४| फलकं फलह- फलकम्। आव०६७७| चंपकपट्टः। व्यव० १९४| फलक-आसनविशेषः। आव० फलहरिय-फलहरितं-हरितफलम्। जीवा० २१३। ६५४ प्रज्ञा०६०६। फलकं-सम्प्ट कफलकं खेटकं वा फलहलक- साही-पाटकांशः। बृह. २९४ आ। अवष्टम्भं वा यूतोपकरणं वा। जम्बू. २६४। फलकं- फलहिग्गाह- फलहिग्राहः। ओघ०६६६) अवष्टम्भनफलकम्। भग० १३६। अवष्टम्भार्थम्। | फलही- फलहिः-कर्पासः। उत्त० १९२। पाणिः । उत्त० ज्ञाता०१०९| फलकम्। आचा० ३४४। आव०४४१।। १९३। कर्पासं-मल्लयुक्तिविशेषः। आव०६६६। अवष्ट-म्भफलकम्। स्था० ३१२। प्रतलमायतम्। स्था० | फलहीमल्ल-मल्लविशेषः। व्यव० ३५७ अ। ४६६। फलहकः। आचा० ३७२। महल्लं। दशवै० ८० | फलासव- फलासवः। प्रज्ञा० ३६४। फलासवः-फलरसफलगसरिया- फलकवीनितः। आव० २३९। सारः। जीवा०३५१ फलगसेज्जा- फलकशय्या-प्रतलायतविष्कम्भवत् फलिअ- फलिक-प्रहेणकादि। स्था० १४८५ काष्ठरूपा शय्या। भग० १०१। फलिए-स्फटिकः। विपा. ५९। फलगा- फलकानि-पद्मवरवेदिकाङ्गभूतानि। जम्बू० २३ फलिओ- पाटितः-क्षुरिकाभिरुवं विधाकृतः। उत्त. चंपगपट्टादी। निशी० ६२आ। ४६०१ फलगावयट्ठी- हन्यमानोऽपि स बाह्याभ्यन्तरतया तपः | फलिओवहडे- फलिकोपहृतं परीष-होपसर्गेः फलकवदवतिष्ठते न कातरी भवति। अवगृहीताभिधानपञ्चमपिण्डे-षणाविषयभूतम्। स्था० आचा० २५८। तक्ष्यमाणोऽपि दुर्वचनवास्यादिभिः १४८१ कषायाभावतया फलकवदवतिष्ठते तच्छीलश्चेति फलितं- यत् व्यंजने भिक्षोर्वा नानाप्रकारैर्विरचितम्। फलकावस्थायी, वासी-चन्दकल्पः। आचा. २८४| व्यव० ३५४ अ। फलगुण-सिद्धिः। आचा० ८६| फलितोपहतं- पहते द्तीयो भेदः। व्यव० २५३ आ। फलत- फलकादिः। निर०१८ फलिह-स्फटिकं-अन्तःकरणम्। सूत्र० ३३६। ज्ञाता० १०९। फलपत्त- फलप्राप्तं-फलं दात्मभिमुखीभूतः। प्रज्ञा० २५९। परिघं-नगरद्वारादिसम्बन्धिः । दशवै० १८४१ अर्गला फलबेंटिया- त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः। जीवा० ३२ गृहदवारे ज्ञाता० १०९। स्फटिकम्। भग० १३५। ज्ञाता० फलभोयण- फलं-त्रुपुष्यादि तस्य भोजनम्। स्था० ४६०। । ३५। पृथिवीभेदः। गोमेदकविशेषफ। आचा० २९। स्फभग०४६७ टिकः-मणिभेदः। प्रज्ञा. २७। उत्त०६८९। स्फटिकाण्डंफलपंथू- फलमन्थुः बदरचूर्णम्। दशवै० १८६। पञ्चदशं स्फटिकानां विशिष्टो भूभागः। जीवा० ८९। फलय- कलकं-त्रिसोपानाङ्गभूतम्। जीवा० १९८। फलक- अर्गला-दण्डः। औप०१८1 स्फटिकमिव स्फाटिकअवष्टम्भनयूतादिनिमित्तम्। प्रश्न० ८। फलकं- अन्तःकरणम्। राज० १२३। परिघा-अर्गला गृहद्वारे। सम्पुटफलकं, खेटकं, अवष्टम्भनं दयतोपकरणं वा। राज० १२३। नग-रदुवारादिसु दारं। दशवै० ८५ औप०६९। फलकं-खेटकम्। जम्बू० २०५। अग्गला। निशी. २४ अ। परिघः-अर्गला। स्था० २१७ फलवासा- फलवर्षः-फलवर्षणम्। भग० १९९। फलिहकूडे- स्फटिककूटं स्फटिकरत्नमयत्वात्। फलवित्तिविसेस- फलवृत्तिविशेषः-उदयवतनभेदः। गन्धमादन-वक्षस्कारपर्वते पञ्चमं कूटम्। जम्बू० ३१३। ज्ञाता० २०५४ फलिहग्गह- पार्णिग्राहः। उत्त. १९३। फलविवाग- फलमिव वृक्षसाध्यमिव विपाकः फलिहमल्ल- कार्पासमल्लः। भृगकच्छहरण्यां कर्मणामदयः फलविपाकः। प्रश्न. १५) दूरीयकृपिकाग्रामे मल्लविशेषः। आव०६६५ फलवुट्ठी- फलवृष्टिः। भग० १९९। फलिहरयण-स्फटिकरत्नम्। भग० १७२ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] फलिहा- परिखा-अध उपरि च समखातरूपा । राज० ३। परिखा । आचा० ३३७ । परिखा अर्गला प्रश्न ८ परिखा उपरि विशाला अधः संकुचिता । प्रज्ञा० ८६ । अध उपरि च समखात रूपा। ज्ञाता० २ फलिहिया फलिहिका । आव० ६३६ । फलिही वमनी अनुयो० ३५ फल्ल- फलाज्जातः फालः सौत्रिकः । बृह० २०१ आ । फव्वणं- यथेच्छं भक्तपानलाभः (देशी ०) । बृह० १० अ फव्वाम- लप्स्यामहे । आव० ४०४ | फाडिगा अच्छा इत्यर्थः निशी. २५५ अ फाणय- घर्षय पिण्ड १३५ फाणि फाणितं द्रवगुडः। दशवं. १७६। फाणिए- कक्कवादि फाणितं द्रवगुडविशेषः। पिण्ड. CPI फाणिय-उदकेन द्रवीकृतो गुडः, क्वथितोऽक्वथितो वा । आचा० ३३६ | फाणितविषयम् । प्रज्ञा० २९३ | फाणितविषयं-गुडपानकम्। पिण्ड॰ १६८। फाणितविषयं कक्कवःद्रवगुडविशेषः । पिण्ड० ८१| धोविउं मेलितुं । निशी० २२४ आ आद्रो गुडो द्रावितगुडो वा । बृह० १७८ अ फाणियंगुल- द्रवगुडः । भग०७४८ | फाल- स्फाल:- पाटनम् । बृह• २३५ आ। द्विपञ्चाशत्पलप्रमाणो लोहमयो दिव्यविशेषः । जाता० १३८ फालणं स्फाटनं सकृद्दारणम्। प्रश्न. १७ फाला कुशी आव० ३९७ | लोहमयकुशाः । उपा० २१| फालावितं पाटितम् । आव० ८२९ | फालिओ - फाटितो जीर्णवस्त्रवत् । उत्त० ४६० फालिज्जइ- पाट्यते । आव० ६३४ | फालिती पाटयती विदारयती दशकै ३६| फालियं पाटितम् । पिण्ड १००) स्फाटितम्। उत्तः १८० आव० ३३२ | आचा० ३९३ | फालियवडिंस स्फटिकावतंसकः दक्षिणस्यामवतंसकः । जीवा० ३९१ | फाले लाले घोले पूरे स्फाटय लोलय घोलय स्थूरय । आगम - सागर - कोषः ( भाग : - ४) मरण फालेऊण स्फाटयित्वा आव० ३९९| फालेड़- विदारयति। आक २१ फास स्पृश्यत इति स्पर्शः प्रज्ञा० ४३७] स्पर्शग्राहकेण स्पर्शनेन्द्रियेण स्पृश्यते कर्कशादिरूपः मुनि दीपरत्नसागरजी रचित E [Type text] परिच्छेद्यवस्तुगतः स्पर्शोऽनेनेति स्पर्शः कर्कशादिरूपो वा प्रज्ञा० ५९९ | स्पर्शः शीतोष्णादिः औप० ३६| स्पर्शः विषयः । आचा० ३०) स्पर्शः दुःखोपनिपातः । आचा० राम अस्प्राक्षीद्-आसेवितवान्। उत्त० ४९६। अष्टाशीतौ महाग्रहे अष्टवचत्वारिंशत्तमः स्था० ७९॥ स्पृशति सेवते। दश• २६५१ स्पर्श: सम्पर्कः सूत्र १२४| [7] फासइ स्पृशति सेवते । उत्त० २५११ फासइत्ता- स्पृष्ट्वा अनुष्ठानतः । उत्तः ५७रा मनोवाक्काय लक्षणेन योगत्रिकेन स्पृष्ट्वा । उत्तः ५७२ फासणा स्पर्शना- ईषद्व्याख्यादिरूपा दशकै २७त फासपरियारगा स्पर्शादिपरिचारकाः स्पर्शादेरेवोपशान्त वेदोपताया भवन्तीत्यभिप्रायः । स्था० १००| फासा- स्पर्शाः परीषहोपसर्गरूपाः । सूत्र० २०७। स्पर्शाःस्पृशन्ति-स्वानि स्वानीन्द्रियाणि गृहयमाणतयेति स्पर्शाः शब्दादयः । उत्तः २२६| स्पर्शप्रधानत्वात्स्पर्शाः । उत्त० २२७| फासाइंति- स्पर्श कुर्वन्ति-स्पर्शयन्तिस्पर्शनेन्द्रियेणाहार-पुद्गलानां कतिभागं स्पर्शन्तीत्यर्थः, अथवा स्पर्शेना स्वाद यन्ति प्राकृतशैल्या ‘फासायंति, स्पर्शेन वाssददति गृहणन्ति उपलभन्त इति । भग० २९ | फासिदिए स्पर्शेन्द्रियम् । प्रज्ञा० २९३ ॥ फासित्ता तदनुष्ठानतः स्पृष्ट्वा । उत्तः १७रा फासिय स्पृष्टं प्रत्याख्यानग्रहणकाले विधिना प्राप्तम् । आव० ८५१। स्पृष्टं उचिते काले विधिना प्रतिपन्नम्। प्रश्न० ११३ | फासिया स्पृष्टा प्रतिपत्तिकाले विधिना प्राप्ता । स्था० ३८८ विशुद्धपरिणामप्रतिपत्त्या स्था० ५१९ । फासुअ- विद्वत्थं निशी० ५६ आ प्रासुकं बीजादिरहितम्। दशवै० १७८ फासुग- प्रासुकदानादिविषयः पष्ठ उद्देशकः । भग० ३२८ प्रासुकं- आधाकर्मादिरहितम्। दशवे. ७२१ ववगयं जीवियं निशी. ९५आ प्रासुकं अचित्तं आक• ८२८ फासुगचारी प्रासुकचारिः । आव० १९८० फासुगमुदगं- अच्चित्तं जं सतेहिं रहियंति फासुगमुदगं । *आगम - सागर- कोष" (४) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] निशी. ४७आ। फुफुका- करीषाग्निः । बृह० ३१४ आ। फासुय- प्रासुकं-निर्जीवम्। प्रश्न. १२७। प्रगता असवः- फुक्किय-वृथा। आव०६१७ असुमन्तः सहजसंसक्तिजन्मानो यस्मात् तत् फुग्गफुग्गाओ- परस्परासम्बद्धरोमिकः प्रासुकम्। उत्त०६०| ज्ञाता० १०६। प्रास्कः विकीर्णविकीर्णरोमिकः। उपा०२११ आधाकर्मादिरहितः। आचा० ३६८ प्रगता असवः- फुटुंत- स्फुटन्तः-विघटमानाः। ज्ञाता० १५९। उच्छवासादयः प्राणा यस्मात् स प्रासुकः-निर्जीवः। फुट्ट- स्फुटितकेशसञ्चयत्वेन विकीर्णकेशम्। विपा० ३६। स्था० २१३। प्रासुकः-स्वाभावि-कागन्तुकसत्वरहितः। ज्ञाता० २००| स्फुटितं-अबन्धत्वेन विकीर्णम्। ज्ञाता० उत्त० ४९८। एषणीयम्। बृह० २९१ अ। प्रासुकं १३७। स्फुटितः। आव २२४१ स्फिटितम्। आव० ३९५ निर्जीवम्। प्रश्न. १५५। असवः-प्राणाः प्रगता-असवः- | ख्यातम्। वित्तम्। आव०७१२। विदीर्णम्। उपा० २११ प्राणाः यस्मादिति प्रासकं निर्जीवम्। दशवै०६४। | फुट्टइ- स्फुटति। नन्दी०६४ प्रासुकं-प्रगतासु निर्जीवम्। दशवै० १८१। फुट्टति- स्फुटति। ओघ० २०६। फासुयविहार- प्रासुकविहारः। आव० २१९। ज्ञाता० १०६। फुट्टमाण- अविरभसाऽऽस्फालनात्स्फुटः, विदलम्। भग. फासेइ- प्रतिपत्तिकाले विधिना प्रतिपत्तेः स्पृशति। उपा० ૪૬રા. १५ उचितकाले विधिना ग्रहणात्। भग० १२४। ज्ञाता० फुट्टसिरा-विकीर्णसरोजाः। भग० ३०८। ७३। स्पृशति। आव० २२२॥ फुट्टा- स्फुटिता। आव. २०११ पलायिताः। निशी. ३२९ फासेतव्वा-स्पर्शनीया-अनुसरणीया। स्था० ९२ आ। फासेमि- आसेवनाद्वारेण स्पृशामि। आव०७६१। फुड- स्पृष्टं-प्रतिदेशापूरणेन व्याप्तम्। प्रज्ञा० ४९१। फिट्ट-स्फिटितः। आव० २१४ व्यक्तम्, स्पष्टम्। व्याप्तिः। भग० १५३। स्पृष्टम्। फिडिअ-स्फिटितः-मार्गाद् भ्रष्टः। ओघ०१४। स्था० २८५ स्फुटः-व्यक्तः प्रयत्नविहितत्वात्। ज्ञाता० फिडिए- अतिक्रान्तः। ओघ. ११७ फिडितः-भ्रष्टः। ओघ. १६२। स्पृष्टः-व्याप्तः। भग० ३००। स्पृष्टः-परिभुक्तः। ८१ भग० ३७स्फुटः-प्रकाशः। भग. ३७ फिडिओ- फिडितः-प्रभ्रष्टः। ओघ० २०| स्फिटितः। आव० फुडकरणं-दंडगौवरि ओलवणं। निशी. २३२ अ। २०५१ फुडणं- स्फुटनं स्वत एव द्विधा भावगमनम्। प्रश्न. २५१ फिडित- प्रभ्रष्टः। ओघ. २० भ्रष्टो मार्गात्। ओघ. १४१ | फुडा- महोरगेन्द्रातिकायस्य चतुर्थाअग्रमहिषी। भग. फिडिया-छुटिता। आव० ५५८ ५०५। स्था० २०४। स्पृष्टवती। स्पृष्टा-सम्बन्धमात्रम्। फिप्फिस- उदरमध्यावयवविशेषः। प्रश्न० ८। भग०८८1 अन्त्रान्तर्वति-मांसविशेषरूपम्। सूत्र० १२५ | फुडिओ- स्फुटितः-ईश्वरान्तराण्यतिक्रान्तः, ईश्वरेभ्यः फिल्लसिया-स्खलितः। प्रस्खलनम्। बृह. १५८ आ। सर्व-सङ्गत्यागेन दूरीभूतो वा। औप० २७। फिसगा-किसकौ-पत्तौ। उपा०२२ फुडित्ता- स्फोटयित्वा-विशीर्णं कृत्वा। स्था० ९०। स्फुटं फीट्ट- स्फिटितः। आव० ३८९। कृत्वा। स्था० ९० फीया- स्फिता। उत्त० ११९ फुडियच्छवि- स्फुटितच्छविःफुफया- स्फुलिंगाः। तन्दु०। विपादिकाविचर्चिकादिभिर्वि-कृतत्वक्। प्रश्न०४१| फुफु- फुम्फुकं-करीषम्। जीवा० ६५१ फडिया- स्फटिता-राजिशतसङकला। जीवा. ११४। फंफअग्गिसमाणे- फम्फकाग्निसमाणः स्फुटिता-जर्जरा, राजिरहितः। जीवा० २७२। करीषाग्निसमानः। परिमलनमदनदाहरूपः। जीवा०६५। | फुप्फुयायंत- फूत्कुर्वन्तः। ज्ञाता० १३३। फुफुगा- फुफका कुक्ला । दशवै० ११५ फुप्फुस- उदरान्तर्वर्त्यन्त्रविशेषरूपम्। सत्र. १२५१ आव० फुफुम- मुर्मुरः भस्ममिश्रिताग्निकणरुपः। प्रज्ञा० २९। । ६५१। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] फुमित- फूत्कृतः। आव० ३४५।। प्रारम्य। स्था० ३८४ श्लिष्ट्वा-स्पृष्ट्वा। स्था०८९। फुमेज्जा- मुखवायुना शीतीकुर्यात्। आचा० ३४५) फुसियं- बिन्दुः। दशवै०४८। स्वल्पबिन्दुः। आव० २०४। फुरइ- स्फुरति-स्पन्दते। ज्ञाता० २३४॥ स्पष्टं-स्पर्शनम्। जीवा. २४५) फुरफुरत-स्फूरन्। आव० १७५) फुसियमिव- कुशाग्र उदकबिन्दुमिव बालस्य फुराविति-अपहारयंति। व्यव० २४१ अ। जीवितमिति। आचा. १९९। फुरित्ता-स्फोरयित्वा सस्पन्दं कृत्वा। स्था० ९० फुसियवरिस- बिन्दुवर्षः। आव० ७३३। सुहमफुसारेहिं फुरुफुरुंते- पोस्फूर्यमाणान् पीडयोवेल्लते। पिण्ड० १६१। | पडमाणेहिं फुसियवरिसं। निशी० ६९ आ। फुरुफुरेइ-स्फुरति। आव० ४३८१ फूत्करण- मुखेन धमनम्। दशवै० १५४१ फुल्ल-पुष्पं कुसुमम्। दशवै० २२६। पुष्पितः। आव० ५५७। | फूमण- मुहेण फुमति। निशी० ५४ अ। जलपुष्पम्। ज्ञाता० ९८। फुल्लं-विकसितम्। जीवा. | फूमितो- फूत्कृतः। उत्त० १५० १२३। भग० १२७। ज्ञाता० १२९। फल्लं-पुष्पं, प्रसवं, फेडण- अपनयनम्। ओघ०६९। अपनयनं चत्ःस्थानिकासुमनः, कुसुमं वा। दशवै०१७ दीनां अशुभप्रकृतीनां रसस्त्र्यादिस्थानापादनम्। आचा० फुल्लक- भूषणविधिविशेषः। जीवा० २६९। २९८१ फुल्लकिंसुयसमाण- फुल्लकिंशुकसमानं फेडिआ-अपनीता-विनाशिता। ओघ०४६| प्रफुल्लपलाशकुसुम-कल्पम्। जीवा० १२४। फेडिओ-स्फेटितः-हापितः। बृह. १४ आ। फुल्लगं-फुल्लकं-पुष्पाकृतिललाटाभरणम्। औप० ५५। फेडिता- स्फेटिता परिहता। बृह. २२४ आ। पुष्पकं-पुष्पाकृतिललाटाभरणम्। जम्बू० २०६। फेडेज्ज-अपनयेत्। ओघ० ५११ फुसंतु-स्पृशन्तु छुपन्तु, भवन्वित्यर्थः। भग. १२२ फेडेमि-स्फेटयामि। आव० ८०० फुसंतो-स्पृशत्-आगच्छत्। उत्त० १२७) फेण- फेनः-डिण्डीरः-प्रचुरो धवलः। प्रश्न. ५०| फुसइ- स्पृशति-अभिद्रवति। उत्त० ८८ स्पृशति। दशवै. फेणपुञ्जो- फेनपुञ्जः-डिण्डीरोत्करः। जीवा० २१० फेणमालिणी- फेनमालिनीनदी विशेषः। जम्बू० ३५७) फुसणा- मर्दना। बृह. २८२ आ। फेफसं-फिप्फिसम्। तन्दु०| फुसति-स्पृशति-घातयति छिनत्ति व। परितापं करोति फेल्ल-दरिद्दो। निशी. ४५। क्षीणविभवः। ब्रह. ५१ अ। वा। सूत्र. ३०९। स्पृशति। आव० २१३। स्पृशति- फोक्का- (देशीपदम्) अग्रे स्थलोन्नता। उत्त० ३५८। बध्नाति। प्रश्न. ३११ फोडणं- नित्थरहल्लेज्ज णहाहिणा वा खयं करेज्ज। फुसमाण- स्पृशन् सूर्यः। भग० ७८1 निशी. ५७ अ। स्फोटनं-आधाकर्मणा। राजिकादिना फुसमाणकालसमय-स्पृश्यमानकालसमयः संस्कारकरणम्। पिण्ड० ८४॥ स्पृश्यमानक्षणः। भग० ७८। स्पृशतः-सूर्यस्य फोडा- स्फोटाः-स्फोटकाः। स्था० ५२११ स्पर्शनायाः कालसमयः स्पृ-शत्कालसमयः। भग०७८। फोडिअ- वाइगणाणि। ओघ. ९८१ फुसमाणगतिपरिणाम- वस्त्वन्तरं स्पृशतो यो फोडिआ-स्फोटिका-व्रणविशेषः। ओघ० १३० गतिपरिणामः सः स्पृशद्गतिपरिणामः। प्रज्ञा०२८९ फोडित्ता- विदार्य। आव. २१४१ फुसमाणगती-स्पृशद्गतिः-स्पृशतो गतिरिति, फोडिय- घयं ताविज्जति तत्थ जीरागादि छब्भति तेण जं विहायोगतेः प्रथमो भेदः। यत्र परमाण्वादिकं यदन्येन धुवियं तं फोडियं। निशी० २०२आ। फोटितम्। बह. परमाण्वादिकेन परस्परं संस्पृश्य संस्पृश्य २५१ आ। फोडितम्। व्यव० १४२ आ। फोडितम्। व्यव० सम्बन्धमनभूयानभूयागच्छति सा। प्रज्ञा० ३२७) १४२ आ। स्फुटः-स्फटिकृतः शोधितः इत्यर्थः स्पृष्टः फुसिओ-स्पृष्टः। आव०७२३। वा। ज्ञाता०११९| फुसित्ता- स्पृष्ट्वा-अवगाय। प्रज्ञा० ३०६। स्पृष्ट्वा- फोडीकम्म-स्फोटनाकर्म। आव० ८२९। ४५ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] फोडेतो- पाटयन्। आव० ३६९। बध्यते भवचारकाद् विनिर्गच्छन् प्रतिबध्यते येन सः, फोफल- पूगीफलम्। भक्त० बध्यते-आत्मप्रदेशैः सह लोलीभावेन संश्लिष्टाः क्रियते फोफस- शरीरावयवविशेषः। प्रश्न. ८ योगवशाद यः सो वा कर्मपरमारिति। प्रज्ञा०६०२। -x-x-x-x पलि-पासगो। निशी० ५९ आ। बंधणकसिणं- बहुबन्धनबद्धम्। बृह. २२२ अ। बंदिग्गह- बन्दिग्राहः। आव० २१२ बंधणछेदनगती- बन्धनच्छेदनगतिः-यत्र जीवो वा बंध- सामान्यतो बन्धः। भग० ९३८। सम्बन्धमात्रम्।। शरीरात् शरीरं वा जीवात् ०। प्रज्ञा० ३२६। भग०७९११ मयूरबन्धादिः। उत्त०४५६। प्रलेपः। पिण्ड. बंधणछेयणगई- बन्धनस्य कर्मणः सम्बन्धस्य वा ९। विशिष्टरचनाऽऽत्मनि स्थापनम्। छेदने-अभावे गतिर्जीवस्य शरीरात् शरीरस्य वा जीवाद् स्वस्वरूपतिरस्करणलक्षणो वा। आव० ५९१। बन्धः बन्धन-छेदनगतिः। भग० ३८१। बन्धस्य छेदनं ग्रन्थिः । भग० ८२। बन्धः -संयमनम्। प्रश्न० ३७ बन्धनच्छेदनं तस्मात् गतिः बन्धनच्छेदनगतिः। प्रयोगबन्धादयभिधानार्थो भगवत्यां अष्टमशतके नवम प्रज्ञा० ३२८१ उद्देशकः। भग. ३२८ पजरबन्धन प्राप्तः। ज्ञाता० बंधणप्पओगो- बन्धनप्रयोगः-बन्धोपायः। प्रश्न. १३ २३३। बन्धः-स कषायत्वात् जीवः कर्मणो योग्यान् बंधणविमोयणगती- बन्धनादविमोचनं बन्धनविमोचनं पुद्गलान् आदत्ते स बन्धः। स्था० १५ बन्धः तेन गतिः बन्धनविमोचनगतिः रज्जुदामनकादिभिः संयमनम्। आव०८१८ बन्धः यदाम्रादिकफलानामतिपरिपाकगताना-मत एव प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशात्मकतया कर्मपुद्गलानां बन्धनाविच्युतानां यदधो विश्रसया निर्व्याघातेन जीवेन स्वव्यापारतः स्वीकरणम्। सूत्र. ३७८। गमनं सा। विहायोगतेः सप्तदशमो भेदः। प्रज्ञा० ३२७। स्थितिबन्धः। उत्त० ५८० सकषायत्वात् जीवस्य बंधणोवक्कम- बन्धनोपक्रमः-बन्धनकरणम्। स्था. कर्मणो योग्यानां पुद्गलानां बन्धनं-आदानं बन्धः। निर्वतनम्, सम्बन्धनम्। स्था० २२०। बन्धः बंधति- बध्नति। आव० ६५० जीवकर्मयोगदुःखलक्षणः। दशवै. १५९। बंधवा- बान्धवाः-निकटवर्तिनः स्वजनाः। उत्त० ३८९। बंधइ-बध्नाति प्रकृतिबन्धमाश्रित्य स्पृष्टावस्थापेक्षया बंधाबध- प्रज्ञापनायां चतुर्विंशतितमं पदम्। भग० ७०२। वा। भग० १०२ बंधावेद-प्रज्ञापनायां पञ्चविंशतितमं पदम्। भग०७०२। बंधकी- पंश्चली। आव. ३५२| बंधिंसु- गलथबन्धनबद्धान्। गाढबन्धनबद्धान् कृतवन्तः। बंधहिउद्देसो- भगवत्याः त्रयोदशमशतके अष्टम स्था० २८९ उद्देशकः। भग० ६२६। बन्धस्य-कर्मबन्धस्य | बंधु- मायाभगिणिमाइओ। निशी० ६६अ। स्थितिबन्धस्थितिः कर्मस्थितिरित्यर्थः, तदर्थ उद्देशको | बंधुजीवग- गुल्मविशेषः। प्रज्ञा० ३२। जम्बू. ९८। भग० बन्धस्थित्युद्देशकः। भग० ६२६।। ८०३ बंधण- बन्धनं-ज्ञानावरणीयादिकर्मपदगलानां बंधुजीवगगुम्मा- बन्धुजीवकगुल्माः, यत्पुष्पाणि यथोक्तप्रकारेण स्वस्वबाधाकालोत्तरकालं निषिक्तानां | मध्याहने विकसन्ति। जम्बू. ९८१ यद भूयः कषायपरि-णतिविशेषान्निकाचनम्। प्रज्ञा० | बंधुजीवगवण- बन्धुजीवकवनम्। भग० ३६। २९। बंधनं-निबन्धनरूपं कर्म। प्रज्ञा० २१३। बन्धनं बंधुद्देसो- बन्धौद्देशकः-प्रज्ञापनायां चतुर्विंशतितमं पदम्। संयमनं रज्जनिगडादिभिः। आव० ५८८ बध्यतेऽनेनेति भग. २८३ बन्धनं यदौदारिकपुद्गलानां गृहीतानां गृह्यमाणानां च बंधुमति- मल्लिजिनस्य प्रथमा साध्वी। ज्ञाता० १५४ परस्परं तैजसादिपुद्गलैर्वा सह सम्बन्धजनकं | बंधुमती- बंधुमती-आधायाः परावर्तितद्वारे तबन्धननाम। प्रज्ञा० ४७०| बन्धनं कषा-त्मकम्। | तिलकश्रेष्ठिदु-हिता। पिण्ड० १००| गोबरग्रामे सूत्र. १७०| बन्धनः-प्रदेशः। प्रज्ञा०६०३। बन्धनः २२११ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [10] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आभीराधिपति गोशङ्खीना- मकौटुम्बिकपत्ती । आव ० २१२१ राजगृहेऽर्जुनमालाकारस्य भार्याः । अन्तः १८० बंधुया- म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा० ५५१ बंधुर- मनोहरम्। चतुः । बंधुवती अरनाथजिनस्य प्रथमा शिष्या सम० १५२१| बंधुविप्पीणो- बन्धुविप्रहीणःविद्यमानबन्धवविप्रमुक्तः प्रश्नः १९ । बंधुसिरी- बन्धुश्रीः- मथुरायां श्रीदामराज्ञी । विपा० ७०| बंभ- ब्रह्मः लान्तककल्पे देवविमानविशेषः । सम० १९ । ब्रह्मः पाञ्चालजनपदे काम्पिल्यनगरनृपतिः । उत्तः ३७७। कुशलानुष्ठानम्। आव० ८३६। ब्रह्मःमैथुनविरतिरूपम्। जम्बू• १४८ ब्रह्मः शुद्धं तपः। दशवै० २६१। ब्रह्म:- मोक्षः । सूत्रः ३९५| ब्रह्माब्रह्मदत्तस्य पञ्चमः प्रासादः । उत्त० ३८५| ब्रह्माब्रह्मदत्तपिता सम० १५२ आव० १६२॥ ब्रह्म:कुशलानुष्ठानम्। स्था० ४४४ ब्रह्म ब्रहमसम्बन्धित्वाद् ब्रह्मः-स्थावरकायः पृथिवीकायः । स्था॰ २९२| ब्रह्मा-दशममुहूर्त्तनाम्। जम्बू॰ ४९१। सूर्य० १४६। बंभइज्जं ब्राह्णणानामिज्या यजनं यस्मिन् सोऽयं आगम- सागर - कोषः ( भाग : - ४ ) ब्रह्मेज्यः । उत्त० ३५ बंभकतं लोकान्तकल्पे देवविमानविशेषः । सम० १९ । - लोकान्तकल्पे देवविमानविशेषः । सम० ९९| बंभचेरंसि - ब्रह्मचर्यं संयमस्तत्रोषित्वा आचारो वा ब्रह्मचर्यम्। आचा० २५०| बंभचेर ब्रह्मचर्य सत्यतपोभूतदयेन्द्रियनिरोधलक्षणं तच्चर्येते-अनुष्ठीयते यस्मिन् तत्, मौनीन्द्रं प्रवचनम्। सूत्र० ३७१। ब्रह्मचर्यं श्रामण्यम्। सूत्र० २९६। ब्रह्मचर्याभिधानं चतुर्थ संवरद्वारम् । प्रश्न १३ संयमः । आचा० २५०| मैथुनविरतिवाचकः। आव० ५१९ ब्रह्मः-कुशलानुष्ठानं तच्च तच्चर्यं चासेव्यमिति ब्रह्मचर्यसंयमः। स्था॰ ४४४ | कुशलानुष्ठानं ब्रह्मचर्यं तत्प्रतिपादकान्यध्ययनानि ब्रह्म-चर्याणि तानि चाचाराङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धप्रतिबद्धानीति । सम० १६ । सम०७१। बंभचेरगुत्ती - ब्रह्मचर्यगुप्तिः आव० ७७८ बंभचेरपोसह चरणीयं च ब्रह्म-कुशालनुष्ठानं, ब्रहम च तत् चर्य्यं चेति ब्रह्मचर्यं तन्निमित्तं पौषधो मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] [11] ब्रह्मचर्यपौषधः। आव० ८३५ | बंभचेरविग्ध ब्रह्मचर्यविघ्नः मैथुनविरमणव्याघातः, अब्रह्मणः षड़विशतितमं नाम प्रश्न० ६६ | भज्य लोकान्तकल्पे देवविमानविशेषः । सम० १९ । बंभण- ब्राह्मण:- विशुद्धब्रह्मचारी साधुः। दशवै० २६.रा बंभणगाम- ब्राहमणग्रामः । आव २०१ बंभणिज्ज- ब्राह्मणानामिज्जा - पूजा यस्मिन् स ब्राह्मणेज्यः । उत्त० ५३२ | भण्णए- ब्राह्मणाः ब्राह्मणसम्बन्धिन उपनिषदर्था वेदग्रन्थाः । भग० ११२ | भण्णय ब्राह्मणकः वेदव्याख्यानरूपः । औप० ९३ | भदत्त- ब्रह्मदत्तः चुलनीसुतः । जीवा० १२१॥ ब्रह्मदत्तः मुनिसुव्रतस्वामिनः प्रथमो भिक्षादाता । आव० १७४ | ब्रह्मदत्तः- अजितजिनस्य प्रथमो भिक्षादाता। आव० १४७ | निशी० ३०४ अ । द्वादशमचक्रवर्ती सम० १५| ब्रह्मदत्तःकाम्पील्याधिपतेर्ब्रह्मराजस्य चुलन्याः सुतः । उत्तः ३७७। ब्रह्मदत्तः-द्वादशमचक्रवर्ती। आव० १५९, २७४ ब्रह्मदत्तः । दशवै० १०७ | बंभदीवग ब्रह्मदीपकः ब्रह्मद्वीपवास्तव्यः । आव० ४१३| बंभद्दीव आभीरविसए कण्हवेलाणामणदी तस्स कूले दीवो। निशी० १०२ अ बंभथलयं ब्रह्मस्थलकं-विश्रामविषयः। उत्त० ३७९१ ब्रह्म-स्थलं पद्मप्रभस्य प्रथमपारणकस्थानम् । आव ० १४६ | बंभप्पभ लोकान्तकल्पे देवविमानविशेषः । सम० १९ ॥ बंभप्पहाण ब्रह्मचर्य बस्तिनिरोधः सर्वमेव वा कुशलानुष्ठा-नम्। राज० ११८ | बंभबंधु- ब्रह्मबन्धुः जातिमात्रेण ब्राह्मणः । पिण्ड० १३१ | बंभबंधू- जन्ममात्रेण ब्रह्मबान्धवो निर्गुण इत्यर्थः स्था० ३४२| बंभयारी- ब्रह्मचारी नवविधब्रह्मगुणगुप्तिगुप्तः । आचा. ३५०| उपासकस्य पंचमी प्रतिमा । सम० १९ | इंभलेस लोकान्तकल्पे देवविमानविशेषः । सम० १९ भलो - पञ्चमो देवलोकः । ज्ञाता० १५०| बंभलोग पञ्चमो देवलोकः। भग- ६७४ ब्रह्मलोकःनन्दन १ पद्म २ राम ३ बलदेवत्रयागमन भूतदेवलोकः । "आगम- सागर-कोषः " (४) Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आव० १६३ । पञ्चमदेवलोकः । प्रश्न० १३५| बंभलोगवडिसए ब्रह्मलोकावतंसकः ब्रह्मलोकस्य मध्येs-वतंसकः । जीवा० ३९१॥ बंभलोगवहिंसग देवविमानविशेषः । सम० Pol बंभलोय- ब्रह्मलोकः कल्पोपन्नवैमानिकभेदविशेषः । आगम - सागर - कोषः ( भाग : - ४) प्रज्ञा० ६९ | बंभव ब्रह्म अशेषमलकलङ्कविकलं योगिगम्मं वेत्तीति ब्रह्म-वित्, यदि वा अष्टादशधा ब्रह्मेति । आचा० १५४ | भवडिस ईषत्प्राग्भारापृथ्वीनाम, सिद्धशिलानामा | सम० २२ बंभवण्ण देवविमानविशेषः । सम० १९ बंभसिंग- देवविमानविशेषः । सम० १९ | बंभसि देवविमानविशेषः । सम० १९ | बंभसुत्तग- ब्रह्मसूत्रं यज्ञोपवीतम्। उत्त० ९७॥ भा- ब्रह्म पुरुषपुण्डरीकवासुदेवागमनस्थानम् आव० १६३ | बंभावत्तं देवविमानविशेषः । सम० १९ - ब्राह्मी लिपिविशेषः । श्रीमन्नाभेयजिनेन स्वसुताया ब्राह्मीनामिकाया दर्शितत्वेन लिपिविशेषस्य ब्राह्मीत्यभिधानम् । भग ५१ प्रथमजिनस्य प्रथमा शिष्या सम० १५२१ आव० १४९१ ब्राह्मी लिपिविशेषः । प्रज्ञा॰ ५६। ब्राह्मीआदिदेवस्य भगवतो दुहिता ब्राह्मी वा संस्कृतादिभेदा वाणी तामाश्रित्य तेनैव या दर्शिता अक्षरलेखनप्रक्रिया सा ब्राह्मीलिपिः । सम० ३६ | बंभुत्तरवडिंग- देवविमानविशेषः । सम० १९ । बइड उपविष्टः । आव ४०५, ५३६ । उपविष्टः आसनबन्धनेन स्थितः । आव० ४०५१ बडतो- उपविष्टः । उत्त० १५३1 बल्ल बलीवई । आव० ४२६, ८२० ओघ० १४२ | बउल- बकुलं वृक्षविशेषः । आव• ५१३। बकुलः - केसरः । वृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३१ | नमिजिनस्य चैत्यवृक्षनाम । सम० १५२ | बउस- बकुश-कर्बुरं चरित्रम्। प्रश्न. १३७ । बकुशं शबलं कर्बुरम्। बकुशसंयमयोगाद्वकुशः । भग. ८९०॥ बकुशःयः शरीरोपकरणविभूषाऽन्तर्वत्त, ऋद्धियशस्कामः सातगौर वाश्रितः, अविविक्तपरिवारः, छेदशबलचारित्रयुक्तो निर्बन्थः । उत्त० २५६ । बकुशः मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [12] [Type text] शबलः कर्बुरः। स्था० ३३६। शबलचरित्रः । ज्ञाता० २०६ बकुशः- चिलातदेशनिवासी म्लेच्छविशेषः प्रश्न. १४ बउसत्तण- बकुशत्त्वं शरीरोपकरणविभूषाकरणम् । व्यव० २४६ अ बसि-बकुसिका । ४१| बक- बकः- बकोटकः । प्रश्न० ८ बकुल- केसरः । जम्बू० १९२१ कुश- निर्ग्रन्थे द्वितीयो भेदः । व्यव० ४०२ अ । स्था० ३३६ | बकुशदेशज बकुशिकः । जम्बू. १९१। बकुसत्व शरीरोपकरणविभूषाकरणम्। व्यव० ३०४ अ बकोड्डायक- भार्यादेशकरः अन्वर्थः पुरुषविशेषः । पिण्ड १३५| बग- लोमपक्षिविशेषः । प्रज्ञा० ४९ । बगुडाव बक्कोड्डायी। निशी० १०१ अ बज्झति आसङ्कलनतः बन्धनतो वा बध्यन्ते भग २५३| बज्झ बद्धं बन्धनाकारेण व्यवस्थितं वागुरादिकं वा बन्धनं बन्धकत्वादद्वन्धम् । सूत्र. 331 लौकिकैरप्यासेव्यमानं ज्ञायते इति कृत्वा बाह्यं (तपः) इत्युच्यते। विपरीतग्राहेण वा कुतीर्थिकैरपि क्रियते अनशनादि । दश० २९ | बज्झइ- बध्यते भवचारकाद् विनिर्गच्छन् प्रतिबध्यते । प्रज्ञा० ६०२ | बज्झकरण- बाह्यकरणं पिण्डविशुद्ध्यादिकम् । आव ० ५२७ | बज्झगंथ बाह्यग्रन्थः क्षेत्रादिदशभेदभिन्नः । उत्त० २६२रा बज्झपड वर्धपट्ट धर्मपट्टिका प्रश्न०५६। बज्झमाण- बाध्यमानं पीडयमानम् । उत्त० ५१०| बज्झा- बाह्या आमियोगिककर्मकारिणी । जम्बू० ४६३ | बटुक- सोमिल ब्राह्मणः। व्यव. १८८ आ बडिस- बडिशं प्रान्तन्यस्तामिषो लोहकीलकः । उत्तः ६३४| - डिसविभिन्नकाए बडिशं प्रान्तन्यस्तामिषो लोहकीलक- स्तेन विभिन्नकायो-विदारितशरीरो बडिशविभिन्नकायः उत्त० ६३४॥ "आगम- सागर-कोषः " (४) Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text]] बडुअ- बटुकः। आव० ३८९। ब्राह्मणः। आव० १०३। | बद्धपट्ठ- बद्धश्च स स्पष्टाश्च बद्धस्पष्टः, बद्धरूपो वा यः बडुग- बटुकः। आव० ३९३ स्पृष्टः। प्रज्ञा० २९८। बद्धा कर्मतापादनात् स्पृष्टाबत्तीसइबद्ध- द्वात्रिंशद् भक्तिनिबद्ध, जीवप्रदेशैः स्पर्शनात्ततः कर्मधारये च सति बद्धस्पृष्टा। द्वात्रिंशत्पात्रनिबद्धं वा। विपा. ९० भग०८४१ बत्तीसघडा-दवात्रिंशत् गोष्ठीपुरुषाः। व्यव- वि०४३३ ।। बद्धफला-क्षीरस्य फलतया बन्धनात् जातफला इत्यर्थः। अटव्यां वातेनोत्क्षिप्ताः। मरण । ज्ञाता० ११९ बत्तीसिआ-द्वात्रिंशिका- अष्टपलप्रमाणा द्वाभ्यां बद्धफासपुट्ठ- बद्धस्पर्शस्पृष्टम्। प्रज्ञा० ४५९। चतुषष्टिका-भ्यामेका द्वात्रिंशिका। अनुयो० १५१| बद्धवन्त-निर्मापणतः। स्था० १७९। बत्तीसिया- घटकस्य-रसमानविशेषस्य बदाई-जीवप्रदेशैरात्मीकरणात्। भग. ५३९। दवात्रिंशद्भागमानोमान-विशेषः। भग० ३१३। बताउओ- बद्घायुष्कः, नोआगमतः द्रव्यद्रुमस्य द्वितीयः बत्थि- बस्तिः-भस्त्रा। ठचणा० ३३९। बस्तिः। जीवा. प्रकारः। दशवै०१७ बत्थिपुडग- उदरान्तर्वर्ती प्रदेशः। निरया०११। बद्धागमा- अर्थापेक्षया। व्यव० १३५आ। बत्थीकम्म- बस्तिकर्म-अनुवासनारूपम्। सूत्र. १८० बद्धाग्रहः- सक्तः। उत्त० २६७। बदरी- स्फुटितं कर्कन्धुः । आव० १९४। बदायुषः- ये तु बद्ध- आश्लिष्टं-नवशरावे पूर्वभवत्रिभागादिसमयैर्बद्धबादरापर्याप्ततेजः तोयवदात्मप्रदेशैरात्मीकृतमित्यर्थः। आव० १२ कायिकायुष्कस्ते बद्धायुषः। प्रज्ञा० ७६। गाढतरबन्धनेन बन्धनात्। जीवा० २५९। बद्धं- बुद्धायुष्कः- स एवेन्द्रायुर्बन्धानन्तरं बद्धमायुरनेनेति सामान्यतो बद्धम्। भग० ९०निकाचितम्। सम० ६२ बदायुः। स्था० १०३। स्था० ४३। सूचीकलाप इव सूत्रेण प्रथमतो बद्धयात्रम्। | बद्धास्थि- पाकखाद्यम्। दशवै० २१९। प्रज्ञा० ४०२। जीवेन सह संयोगमात्रापन्नम्। आचा० बद्धिया- बद्धा-निवेशिता काये इति। ज्ञाता०२०५१ २०६। कर्मतापानाद बद्धम्। भग०१८४| कशा-बन्धनतो | बदिल्लया- बद्धानि। प्रज्ञा० २७०। बद्धः। भग. ३१८ ग्रन्थिदानेन बद्धः। भग० १९३| बद्धः- | बद्धी- लब्धिः -श्रोत्रेन्द्रियादिविषयः सर्वात्मप्रदेशानां तदावप्रदेशेष संश्लेषितम्। प्रश्न. ९८१ यच्चिन्ताकाले जीवैः । | रणक्षयोपशमः। प्रज्ञा. २९४। परिगृहीतं वर्तते तत्। प्रज्ञा० २७०| उपसम्पन्नः। बधिर- न सुष्ठ मया श्रुतमिति। व्यव० ३१६ आ। जम्बू. २२२। बद्ध-रागद्वेषपरिणामवशतः कर्मरूपतया बध्यते-सीव्यते। ओघ. १४६| परिणमितः। प्रज्ञा० ४५९। अवस्थितम्। जीवा० २७३। बन्धण- बन्धनं-बन्धनहेतुभूतं कर्म। जम्बू. १५८॥ बद्धः-इह जन्मनि जीवेन सम्बद्धः। उत्त० ४१। बन्धद्वार- बन्धोपलक्षितंदवारम्। प्रज्ञा० १५५। गाढश्लेषः। स्था०४७१बद्ध-गाढतरं सम्बद्धम। भग. बन्धन- तस्यैव ज्ञानावरणीयादितया निषिक्तस्य पुनरपि कषायपरिणतिविशेषान्निकाचनमिति। स्था० १०१, बद्धक- तृणविशेषः। राज० ५० १९५। आदानं-बन्धः। स्था० २२०। निर्मापणम्। स्था० बद्धकवचिय-बद्ध कवचं-सन्नाहविशेषो यस्य स ४१७। निकाचनम्। स्था० ५२७। बध्यतेऽनेनेति बन्धनं बद्धकवचः स एव बद्धकवचिकः। ज्ञाता० २२११ विवक्षितस्निग्धतादिको गणः। भग० ३९५ बद्धपएसिए- प्रदेशबन्धापेक्षया। ज्ञाता० १८३। बन्धु-माताभगिन्यादि। बृह. २८१ आ। बद्धपासपुट्ठा- पार्वेण स्पृष्टा देहत्वचा छुप्ता बप्प- बप्पः-पिता। प्रश्न. १९| आव० ३५५) रेणुवत्पाव॑स्पृष्टा-स्ततो बद्धाः-गाढतरं श्लिष्टाः तनौ | बब्बर- बर्बरः-चिलातदेशनिवासी म्लेच्छविशेषः। प्रश्न तोयवत् पार्श्वस्पृष्टाश्च ते बद्धाश्चेति राजदन्तादित्वाद | १४ आचा० ३७७। म्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा० ५५ बबरःबद्धपार्श्वस्पृष्टा। स्था०६३। अनार्य-विशेषः। भग० १७० ८३ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [13] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] बब्बरि- बर्बरदेशसम्भवा। ज्ञाता०४१। बलकुट्ट- बलकोट्ट-हरिकेशस्थानम्। उत्त० ३५४। बब्बरिय-चिलातदेशोत्पन्नो म्लेच्छविशेषः। भग० ४६० बलकूड- बलकूटं नन्दनवने नवमं कूटनाम। जम्बू. ३६७। बयर- बदरं कर्कन्धुफलम्। अनुयो० १९२। बलकोट्ट- हरिकेशभेदः। उत्त० ३५५। बलकोट्टः- बलकोट्टाबयरीवणं-बदरीवनम्। आव. ५१४१ भिधहरिकेशाधिपतिः। उत्त. ३५४। बयल्ल- बरट्टः। जम्बू० २४४। बरट्टी-धान्यविशेषः। जम्बू० बलदेव- वासुदेवज्येष्ठभ्राता। लक्ष्मणज्येष्ठभ्राता। प्रश्न १२४॥ ८७ महावीरमुख्यः। अन्त०२२ ज्ञाता०९९। २०७१ बरड- रूक्षम्। आव. ९० ऋद्धिपा-प्तार्यस्य तृतीयो भेदः। प्रज्ञा० ५५ बरहिण- बर्हिणः कलापवन्मयूराः। प्रश्न० ८मयूराः। चतुर्दशमतीर्थकरस्य पूर्वभवनाम। सम० १५४। आव० ज्ञाता० २६। २१०। रेवत्याः पतिः। निर०२९। बलदेवःबरहिणविंद-बहिणवृन्दः-शिखण्डिसमूहः। ज्ञाता० १६१| दवारावतीराजा। अन्त०१४। बल-देवः- गङ्गदत्तजीवः। बरहिणा- लोमपक्षिविशेषः। प्रज्ञा०४९। आव० २५८। बलदेवः। उत्त० ११८। बलदेवःबरुड-शिल्पभेदः। अनुयो० १५९। याचनापरीषहसोढा पुरुषः। उत्त०११७ सूत्र० ११ बी- मयूरः। जीवा० १८८ पुरुषोत्तमविशेषः। ज्ञाता०२० बल-शारीरसामर्थ्यविशेषः। प्रज्ञा०४६३। शारीरो वाचना- बलदेवघर- बलदेवगृहम्। आव. २०६। दिविषयः प्राणः। सूर्य. २९६। उवचियमंससोणिओ बलदेवपडिमा- बलदेव प्रतिमा। आव० ३०६। बलवं विरियंतरायखयोवसमेण वा बलवं। निशी० २९० बलदेवाः- बलदेवताः। स्था० ३३२॥ । शारीरम्। जीवा० २६८१ जम्बू. १०५। स्था० ३०४। बलद्द- बलीवईः। आव० १०३, ८२९। बृह. २८ अ। तृतीयवर्गे नवममध्ययनम्। निर० ३६। बलं बलवत् बलद्दसंघाडगो- बलीवर्दसंघाटकः। आव० ४१३। कष्टो-पक्रमणीयम्। प्रश्न. १५६। बलमदः यद् बलस्य बलभद्द- बलभद्रः-इक्कडदासाभिधचौरमुख्यः। उत्त० २६। मानम्। आव०६४६। वीतशोकराजधान्यां राजा। ज्ञाता० कमलश्रियः पुत्रः ज्ञाता० १२१। राजगुहनगरे १२१। बलं-शारीरः प्राणः। भग० ५७। शारीरम्। ज्ञाता० मौर्यवंशप्रसुतः श्रमणोपासको राजविशेषः। आव० ३१५ १४०। बलः-प्रभासपिता। आव० २५५) बलः-अष्टमः सुग्रीवनगरनृ-पतिः। उत्त० ४५१। नृपतिविशेषः। स्था० क्षत्रिय-परिव्राजकः। औप. ९१। सैन्यः। जम्बू. १९२ ४३०। सप्त-मवासुदेवनाम। सम० १५४। अलाभसहः। बलं-देहप्रमाणम्। भग. ३११। शारीरः-प्राणः। भग. मरण। ४६९। प्रज्ञा० ६००। जीवा० २१७। सूर्य० २५८। जम्ब०६२, | बलमित्त- उज्जेणीए राया। निशी० ३३९ आ। ज्ञाता० १३० सूर्य. २८६, २९२ प्रज्ञा० ८८ प्रश्न०७३। नीतिः १५२। प्रमाणं च। आव० ४६३॥ हस्त्यश्वादिचतुरङ्गम्। उत्त० । | बलव-सहस्रयोधो। निशी० १११ आ। बलवान्। आव. ३०७। शारीरः। सम० ५५ प्राणः। प्रश्न० ७४| चतुरङ्गम्। २७०| बलवान्-नवममुहूर्तनाम। सूर्य. १४९। जम्बू. स्था० १७३। उत्त० ४३८ शरीरसामर्थ्यम्। स्था० २३। ४९१। बलवान्-समर्थः। आचा० ३९३। बलः- अपरनामहरिकेशः। उत्त० ३५७ बलः-बलको- बलवग- बलवन्तः। प्रश्न०७४। दृहरिकेशसुतः। उत्त० ३५५) बलकथा राज्ञः बलवति पच्चतरायाणो- बलवत् प्रत्यन्तराजकं यतो बलसैन्यवाहना-दिसम्बन्धीविचारः। आव० ५८१। वन्तः- प्रत्यन्तराजानः। व्यव० २४४ अ। राजकथायासटतीयो भदः। आव० ५८१| बलवती- निवर्तयितुमशक्या। प्रश्न. १७ हस्तिनागपुनगरे राजा। भग० ५३५। बलः बलवाउय- बलव्याप्तः-सैन्यव्यापारपरायणः। औप०६११ महापुरनगरनृपतिः। विपा. ९५। संहननविशेषसमत्थः सैन्यव्यापारवान्। ज्ञाता० १४९। प्राणः। निर० १। राज० १९८१ ज्ञाता०७। सारीरं। निशी० | बलवाहणकहा- बलं-हस्त्यादि वाहन-वेगसरादि तत्कथा १८ अ। बलवाहनकथा। स्था० २१० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [14] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text) बलवीरिय- नृपतिविशेषः । स्था० ४३० बलवीरियपरिणाम- बलहेतुर्वीर्यपरिणामो यस्य स बलवीर्य परिणामः जीवा० २६५१ बलस- बलेन हठात् सकारस्त्वागमिको बाहाँ गृहीत्वेति चतुर्थः । स्था० ३१२॥ बलसा- बलात्कारेण निशी. १४६ आ। आगम-सागर- कोषः ( भाग : - ४ ) बलसिरी बलश्री वीरकृष्णमित्रराजकन्या । विपा० १५ बलश्रीः- मृगापुत्रस्य पिता राजा । उत्त० ४५०। बलश्रीःअन्तरञ्जिकानगरे नृपतिः । उत्त० १६८। बलश्रीःअन्तर-ज्जिकापुर्या राजा । आव० ३१८८ बलहरण धारणयोरुपरिवर्ति तिर्यगायतकाष्ठम्। भग० ३७६ ।] पृष्ठवंशः । बृह• ५४ अ बला- चउत्थी दशा । निशी० २८ आ जन्तोश्चतुर्थी दशा । स्था० ५१९ । दशवै० ८ बलाका- बलाका-बिसकष्ठिका । प्रश्न० ८ बलाकावलि- बलाकापङ्क्तिः । जीवा० १९१| बलागा- लोमपक्षिविशेषः । प्रज्ञा० ४९ | बलाभिओग बलाभियोगः आव० ८९Pl बलीमोडीए हठात् । निशी० १७४ अ बलामोटिका- प्रसह्य । बृह० २८१ आ । बलामोडीए- बलात्। आव० ४०१ | बलात्कारः । आ ० ३९७ । प्रसह्य | निशी० १०७ आ । बलायालोअ बलावलोकं म्लेच्छजातीयजनाश्रयस्थानम् । जम्बू. २२० बलाहए- बलाहकः- मेघः । जीवा० १९१ | बलाहका वापीनाम। जम्बू. २७१। बलाहग- बलाहकः-मेघः जीवा० ३२२, ३४४ | बलाहगा- बलाहका ऊर्ध्वलोकवास्तव्या अष्टमी दिक्कुमा महत्तरिका | जम्बू० ३८८ बलाहय- बलाहकः-वृष्टः दशकै २२३३ बलाहया बलाहका ऊर्ध्वलोकवास्तव्या दिक्कुमारी । आव० १२२ जम्बू० ३५६। बलाहिक बलाधिकः आक १०८ बलि- देवतानिवेदनम्। बृह. १६४अ बली पुरुषपुण्डरीकवासुदेवशत्रुः । आव० १५९। बलिः देवतानामुपहारः । ज्ञाता० १६९। बलवती । आव २३८| बलिः उत्तरनिकाये प्रथम इन्द्रः । भग० १५७ | मुनि दीपरत्नसागरजी रचित - [15] [Type text] बलिओ - बली । आव० ८१४ | बलिकम्म बलिकर्म्म। ऑप. २३, ४९॥ बलिकर्म-स्वगृहदेवतानां नैवेद्यविधिः । भगः १३७। बलिकरण बलिकर्म उपहारविधानम्। प्रश्न. १४१ बलिगयर बलिष्ठः। आव० ४९६| बलिपाहुडिया बलिप्राभृतिका चतुर्दिशमर्चनिकां कृत्वा अग्नौ वा सिक्थान् क्षिप्ता ततो या साधवे दीयते भिक्षा सा। आव० ५७५ | बलिमोड - पर्वपरिवेष्टनं चक्राकारम् । प्रज्ञा० ३७ | बलिय- अत्यर्थम्। बृह० २अ । बलिया- उपचितमांसशोणिता बृह० २१७अ बलिकाः प्राणवन्तः । स्था० २४७ | बलिवइसदेव वैश्वदेवबलिः | आव० ५६१। बलिवइस्सदेव बलिना वैश्वानरम् । भगः परण बलिष्ठ- परग्रामदूतीत्वदोषविवरणे सुन्दरस्य पुत्रः । पिण्ड० १२७ बलिसझ असुरकुमारराजः । भग० २० बलिस्स. औदीच्यस्य असुरकुमारनिकायराजस्य भवनम् । सम० ७५ बली बलिः- उत्तरदिग्वर्त्तिनामसुरकुमाराणामिन्द्रः । प्रज्ञा० ९४ । स्था० ८४ | बलिः - उपहारः । पिण्ड० ७२ बलिःअसुरकुमारभवनविशेषः जीवा. १६६। बलिः उपहारः । प्रश्न० ५१ | बलीवद्दा- बलीवर्द्दः वर्द्धितृगवः । विपा० ४८ । बलेया- तृतीयवर्गे नवममध्ययनम्। निर० २१| बल्लूरो- दुर्दरः । आव ३९९| बव- प्रथम करणम्। जम्बू ० ४९३ । बसहिपायरास वासिकप्रातर्भोजनम्। विपा० ६३ | बस्ति - चर्ममयी खल्ली। ओघ० १३४ ॥ बहल- बहु। ओध० ३१॥ दृढः । जम्बू• २३६ | स्थूलम् । स्था० २०९ | शून्यगृहं वृक्षं वा । ओघ० ३१। बहलतरी- जड्डतरी। निशी० १४१ अ । बहलिदेशजा- बहली। जम्बू० १९१ | बहली- देशविशेषः । आव• १४८८ चिलातदेशोत्पन्नो म्लेच्छविशेषः । भग० ४६० | ज्ञाता० ४१ | बहलीय बहुल्यः आव• १४७ बहलीकः चिलातदेशनिवासीम्लेच्छविशेषः। प्रश्न. १४ "आगम- सागर-कोषः " (४) Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] बहस्सई- अष्टाशीतौ महाग्रहै त्रयचत्त्वारिंशत्तमः । स्था० ७९ । आगम- सागर- कोषः ( भाग : - ४ ) दशवै० ११२ | बहुउप्पीलोदगा- जासिं अइभरियत्तणेण अण्णओ पाणियं वच्चइ। दशवै॰ ११२ बहिःशम्बूका- यस्यां तु क्षेत्रबहिर्भागात्तथैव भिक्षामटन्मध्यभा-गमायाति । बृह० ५२७ अ बहिआ- बाह्यतः पात्रकप्रक्षालनभूमौ । ओघ० १९०| बहिर्धा। आव० १८७| बहिणी- ससा | निशी० १०४आ । बद्धि-मैथुनम् । मैथुनपरिग्रहौ । सूत्र० १७९ । मैथुनपरिग्रहौ। सूत्र० २६४ बहिद्धा- बहिर्धा-बहिः। संयमगेहाद्द्बहिः । दशवै० ९४ | मैथुनं-परिग्रहविशेषः । स्था० २०२ | बहिद्धादाण-बहिर्द्धा-मैथुनं परिग्रहविशेषः। आदानं च परिग्र-हस्तयोर्द्वन्द्द्वैकत्वमथवा आदीयत इत्यादानं - परिग्राह्यं वस्तु तच्च धर्मोपकरणमति । स्था० २०२ बहिफोड- उड्डाहो-अध्रातः | निशी० ५१ अ । बहिय- वधितः हतः । ज्ञाता० १६९ | बहिया- बहिस्तात्। स्था० २५३ | बहिः । उत्त० २६८| बहिःबहिस्तात्। भग० ७| बहिः - आत्मनो व्यतिरिक्तानामपि जन्तूनां सुखप्रियत्वमसुखप्रियत्वं च। आचा॰ १६५ | बहियापुग्गलपक्खेवे- बहिः पुद्गलप्रक्षेपःबहिर्लेष्ट्वादिक्षेपः। आव ० ८३४ | बहियावासी- अण्णगच्छवासी । निशी० २९३ अ । बहिर- बधिरः। आव॰ ९६ । यः कथिते कार्ये बधिर इव ब्रूते सुष्ठु मया श्रुतमिति स बधिर इव बधिरः । व्यव० २५६ बहिलग- गोणातिपट्ठीए लगड्डादिएस आणिज्जति। निशी. १८७ अ । करभीवेसरबलीवर्दादिसार्थः । बृह. १२५| बहिल्लेस- बहिर्लेश्या - अन्तःकरणम् । स्था० ३३२ | बहु-वज्रादि। दशवै॰ १४७। विपुलं-विस्तीर्णम्। उत्त॰ २९६। बहुआगमविन्नाणा- बहुः-अङ्गोपाङ्गादिबहुभेदतया बह्वर्थतया वा स चासावमगश्च श्रुतं बह्वागमस्तस्मिन् विशिष्टज्ञान अवगमः एषामिति बह्वागमविज्ञानाः । उत्त० ७०९ | बहुउदय- बहूदकः-परिव्राजकविशेषः । औप० ९१| बहुउप्पलोदगा- जासिं परनदीहिं उप्पीलियाणि उदगाणि । मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [16] [Type text] बहुकायरा- ईषदपरिसमाप्ताः कातरःनिसत्त्वाः बहकायरा । उत्तः ४७७ । बहुखज्जा- बहुभक्ष्याः पृथक्करणयोग्या वा । आचा० ३९१ । बहुगुण- बहुगुणः- प्रभुततरगुणः । आव० ४९२ ॥ बहुजण- बहजो जना-आलोचनाचार्याः यस्मिन्नालोचने तद् बहुजनम्। स्था० ४८४ । बहवो जना-आलोचनागुरवो यत्रालोचने तद्बहुजनं यथा भवत्येवमालोचयति, एकस्याप्य-पराधस्य बहुभ्यो निवेदनमित्यर्थः । भग० १९। बहवो जनाः साधवो गच्छ्वासितया संयमसहाया यस्य स बहुजनः । सूत्र० २३८ बहुणडा- तालायरबहुला । नि० ३१६ आ । बहुदेवसियं- आणाहादि कक्केण वा संवासिएण एत्थ पगाराइ संवासितं तंपि बहुदेवसियं भण्णइ । निशी. ११९ अ बहुदेसिए- बहुदेश्यं ईषद्द्बहुः । आचा० ३६९ । बहुदोस- बहुष्वपि-सर्वेष्वपि हिंसादिषु दोषःप्रवृत्तिलक्षणः बहुदोषः, बहुर्वा-बहुविध हिंसानृतादिरिति बहुदोषः । स्था० १९० । बहुदोषःसर्वहिंसादिः। औप॰ ४४ | बहुनट- नटवद्भोगार्थं बहून् वेषान् विधत्त इति बहुनटः । आचा० २०३ | बहुनिम्माओ- बहुनिर्मातः । आव० ४१३ । बहुनिवट्ठिफला- बहूनि निवर्त्तितानि फलानि येषु ते बहुनिवर्तितफलाः । आचा० ३९१। बहुनिवेस - बहुः - अनर्थसंपादकत्वेनासदभिनिवेशो यस्य स बहुनिवेशः। सूत्र० २३३। बह्वायम्। ओघ० १७९। बहुनिवेशः- गुणानामस्थानिकः - अनाधारो बहूनां दोषाणां च निवेशः। स्थानमाश्रय इति । सूत्र० २३३ । बहुपक्खिए- बहुपाक्षिकः-बहुस्वजनः । आव० ७३८| बहुपडिपुण्ण- बहुप्रतिपूर्णं देशेनाऽपि न न्यूनम्। जम्बू० १५८। बहु-प्रभुतं प्रतिपूर्णः। जम्बू॰ ५७| बहुप्रतिपूर्णः। आव० १२१| बहुपर- बहुत्वेन परं बहुपरं यद्यस्माद् बहु तद् बहुपरम्। आचा० ४१५ | “आगम- सागर- कोषः " [४] Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] बहपरिकर्म- यद् बहुधा खण्डित्वा सीवितं तत्। पिण्ड० । णाणदंसणचरित्ततवविणयभावणातिगुणरंजियस्स जो ୧୨ उ रसो पीतिपडिबंधो सो बमाणो भण्णति। निशी० ८ बहुपरियावण्णं- बहुना प्रकारेण परित्यागमावन्नं। निशी. अ। बहुमानः-मानसोऽत्यन्तप्रतिबन्धः। उत्त०१७ १५१ आ। मानसप्रतिबन्धः। उत्त० ३८३ बहुपरियावन्न- बहुप्रसन्नं-अतिस्वच्छम्। औप. ९४। अन्तरभावप्रतिबन्धरूपः। दशवै. २४२। बहमानः-बहना बहुप्र-सन्नम्। ओघ० १३११ मतत्वाद् अब्रह्मणः पञ्चविंशतितमं नाम। प्रश्न०६६। बहुपाउरणं- उंगोटिं करेति। निशी. १९१ आ। बहुमाया- कपटप्रधाना। सूत्र०६७) बहुपुक्खला- बहुपुष्कला-बहुसंपूर्णा प्रचुरोदकभृतेति। सूत्र० | बहुमित्तपुत्त- बहुमित्रपुत्रः-श्रीदामामात्यसुबन्धुसुतः। રાછરા विपा० ७० बहुपुत्तिए- विशाखानगर्या चैत्यविशेषः। भग० ७३७१ | बहुमिलक्खुमह- बहुगा जत्थ महे मिलंति सो विमानविशेषः। निर०२९। बहुमिलक्खुमहो। निशी० ७१ आ। बहुपुत्तिका- तृतीयवर्गे चतुर्थमध्ययनम्। निर० २९। | बहुयणीए- बहुक्या। बृह० १२६ अ। बहुपुत्तिता- पूर्णभद्रस्य यक्षेन्द्रस्य द्वितीया अग्रमहिषी। | बहुयातीय- बहुकातीतं-अतिशयेन बहु, अतिशयेन स्था० २०४१ निजप्रमा-णाभ्यधिकम्। पिण्ड० १७४। बहुपुत्तिय- तृतीयवर्गे चतुर्थमध्ययनम्। निर० २१॥ | बहुरय- पहुकम्। आचा० ३४२। बहुषु-क्रियानिष्पत्तिबहुपुत्तिया- पञ्चमवर्गस्य दसममध्ययनम्। ज्ञाता० विषयसमयेषु रतो बहुरतः। निह्नवविशेषः। उत्त. २५२१ पूर्णभद्रस्य यक्षेन्द्रस्य दवितीया अग्रमहिषी। १५२। बहुषु-एकसमयेन क्रियाध्यासितरूपेण भग. ५०४। वस्तुनोऽनुत्पत्तेः प्रभूतसमयैश्चोत्पत्तेर्बहुषु समयेषु बहपुत्रिकादेवी- सौधर्मकल्पे देवीविशेषः। स्था० ५१३। रतः-सक्तः बहुरतः। दीर्घ-कालद्रव्यप्रसूतिरूपी। आव० बहुफासुय- बहुप्रासुक-सर्वथा शुद्धम्। दशवै० १८१। ३११। स्था० ४१०| जत्थ महे बहरया मिलंति जहा बहुफोड- बहुभक्षकः। ओघ० १२७। सरक्खा सो बहरयो भण्णति। निशी० ७१ आ। बहबीयगा- प्रायोऽस्थिबन्धमन्तरेणैवमेव फलान्तवर्तीनि प्रथमनिह्नवमतः। निशी० ३५अ। बहु रजः-तुषादिक बहुनि बीजानि येषां ते बहबीजकाः। प्रज्ञा० ३१| यस्मिंस्तद् बहुरजः। आचा० ३२३॥ बहुमए- बहुशो बहुभ्यो वाऽन्येभ्यः सकशाबहुरिति वा । | बहुरया- बहुषु समयेषु रता-आसक्ता बभिरेव समयैः मतो बहुमतः। भग० १२२। बहुमतः-पन्थाः। उत्त० ३३९। | कार्य निष्पद्यते नैकसमयेनेत्येवंविधवादिनो बहरत बहुमज्झ- बहुमध्यः-मध्यदेशभागः। ओघ० १२९। जमालि-मतानुपानितः। औप० १०६। बहुषु समयेषु बहमज्झदेसभाग- मध्यश्चासौं देशभागश्च-देशावयवो कार्यसिद्धिं प्रतीत्य रताः-सक्ताः बहुरताः। एतस्यां दृष्टौ मध्यदे-शभागः, स च नात्यन्तिक इति बहवो जीवा रतास्तेन बहतः। उत्त. १५७। बहमध्यदेशभागः। अत्यन्तं मध्यदेशभागो बहुरूवा- सुरूपस्य भूतेन्द्रस्य द्वितीया अग्रमहिषी। स्था. बहुमध्यदेशभागः। स्था० २३११ भग०५०४॥ पञ्चमवर्गस्य षष्ठममध्ययनम्। ज्ञाता० बहुमन्यते- स्तौति, प्रशंसति। आव० ५८७) २५२ बहुमयाणि- बहूनां खशूडवर्जानां सर्वेषामित्यर्थः मतानि | बहुरोगी- जो चिरकालं बहुहिं वा रोगेहिं अभिभूतो। निशी० बहुमतानि। व्यव० २४१ । २८ ॥ बहुमाण- बहुमानः-आन्तरो भावप्रतिबन्धः। दशवै० १०४१ | बहुल- अति प्रभूतः। जीवा० १७३| व्याप्तः। जीवा० १८८1 आन्तरप्रीतिविशेषः। उत्त० ५७९| गुणानुरागः। ज्ञाता० | उत्त० ३३६। प्रचुरः। ज्ञाता० ८० वर्धमानजिनस्य ३५बहुमानः-गुरुणामुपरि अन्तरः प्रतिबन्धः। बृहः । प्रथम-भिक्षादाता। आव० १४७। वीरजिनस्य प्रथमो १३३। आ। भिक्षादाता। सम० १५१। बहन भेदान लातीति मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [17] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] अतिप्रभूतम् । प्रज्ञा० ९७ | स्थूलम् । स्था० २०९ | व्याप्तः प्रभूतः । उत्त० ४२ | सम० १२८ । कोल्लाकसन्निवेशे ब्राह्मणविशेषः । भग० ६६२ बहुलदोस- सर्वेष्वपि चैवमेव प्रवर्त्तत इति बहुलदोषः। आव० ५९० आगम- सागर- कोषः ( भाग : - ४ ) बहुलपक्ख- कृष्णपक्षो यत्र ध्रुवराहुः स्वविमानेन चन्द्रविमानमावृणोति तेन योऽन्धकारबहुलः पक्षः स बहुलपक्षः। जम्बू० ४९१। कृष्णपक्षः । सूर्य० २९० बहुलप्रमाद- बहून्-भेदान् लातीति बहुल मद्याद्यनेकभेदतः प्रमोदः-धर्मं प्रत्यनुद्यमात्मको यस्य सः । उत्त० ३३६ | बहुलसंयम- बहुलः-प्रभूतः संयमोऽस्येति बहुलसंयमः। उत्त० ४२३ | बहुलसंवर- संवरः-आश्रवद्द्द्वारनिरोधः तद् बहुलो बहुल संवरः । उत्त० ४२३ | बहुलसमाधिः- चित्त स्वास्थ्यं तद् बहुलो बहुल समाधि। उत्त० ४२३| बहुला- गौविशेषः। आव॰ ८८। अनेकरूपा। जम्बू० ३०| जीवा० १८९ | बहु-बहु । आव० २१२ बहुलिय- बाहुलिकः-दासचेटः । आव० ३४३ बहुलिया- बहुलिका-आनन्दगाथापतेर्दासी। आव० २१५| बहुलो- बहुलिकः-तितिक्षोदाहरणे तृतीयो दासचेटः । आव ० ७०२१ बहुवण्णा- बभ्रुवर्णाः-पिङ्गाः ज्ञाता० २३१| बहुवत्तव्वं- बहुवक्तव्यं-प्रज्ञापनायास्तृतीयं पदम्। प्रज्ञा॰ ६। बहुवाहडा- बहुभृताः प्रायशो भृताः । दशवै० २२०| बहुवित्थर- बहुविस्तरः प्रभूतम्। नानाविधम्। पिण्ड॰ १३०| बहुविहआगम- बहुविधागमः- नानाधिशास्त्रविशारदः। ज्ञाता० २२० बहुवीइक्कंत- बहुव्यतिक्रान्तः । आव० १२१ बहुवोलीण- बहुवोलीनः। आव० ११४ बहुश्रुत- छेदग्रन्थादिकुशलम्। व्यव॰ पह० १६८ अ । बहुश्रुतः सूत्रापेक्षया । व्यव० १३५अ । बहुश्रुतपूजा- एतदभिधानमध्ययनम् । उत्त० ६८| मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] बहुश्रुतता युगप्रधानागमता। स्था० ४२३ | बहुसंपत्ते- ईषदूनसंप्राप्तो बहुसम्प्राप्तः। भग० ११६। बहुसंभारसंभिय- बहुसम्भारसंभृतम्। आव० ७२३। बहुसंभूअ- बहुसंभूता निष्पन्नप्रायाः। दशवै॰ २१९। बहुसंभोइओ - बहुसंमुदितः । आव० १९३ । बहुसंमओ- बहुसम्मतः। आव० ७३९ । बहु- बहुशः - अनेकधा । आव० ३३०| बहुसी - बहुधणकारी | निशी० ६४आ । बहुसच्च- बहुसत्यः-एकादशममुहूर्त्तनाम। सूर्य॰ १४६। जम्बू० ४९१| [18] बहुसटा- अव्वत्तभासिणो । निशी० ७२आ। बहुसम- बहुसमः-प्रभूतसमः । सूर्य० २९३। बहुसमः-बहुअत्यन्तं समः। जम्बू० ३१ | बहुसमः - अत्यन्तसमः । जीवा० २२७ | अतिसमः सुविभक्तः । ज्ञाता० ४२ सर्वमत्र समं प्रभूतसमम्। आचा० ३३९ । बहुसमतुल्लाओ - समतुल्यशब्दः सदृशार्थः अत्यन्तं समतुल्ये बहुसमतुल्ये प्रमाणतः । स्था० ६८। बहुसमरमणिज्ज- अत्यन्तसमो बहुमत व रमणियोरम्यः । सम० १६ | बहुसयण- बहुस्वजनः-बहुपाक्षिकः। आव० ७३९। बहुसालए- माहणकुण्डग्रामनगरे चैत्यविशेषः । भग० ४५६ | बहुसालग- बहुशालकः ग्रामः । आव० २१०| बहुसुम- बहुशुमः-प्रभूतसुखम् । आव० ५४७ | बहुशुभः । आव० ७९३। बहुसुयपुज्जं- बहुश्रुतपूज्यं उत्तराध्ययनेष्वेकादशममध्यय-नम् । उत्त० ९| बहुसुयपूजा- उत्तराध्ययनेषु एकादशममध्ययनम् । सम० ६४॥ बहुसुयपूया- बहुसूत्रपूजा बहोः सूत्रस्य पूजा श्रुतस्य वा पूजा बहुश्रुतपूजा। उत्त० ३४२ ॥ बहुसुया- बहुश्रुताः-ये गीतार्थाः श्रुतधराः, गणिवाचकादिश-ब्दाभिधेयाः । बृह० ह० २०७ आ बहुस्सुअ- बहुश्रुतः-आकर्णिताधीतबहुशास्त्रः । बहुसुतो वा बहुपुत्रो बहुशिष्यो वा । प्रश्र्न॰ ११६। बहुश्रुतः-बह्वागमः, महाकल्पादिश्रुतधरः। आव० ५३१ | बहुस्सुआ- बहुश्रुता-विविधागमश्रवणावदातीकृतमतयः । उत्त० २५३ | “आगम- सागर- कोषः " [४] Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] बहुस्सुए- बहुश्रुताः। ज्ञाता० १२३ बहुस्सुया- युगप्रधानागमाः। बृह० ८० आ। बाउस- बाकुशिकः-विभूषणशीलः। ओघ० १३१। बाउसिअ-बाशिकः-विभूषणशीलः। ओघ. १७२। बाडगरहिअ- वाटकरहितः। आव० ७३९। बाढं-अत्यर्थं करोमि आदेश शिरसि स्वाम्यादेशमिति। आव. १७९| बाणगुम्मा- बालगुल्माः-गुल्मविशेषः। जम्बू. ९८१ बाणारसी-अलक्ष्यभुपतेर्नगरी। अन्त०२५ बादर- प्रभूतप्रदेशोपचितम्। प्रज्ञा० ५०२। बादरक्षेत्रपल्योपम-क्षेत्रपल्योपमे प्रथमो भेदः। स्था० ९१। बादरबोन्दिधराणि-पर्याप्तकत्वेन स्थराकारधारीणि। स्था० २९५ बाधित- जरसोसादिणा। निशी० ९९ आ। बायर- बादरनाम यदुदयाज्जीवा बादरा भवन्ति। स्था० २९५। बादरत्वं परिणामविशेषः। प्रज्ञा० ४७४। बादरमेवातिचारजातमालोचयति न सूक्ष्मम्। स्था० ४८४। बादरः-गुरुतरः अतिबहलतरो वा। जीवा० ३४४। बादरः असारः पुद्गलः। जीवा० २४४१ बायालीसं-दवाचत्वारिंशत्-दवाचत्वारिंशत्तमः। सूर्य पुरीविशेषः-नेमिनाथजिनस्य स्थानम्। आव. १३७५ कृष्णस्य राजधानी। निर० ३९। दद्वारावती प्री-विशेषः। आव. ९४१ बारवती-दवारावती-अरिष्टनेमिजिनस्य समवसरणस्थानम्। अन्त०५ द्वारवतीवसुदेवराजस्य नगरी। अन्त०४। द्वारिकावासुदेवराजधानी। आव० २७२। कण्हस्स णयरी। बृह. ५६ अ। द्वारावती-कृष्णवास्देवराजधानी। अन्त०११ बारसावत्त- द्वादशावतः-आव० ५१५। द्वादशावर्ताश्च इमे छराहोक्ताः-ये प्रपाणगलकर्णसंस्थिताः, पृष्ठमध्यनयनोप-रिस्थिताः। ओष्ठसक्थिभुजकुक्षिपार्श्वगास्ते ललाटसहिताः सुशोभनाः ||१|| जम्बू० २३६। बारसावय- द्वादशावतः-सूत्राभिधानगर्भः कायव्यापारवि-शेषो यस्मिन् सः। आव ५४२| बारसाहदिवसे- द्वादशाहदिवसः-द्वादशानां पूरणो द्वादशः स एवाख्या यस्य स द्वादशाख्यः स चासौ दिवसश्चेति विग्रहः, अथवा दवादशं च तदहश्च द्वादशाहस्तन्नामको दिवसो वादशाहस्तदिवस इति। स्था०४६२ बार्हस्पत्य- मतविशेषः। आचा० ८२। बाल- बालः-भगवत्यां एतन्नामकः प्रथमशतकाष्टमोद्देशः। भग०६। बालः-अज्ञः। दशवै. १९६। बालः-अष्टवर्षा-दारभ्य यावत्पञ्चविंशतिका। ओघ० २५। अविवेकः। उत्त० ३१६। अज्ञस्तद्वद् यो वर्तते विरतिसाधकविवेकविकलत्वात् स बालःअसंयतः। स्था० १७५। सम्यगर्थानवबोधात् सद्बोधकार्यविरत्यभावाच्च मिथ्यादृष्टिः। भग० ६४। रागा-दिमोहितः। आचा० १२५। अष्टवर्षादारभ्य यावत्पञ्चविंशतिकः। ओघ. २५। अविरतः अन्यो। १२० अचिरका-लजातम्। जीवा० १९२ बालमरणंमरणस्याष्टमो भेदः। उत्त० २३०| बालः-अभिनवः, प्रत्यग्रः। सूत्र० १३३। बालः-तत्सर्वमहमकार्षमित्येवं दवाभ्यामाकलितोऽज्ञो वा। सूत्र. २८९। बुभुक्षया तृषा वाऽऽगलितो बाल। बृह. २४ अ। बालः-द्वाभ्यां रागशेषाभ्यामाकलितः। उत्त० २८० बालगवि- अवृद्धा गो, व्यालगवः-दुष्टबलिवर्दो वा। उत्त. 331 बार-द्वारम्। आव० ३२३। बारजक्खणी- द्वारपक्षावासः। आव० ६८० बारत्तत-नामविशेषः। अन्त० २३। बारब्भासो-दवाराभ्यासः। आव.३५५ बारवड़- द्वारिका। आव० ३५८ द्वारिका-वैनयिक्यां बुद्धौ पुरी। आव० ४२४। द्वारावती-वासुदेवपुरी। आव० १६२१ द्वारावती-द्वारिका-कृष्णराजधानी। दशवै. ३६| निशी. १०४ आ। बारवइणयरी- द्वारवतीनगरी- वारिकानगरी। दशवै. ३६| बारवई- द्वारावती-द्वारिका। दशवै० ९६। द्वारावती कृतिकर्म-दृष्टान्ते पुरी। आव० ५१३। द्वारावतीकृष्णवासुदेवस्य नगरी। अन्त०१८ ज्ञाता० ९९, २०७४ द्वारावती-सुरा-ष्ट्रजनपदे आर्यक्षेत्रम्। प्रज्ञा० ५५५ निशी० ४४ अ। दवारवती-नेमिजिनस्य प्रथमपारणकस्थानम्। आव० १४६। द्वारवती मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [19] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] आ। । ५५१ गाः बालवचनीयाः। आचा० २५११ बालग्गाह-बालग्राहः। आव०६६, ३७० बाला- जन्तोः प्रथमा दशा। दशवै० ८रागद्वेषाकलिताः। बालघायए- प्रहारदानेन बालघातकः। ज्ञाता०८७। आचा० ३०५। अभिनवयौवना। उत्त० ४७६। जातमात्रस्य बालचंद-बालचन्द्रः-शुक्लपक्षदवितियाचन्द्रः। ज्ञाता० जन्तोर्या सा प्रथमा दशा, तत्र सुखदुःखानि न बहू २२२ बालचन्द्रः। प्रज्ञा०४४१। साकेतनगरे जानन्ति इति बाला। स्था० ५१९। बाला इव बालाःचन्द्रावतंसकराज्ञः पियदर्शनायाः कनिष्ठतः। आव. अविरताः। सम० ३४| रागदवेषाकलिताः। उत्त० २६७। રૂા . प्राकृतपुरुषाः। आचा. २५१। प्रथमा दशा। निशी. २८ बालण्ण-कलं जानाति इति बलज्ञः, छान्दसत्वाद्दीर्घत्वं, आत्मबलं-सामर्थ्य जानातीति बालाभिरामः- बालानां-विवेकरहितानामभिरामःयथाशक्त्यनुष्ठानविधायी अनिगृहितबलवीर्य इत्यर्थः। चित्ताभि-रतिहेतुः। उत्त० ३८६) आव० १३२ बालिंदगोवेइ- बालेन्द्रगोपकः-सदयो जात इन्द्रगोपकः। बालतव-बालतपः- अज्ञानितपश्चरणम्। आचा० १७५। जम्बू० ३४१ बालतवस्सी- बालतपस्वी वैश्यायनः। आव. २१२१ बालिय- बाल्यं-बालतः, मिथ्यात्वः। अविरतिश्च। भग. बालदिवायर- बालदिवाकरः-प्रथममुद्गच्छन् सूर्यः। प्रज्ञा० १०० ३६१| बालियत्तं- बालत्वम्। भग० १०२ बालघोवणं- चमरिबाला धोवंति तक्कादीहिं। निशी०६१ बाली- तूलविशेषः। राज० ५० बालेंदगोवे- बालेन्द्रगोपकः-सद्यो जात इन्द्रगोपकः, स हि बालपंडिअ-बालपण्डितः-देशविरतः। सम० ३४१ अनयो० | प्रवृद्धः सन् ईषत्पाण्ड्रक्तः। प्रज्ञा० ३६१। १२० बावत्तरं- द्वासप्ततं-द्विसप्तत्यधिकम्। सूर्य. ११४। बालपंडितमरण- बालपण्डिताः देशविरतास्तेषां मरणं बासट्ठी- द्वाषष्टिः-द्वाषष्टिभागीकृतस्य चन्द्रविमानस्य बालपण्डितमरणम्। सम० ३३। द्वौ भागावुपरितनावपाकृत्य शेषस्य पञ्चदशभिर्भागे बालपंडिय- देशविरतः। आत बालपण्डितः-देशविरतः। हृते ये चत्वारो भागा लभ्यन्ते ते। सूर्य० २७९। भग० ६४। बालपण्डितः-श्रावकः। भग० ९१। बालो-देशे | बासीति- व्यशीतं-द्व्यशीत्यधिकम्। सूर्य. १११ विरत्यभावात् पण्डितो-देश एव विरति-सद्भवादिति बाहणापदाणं- बाधना बाधहेतुत्वात् पदानां बाल-पण्डितः-देशविरतः। भग० ६४। संयमस्थानानां प्रजानां वा-लोकानां बाधनापदानाम्। बालभावलोभावाए- बालभावलोभावहः। आव. २९० अब्रह्मणः सप्तमं नाम। प्रश्न०६६। बालमरण-विरमणं विरतं-हिंसाऽनृतादेरुपरमणं न बाहत्तरिकलापंडिओ-दवासप्ततिकलापण्डितः। उत्त. विदयते तद येषां तेऽमी अविरताः तेषां-मृतिसमयेऽपि २१८ देशविरतिमप्रति-पदयमानानां मिथ्यादृशां सम्यग्दृशां बालप्पमोक्खण- बाष्पप्रमोक्षणंवा मरणमविरतमरणं बालमरणमिति। उत्त. २३४ आनन्दाश्रूजलप्रमोचनम्। ज्ञाता०८९। अविरतमरणम्। भग० ६२४। बाला इव बालाः- बाहलविसओ- बाल्हीकविषयः-देशविशेषः। आव० ३६१। अविरतास्तेषां मरणं बालमरणम्। सम० ३३ बाहल्ल-बाहल्लं, स्थूलता। प्रज्ञा०४८। बाहल्लंबालमारए- बालमारकः प्राणवियोजनेन। ज्ञाता० ८७। उच्चैस्त्वम्। आव० ४४३। बाहुल्यं-पिण्डः। सम० ३६। बालव-द्वितीयं करणम्। जम्बू०४९३। आचा० १५। सूर्य. ३९। जम्बू. ५३। बाहुल्यंबालवच्छा- बालवत्सा-स्तन्योपजीविशिश्का। पिण्ड. उरःपृष्ठस्थूलता। प्रज्ञा० ४२७। बाहुल्यं-उच्चत्वम्। १५७। शिशुपालिका। ओघ० १६३। जम्बू० ४३५। बाहुल्यं-स्थूलता। जीवा० ४०। बाहुल्यम्। बालवयणिज्जा- बालानां-प्राकृतपुरुषाणामपि वचनीयाः- | प्रज्ञा० १०७। बाहुल्यं-बहलता, पिण्डत्वम्। प्रज्ञा० २९३। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [20] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text) बाहुल्यं-पिण्डभावः। जीवा० ९७, १०१ बाहल्लओ बाहल्यतः पिण्डतः । प्रज्ञा० ५९१| [Type text] बाहिराबाहिर- बाह्याबाह्यं, द्रव्यानुयोगे सप्तमभेदः । स्था० ४८१| बाहिरावही बाह्यावधिः । प्रज्ञा० ५३६ | बाहिराहिया बाहिरा बायाः बाहव भुजाः । आचा० २४६ | द्वारशाखाः । स्था० ४५० | बाहा दक्षिणोत्तरायता वक्रा आकाशप्रदेशपङ्क्तिः । जम्बू० ७२ बाधनं बाधा आक्रमणम् जीवा० २२२ जम्बू॰ ६४। बाधा-परस्परं संश्लेषतः पीडनम् । जम्बू० ६५। बाधते इति बाधा-कर्मण उदयः । भग० २५५| जम्बू० ७३। बाधा। सूर्य० ६७। बाहुः । आव० १२३, ५०६ । शिरोभागाधोवर्ती जानुनोरुपरिवर्ती प्राक्चरणभागः । जम्बू ० २३४ | बाधा-मलबाधा। आव० ६१८ | स्वाचारपरिभ्रंशादद्विशिष्ठजनबहिर्वर्तिनः, अहियाअहिता ग्रामादिदाहकत्वात्। विपा० ५६। बाहिरिआ बाहिरिका- नगरबहिर्भागः । जम्बू० १८८| बाहिरिका आभ्यन्तरिकापेक्षया बाह्या जम्बू. १८७१ बाहिरिका- बहिर्भवा बाहिरिका - प्राकारबहिर्वर्तिनी गृहपद्धतिः । बृह० १८१ अ बाहाए- बाहे-उभगपाश्र्चौँ। जम्बू० २३०| बाहौ पार्श्वे । सम० बाहिरिया बाहिरिका- नगरबहिर्भागः । औप० ६१। स्था० १६। ४५७। बहिर्भागः। भग० ४७६ | आव० २९३, ५१२ | भग० ६६१ | बाहिरे तवो बाह्यतपः बाह्यशरीरस्य परिशोषणेन कर्मक्ष-पणहेतुत्वा;ति। सम० १२ बाहिसंबुक्कावडा- गोचरचर्यामभिग्रहविशेषः। निशी० १२ आगम-सागर- कोषः ( भाग : - ४ ) बाहागयपप्पु अच्छियं बाष्पागतोपप्लुप्ताक्षिकम्, बाष्पस्यागतं आगमनं तेनोपप्लुते-व्याप्ते अक्षिणी यत्र तत्तथा अनुयो० १३९ | बाहाया वृक्षविशेषः अनुत्त० पा बाहिंति- बाधेते। बाधेते। आव० ३६७ । बाहिपरिसरो बहि: परिसर आव• ८६ बाहिर द्रष्टुर्बहिर्योऽवधिस्तस्यैव एकस्यां अनेकासु वा विच्छिन्नः स बायः । आव० ४४ | धर्मसाधनव्यतिरेकेण धनधान्यादिरनेकधा परिग्रहः । स्था० २६ । बाह्यं अनशनादिः। प्रश्न॰ १५७| बाह्यम् । स्था० ३६४ | ओघ० २०९ | लोकाचारस्य बायः ओघ० ९३५ बाहिरए बाह्यस्यैव शरीरस्य तापनान्मिथ्यादृष्टिभिरपि तपस्तया प्रतीयमानत्वाच्च बाह्यः । औप० ३७ बाहिरओ बहिस्तान्-त्वग्भागे। जम्बू. २०१ बाहिरकरणालस- बाह्यकरणालस: प्रत्युपेक्षणादिवायचेष्टा-रहितः आव० ५३४| बाहिरगा| अग०६३४५ बाहिरपाडओ बायपाटकम् आव. ५रण बाहिरपाणं सचित्तजलम् गच्छा० । बाहिरलावणिय- बाह्यलावणिकः लवणसमुद्रे शिखाया बहिश्चारी चन्द्रः । जीवा० ३१८ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित - [21] अ। बाहिहिंतो- गृहादेर्बहिस्तात्। स्था• ३५३१ बाहु:- उदग्धनुः काष्ठाद्दक्षिणं शोध्यं शेषार्धम्। आचा० ३८ बाहु-वज्रसेनधारिण्योः पुत्रः । आव० ११७। बाहुअं- रोसवसेणं बलोवलिं जुज्झं लग्गा । निशी. २१६ अ बाहिरगिरिपरिरओ- बहिर्गिरिपरिरयः- गिरेर्बहिः परिच्छेदः । जीवा० ३४३ | बाहिरणियंसणी उवरि कडिउ आरद्वा जाव अहो खुलुंगो। बाहुबली बाहुबलिः तक्षशिलायां राजा आव० १४७ निशी. १८० अ निशी. ३०४ अ । वैयावृत्ये दृष्टान्तः | ओघ० १७९ बाहुया- त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः । प्रज्ञा० ४२॥ जीवा॰ ३२ । बाहुयुद्धं योधप्रतियोधयोः अन्योऽन्यं प्रसारितबाहवोरेव निनं-सया वल्गमनम्। जम्बू. १३९| जाता० ३८ बाहुरक्षिका:- तुटितानि । प्रज्ञा० ९९| बाहुए- बाहुकः-यः शीतोदकादिपरिभोगात् सिद्धः। सूत्र॰ ९५| बाहुजीही बाहुभ्यां युध्यत इति बाहुयोधी ज्ञाता० ४२ बाहुपमाण बाहुप्रमाणः स्कन्धप्रमाणः ओघ० २१० बाहुपम्मदी बाहुभ्यां प्रमृन्दातीति बाहुप्रमद्द। ज्ञाता० ४२ बाहुबलि बाहुबलिः सोमप्रभपिता, श्रेयांसपितामहः । आव• १४५ ॥ येन संवत्सरं यावत् कायोत्सर्गः कृतः सः । आव० ७७२| ऋषभजिनस्य पुत्रः । आचा० १३३ "आगम- सागर-कोषः " (४) Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] ९११ बाहुल- इन्द्रदत्तराज्ञो दासचेडः। उत्त० १४८१ बितिउग्गह-दवितीयप्रतिग्रहकः। ओघ. २१५ बाहुलेर- बाहुलेयः। आव० ८८ बितिज्ज- साहाय्यकः। आव०७१८१ नपरतं-उत्सन्नम्। आव० ५९० बितिज्जिया-दवितीयिका। दशवै. ९७। बाह्यग- बाह्य-नगरबहिर्वर्तिप्रदेशं गच्छतीति बितिसत्त-दवितीया सप्तरात्रिकी। आव०६४७९ बहिर्निष्क्रामन्तम्। उत्त०४८३। बिदलकट्ठमओ-द्विदलकाष्ठमयः। आव० ७२७) बाह्यपरिधि- पर्यन्तचक्रवालम्। प्रश्न०६१। बिदलियचटुलयछिन्न-द्विदलवत्तिर्यक्छिन्नः। आव. बिंट- वृन्तं-प्रसवबन्धनम्। प्रज्ञा० ३७| ६५१| बिंटबद्ध-वृन्तबन्ध-वृन्ताकप्रभृतिः। जीवा० १३६। बिन्दुः- पुलकः। सूर्य. ४। बिन्दवः-छटाः। जम्बू. २३६। बिंति- ब्रुवते-अवधारयन्ति। सूत्र० ११२ | बिन्दुसार- चतुर्दशं पूर्वनाम। स्था० १९६। आव०६९। बिंदुसार- चंदगुत्तस्स पुत्तो। बृह० ४७ अ। चंदगुत्तस्स | बिन्दुसारः-राजविशेषः। दशवै. ९१। पत्तो। निशी. २४३॥ चन्द्रगुप्तस्य पुत्रः। बृह. १५४ अ। | बिन्दुसारपव्व- चतुर्दशं पूर्वम्। सम० २६। बिंब- बिम्ब-बिम्बीफलम्। प्रज्ञा. ९१। जीवा. १६३। बिम्बं- | बिन्नागयड-बेन्नाकतट-नगरविशेषः। उत्त. २१८। रूपम्। आव० ५२२। प्रतिमा। आव० ५२४१ बिब्बोअ-उच्छीर्षकं। गच्छा० हस्तपादकर्णनासाक्षिविवर्जितं बिम्बम्। निशी. ४५ । बिब्बोयण- उपधानकम्। सूर्य. २९३। जीवा. २३१। उपआ। बिम्ब-गर्भप्रतिबिम्ब, गर्भाकृतिरातवपरिणामः। धानम्। ज्ञाता० १५। उपधानकम्। राज० ९३। स्था० २८७ बिम्बः-चर्मकाष्ठादि। ओघ० २२३। बिम्बः- | बिभीतक-नोकर्मद्रव्यकषायास्तु बिभीतकादयः। आचा. अत्याम्लम्। आव०४३७ बिंबफलं- गोल्हाफलम्। जीवा. २७२ प्रश्न. ८१। बिम्ब- बिभेल-सन्निवेषवेगशः। भग०५०११ फलं-पक्वगोल्हाफलम्। जम्बू० ११२ बिब्बोट्ठी-बिम्बोष्ठीबिंबभूय- बिम्बभूतः-जलचन्द्रवत्तदर्थशून्यं पक्वगोल्हाभिधानफलविशेषाकारोष्ठी। कूटकार्षापणवद्वा लिङ्गमात्रधारी पुरुषाकृतिमात्रो वा। बिरालिय-कन्द एव स्थलजः। आचा० ३४८। सूत्र० २३५ बिल- विवरम्। भग० २३७। नन्दी. १५२। कूपः। जम्बू० बिहणिज्ज- बृहणीयं धातूपचारित्वात्। जम्बू. ११९ ४१। जीवा० १९७। खनिविशेषोत्पन्नं लवणम्। आचा० बिइज्जयं-द्वितीयम्। आव. २११, ३४९। ३४३। बिलानीव बिलानि स्वभावनिष्पन्ना जगत्यादिषु बिइज्जिय-दवितीयम्। आव. ३४९। कूपिका। प्रज्ञा० ७२ बिलानिकूपाः। राज० ७८। बिलंबिइयकसाया- द्वितीयकषाया- अप्रत्याख्याननामधेयाः विवरम्। भग० २३७। कूपः। जम्बू०४१। रन्ध्रः। ज्ञाता० क्रोधादयः। आव०७७ १९९। बिइयदुय- द्वितीयद्वयं-हेतुस्तच्छुद्धिश्च। दशवै० ७६। | बिलकोलीकारग- बिलकोलीकारकः-परव्यामोहनाय बिखुरा- द्वौ द्वौ खुरौ प्रतिपदं येषां ते विखुराः- विस्वर-वचनवादी विस्वरवचनकारी वा। प्रश्न.४७ उष्ट्रादयः। प्रज्ञा० ४५ बिलधम्म- गृहस्थैः संवत्यैकत्र स्थानम्। बृह. १३६ आ। बिगुणं- द्विगुणं-द्विसंख्याङ्क बिगुणं-प्रधानं बिलपंतिआ- बिलपङ्क्तिः । अन्यो . १९५५ गुणरहितम्। जम्बू०९११ बिलपंतिया- बिलानीव बिलानि-स्वभावनिष्पन्ना बिचक्खु-देवो विचक्षुः चक्षुरिन्द्रियावधिभ्याम्। स्था० जगत्यादिषु कूपिकास्तेषां पङ्क्तयो बिलपङ्क्तयः। १७१ प्रज्ञा० ७२ बिलप-क्तिका-धात्खनिपद्धतिः। प्रश्न. बिजडी- द्विजटी। जम्बू० ५३५ १६० बिडाल- मार्जारः। जम्बू० १२४१ उत्त०६३६। जीवा. २८२। बिलपंती-बिलपड़क्तिः -विवरश्रेणिः । भग. २३८५ बिण्णि-वौ। भग. १७९। बिलवासिण- बिलवासिनः। निर०२५ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [22] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम- सागर - कोषः ( भाग : - ४ ) बीजबुद्धयः ये त्वेकं बीजभूतमर्थपदमनुसृत्यशेषमवितथमेव प्रभूततरमर्थपदनिवहमवगाहन्ते ते बीजबुद्धयः । बृह [Type text] बिल्ल- बिल्वं फलविशेषः । प्रज्ञा० ३२८, ३६९ | भग० ८०३ | बिल्वं फलविशेषः । अनुयो० १९२१ बिल्लगिर बीजपूरगर्भम् । आव ०६९ बिल्ली- हरितविशेषः । प्रज्ञा- ३३ गुच्छाविशेषः प्रज्ञा ३२ बिल्व वेणुकं फलविशेषः आचा० ३४९। बिल्वीफलम् - श्रीफलम् । दशवै० १०० | बिश- मृणालिका | जीवा. २७ बिस कन्दः । जीवा० १२३, १९८१ मृणालम्। भग०६२८ पद्मिनीकन्दः । जीवा. १९१| नालं मृणालं च प्रज्ञा० ३७॥ पद्मिनीकन्दः । राज० ३३| कन्दाः । राज० ७८ | बिसकंद बिसकन्दः जीवा. २७८१ बिहप्पई- बुहस्पतिः अष्टाशीतौ महायहे त्रिचत्वारिंशत्तमः। जम्बू० ५३५ | बिहेलए- बिभीतकः अक्षः वृक्षविशेषः प्रजा० ३१ बिहेलग बिभीतकं विभीतकफलम्। दशवे. १८६ | बी बीजं - हरितफलरूपम् व्रीह्यादि। दशवै० २६५५ बीजंपृथग्भूतम् । दशकै० २०० बीअग बी अको वृक्षविशेषः । जम्बू. 3 अम्मा बी अकगुम्माः गुमविशेषः । जम्बू• ९८ बीअणि- व्यजनं-पदैकदेशे पदसमुदायोपचाराद् व्यालव्यजनं चामरं आर्षत्वात् स्त्रीत्वं तेन व्यजनीति निर्देशः । जम्बू. १८३॥ बीअपूरक मातुलिङ्गम् । अनुत्त०६ बीअबुद्धी- बीजमिव विविधार्थाधिगमरूपमहातरुजननाद् बुद्धिर्येषां ते औप. २८ बीअमंधू- बीजमन्धु: यवादिचूर्णम्। दशकै० १८६। बीअसंसत्त बीजसंसक्तं बीजमिश्रं ओदनादि। दशव २००१ बीअसुहुम- बीजसूक्ष्मम् शाल्यादिबीजस्य मुखमूले कणिका, या लोके तुषमुखमित्युच्यते । दशकै० २३०| बीआओ बीजाय: अपरदक्षिणो वातविशेषः आव० ३८६। - बीजं प्रसारितशाल्यादि । दशकै० २२९ | बीजंशाल्यादि दशकै १५५1 बीज बीजमिव यदेकमप्यनेकार्थप्रतिबोधोत्पादकं वचः । स्था० ५०४५ मिंजा । स्था० ५२१ व्रीह्यादि उत्पत्तिः । स्था० ४४९ अनंकुरितं यावत् गृह• २६६ आ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [23] [Type text] १९३ आ बीजबुद्धी बीजकल्पा बुद्धिर्येषां ते बीजबुद्धिअर्थमात्रमवाप्य नानार्थसमूहाभ्युहिका बुद्धिर्यस्य स । प्रज्ञा० १०५ | बीजरुह । स्था० १८७ बीतरुति- यस्य ह्येकेनापि जीवादिना पदेनावगतेनानेकेषु पदार्थेषु रुचिरूपेति स बीजरुचिः स्था० १०३॥ बीभच्छ बीभत्सः - शुक्रशोणितोच्चारप्रश्रणाद्यनिष्टमुद्वेजनीयां वस्तु बीभत्समुच्यते, तदर्शनश्रवणादि प्रभवो जुगुप्साप्रकर्षस्वरूपो रसः । अनुयो० १३५५ बीभत्था बीभत्सा निन्दा जीवा० १०७ | बीभत्यादरिसणिज्जा- बीभत्सादर्शनीयः - निन्दादर्शनीयः । जीवा० १०७ | बीयं समोसरणं ऋतुबद्धकालः । बृह• २७८ आ। बीयं बीजं यदेकमप्यनेकार्याप्रबोधोत्पादकं वचः । प्रज्ञा० ५८ शाल्यादि । ज्ञाता० ५२१ अणकुरियं बीयं निशी. ८३ अ बीजं नाम शौकाः पुद्गलाः । व्यव० ३५०| बीयक- आसासकाभिधानो वृक्षः । राज० ९। बीकाए बीजमेव कायो यस्य स बीजकायः सूत्र० ३५० | बीयग- बीयकः-वृक्षः प्रतीतः । जीवा० १९१ । बीयपयं- अपवादपदम्। गच्छा० । बी बुद्धि- बीजबुद्धिः । या पुनरेकमर्थपदं तथाविधमनुसृत्य शेषमश्रुतमपि यथावस्थितं प्रभूतमर्थमवगाहते सा बीजबुद्धिः । प्रज्ञा० ४२४॥ बीयर्बेटिया त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः । प्रज्ञा० ४२॥ बीयभोयण बीजं दाडिमादीनां भोजनम्। स्था० ४६० बीयभोयणा बीजभोजना- बीजानि भयोजने यस्यां प्राभृति-कायां सा आव. १७६ बीयरुई- बीजं-यदेकमप्यनेकार्थप्रतिबोधोत्पादकं वचस्तेन रुचिर्यस्य स बीजरुचिः । उत्त० ५९३ । स्था० ५०४ | बीजमिव बीजं यदेकमप्यनेकार्थप्रबोधो वचः तेन रुचिर्यस्य बीजरुचिः । प्रज्ञा० ५६ । बीयरुह बीजरुहाः शालीव्रीह्यादयः । आचा० ५७। बीज - "आगम- सागर-कोषः " (४) Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] ५ रुहाः-शाल्यादयः। दशवै० १३९। स्वपरर्यायोपेतान्निखिलान् जीवादि-पदार्थान् जानाति साधारणबादरवनस्पति-कायविशेषः। प्रज्ञा० ३४१ तदा बुध्यत इति व्यपदिश्यते। भग० ३४। बीयवावए-| निशी० ३३५ आ। बुज्झति- बुद्ध्यते-श्रद्धत्ते। स्था० ३०६। केवलज्ञानभावात् बीयवासा- बीजवर्षः-बीजवर्षणम्। भग० १९९। समस्तवस्तूनि घातिचतुष्टयघातेन बुद्ध्यते। स्था० बीयवृट्ठी- बीजसूक्ष्म-शाल्यादिबीजस्य मुखमूले कणिकाः १८१ लोके या तुषमुखमित्युच्यते। स्था०४३०| बुज्झिय- बुद्धा-अनुभूय, प्राप्य च। उत्त. १८८1 बीया- बीजानि-अभिनवाङ्कुरितानि। आचा० ३७६। औष- बुज्झेज्जा- बुद्धयेतानुभवेत्। भग० ४३२। बुध्येत-लोकाधिविशेषः। प्रज्ञा० ३३ लोकस्वरूपमशेषमवगच्छेत्। प्रज्ञा० ४००। बुध्येतबीयाहारा- बीजाहाराः निर०२५१ जानी-यात्। प्रज्ञा० ३९९। बुध्येत-अनुभवेत्, श्रद्दधीत। बीहणओ- भापयति-भयवन्तं करोतीति भापनकः। प्रश्न. स्था०४६। बुट्टोसि-छुटितः। निशी० ३४७ आ। बीहावणयं-भापनम्। ओघ. २०३। बुद्धंतो- बुध्नान्तः-अधोभागः। सूर्य० २८७। बीहावेति-भापयति। आव० १९१। बुद्ध-बुद्धाः-आचार्या। प्रज्ञा० २०| बुद्धः-अवगततत्तवः बीहियव्वं- भेतव्यम्। आव० १२२॥ गीतार्थः। दशवै० १९०| बुद्धः-अवगतवस्तुतत्त्वो गुरुः। बुदि- बुन्दिः -शरीरम्। उत्त० ६६८। बुदि-शरीरम्। तन्दु०। उत्त०५४। बुद्धःअवगततत्त्वः सर्वज्ञः। सूत्र०४०५। बुद्धःबुंदुच्छियं- बिन्दूद्धारः। मरण। अज्ञाननिद्राप्रसुप्ते जगत्यपरोपदेशेन जीवादिरूपं तत्त्वं बुइआरक- कपाटयोः पश्चाद्भागे यन्त्रम्। बृह. १६४ आ। बुद्धवानिति। बुद्धः-सर्वज्ञसर्वदर्शिस्वभावबोधरूपः। प्रज्ञा. बुइए- उक्तं-कथितम्। भग० १५५ उक्तः । भग. २४८। ११२ बुद्धः-कालत्रयवेदी। सूत्र० २४८। बुद्धः-अवगबुइय- उक्तम्। उत्त० ४४५। उक्तं-प्रतिपादितम्। सूत्र तत्त्वः। जीवा० २५६। आगामिचतुर्विंशतिकायां રાછરા. चतुर्विंशति-तमजिनस्य पूर्वभवनाम। सम० १५४| बुद्धःबुइयाइं- व्यक्तवाचोक्तानि स्वरूपतः। स्था० २९७) जीवादितत्त्व-ज्ञाता महावीरः। जीवादितत्त्वं बुद्धवान्। बुक्कसं भग० ९। बुद्धः-ज्ञानवान्। भग० १११। बुद्धाः-तत्त्वं मदगमाषादिनखिकानिष्पन्नमन्नमतिनिपीडितरसम्। ज्ञातवन्तः बुद्धवन्तः परमार्थमिति। स्था० ३३। उत्त० २९५। चिरन्तनधान्यौदन-पुरातनसक्तुपिण्डं, | बुद्धउत्त- बुद्धानां-आचार्यादीनां पुत्र इव पुत्रः बुद्धपुत्रः। बहु-दिवससम्भृतगोरसं गोधूममण्डकं च। आचा० ३१५) उत्त० ४६। बुद्धोक्तं-बुद्धःबुक्कह- भक्षयत। मरण। अवगततत्त्वैस्तीर्थकरादिभिरुक्तं-अभिहितम्। उत्त. बुक्कासकुलाणि- बाक्कशालियाः-तन्तुवायाः। आचा० ३२७ बुद्धउत्तेनियागट्ठी- बुद्धैः-अवगततत्त्वैरुक्तमभिहितं बुज्झंति- बुध्यन्ते घातिकर्मक्षयेण। उत्त० ५७२। निजकं ज्ञानादि, तदर्थयते-अभिलषतीत्येवंशीलः बुध्यन्ते-केवलिनो भवन्ति। आव०७६१| बुद्धोक्तनिज-कार्थी। उत्त० ४६। निरावणरत्वात्केवलावबो-धेन समस्तं वस्तुजातम् बुद्धजागरिय- बुद्धानां-व्यपोढाज्ञाननिद्राणां जागरिकाबुध्यन्ते। जीवा० ४८१ प्रबोधो बुद्धजागरिका। भग० ५५४। बुज्झइ- बुध्यते-अवगच्छति। प्रज्ञा० ६०६। बुध्यते- बुद्धबोधितः- साधुभेदविशेषः। भग० ४। अनुभवति। भग० २८९। बध्यते-सम्यक् श्रद्धत्ते इति बुद्धबोधिताः-आचार्यादिबोधिताः। स्था० ३४॥ बोधेः सम्यक्श्रद्धानपर्यायत्वात्। भग० २३९। रूयते। बुद्धबोहिय- बुद्धबोधितः-आचार्यबोधितः। नन्दी० १३२। आव०४२७। रूयते-निद्रां जहाति। उत्त. १३७ स एव | बुद्धबोहिय- बुद्धबोधितः- आचार्यस्तैर्बोधिताः सन्तो ये यदा समुत्पन्नकेवलज्ञानतया | सिद्धाः ते बुद्धबोधितसिद्धाः। नन्दी० १३१| ४६। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [24] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] बुद्धवुत्त- बुद्धव्युक्तः-बु? अवगततत्त्वैर्युक्तो-विशेषेणा- | कर्षक-वत्। स्था० १२९।। भिहितः स च द्वादशाङ्गरूप आगमः। उत्त०४६| | बुस-यवादीनां कडङ्गरः। स्था०४१९। बुद्धि- औत्पत्तिक्यादिचतुर्विधेति। सम० ११५। ईहावग्रहः। बुसाग्नि-बुससत्कोऽग्निः। जीवा० १२३ अनुयो. ३६। स्पष्टतरमवबुध्यमानस्य बोधपरिणतिः बुसिम-संयमवान्। सूत्र० ३९३। चारित्रम्। सूत्र० २५३। सा बुद्धिः। नन्दी० १७६। अवगतिः। उत्त० ३९२। अवग्रहे | बुसीमओ- तीर्थकृतः सत्संयमवतो वा। सूत्र० २५५ हेतु बुद्धिः। नन्दी. १९४१ भग० ३४५ महापुण्डरीकः। | बुह- बुधः-अष्टाशीतौ महाग्रहे एकचत्वारिंशत्तमः। जम्बू० स्था०७३। बुद्धिः-औत्पत्तिक्यादिरूपः। दशवै० २४६। ५३४। स्था० ७९ बुद्धिः-पण्डा। बृह. ३४ अ। रुक्मिवर्षधरे पञ्चमं कूटम्। | बूर- बूरः-वनस्पतिविशेषः। जम्बू. ३६। जीवा० १९२ स्था० ७२, २७ बुद्धिकूट-महापुण्डरीकद्रहसूरीकूटम्। प्रज्ञा. २१० सूर्य. २९३। औप०११उत्त०६५४ प्रज्ञा. जम्बू० ३८० ३६७। भग० ५४० वनस्पतिविशेषावयवविशेषः। भग. बुद्धिमतीपरिसा- स्ववसमयपरसमयविशारदाः कुशलाः सा | | १३४। वनस्पतिविशेषः। निर०१। राज०९। ज्ञाता०६। बुद्धिमतीपर्षद्। बृह० ६० आ। बृंहणीय-धातूपचयकारि। स्था० ३७५ धातूपचयकारिबुद्धिल- बुद्धिं लातीति। ओघ० १९। त्वात्। जीवा० ३७८१ बुद्धिल्ल- बुद्धिं लातीति बुद्धिलः। ओघ० १९। बृंहणीया- बृंहतीति बृहणीया धातूपचयकारित्वात्। जीवा० बुद्धिविन्नाण ३५१ मतिविशेषभूतौत्पत्तिक्यादिबुद्धिरूपपरिच्छेदः। भग. | बृंहयित्वा- इदमेव प्रधानमिति ख्यापनेनोपळय। उत्त. ५४१ ४७८१ बुद्धिसागर- जिनेश्वरसूरेर्गुरुभ्राता। सम० १६०| ज्ञाता० बृहये- भव्यजनप्ररूपणा बृद्धि नयेः। उत्त० ३४१। बृहत्तपः- तपो विशेषः। स्था० ५१२। बुद्धिसागराचार्य- जिनेश्वरसूरेगुभ्राता। स्था० ५२७ बेति-उक्तवन्तः। आव० १२७ बुद्धी- चतुर्थवर्गे पञ्चममध्ययनम्। निर० ३७। बृह० ५९ । | बेआहिय- व्याह्निकः ज्वरविशेषः। भग० १९८५ आ। अप्पणा बुद्धिसामत्थेण अ अत्थे उव्वेल्लइ सा। बेटी-पुत्रः। नि० चु० ९५आ। दशः १४। बुद्धिः बुद्धिसाफल्यकारणत्वात् अहिंसायाः | बेट्टा- उपविष्टः। ओघ० ११७। आव० १०२। उपविष्टः। बृह. सप्तदशं नाम। प्रश्न० ९९। बुद्धिः-परलोकप्रवणा मतिः। | वि० १३ आ। आव० ३४१। उत्त० १४५। बुद्धिः-उत्पत्तिक्यादिका।। बेडिया-नौः। बृह० १६० अ। प्रश्न०१०७ बेण्णातड- बेन्नातटं-नगरम्। आव. ३६० बुद्धीय- बुद्ध्या । ओघ. १६५ बेण्णायडं-बेन्नातटं-नगरविशेषः। आव०६७१| बुद्धेन-जीवादितत्त्वम्। सम०५१ बेन्ना- आभीरविषये नदीविशेषः। आव०४१२। योगद्वारबुध्नं- पुष्पकम्। ओघ० ११७। अधः। ओघ० १६८। मूलम्। | विवरणे नदीविशेषः। पिण्ड० १४४१ स्था० ४८० बेन्नातटं- नगरविशेषः। नन्दी. १५०, १५२ बुध्यते- ज्ञानदर्शनोपयोगाभ्यां च वस्तुतत्त्वमवगच्छति। बेन्नायडं- बेन्नायाः समीपे नगरम्। अनुयो० १४९। उत्त० ५८६। बेन्नातटम्। आव०४१८१ बुब्बुय- बुदबुदः। ओघ० १३११ बेभेल- विन्ध्यगिरिपादमूले सन्निवेशविशेषः। भग. बुब्बुयवरिस- यत्र वर्षे पतत्यदके बुदबुदा भवन्ति स १७११, ६९४१ बुदबुदवर्षः। आव० ७३३। जत्थ वासे पडमाणे बोंड- बोण्डं-फलम्। औप०१७। जीवा० २७३। बोण्डं-फलम्। उदगबुब्बुया भवंति तं बुब्बुयवरिसं। निशी० ६९ आ। | जम्बू० ११३॥ बुयावइत्ता- संभाष्य या प्रव्रज्या दीयते सा, गौतमेन | बोंडज-बोण्डजं-कर्पासीफलप्रभवं वस्त्रम। औप० ३७ २५४१ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [25] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] बोंडसमुग्गय- बोर्ड-कर्पासीफलं तस्य सम्दगकं-सम्पू जिनधर्मः। स्था०६०। प्रेत्य जिनधर्मावाप्तिः। उत्त. भिन्नावस्थं कर्पासीफलमित्यर्थः। ज्ञाता०२३०| २९६, ७०८। दर्शनं-सम्यक्त्व म्। स्था० ४६। बोंदि- बोन्दिः-शरीरम्। जीवा० १६२प्रज्ञा० ८८ प्रश्न बोधिण्णमंडव-दुजोयणझंतरे गामधोसारि नत्थि। निशी. १२ ९०। बोंदिया-बोन्दिका-शाखा। सूत्र० ३२४॥ बोन्दि- शरीरम्। स्था० ४२१, २६५१ बोंदी- बोन्दिः -तनः। शरीरम। प्रज्ञा० १०८ औप०५०। बोन्दी- महती। भग० १७५ अनुयो० ११८ अव्यक्तावयवं शरीरम्। भग० ७०२। बोप्प- चोक्षो मूर्षः। बृह० ५९ अ। बोन्दी-तनः। प्रज्ञा० १०८ आव०१८५ बोर- बदरं-कर्कन्धूः । अनुत्त०४१ बोक्कस- बुक्कसः-वर्णान्तरभेदः, यो निषादेनाम्बष्ठ्यां | बोल-अव्यक्तवर्णो ध्वनिः। भग. ११५,४६३। औप. ५७ जातः। उत्त० १८२। अवान्तरजातीयः निषादेनाम्बष्ट्यां विपा० ३६। कोलाहलः। जीवा० २४८। बोलः-बहूनामाजातः स। बोक्कसः। सूत्र. १७७ "नामा नामव्यक्ताक्षरध्वनिकः। जम्बू. १२५ बोट- नष्टः । बृह. ५४ आ। बोलः-अव्यक्ताक्षरध्वनिकः। जम्बू. १२५ बोलःबोटी- लाउनालो। निशी. १०६अ। अव्य-क्ताक्षरध्वनिसमूहः। भग० १६८। वृन्दशब्दः। बोटिकः- प्रभूतविसंवादिनो दिगम्बरः। आव० ३२३। बह. १६आ। वर्णव्यक्तिवर्जितो महाध्वनिः। भग. बोटिकपक्षपाती- ययुपकरणसहिता अपि निर्ग्रन्था ११५ वर्णव्य-क्तिरहितो ध्वनिः। जम्बू. २००९ उच्यन्ते एवं तर्हि गृहस्था अपि निर्ग्रन्थाः, आर्तानां बहनां कलक-लपूर्वको मेलापकः। जीवा. यतस्तेऽप्युपकरणसहिता वर्तन्ते। ओघ० २१९। २८३। रावः। आव० ६४० मुखे हस्तं दत्वा महता शब्देन बोट्टिओ-भंशितः। निशी० १०९ आ। पूत्करणम्। सूर्य० २८१। जम्बू० ४६३| जीवा० ३४६। बोड- बोडः-मुण्डः। पिण्ड०७६ कोलाहलः। राज० २६। अव्य-क्तवर्णो ध्वनिः। राज. बोडकुड- अनोष्ठकुटः। आव० १०१। १२११ बोडाविया- मुण्डिता। आव० २२४। बोलकरणं- रोलं कुर्वन्ति। ओघ० १०३। बोडिगिणी- बोटिका-ब्राह्मणी दैगम्बरः। आव० ६४० बोलण-मज्जपानं। निशी. ७० अ। बोडिय- मुण्डकः। आव. २०३। बोटिकः-मण्डमात्रः। बोलन- निमज्जनम्। प्रश्न० २२ चारित्रविकलतया मुण्डमात्रत्वम्। उत्त० १८१। बोल्लं-वृत्तान्तोल्लापम्। आव० ९५ दिगम्बर-मतः। निशी० ३५अ। बोल्लाविया- आलापिता। आव० ३९५ बोण्ड- वमनीफलम्। अनुयो० ३५ बोल्लितं- उक्तम्। आव० ८२१ बोद्ध- मतविशेषः। आचा० ८२ बोह- बोधः-हिताहितप्राप्तिपरिहारलक्षणः। सूत्र. ५४। बोद्धवं- बोद्धव्यम्। उत्त०९। बोहए- बोधकः-परेषां जीवादितत्त्वस्य बोधयिता बोद्धा-अर्थधरः। स्था० १९७५ महावीरः। भग०७ बोधक-जीवादितत्त्वमेवापरेषां बोधकः। सम०५ बोहि- बोधिः-सम्यग्दर्शनम्। भग० २८९। बोधिः- सम्यबोधग- बोधयत्यन्यानिति बोधकः। जीवा० २५६) क्त्वकार्यम्। आव०७६१| बोधिः-भवान्तरे जिनधर्मबोधन- मार्गभ्रष्टस्य मार्गस्थापनम्। सम० ११८ प्राप्तिः । राज०४७ बोधनानुशासन-बोधनं-आमन्त्रणं तत्पूर्वकमनशासनं । बोहिगा- मालवादिम्लेच्छा। निशी० ४३ अ। बोधनानुशासनम्। सम० १९८१ बोहित्थ- पोतः शावको वा। प्रश्न. ३९। पोतः। आव. १२९। बोधयति-सम्यक्त्वं ग्राहयति-शिष्यीकरोति। स्था० ५०३ | ओघ. १८८ आचा० १२४१ बोधि-जिनधर्मः। स्था० ३२११ सम्यग्बोधः-चारित्रम। | बोहित्थस्थ- पोतस्थः। आचा० १२४ स्था० १२९। सम्यग्दर्शनपर्यायत्वम्। भग० ७२५ | बोहिद- बोधिः-जिनप्रणीतधर्मप्राप्तिं, मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [26] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षण-सम्यग्दर्शनरूपां ददातीति प्रतिसेवना, विराधना, खलना, उपघातः, अशोधिः। बोधिदः। जीवा० २५६। ओघ० २२५। भङ्गः-वस्तु विकल्प। अवधिभेद। भग. बोहिय-बोधितः उन्निद्रीकृतः। जीवा० २७१। बोधिकः- ३४४क्रमस्था-नभेदभिन्नाः । आव० ५९६) स्तेनकः। आव० ७८४। म्लेच्छः। व्यव० १८५। आ। भंगसुहम- भङ्गा-भङ्गका वस्तुविकल्पाः तानि एव बोहिया- बोधिकाः-मालवस्तेता। बृह. १३४ अ। सूक्ष्मम्। स्था० ४७७, ४७८१ बोहिलाभ- बोधिलाभः-जिनप्रणीतधर्मप्राप्तिः। आव. भंगा-अतसी। स्था० ३३८१ ७८७। प्रेत्य जिनधर्मप्राप्तिः । आव. ५०७ भंगिए-अतसीमयं वस्त्रं भाङ्गिकम्। बृह. २०१ अ। बोहिलाभवत्तिया- बोधिकाभप्रत्ययं-बोधिलाभनिमित्तं | भंगित-अतसी तन्मयं भागिकम्। स्था० ३३८१ प्रेत्य जिनप्रणीतधर्मप्राप्तिनिमित्तम्। आव० ७८६) अतसीम-यम्। स्था० १३८१ बोही- बोधिः-जिनधर्मप्राप्तिः। दशवै. १९०| बोधिः- भंगिय- नानाभगिकविकलेन्द्रियलालनिष्पन्नः। आचा० प्रव्रज्या। पिण्ड० १००| बोधिः-सर्वज्ञधर्मप्राप्तिः ३९३॥ भङ्गी-भङ्गबहुलं श्रुतम्। नन्दी० ५०| अहिंसारूपत्वाच्च तस्याः अहिंसा बोधिरुक्ता। अहिंसा- | भंगियसय-भगिकश्रुतं- दृष्टिवादान्तर्गतमन्यवा। अनुकम्पा सा च बोधिकारणत्वाबोधिरेव वा। आव०७७६) अहिंसायाः षोडशं नाम। प्रश्न. ९९। बोधिः भंगी-भङ्गी-वनस्पतिविशेषः। प्रज्ञा० ३६४। भङ्गाःजिनधर्मावाप्तिः औत्पत्तिक्यादिबुद्धिर्वा। भग० १०० जनप-दविशेषः। प्रज्ञा०५५ बोधिः-जिनप्रणीतधर्मप्राप्तिलक्षणा। उत्त. १८८1 साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः। प्रज्ञा० ३४| जिनप्रणीतधर्मप्राप्तिः। जीवा० २५६। बोधिः भंगीरए- भङ्गीरजः-वनस्पतिविशेषः रजः। प्रज्ञा० ३६४। धर्मावाप्तिः। प्रज्ञा० ३९९। बोधिः-सामायिकम्। आव. | भंगुर- भगुरा-भुग्ना। जम्बू०१११। ३४७ भंजगा- भजगा-वृक्षाः। आचा० २३४। ब्रह्म-योगदवारविवरणे कृष्णाबेन्नानदयोरन्तराले भंजणं-विद्धंसणं| निशी० २३० आ। द्वीपः। पिण्ड० १४४ भंजणा-भञ्जना-विनाशः। आव० ५४५) ब्रह्मदत्त-कम्पिलपरे राया। निशी० ११३आ। व्यव० | भंजित्तए- भक्तुं सर्वतः। ज्ञाता० १३९। १९८ आ। आचा० ३५। विशिष्टतपश्चरणफलवान्। सूत्र० | भंड- भाण्डं-मृन्मयभाजनम्। भग० २३८, ३९९। अनुयो० २९९। जन्मान्तरभोगनिमित्तं तपः कारकः। दशवैः । १५९। आव० ४१४। भाजनं मन्मयम्। वस्त्राभरणादि। २५७। सति सामर्थ्य प्रासादादिकारयिता। उत्त० ३१२। स्था० १२० वस्त्रारादिकं वस्तपण्यं हिरण्यादि। ज्ञाता० निदानशल्ये यस्य दृष्टान्तः। आव. १७९ ६११ भग. ३६८ भाण्डं-मृन्मयं पात्रम्। प्रश्न० १२४। द्वादशमचक्र-वर्ती। स्था० ९९। उत्त० ३१७। बृह० ११० भाण्डं-भाजनं मन्मयादि। भग० ९४। आव. ९१। अलआ। कारादिः। पिण्ड० १२० भाण्डं आभरणम्। भग० ४६८१ ब्रह्मदत्तकुमार- द्वादशमचक्रवर्ती। नन्दी. १६७। मृन्मयम्। प्रश्न. १५६। भाण्डं-भाजनम्। प्रश्न. ३९। ब्रह्मराक्षसाः- राक्षसभेदविशेषः। प्रज्ञा० ७०| भाजनरूपम्। भग०६२११ भाण्डं-उपकरणम्। उत्त. ब्रह्मलोक- देवलोकविशेषः। स्था० २१७, ४३२॥ ७११। यानपात्रम्। आव०८२४१ ओघ.१८८1 ब्रह्मशाखा- योगद्वारविवरणे साधशाखाविशेषः। पिण्ड | भंडइ- कलहयति। आव० ६५५ १४४१ भंडओ- भण्डकः। उत्त० १३६| ब्राह्मणी- गोधिकाकारो जीवविशेषः। दशवै० २३० भंडक- कुप्यभेदः। आव० ८२६। ओघ० १६९। ब्राहम्यादिलिपी- लिपिविशेषः। आव. २४। भंडकरंडग- भाण्डकरण्डकं-आभरणभाजनम्। भग. १२२ -x-x-x-x भंडग-धर्मोपकरणम्। आचा० ३३३। भण्डकं-भाण्डम्। भ आचा०४७। उपधिः। ओघ. २०७। भंग- भङ्गः-ब्रह्मव्रतस्य सर्वभङ्गः। प्रश्न. १३८ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [27] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] भंडचालणं- भाण्डचालनं-भाण्डादीनां-पीठरकादीनां पण्या- | भंडागारा- हिरण्णसुवण्णभायणं। निशी० २७२ आ। दीनां वा तत्र गृहस्थस्थापितानां साध्वर्थ चालनं | भंडारा-तुन्नाकविशेषः। प्रज्ञा० ५६। स्थानान्त-रस्थापनम्। प्रश्न. १२७) भंडालंकार-भाण्डालङ्कार, अलङ्कारभाण्डं, भंडण-कलहः। ओघ० १४८१ आव० ५१५। आचा० १०६) आभरणकरण्ड-कम्। जम्बू० २१७। भण्डनं-कायिकम्। प्रश्न. ९७। भण्डणं-कलहः परस्परं भंडिओ- भण्डकः। उत्त० १३६| हस्तस्पर्शजनितः। ओघ. ९११ भाण्डनं-क्लेशः भंडिति- भण्डकः। उत्त० १३६। भण्डयितुम्। आव०७११। कलहो। निशी. १३ आ। भंडिय-भण्डिकाः-स्थाल्यः। स्था०४१९। भग० ८०२ कलहो, विवादो। निशी. ३५अ। भंडिया- पडिचरगा। निशी. ११ अ। भण्डिकाःभंडणसीलो- भण्डनःशीलः। उत्त० ३५५। रन्धनादिभाजनानि। भग०६६४। भंडणाभिलासी-भण्डनं पिष्टातकादिभिः। ज्ञाता० २२० | भंडिवडेंसिए- मथुरानगरर्यामुयानम्। ज्ञाता० २५३। भंडत- कलहायमानः। आव० ३०५ कलहयन्। आव० ३९७ | भंडी- असती, कुलटा, गन्त्री। ओघ० १४२। भण्डीगन्त्री। उत्त० १३६| प्रश्न. ३९। आव० १९८१, ३५८१ गण्डी। निशी. ३७ अ। भंडभारिए- उपकरणेन गुरुः। आचा० ३७९। गड्डी। निशी. १८७ अ। गन्त्री प्रथमः सार्थः। बहिलकाः भंडमत्त-भाण्डमात्रा-उपकरणपरिच्छिदः। भग० १२२ करभीवेसरबलीवर्दप्रभृतयः। बृह० १२५ अ। भाण्डमात्रः-उपकरणमात्रः। जम्बू. १४८ भाण्डमात्रा- भंडीर-भण्डीरं-मथुरायाम्दयानम्। विपा० ७० प्रहरणकोशादिरूपा। भग० ३२२ भाजनरूपः परिच्छिदः | भंडीरमणजत्ता-भंडीरमणयात्रा। आव० १९८१ भग०७५०| पणितपरिच्छदः। भग०६७३। भंडीरवण- चक्षुरिन्द्रियोदाहरणे मथुरायां चैत्यविशेषः। गणिमादिद्रव्यरूपः परि-च्छदः। भग० ९४। आव० ३९८१ भंडमत्तोवगरण-भाण्डमात्रोपकरणं-हारार्द्धहारकुण्डलादि। | भंडीसुणए- गन्त्रीवा। आव० २००१ जीवा० ४०६। भंडु- मुण्डनम्। आव० ६२६। खुरो। निशी० ३५अ। भंडमोल्ल-भाण्डमूल्यम्। आव० ३५४। भंडुग्गा-धणा जत्थ भिज्जति तं। निशी० ७० आ। भंडय-भाण्डकं-मुखवस्त्रिकाकल्पादि। उत्त० ५३६। भंडोवक्खरं- भाण्डोपस्करम्। आव० ८२९। भाण्डकं-प्राग्वर्षाकल्पादि उपधिम्। उत्त० ५४० भंडोवगरणं- भाण्डोपकरणं-पात्रवस्त्रादिकम्। आव० ५७६) भाण्डकं-उपकरणं रजोहरणदण्डकादि। उत्त०५१७ भंत-भ्रमणं भ्रान्तं। इतश्चेतश्च गमनम्। दशवै.१४१५ पतग्रहाद्युप-करणम्। उत्त०५३६| भ्रान्तः-भग्नः। आचा० २५४। भंडवाल-भाण्डपालः-परकीयानि भाण्डानि भाटकादिना | भंतसंभंत- भ्रान्तो भ्रमप्राप्तः स इव यत्राद्भुतचरित्रदशनेन पालयति। उत्त०४९५) पर्ष-ज्जनः सम्भ्रान्तः-साश्चर्यो भवति तत् भंडवेआलिए- भाण्डविचारः कर्मास्येति भाण्डवैचारिकः। भ्रान्तसंभ्रान्तम्। जम्ब०४१८ भ्रान्तसंभ्रान्तंअणु० १४९। दिव्यनाट्य विधिः। जम्बू० ४१२। भंडवेयालिया- कर्मार्यभेदविशेषः। प्रज्ञा० ५६| भंते- भदन्त ! वर्द्धमानस्वामिन्। प्रज्ञा० ५६२| भयान्त ! भंडसाला- पुव्वभायणातो अण्णम्मि भायणे वर्द्धमानस्वामिन् ! प्रज्ञा० ५६२। भदन्ते-भदन्तः-कल्यासंकामिज्जति भंडशाला। निशी. १४१ अ| घटकरकादि- | णस्य सुखस्य च हेतुत्वात् कल्याणः सुखश्चेति भजतेसंगो-पनस्थानम्। बृह. १७५ अ। जहिं भायणाणि सेवते सिद्धान् सिद्धिमार्ग वा अथवा भज्यते-सेव्यते संगोवि-याणि अच्छंति। निशी. २१ आ। शिवार्थिभि-रिति भजन्तः, भाति-दीप्यते भाजते वाभंडा- गच्छाविशेषः। प्रज्ञा० ३२ लासगा। निशी. २७७ । । दीप्यते वा दीप्यत एव ज्ञानतपोगणदीप्त्ये भान्तो भंडागार-जत्थ सोलसविहाइं रयणाइं। निशी. २७२ आ। भ्राजन्तो वेति। भ्रान्तः-अपेतो मिथ्यात्वादेः, भंडागारवती-भाण्डागारपतिः। आव० ८२६। तत्रानवस्थित इत्यर्थः, इति भ्रान्तः, भग-वान मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [28] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] ऐश्वर्ययुक्तः, भवस्य वा संसारस्य भयस्य वा-त्रास- | उपा० ५। भक्ष्यं-खण्डखाद्यम्। सूर्य. २९३। भक्ष्यम्। स्यान्तहेतुत्वाद् नाशकारणत्वाद भवान्तो भयान्तो वा। ओघ० १५९। भक्ष्यं-खरविशदमभ्यवहार्यम्। सूत्र० ३४३। स्था० १२३। भदन्त ! गुरोरामन्त्रणं, ततश्च हे भदन्त ! भक्ष्य-खण्डखादयादि। स्था० ११८ प्रश्न. १६३| भग. कल्याणरूप ! सुखरूप इति वा 'भदि कल्याणे सुखे च' ३२६। भक्ष्य-मोदकादि। प्रश्न.1 इति वचनात्, प्राकृतशैल्या वा भवस्य-संसारस्य भक्खराभा- गोत्रविशेषः। स्था० ३९० भयस्य वा-भीतेरन्तहेतुत्वाद भवान्तो भयान्तो वा भक्तपरिज्ञा- भक्तस्य-भोजनस्य यावज्जीवं प्रत्याख्यानं तस्यामन्त्रणं हे भवान्त ! भयान्त ! वा, भान् वा यस्मिंस्तत्तथा, इदं च त्रिविधाहारस्य चतुर्विधाहारस्य ज्ञानादिभिर्दीप्यमान् ! 'भा दीप्ताविति वचनात्, वा नियमरूपं सप्रतिकर्मे च। सम० ३४१ स्था० ३६४। भ्राजमान् ! वा दीप्यमान् ! भ्रातृ दीप्ता-विति वचनात् । आहारपरित्यागरूपः। उत्त० ५८९। भग० १४| भवान्त !! प्रज्ञा० ५६२ भक्तयः-विच्छित्तिविशेषाः। सम०१३९। भंभसारपुत्त- भम्भसारपुत्रः-श्रेणिकराजसूनुः। औप० १४॥ भक्तव्य-भतव्यं धारणीयम्। भग० ८५६) भंभासारसुत- कूणिकः। जम्बू० १४३। भगंदर- भगन्दरः रोगविशेषः। जीवा० २८४। भग० १९७ भभा- गुजा। आचा०७४| भेरी। भग०३०६| जम्बू.१६७| जम्बू. १२५। ज्ञाता० १८१। अधिट्ठाणे खतं किमियजा भम्भा-ढक्का। भग० २१७। ज्ञाता० २३२ भंभा-ढक्का लसम्पण्णं भवति। निशी. १८९ अ। निःस्वानानीति सम्प्रदायः। जम्बू. १०१। भगंदलं- मगन्दरः पुतसंधौ व्रणविशेषः। बृह० २५४ अ। भंभाभूए-भां भां इत्यस्य शब्दस्य दुःखार्तगवादिभिः भग- ऐश्वर्यं समग्रं रूपं-यशः श्रीः धर्मः, प्रयत्नं च। करणं भंभोच्यते तद्भूतो यः स भंभाभूतः। भंभा वी-भेरी । प्रज्ञा० ४। नन्दी. १५। समग्रैश्वर्यादिलक्षणः। नन्दी. सा चान्तः शून्या ततो भंभव यः कालो जनक्षयाच्छून्यः | १५ समग्रैश्वर्यादिः। प्रज्ञा० १५ समग्रैश्वर्यादिः। प्रज्ञा० स भम्भाभूत उच्यते । भग० ३०६। भम्भां इत्यस्य ४१ जीवा० २५५ दुःखातगवादिभिः करणं भम्म उच्यते तद्भुतो यः स | भगन्दल-भगन्दरः-रोगविशेषः। विपा० ४० भम्भाभूत इत्युच्यते। भम्भा वा-भेरी सा चान्तः शन्या | भगवंत- श्रुतैश्वर्यादियोगाद् भगवन्तः कषायादीनिति ततो भम्भेव यः कालो जनक्षयात्तच्छून्यः स भग-वन्तः। जीवा०४१ भम्भाभूतः। जम्बू० १६७ भगवं- भगवत्-भट्टारकम्। प्रश्न. ११५। भगवान्भंस- अंशः-अन्तर्धानम्। आव० ८२७। आचार्यः। व्यव० २२० । भंसणं-भ्रंशनं-चलनम्। प्रश्न. १४१। भगवती- व्याख्याप्रज्ञप्तिः-विवाहप्रज्ञप्तिः। भग० २। भंसला- उद्धतचेष्टा। कलहविशेषः। आव०७३८ भगवतीवेत्ता- प्रज्ञप्तिधरः। आव० ५३२ भंसुरुला- जत्थ महे बहु राया। जत्थ महे बहुराया मिलंति। | भगवा- चरगा। निशी० ३१ अ। निशी०७१ आ। विसयपसिद्धा। निशी०७१। भगवान- महात्मनः संज्ञा। व्यव० २७३ अ। भइए- भृतकः-कियत्कालं मुल्येन धृतः। व्यव० ३३७। भगसंठिए-भगसंस्थितं-भरणीनक्षत्रस्य संस्थानः। सर्यभइत्ता- भक्त्वा-सेवित्वा। उत्त०४१५) १३० भइय- भृतिं करोति भृतिकः-कर्मकरः। राज०२२ भग्ग- भग्नः-सर्वथा नाशितः। आव०७७९। वात्यादिना भइयव्व-भजनीयं-सेवनीयम्। ओघ० २१०भक्तव्यं कुब्जखञ्जत्वकरणेनासमर्थीभूतः। ज्ञाता० ११८। भग्नः भर्त्तव्यं धारणीयम्। भग० ८५६) गोरूपादिभिर्विद्धंसनात्। व्यव. ११५अ। भइरथी- भगीरथी-कूटलेखकरणे उदाहरणम्। आव० ८२२ | भग्गई-क्षत्रियपरिव्राजकविशेषः। औप० ९१| भई-भृतिः-कर्मकरादिदेयद्रव्यम्। बृह. १६४ आ। भग्गरुग्ग- वाहनात् स्खलनादवा पतने भग्नः रुग्णश्चभए- भयं-प्रत्यनीकेभ्यो यज्जातम्। आव०६२६) जीर्णतां गतः। ज्ञाता० १९५१ भक्ख-खरविशदमभ्यवहार्य भक्षम्। पक्वान्नमात्रम्। भग्गवणिया- वणिताः संतो भग्ना भग्नव्रणिता। व्यव० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [29] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] ५८ १८४ प्रज्ञा० ८९| जम्बू०६३ भग्गवेस- भार्गवेश-भरणीगोत्रम्। जम्बू. ५०० भट्टिदारए- भर्ता-स्वामी तस्य दारकः-पुत्रो भर्तृदारकः। भग्गवेससगोत्ते- भरणीनक्षत्रस्य गोत्रनाम। सूर्य. १४०। । प्रज्ञा० २५३। भग्गुसंधिय- भग्नाः-लोपिताः सन्धयः विप्रतिपत्तौ भट्ठ- भ्रष्टः च्युतः। बृह० १०२ आ। भ्रष्टं-वातोद्भूततया संस्था येन स भग्नसन्धिकः। प्रश्न०४६। राजधान्या, दूरतः पलायितम्। जीवा० २४६। भ्राष्ट्रभग्गुज्जोय- भग्नोद्योगः-अपगतोत्साहः। उत्त०४९४। अम्बरीषम्। प्रश्न०१४। भ्रष्टं-वातोद्भुततया भग्गघरं- जत्थ खंभतुला कुड्डादि किंचिपडितं तं योजनमात्राद्दूरतः क्षिप्तम्। जम्बू० ३८९। भ्रष्टःभग्गघरं। निशी. ९९ । अपेतः। आव० ५१९॥ भग्नगृह-स्तंभतुलाकुड्यादिनामन्यतमत् किमपि पतितं | भट्ठि- भ्राष्ठ्या रजोरहिततया। ओघ० २९। तत्। व्यव० ६१ आ। भट्ठी- भ्राष्ठाः पांस्वादिवर्जिता भूमयः। जम्बू. १६८1 भघय- भागिनेयः। बृह. २३६ आ। भ्रष्ठाः-पांस्वादिवर्जिता भूमयः। भग० ३०७। भजना- सेवना-परिभोग। निशी० १२३ आ। भाष्टी-रजोरहिता वीथिः। ओघ. २९। भज्जइ-भज्यते-विदलयति व्यपैति। भग० १०२ भड- भटः-शूरपुरुषः। अनुयो०१४३। भटः। ओघ०४९। भज्जण- भर्जन-पाकविशेषकरणम्। प्रश्न- १४॥ भ्राष्टम्। भटः- चारभटः, बलात्कारप्रवृत्तिः । औप० २१ भटःआव०६५१। भर्जनम्। ओघ. १६४। सामान्यग्रामाधिपः। आव० ८१९। भटः-शौर्यवान्। भग० भज्जणयं- भर्जनकं कर्पर, धान्यपाकभाजनम्। विपा. ११५ शूरः। भग०४६३। राजाज्ञादायी पुरुषः। भग० ५४४। भटः-चारभटः। औप० २७। भटः-राजपुरुषः। बृह. भज्जा-भियते-पोष्यते भāति भार्या। उत्त० ३८ ४९ आ। भटः-शौर्यवान्। राज० १२१५ भज्जाणुराग-भार्यानुरागः भडखइया- भटः तथाविधबलोपदर्शनलब्धभोजनादेः पुरुषपुण्डरीकवासुदेवनिदानकार-णम्। आव० १६३ टी० | खादिता आरभटवृत्तिलक्षणहेवाको वा। स्था० २७६) भज्जि - प्रहेणकम्। बृह. १९५आ। भडगो- भडकः-चिलातदेशनिवासी म्लेच्छविशेषः। प्रश्न. भज्जिज्जमाण-भज्यमानं-पच्यमानम्। आचा० ३५२१ १४१ प्रज्ञा०५५ भज्जिम- भर्जनवती-भर्जनयोग्या। दशवै. २१९ भडू-क्षुरः। बृह. १०१ आ। भज्जिमाओ- पचनयोग्या, भजनयोग्या वा। आचा. भणिएल्लित- भणितपूर्वः। आव० ३४३। ३९११ भणित- भणितः। आव. २२३। भज्जिहिह- विनझ्यथ। उत्त० ८५। भणिती- भणितिः भाषा। स्था० ३९७ अनयो० १२३। भट्टगा- भद्रकाः कल्याणभागिनः। भद्रगाः भणिय-भणितं-मन्मथोद्दीपिका विचित्रा भणितिः। सूर्य भद्रहस्तिगतयः। जम्बू. १९८१ २९४ भाषितः। ज्ञाता० २१९। भणितःभट्टपुत्र- औदारिकः। ओघ० ९५१ कृताव्यक्तवचनः। प्रश्न० २० भट्टरकथा- परस्परं भक्तादिविकथा करणम्। व्यव० भणियाइओ- भणितवान्। आव. १९२, ३१२ ३०४। भण्ड- भाण्डं-पण्यं भाजनं वा। उपा०४२ भट्टा- धनस्स धूया। निशी० ३५९ आ। भण्डनं- दण्डादिभिर्यम्। भग० ५७२। भट्टारग-भट्टारकः पूज्यः। आव०६७७ भट्टारकः। आव० भति-भृतिः-कार्षापणादिका। औप० १४। १९२१ भती- भयगाणं कम्मकरणं। निशी. ४३ अ। भक्तिःभट्टि- भर्ता-पोषकः स्वामीत्यर्थः। स्था० १९८१ विच्छित्तिः । जीवा. १९९। भट्टिणी-स्वामिनी सार्थवाहभार्या। आव० ३९८१ | भतीय- गोपालकः तुर्याशादिरूपा परिभाषिता वृत्तिर्वा। भट्टित्तं- भर्तृत्त्व- पोषकत्वम्। सम० ८६। भग० १५४| | बृह. १९१ अ।। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [30]] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] आ भतीया- भृतिका कर्मकरी। व्यव. १९५अ। व्यवच्छेदः-निरोधोडदानमित्यर्थः। आव०८१८ भत्त-भक्तः-'भज सेवयां इत्यस्य निष्ठान्तस्य भवति। | भत्तपाणसंकिलेस- भक्तपानाश्रितः सङ्कलेशो दशवै०७२। भक्तं-भोजनम्। अनुयो० १५४। अशनं- भक्तपानसक-लेशः। स्था० ४८९। ओदनादि। आव०८१९। अशनं-अन्नम्। ओघ०११। भत्तपाणोयरया- भक्तपानोदरताभत्तकरण-भक्तकरणं-ओदनादिरन्धनम्। आचा. ५० आत्मीयाहारादिपरित्यागवतो वेदितव्या। दशवै० २७ भत्तकहा- भक्तकथा-ओदनादीनां प्रशंसनं दवेषण वा। भत्तवेला- भक्तवेला-भोजनसमयः। दशवे. १०८ आव. ५८१। भक्तस्य-भोजनस्य कथा भक्तकथा। भत्ति-भावप्रतिबन्धः। ओघ० ९८। बाह्या परिजुष्टिः। स्था० २०९। भक्तकथा-सुन्दराः शाल्योदन इत्यादिका। भग. ९२७। भृति-मूल्यम्। व्यव० २२७ अ। भक्तिःदशवै०११४॥ अञ्ज-लिप्रग्रहादिका। उत्त० ५७९। भक्तिःभत्तट्ठ- भक्तार्थ:-उदरपरणमात्रम्। ओघ०८६ विच्छित्तिः। राज०२८ भक्तिः-विच्छित्तिः। भग. भत्तद्वणं- भोजनम्। बृह. ५८ अ। १४५ भत्तहिअ-भुक्त्वा। ओघ० ८७। बहिरेव भुक्ताः। ओघ. भत्तिगिह- भक्तिगृहम्। जीवा० २६९। ७९ भत्तिचेइयं- भक्तिचैत्यं-भक्त्या मनुष्यैः पूजा भत्तट्ठिया- भक्तार्थिका-भक्ता। ओघ. १९९। वन्दनादयर्थं कृतं कारितं तद्भक्तिचैत्यम्। व्यव० २७६ भत्तपच्चक्खाइया- प्रत्याख्यातभक्ता। आव० ३९३। आ। भत्तपच्चतक्खाण-भक्तप्रत्याख्यानम्। आव० ११६ | भत्तिज्जओ- भ्रातृव्यः। आव० ८२४। भक्तं-भोजनं तस्यैव न चेष्टाया अपि पादपोपगमन इव भत्तिम- भक्तिमन्तं-अन्तरप्रतिबन्धोपेतम्। बृह. २४९। प्रत्याख्यानं वर्जनं यस्मिंस्तदभक्तप्रत्याख्यानम्। भत्तिराग-भक्तिरागः-भक्तिपूर्वकोऽनुरागः। राज०२७। स्था. ९४१ भत्ती- भक्तिः -विच्छित्तिविशेषः। जीवा० १७५। सूर्य भत्तपच्चक्खाणमरण- भक्तस्य-भोजनस्य यावज्जीवं २६३। प्रज्ञा. ९९। भक्तिः -अन्तःकरणप्रणिधानलक्षणा। प्रत्या-ख्यानं यस्मिंस्तत्तथा, इदं च त्रिविधाहारस्य आव० ५०९। भक्तिः -विच्छित्तिः । जीवा० १९९, २०९, चतुर्विधाहारस्य वा-नियमरूपं सप्रतिकर्मच ३७९। जम्बू० २९२। भग० ४७७। ज्ञाता० ४२। भक्तिःभक्तपरिज्ञया मरणम्। सम० ३३ अभ्युत्थानादिरूपा। उत्त०१७। भक्तिः-उचितोभत्तपच्चखाय- प्रत्याख्यातभक्तः। आव०६३८५ पचाररूपा। दशवै. २४२। भक्तिः नाम भत्तपरिणा-भक्तप्रत्याख्यानम्। ओघ. २२७। गुरुणामितिकर्तव्य-तायां निषदयारचनादिकायां बाह्या भक्तपरिज्ञा प्रत्याख्यानवाची। व्यव० १४३ आ। प्रवृत्तिः । बृह. १३३ भत्तपरिणा- भक्तपरिज्ञा। आव० ५६३। भत्तीए-भाडएणं। निशी० ६३अ। भक्तपरिज्ञामरणं-मरणस्य पञ्चदशो भेदः। उत्त. भत्था- निपातः कुत्सार्थे। बृह. २९ आ| ध्मानखल्ला। २३०| भक्तपरिज्ञा-अनश-नविधिः। भग० १६९। भग०६९७। भत्तपरिन्ना- भक्तपरिज्ञा भदंत-भदन्त। गुरोरामन्त्रणम्, भदन्त । भवान्त । त्रिविधचतुर्विधाहारविनिवृत्तिरूपा। दशवै० २७। भयान्त । दशवै० १४४। भक्तस्य परिज्ञा-भक्तपरिज्ञा-अनशनम्। आचा० २६१। | भद्द- भाति भदन्ते वा भद्रः-कल्याणावहः। उत्त०६२ भत्तपरिव्वय-भक्तपरिव्ययः। दशवै०१०७ भद्रः-जितशत्रुराजकुमारः। उत्त० १२२। सम० १५२। भत्तपाणपडियाइक्खिय-प्रत्याख्यातभक्तपानः। भग. स्था० ४५३। भद्रकः-साधूनां मध्ये भद्रप्रकृतिकः। ओघ० १२७ ४७। भद्रः-तृतीयबलदेवः। आव० १५९। महा-शुक्रकल्पे भत्तपाणवुच्छेए- भक्तपानव्यच्छेदः अशनपाननिरोधः। देवविमानम्। सम० ३२१ भद्रं-अतिप्रशस्यम्। जीवा० भक्तं-अशनमोदनादि पानं-पेर कादि तस्य च १६४। दवितीयचक्रवर्तिनः स्त्रीरत्ननाम। सम० १६२ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [31] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः। प्रज्ञा० ३४१ भद्रं- पहेतुकायवाङ्मनश्चेष्टो। जीवा० २७७। शरासनं मूढक इति। भग० १४७ द्वितीयवर्गे तृती- | भद्दवति- भद्रवती-प्रद्योतराज्ञा हस्तिनी। आव० ६७४। यमध्ययनम्। निर०१९। वाणारसीनगर्या सार्थवाहः। | भद्दवया- नक्षत्रविशेषः। स्था० ७७। निर० २९। भद्रं-अनुत्कटरागद्वेषः। व्यव० १३४ अ। भद्दसाल-भद्राः-सद्भमिजातत्वेन सरलाः शालाः साला वा भद्रा-अचलबलदेवमाता। आव. १६२ तरुशाखा यस्मिन् तत् भद्रशालं, भद्रसालं, भद्राः शालाभद्दए- भद्रकः परोपकरणशीलः अन्पतापको वा। औप० वृक्षा यत्र तद्वा। जम्बू० ३६३। वनविशेषः। ज्ञाता० १२८१ ८८ भद्रकः अनुपतापको गुरुशिक्षाग्णात्। भग०८१| भद्दसालवण- भद्राः-सद्भुमिजातत्वेन सरलाः शालाः साला भाति शोभते स्वगुणैर्ददाति च । वा तरु शाखा यस्मिन् तत् भद्रशालं, भद्रसालं, वा, प्रेरयितुश्चित्तनिर्वृत्तिमिति भद्रः, स एव भद्रकः। अथवा भद्राः शाला-वृक्षा यत्र तद भद्रशालं तच्च वनं च। उत्त० ४९। मधुरत्वान्मनोहरः। भग० ३२६। जम्बू० ३५९। भद्रशालवनं-मेरुप्रथमवनम्। जम्बू० ३०८। अनुकूलवृत्तिः । ज्ञाता० ७७ भद्दसेण- भद्रसेनः-संवरोदाहरणे वाराणस्यां जीर्णश्रेष्ठी। भद्दओ- ऋजुः। बृह० ८। आव० ७१३। भद्रसेनः-धरणेन्द्रस्य पादत्राणीकाधिपतिः भद्दकन्नया- भद्रकन्यका-भद्रस्वभावा कन्यका। उत्त. देवः। जम्बू०४०७ स्था० ३०२। १२९| भद्दा- भद्रा-धिग्जातीयस्त्रीविशेषः। आव० ३६९। भद्राभद्दगडिया-ओपोम्हणट्ठा। घटुं| निशी० ३५९ अ। पश्चिमरुचकवास्तव्या दिक्कुमारी। आव० १२२। भद्राभद्दग- भद्रकं-घृतपूर्णादि। दशवै० १८७। भद्रकः कौशलिकराजदुहिता। उत्त० ३५६। भद्रा-मगधाविषये संविग्नभा-वितः। ओघ०५६) गुर्बरग्रामे पुष्पशालगाथापतेर्भार्या। आव० ३५५। भद्राभद्दगुत्त- भद्रगुप्तः। उत्त० ९६। भद्रगुप्तः आचार्यः। पाश्चात्यरूचकवास्तव्या सप्तमी दिक्कुमारी आव० २९२१ भद्रगुप्तः स्थविरः। आव० ३०२। महत्तरिका। जम्बू. ३९१। भद्राभद्ददारु- भद्रदारुः-देवदारुः। उत्त० १४२। पश्चिमदिग्भाव्यञ्जनस्य पूर्वस्यां पुष्करिणी। जीवा. भद्दनंदी- विपाकदशानां दवितीथतस्कन्धे ३६४। भद्रा-धर्माऽभिमुखी। पिण्ड० १२२। अनुत्त०८ दवितीयाऽष्टमेऽध्ययने भद्रनन्दिः । विपा० ८९। भद्रा-अन्तकृद्दशानां सप्तमवर्गस्य नवममध्य-यनम्। भद्रनन्दिः-अर्जुनराजकुमारः। विपा० ९५। भद्रनन्दिः अन्त० २५। राजगृहे धन्यसार्थवाहस्य भार्या। ज्ञाता० धनावहराजकुमारः। विपा० ९४।। ७९, २३५ भद्रा- काकन्दीनगर्यां सार्थवाही। अनुत्त० भद्दपडिमा- भद्रप्रतिमा-यस्यां पूर्वदक्षिणापरोत्तराभिमुखः ३८ भद्रा-प्रतिमाविशेषः। स्था० २९२। चम्पानगर्यां कायोत्सर्ग करोति। औप. ३० माकन्दी-सार्थवाहस्य भार्या। ज्ञाता० १५६। भद्राभद्दबाहु-णिज्जुत्तिकारगा। निशी० ९५आ। भद्र-बाहू:- तगरानगर्यां दत्तभार्या। उत्त. ९० भद्रा-मखलीचतुर्दशपूर्वी आचार्यः। आव०६९७। भद्रबाहूः भार्या। आव. १९९। भद्रा-दक्षिणदिग्भाव्यञ्जनस्य आचार्यविशेषः। उत्त० ८९। भद्रबाहुः पूर्वस्यां पुष्करिणी। स्था० २३०| भद्रा-चित्रसेनकसुता। नियुक्तिकृदाचार्यः। आव० ७५०| भद्रबाहुः ब्रह्मदत्त-राज्ञी। आव. १७४ भद्रा-प्रतिमाविशेषः। त्रिवर्षप्रमाणास्थापनामर्यादा-कारकः। व्यव० २८ अ। आव. २१५। भद्रा- भदन्ते कल्याणीकरोति देहिनमिति निशी. १३४ आ। १४८ आ। ६६ आ। णिज्जत्ती कारगा। भद्रा। अहिंसायाः पञ्चविंशतितमं नाम। प्रश्न. ९९। निशी० १२२ आ। निशी० ४२ । कया णिज्जुत्ती भद्रा-राजगृहनगरे धनाव-हप्रधानस्य पत्नी। आव. गाहा। निशी० ११४ | निशी० ४८ आ। ३५३) वग्गुरश्रेष्ठिभार्या। जानुकू-परमाता। आव० २१०| भद्दमुत्था- भद्रमुस्ताः -अनन्तकायभेदः। भग० ३०० स्था० ४५८ भग०६८८ मंखलीभार्या। भग० ६६०। भद्राभद्दय- भद्रकः-सकलतत्क्षेत्रोचितकल्याणभागी। जीवा. तेतलिपुरे कलादो नाम्ना मूषिकारदारकस्तस्य भार्या। २७८। मनोज्ञः। ज्ञाता०२३४। मनोज्ञः-अपरानपता- | ज्ञाता० १८४| चम्पानगर्यां सागरदत्तसार्थवाहस्य मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [32] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] भार्या। ज्ञाता० २००| चंपानगर्यां जिनदत्तसार्थवाहस्य प्रहरचतुष्टयकायोत्सर्गकरण-रूपा अहोरात्रद्वयमाना भार्या। ज्ञाता०२००९ भद्रा-श्रोत्रे-न्द्रियोदाहरणे प्रतिमा। स्था०६५। पूर्वादिक्-चतुष्टयाभिमुखस्य सार्थवाहभार्या, या श्रोत्रेन्द्रियवशान्मृता। आव० ३९८१ प्रत्येकं प्रहरचतुष्टयमानः कायोत्सर्ग, अहोरात्रद्वयेन प्रथमबलदेवमाता। तृतीयचक्रवर्तिमाता। सम० १५२। चास्याः समाप्तिः । स्था० १९५१ वापीनाम। जम्बू. ३७०| भद्रा-कामदेवगाथापतेर्भार्या| उपा० १९| धनस्स जितशत्रुराजपत्ती। आव. १७७५ भारिया। निशी० ३५१ आ। अन्तकृद्दशानां षष्ठवर्गस्य | भद्रावती- वापीनाम। जम्बू० ३७०० नवममध्ययनम्। अन्त० २७। सुभद्रसार्थवाह-पत्नी। भद्रिल- सलग्रामनिकटे ग्रामविशेषः। पिण्ड ६३। विपा०६५ भद्रोत्तरा- वापीनाम। जम्बू. ३७०। भद्दासणं- भद्रासनं यस्याधो भागे पीठिकाबन्धः, भमर-भ्राम्यति निरन्तरमिति भ्रमरः। बृह. ४९। आ। सिंहासनम्। जीवा० २००। ज्ञाता० १९। भद्रासनं भ्रमरः-चतुरिन्द्रियजीवभेदः। उत्त० ६९६। भ्रमरःसिंहासनम्। प्रश्न. ७०| भद्रासनं-अष्टमङ्गलतः चञ्चरिकः। प्रज्ञा० ३६० भ्रमरःएकमङ्गलः। जम्बू०४१९। भद्रासनं-येषामधोभागे चतुरिन्दियजन्तुविशेषः। जीवा० ३२॥ पीठिकाबन्धः। जम्बू. ४५ भमरकुल- भ्रमरकुलं-मधुकरनिकरः। ज्ञाता० २२२॥ भदिया- भद्रिका-नगरीविशेषः। आव० २०९। भद्रिका-आव. भमरा- चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः। प्रज्ञा० ४२। रोमावर्ताः। ३५० ज्ञाता०१६) भदियायरिय-भद्रिकाचार्यः। दशवै०७ भमरावली-भ्रमरावलिः-भ्रमरपड़क्तिः । प्रज्ञा० ३६० भदिलनयरी- भद्रिकानगरी-भगवतः षष्ठवर्षारात्रस्थानं। भमली-भ्रमणी-आकस्मिकी शरीरभ्रमिलक्षणा। आव. आव० २०७ ७७९| भद्दिलपुर-भद्रिकानगरी-मलयजनपदे आर्यक्षेत्रम्। प्रज्ञा० | भमाड-भ्रमणम्। परिरयः। ओघ. २०| ५५। जितशत्रुराजधानी श्रीवनोद्याने नगरम्। अन्त०४। | | भमाडय-परिरयः। ओघ०५९। भद्रिकानगरी-शीतलनाथजन्मभूमिः। आव० १६०| भमाडिज्जइ- भ्राम्यते। आव. २१७। भद्दिला- भद्रिला-सुधर्ममाता। आव० २५५ भमाडिज्जासि-भ्रामयः। आव० ३१९| भहुत्तरपडिमा- प्रतिमाविशेषः। स्था० २९२। भमाडेइ- प्रदक्षिणयति। आर्द्रयति। आव०६२४ भद्दत्तरवडिंसग- महाशक्रकल्पे देवविमानविशेषः। सम० | भमास-तणविशेषः। भग० ८०२२ भमुहा- भूः। आव० ३०९। भद्दे- भद्रकः। ओघ०४७ भयंकर-भयङ्करः प्राणवधस्य त्रयोविंशतितमः पर्यायः। भद्दोत्तरपडिमा- भद्रोत्तरप्रतिमा-भिक्षुप्रतिमाविशेषः। प्रश्न०६ अन्त०३० भयंत- भद् भजमानं वन्दते तत् भजमानम्, कृतिकर्मणि भद्र- वनप्रचारः-धीरत्वादिगणयक्तत्वात्। स्था० २०९। द्वादशम दोषः। आव० ५४४। भदन्तः-कल्याणी। औप० निर्वाणलक्षणम्। स्था०४४३। ८१। भदन्तः-कल्याणः सुखश्च। आव० ४७२। भवस्यभद्रजातीय- प्रधानः। जम्बू. ११०| जीवा० २७०/ संसारस्यान्तः क्रियते येनाचार्येण स भवान्तः आव. भद्रबाहु-आचार्यविशेषः। व्यव० १७७ अ। नियुक्ति- ४७ भयं-त्रासः तमाचार्यं प्राप्य भयस्यान्तो भवतीति कारकाः। निशी० २२२ । भयान्तो -गुरुः। आव० ४७२। भद्रमुस्ता- वनस्पतिकायिकभेदः। जीवा. २७। भयंतमित्त- भदन्तमित्रः, तच्चनिकविशेषः। आव०७१२। भद्रवती- वापीनाम। जम्बू० ३७०| भयंता- भक्ता-अनुष्ठानविशेषस्य सेवयिता भयत्राता वा। भद्रशाल- मेरुसंबंधिवनविशेषः। प्रश्न. १३५ औप० १०७। भक्ता-निर्ग्रन्थप्रवचनस्य सेवयिता। औप. भद्रा- पूर्वादिदिक्चतुष्टये प्रत्येकं ८१ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [33] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] भयंतार- भवन्तः-पूज्याः। आचा० ३३५। भयस्य त्रातारः। भयङ्करभयम्। जम्बू. १४३। भयेन भैरवाः सूत्र. २७१। भगवन्तः -साधवः। आचा० ३५८, ३६६। अत्यन्तसाध्वसोत्पादका भय-भैरवाः। उत्त०४१९। भय- मोहनीयप्रकृतिसमुत्थ आत्मपरिणामः। स्था० ३८९| | भयमाण-भज्जमानं-सेव्यमानम्। ज्ञाता०२३४। दुःखम्। उत्त. ३१८ प्रज्ञा०८१। परेषां भयोत्पादनम्। भयमाणा- भयमानाः रात्रिजागरणात्तदुपासनां प्रश्न. ३० भेदो। निशी० ७५अ। अपायोदवेगित्वं विदधानाः। स्था० ३४३। संकत्ति। निशी. ७५ अ। अपायोवेगित्वं संकत्ति। भयमोहणिज्ज- यदुदयवशात् सनिमित्तमनिमित्तं वा निशी. ९९ अ। निशी. २६३ । भयं-आकस्मि-कम्। तथारूप-स्वसङ्कल्पतो बिभेति तद भयमोहनीयम्। जम्बू. १४३। भीतिः नृपचौरादिभ्यः। स्था० ४८४। प्रज्ञा०४६९। भीतिमात्रम्। ज्ञाता० ३६। सिंहादिभयः। भग० ९१९। भयवं-भगवान् माहात्म्यवन्। उत्त० ४८३। भगो-बुद्धिर्यभयं-इहलोकादिभेदात्सप्तप्रकारम्। प्रज्ञा० ३। भयात् स्यास्तीति। भगवान्। उत्त० ३०६| धैर्यवान् श्रुतवान् यद्दानं तत् भयदानं, भयनिमित्तत्वाद्वा दानमपि वा। उत्त०३०७ भयमुपचारा-दिति। स्था० ४९६। भयसञ्जा- भयवेदनीयोदयजनितत्रासपरिणामरूपा। भयए- भृतकः-कर्मकरः। पिण्ड० ११०, १६२। भृतकः- जीवा० १५१ वेतनेनोदकाद्यानयनविधायी। सूत्र० ३३१| भयसन्ना- भयवेदनीयोदयाद भयोदभ्रान्तस्य भयक- भृतकः-भक्तदानादिना पोषितः। प्रश्न. ३८१ दृष्टिवदनविकार-रोमाञ्चोढ़ेदादिक्रिया सा भयसज्ञा। भयकर्म- यदुदयेन भयवर्जितस्यापि प्रज्ञा० २२२॥ जीवस्येहलोकादिस-प्तप्रकारं भयमुत्पद्यते तत्। स्था० | भयसा- यद् भयेन वन्दते तत्। कृति कर्मणि एकादशो ४६९। दोषः। माभूद गच्छादिभ्यो निर्दघाटनमिति। आव. भयग- भृतकः-कर्मकरः। प्रश्न. ९१। उत्त० २२५॥ १४४। भियते-पोष्यते स्मेति भृतः स एवानुकम्पितो भृतकः- भयाणि-राजविड़वरादिजनितानि भयानि। उत्त०४५९। कर्मकरः। स्था० २०३। भृतको-नियतकालमवधिं भयाणिया- भयमानीतं यया सा भयानीता, अथवा भयंकृत्त्वा वेतनेन कर्मकरणाय धृतः दुष्कालादौ निश्रितो __ भयहेतुत्वादनीकंवा। जम्बू० १२२ तत्पररिवारभूतमल्कास्फुलिङ्गादिसैन्यं यस्याः सा भयगत्ता- भृतकता-दुष्कालादौ पोषितता। भग. ५८१ भयनीका। भग. १७५ भयण-भज्यते सर्वत्रात्मा प्रह्वीक्रियते येन स भजन:- | भयानकः- भयजनकसङ्ग्रामादिस्तुदर्शनादिप्रभवो लोभः-सूत्र. १८० भयानको रसः। अनुयो० १३५५ । भयणा- भजना-विकल्पना। ओघ० २३, ८५ भजना- भयाली- जम्बूद्वीपस्य भरतक्षेत्रे आगामिन्यां प्ररूपणाविशेषः। आव० ३८२। भजना-विकल्पना। ओघ. चतुर्विशिकायां अष्टादशमतीर्थकरस्य पूर्वभवनाम। २३। आव० ३३५ पिण्ड० १४९। भजना-सेवना समर्थना सम० १५४ च। आव० ३३९| भयालु-भयबहुला। बृह० २३ आ। भयणिस्सिया- भयनिःसृता भर-भरः-क्षेत्राद्याश्रितराजदेयद्रव्यप्राय॑म्। विपा० ३९। यत्तस्करादिभयेनासमजसभा-षणम्। प्रज्ञा० २५६) भरः-वाढम्। नन्दी. १५३। भारा। उत्त० ५८१। भयनिसृता-मृषाभाषाभेदः। दशवै. २०९। भरए-भरकः। पिण्ड० १५४ ओघ. १५९। भरतःभयन्तारो- भक्तारो-निर्ग्रन्थप्रवचनसेवका भदन्ता वा प्रज्ञा०३०० भट्टारका भयत्रातारो वा। उपा० २९। भरगा- रूवगा। निशी. १६७ अ। भयभेरव- भैरवभया-अत्यन्तरौद्रभयजनकाः शब्दाः। | भरणी- नक्षत्रविशेषः। स्था० ७७। ज्ञाता० १५४। सूर्य. १३०| दशवै. २६७। प्राकृतत्वात्पदव्यत्यये भैरवभयं भरत- प्रामाणाङ्गलैदृष्टान्तः। ब्रह. २७६ आ। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [34] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] नटविशेषः। बृह. १०६ आ। कर्मभूमिविशेषः। प्रश्न. भग० २७५ ९६। वर्ष-विशेषः। प्रज्ञा०७३। उत्त० ५०४। भग० ३०५। भरिज्जइ-भियते। आव. २१८ उत्त०६२४। अधर्मकारिनिग्रहकृत्राजा। भरिम- यद् ग्रन्थितं सद् वेष्ट्यते यथा पुष्पलम्बूसको अनमत्पार्थिवनमयिता। उत्त० ३१३| चक्रवर्ती गण्डूक इत्यर्थः। जीवा० २५३। मूच्र्छारहितत्वे दृष्टान्तः। प्रज्ञा. २० नन्दी० २१८ | भरिली- भरिलिः-चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः। प्रज्ञा० ४२। नटविशेषः। नन्दी०१४५। रामस्य मात्रान्तरसंबन्धी । जीवा० ३२॥ भ्राता। ८७ भग० ५८६। त्यागनिरूपणे भरतः। दशवै. भरुअच्छ- भृगुकच्छः । निशी. २६७ अ। ९३। चक्रवर्ती। आव० ५८५। चक्रवर्ती। आचा०८1 भरुकच्छ- जलस्थलनिर्गमप्रवेशपतनम्। व्यव० १६८ अ। भरतचक्रवर्ति- प्रथमश्चक्रवर्ती। बृह. ११० आ। भृगुकच्छ नगरविशेषः। आव० ४११| भरतादयः- पूर्वापरव्यवहारी। नन्दी० २१८ भरुकच्छाहरणी- भृगकच्छहरणी। आव०६६५१ भरद्दाओ- भारद्वाजः ब्राह्मणः, अग्निभूतिजीवः। आव० भरुयकच्छ- भृगुकच्छः । आव० ४११। १७२ भरुयच्छ- भृगुकच्छः । आव० ८९। जनपदविशेषः। नरभरनित्थरणसमत्थो- अतिगुरुकार्यं दुर्निर्वहत्वाद्धर इव वहापनगरी। बृह. २७ आ। नगरीविशेषः। बृह. २६७ अ। भरस्तन्निस्तरणे समर्थः भरनिस्तरणसमर्थः। आव. द्रव्यप्रणिधौ नगरम्। आव०७१२, ७१३। लवालवोदाहरणे ४२३ नगरम्। आव०७२१। भरुयच्छं-भरुक-च्छनयरं भरवह- भारवहा-पोट्टलिकावाहिका। बृह. १२५ अ। नरवाहनराजधानि। व्यव. २२७ आ। पोट्टलिकसार्थः। बृह. १२५अ। भरुयत्थ-नयरे। व्यव० २८० आ। भरह- भरतः प्रथमचक्रवत्ती। नरवरेन्द्रः आव०१५९ भरू-म्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा० ५५ ओघ० १७९। भरतः-आभ्यन्तरे प्रविष्टस्य भरेइ- पूरयति। ज्ञाता०८1 बाह्यकरणरहितस्यापि केवलज्ञानोत्पत्तौ दृष्टान्तः। | भलण-न भेतव्यं भवता अहमेव तद्विषये आव० ५२९। भरतः-रोहकः। आव०४१६ भलिष्यामीत्यादि-वाक्यैश्चोर्यविषयं प्रोत्साहनं प्रथमश्चक्रवर्ती। सम० १५२भरतः-आरा-धनाविषये भलनम्। प्रश्न. ५८१ विनीतानगर्यां राजा। आव०७२४। आत्माभि-षिक्तो भलिस्सामि- मेलयिष्यामि-मिलिष्यामि। आव० ३९४, भरतश्चक्रवर्ती। व्यव. १२९ आ। बृह. २५५अ। ४३१| निशी. २३आ। निशी. २७०| भरतः-चक्रवर्तिविशेषः। | भल्ल-भल्लः-व्याघ्रविशेषः। प्रश्न.७१ उत्त० ४४८१ स्था० ४३३। भरतः-आगामिकाले भरतक्षेत्रे भल्लओ- भल्लः । आव. २०७१ प्रथमश्चक्रवर्ती। सम.१५४१ भरतः-चक्रवर्ती राजा।। भल्लि-शस्त्रविशेषः। जीवा. १९३। उत्त० ५८२। कर्मभूमिविशेषः। स्था०६८। भरतः- भल्ली-शस्त्रविशेषः। नन्दी०१५२ निशी० ८ आ, ११७ अधःस्थानप्रतिपत्तौ सिद्धः। बृह. १६ आ भरतः । कर्मभूमिविशेषः। प्रज्ञा० ५५ भल्लंकी- वनजीवः। मरण | भरहकूड- भरताधिपदेवकूटम्। जम्बू० २९६। भवंति- भवन्ति-भ्रमन्ति वा। दशवै०७२ भरहजंबु-भरतजम्बुः । दशवै० २३॥ भव-स्वभवे स्थितिः भवजीवितम्। आव०४८०। भवः भरहदारओ-भरतदारकः-रोहकः। आव ४१६। कर्मसम्पर्कजनितो नैरयिकत्वादिकः पर्यायः। भवन्ति भरहराय- भरतराजः-साधनां भक्तेन निमन्त्रणकर्ता कर्मवशवर्तिनः प्राणिनोऽस्मिन्निति भवः। प्रज्ञा० चक्री। बृह० ५२ । ३२८। संसारो मनुष्यभवो वा। आव० ४४४। भवःभरा-भरा-यवसादिसमूहः। पिण्ड० ३६ नारकादि जन्म। प्रज्ञा० ५३९। नन्दी० ११२भवग्रहणंभरिए- भरितः-हस्तपाशितः। विपा० ५९। भरितः भृतः। । सर्वबन्ध-शाटयोरन्तरकालः। आव० ४६०। ईशानकल्पे मनि दीपरत्नसागरजी रचित [35] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] देवविमान-विशेषः। सम० । भवः-भवसिद्धिकः। १७१। भवनप्रस्तटः। भवनभूमिकारूपः। प्रज्ञा०७१। अल्पबहत्वपदे विंशतितमं दवारम्। प्रज्ञा० ११३ | भवणपुंडरीअ-भवणपुण्डरीकः-भवनप्रधानः भवन्ति अस्मिन् कर्मव-शवर्तिनः प्राणिन इति भवः स | पुण्डरीकशब्द-स्येह प्रशंसावचनत्वात्। उत्त०४८४| च नारकादिलक्षणः। आव. २७ नारकादिजन्म। नन्दी | भवणवासी-भवनेषु वसन्तीत्येवंशीला भवनवासिनः। ७६, ११२। भवन्ति प्राणिनः प्रज्ञा०६९। कर्मवशवर्तिनोऽस्मिन्निति भवं-शरीरम्। प्रज्ञा० १०९। | भवणविही- भवनविधिः। वास्तुप्रकारः। जम्बू. १०७ भवइ- भवति-तिष्ठति। प्रज्ञा०६०९। भवणागार- वणरायमंडियं भवणं। निशी० ७० अ। भवकाल- भवस्थितिः। स्था० ३। भवकालः-मोक्षगमनप्र- भवधारणिज्ज- भवधारणीयं नैरयिकशरीरम्। तत् हि त्यासन्नशैलेश्यवस्थान्तर्गतोऽन्तर्मुहुर्तप्रमाणः। आव० भवस्वभावत् एव ५९५ निर्मुलविलुप्तपाटितसकलग्रीवादिरोम-पक्षिशरीरवत् भवक्खए- भवक्षयः। आचा० ४२१। अतिबीभत्ससंस्थानोपेतम्। प्रज्ञा० २९७। भवक्खय- तद्भवजीवितभवः तस्य क्षयो भवक्षयः। आव. भवधारणप्रयोजनं मनुष्यादिभवोपग्राहकं ४०७ भवधारणीयम्। भग० ८८1 भवे धार्यते तदिति तं वा भवं भवचरम-भवचरमः। प्रज्ञा. २४६। भवचरमः-यावज्जी- धारयतीति भवधारणयं यज्जन्मतो भरणावधिः। स्था. विकम्। आव०८५३ २८६। यया भवो धार्यते सा भवधारणीया। जीवा० ३४। भवजीव-भवजीवः-। दशवै०१२११ भवं-जन्मापि यावद्धार्यन्ते भवं वा देवगतिलक्षणं भवजीविय-नारकादिभवविशिष्ट जीवितं भवजीवितं- धारयन्तीति भवधारणी-यानि। स्था० १२६। नारक-जीवितम्। स्था०७। भवजीवितं-भवायुः। दशवै. | भवधारणिज्जा- भवे-नारकादिपर्यायभवने आयुःसमाप्ति १२॥ यावत्सततं ध्रियते या सा भवधारणीया भवद्विती-भवे भवरूपा वा स्थितिः भवस्थितिर्भवकालः। सहजशरीरगता। अनुयो० १६३। स्था०६६। भवन- चतुःशालादि। स्था० २९४१ भवण- भवन चतुःशालादि। प्रश्न० ८भवनं भवनवासिनः- भवनेषु-अधोलोकदेवावासविशेषेषु वस्तुं भवनपतिदेवा-वासः। प्रश्न ७० भवनं शीलमेषां इति भवनवासिनः। स्था० ६६। भवनपत्यावासादि। अनयो० १७१। भवनं-भवनपतिगृहं | भवन्ति- अवगाहन्त इति यावत्। अनुयो०६१। गृहमेव वा। प्रश्न. ९५। आयामापेक्षया भवपच्चइए-क्षयोपशमनिमित्तत्वेऽप्यस्य किञ्चिन्न्यूनोच्छ्रायमानं भवति। जम्बू०८८1 क्षयोपशमस्यापि भवप्रत्यत्वेन पत्प्राधान्येन भव एव चतुर्दशस्वप्ने द्वादशमम्। ज्ञाता०२०। भवनं प्रत्ययो यस्य तद्-भवप्रत्ययम्। स्था० ५०| भवनपतिनिवासः। भग० २३८१ भवपच्चइय-भव एव प्रत्त्ययः-कारणं यस्य स भवणगिह- भवनगृहं-कुटुम्बिवसनगृहम्। भग० २००९ भवप्रत्ययः स एव भवप्रत्ययकः। प्रज्ञा०५३९। भवन-गृह-यत्र कुटुम्बिनो वास्तव्या भवन्ति। भयपरीत्त- यः शान्त्यादिविशेषि-तानि भवनानि गृहाणि च, तत्र भवनं- किञ्चिदूनाऽपार्धपुद्गलपरावर्त्तमात्रसंसारिकः। प्रज्ञा० चतुःशालादि गृहं तु अपवरकादिमा तत्। स्था० २९४। १३९| भवणछिद्द-भवनच्छिद्रं-भवनानामवकाशान्तरम्। प्रज्ञा० | भवमरण- मनुष्यादावेव बद्धायुषो मरणं भवमरणम्। भग. १२० भवणनिक्खुड- भवननिष्कुटः-गवाक्षादिकल्पः केचन- भवमिथ्यात्व- भवहेतुभूतं मिथ्यात्त्वम्। उत्त० ५९३। भव-नप्रदेशः। प्रज्ञा०७७) भववीरियंभवणपत्थड- नरकप्रस्तटान्तरेः-भवनप्रस्तटः। अनुयो० । जंतासिकुंभिचक्ककंदुदुपयणभट्ठसोल्लणसिंबलि اقای मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [36] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] सूलादीसु भिज्जमाणाणं महंतवेदणोदये वि जं०ण विलिज्जंति एवं तेसिं भववीरियं निशी० १९अ भवसण्णा भवसञ्ज्ञा-भयाभिनिवेशः भयमोहोदयजो जीवपरिणामः आव. १८० आगम - सागर - कोषः ( भाग : - ४) भवसिद्ध भवैः सिद्धिर्यस्यासौ भवसिद्धिकः - भव्यः । राज० ४७ | भवे सिद्धियस्यसौ भवसिद्धिकः । प्रज्ञा० ३९५ भवसिद्धिकाः भवैः सिद्धिर्येषां ते बृह० १७ आ । । अवसिद्धिय भवे सिद्धिर्यस्य स भवसिद्धिकाः । जीवा. ४४९| - भवसिद्धियसंमए भवसिद्धिका भव्यास्तेषां समिति भृशं मता-अभिनेताः भवसिद्धिसंमताः । उत्तः ७१२ अवसिद्धिया भवा भाविनी सा सिद्धि:- निर्वृतिर्येषां ते भवसिद्धिकाः भव्याः । स्था० ३०| भवा भाविनी सिद्धिर्येषां ते भव्यसिद्धिकाः । भग० ५५८ । भवे भव्या वा सिद्धिरेषा मिति भवसिद्धिकाः । भव्यसिद्धिका वा उत्त ३४३| भवसिद्धीयसंवुडे- भवेतस्मिन्नेव मनुष्यजन्मनि सिद्धिरस्येति भवसिद्धिकः स चासौ संवृतश्चाश्रवरोधेन भवसिद्धिकसंवृतः । उत्तः ७१२ भवसिद्धीया भविष्यतीति भवा भवा सिद्धिः निर्वृतिर्येषां ते भवसिद्धिका भव्याः । भग० ८१| भवे सिद्धिर्येषां ते भवसिद्धिकाः । आव० ७७ । भवा- भाविनी सिद्धिःमुक्तिर्येषां ते भवसिद्धिकाः भव्याः सम० ७ भवस्थिति- भवकालः । स्था० ३। भवा- भविष्यति भवा- भाविनी । स्था० ३०| उत्त० ६५० | भवा भवात्ययेऽपि कालान्तरानुगामीत्यर्थः भवप्रधानमायु-र्भवायुः। स्था॰ ६६। भवाकर्ष- भवे- अनेकत्रोपशमादिश्रेणिप्राप्त्या आकर्ष:एर्या-पथिककर्माणुग्रहणं भवाकर्षः । भग० ३८६ । भविअ भवि: विवक्षितपर्यायार्हस्तद्‌योग्यो वा अनुयो मुनि दीपरत्नसागरजी रचित 1 ३३| अविए भविष्यति तेन तेनावस्थात्मना सत्तां प्राप्स्यति यः सः भव्यो । जीवा० । उत्त० ७२ भव्यः-योग्यः, कर्ता। भग० ९३ | भविओ भव्यः योग्यः द्रव्यदेवादिः आव० ७६८८ भवित्ता- अन्तर्भूतकारितार्थत्वात् मुण्डान् भावयित्वेति दृश्यम् । स्था० ४३१ | [37] [Type text] भविय भव्यः योग्यः । भग० ५८ । भव्यःतथाविधानादिपारिणामिकभावात् सिद्धिगमनयोग्यः । प्रज्ञा॰ ४। भव्यः-देव- त्वयोग्यः । भग० ४९| भवियजणपयहिययाभिणंदियाणं भव्यजनानां भव्यप्राणिनां प्रजा-लोको भव्यजनप्रजा भव्यजनपदो वा तस्यास्तस्य वा हृदयैः- चित्तैरभिनन्दितानां - अनुमोदितानामिति । सम० ११५ भविस्सामि भविष्यामि उत्पत्स्ये । आचा० १६ | भवे भवेयुः । अयं शब्दः भवेयुरित्यस्यार्थे प्रयुक्तः । दशकै ७१ भवोवग्गहं भवे मनुष्यभवे उप-समीपेन गृह्यतेअवष्टभ्यते यैस्तत् भवोपग्रहम् । प्रज्ञा- ६०३ | भवोवग्गाहकम्म- भवोपग्राहकर्म वेदनीयनामगोत्रम् । प्रज्ञा० ६०३ | भवोहंतकरा भवा-नारकादयस्तेषामोघः पुनः पुनर्भवरूपप्रवाहस्तस्यान्तकराः- पर्यन्तविधायिनो भवौघान्तकराः । उत्त० ५११ । भव्यः- योग्यः । आव० ५। भवसिद्धिकः । स्था० ३०| भव्य भव्यो-योग्य इन्द्रशब्दार्थ जास्यति यो न तावद्द्विजानाति स भव्यः स्था० १०३ भव्यं योग्यं कल्याणमित्ति प्रश्न० १३३ | भव्यं फलविशेषः । प्रज्ञा० ३२८ भावि वस्तुविषयं भव्यम् । स्था० ४५० भव्वय भव्वको भागिनेयः । बृह० ९३ आ । भस - भसः शृङ्गारः । बं० ४१८ | भसओ जितशत्रोः पुत्रः शशकआाता। बृह० १९३अ) भसोल- | निशी० ७८ अ । एकोनत्रिंशत्तमो नाट्यविधिः । जीवा० २४७ । भसोलं-नाट्यविशेषः । जम्बू० ४१२| भसःशृङ्गाररसस्तं अवतीति भसोस्तं इतिभावाभिनयेन न लाति गृह्णातीति भसोलः नटः । जम्बू० ४१८ नट्टविसेस | निशी० १ अ भस्त्रक- तोणम्। औप० ७१ | भस्त्रकाः- तूणाः । जम्बू ० २१२ | भस्त्रा- धमनी । आचा० ७४ ॥ भस्म रूक्षस्पर्शपरिणता । प्रज्ञा० १०| भस्मक- एतदभिधानो वायुविकारः । विपा० ४२ | व्याधिविशेषः । प्रज्ञा० ६०२१ भांड- भाण्डं यानपात्रम् आव० ८२४१ "आगम- सागर-कोषः " (४) Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] भांडग- भाण्डकं-पतगृहम्। व्यव० २९९ आ। भाजनोद्ग्रहण-भाजनाद्भजने यावत्पतनम्। आव० ५७६। भाइज्जाइया- भातृजाया। बृह. २९ आ। भाटि-मैथुनार्थं यन्मूल्यम्। आव०८२७। भाइणिज्ज-भागिनेयः-भगिनीपुत्रः। दशवै० २१५) भाडीकम्म- भाटीककर्म। आव० ८२९। भाइति-भाजयति विश्राणयति, शेषदेवेभ्यो ददाति। भाण- भाजनम्। ओघ० ११७ आव० २८९, ४२७, ४३६) जीवा० २४६। पात्रम्। ओघ० १५५। भाण्डम्। स्था० ३३९। भाइयपुणाणिय-विभाजनं-ईश्वरादिगृहेषु वीननार्थमर्पणं | भाणक-वादयविशेषः। स्था०६३। तेभ्यः प्रत्यानयनं-पुनरानयनं, विभक्ताश्च ते भाणगो- उद्घोषकः। निशी० ३४४ आ। पुरानीताश्चेति। आव. २३८५ भाणद्गं-भाजनदवितीयं-पतदगृहं मात्रकं वा। ओघ. भाइयव्व- भेतव्यम। आव. १२१ भाज्यः-विकल्पनीयः। १५५ अनुयो० २२८१ भाणाइधावणा-भाजनादिधावनं-क्षालनं पात्रादेः। ओघ. भाइल्ल-भागिकः यः षष्ठांशादिलाभेन कृष्यादौ ६९ व्याप्रियते। सूत्र० ३३११ भाणिऊण-अभिधाय। आव० ३३० भाइल्लएइ-भागिको-द्वितीयायंशग्राही। जम्बू० १२२। भाणिय- भाणिकं अनन्तजीववनस्पतिभेदः। आचा०५९। भाइल्लग-यो भागं लाभस्य लभते स। ज्ञाता०८९। भागो | भाणीअ-अभाणीत्। जम्बू. २००२ विद्यते यस्य सो भागवान्। शुद्धचार्थिकादि। स्था० | भाणुमित्त- बलमित्तकणिट्ठभाया। निशी. ३३९ आ। ११४१ ज्ञाता० १५२ भाइल्लगत्ता- कृण्यादिलाभस्य भागग्राहकत्वम्। भग० भाणुसिरी- भाणुमित्तस्स भगिणी। निशी० ३३९। ५८११ भाणू-धर्मनाथजिनस्य पिता। आव० १६१। सम० १५१| भाउज्जा- भ्रातृजाया। भग० ५५८1 भाण्डागरं- कोशः। नन्दी. १६७। श्रीगृहम्। आव. ९६| भाउज्जाइया- भ्रातृजाया-भ्रातृकलत्रम्। आव० ८२४। भातिसमाण- भ्रातृसमानः-अल्पतरप्रेमत्त्वात् भाए- भागः-विभागः। ज्ञाता० २३० भागः-अर्द्धपोषः। तत्त्वविचारादौ निष्ठरवचनादप्रीतेः तथाविधप्रयोजने आचा० ३२६। भागः-अचिन्त्या शक्तिः । आव०६० त्वत्यन्तवत्सलत्वा-च्चेति। स्था० २४३। भायणं- विभज्य समर्पणम्। बह० २०९ अ। भादुगं- उत्कटस्पर्शरसगन्धतयाऽन्यद्रव्यपरिणामकम्। भाएति- भाजयति-विश्राणयति। राज०१०३ बृह. १९४ । भाग- भागः अवकाशः। सूर्य. १०४। भागः। सूर्य. १६। | भामण्डल- जनकाराजपुत्रः सीतासहजातः। प्रश्न० ८६) दशा | उत्त० १४४। पूजा। सूत्र० १७४| पलिकामात्रम्। भामरं- भ्रामरं-मधुविशेषः। आव० ८५४। महङ्गो तईओ उत्त० १४२। लब्धद्रव्यविभागः। ज्ञाता०४१। निशी. भेओ। निशी. १९६ आ। १४२ आ। भामंडणा- भंशना। बृह. १३। भागवओ-भागवतः-पौराणिकः। आव० ४१९। भाय-भागः-लाभस्यांशः। विपा० ७७ लाभांशः। ज्ञाता० भागवतः- भागवतपाठकः। नन्दी० १५२। आचा० १४६। ८३ भागसहस्साई- बहवोऽसङ्ख्येया भागाः। प्रज्ञा० ५०८। भायण-भाजनं-योग्यम्। सूर्य. २९६। भाजनं-नन्दीपात्रम्। भागावडिओ- भागापतितः-भोग्यः। आव०६०९। ओघ०१८४१ भागिल्लओ-भागिकः-द्वितीयांशस्य चर्थांशस्य वा भायणत्था-भाजनाथ विश्राणनार्थम्। व्यव० १७१ अ। ग्राहकः। जीवा० २८० भायणवत्थ-भाजनवस्त्रं पटलम्। ओघ० १७५ भागी-भाजनम्। उत्त० ५९०० भायणवुट्ठी-भाजनवृष्टिः -पात्रवर्षणम्। भग. १९९। भागीरथी- गङ्गा। उत्त० ३७८१ भायल- जात्यविशेषः। ज्ञाता०५८। भाङ्कारः- भेरीशब्दः। नन्दी०६२ भारंडपक्खी- चर्मपक्षिविशेषः। ज्ञाता०४९। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [38] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] भार- पुरुषोत्क्षेपणीयो भारः। जम्बू. १६२ भारः-विंश- पर्यायः। निशी. २३। अ। मोक्खो। दशवै. १४३ आ। त्त्यापलशतैः पुरुषोत्पेक्षीणो भारो भारक इति। स्था० चित्ताभिप्रायः। आचा० १३२ परिणामः। भग० ८९० ४६२ भारः-क्षीरभृतकम्भदवयोपेता कापोती। आव० धर्मः। भग० ७३७। अन्तःकरणम्।उत्त० ३९९, ५६३। ७७०| भारकः-पुरुषोद्वहनीयो विंशतिंपलशतप्रमाणो भावः। नन्दी. २२७। भावंवा। भग० ६९१। भारः-विंशतितुलाप्रमाणः। अनुयो. इन्दनक्रियानुभवनलक्षणपरिणाममाश्रित्येन्द्र इन्दन१५४| भारः-गुरुताकरणम्, परिग्रहस्य सप्तदशमं नाम। परिणामेन वा भवतीति भावः। स्था० १०३। मनः। स्था. प्रश्न.९२ १९६। आन्तरपरिणामः। उत्त०७०८ स्वरूपम्। आव० भारए- भारतः सूर्य २० १८१। युक्तार्थस्वादिको गुणः। अनुयो० १४८॥ भारकाय- भारः-क्षीरभृतकुम्भद्वयोपेता कापोती, स चासौ अभिप्रेतः। परकीयाभिप्रायः। अनुयो० ४९। भावःकायश्च, कापोती एव वा। आव०७६७। कापोती। दशवै. पर्यायः। प्रज्ञा० ५९। भग० १४८ चित्तसमुद्भवः। ज्ञाता० १३५ १४४| भावः-बह्वर्थः, द्रव्यवाचकः, शुक्लादिवाचकः, भारग्गस- भाराग्रशः-अनेकविंशतितुलापरिमाणानि। औदयिकादिष्वपि वर्तमानः कर्मविपाकलक्षणश्च। जम्बू. १६२। भारपरिमाणतः। ज्ञाता० १२६| दशवै०६९। सत्तापरिणामः। भग०७६०। अस्तिकायः। भारती- भरतस्त्री। जीवा०६०। दशवै ७०| जगतीवर्षवर्षधरायास्त-दग्रतपदार्थाः। भारद्दा- गोत्रविशेषः। स्था० ३९० जम्बू. १८ भावनास्तम्भादीनामपि तद्बभारद्दाजं- भारद्वाजं-मृगशिर्षगोत्रम्। जम्बू. ५००| ध्याऽऽलिङ्गनादिचेष्टा, असम्प्राप्तकामभेदः। दशवै. भारद्दायसगोत्त-भारद्वाजसगोत्रम्। सूर्य. १५०/ १९४| भावः-अभिप्रायः, प्रार्थना। दशवै. ९७। भावःभारवह- गर्दभादिः । ओघ० २२७। मोक्षः। दशवै. २५८ औदयिकः प्रज्ञा० २४६। भावःभारवहा- पोट्टलिया। निशी. ३७ अ। ओघ०७३। भूयिष्ठशुक्लादिपर्यायः। स्था० ४९० भारह- भरतः ज्ञाता० ११, १२४। अनुभागलक्षणं कर्मणः पर्याय भारहर- भारं धरतीति भारधरः। उत्त० ३६२। चतुःस्थानिकत्रिस्थानिकादिरसम्। उत्त०६४५। इति भारही- भारो अत्थो तं अत्थं धारयतीति। दशवै. १०२ द्रव्यादिको भावः। निशी० ८ अ। पर्यायः क्रमवर्ती। भारिय- महत्। निशी. १५६अ। औप० ११७। परमार्थः। उत्त० ५५५। जम्बू०८। उत्त. भारिया- भारिका-'दुर्निवाह, भार्या। पश्न ०३९। ज्ञाता० ५४९। भवनं भावः-वक्तुमिष्ट-क्रियानुभवलक्षणः। १५२ पर्यायः। आव० ५। प्रतिबन्धः। बृह० २४१ आ। भावःभारुंड- भारुण्डपक्षिणोः किलैकं शरीरं पृथग ग्रीवं त्रिपावं च | अभिप्रायः। सूत्र. २३९। भावः-पर्यायः। उत्त. २०३। भवति। स्था० ४६४१ भावः-परमार्थः। आव. २७। भावः-आत्मपरिणामभारुंडपक्खी-भारण्डपक्षी- चर्मपक्षिविशेषः। जीवा० ४१। लक्षणः। आव० ३६६। भावलिङ्गोपलक्षणार्थः। आव. भालिय-भारिय-भृतम्। बृह. २८७ अ। ५२७। भावपरिहरणा, परिहरणाया अष्टमो भेदः। आव. भावंग- भावाङ्ग-श्रुतनोश्रुतभेदभिन्नम्। उत्त० २८७ अ। ५५२ भावः-सद्भावः। नन्दी०५३। भाव- भावः-पदार्थः। आव०४४५, ६०९। भावः-आदर्श-पक्षे भावकड-भावकृतं-द्रव्यादिभिर्भेदः सूत्रे विहितम्। ब्रह. नयनमुखादिधर्माः साधुपक्षे अशठतया मनःपरिणामः। १३२। औप० ३६। भावः-चित्तम्। प्रश्न० ३०। भावः भावकसाए- भावकषायाःचित्तसंभवः। प्रश्न० १४०। भावः-अन्तःकरणवृत्तिः। शरीरोपधिक्षेत्रवास्तुस्वजनप्रेष्या-र्चादिनिमित्ताविर्भूताः प्रश्न. ९८ भावः-सत्ता। प्रज्ञा० ३७१। भावः-पदार्थः शब्दादिकामगणकारणकार्यभूतकषायपर्यायः। प्रज्ञा० ११० भावः-जातो पृवचनम्। प्रज्ञा० कर्मोदयात्मपरिणामविशेषः। क्रोधमानमायालोभाः। २५१। वस्तु वस्तुधर्मो वा। ज्ञाता० १७७। भवनं भावः- | आचा० ९१| मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [39] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] भावकसिणं- रागद्वेषाभ्यां वस्त्रधारणम्। बृह. २२७ आ। प्राणातिपातादिनिवृत्तिलक्षणमहाव्रतसंरक्षणाय भावकायः- भावा औदयिकादयोऽन्ये वा प्रभूतास्तेषां भाव्यन्ते इति भावनाः। सम०४४। कायः। आव०७६७। भावणागम-भावनागमःभावकाल- भावकालः-सादिसपर्यवसानादिभेदभिन्नः। श्रीआचाराङ्गदवितीयश्रुतस्कन्धगतदशवै. ९। भावनाख्याध्ययनगतपाठः। जम्बू. १५३। भावकुक्कुटी- उदरानुकूलो धृतिजनकः भावतः- परमार्थतः। आचा. १६६। ज्ञानदर्शनचारित्रवृ-द्धिकर आहारः। पिण्ड । भावतआम- वर्षशतायुः पुरुषआयुष्कोपक्रमेण वर्षशतभावकेऊ-भावकेतुः-अष्टाशीतौ महाग्रहे अष्टाशीतितमः। मपूरयित्वाम्रियते स। बृह. १४३ अ। जम्बू. ५३५ स्था० ७९। भावतिंतण- कयाकएस किंचि भणितो चोदितो वा भावकेतन- लोभेच्छा। आचा० १६३। दिवसंपि तिडितिडेत्ता अच्छति। निशी ८० अ। भावखंध-भावश्चासौ स्कन्धश्च भावस्कन्धः, भावतीर्थ- क्रोधादिनिग्रहसमर्थ प्रवचनम्। बहभवैः भावमाश्रित्य वा स्कन्धो भावस्कन्धः। अनयो० ४२१ सञ्चितं कर्मरजो यस्मात् तपःसंयमेन धाव्यते शोध्यते भावगौरव- संसारचक्रवालपरिभ्रमणहेतुः कर्मनिदानम्। तस्मात्तत् प्रवचनम्। आव०४९८। सङ्घः। स्था० ३३| अभिमानलोभाभ्यामात्मनोऽशभभावगौरवम्। आव. भावतेण-भावस्य-श्रुतज्ञानादिविशेषस्य स्तेनो ५७९| भावस्तेनः। प्रश्न० १२५ भावग्ग-भावग्रम्। आचा० ३१८॥ भावत्थ-भावश्चासावर्थश्च भावार्थः। दशवै.७० भावचंचल- चञ्चलस्य चतुर्थो भेदः। बृह. १२४ अ। भावदेव-देवयुष्काद्यनुभवन् वैमानिकादिः। स्था० ३०३। भावचपल-सूत्रेऽर्थे वाऽसमाप्त एव योऽन्यद् गृह्णाति। भावेन-देवगत्यादिकर्मोदयजातपर्यायेण देवो भावदेवः। उत्त० ३४७ भग० ५८३ भावज्जाइया- भ्रातुजाया। निशी० ३५० आ। भावद्वीप-सम्यक्त्वम्। जम्बू० ८। भावट्ट- भावातः प्रियविप्रयोगादिदःखसकटनिमग्नो भावनासत्यं- शुद्धान्तरात्मा। प्रश्न. १४५१ भावातः। आचा० ३५ भावन्न-चित्ताभिप्रायो दातुः श्रोतुर्वा तं जानातीति भावण-भावना-आचारप्रकल्पस्य चतुर्विंशतितमो भेदः। भावज्ञः। आचा० १३२ आव०६६० भवनं-आचाराङ्गस्य भावन्नाण- यदा विवक्षितपर्यायतो न जानाति तदा चतुर्विंशतितमध्ययनम्। आव० ६१७ सम०४४। भावाज्ञानम्। स्था० १५४ भावणा-भावना-अभ्यासः। आव० ५९२ भावना-ईर्या- भावपएस- भावप्रदेशः-एकगणकालकादिकः। प्रज्ञा० २०२। समित्यादयः। प्रश्न०११०| भावना भावपक्कं- संजमजोगोवरित्तं व शुद्धं भावपक्कं, अथवा अव्यवच्छिन्नपूर्वपर्व-तरसंस्कारस्य उग्गमादिदोसविसुद्धं भावपक्कं, अथवा जेण जं आउगं पुनःपुनस्तदनुष्ठानरूपा। अनुयो० ३०| अभ्या-सरूपा। णिव्वतिय तं सव्वं पालेत्ता मरमाणस्स भावपक्कं उत्त० ४१२। भाव्यते-आत्मसान्नीयतेऽनयाऽऽत्मेति भवति। निशी. १४९ आ। भावना-तद्भावाभ्यासरूपा। उत्त०७१०| नामनिष्पन्ने भावपडिलेहा- भावप्रतिलेखा-भावप्रत्युपेक्षणा। ओघ. निक्षेपे भावनेति नाम। आचा०४१८ भावना १०६| आचारप्रकल्पे द्वितीयश्रुतस्कन्धस्य | भावपरमाणू-भावपरमाणुः-परमाणुरेव वर्णादिभावानां पञ्चदशममध्ययनम्। प्रश्न. १४५ भावना प्राधान्यविवक्षणात् सर्वजघन्यकालत्वादि। भग० ज्ञानादिका। आव०५९० भावना-वासना। आव० ५९५) ૭૮૮૫ भावना-ध्यानाभ्यासक्रिया आव०५८३ भावपलंब-भावप्रलम्ब अष्टविधः कर्मग्रन्थिः । बह. भावणाओ १४३ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [40] "आगम-सागर-कोषः” [४] Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] भावपव्वज्जा- भावप्रव्रज्या-आरम्भपरिग्रहत्यागः। उत्त. थत्वम्। भग० ७२७। उत्त० ५९१। भावसत्यं-शुद्धा२९८१ न्तरात्मा। सम०४६। भावसत्य-भावलिङ्ग, अन्तः भावपुरिस- पूः-शरीरं परि शेते इति निरूक्तवशाद् भावप्- शुद्धिः। द्वादशोऽनगारगुणः। आव० ६६०| भावसत्यंरुषः-जीवः। आव० २७७ यथा पञ्चव-र्णसम्भवेऽपि शुल्काबलाका। दशवै० २०९। भावप्राणाः- ज्ञानादीनि। प्रज्ञा०७१ भावसच्चा- भावसत्या-पर्याप्तिकसत्यभाषाया अष्टमो भावबंभ-सत्तरसविहो संजमो। निशी. अ। भेदः। यो भावो वर्णादिर्यस्मिन्नत्कटो भवति तेन या भावभिक्खू- इहलोगणिप्पिवासो संवेगे भावितमती सत्या सा भावसत्या। प्रज्ञा० २५६। संजमकरणुज्जुत्तो। निशी० ८५आ। भावसत्थ-भावशस्त्रं-असंयमः भावमंद-भावमन्दः-अनुपचितबुद्धिर्बालः कुशास्त्रवासित- दुष्प्रणिहितमनोवाक्कायल-क्षणः। आचा० ३९। बुद्धिर्वा। आचा०७० भावसन्धिः- ज्ञानदर्शनचारित्राणामभिवृद्धिः। आचा० १३१| भावमहत्- प्राधान्यतः क्षायिको भावः। उत्त० २५५१ ज्ञानदर्शनचारित्राध्यवसायस्य कर्मोदयात् त्रुट्यतःभावमुह- तिन्नि तिसहा पावा दुपसया। निशी. ९आ। पुनः सन्धानं-मीलनम्। आचा० १६५ ज्ञानावरणीयंभावयति-निव्वत्तेति। दशवै. ९४ अ। विशिष्ट-क्षायोपशमिकभावमुपगतमित्ययं भावयन्- तेनात्मानमात्मसान्नयन्। उत्त० ५९३। सम्यग्ज्ञानावाप्तिलक्षणः सन्धिः। आचा० १६५) भावर्जुकता- भावः-अभिप्रायस्तस्मिंस्तेन वा ऋजुकता। भावसम्म- भावसम्यक् दर्शनज्ञानचारित्रभेदात्। आचा. यदन्यविचिन्तयन् लोकपङ्कत्यादिनिमित्तं १७६| अन्यद्वाचा कायेन वा समाचरति तत्परिहाररूपा। | भावसाहू- भावसाधुः निर्वाणसाधकान् उत्त० ५९० योगान्सम्यग्दर्शना-दिप्रधानव्यापारान् यस्मात् भावलेश्या-तजन्यो जीवपरिणामः। स्था० ३२ साधयतीति साधुः, विहितानष्ठा-नपरत्वात्, समश्च भावलेस- भावलेश्या-आन्तरपरिणामः। भग. १७४। सर्वभूतेषु यः। आव०४४९। भावबल-पल्लवगाही। बृह. १२४ आ। भावसुप्तः- मिथ्यात्वाज्ञानमयमहानिद्राव्यामोहितः। भावविसोही- भावविशुद्धिः प्रत्याख्यानशुद्ध्याः षष्ठो आचा० १५२ भेदः। आव० ८४७ भावागार- अगैः-विपाककालेऽपि जीवविपाकितया शरीरभावशुद्धं- रागेण दोषेण वा परिणामेन इच्छादिना वा न पुद्गलादिषु दूषितं यत्तु तत्खलु प्रत्याख्यानं भावशुद्धम्। स्था० बहिःप्रवृत्तिरहितैरनन्तानुबन्ध्यादिभिर्निर्वृत्तं, ३४९ कषायमोहनीयमिति। उत्त. १९। भावश्रुत- शब्दमाकर्णयतः स्वयं वा वदतः भावाणुवाय- जहा सप्रभेदा णाणदंसणचरित्ताया स पुस्तकादिव्यस्तानि वा परिताव-महादुक्खादिगा एवमादि। निशी. १४९ अ। चक्षुरादिभिरक्षराण्युपलभमानस्य शेषेन्द्रियगृहीतं भावात्मकर्म- भावेन-परिणामविशेषण वाऽर्थं विकल्पयतोऽक्षरारूषितं विज्ञानमुपजायते तदिह | परकीयस्यात्मसम्बन्धित्वेन कर्म-करणम्। पिण्ड. भावश्रुतं श्रुतशब्देनोक्तम्। उत्त० ५५७। ४३ भावसंकोयणं- भावसङकोचन-विशद्धमनसो नियोगः।। भावापाय-भावादपायाः भावापायः, अपायभेदः। दशवै. आव० ३७९। विशुद्धस्य मनसोऽहंदादिगुणेषु निवेशः। जम्बू. २० भावाभियोगः-विदययामन्त्रेणाभिमन्त्र्य पिण्डं ददाति स। भावसंविग- भावसंविग्नाः-य संसारादुत्त्रस्तमानः। व्यव० | ओघ.१९३ ६आ। भावावस्सयभावसच्च-भावसत्यं-शद्धान्तरात्मनरूपं पारमार्थिकावित- | आवश्यकपदार्थज्ञस्तज्जनितसंवेगविशदध्यमान ३६ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [41] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] ३४७ परिणामस्तत्र चोपयुक्तः साध्वादिरागमतो | भावे- भावपुरिसः भावपुरुषः-शुद्धो जीवः तीर्थकरः आव. भावावश्यकम्। अनुयो. २८१ २७७। भावकालः सादिसपर्यवसानादिभेदभिन्नः। आव. भावासण्ण- अणहियासओ-ओघ०७७ २५७ भावेन्द्रियम्। जीवा. १६| भावासन्न- असहिष्णुः। ओघ. १५२। जं अणहियासओ | भावेन्द्रियाणि-क्षयोपशमोपयोगरूपाणि। प्रज्ञा० २३। अतिवेगेण आसपणे चेव वोसिरइ तं। ओघ १२३। संज्ञा- | भावेमाण-भावयन-वासयन्। सूर्य ५ ज्ञाता०९। दिवेगधारणासहिष्णुः। ओघ. २८५। भावासन्न-य भावोञ्छ- गृहस्थोद्धरितादि। दशवै. २५३। उच्चा-रादिना पीडितः स। ओघ० १०७ भावोवक्कम-भावोपक्रमः-परकीयाभिप्रायस्योपक्रमणं भाविअतर-भाविततरः-प्रसन्नतरः। दशवै० ३६४। यथावत्परिज्ञानम्। अनुयो०४९। भाविअप्पा- भावितात्मा। जं०४१। भावितात्मा भावोवाय-भावोपायः उपायभेदः। दशवै०४०। स्वागणव-र्णनापरः। दशवै. २५४। भावौघ-अष्टप्रकारं कर्म संसारो वा। आचा० १२४। भाविओ-भावितः। आव०१०१ भावौधः-आस्रवदवाराणि। आचा०४३१| भाविताभाविते-भावितं-वासितं द्रव्यान्तरसंसर्गतः अभा- | भाषाचपलः-असदस्रभ्यासमीक्ष्यादेशकालप्रलापि। उत्त. वितमन्यथैव यत्। स्था० ४८१। भाविय-भावितः-परिणतजिनवचनः। बृह. ३५आ। भाषानियतं- देशीभाषानियतम्। ब्रह. २०१ आ। भावियकुला- जाणि सड्ढकुलाणि अम्मापिति समाणाणि | भासंत-भास्यान्-विकसिततया मनोहरतया च वा अविप्परिणामगाणि अणुड्डाहकराणि ते देदीप्यमानः। जम्बू. १०४| जीवा० २६७ भावियकुला। निशी. १४९ आ। यानि श्राद्धकुलानि, भासंति-भाषन्ते-विशेषतः कथयन्ति। भग० ९८ भाषन्ते मातापितृसमा-नानि साधूनामपवादपदेऽप्राशुकादिकं । व्यक्तवाचा। स्था० १३६। भाषन्ते-सामान्यतः सदेवमगृहणतामनुड्डाहकारीणि तानि भावितकुलान्युच्यन्ते। नुजायां परिषदि अर्धमागधया बृह. १७१ आ। सर्वसत्त्वस्वभाषानुगामिन्या भाषया भाषन्ते। आचा० भावियप्पा-भावितात्मा-चतुर्दशो मुहूर्तनाम। सूर्य. १४६। १७९| भावितात्मा-भावितो-वासित आत्मा भास-भासः-सकुन्ताख्यः। बृह० १३१ अ। अष्टाशीतौ ज्ञानदर्शनचारित्रैस्त-पोविशेषैश्च येन स भावितात्मा। महाग्रहे एकोनत्रिंशत्तमः। स्था० ७९। भासः-सकुन्तः। प्रज्ञा० ३०३भावितात्मा-संयमतपोभ्यां भावितात्मा प्रश्न 1 भस्म। उत्त०५२६भस्म-अष्टाशीतौ महाग्रहे एवंविधानामनगाराणां हि प्रायो-ऽवधिज्ञानादिलब्धयो एकोनत्रिंशत्तमो महाग्रहः। जम्बू. ५३५। खलाः। निशी. भवन्ति। भग. १८६। भावितात्मा ३४४ आ। भस्मेव भस्मवत् कुर्यात्-विनाशयेत्। स्था० स्वसमयानुसारिप्रशमादिभिः भावितात्मा। भग० १९३। ५२११ भावितात्मा-ज्ञानादिभिर्वासितात्मा। भग०७४१। भासइ- भाषते विशेषवचनकथनतः। जम्बू०६४० भावुकः- आम्रवृक्षः। ओघ० २२३ भासए-भाषकः-भाषालब्धिमान। भग. २५६। भाषकःभावुग- भाव्यते-प्रतियोगिना स्वगुणैरात्मभावमापद्यत भाषालब्धिसम्पन्नः। प्रज्ञा० १३९। इति भाव्यम्-कवेल्लकादिकम्। आव० ५२१| भासग- भाषकः-परिस्थरमर्थमात्रमभिधत्ते। आव. ९६ प्रतियोगिनि सति तद्गुणापेक्षया तथाभवनशीलं भासजाया- भाषाजाता-आचाप्रकल्पस्य भावुकम्। आव० ५२११ द्वितीयश्रुतस्कन्धे चतुर्थमध्ययनम्। प्रश्न० १४५। भावुज्जुयया- भावो-मनः, ऋजकस्य-अमायिनो भावः भासज्जयणा-आचाराङ्ग त्रयोदशममध्ययनम्। सम० कर्म वा ऋजुकता। स्था० १९६| ४४१ भावपहाण-भावस्य उपधानं भावोपधानम्, तत्पूनर्ज्ञान- | भासज्जाया-आचारप्रकल्पस्य त्रयोदशमभेदः। आव. दर्शनचारित्राणि तपो वा। आचा० २९७ ६६० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [42] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] भासण याचने । व्यव० २०४अ । भासती पडिभणति । निशी० ८९अ भासमाण भासमानं स्निग्धत्वचा देदीप्यमानम् । जीवा० आगम - सागर - कोषः ( भाग : - ४) १८८८ भासरासि भासानां प्रकाशानां राशिः भासराशि:आदित्यः । सम० १४० | भासरासिवण्णाभ- भस्मराशिवर्णाभं शुक्लं राहुविमानम् । सूर्य० २८७ भासरासी भस्मराशि:- अष्टाशीतौ महागृहे त्रिंशत्तमः । जम्बू ० ५३५ | स्था० ७९ । भासवण्णा भस्मवर्णा भाषा वा पक्षिविशेषस्तद्वर्णाश्च । ज्ञाता० २३१| भासा भाषा आचाराङ्गस्य त्रयोदशममध्ययनम् । उत्तः ६१६। भाष्यते इति भाषा तद्योग्यतया परिणामितनि. सृज्यमानद्रव्य संहतिः । प्रज्ञा० २४६ | भाषा स्था० ३७३। भाष्यते सा तया वा भाषणं वा भाषा काययोगगृही. तवाग्योगनिसृष्टभाषाद्रव्यसंहतिः । स्था० १८४ अर्थमेकं भाषते तस्य भाषणं भाषा बृह. २४ इति भाषा तद्योग्यतया परिणामितनिसृष्टनिसृज्यमानद्रव्यसंहतिः । भग० १४२ भाषा प्रज्ञापनाया एकादशं पदम् प्रजा० ६ भाषा भाषणात्, व्यक्तिकरणमिति । आव० ८७ भगवत्त्यां त्रयोदशमशते सप्तम उद्देशकः । भग० ४९६ | भग० ५०० | भाष्यत इति भाषा वक्त्रात् शब्दतयो त्सृज्यमाना द्रव्यसंहतिः । आव ० १४ | आसाकुक्कुओ सविकारस्य हास्योत्पादकस्य वा वचसो वक्ता । बृह० २४७ अ भासाचञ्चलो भाषाचञ्चलः। बृह. १२४ अ भासाचरम- भाषाचरमः चरमभाषा । प्रज्ञा० २३४६ | भासाजड्डो - जड्डस्स पढमो भेओ । निशी० ३६ आ । भासाजाय- भाषाजातं-भाषाप्रकाररूपम्। प्रज्ञा० २६० | सापज्जति भाषापर्याप्तिः यया पुनः भाषाप्रायोग्याणि दलिकान्यादाय भाषात्वेन परिणमय्यालम्ब्य मुञ्चति । बृह० १८४ आ । भासापद- भाषापदं-प्रज्ञापनाया एकादशं पदम् । भग० १४२, ८५७ | भासारिया भाषार्याः । प्रज्ञा० ५६ | मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] भासाविजता भाषा सत्यादिका तस्या विचयो-निर्णयो भाषाविचयः, भाषाया वा वाचो विजय समृद्धिर्यस्मिन् स भाषाविजयः । स्था० ४९१। सासमि-भाषणं भाषा तद्विषया समितिः भाषासमितिः हितमितासन्दिग्धार्यभाषणम् । आव ६१६ | भासासमिती- कक्कसणिडुरकडुयफरुस-असम्बद्धबहुप्पलावदोसवज्जिता [43] हियमणवज्जमितासंदेहणभिदोहधम्मा सा भासासमिती निशी. १६ आ भासिओ भाषितः जनानामुक्तः प्रश्नः ११५ भासितःप्रतिभासितः । प्रश्न. ११५ भासित्तर- भाषितुं वक्तुम्। भग० ७०७। आसियव्वं भाषितव्यं हितमितमधुरादिविशेषणतः । ज्ञाता० ६२| भासुंडणा- भ्रंशना । बृह० १८० | भासुद्देसए- भाषोद्देषकः। प्रज्ञा० ५०२ आसुर भास्वरं दीप्तिशालि भग० १७५] ब्रह्मलोके देवविमानविशेषः । सम० १३ | आसुरवरबोंदिधरो भासुरवरशरीरधर आव• ३४८१ भासुरा भास्वरा-छायायुक्ता आव० १८५ भास्वन्त- महोरगभेदविशेषः । प्रज्ञा० ७०| भिगंग- भूताङ्गः वृक्षः । जम्बू. १०१। भृङ्गाङ्गः । आव ० भृताङ्गःवृक्षः। | ११० | भिगंगओ- भृङ्गाङ्गकः- द्रुमगणविशेषः । जीवा० २६६। भिंग भृतं भरणं- पूरणम्। जम्बू. १००) स्था. ११७ भृगो-जीलकीटः । जम्बू० ११३॥ भाजनदायिनः । सम० १८० भृङ्गः कीटविशेषः, अङ्गारविशेषो वा भग. १०) औप० ११। भृङ्गः कीटविशेषोऽङ्गारविशेषो वा औप० ११ | भिंगनिभा भङ्गनिभा पुष्करिणी नाम जम्बू. ३६० भिंगपत्त- भृङ्गपत्रं भृङ्गपक्षिणः पक्ष्म । प्रज्ञा० ३६० | भिंगा- भृतं भरणं पूरणं, तत्र अङ्गानि कारणानि भृताङ्गानि - भाजनानि प्राकृतत्वात् भिंगा स्था० ५१७ भृङ्गा- पुष्करिणीनाम। जम्बू. ३६० | भिंगार - भृङ्गारः । जीवा० २४४ | भृङ्गारः । जम्बू० ४१०| भृङ्गारः-विशिष्टवर्णकचित्रोपतः। जम्बू॰ ४०३| *आगम - सागर- कोष" (४) Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] ८४४। भृङ्गागरः-मत्तकरिमहाम्खाकृतिसमानं भृङ्गारम्। भिक्ख-भिक्षा। उत्त०५३०| भिक्षाणां समूहो भैक्षम्। जीवा० २५४। भृङ्गारम्। जीवा० २५४। भृङ्गारः स्था० ४५२ वादयविशेषः। आव० १२२ भृङ्गारः-कनकालुका। भिक्खकरो- ओदणं। निशी० ३२८ अ। जम्बू० २६२। भृङ्गारः-कनकालुषा। जम्बू० १०१। भिक्खा- भिक्षा-तुच्छमविज्ञातं वा। औप० ३९। आव० भृङ्गारः-जलभाजनविशेषः। जम्बू. १८३। कलशः। आव०६९। पक्षिविशेषः। ज्ञाता०६९। भिक्खाए- भिक्षामत्ति-अकति वा भिक्षादो भिक्षाकः उत्त. भिंगारए- भृङ्गारकः-कनकालकः। जम्बू०५६। २५१, २९४१ भिंगारओ-भृङ्गारकः। जीवा० २१३। भिक्खागकुल- भिक्षाककुलं-भिक्षणवृत्तिः। स्था० ४२०| भिंगारकलस-भृङ्गारकलशः। जीवा. २४८१ भिक्खागा- भिक्षाटाः-साधवः। आचा० ३५६। भिक्षणभिंगारग- भृङ्गारकः, पक्षिविशेषः। ज्ञाता०६७। शीला-भिक्षुकाः साधवः। आचा० ३३५। भिक्षणशीला, पक्षिविशेषः। भृङ्गारिका च, या रसति निशिभमौ भिक्षणधर्माणो भिक्षणे साधवो वा भिक्षाकाः। स्था० व्यङ्गुलशरीरेत्येवंल-क्षणा। प्रश्न० 1 १८६। भिक्षाकाः-गौरीपुत्राः। जम्बू० १४२। भिक्षामटन्तिभिंगिरिडी- भृगिरिटिः-चतुरिन्द्रियजीवभेदः। उत्त. भिक्षाटाः भिक्षणशीलाः साधवः। आचा० ३५५। ६९६। भिक्खाणिज्जोग्ग- पडलापत्तगबंधो। निशी. ३५७ अ। भिंडमओ- भिण्डमयः। आव० ३९७। भिक्खाणियं- आहारं। निशी० ३२७ अ। भिंडिमाल-भिण्डिमालः-प्रहरणविशेषः। जीवा० १०८ भिक्खातरित- भिक्षार्थं चर्या-चरणमटनं भिक्षाचर्याभिण्डिमालः। प्रश्न. २१। भिण्डिमालम्। औप०७१। वृत्तिसं-क्षेपरूपा। स्था० ३६४| भिन्दिपालाः-हस्तक्षेप्याः महाफला दीर्घा भिक्खाभायण-भिक्षाभाजनमिव भिक्षाभाजनं तदस्माकं आयुधविशेषाः। जम्बू. २०६। भिक्षोरिव निर्वाहकारणमित्यर्थः। ज्ञाता०१८७ भिडिमालग्गं- भिण्डिमालाग्रम्। जीवा. १०७ भिक्षाभाजनम्। आव० ३७३। भिडियालिंग- अग्नेराश्रयविशेषः। जीवा० १२३ भिक्खायर-भिक्षाचरः। आव. २२२१ भिंद-भेदनं-वैधीभावोत्पादनम्। दशवै. २२८। भिंद- भिक्खायरिय-भिक्षाचरिकः-वृत्तिसंक्षेपः। औप. ३७) कुन्ता-दिना भेद विधेहि। ज्ञाता० २३८५ भिक्खायरिया- भिक्षाचर्या। उत्त०६०६। भग० ९२११ भिंदति-भिन्दति व्यभिचरति। प्रश्न० ८६। भिक्षानिमित्तं विचरणम्। ज्ञाता०१८८ भिदिय-विदार्य। भग०६५४१ भिक्खायरियाभग्ग-भिक्षाचर्याभग्नः-भिक्षाटनेन भिंभि- ढक्का। स्था० ४६१। निर्विण्णः। आव० ५३७ भिभिसार-भिमि-ढक्का सा सारो यस्य य भिभिसारः।। भिक्ख:- भिक्षुः-मतविशेषः। आव०८५६। भिक्षुः-श्रमणः। स्था०४५८ भग० १२३। भिक्षु-मिक्षणशीलः भिनत्ति भिउडि- भुकृटिः-कोपविकृतभूरूपा। जम्बू० २०२। भृकुटिः- वाऽष्टप्रकारकर्मेति भिक्षुः। दशवै० ८४। भिक्षुकःदृष्टिरचनावशेषः ललाटे। उपा०२३। भृकुढिः -नयन मतविशेषः। आव०६२७। भिक्षुःललाट विकारविशेषः। प्रश्न०४९। कोपकृतो भूविकारः। आरम्भपरित्यागाद्धर्मकायपालनाय भिक्षणशीलो ज्ञाता० १३८१ भिक्षुः, एवं भिक्षुक्यपि। दशवै० १५२ भक्षुः-अष्टप्रकारं भिउडी- भकटिः- लोचनविकारविशेषः। विपा० ५३ कर्म नां ज्ञानदर्शन चारित्रतपोभि-भिनतीति भिक्षुः। भृकुटी-भृविकारः। ज्ञाता० १४२। आव० ५१४। भ्रक्टी- व्यव० ३९ आ। भिक्खणसीलो। दशवै. ३३ आ। आवेशवशकृतभृत्क्षेपरूपा। उत्त. १५३ | भिक्खुउत्तमा- भिक्षुत्तम! हे यतिप्रधान ! उत्त० ५३०| भिऊ- भृगः-लोकप्रसिद्धऋषिविशेषः। औप. ९२ भिक्खुउवासगपुत्त- बौद्धोपासकपुत्रः। आव० ८१२। भिक्खंतगो-भिक्षमाणः। आव० ४२११ | भिक्खुओ- भिक्षुकः-सौगतः। बृह० ९०आ। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [44] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] भिक्खुणी- संजतीए तईयो भेओ। निशी० १३२ आ। पुरोहितः। उत्त० ३९५। भृगुः-प्रपातस्थानम्। जीवा. भिक्षुणी-साध्वी। आचा० ३२१, ३५८१ ૨૮રા भिक्खुपडिमा- भिक्षुप्रतिमा-भिक्षूचितोऽभिग्रहविशेषः। | भिगुच्च-भृगुः-लोकप्रसिद्ध ऋषिविशेषस्तस्यैते शिष्या भग० १२४१ अभिग्रहविशेषः। ज्ञाता०७३। भिक्षुप्रतिमा- | इति भार्गवः। औप. ९१| साध्व-भिग्रहविशेषः। स्था० ३८७ भिक्षुप्रतिमासाधु | भिगुण-दितडी। निशी. ५२ अ। प्रतिज्ञावि-शेषः। भग०४९८ भिग्गप्पभा- भृङ्गप्रभा-पुष्करिणीनाम। जम्बू. ३३५) भिक्खुभाव- ज्ञानदर्शनचारित्राणि तृतीयव्रतादिकं वा। बृह. | भिङ्गए- भृङ्गः-पक्षिविशेषः पक्ष्मलः। प्रज्ञा० ३६० ५१ आ। भिक्षुभावः-चारित्रम्। व्यव० १९० | | भिच्च-भृत्यः-पदातिः। उत्त०४०५ प्रश्न. ४७ भिक्खू-भिक्षुः-भिक्षणं शीलं-धर्मः तत्साधकारिता वा भिच्छुड- भिक्षाण्डः-भिक्षाभोजी। ज्ञाता० १९५१ यस्य स, भिनत्ति वा क्षुधमिति भिक्षुः। स्था० १४७ | भिच्छुप्पियं- भिक्षुप्रियं पलाण्डु। बृह० २१२ । भिक्षण-शीलः भिक्षुः भिज्ज-भेदः तोमरादिना शारीरादिविषयो भेदः। भग. पचनपाचनादिसावयानुष्ठानरहिततया निर्दो १९। अभिव्याप्ता, विषयाणां ध्यानं षाहारभोजी। सूत्र० २७३। 'भिदुरु विदारणे, क्षुध इति तदेकाग्रत्वमभिध्यापिधाना-दिवदकारलोपाद्भिध्या। कर्मणः आख्या, तं भिनत्तीति भिक्षः, भिक्षणशीलो भग०५७३। वा, भिक्षभोगी वा। निशी० ८४ अ। 'भिदिर्विदारणे क्षुध | भिज्जति- भिद्यते प्राक्तनसम्बन्धविशेषत्यागात्। भग० इति कर्मण आख्यानं, ज्ञानावरणादिकर्म भिनत्तीति | २१४। भिद्यते-भेदवान् भवति। भग० २४१ भिक्षुः। निशी. १०३आ। भिक्षुः- भिक्षणशीलः, भिनत्ति | भिज्जा- लोभः। बृह. २४६ अ। लोभः। स्था० २७५, ३७४। वाऽष्टप्रकारं कर्मेति दान्तादिगुणोपेतः भिक्षुः- साधुः। | गृद्धिः। स्था० २७५। अभिध्यानम्। सम०७१। सूत्र० २६३। भिक्षुः-निरवद्याहारतया भिक्षणशीलो भिज्जेज्ज- भिद्यत-अनेकधा विदार्येत। अन्यो० १६११ भिक्षुः। सूत्र. २९८। भिक्षत इत्येवंधर्मा तत्साधकारी भिज्झा-भिध्या-लोभः। भग० २५३। प्रश्न०८1 चेति भिक्षुः, पर-दत्तोपजीवी व्रती। उत्त० २४९। भिणासि-भेनाशितः पक्षिविशेषः। प्रश्न०८ भिनत्ति-यथाप्रति-ज्ञातेनानुष्ठानेन क्षुधमष्टविध वा | भिणिभिणंत- गुञ्जन्। तन्दु। कर्मेति भिक्षुः। उत्त० ३५७। बुद्धदर्शनाश्रितः। अनुयो० भिण्डमाल-शस्त्रजातिविशेषः। जीवा. १२० १४६| भिण्ण-अदसागं। निशी. १४० अ। सदसं सगलं ण भिक्खोंड- ये भिक्षामेव भुञ्जते न तु भवति। निशी. ४९। स्वपरिगृहीतगोदुग्धादिकं ते भिक्षोण्डाः, भिण्णपिंड- भिन्नपिंडं-घृतादिना मिश्रितम्। व्यव० ११| सुगतशासनस्था इत्यन्ये। अनुयो० २५। भिण्णरहस्स- रहस्सं णं धारयति। निशी. १०२ आ। जो भिक्षा-दत्तिरभिप्रेता। सम०८८1 अववादपदं अण्णेसिं कप्पियाणं साहति। निशी० १४९ भिक्षुकाः- शौद्धोदनीयादि। व्यव० १६५अ। भिक्षुकी- साध्वी। पिण्ड०४। भिण्णागार-देसे पडियसडियं। निशी. २६५अ। भिक्षूपचरक- श्रावकविशेषः, यस्य मिथ्यादर्शनशल्ये भितग-भृतकः-कर्मकरः। अन्यो० १५४| दृष्टान्तः। आव० ४७९। भिति- भतिः-पदात्यादीनां वत्तिः। अनयो० १५४१ भिगंगा- भृतं-भरणं पूरणमित्यर्थः, तत्राङ्गानि-कारणानि, | भित्तं- अद्ध। निशी० १२४ आ। न हि भरणक्रिया भरणीयं भाजनं वा विना भवतीति भित्ति- णदि तडी तो जाव वद्दलिया सा भित्ती। दशवै. तत्सम्पा-दकत्वात् वृक्षा अपि भृताङ्गाः। जम्बू० १०१। ११९ आ। पक्वेष्टकादिरचिता। उत्त० ४२५अनुयो. मगणविशेषः। जम्ब० १०० १५४ प्रकारवरण्डिकादि भित्तिं पर्वतखण्डं। भग०६४३। भिगु-भृगुः- राजिः। ओघ० १३७। भृगुः-इषुकारनृपति- | भित्तिः-नदीतटी। दशवै० १५२। भित्तिः - तटी। दशवै. । मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [45] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] રર૮ી. भिन्नवास- भिन्नवर्ष-बुदबुदादि। आव० ७३२॥ भित्तिगुलिया- भित्तिगुलिकाः-पीठकसंस्थानीयाः। | भिन्ना- विदारितास्तदभिघातेन लवमात्रीकृता इति। उत० जीवा० २०४। पीठकसंस्थानीयाः। जम्बू०४९। ५०७ भित्तिगुलिकाः-भित्तिसरत्का पीठिका। जीवा० ३५९। भिब्भिसमच्छ- मत्स्यविशेषः। जीवा० ३६। भित्तिगुलिका-पीठ-कस्थानीया। राज०६२। भिब्भिसमाण- अतिशयेन दीप्यमानम्। जीवा० ३५६। भित्तिमूल- कुड्यैकदेशादि। दशवै०१७८1 आचा० ४२३। अत्यर्थं देदीप्यमानम्। जम्बू. २९२। भित्ती-तडी-नदी। दशवै०६८ अ। भियग-भृतकः-य आबालत्वात्पोषितः। ज्ञाता० ८९। भिन्देज्जा- भिन्दयात् काणताकरणेन। उपा०४२ भृतकः-नियतकालमधिकृत्य वेतनेन कर्मकरणाय भिन्न-णूमं। निशी० ७०आ। प्रकाशितम्। बृह. २६५आ। | धृतः। जीवा० २८० छिद्रं राजीयुक्तं वा। बृह. २४४ आ। भिन्नो नाम | भिलिंगसूप- सस्नेहसूपः। व्यव० १३५आ। तत्कालमरणिनिर्मथनेनोत्पादिनोऽग्निः। व्यव० १०१ | भिलिंजए-अभ्यङ्गाय ढौकयस्व। सूत्र. ११७ आ। भिन्नः खण्डीकृतः। उत्त० ४६१। भिन्न-राजियुक्तं | भिलुगा- स्फुटितकृष्णभूराजिः। आचा० ३३८। राइ। दशवैः सछिद्रं वा। ओघ. २११| भिन्नं-गलत्। ओघ. १६५ १०१ आ। तथाविधभूमिराजिविशेषः। दशवै. २०५१ भेदः-कर्मणः शुभाशुभस्य वा भिलुगाणि- लक्ष्णभूमिराजयः। आचा० ४११। तीव्ररसस्यापवर्तनाकरणेन मन्दताकरणम्। मन्दस्य | भिल्लाए- भल्लातकः यस्य भल्लातकाभिधानानि चोद्वर्तनाकरणेन तीव्रताकरणम्। भग०१६। भिन्नः- फलानि लोकप्रसिद्धानि। प्रज्ञा० ३११ काष्ठायुपहतशब्दवत्। स्था० ४७१। भिन्नः-खण्डः, भिसंत-भासमानम्। जम्बू. ५२८ दीप्यमानः। ज्ञाता० अंशसहितः। सूर्य. १५६। भिन्नः-व्यदग्राहितः। व्यव. ५८ ओप०५३। भासमानः स्निग्धत्वचा दीप्यमानः। २०० जम्बू. २९। दीप्यमानो विमलः। जम्बू. २६३। भिन्नकहा- भिन्नकथा-रहस्यालापः, मैथुनसम्बद्धं वचो । | भिस- जलरुहविशेषः। प्रज्ञा० ३३। खाद्यविशेषः। जम्बू. वा।। सूत्र० १०७। मैथुनसम्बद्धा राभसिलाकथा। ओघ. ११८। बिसं-पद्मिनीकन्दः। जम्बू० ३५पद्मकन्दमूलम् ५५ आचा० ३४८ पद्मिनीमूलम्। ज्ञाता०९८ बिसं-पद्मिभिन्नकुष्ठी- गलत्कुष्ठः। ओघ. १६५ नीकन्दः राज० ३३। कन्दः। राज०१८, ७८। बिशंभिन्नदाढ-भिन्नदंष्ट्राकः। पिण्ड०६९। कन्दः । जम्बू०४२, २९१। भिन्नद्रव्यसम्यक्-दधिभाजनादि भिन्न सत् काकादि | भिसकंदए- भिसकन्दः। प्रज्ञा० ३६४। समाधा-नोत्पत्तेर्भिन्नद्रव्यसम्यक। आचा. १७६। भिसग- गणविशेषः। ज्ञाता० १५४। निशी० ६२आ। भिन्नपिंडवाइय-भिन्नस्यैव-स्फोटितस्यैव पिण्डस्य- भिसमाणा- दीप्यमाना। भग०४७८1 आचा०४२३। दीप्यऔद-नादिपिण्डस्य पातः-पात्रक्षेपो यस्य मानम्। जीवा. १९९, ३५९। ग्राह्यतयाऽस्ति स भिन्नपिण्डपातिकः। प्रश्न. १०६) भिसमुणाल- पद्मकन्दोपरिवर्तिनी लता। आचा. ३४८१ भिन्नापिंडपातित-भिन्नस्यैव-स्फोटितस्यैव पिण्डस्य जलरुहविशेषः। प्रज्ञा० ३३ सक्तकादिसम्बन्धिनः पातो-लाभो यस्यास्ति स भिसिणी-बिसिनी-पद्मिनी। आव० १२८। भिन्नपि-ण्डपातिकः। स्था० २९८।। भिसिमा;- कट्ठमयं| निशी० ६२ आ। भिन्नपुण्णचाउद्दस-भिन्ना-परतिथिसङ्गमेन भेदं प्राप्ता | भिसिय-भृशिका आसनविशेषः। भग० ११३, ११६| या पुण्यचतुर्दशी तस्यां जातः। जम्बू० २०२। भिसिया- वृषिका काष्ठमयं वा। बृह. २११ अ। वृषिकाभिन्नमुहुत्त- खण्डो मुहूर्तो, अन्तर्मुहूर्तम्। जीवा० १०| उपवेसनपट्टडिका। औप. ९५। उवेसणयं। दशवै० १११ भिन्नरहस्सा- भिन्नरहस्याः अ। आसनविशेषः। ज्ञाता०४४। भग. १४८ आसनम्। विश्वस्तजनकथितरहस्यभेदिनः। उत्त. १४९। ज्ञाता०१४ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [46] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] भिसिरा- मत्स्यबन्धविशेषः। विपा०८११ भुंभलय-शेखरः। उपा०२२ भीअपरिकहण-भीतानां परिकथनं भीतपरिकथनम्। भुअपरिसप्पा- भुजाः-शरीरावयवविशेषास्तैः आव०१३ परिसर्पन्तीति भुजपरिसर्पाः। उत्त० ६९९। भीइपरिकहण-भीत्या परिकथनं भीतिपरिकथनम्। आव० भुअमोअग- भुजमोचकः-रत्नविशेषः। जम्बू० ११३। १३२ भुकुंडेति- उद्धृलयति। भग० ४७७। भीए- भीतः-उत्पन्नसाध्वसः। उत्त०४६१। भुकुडति- भूकुडति-उर्दूलयति। जम्बू० २७५। भीओ-भीतः-त्रस्तः। उत्त०१०९। भुक्खे- बुभुक्षाक्रान्ता। ज्ञाता० ३३।। भीम-विकरालः। स्था० ४६१। कर्मशत्रवपेक्षया रोद्रम्। | भुक्खियतिसिया- बुभुक्षिततृषिता। आव० २३७। दशवै० १९२। भीष्मः। ज्ञाता०८९। विकरालः भुग्ग- भुग्नः-वक्रः। उपा० २२ भग्नः। ज्ञाता० १३७। भयानकम्। आव०६३४। भीमः-राक्षसेन्द्रः। जीवा. १७४। भुग्गभग्गे- अतीव वक्रे भ्रवौ यस्य तत्। ज्ञाता० १३७। भीमः-भयानकः। भीमत्वादेव उत्त्रासनकः। जीवा० भुजग- महोरगभेदविशेषः। प्रज्ञा० ७० १०६। प्रतिवासुदेवनाम। सम० १५४। भीमः भुजगनिर्मोक- भुजककञ्चुकी। उत्त० ३८१। दक्षिणनिकाये चतुर्थो व्यन्तरेन्द्रः। भग० १५८१ भुजपरिसर्प- परिसर्पभेदः। सम० १३५ राक्षसेन्द्रः। ठाण ८५। भीमः-हस्तिनारे कूटग्राही। भुजा- भुजः-हस्तानः। प्रज्ञा० ९१। विपा० ४८। कुन्ताग्रभिक्षाभिग्रहः पाण्डवः। मरण भुजौ- प्राक्पादयोर्जानूपरिभागः। जम्बू० २३७ भीमसेणः- भरतक्षेत्रेऽतीतायामुत्सर्पिण्यां षष्ठः कुलकरः। | भुज्जई-भुज्यते-भक्तसूपादि। उत्त० ३६० स्था० ५१८ सम० १५०| पाण्ड्नृपस्य पुत्रः। ज्ञाता० भुज्जा- भोजिताः। उत्त० ४०० २०८० भुज्जियं- भृष्टम्। आव० ८५५। अञ्यर्द्धपक्वं गोधूमादेः भीमा- वसन्तपुरप्रत्यासन्ना पल्ली। पिण्ड० ४८। भीमाः- | शीर्षकमन्यद्वा तिलगोधूमादि। आचा० ३२३ राक्षसविशेषाः। प्रज्ञा० ७० भुज्जो- भूयः-प्राचुर्ये। उत्त० २५२। भूयः-अतिशयेन भीय- भीतं-उत्त्रस्तम्। गीतविशेषः यदत्तस्तेन गीयते। बहुबहून् वारानित्यर्थः। उत्त० २७७। भूयोभूयः जीवा. १९४। भीतं-उत्त्रस्तमानसम्। अनुयो० १३२ पुनःपुनः। भग० २२॥ भीया- भीतं-जातभयाः। भग० १६६। त्रस्तमानसम्। स्था० | भुत्त- यत् भुक्तं सत्पीडयति तद् भुक्तभित्युच्यते। स्था० ३९६। त्रस्ताः। उदविग्नाः। ज्ञाता०९७। भीताः। विपा० ४३ भुत्तभोगा- इत्थिभोगा भुंजिउं पव्वइयाति ते भुत्तभोगा। भीरु- भीरू:-अकृतकरणः सूत्र० ८९। निशी. १०७ आ। भीरुदंदुउ- भारवाहकः। निशी. १४९ आ। भुत्तुअं- परिभोक्तुम्। दशवै १७८१ भील- गुच्छाविशेषः। प्रज्ञा० ३२॥ भुत्तुणभुत्ते- भुक्तानुभुक्तः-व्यादीन् वारान् भुक्तवतः। भीष्मः- कुण्डिनीनगर्यधिपतिः। प्रश्न० ८८१ बृह. २६४ आ। भुंजति- भृज्जति। आव० ६५११ भुत्तुय-अनार्यविशेषः। भग० १७० भुंजमाण- भुञ्जन्-पालनां कुर्वन्। दशवै० १७१। भुञानः- | भयंगवती-अतिकायेन्द्रस्य दवितीयाऽग्रमहिषी। भग. अनुभवन्। जम्बू० २२२॥ भुंजसु-भुक्ष्व-समुद्दिश। बृह० गा०६०७१। भयंगा-अतिकायेन्द्रस्य प्रथमाऽग्रमहिषी। भग० ५०५। भंजियव्व-भोक्तव्यं वेदनादिकरणतो। कीटिकाभक्षितौ द्वितीयो बलयक्षः। मरण | अङ्गारादिदोषरहितः। ज्ञाता०६१| भुयग- भुजङ्गः, भोगी। औप० ५। ज्ञाता० ४। भोजकः। भुंजीआ-भुक्तवन्तः। आव० १३० ज्ञाता०४१ भुंदणघडियं-वर्धकिः। निशी० २४४ आ। | भुयगवती- पञ्चमवर्गस्य षड्विंशतितममध्ययनम्। | २७५ ५०५ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [47] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] ज्ञाता० २५२। स्था० २०४। ૩૬૮ भुयगवर-भुजगवरः-अपान्तराले द्वीपः। जीवा. २६८१ | भूइल-भूतिलः-इन्द्रजालिकविशेषः। आव. २१९। भुयगा- भुजैर्गच्छन्तीति भुजगाः-गोधादयः। स्था० ४७० भूई-भूतिः-वृद्धिः-मङ्गलं, रक्षा च भूतानि असुभृतः। अतिकायमहोरगेन्द्रस्य प्रथमाऽग्रमहिषी। स्था० २०४। आचा० ११९| भूए-चतुर्दशभूतग्रामाः। आचा० १५९। भुजगा नागकुमाराः। प्रश्न०६९। पञ्चमवर्गस्य भूतशब्दः औपम्यवाची। राज०९। भूतः पञ्चविंशतित-ममध्ययनम्। ज्ञाता०२५२। अवस्थावचनोऽयं शब्दः। आचा० ५९। भूतः-सद्भूतः। भुयगीसर- भुजगेश्वरः-नागराज्ञः। जीवा० २७२। भग० २४९। जातः। उत्त० ३०७, ४५९। उपमार्थः। भग. भयपरिसप्प- भुजाभ्यां परिसर्पन्तीति भुजपरिसर्पाः। ७३९। ज्ञाता० १२ भूतः-द्वीपविशेषः सम्द्रविशेषश्च। प्रज्ञा० ४५। भुजाभ्यां परिसर्पतीति भुजपरिसर्पः। जीवा० ३७० नकुलादिकः। जीवा० ३८१ भूओवघाइए- भूतानि-एकेन्द्रियास्ताननर्थत उपहन्तीति भुयमोयग- भुजमोचकः-मणिभेदः। उत्त० ६८९। सत्त्वोपघातिकः। सप्तममसमाधिस्थानम्। सम० ३७| भुजमोचकः पृथिवीभेदः, रत्नविशेषः। आचा. २९| आचा०४२५ भुजमोचकः-रत्न-विशेषः। भग० १०| भुजमोचकः भूओवघाई- भूतोपघाती-जीवोपघातकः। सप्तममसमाधिप्रज्ञा० २७ भुजमोचकः रत्नविशेषः। जीवा० २३| स्थानम्। आव०६५३ भुजमोचकः रत्नविशेषः। प्रश्न० ८२। भूज्जपत्त-भूर्जपत्रम्। आव० ३९९। भुल्ल- भ्रान्तः-भ्रमयुक्तः। दशवै० ५९। भूणक-देशीपदम् बालकः पुत्रादिः। व्यव० २०८ आ। भुविंसु-अभवत्। भग० ११९। भूणिया- बालिका। बृह. ९८ । भुसे- बुसम्। भग० ११३। भूत-जीवः, सत्त्वः , विज्ञो, वेदयिता च। भग० ११२ भूअत्थ- भूतः सद्भूतोऽवितथ इति यावत् तथाविधोऽर्थो- उपमार्थः। उत्त० ३०७। उपमावाची। आव० ४४८। गुणैः विषयो यस्य तद्भूतार्थं ज्ञानम्। उत्त० ५६४। प्राप्तः। जीवा० १८७ उपमाने तादर्थ्य वा। सूत्र०४१२ भूअरूव-भूतरूपं- अबद्धास्थि कोमलफलरूपम्। दशवै. उपमानाः प्रकृतिः। स्था० ३०५। २१९ भूतगुहा- भूतगृहः यत्र व्यन्तरगृहम्। आव० ३०९। भूई- भूयः पुनः। भग. २९० भूततण- भूततृणं-अज्जगो। निशी. ६० । भूइकम्म-भूतिकर्म-ज्वरितानामुपद्रवरक्षार्थं भूतिदानं | भूतत्थ- संजमसाहिका किरिया। निशी. २९ आ। तत् औप. १०६। भूतिकर्म-ज्वरितादिभूतिदानम्। भग० | भूतनिह्नव- नास्त्येवात्मेत्यादि। आव० ५८८५ ५१। भूत्या भस्मरूपया विद्याभिमन्त्रितया मृदा नास्त्यात्मा। स्था० २६। असत्यविशेषः। उत्त० ५६। चाद्रपांशुलक्षणया सूत्रेण वा तंतुना यत्परिरया वेष्टनं । | भूतपुव्व- भूतपूर्वः। आव० ५३२ तद् भूतिकर्मोच्यते। बृह. २१५ । भूत्या भूतरूप- भूतं रूपमनबद्धास्थी, कोमलफलरूपं। आचा. भस्मनोपलक्षणत्वान्मृदा सूत्रेण वा कर्मरक्षार्थं ३९१। वसत्यादेः परावेष्टनम्। उत्त०७१० मन्त्रा भूतवेज्जा- भूतादीनां निग्रहार्थं विद्या तन्वं भूतविद्या। भिसंस्कृतभूतिदानम्। ज्ञाता० १८८५ स्था० ४२७ भूइपण्ण- भूतिप्रज्ञः-प्रवृद्धप्रज्ञः अनन्तज्ञानवान्। सूत्र भूतशब्द- प्रकृत्यर्थः। स्था० २९३। १४५ भूताः- तरवो। स्था० १३६। सद्भूताः पदार्थाः। स्था० ४९१। भइपन्ना-भूतिप्रज्ञः-भूतिः मङ्गलं सर्वमङ्गलोत्तमत्वेन | स्था० २३१। मुक्तिगमनयोग्येन भव्यत्वेन भूतानां वृद्धिर्वा बृद्धिविशिष्टत्वेन रक्षा वा प्राणिरक्षकत्वेन प्रज्ञा- व्यवस्थिताः। आचा० २५६। केली किलव्यन्तरविशेषाः। बुद्धिरस्येति भूमिप्रज्ञः। उत्त० ३६८। भूतिर्मङ्गलं वृद्धि | उत्त. ५०१ रक्षा चेति, प्रज्ञा-यतेऽनया वस्तुतत्त्वमिति प्रज्ञा। उत्त० | भूतार्थत्व- सद्भूता अमी अर्था इत्येवंरूपेणाभिगता मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [48] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम- सागर- कोषः ( भाग : - ४ ) [Type text] अधिगता वा परिच्छिन्ना तम् । उत्त० ५६४ भूतिः - छारः । ओघ० १४३, ९२ भूतिकम्म ज्वरादिरक्षानिमितं भूतिदानं भूतिकर्म्म | स्था० ४५२ । यः तद्धारितादीनामभिमंत्रितेन क्षारेण रक्षाकरणं जरणं ज्वरादि भूतिदाणं ज्वरादि भूतिदाणं भूतीकम्मम् । व्यव० १६२अ । भूतिकर्म्मणम् - ज्वरितादीनां भूत्यादिभी रक्षादिकरणेन । स्था० २७५१ भूतिवादिकाः- गन्धर्वभेदविशेषः। प्रज्ञा० ७०| भूत- भूतिरिति यत्प्रमाणमंगुष्ठप्रदेशनीसंदंसकेन भस्म गृहयते पानकबिंदुमात्रमपि । निशी० ४५५अ । अंगुलीए भूयगामी- भूतं कामयितुं शीलमस्य भूतकामी। आचा० जत्तिया भूमि लग्गति । निशी० ५१ अ । १६४| भूतीमोल्ल- भृतिमूल्यम् । आव० ८६१ । भूतोत्तमाः- भूतभेदविशेषः । प्रज्ञा० ७०। भूतोपघातित्व- सप्तममसमाधिस्थानम् । प्रश्न० १४४ भूत्या- भस्मनोपलक्षणत्वान्मृदा सूत्रेण वा । उत्त० ७१०| भूमयः- महाव्रतारोपणकाललक्षणाः अवस्थापद्रव्यः । स्था० १३०| भूमिं कंडुयावे - भूमिकण्डूयतेअङ्गुलीप्रवेशितसूचीकैर्हस्तैः-भूमि कण्डूयते महादुःखमुत्पद्यते इति कृत्वा भूमिकण्डूयनं कारयतीति । विपा० ७२ भूमिकाः । स्था० ४३१| भूमिगृह खातं गृहम् । आव० ८२६ । भूमिघर भूमिगृहम् । प्रश्न०८ भूमिचवेडा- भूमिचपेटा। जीवा० २४७ | भूमिनिज्जा- भूमिनिषद्या- भूम्यासनम् । प्रश्र्न० १३७ भूमिभागः-अधोभागः । जम्बू० ३२१ | भूमानां भूमिभागाः । राज०७२ भूमी - भूमिः कालः, कालस्य चाधारत्वेन कारणत्वाद् भूमित्वेन व्यपदेशः । जम्बू० १५५ | भूमिः - क्षेत्रम्, सेतु तु सुतुकेत्विति भेदत्रयभिन्नम् । दशवै० १९३ | भू-भूमी सविसमाए परिकम्मणं । निशी० २३० आ। भूमीपरिकम्मं - सीतकालं । निशी० २३२आ। भूय- भूतः- द्वीपसमुद्रविशेषः । जीवा० ३२१। भूतं-एकेन्द्रियम्। दशवै० १५६। भूतानि - मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] प्रत्येकसाधारणसूक्ष्मबादर-पर्याप्तकापर्याप्तकतरवः । आचा॰ ७१। जीवाः। आव० ६५०। भूतं-अप्कायादि। दशवै० २०४ | भूतं पृथिव्यादि । दशवै० १५७ । भूतः - प्रेतः । प्रश्न॰ १२१। तरुः। उत्त० ३७०। भूतं पृथिव्यादिः । आव ० ७३०। भूतं सद्भूतवस्तु। प्रश्र्न० ३१ । भूतं - एकेन्द्रियादि । आव० ६५४। भूतशब्दः भायणतुल्यवाची । निशी० ५८ आ। भूतं-संवृत्तम्। आचा० १२३ | भूयगाम- भूताः प्राणिनस्तेषां ग्रामः समूहो भूतग्रामः । उत्त॰ २४५| भूतग्रामः-जीवसमूहः । आव० ६५० प्रश्न० १४३| [49] भूयगाह- भूतग्रहः-उन्मत्तताहेतुः । भग० १९८। भूगुह- भूतगृहं- अन्तरञ्जिकापुर्यां चैत्यम् । आव० ३१८ | भूतगुहं - अन्तरञ्जिकानगर्यां चैत्यविशेषः । उत्त० १६८ | भूयग्गह- भूतग्रहः-रोगविशेषः । जीवा० २८४ | भूयघाय- भूतोपघातं-सत्त्वोपघातं छिन्द्धि भिन्द्धि व्यापादय इत्यादि प्रतिपादनम् । आव० ५८८ । भूयण- हस्तिविशेषः । प्रज्ञा० ३३| भूयतलाग- भृगुकच्छे उज्जयिनी व्यन्तरकृतं द्वादशयोजनमानं भरूयच्छस्स उत्तरे पासे तलागं । बृह० २६७ अ । भूयत्थ- भृतार्थं यथावस्थितम्। व्यव॰ २८४अ। भूयदत्ता- अन्तकृद्दशानां षष्ठस्य वर्गस्य त्रयोदशममध्ययनम्। अन्त० २५| भूयदिण्णा- भूतदत्ता कल्पकवंशप्रसूतशकटालस्य तुर्या पुत्री। आव० ६९३ । भूयदित्ता भूतदीप्ता - अन्तकृद्दशानां सप्तमवर्गस्य त्रयोदशमम-ध्ययनम् । अन्त० २५ | भूयभ- भूतभद्रः भूते द्वीपे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३७० | भूयभावणा- भूतभावना भूतं सत्यं भाव्यतेऽनयेति, भूतस्य वा भावना अनेकान्तपरिच्छेदात्मिका, भूतानां - सत्त्वानां भावना वासनेति वा । आव० ५९५| भूयमह - भूतमहः- भूतस्य व्यन्तरविशेषस्य प्रतिनियतदि-वसभावी उत्सवः । जीवा० २८१| आचाο ३२८ “आगम-सागर-कोषः " [४] Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text]] भूयमहाभद्द- भूतमहाभद्रः-भूते द्विपेऽपरार्धाधिपतिर्देवः। | भृगु- शुक्लाराजिः । बृह. ७५आ। पर्वतकटकम्। प्रश्न. जीवा० ३७० ५९| भूयमहावर- भूतमहावरः-भूते समुद्रेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः। | भृगुकच्छ- पत्तनविशेषः। प्रज्ञा० ४८१ उत्त० ६०५ जीवा० ३७० भुङ्कारक-भाजनविधिविशेषः। जीवा० २६६। भूयवर- भूतवरः-भूते समुद्रे पूर्वार्धाधिपतिर्देवः। जीवा० भृत- प्लुतम्। ज्ञाता०७२। ३७० भृतकाः- मूल्यतः कर्मकराः। स्था० ११४१ भूयवाइय-भूतवादिकः-वाणमन्तरविशेषः। प्रज्ञा० ९५। भृति- मूल्यम्। व्यव० २८० भूयवात- भूताः-सद्भूताः पदार्थास्तेषां वादो भूतवादः। भृत्याः- प्रेष्यः। आचा०९१ स्था०४९१| भेंडमओ- भिण्डमयः-मृन्मयः। आव० ३५० भूयवादिय- भूतवादिकः-व्यन्तरनिकायानामपरिवर्तिनो | भेंडहत्थी-भिण्ड(मन्म)यहस्ती। दशवै. ९९। व्यन्तरजातिविशेषः। प्रश्न०६९। भेंडिया- भिण्डिका-त्राडीः (राडीः)। बृह०७१| निशी. ११२ भूयविज्ज-भूतानां निग्रहार्था विदया-शास्त्रं भूतविद्या। । आयुर्वेदस्य षष्ठाङ्गम्। विपा० ७५१ भे- युष्मभ्यम्। आचा० ३३९ भट्टारकम्। पिण्ड०७३। भूयसिरी- चम्पानगर्यां सोमदत्तस्य भार्यां। ज्ञाता० १९६। युष्माभिर्युष्मत्तीर्थकरेण वा। आचा० १८६। भवताम्। भूया- भूता-दक्षिणपश्चिमरतिकरपर्वतस्य पूर्वस्यां उत्त० ८३। जम्बू. २४०। ज्ञाता० १३६। आव० १९० शक्रदेवे-न्द्रस्यामलनामिकाया अग्रमहिष्या ज्ञाता० ३७। भवतु। ज्ञाता० १३६। भवतीनाम्। ज्ञाता० अग्रमहिष्या राजधानी। जीवा० ३६५। राजगृहे १८८। भवता। व्यव० ६८ अ। युष्मान्। बृह. २२१ अ। सुदर्शनगृहपतेः पुत्री। निर० ३७। भूताः-तरवः। जम्बू० | भेआययणवज्जि-भेदायतनवर्जी भेदः-चारित्रभेदः तदा ५३९। ज्ञाता०६२। भूता-कल्प-कवंशप्रसूतशकटालस्य | यतनं-तत्स्थानं तद्वर्जी, चारित्रातिचारभीरुः दशवै. तृतीया पुत्री। आव० ६९३। भूताः-तरवः। प्रज्ञा० १०७) व्यन्तरभेदविशेषः। प्रज्ञा०६९) भेउर-भेदनशीलाः-भिद्राः-शब्दादयः कामगुणाः। आचा० भूयाई-भूतानि-स्थावराः। प्रश्न. १५७। २९५। स्वयमेव भिद्यत इति, भिदुरं-भिदुरत्वम्। स्था० भूयाणंद-भूतानन्दः-उत्तरनिकाये दवितीय इन्द्रः। भग० ६४। स्वयमेव भियत इति भिदुरं-प्रतिक्षणविशरारु। १५७ स्था० ८४। जीवा० १७०| ज्ञाता०२५२। भूता आचा० २८६। नन्दाभिधानः कूणिकराजस्य प्रधानहस्ती। भग० ७२०| | भेउरधम्म- भिदुरधर्मः-स्वत एव भिद्यत इति भिदुरं, स भूतानन्दः-नागकुमाराणामधिपतिः। प्रज्ञा० ९४। भूता- | एव धर्मः-स्वभावो यस्य स भिदुधर्मः। आचा० १२८१ नन्दः-हस्तिराजः। भग० ३१९। भूतानन्दः-वीरविभोः भेउरधम्मा- भिदूरधर्माणः-स्वयमेव भिदयत इति भिरं सातापृच्छको देवः। आव० २२१॥ भिदुरत्वं धर्मो येषां ते भिदुरधर्माणः। भूयावडिंसा- भूतावतंसा-दक्षिणपश्चिमरतिकरपर्वतस्य । अन्तर्भूतभावप्रत्त्य-योऽयम्। स्था०६४। दक्षिणस्यां शक्रदेवेन्द्रस्याप्सरसोऽग्रमहिष्या राजधानी। | भेए-भेदः-प्रकाशनं स्वदारमन्त्रभेदः। उपा०७। भेदः क्षयः, जीवा० ३६५ भयाध्यवसानोपक्रम इति। अन्त०१३। भूयावाद- भूतवादः-दृष्टिवादः। बृह. २४ । भेओ-भेदः-भण्डलस्यापान्तरालम्। सूर्य०४९। भेदः भूरित- मीलितः। निशी. १७३ अ। सर्वपरिशाटतः पृथग्भावः। उत्त० २२४। भेदनं भेदःभूलए- साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः। प्रज्ञा० ३४। एकैकता। ओघ. १८० भूषण-मुकुटः। जीवा० १६१| भेडिग-भेडिकम्। आव० ५८१। भूसण- भूषणं-मण्डनादिना विभूषाकरणम्। प्रश्न० १४०। | भेत्तुं- भेत्तुम्-सूच्चादिना सच्छिद्रं कर्तुम्। भग० २७६) भूषणं-उपाङ्गपरिधेयम्। जम्बू० २२१। भेद-भेदः-विदारणम्। दशवै. १५२ विशेषो व्यक्तिः । १९८१ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [50] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] १०| स्था० ४९३। उपक्रमः। स्था० ४०० भेरवा-भैरवाः-भयानकाः। बीभत्साः। आचा० २४३। भेदघाए-भेदघातः-मण्डलस्यापान्तराले गमनम्। सूर्य भेरिसंठिय-भेरीसंस्थितः-ढक्कासंस्थितः, आवलिका बाह्यस्यैकोनविंशतितमं संस्थानम्। जीवा० १०४। भेदनं- बादरसम्परायावस्थायां संज्वलनलोभस्य खण्डशः | भेरी- ढक्का। जीवा० १०५, २४५ महाढक्का। भग० २१७१ विधानम्। आचा. २९८ दुन्दुभिः। प्रश्न०४८। महाकाहला। भग०४७६) भेदवस्तूनि-नानावगृहीतमीह्यते, न भेरीपालअ- भेरीपालकः। जम्बू. ९८१ चानिहितमवगम्यते, न चानवगतं धार्यत इति। आव० भेरुंड-भेरुण्डः-निर्विषसर्पविशेषः, दिव्यकः। उत्त० ३५६। भेरुताल- वृक्षविशेषः। जम्बू० ९७१ भेदसमावन्न-भेदसमापन्न मतेवैधीभावं गतः, भेसज्ज- भैषज्यं-द्रव्यसंयोगरूपम्। प्रश्न. १०९, १५३। अध्यवसायरूपं वा मतिभङ्गं गतः। भग०५४। भैषजं-पेयादि। ओघ०६८ द्रव्यसंयोगरूपम्। ज्ञाता० भेदसमापन्नः-मतिभेदं गतः, १३६, १८११ भैषज-बहिरुपचारः। ओघ. १३४१ भैषज्यंकिंकर्तव्यताव्याकुलतालक्षणमापन्नः। भग० ११२। अनेकद्रव्ययोगरूपं पथ्यं च। विपा०४१। भैषजंभेदा- पर्यवाः पर्यायाः धर्माः अनेकद्रव्ययोगरूपं पथ्यं च। विपा० ४१। भैषजं-केवलहबाह्यवस्त्वालोचनादिप्रकाराः। स्था० ३४८। रितक्यादिद्रव्यादीनामेकत्रमीलित्वा चूर्णम्। पिण्ड० १९| भेदायतण- मेहणं। दशवै. ९५अ। पथ्यम्। ज्ञाता० १०९, १८१। भैषज्यं-पथ्यम्। औप. भेय-भेदः-चारित्रभेदः। दशवै. १९८१ भेदः-नायकसेवकयो- १०० आव० ११५ पथ्यमाहारविशेषः। ज्ञाता० औप. श्चित्तभेदकरणम्। विपा०६५। भेद-चारित्रभेदः। प्रश्न १०० आव० ११५ पथ्यमाहारविशेषः। ज्ञाता० १३६) १२११ भेदः-मण्डलस्यापान्तरालः। सूर्य०८ भिन्दन्ति भेषजं-पथ्यम्। राज० १२३। उपा० १३। भेषजं-यवाआच्छिन्दन्तीति भेदाः। ज्ञाता०२२ गूप्रभृतिः। पिण्ड० २१ विजिगीषितशत्रूपरि-वर्गस्य भेषण- भेषणं-भयजनकम्। भग० ३०८। स्वाम्यादिस्नेहापनयनादिको भेदः। ज्ञाता०११। भेदः भेसणा- भेषणा-अदित्सतो भयोत्पादनम्। प्रश्न. १०९। प्रार्थक्यम्। ब्रह. १४९ आ। आयक्षयः भयाध्यव- भेसवेइ- भापयति। आव. २०६| सानोपक्रमः। अन्त०१३ भेसिओ- भापितः। आव०८१५१ भेयणं-भेदन-परस्परं प्रेमसम्बद्धयोः प्रेमच्छेदनम्। प्रश्न | भैरवप्रपातः- । प्रज्ञा० ४३६| ४१। भेदन-कुन्तादिना रसघातः। स्था० २१| भेसिओ- भापितः। आव० ८१५१ भेयणी- भिनत्ति स्वगणैरसाधारणत्वाद् भेदेन भो- भोः इति आमन्त्रणे। आचा० १२७, २५२। इति व्यवस्थापयति भेदिनी। उत्त० ४७५) पादपुरणे। बृह० ३४ आ। भेयविमुत्तकारक- भेदः-चारित्रभेदो विमूर्तिः भोअण- भुज्यते इति भोजनम्। आव०४४७ विकृतनयनव-दनादित्वेन विकृतशरीराकृतिः, तयोः भोअणजाए- भोजनजातं-भोजनविशेषः। जम्बू. ११९ कारकं यत्तत्त् भेदवि-मूर्तिकारकम्। प्रश्न० १२१। भोइ- भवति आमन्त्रणवचनमेतत्। उत्त०४०६। भोगिकःभेयसमावन्न-भेदसमापन्नः-बुद्धिवैधीभावापन्नः। ग्रामस्वामी। ओघ. ५९। स्था० १७६। भेदसमापन्नो मतेर्दवेधाभावं प्राप्तः भोइअ- भोजिकः-ग्रामस्वामी। बृह. १८१ आ। सद्भावासद्भाव विषयविकल्पव्यालितः। ज्ञाता०९५१ भोइओ- ग्रामस्वामी। बृह. ३१३ आ। भोमिकः-ग्रामभेरण्डेक्खू-भेरण्डदेशोद्भव इक्षुः। जीवा० ३५५। स्वामी। बृह० ३३ । भेरव- भैरवं सिंहादिसमुत्थम्। जम्बू. १४३। भैरवः- | भोइकुल- भोजिकुलः राजकुलः। व्यव० १२१ आ। भयावहः, कर्णकटः। सूत्र० २४४१ भैरवः-भैरवः-ज्ञाता० भोइग- भोतिकः-ग्रामस्वामी। निशी. १७६ आ। भोइणी- भोगिणी-पत्नी। बृह. २०७आ। ६९) मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [51] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] भोइय भोजिक:- ग्रामाधिपतिः । आव० ३४२२ भोजिक:सामान्यग्रामाधिपः । आव० ८१९ | आव० ७३८ \ भोइया- भोजिका भार्या। बृह० १४५आ। बृह• ६अ। भज्जा | निशी० १२७ अ । भोइयाई भोजिकादिनां नगरप्रधानपुरुषादिः । व्यव० वि० आगम-सागर- कोषः ( भाग : - ४ ) ३०२अ । भोई- भोगेन - विशिष्टनेपथ्यादिना चरन्ति भोगिकाःनृपति मान्याः प्रधानपुरुषाः। उत्तः ४९८ भोग्याभार्या पिण्ड० ११ol भए भोग: मनोजशब्दादिः । उत्त० १८८ भोगंकरा- भोगङ्करा प्रथमा दिक्कुमारी । जम्बू० ३८३ भोगकरा- अधोलोकवास्तव्या दिक्कुमारी आव० १२१| ज्ञाता० १२७| भोगकरा-दिक्कुमारी । जम्बू० ३१५| भोग भोगपुरिसे- भोगपुरुषः । सम्प्राप्तसमस्तविषयसुखभोगोपभोगसमर्थः । आव ० २७७| फलः। ज्ञाता० १३८ | वर्त्त - नम् । ज्ञाता० १८९ | भोगः-शब्दादिकः । जीवा० ३४६ । भोगः- गुरुस्थानीयः । आव. १२८८ भगः- निधुवनम्। प्रश्न० १७| भोगःयस्तेनैव गुरुत्वेन व्यवहतस्तवंशजश्च ऑप० २७ भोगः देहः । औप- १८१ भोगः सकृद् भुज्यत इति ९९| भोगः-शरीरम् । प्रज्ञा० ४७ । भोगः-शरीरम् । जीवा० ३९ | जम्बू. १११। भोगः कुलविशेषः आव. १७९१ भोगःआदिदेवावस्थापितगुरुवंशजातः । भग० ११५१ भोगःगन्धरसस्पर्शाः । भग• ८९। सकृद्धोजनमश -नादीनां भोगः । भग० ३५० शब्दादिकः । जीवा० १६३ | अभ्यवहारः । उत्त• ६३४ भोगप्रधानः पुरुषः भोगपुरुषः चक्रवत्र्त्यादि । सूत्र० १०३ | भोगाः - गन्धरसस्पर्शाः । - उपा० ८ भोगकडं भोगकटकं पुरविशेषः । उत्त०८ भोगजीविय चक्रवत्र्त्यादीनां जीवितं भोगजीवितम् । स्था० ७ | आव० ४८० | भोगण - भोगनं-पालनम् । ओघ० १२ | भोगत्थिआ भोगार्थिनः मनोज्ञगन्धरसस्पर्शार्थिनः । जम्बू• २६७। गन्धरसस्पर्शार्थिनः । ज्ञाता० ५९| भोगन पालनम् ओघ० १२ भोगपुर- भोगपुर-भोगकटकपुरम् । उत्त० ८५| आव २२२ भोगपुरिस भोगपुरुष भोगपरः पुरुषः सूत्र० ३२८१ । मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [52] [Type text] भोगपुरिसत्ता अन्यैरुपार्जितार्थानां भोगकारिनरता । भग० ५८१| भोगपुरिसा भोगा: मनोजाः शब्दादयस्तत्पराः पुरुषाः भोग-पुरुषाः स्था० ११३ भोगभोग- भोगार्हो भोगः शब्दादयो भोगभोगः । जीवा० २१७ | भोगार्हम् । भग० १५४। भोगार्हा भोगा-भोगभोगाःमनोज्ञ-स्पर्शादया। भग० ६४५ | भोगार्हा भोगाःशब्दादयः। प्रज्ञा॰ ८९| जीवा० १६३, ३४६ । भोक्तुं योग्या भोग्या ये भोगाः भोगभोगाः वाऽतिशायिनो भोगाः । उत्त० ३९४ | विशिष्टाः शब्दादयः । सम० ५३ | भोगभोगा: भोगाईः शब्दादिभोगः सूर्य० २८ भोगभोगाः-उत्कटा भोगाः । सूत्र० ४२२ अतिशयवद्भोगाः । निर० ४ भोगार्हाः भोगाः शब्दादयः । भोगेभ्यः औदारिककायभावेभ्योऽतिशायिनो भोगा भोग भोगाः । जम्बू. ६३॥ भगमालिणी भोगमालिनी दिक्कुमारी सुरी, राजधानी । जम्बू• ३३८| भोगमालिनी अधोलोककवास्तव्या दिक्कुमारी | आव. १२९| जम्बू. ३८३ भोगराजा उग्रसेनः। दशकै ९७ भगराय भोजराजः- उग्रसेनः । उत्त• ४९५१ भोगवझ्या लिपिविशेषः । प्रज्ञा० ५६ ॥ भोगवई- भोगवती-द्वितीयातिथिनाम । जम्बू० ४९१ | भोगवतिया राजगृहे धन्यसार्थवाहस्य धनदेवपुत्रस्य भार्या। ज्ञाता० ११५ | भोगवती- अधोलोकवास्तव्या दिक्कुकमारी। आव० १२१ । जम्बू० ३१५, ३८३। भोगवती-रात्रिद्वितीयातिथिः । सूर्य० १४८) भोगवती दक्षिणरुचकवास्तव्या दिक्कुमारी । आव० १२२| भोगविस- भोगं शरीरं तत्र सर्वत्र विषं यस्य स भोगविषः । जीवा० ३९| प्रज्ञा० ४६ । ज्ञाता० १६२ | भोगविषः- उरः परिसर्पविशेषः । जीवा० ३९ | भगशालिनः महोरगभेदविशेषः प्रज्ञा- ७० | भोगा- भोगाः शब्दादयः। सूर्य० २६७ आचा० १८२ | जीवा० २१७ प्रज्ञा ८९| धूपनविलेपनादयः । उत्त० २४३॥ मनोज्ञाः शब्दादयः । स्था० ११४ । उत्त० २९१| भोगाःद्रव्यनिचयाः कामा वा उत्त• ३८८१ ये तु गुरुत्वेन ते भोगाः तदवश्याश्च स्था० ३५८८ गुरवः । स्था० १९४१ *आगम - सागर- कोष" (४) Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] रसस्पर्शाः। आव० ८२७। भुज्यन्त इति भोगाः-स्रक्चन्द- | भोमा- विशिष्टानि स्थानानि। जम्बू०६०। नवादित्रादयः। सूत्र० २९५। गुरुस्थानीयाः। भग०६४५। भोमालियं- भौमालीकं भूम्यनृतम्। आव० ८२० गुरुत्वेन व्यवहृताः भोगाः। शुभगन्धादयः। भग० ४८१। | भोमिज्ज- भूमौ-पृथिव्यां भवाः भौमेयकाः-भवनवासिनः। आदिदेवेनैवावस्थापितगुरुवंशजाताः। राज० १२१| उत्त० ७०१। भूमिविकारत्वाद भौमेयकः। सम. १०३। कुला-र्यभेदविशेषः। प्रज्ञा० ५६। राज्ञः पूज्यस्थानीयाः। भोमिज्जा- भूमौ-पृथिव्यां रत्नप्रभाभिधानायां भवत्वात् ते आचा० ३२७ भवनवासिनः। सम. भोगान्तराय- यदुदयवशात् सत्यपि भोमेज्जणगर-भौमेयनगरम्। प्रज्ञा० ९५१ विशिष्टाहारादिसम्भवेऽसति च प्रत्याख्यानपरिणामे | भोमेज्जनगर- भूमेरत्नर्भवानि भौमेयकानि तानि च वैराग्ये वा केवलकार्पण्यान्नोत्सहते भोक्तुं तत्। प्रज्ञा. तानि नगराणि चेति। भग० ७७०। ४७५ भोमेज्जा- व्यंतराः। दे०। मन्मयानि। भग० ४७६। भौमाःभोगिकः- ग्रामस्वामी। बृह. ९आ। पार्थिवाः। ज्ञाता० ५५ भवनवासिनां भूमौ पृथिव्यां भोगिनः- चन्दनागुरुकुङ्कुमकपूरादिसेविनः। आचा० रत्नप्रभाभिधानायां भवत्वात्। सम०६। 36૪). भोमेय-भौमेयः। जीवा० २४४१ भोगी- भोगि-शरीरम्। भग० ३१११ भोयए- भोक्ता-भर्ता-माता पिता भगिनी भ्राता एते भोच्चा- भुक्त्वा। उत्त० ३७७ भुक्त्वा-आसेव्य। उत्त. चत्वारः। बृह. ९० आ। ४१०१ भोयग-भत्तारो। निशी. १७२ अ। भोजकः- तदर्चकः। भोजा- भोजिका। व्यव० १३२आ। दशवै. १३५ अ। औप०५१ भोज्ज-भोज्यं-संखडी। बृह वि०१३९ आ। संखडिः। बृहः | भोयडा-जा लाडाणं कच्छा सा मरहट्ठयाणं भोयडा। निशी १९१ अ। भोज्यं-भोजनम्। ओघ० ८८। खण्डखा २३॥ द्याद्यासक्तः। ज्ञाता०८११ भोयण- भोजनं-ओदनादि। प्रश्न०८, १६३| भोजनं-उपभोतितो- भोइओ-ग्रामसामी। निशी. १६९ अ। भोगः। आचा० १०८, १२३॥ भोतिया- भार्या। निशी० ३२० आ। भोयणपडिकूलता- भोजनप्रतिकूलताभोत्तव्वं- भोक्तव्यं भोजनम्। ब्रह. ६१ आ। प्रकृत्यनुचितभोजनता। स्था० ४४७१ भोत्तुं- भोक्तुं-परित्यक्तमादातुम्। दशवै० ९५। स्वयं भोयणपिडय- भोजनस्थालादयाधारभतं वंशमयं भाजनं भोगे। ज्ञाता०४४॥ पिटकं तत्। ज्ञाता०८८५ भोदिय- भोजिकः महत्तरः। व्यव० २६६अ। भोयणपरिणाम- भोजनपरिणामो बुभुक्षा। स्था० ३२७। भोनकी-भोजिकः महत्तरः। व्यव द्व०२४३ अ। भोयणभंड-भोजनभाण्डम्। आव० ३५७। भोम-भौमं विशिष्टस्थानम्। जीवा. २१५ भूमौ भवं भोयणाए- भोजनाय-उपभोगार्थम्। आचा० १०८। भौम-निर्घातभूकम्पादिकम्। सूत्र० ३१८ भोया- छारो। निशी. १०४ अ। पातालभवनानि। आचा० ४१८। भौमः भौत-सरजस्कः । ओघ० ८९| अष्टाविंशतितममुहूर्तनाम। जम्बू. ४९१। भोमः-भौमः भौतम्- भूतसम्बन्धिः । दशवै० ११५ सप्तविंशतितम मुहुर्तः। सूर्य. १४६। भौम भौतलिङ्ग- सरजस्कः। आव०६२८१ भूमिविकारफलाभिधानाप्रधानं निमित्तशास्त्रम्। सम. भौम- नगराकारं, विशिष्टस्थानम्। सम० १९| ४९। भौम-भूमिविकारविषयम्। आव०६६०। भौमानि- नगराकारम्। सम०७८ नगराणीत्येके विशिष्टानि स्थानानि। राज०७२। भौम-विशिष्टस्थानं विशिष्टस्थानानि। नग-राकारम्। भग० १४६। भूमिविकारो भौम भ्रमण- नृत्यविशेषः। प्रज्ञा० २६४। भूकम्पादि। स्था० ४२७ | भमर- सम्पातिमजीवविशेषः। आचा० ५५) मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [53] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम-सागर- कोषः ( भाग : - ४ ) [Type text] भ्रमरक- उदकाश्रितजीवः । आचा० ४६ | अमि परिरयः ओघ ५९ नन्दी० १४८ भ्रमिणा ततोऽपान्तरालं परिहत्य ओघ० ५९१ भ्रष्टतेजाः क्वचित्स्वरूपभ्रष्टतेजा ध्यामतेजाः । भग. ६८४ | भार:- मधुः । नन्दी० १५५१ - X - X - X - X म मंकाती अन्तकृद्दशानां षष्ठमवर्गस्य प्रथममध्ययनम् । अन्त० १८१ राजगृहनगरे गाथापतिः। अन्त १८८ मंकुण मत्कुणः । आव ०६२५| मंकुणहत्थी मत्कुणहस्ती गण्डीपदश्चतुष्पदविशेषः । जीवा० ३८| गण्डीपदविशेषः । प्रज्ञा० ४91 मंख- मङ्खः-चित्रफलकप्रधानो भिक्षुकविशेषः । स्था० ५२२| मङ्खः । भग० ३६१ | मङ्ख- चित्रफलकहस्तः । जम्बू. १४२१ मख:- चित्रफलकहस्त भिक्षुकः औप० ३) मखः- चित्रफलकहस्तो भिक्षुकः प्रश्नः १४१| मखः जाति विशेषः । आव० १९९| मङ्खः - कैदारकः । पिण्ड० ९६ | मखः चित्रफलकहस्तो भिक्षुकः राज० २१ मंखलि मखः । भग- उपरा खली - मङ्खली नामविशेषः । आव० १९९ । मंगतितह- हस्तपाशितः । निर० १८ मंगलं - मङ्गलं-सिद्धार्थदूर्वादि। भग० ४५९। मंगलं दध्यक्षत-दूर्वाचन्दनादि। उत्त० ४९०। मङ्गलंभगवद्वचनानुवादः । अथवा श्रुतज्ञानम्। आचा० १ | मङ्गलं - मां गालयत्यपनयति भवादिति मङ्गलम् । मा भूद् गलो- विघ्नो वा नाशःशास्त्र-स्येति वा मङ्गलम्। आचा० २ मथ्नातिविनाशयति शास्त्रपारगमनविघ्नान् गमयति-प्रापयति शास्त्रस्थैर्यं लालयति च श्लेषयति शिष्यप्रशिष्यपरम्परायामिति मङ्गलम्। उत्त॰ २| मङ्गलः-दुरितोपशमः। ज्ञाता॰ ७४ मङ्गलं सुवर्णच न्दनदध्यक्षतदूर्वासिद्धार्थकादर्शकस्पर्शनादि, दुस्वप्नादि- प्रतिघातकं प्रायश्चित्तम्। सूत्र• ३२५| विघ्नक्षयस्तद्योगान्मङ्गलम्। स्था० १११| मङ्गलंस्वस्तिक-सिद्धार्थकादि। आव० १३०। मङ्गलंपञ्चनमस्कारः। ओघ० २०४ | मङ्गलं - माङ्गल्यम् । भग० ३१८। मङ्गलं-अनर्थप्रतिघातः । भग० ५४१ | मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [54] [Type text] स्वस्तिकादि। जम्बू॰ ५९। मंगं लातीति मंगलम्। मङ्ग्यते हितमनेनेति मङ्गलं, मां गालयति भवादिति मङ्गलम्। दशवे. 31 मङ्गलं मङ्ग्ग्यते हितमनेनेति मङ्गलम्। दश• ७८| दुरितोपशमहेतुः । सूर्य • २६७। मङ्गलं दुरितोपशान्ति-हेतुत्वात् अहिंसायास्त्रिशत्तमं नाम | प्रश्न ० ९९| मङ्ग्यते-अधिगम्यते वाञ्छितम् । स्था॰ २। मङ्गलं-सिद्धार्थकदध्यक्षतदुर्वाङ्कुरादिकम्। भग॰ १३७| मङ्गलं-सिद्धार्थकादि । भग० ३१८ | मङ्गलंअनर्थप्रतिहतिहेतुः । औप० ५ | मङ्गलं - अनर्थप्रतिघातः । औप- ७३१ मड्ग इति धर्मस्याख्या तं लाति आदत्ते इति मङ्गलं, मां गालयति अपनयति भवादिति मङ्गलं मा भूद् गलो-विघ्नो गालो वा नाशः शास्त्रस्यास्मादिति मङ्गलम्। मङ्ग्यतेऽधिगम्यते हितमनेनेति मङ्गलम् । जीवा० २ | मङ्गलंदध्यक्षतचन्द-नादि । उपा० ४४ । मंगलचेइयं- मङ्गलचैत्यं गृहेषु मंगलनिमित्तं यन्निवेश्यते तत् । बृह० २७६ आ । मंगलयं वृतान्तं- आख्यानकम् आव. ४३४१ मंगला सुमतिजिनस्य माता आव० १६० सम० १५१| सुमतिनाथजननी । नन्दी० १५८१ मंगलया- मंगलेअनर्थप्रतिघाते साव्वाः । जम्बू० १४३ । मंगलावई - मंगलावती विजयः । जम्बू० ३४६ | मंगलावतीविजयः। जम्बू० ३४२ मंगलावईकूड- मंगलावतीकूटः, सौमनसवक्षस्कारे तृतीयं कूटम्। जम्बू० १५३| मंगलावईरविजय- मंगलावतीविजयः । जम्बू० ३५३ | मंगलावती महाविदेहे विजयः। नदीविशेषः । स्था० ८०| मंगलावत्त- मंगलावर्त्तनामविजयः । जम्बू• ३४६१ देवविमानविशेषः । सम० १७| मंगलावत्तकूडे - मङ्गलावर्त्तकूट- नलिनकूटवक्षस्कारे चतुर्थकूटम्। जम्बू• ३४६ | मंगलिय- मांगलिकः - गीतगायकः । आव० ८६३ | मंगल्य मङ्गलकं स्वस्तिकादि जीवा० २२५, ३६२२ मंगल्ल- माङ्गल्यं-हितार्थपावकम्। भग० ११९| माङ्गल्यं दुरितोपशमः साधुः । भग० १२५ मंगी सद्यग्राम्स प्रथमा मुर्च्छना स्था• ३९३१ मंगल- असुन्दरम् । स्था० २७२ "आगम- सागर-कोषः " (४) Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] मंगुली- गोशालकः। उपा० ३७ जम्बू० ४०८१ मंगुसा- भुजपरिसर्पविशेषः। प्रज्ञा०४६। भुजपरिसर्पः मंजूसा- द्वादशयोजनदीर्घा मञ्जूषा। स्था० ४५० तिर्यग्योनिकः। जीवा०४० मञ्जूषा। आव० ४०१, ५५९। मञ्जूषा-राजधानीनामा। मंगू- आर्यमङ्गः-ऋद्धिरससातगौरवदृष्टान्ते जम्बू० ३४७ मथुरायामाचार्यः। आव० १७९। मंडंब- अर्धगव्यूततृतीयान्तामान्तररहितं मण्डपम्। मंच-स्तम्भन्यस्तफलकमयः। ज्ञाता०६३। अक्कुड्डो। राज०११४१ निशी० ८४ । मंड-घृतसङ्घातस्य यदुपरिभागस्थितं घृतं स मण्डः। स्थूणानामुपरिस्थापितवंशकटकादिमयः। ब्रह. १६८ | जीवा० ३४५ आ। मञ्चः। आचा० २६२। मञ्चः-स्थूणा मंडकप्पुते- मण्डूकप्लुतः-माण्डूकप्लुत्या यो जातो योगः, नामपरिवंशकटकादिमयो जनप्रतीतः। स्था० १२४।। दशमो योगः। सूर्य. २३३। मञ्चः। दशवै० १७६। मञ्चः। मञ्चः-अभितिको मञ्चः। | मंडग- मण्डकम्। आव० ८१४। मण्डकम्। आव० ८५५। भग० २७४। मञ्चः-मञ्चसदृशो योगः। सूर्य. २३३। मण्डका-कणिक्कमयः। बृह. २६७ आ। मण्डकःमंचगपाय- मञ्चकपादः। आव० ५७८५ कणिक्कमयस्तण्डुलः। पिण्ड० १६८1 मंचा- मालकाः-प्रेक्षणकद्रष्टजनोपवेशननिमित्तम्। मंडणधाती-धातीविसेसा। निशी० ९३ आ। मण्डनधात्रीजम्बू. १८८१ मण्डिका, धात्रीविशेषः। ज्ञाता० ३७ मंचाइमंचे- मञ्चातिमञ्चः मंडबमारी- मण्डपमारी-मारीविशेषः। भग. १९७५ वित्रादिभूमिकाभावतोऽतिशायी मञ्चस्तत्सदृशो मंडबरूव-मण्डपरूम्। भग० १९३। योगः। सूर्य०२३३ मंडलं घाएसि- वृक्षायुपघातेन तत्करोति। ज्ञाता०६५ मंचाइमंचकलियो- मञ्चातिमञ्चकलिता। जीवा० २४६। मंडलंतरय- मण्डलान्तरकं-मण्डलान्तरम्। सूर्य ४४॥ मंचुल्लिआ-मञ्चिका। आव. ९३। मंडलंतरिया-आन्तरी आन्तर्येव आन्तरिका मण्डलस्य मंजरि- मजरी। भग० ३७५ मण्डलस्यान्तरिका मण्डलान्तरिका। सूर्य. १४१। मंजरियामच्छ- मत्स्यविशेषः। जीवा० ३६। मंडल- मण्डलं-चक्रवालम्। प्रश्न. ५०| मण्डलं-प्रतिबिम्बमंजिट्ठा- मस्जिष्ठा-रागद्रव्यविशेषः। जीवा. २६९। सम्भूतिः। जीवा० २१३। मण्डलंमञ्जिष्ठा-रागद्रव्यविशेषः। प्रज्ञा० ३५९। प्रतिदिनभ्रमिक्षेत्रलक्षणम्। जम्बू०४३४१ मण्डलंमंजिवावण्णाभ- मञ्जिष्ठावर्णाभं-लोहितं, राहविमानम्। वृत्तम्। ज्ञाता० १७०| मण्डलम्। सूर्य. ११। मण्डलम्। सूर्य. २८७ आव० १५० मण्डलम्। आव०४०११ मण्डलं-द्वावपि मंजु- मजः-प्रियः। जीवा० २०७। पादौ दक्षिणवामतः अपसार्य उरु अपि आकुञ्चति यथा मंजुघोसा- मञ्जुघोषा-उत्तरत्याग्निकुमाराणां घण्टा। मण्डलं भवति, अन्तरं चत्त्वारः पादाः लोकप्रवाहे चतर्थं जम्बू० ४०८। मञ्जुघोषा-दिक्कुमाराणां घण्टा। जम्बू स्थानम्। आव० ४६५। विषयमण्डलम्। आव० ६३६। ४०७ मण्डलं-आद्यसंस्थानलक्षणयुक्तत्वेन विशिमंजुमंजु-अतिकोमलः। भग० ४८३। मञ्जुम ः- ष्टाकारम्। अनुयो० १०२। मण्डलं-द्वावति पादौ अतिकोमलः। जम्बू. १४४१ दक्षिणवाम-तोऽवसार्य ऊरु आकञ्चति, यथा मण्डलं मंजुल- मजलं-कोमलम्। भग० ४६९। मलं-मधुरम्। भवति, अन्तरं चत्त्वारि पादानि तत्स्थानम्। उत्त. प्रश्न. १५९। मञ्जुलं-मधुरम्। निर० ३०। मञ्जुलः- २०५। मण्डलानि-वृत्तहिरण्यरेखरूपाणि। जम्बू० २२८। मधुरः। प्रश्न०७४। मण्डलः-चत्-रन्तः-संसारः। उत्त०६१२। मण्डलंमंजुस्सरा- मजुस्वरा-अग्निकुमाराणां घण्टा। जम्बू० । मन्त्रसाधने वृत्तरेखा। दशवै. ३७ जाणरु जंघे य मंडले ४०७। मञ्जुस्वरा-दाक्षिणात्यानामग्निकुमाराणां घण्टा। | काउं न जुञ्झइ तं। निशी. ९० आ। यथा मध्ये मध्ये मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [55] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] १६६| मंडलं भवति अन्तरा चत्त्वारः पादास्तत् मंडलम्। | मंडलिए- माण्डलिकः-सामान्यराजाऽल्पर्धिकः। जीवा. व्यव० ४६ आ। बृह० १५७। मण्डलं -मार्गम्। स्था० ५२५ । ३९। वसुप्रभृतिः। जीवा० १२९। विषयः। ब्रह. १४९ आ। विसयखंड, गोवग्गो। निशी. मंडलिओ- माण्डलिकः। आव० १२०, २३८1 १३७ अ। मण्डलः-मण्डलो-विष्कम्भः। सूर्य. १४१५ मंडलिगराइणिओ- माण्डलिकरात्निकः। आव० ८६० मण्डलं-आकारवल करवाटके प्रविष्टस्यैकस्य मल्लस्य मंडलिण- कुत्सगोत्रे भेदः। स्था० २९० लभ्यं भूखण्ड तत्। पिण्ड० १२९| मंडलिबंध- मण्डलीबन्धः-नास्मात् प्रदेशाद् मंडलओ- मण्डलकः-द्वादशकर्ममाषकनिष्पन्नः। गन्तव्यमिति। आव. ११४१ अनुयो० १५५ मंडलिय- माण्डलिकः, सामान्यराजाऽल्पर्धिकः। प्रज्ञा० मंडलखेत्त- मण्डलक्षेत्र-सूर्यमण्डलैः सर्वाभ्यन्तरादिभि- | ४७ माण्डलिकः-महाराजः। प्रश्न. ९६| सर्वबाह्यपर्यवसानैर्व्याप्तमाकारम्। जम्बू. ४३५ मण्ड- | मंडलियवाय-मण्डीलकावातः-मण्डलिकाभिर्यो वाति स लक्षेत्रं चन्द्रमण्डलैः सर्वाभ्यन्तरादिभिः सर्वबाह्यान्तैर्य वातः। भग० १९६। व्याप्तमाकारं तत्। जम्बू० ४३५१ मंडलिया- मंडली या पुनः स्वस्थान एव सा मंडली। व्यव. मंडलग्ग- मण्डलानः तरवारिः। जम्बू० २१२। मण्डलाग्रं- २१ अ। मण्डलिकाः-प्राकारवलयवदवस्थिताः। स्था० खड्गविशेषः। प्रश्न. ४८१ मंडलपती- मण्डलपतयः-देशकार्यनियुक्ताः पत्तनपतयः। | मंडलियावाए- मण्डलिकावातः-मण्डलिकाभिर्मूलत जम्बू० २२१॥ आरभ्य प्रचुरतराभिः सम्मिओ यो वातः। जीवा० २९। मंडलपविभक्ति-दशमो नाट्यभेदः। जम्बू. ४१६) मंडलियावाय- मण्डलिकावातः-मण्डलिकाभिर्मूलत मंडलपविभत्ती- मण्डलप्रविभक्तिः -मण्डलप्रविभागो | आरभ्यः प्रचुरतराभिः समुत्थो यो वातः। प्रज्ञा० ३० वैवि-क्त्येन मण्डलसंख्याप्ररूपणा इत्यर्थः। सूर्य. २५६] | मंडलियावाय- माण्डलिकावाता-वातोलीरूपः। आचा०७४। मंडलपवेस- यत्राध्ययने चन्द्रस्य सूर्यस्य च दक्षिणेषु च | माण्डलिकावाता-वातोलीरूपः। उत्त० ३९५१ मण्ड-लेषु सञ्चरतो यथा मण्डलात् प्रवेशो भवति तथा | मंडली- मण्डली। आव० ८५९। व्यावर्ण्यते तदध्ययनं मण्डलप्रवेशः। नन्दी० २०५१ मंडलीथेर- मण्डलीस्थविरः-गीतार्थः। ओघ. १८५१ मंडलप्पवेस- मण्डलप्रविष्ट-आकरवल(करवाट) के मंडव-मण्डपः प्रतीतः। प्रश्न०८ मण्डपः। जीवा० ३६९। प्रविष्ट-स्यैकस्य मल्लस्य यल्लभ्यं भखण्डं तत्मण्डलं मण्डपः-यज्ञादिमण्डपः। प्रश्न. १२७ अर्द्धतृतीयगव्यूततत्र वर्तमानस्य प्रतिद्वन्दविनो मल्लस्य विघाताय न्तर्घामान्तररहितम्। व्यव० १६८ अ। मण्डपःयः प्रवेशः। पिण्ड० १२९। छायाद्यर्थं पटादिमय आश्रयविशेषः। प्रश्न० ८वियर्ड। मंडलबंध- मण्डलबन्धः-मण्डलं-इगितं क्षेत्र तत्र बन्धो निशी० ६९आ। गिहोवरि मालो दद्भुमिगादि। निशी. ८४ नास्मात् प्रदेशात् गन्तव्यमित्येवं वचनलक्षणं अ। मण्डपः-नागवल्यादिसम्बन्धिम्। उत्त० ४३८। पुरुषमण्डल-परिवारलक्षणो वा। स्था० ३९९। मण्डपः-छायादयर्थं पटादिमय आश्रयविशेषः। जम्ब० मंडलरोग- मण्डलरोगः। भग. १९७१ १०६। मंडलवय- मण्डलपदं-मण्डलरूपं पदं मंडवग- मण्डपकः-द्राक्षामण्डपकः। जम्बू० ३० सूर्यमण्डलस्थानमिति। सूर्य० ३९। मण्डपकः-लतामण्डपादिः। औप०८। मंडलवया- मण्डलं-मण्डलपरिभ्रमणमेषामस्तीति मण्डल- | मंडवथाणं- अंगणं। निशी. १९२ । वन्ति। सूर्य ३६ मंडवा- मूलगोत्रे षष्ठो भेदः-स्था. ३९० मंडलसय- मण्डलशतं-सूर्यस्त मार्गशतम्। सम० ८९। मंडवि ए- मण्डपिकः-मण्डपाधिपः। औप. ५८१ मंडलिअराय- माण्डलिकराजा एकदेसाधिपतिः जम्ब० | मंडविय- मण्डपिकः। आव० ८९। २८० | मंडवी- जोयणऽब्भंतरे जस्स गामादि णत्थितं मंडवी। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [56] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] निशी०७०आ। विहायोगतेः षष्ठो भेदः। प्रज्ञा० ३२७। मंडव्वायण- माण्डव्वायनं-अश्लेषागोत्रम्। जम्बू. ५०० | मंडूस- मण्डूषः-धान्यम्। प्रज्ञा० २६६। मंडावगा- मउडादिणा माउंतिति जे ते मंडावगा। निशी. | मंडेई- मण्डयति। आव० ४१८१ २७७ । मंत- मन्त्रः-चेटिकादिदेवाधिष्ठिताक्षरान्पूर्वी। प्रश्न. मंडिक-मण्डिकः-चौरविशेषः। उत्त. २४५ १०९। मन्त्रः-पर्यालोचनम्। विपा०४० मन्त्रः-यत्र मंडिकुच्छी- मण्डिकक्षिः-श्रेणिकराजधान्यां चैत्यविशेषः। देवतापुरुषः स मन्त्रः, साधनरहितः, पुरुषदेवताप्रधानोउत्त० २७२ मन्त्रः, साधन-रहितः ससाधनो वा। आव० ४११ मंडित- मण्डिकः बैन्नातटनगरे तन्तुवायश्चौरः। उत्तः । वियैपुरुषदेवताधिष्ठिता असाधनो वा मन्त्रः। पिण्ड. २१० १२११ मन्त्रः-द्रव्यसम्बन्धः। उत्त०७१० मन्त्रःमंडितपसाहियं- मण्डितप्रसाधितम्। आव० ३०८। वृश्चिकमन्त्रादि। दशवै. २३६। असा-धनो, मंडियंटिविडिक्कियं-अलङ्कारोद्भटः। उत्त० १३८ पुरुषरूपदेवताधिष्ठिता वा मन्त्रः। पिण्ड० १४१। मन्त्रंमंडियकुच्छि- राजगृहनगरस्य बाह्यचैत्यः। भग० ६७५। विशिष्ठवर्णानपूर्वीलक्षणम्। आव०६०५ मन्त्रःमंडियचोर- मण्डिकचौरः। उत्त. २२११ प्रणवप्रभृतिकोऽक्षरपद्धतिः। पिण्ड० १२९। मन्त्रः-अभिमंडियपसाहिय- मण्डितप्रसाधितः। आव०८१५१ योगस्य दवितीयो भेदः। ओघ. १९३। मन्त्रं-ओंकारादिमंडियपुत्त- मण्डितपुत्रः स्वाहापर्यन्तः हिंकारादिवर्णविन्यासात्मकः। उत्त. चमरोत्पातक्रियाजन्यकर्मादिविवरणे अनगारः। सम० ४१७। मन्त्रः-हरिणैगमिष्यादिदैवताधिष्ठितः, १८२। मण्डितपुत्रः-चमरोत्पातक्रियानि-रूपणे साधनरहितः। ज्ञाता०७ मन्त्रः-पर्यालोचनः। भग. राजगृहनगरे अनगारः। भग० १८११ मण्डितपुत्रः ७३९। मन्त्रः-राज्यादिचि-न्तारूपः। राज०११६। मन्त्रःसंयतस्य प्रमादपरत्वादिनिरूपेण अनागारः। भग. विश्रम्भजल्पः। उपा०७| १८५। मण्डितपुत्रः-षष्ठगणधरः। आव २४० मंतपिंड- मन्त्रजापवाप्तः मन्त्रपिण्डः, मंडिया- मंडिका-युद्धसंस्कारः (योगसंग्रहः)। महाप्र०। । त्रयोदशमोत्पादनादोषः। आचा० ३५१ मंडीपाडिया-आगते साधौ अग्रकरमण्ड्यै अन्यस्मिन् । | मंतमलविसारया- मन्त्राणि च उक्तरूपाणि मलाणि च भाजने वा कृत्त्वा यत्साधवे दीयते सा मण्डीप्राभृतिका। औषधयस्तेषु विशारदाः-विज्ञाः मन्त्रमूलविशारदाः। आव०७५५ उत्त०४७५ मंडुए- शैलकराजपुत्रः। ज्ञाता० १०४। मंता- मन्त्राः-हरिणैगमेष्यादिकाः। औप. ३३। मन्त्राःमंडक्क- ज्ञातायां त्रयोदशममध्ययनम्। सम० ३६। हरिणैगमेषिमन्त्रादयः। प्रश्न. ११६) ज्ञातायां त्रयोदशममध्ययनम्। आव०६५३। मण्डूकः- मंताजोग- तथाविधद्रव्यसम्बन्धा मन्त्रयोगम्। उत्त. नन्दमणि-कारश्रेष्ठीजीवः। ज्ञाताधर्मकथायाः ७९० मन्त्राः-प्रागक्तरूपास्तेषामायोगो- व्यापरणं प्रथमश्रुतस्कन्धे त्रयो-दशममध्ययनम्। ज्ञाता०९। मन्त्रायोगः। उत्त०७१० मन्तायोग-मन्त्राश्च योगश्च मण्डूकः- षष्ठाङ्गे त्रयोदशं ज्ञातम्। उत्त०६१४। तथाविधद्रव्यसम्बन्धमन्त्रयोगम्। उत्त०७१०| मंडुक्कलिया- मण्डूकी। आव० १९५। मण्डूकिका-वर्षाभूः मन्त्रानयोगश्चेटकाहिमन्त्रसाध-नोपायशास्त्रम्। सम. भेकिर्का। दशवै० ३७ ४९। मंडुक्किआखवओ- मण्डुक्किकाक्षपकः। दशवै० ३६) मंति-मन्त्री। भग० ३१८ मंडुक्कियसाय- मण्डूकिकाशाकः। उपा०४१ मंतिय-तृणविशेषः। प्रज्ञा० ३३॥ मंडुक्की- हरितविशेषः। प्रज्ञा० २३। मंती- मन्त्री। बृह. ५९ आ। मंडूक- पृथिव्याश्रितो जीवविशेषः। आचा. ५५ मंतेसि- मन्त्रयसे-विचारयसि। दशवै०१०४। मंडूयगति- मण्डूकगतिः-यत् मण्डुकस्येवोप्लुत्यगमनम्- | मंथु- मन्थः-अवयवः। मन्थः-विकृतीनामवयवः। बृह. मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [57] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] २६७ आ। मन्थः -बदरादिचूर्णम्। उत्त. २९५। चूर्णः। आचा० ३४८ मन्थः-बदरचूर्णादि। दशवै० १८० मस्त्। मदाणुभाव- मन्दानुभावः-परिपेलवरसः। भग०३५१ पिण्ड. ९० मंदायं- मन्दम्। जीवा० १८१। मन्दं मन्दम्। जीवा० २४७) मंथू- चुन्नो। दशवै० ८६ आ। मन्दायमिति-मन्दं मन्दम्। जम्बू. २४१ मध्यभागे मंद-मन्दः-सारुप्य, धैर्यवेगादिगुणेषु मन्दत्वात्। स्था० सक-लमूर्च्छनादिगुणोपेतं मन्दं मन्दं संचरन, अथवा २०९। मन्दः-विशिष्टबलवृद्धिकार्योपदर्शनासमर्थः। मन्दमयते-गच्छति अतिपरिघोलनात्मकत्वात् स्था० ५१९। मन्दायम्। जम्बू. ३९। मन्दम्। राज० ३९| मंदकुमारए- मन्दकुमारकः-उत्तानशयो बालकः। प्रज्ञा० मंदायइयं- मन्दावीयं-गेयविशेषः। जम्बू. ४१२। ર૬રા. मंदारदाम- कल्पवृक्षपुष्पमाला। उत्त० ३८२। मंदकुमारिया- मन्दकुमारिका-उत्तानशया बालिका। मंदिए- मन्दो-धर्मकार्यकरणं प्रत्यनयतः। उत्त० २९१। प्रज्ञा० २५२ मंदिर- शांतिजिनस्य प्रथमपारकस्थानम्। आव० १४६। मंदक्ख- लज्जा। निशी. ११४ अ। मंदिरः-संनिवेशविशेषः। मंदधम्म- मन्दधर्मः-पार्श्वस्थादिः। आव०५३३। अग्निभूतिब्राह्मणवास्तव्यनगरम्। आव०७२। मंदपुन्न- मन्दपुण्यः। आव०४२२ मंदुक्को- मन्डूकः-दर्दुरः। प्रश्न०७। मंदप्परिणाम- मन्दपरिणाम-ईषल्लक्ष्यमाणस्वरूपः मंदुय- मन्दुकः-ग्राहविशेषः। प्रश्न०७ शीतः। आचा० १५० मंदुरा- मन्दुरा अश्वशाला। २४८१ मंदयं- मान्यं-अज्ञत्वम्। सूत्र. ११४। मंद्यादए- मन्धादनः-मेषः। सूत्र. ९८५ मंदर-मन्दरः-मेरूः। आव० १२४१ विमलनाथजिनस्य मंनु- मन्कः -अप्रीतिकम्। बृह. ६२ अ, २२ अ। प्रथमः शिष्यः। सम० १५२। मेरूः। जीवा० १४४। मन्दरः- | मंस-मांसं-पुद्गलविशेषः। आव० ८५४। मांसं-पलम्। मेरूः। स्था०६८ मन्दरदेवयोगात् मन्दरः, मेरोः प्रथमं । प्रश्न ज्ञाता०२०९। भुजपरिसर्पः तिर्यग्योनिकः। नाम। जम्बू. ३७५। मन्दरो-नामदेवः। सूर्य ७८ जीवा०४०१ मन्दरः-मेरुपर्वतः। आव० ८२७। मन्दरः-मेरू। ज्ञाता० । मंसईत्त- मांसीयः-मांसपाकी। उत्त०५२ ६। मन्दरः-मन्दराभिधानः। उत्त ३५२। मंसकच्छभा- ये मांसबहुलास्ते मांसकच्छपाः। प्रज्ञा० ४४। मंदरचूलिया- मेरूलिका-शिखरविशेषः। स्था० ८३। मन्द- | मंसखलं- जत्थ मंसाणि सोज्जंति। निशी० २२ । रचूलिका। आव० १२४१ मंसचक्खु- मांसचक्षुः छद्मस्थः। दशवै० १२८१ मंदलेसा- मन्दलेश्याः सूर्याः न तु मनुष्यलोके मंसरसं-मांसरसः-पानविशेषः। आव० ८२८१ निदाघसमये इव एकान्तोष्णरश्मय इत्यर्थः। सूर्य मंसलकच्छभ- मांसलकच्छतः-कच्छपविशेषः। जीवा. २८१ ३६) मंदवाया- मन्दाः-शनैः सञ्चारिणः वाताः। ज्ञाता० १७१। | मंसला- मांसला-उपचितरसाः। प्रज्ञा० ३६४। मंदवासा- मन्दवर्षा-शनैर्वर्षणम्। भग० १९९। मंसवरिसं- मांसवर्षः। आव० ७३४। उत्पातविशेषः। निशी. मंदा- मन्दः-विशिष्टबलबुद्धिकार्योपदर्शनासमर्थो भोगानु- ७०। भूतावेव च समर्थो यस्यामवस्थायां सा मन्दा। स्था० । मंससोल्लय- मांसशुल्यकं-मांसखण्डम्। उपा० ३४| ५१९। मन्दाः-मन्दायन्तीति, हिताहितविवेकनमपि मंसाइयं-मांसादिका-मांसमादौ प्रधानं यस्यां सा जन-मन्यतां नयन्तीतिकुत्वा। उत्त० २२७। यद्धा मांसादिका। आचा० ३३४॥ मन्दबुद्धित्वा-न्मन्दगमनत्वाद् स्त्रियः। उत्त० २२७ मंसि-मांसी-गन्धद्रव्यविशेषः। प्रश्न. १६२। दशदशायां तृतीया दशा। निशी. २८ आ। दशदशायां मंसुंडगं- मांसपिण्डभक्षणम्। ओघ० १८०। मांसोदकःतृतीया। स्था० ५१९। मन्दा-जन्तोस्तृतीया दशा। दशवै. | मांसखण्डः, शशकशिशुर्वा। पिण्ड० १६०| मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [58] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] मंसु- श्मश्रुः-कुर्चरोमालि। प्रश्न० ६०| श्मश्रु-कूर्चःकेशः। | मईकय- मतिकृतम्। सूर्य २३॥ प्रश्न. १०७ मउंद- मुकुन्दः-वाद्यविशेषः। भग० १४५। मंसूढी- प्रहरणविशेषफ। सम० १३८ मउअ- सन्नतिकारणं तिनिशलतादिगतः मृदुः। अनुयो. मंसुण्डकादिबुद्धि- मांसपिण्डादिद्धिः। ओघ. १६४। ११०। मृदुः-अनिष्ठुरम्। अनुयो० १३२॥ मअंतं-जं अंतं मअंतं-जूणं-आवरणहरणीयं। निशी० ५० । | मउड- मुकुटं शेखरकः। विपा० ७०| मुकुटः-भूषणविधिविआ। शेषः। जीवा० २६८। मुकुटः-त्रिकुटः। निशी० २५४ आ। मइंग- मृदङ्गः-लघुमर्दलः। राज०४९। मुकुटं-मस्तकाभरणविशेषः। प्रश्न०४८। मुकुटम्। मइ-माम्। दशवै०४१। मननं मतिः-अवबोधः। आचा० जीवा० ३८६ १२। मइ-बुद्धिः। सम० ११७। मतिः-अवायधारणे। भग. मउडठाण- मस्तकप्रदेशः। सम०६१| ३४५। मतिः-अपाय-धारणहेतुः। नन्दी. १९४। मतिः- मउडदित्तसिरा- मुकुटदीप्तशिराः मकटेन दीप्तं शिरो ज्ञानम्। आचा० २०। मतिः-भावतःश्रद्धा। दशवै० २७९। यस्य स। जीवा० ३८६] मतिः-प्रातिभबोधाव-ध्यादिज्ञानम। मननं मतिः- मउडविडव- मुकुटविटपः-शेखरकविस्तारः। भग० १७५ ज्ञानम्। आचा० २२८१ मउय- मृः-अकठिनः। जीवा० २७४। मइजड्डसुद्धी- मतिजाड्यशुद्धिः मध्यमम्मणुल्लाव- मृदुमन्मनोल्लापः-अव्यक्तवाक्। तथावस्थितस्योपयोगविशे-षतः। आव० ७७३। पिण्ड. १२५ मइदोब्बलं-मतिदौर्बल्यं-मतेः-बुद्धेः मउयरिभियपयसंचारं- मृद्-मृदुना स्वरेण युक्तं न सम्यगर्थानवधारणम्। आव० ५९७। निष्ठुरेण तथा स्वरेष्वक्षरेषु योलमास्वरविशेषेषु संचरन् मइम-मतिमान-सश्रुतिकः। आचा० १५६। मतिमान्-श्रुत- रोगेऽतीव प्रतिभासते स पदसञ्चारो रिभितं, संस्कृतबुद्धिः। आचा० १३८ मतिमान-सदसदविवेकज्ञः। मृदुरिभितपदेषु-गेयनि-बद्धेषु सञ्चारो यत्र गेये तत् आचा० १४३। मृदुरिभितपदसञ्चारम्। जीवा. १९५५ मइमय-मतिमान् केवलीनः। आचा० २७३। मतिमान- मउलं-मुकुलं-फणाविरहयोग्या शरीरावयवविशेषाकृतिः। विदितवेद्यः। आचा० ३०६। मतिमान् जीवा० ३६। ज्ञानचतुष्ट्यान्वितः। आचा० ३१५) मउलि- मुकुली-मकुलं-फणाविरहयोग्यः। मइयं-मतिकं-येन कृष्ट्वा क्षेत्र मृदयते। प्रश्न. ८ मयिकं शरीरावयवविशे-षाकृतिः स विद्यते येषां ते म्क्लीउप्त-बीजाच्छादनम्। दशवै० २१८। मृतं फज्ञाकरणशक्तिविकलोः, अहिभेदविशेषः। प्रज्ञा०४६| पञ्चत्वमुपगतम्। दशवै० ५९।। मौलिः-मस्तकम्। भग० १३२ मउलिका-मुकुलीमइलितं- मलिनयति पांसयति। प्रश्न. ३६| अहिविशेषः, यः फणां न करोति। प्रश्न 1 मुकुलीमइल्लिय- कठिनमलयुक्तः। भग० २५४। पद्मावतीपुत्रः। फणारहितः सर्पः। प्रश्न. ३७ ज्ञाता० १८६। मउलिकड- कृतमकुलः। आव०६४७ मत्कलकच्छः । मई- मननं मतिः-कथञ्चिदर्थपरिच्छितावपि सक्ष्मधर्मा- उपा०१६ लोचनरूपा बुद्धि। नन्दी० १८७। मननं मतिः-कथञ्चिद- | मउलिय- मुकुलं-कुड्मलम्। राज० ६। मुकुलितम्। आव. र्थपरिछितावपि सूक्ष्मधर्मालोचनरूपा बुद्धिः। आव० १८१ ६८६| मतिः-समस्तपदार्थपरिज्ञानम्। सूत्र. १८८1 मतिः- | मउलियाओ-मुकुलानि नाम कुड्मलानि कलिकाः। जम्बू. मनःपर्ययज्ञानविशेषः। प्रश्न. १०५। मतिः २५१ धृतिमतिविषये पाण्डववंशे पाण्डषेणराजस्य ज्येष्ठा | मउली-मकुली-स्फटाकरणशक्तिविकलः। जीवा० ३९| पुत्री। आव० ७०८मतिः-तद्ग्रहणादिकर्मजातः। दशवै. मौलिः-शेखरो यस्य विचित्रमालानां वा मौलिर्यस्य स १७७| मननं मतिः-मनसोव्यापारः। आचा. २३०| तथा। स्था० ४२११ मकटविशेषः। उपा० २९। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [59] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] मऊह- मयूखाः। मरण मगदंतिया- गुल्मविशेषः। प्रज्ञा० ३२॥ मए- माम्। उत्त०१७९ मगदंतीआगुम्मा- मगदन्तिकागुल्माः गुल्मविशेषः। मएण-जातिस्मरणादिना ज्ञानेन। सूत्र. २९९। जम्बू. ९८१ मओ- मृतः-विकारभाग। सूत्र० २७८५ मगदंतीआगुम्मा- मगदन्तिकागुल्माः गुल्मविशेषः। मकर-पञ्चेन्द्रियजीवः। प्रज्ञा० ३३।। जम्बू० ९८१ मकराण्डक- प्रतीतम्। जीवा. १८९| नाट्यविशेषः। जम्बू. | मगधसेणा- लोगत्तरिया कहा। निशी. २५७ आ। ४१४॥ मगधसेना कथाकथको ग्रन्थः। व्यव. ११३ आ। मकरिका- भूषणविधिविशेषः। जीवा० २६८१ मगधा- जनपदः-यत्र कुचिकणे धनपतिः। आव० ३४॥ मुकुन्दः- मरूजवाद्यविशेषो योऽभिलीनं प्रायो वादयते। मगधाविसओ- मगधाविषयः यत्र पुष्पशालगाथापतिः। जीवा० २६६। आव० ३५५ मक्कड- मर्कट:-प्रदवेषः दृष्टान्तः। आव०४०५ मर्कटः। | मगधाजणवय- मगधाजनपदः यत्र शिवो राजा। आव० आव०४१७ कोलिकः। बृह. १६६। मर्कटः-सूक्ष्म ३५६ जीवविशेषस्तेषां सन्तानः। आचा० ३२२१ मगरंडग-जलचरविशेषाण्डकम्। जम्बू. ३१| मक्कडासंताणा- मर्कटकसन्तानः-कोलियकः। आचा० मगर- मकरो-स्थूलदेहो जलजन्तुविशेषः। आव० ८१९। ३२२। मर्कटसन्तानः-कोलिकजालम्। आव० ५७३। मकरः। प्रज्ञा० ४३। मकरः-जलचरविशेषः। उत्त० ६९९। मर्कटसन्तानकः-लूतातन्तुजालम्। आचा० २८५) मकर:- मकर इव मकरो जलविहारित्वाद्धिवरः। प्रश्न मर्कटसन्तानकः। आचा० ३२२ ३७। राहोः षष्ठं नाम। भग० ५७५। मकरः-राहदेवस्य मक्कार- मा इत्यस्य-निषेधार्थस्य करणं अभिधानं- षष्ठं नाम। सूर्य० २८७। मकरःमाकारः दवितीया दण्डनीतिः। स्था० ३९९। दवितीया सुण्डामकरमत्स्यमकरभेदभिन्नो जलचरविशेषः। दण्डनीतिः। स्था० ३९८१ प्रश्न.७ मकरः-ग्राहः। ज्ञाता० १६५ मक्कोड- मर्कोटकः। ओघ. १८४/ मगरपुट्ठ- मकरपुष्टिः । आव० ८१९। मक्खणं- बहणा मक्खणं। निशी. १८८ अ। मगरासणं- मकरासनं-यस्याधोभागे नाना स्वरूपा मक्खिओ- मक्षितः। आव० २२७। मकराः। जीवा. २००५ मक्खियं-महणो बीओ भेओ। निशी. ९६ आ। मेक्षितं- | मगरिआ- मकरिका-मकराकारआभरणविशेषः। जम्बू. उदकादिना संसृष्टम्। प्रज्ञा० १५४। म्रक्षितं १०५ सचित्तपृथिव्यादिनाऽवगुण्डितम्, द्वितीय एषणदोषः। | मगरिमच्छ- मत्स्यविशेषः। प्रज्ञा०४४। पिण्ड० १४७ मगसिर- तृतीयनक्षत्रः। स्था० ७७ मक्खेत्ति- बहुणा मक्खण| निशी० ११६ आ। मगसिरा- चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः। जीवा० ३२॥ मक्षिका- सम्पातिमजीवविशेषः। आचा. ५५ मगसीसावलिसंठिते- मृगशीर्षावलिसंस्थितः। सूर्य. १३०| संमछेनजीव-विशेषः। दशवै. १४१। मगह- मगधः-जनपदविशेषः। प्रज्ञा० ५५ जनपदविशेषः। मक्षिकापदं- मणिलक्षणभेदः। जम्बू. १३८ भग०६८० मखः- अध्वरः, वेपः, वेषः वेदाः, वितथः यागपर्यायः। मगहग- मगधकम्। ओघ०५५ उत्त० ५२५ मगहविसया-उदायनस्स रहुँ। निशी. १४५अ। मगदंति-मोग्गरति मगदंति पप्फा| निशी. १४१ आ। मगहसिरी- मगधश्रीः-अप्रमादविषये राजगृहे राज्ञो जरासमगदंतिआ-मगदन्तिका-मेत्तिका, मल्लिका वा। दशवै. ङ्घस्य सर्वप्रधाना द्वितीया गणिका। आव०७२१। १८५ मगहसुंदरी- मगधसुन्दरी-अप्रमादविषये राजगृहे राज्ञो मगदंतिय- मुद्गरका पुष्पम्। बृह. १६२आ। जरा-सङ्घस्य सर्वप्रधाना प्रथमा गणिका। आव०७२१५ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [60] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] मगहापुरनपरभगधपुरनागरं- राजगृहम् । उत्तः ३२१॥ मगहाविसए जणपदविसेसो निशी. ५५ आ मग्गंतराय मार्गान्तरायः आगम-सागर- कोषः ( भाग : - ४ ) मोक्षाध्वप्रवृत्ततद्विघ्नकरणम्। स्थान राज्या मग्ग मार्गः प्रष्ठः । आव० २३२ पूर्वस्माद्विशुद्ध्या विशिष्टतरो मार्गः सम्यग्ज्ञानावाप्तिरूपः । सूत्र० १९७ । मार्ग:- पूर्वपुरुषक्रमागता समाचारी भग० ६९। मार्गःविशिष्टगुण-स्थानावाप्तिप्रगुणः स्वरसवाही क्षयोपशमविशेषः । जीवा० २५५ | सम० ३१ । प्रष्ठः । आव ० १०८ । मार्गः - अर्हतां नमस्कारार्हत्वे, मार्ग:सम्यग्दर्शनादिलक्षणो हेतुः । आव० ३८३३ मार्ग:सूत्रकृताङ्गाद्यश्रुतस्कन्धे एकादशममध्ययनम् आव० ६५१। मार्ग-सूत्रकृताङ्गस्यैकादशममध्ययनम् । उत्त ६१४। मार्गं-मोक्षमार्गमात्मानुचीर्णम्। सूत्र० १९७| मार्ग:विशिष्टगुणस्थानावाप्तिगुणः स्वरसवाहीक्षयोपशमविशेषः । राज० १०९ | ग्रामानुग्रामपरस्परयावसिमं भवति स सग्रामो मार्गः। बृह. १२२ अ मोक्षपुरप्रापकत्वाद् मार्ग इव मार्गः । निशी० २४१ अ मार्गः उपायः प्रश्नः १३६ मृज्यतेशोध्यतेऽनेनात्मेति मार्गः, मार्गणं वा अन्वेषणं शिवस्येति । आव० ८६ मार्गः क्षयोपशमिको भावः ऊर्ध्वमार्गादुन्मार्गः । आव• ५७११ मार्गः सम्यग्दर्शनादिः । आव ७६२१ मार्ग:- मोक्षपुरप्रापकत्वादेव । अनुयो० ३२२ मार्गः- पृष्ठः । नन्दी• ८४ मार्गःमोक्षपथः। आचा० २०५। मार्गः-नरकतिर्यङ्मनुष्यगमनपद्धतिः । आचा० २०७१ मार्ग. चरित्रप्राप्तिनिबन्धनतया दर्शनज्ञानाख्याम्। उत्तः ५८३३ मार्ग मुक्तिमार्ग क्षायोपशमिकदर्शनादि। उत्त ५८३ | मार्ग- सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकं परमपदपथ, पथिच्छेदनम् । सम० ४। मार्गोगीतमार्गनृत्यमार्गलक्षणौ। अग० ६५२ मार्गःज्ञानप्राप्तिहेतु सम्यक्त्वम् उत्त० १८३३ मग्गड़ मार्गयति। आक० ३२३ मग्गओ मार्गयति पुष्ठतः। भग- २३, ३१२, ३२रा मार्गतः पृष्ठतः। ओघ० ३२ नन्दी० ८४ मार्गतःपृष्ठतः । ओघ• ७४१ निप्पच्छिमो निष्पश्चिमः ओघ० 1 ३३| मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] मग्गण- मार्गणं-अन्वयधर्मैरन्वेषणम् । औप० ९५| मार्गणं-अन्वयधर्मलोचनम् । औप० ९९ । मार्गणंअन्वेषणम् । जीवा० १९ प्रज्ञा० ५०१ भग० ६६३ | मार्गणं-इह वल्लयुत्सर्प णादयः स्थाणुधमा एव प्रायो घटन्ते इत्यादयन्वयधर्मालोचन रूपम्। ज्ञाता० ११। मार्गण सद्भूतार्थविशेषाभिमुखमेव तद् र्ध्वमन्वयव्यतिरेकधर्मान्वेषणं तद्भावः । नन्दी० १७६ । मार्गणं-अन्वयधर्म्मालोचनम्। भग० ४३३| मग्गणा मार्गणा - अन्वेषणा । ओघ० १७० | मार्गणा - अन्वयधर्मान्वेषणा । नन्दी. १८७ मार्गणाअन्वयधर्मान्वेषणा आव० २८८ मग्गत- पृष्ठतः। आव० ३०६। मार्गतः-पुष्ठतः। ज्ञाता १६५ १९० | पत्थतो निशी ४६ आ मग्गत्थो - मार्गस्थः- सद्भिराचीर्णमार्गव्यवस्थितः। सूत्र॰ [61] २७३। मग्गद- मार्ग:- विशिष्टगुणस्थानावाप्तिप्रगुणः स्वरसवाहीक्षयोपशमविशेषस्तं ददातीति मार्गदः । जीवा. २५५1 मग्गदए मार्ग- सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकं परमपदपथं दयत इति मार्गदयः । सम० ४१ मार्गसम्यग्दर्शनजानचारित्रात्मकं परमपदपुरपथं दयत इति मार्गदयः । भग० ९॥ मग्गदेसिए - मुक्तेर्देशितो जिनैः कथितः मार्गेदेशितः । उत्त० ३३९| मग्गफल मार्गफलं तमेवप्रकर्षास्थं क्षायिकदर्शनादि । उत्त० ५८३ । मार्गफलं चारित्रम् । उत्त० ५८३ | मार्गफलंज्ञानम् उत्त० ५८३ मार्गफलं क्षायिकदर्शनादि। उत्तः ५८३ | मग्गमाण- मार्गयन्-अन्वयधर्म्मपर्यालोचनतः। ज्ञाता ७९ । मग्गर- म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा० ५५| मग्गह- याचध्वम् । आव० १२७ । मग्गातिकंत मार्गातिक्रान्तः- अर्द्धयोजनमतिक्रान्त आहारः । भग० २९२ मग्गी- मार्गयन्- गवेशी प्रश्न. ३७॥ मग्गुगा- मद्गु-जलकाकः । बृह० ३२अ । मग्गुगा मद्गुकाः- जलवायसाः । जम्बू. १७२ "आगम- सागर- कोषः " [४] Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] मग्गोवसंपया- मार्गे देशनायोपसंपत् मार्गोपसंपत्। व्यव. २२९, २३२ ३७८ आ। निशी० २४१ । मच्छंडिआ- मत्स्यण्डिका-खण्डशर्करा। जम्बू. १९८१ मघमघंत- मघमघायमानं-अतिशयवान् गन्धः। ज्ञाता० मच्छंडिका- मत्स्यण्डिका खण्डविशेषः। प्रश्न. १५३। १२ मत्स्यण्डी-खण्डशर्करा। प्रज्ञा० ३६४| मघमघामान- बहुलसौरभ्यो यो गन्धः उद्धृतः-उद्धृतः। मच्छंडिया- मत्स्याण्डिका-शर्कराविशेषः। अनुयो० १५४। सम०६१। मच्छंडी- मत्स्यण्डी-खण्डशर्करा। जीवा० २७८१ मघमघेत- अनुकरणशब्दोऽयं मघमघायमानो खण्डशर्करा। अनुयो० ४७। बहलगन्धः। सम० १३८ मघमघायमानः। जम्बू. ५१ | मच्छंतं- मथ्यमानम्। प्रश्न. ५७ मघव- भरतक्षेत्रे तृतीयश्चक्रवर्ती। सम० १५२२ मघा- मच्छंध- मच्छबन्धो-मत्स्यबन्धः। ओघ. २२३। महाभेघास्ते यस्य वशे सन्ति स मघवान्-इन्द्रः। जीवा० मत्स्यबन्धः कैवर्तः। व्यव. २३१ आ। ३८८ मघवा-तृतीयक्रवर्ती। आव. १५९। मघा-महामे- मच्छंधले- मत्स्यबन्धविशेषः। विपा० ८११ घास्ते यस्य वशे सन्ति स मघवात्-इन्द्रः। भग० १७४। मच्छंधवाडए- मत्स्यबन्धपाटकः। विपा० ७९। मघा-महामेघास्ते यस्य वशे सन्ति स मघवान्। प्रज्ञा. मच्छ- मत्स्यः । प्रज्ञा० ४३। राहोःसप्तमं नाम। भग० १०१ १७५। मच्छः-राहुदेवस्य सप्तमं नाम। सूर्य २८७ मघा- मघाः-महामेघाः। भग० १७४। कृष्णराजेवितीयं मत्स्यः -अष्टमङ्गले पञ्चमं। जम्बू. ४१९। नाम। स्था०४३२ चच्छखल-मत्स्य खलम्। आचा० ३३४। मघावती- मघावती-कृष्णराजेः तृतीयं नाम। भग० २७१। मच्छखागा- समुद्रे जन्तुविशेषः। निशी० २७३ आ। मग-धर्मः- | जीवा. २ धर्भाभिधानम्। आव०४। मच्छपुच्छे- मत्स्यपुच्छ-मत्स्बन्धविशेषः। विपा. ८११ मगलं-मन्यते अना(न)पायसिद्धिं गायन्ति मच्छबंधा- मत्स्बन्धः धीवरः। ओघ.१८०१ मच्छबंधप्रबन्धप्रतिष्ठितं? लान्ति वाऽव्यवच्छिन्नसन्तानाः मत्स्यबन्धः कैवर्तः। व्यव० ३३०२८५। मच्छबंधंशिष्यप्रशिष्यादयः शास्त्र-मस्मिन्निति वा मङ्गलम्। मत्स्यबन्धः। प्रश्न.१३| उत्त० । मङ्ग्यते हितमनेनेति, मङ्गलातीति वा मच्छर- मत्सरः-परसम्पदसहनं सति वा वित्ते धर्मोपादानहेतुरित्यर्थः, मां गालयति-संसा त्यागाभावः। उत्त०६५६। कोहो। निशी० ७२ अ। रादपनयतीति। आव०४१ मच्छरिज्जइ-मत्सरायते। आव० २२४। मङ्गलपाठिका- प्रातः सन्ध्यायां देवतायाः प्रतो या मच्छरित-मत्सरित्वं-परगणानमसहनम्। प्रश्न. १२५ वादना-योपस्थाप्यते सा। जम्बू० ३८१ मच्छरीया- मात्सर्य-परोन्नतिवैमनस्यम्। आव०८३८1 मङ्गी- वादित्रम्। जम्बू० १३७ मच्छा- मत्स्याः -मीनाः। उत्त०७९ठ। मगु- मन्दश्रद्धाविषये मथायामाचार्यः। आव० ४३९। मच्छिय-माक्षिकं-मधुविशेषः। आव०८५४ मत्स्याःमङ्खलि- मङ्खः। भग० ३५९। पण्यं यस्य स मात्सिकः। प्रश्न. ३७ मच्चु- मृत्युः-यमराक्षसः। ज्ञाता० १६५। चतुरिन्द्रियजीवभेदः। उत्त०६९६| मच्चुमुहं- मृत्युमुखं-मरणगोचरम्। उत्त० २४८१ भच्छियमल्ल- मात्स्यिकमल्लः-सोपारकपत्तने मृत्युमरणं-मृत्युस्तस्य मुखमिव मुखं। मृत्युः मल्लविशेषः। आव०६६४। आयुःपरिक्षयस्तस्य मुख-मिव मुखं मृत्युमुखं भच्छिया- चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः। जीवा० ३२॥ शिथिलीभवबन्धनाद्यवस्था। उत्त० ३८८1 चतुरिन्द्रिय-भेदः। उत्त०६९६| मच्च-मृत्युः-प्राणवधस्य त्रयोदशमपर्यायः। प्रश्न०६। | मच्छुव्वत्तं- मत्स्योवृत्तं-एकं वन्दित्वा मत्स्यवद् द्रुतं मच्छडक- जलचरविशेषाण्डकम्। जम्बू० ३१| दवितीयं साधं दवितीयपाइँन रेचकावर्तेन परावर्तते मच्छंडि- मत्स्यण्डी-खण्डशर्करा। जम्बू० १०५। ज्ञाता० । तत्। कृतिकर्मणि अष्टमदोषः। आव० ५४४ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [62] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] मत्स्योवृत्तम्। आव० १८० देहिनोऽन्तःकरणम्। प्रज्ञा० १३३। मध्यः-मध्यमार्गः। मछिक्क- मच्छग्गाहगा। निशी० ४३ आ। जीवा० १०२। रयहर-णपट्टगो। निशी. ४८ आ। मज्ज- मेयः। आव० १८९। मयं-गुडधातकीभवम्। उपा० | मज्झगयावही- मध्यगतावधिः। प्रज्ञा० ५३७। ४९। मज्ज-पानविशेषः। आव० ८२८ मयं-सुरादि। मज्झजीहा- मध्यजीवा-जीवामध्यभागः। अन्यो. स्था० ३६१। मयं-काष्टापिष्टनिष्पन्नम्। उत्त० ६१९। १२९| ज्ञाता०२०९। मज्झत्थ- मध्यस्थः-आसंसारमसमतां मध्ये मज्जइत्त- मदीयः। उत्त०५२ अन्तर्भवतीति लोभः। सूत्र० ५२। मध्यस्थःमज्जमं- माद्यम्-सीध्वादिरूपम्। दह० १८८1 रागद्वेषयोर्मध्ये तिष्ठति यः सो मध्यस्थः, मज्जणं-सपरिग्रहस्त्रीणां वसन्तादौ पर्वणि अन्यत्र वा या जीवितमरणयोर्निराकाङ्क्षतया मध्यस्थः आचा० २९० जलक्रीडा, यदवा सामान्यतो मलदाहोपशमनार्थ-स्नानं मध्यस्थः-रागद्वेषेनाकलितः। प्रश्न. १३३। रागवेतत् मज्जनम्। बृह. ३२। षयोर्मध्ये तिष्ठतीर्ति मध्यस्थः। जीवा० ५८६) मज्जणधारगा- यत्रागत्य स्वेच्छया मज्जनं कुर्वन्ति मध्यस्थः-रागद्वेषवर्जितः। आव० ३३० माध्यस्थ्यंमज्जनगृ-हकाणि। जीवा. २००६ अनासेवनया रागद्वेषमध्यवर्तित्वम्। आव० ४७४। मज्जणघाती- मज्जनधात्री स्नापिका-धात्रीविशेषः। माध्यस्थ्य-समताम्। ज्ञाता० २१३। ज्ञाता० ३७ धातीविसेसा। निशी. ९३ आ। मज्झदेसभाग- मध्यदेशभागः। आव०४४३। मज्जणविही- मज्जनविधिः। आव० १२३। मज्झपएसा- ते जीवप्रदेशाः च सर्वास्यामवगाहनायां मज्जणीयं- पहातो जं परिहेति देवघरपवेसं वा करेंतो तं मध्यभाग एवं भवन्तीति मध्यप्रदेशाः। भग०८८७ मज्जणायं| निशी. १६२। मज्झमिया- मध्यामिका-मेघरथराजधानी। विपा. ९५ मज्जमंसासी- मद्यमांसाशी। आव० ५२० मज्झयार-मध्यकारः-मध्ये करणम्। जम्बू. ४५३। मज्जमाणी- मज्जन-स्नान्ती। ज्ञाता० ३३। मध्यकारः-मध्यभागः। बृह. १४८ आ। मध्यकारःमज्जांग-मदयाङ्ग-षोडश भागाः द्राक्षाः, चत्वारो भागाः मध्यभागः। बृह. १०८ आ। धातकीपुष्पविषयाः, आढक इक्षुरसविषयः इत्यात्मकं | मज्झिमं संथरणं-मध्यमं संस्तरण-मध्याह्नादारभ्य मदिराकारणम्। मद्याङ्ग-मदयकारणम्। उत्त० १४३। भिक्षार्थ-मवतीर्णानां पर्याप्तं हिंडित्ता मज्जाइय-पीतमयः। विपा० ८१। वसतावगतानामुक्तानां संज्ञातः संज्ञाभूमीत आगतानां मज्जार-मर्जारो-वायुविशेषः, या दिवसस्य चतुर्थीपौरुषी अवगाहवो एतत्। व्यव. विशलिकाभिधानवनस्पतिवि-शेषः। भग०६९१। १६३आ। मज्जारमडे- मार्जारमृतः-मृतमार्जारदेहः। जीवा. १०६) । मज्झिम- ततः परं यावत्सप्ततिरेकेन वर्षेणोन मज्जारयाई-हरितविशेषः। प्रज्ञा० ३३। वनस्पतिविशेषः। तावन्मध्यमः। व्यव. २४५ अ। मध्यम-न शोभनं भग०८०२२ नाप्यशोभनम्। ओघ० २१२। सप्तस्वरे चतुर्थः-मध्ये मज्जारी-मार्जारी। आव० १०२। कायस्स भावो मध्यमः। स्था० ३९३। फूलविशेषः। मज्जावका- ण्हावेंति जे ते मज्जावका। निशी. २७७। ज्ञाता० १९७। मध्यमः-मध्ये कायस्य भवः स्वरविशेषः। मज्झंतिओ- मध्यान्तिकः। जम्बू० ३४९। अनुयो० १२७। मध्यमा-ग्रामविशेषः। आव. २२६। मज्झंतिग- मध्यः। पिण्ड०७४। मज्झिमकुंभ- मध्यमकुम्भः-आढकाशीति निष्पन्नः। मज्झं मज्झेण- मध्यंमध्येन मध्येनेत्यर्थः। राज०२०। अनुयो० २५१| मध्यंमध्येन-मध्यभागेन। जम्बू. १४३। मज्झिमगाम- सप्तस्वरेषु द्वितीयो ग्रामः। स्था० ३९३। मज्झ-मध्यः-मध्यभागः। जीवा० २७० मध्यः मज्झिमरुअगवत्थव्वाओ- मध्यरूचकवास्तव्याब्रह्मदत्तस्य चतुर्थः प्रासादः। उत्त० ३८५ मध्यं- | मध्यभाग-वर्तिरूचकवासिन्यः। जम्ब० ३९१| मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [63] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] १२ मज्झिमा- मध्यमा। आव० ८५५ मज्झिल्ले माणखे संजूह- गङ्गादिप्ररूपणतः मडबप्रागुक्तस्वरूपे सरसि सरः प्रमाणायुष्कयुक्ते इत्यर्थः अर्द्धतृतीयगव्यूतमर्यादायामविदयमानग्रामादिकमिति 'संजूहे' त्त निकाय-विशेषे देवेः। भग०६७४। भावः, पार्श्वतोऽर्द्धतृतीययोजनान्तर्ग्रामादिकं न प्राप्यते मज्झेलोगस्स-लोकस्य मध्यं अस्य सकललोक तन् मडम्बम्। बृह. १८१ अ। मध्यवर्ति-त्वात् मेरूनाम। जम्बू. ३७५) अर्द्धतृतीयगव्यूतान्तामरहितं मडम्बम्। आव. २८५ मज्झोवत्थिए- माध्यस्थ्यं-समतामभ्युगतो व्रतगुह्णत सर्वतोऽर्द्धयोजनात् परेण स्थितं ग्रामं मडम्बम्। स्था० इति भावः। ज्ञाता०२१३।। २९४। मडम्ब-सर्वतोऽनासन्नसंनिवेशा-न्तरम्। प्रश्न. मज्झगडा- प्रथमतो गर्ताया मध्ये करीषः प्रक्षिप्यते ५। दूरस्थितसन्निवेशान्तरम्। प्रश्न०६९। तस्याश्च गर्तायाः पार्श्वेष्वपरा गर्ताः खन्यन्ते तास् च दूरस्थवसिमान्तरम्। ९२। मडम्बंगर्तास् तिन्द्का-दीनि फलानि प्रक्षिप्य मध्यमायां दूरवर्तिसन्निवेशान्त-रम्। ज्ञाता० १४०। अद्धाइज्ज करीषगायामग्निर्दीयते सा। बृह. १४२ आ। जोयणमज्झंतरे जस्स गोउ-लादीणि णत्थितं तडंबं। मज्झिष्ठा- रागविशेषः। जम्बू. १०८ निशी. २२९ अ। मडम्बंमञ्जिल-कोमलः। सम० १५७ अविद्यमानासन्ननिवेशान्तरम्। औप०७४ मडम्बंमट्टि- मृत्तिका, पृथ्वीकायः। आव० ५७३। अर्द्धतृ-तीयगव्यूतान्तर्यामरहितम्। जीवा० ४० मट्टिअ- मृद्गतः, कर्दमयुक्तः। दशवै० १७०| अर्द्धतृतीयगव्यूता-न्तामरहितानि मट्टिआ- मार्तिका-| आव० ३५६। ग्रामपञ्चशत्युपजीव्यानि वा। जम्बू० १२१। मडम्बंमट्टिओवलित्त- मृत्तिकोपलिप्तं-मृत्तिकाजंतु सर्वतो दूरवर्तिसन्निवेशान्तरम्। भग० ३६। अर्द्धगोमयत्वादिना उपलिप्तं सत्। प्रश्न० १५५ तृतीयगव्यूतान्त मान्तररहितं मडम्बम्। प्रज्ञा० ४८१ मट्ठ- मृष्टानीव-मृष्टानि सुकुमारशाणया पाषाणप्रतिमेव यस्य सर्वादिश्वर्द्धतृतीययोजनान्तर्यामा नास्ति। उत्त. शोधि-तानि वा प्रमार्जनिकयेव। सम० १३८। मृष्ठा- ६०५१ स्था० ८६। सर्वतो दूरवर्तिसन्निवेशान्तरम्। शुद्धा। जम्बू० ११५। मृष्टः-तैलोदकादिना येषां केशाः अनुयो० १४२। मडम्बः । सूत्र० ३०९। शरीरं वा मृष्टम्। अनुयो० २६। मृष्टम्। जीवा० १६१। मडगगिह- मेच्छाणं घरब्भंतरे मतयं छोढ़ विज्झति न मृष्टं-मसृणम्। जीवा० २७३। मृष्टं-सुकुमारशाणया डज्झति तं मडगगिह। निशी. १९२अ। पाषाणप्रतिमेव। प्रज्ञा० ८७। मृष्टं-मसृणीकृतम्। सूर्य | मडप्फरो- गमनोत्साहः। व्यव० २० अ। २९३। मृष्टः सुधादिखरपिण्डेन। आचा० ३६१। मृष्टः- मडभ- तत्कुब्णस्थानम्। प्रज्ञा० ४१२। मडभः-कुब्जः। श्रलक्ष्णः शुद्धो वा वर्णः। सूत्र० १४७। मृष्टः सुकारशानया। व्यव० २३१ आ। कुब्जः कुष्टव्याध्युपहतः। व्यव० औप० १०। मृष्टः सुकुमारशानया पाषाणप्रतिमेव। २८५ जीवा० २२९। मृष्टः-तुप्पोट्ठादि। ओघ०५५ मडम्ब- अर्द्धतृतीयगव्यूतान्तामरहितम्। जीवा० २७९। मट्ठकण्णेज्जणहिं-मृष्ठाभ्या-अचित्तवदभ्यां कर्णाभरण- उत्त० १०७ विशे-षाभ्याम्। उपा०३ मडयपूयणा- मृतकपूजना। आव० १२९। महगंड- मृष्टगण्डं-अल्लिखितकपोलम्। औप० ५० मडह- स्थूलत्वाल्पदीर्घत्वम्। उपा० २२॥ मष्टगण्डं-उल्लिखितकपोलम्। भग. १३२।। मडहकुटुं- मडभकोष्ठ, संस्थानविशेषः। आव० ३३७। महगंडतल- मृष्टगण्डतलं-घृष्टगण्डम्। उपा० २६।। | मडाई- मृतादी-प्रासुकभोजी- एषणीयादी च। भग० १११| महमगरा- मकरविशेषः। जीवा० ३६। प्रज्ञा० ४४। मडासयं- मडयं जत्थ मुच्चति तं मडासयं। निशी. १९२ मट्ठा- मृष्टा-शुद्धा। प्रश्न०८४मृष्टा-सुकुमारशाणया । पाषा-णप्रतिमावत्। जम्बू० २०। मृष्टा-मसृणा। ज्ञाता० । मडे- मरणे-आयुःपुद्गलानां क्षयः। भग० १६| मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [64] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] मड्ड- बलात्कारः। आव. ९५ बलः। आव० १७५, २२४। मणप्पब्भ- अनात्मवशग्रहगृहितः। निशी. ११७ अ। मड्डः-बालः। उत्त० १०१| मणप्पहास- मनःप्रहर्षकारी। अनयो०१३९। मड्डका- भूषणविधिविशेषः। जीवा. २६८ मणभक्खी- मनसा भक्षयतीत्येवंशीलो मनोभक्षी। प्रज्ञा० मण- मनः-मनस्कारः ५१० रूपादिज्ञानलक्षणानामुपादानकारण-भूतः। प्रश्न. ३१| मणयोगमनः-अन्तःकरणम्। आव० ५८५ मनः-चित्तं, औदारिकवैक्रियाहारकशरीरव्यापाराहृतमनोद्रव्यसङ्कल्पो वा। उत्त. २२७। मनः-स्मत्यादिशे साचिव्याज्जीवव्यापारः मनोयोगः। आव०६०६) षमतिभेदरूपम्। भग०६० मनं-चित्तम्। स्था० २४७ मणवलिय- मनोवलिकः-निश्चलमनः। प्रश्न. १०५ मनः-चित्तम्। स्था०४६६। मणविप्परियासिया- मनसाऽध्यपपातो मनोविपर्यासः मणआईणं निरोहो- मन आदीनां निरोधः तस्मिन भवा मनोवैपर्यासिकी। आव० ५७५ मनोवाक्कायाना-मकशलानामकरणं, मणसंकप्पा- मनसंकल्पाः -मनस्काः । जम्बू. २३२ कशलानामनिरोधश्च, त्रय एतेऽनगार-गणाः। आव. मणसंखेवो- मनःसंक्षोभः-चित्तचलनम्, अब्रह्मणो दशमं ६६० नाम। प्रश्न०६६। मणइच्छियचित्तत्थ- मनसः चित्तस्य, इप्सित- मणसमाहारणा- मनसः समिति-सम्यग् आङितिइष्टश्चित्रः अनेकप्रकारोऽर्थः मर्यादया-ऽऽगमाभिहितभावाभिव्याप्त्याऽवधारणास्वर्णपवर्गादिस्तेजोलेश्यादिषु यस्यां तत् व्यवस्थापनं मनः-समाधारणा। उत्त० ५९२१ मनईच्छितचित्तार्थः। उत्त०६०१ मणसमिए- मनःसमितः-कशलमनोयोगप्रवर्तकः। मणग- सिज्जंभवपुत्तो। निशी. २८ अ। मनाक्-ईषत्। जम्बू. १४८१ दशवै. ११ मणसमन्नाहरणया- मनसःसमिति-सम्यक् अन्वितिमणगपिअर-मनकपिता-मनकाख्यापत्यजनकः। दशवै. स्वाव-स्थानुरूपेण आङिति मर्यादया १०| आगमाभिहितभावाभिव्याप्त्या वा हरणं-सक्षेपणं मनः मणगुत्त- मनोगुप्तः-अकुशलमनोयोगरोकधकः। जम्बू० समन्वाहरणं तदेव मनःसमन्वाहर-णता। भग०७२७। मणसा पउट्ठ- मनसा प्रदुष्टं वन्द्यो हीनः केनचिद् गणेन मणगुत्त- मनोगुप्तः-अकुशलमनोयोगरोधकः। जम्बू० | तमेव च मनसि कृत्वा सासूपो वन्दते तत्, कृतकर्मणि १४८१ नवमो दोषः। आव. ५४४१ मणगुत्ती मणसावेग- मणसा-चेतसा वा शब्दो विकल्पार्थो कलुसकिलिट्ठमप्पसंतसावज्जमणकिरियसंकप्पण- अवधारणार्यो वा। स्था० ४३। गोवणं मणगुत्ती। निशी. १७ अ। मणसिलाइ- मणशिलाका। प्रज्ञा० ३६४। मणदुक्कडा- मनोदुष्कृता प्रद्वेषनिमित्ताम्। आव० ५४८। । | मणसिलाग- मनःशिलाकः-चतुर्थो वेलन्धरनागराजःमणपज्जव- मनःपर्ययः-मनसि मनसो वा पर्ययः भुजग-राजः, भुजगेन्द्रः। जीवा० ३११| सर्वतस्त-त्परिच्छेदः। प्रज्ञा० ५२७। मनसि मनसो वा । मणसिलासमुग्गय- मनःशिलासमुद्गकः। जीवा० २३४। पर्ययः मनः-पर्ययः। मनांसि पर्येति-सर्वात्मना मणहर-मनांसि श्रोतृणां हरति-आत्मवशं नयतीति परिच्छिनत्ति मनःपर्यायं कर्मणोऽण् मनःपर्यायं, मनोहरः जम्बू० २४१ मनसः पर्यायाः मनःपर्यायाः। प्रज्ञा० ५२७। मणाग- मनाक्। आव० ३५९, ३८४। मणपज्जवनाण- मनःपर्यायेषु ज्ञानम्, तत्संबन्धि वा मणाम- मनोऽममिति मनसामन्यं मनामम्। आव०७२६| ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानम्। आव० १६८1 ज्ञाता० १५२१ मन आपः-सदैव भोज्यतया जंतनां मनांसि मणप्पओस- मनःप्रद्वेषः चित्तुसयलक्षणः। उत्त० ३६८५ | आप्नोतीति। जीवा०४९। १४८ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [65] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] मणि- मणिः-मरकतादिः। उत्त. २६५। मणिः-इन्द्रनी- | मणिरत्नम्। जम्बू. २२५।। लादिः। उत्त० ३१६। मणिः-चन्द्रकान्तादिः। जीवा. मणिरयणकउज्जोय- मणित्नकृतोदयोतः। आव. ५५९। १६४। मणिः-चन्द्रकान्तादिकः। आव० १८४। मणिः- मणिलक्खण- कलाविशेषः। ज्ञाता० ३८५ पारिणामिक्याम्दाहरणम्। नन्दी. १६७। चन्द्रकान्तादि, मणिवंशय- मणिः-मणिमयो वंशो यस्य तत् स्थूलसमुद्भवः। आव० २३० मणिः- चन्द्रकान्तादिः। मणिवंशकम्। जीवा० ३६० भग. १६३। स्थलजाता मणयः। जम्बू. १२४। मणिवइया- जम्बूभरते नगरी। निर० ३६। मणिअंगा- मणिमयानि आभरणान्याधेये मणिवई- माणिभद्रगाथापतिवास्तव्यं नगरम्। निर० ३६। आधारोपचारान्मणीनि तान्येवाङ्गानि-अवयवा येषां ते | मणिवया- मणिपदनगरी, मित्रराजधानी। विपा. ९५ मण्यङ्गाः-भूषणसम्पादकाः। जम्बू० १०५ मण्यङ्गाः- मणिसिलागा- मणिशलाका-एकोरुद्धीपे द्रुमगणविशेषः। आभरणदायिनः। सम०१८ जीवा० १४६। मणिशलाका। जम्बू. १००। मणिश-लाकामणिकम्म-विचित्रमणिनिष्पादितस्वस्तिकादिः। आचा. मणिशलाकेव सुरा। जीवा० ३५१| ४१४॥ मणी- मणिः-चन्द्रकान्तादि। प्रश्न० ३८१ मणिः-चन्द्रकामणिकाञ्चनकूट- नीलवर्षधरपर्वतेऽष्टमकूटः। स्था० ७२। न्तादिः। सूर्य. २६३। मणिः-चन्द्रकान्तादि। प्रज्ञा०९७। मणिकार- मुक्तिमाकाशे प्रक्षेपकः। नन्दी. १६५। सूर्य-मणी। निशी. २५४ आ। मणिः-चन्द्रकान्तादिः मणिजाल- मणिसमूहः भूषणविधिविशेषः। जीवा. २६८ | उद्योतकृत्। आव०४९७। मणिणाग- मणिनागः-नागविशेषः। आव० ३१८१ मणु-मनुशब्दो-मनुष्यवाची। प्रज्ञा०४३। मणिनागः-नागविशेषः। उत्त० १६७ एकसागरोपमस्थि-तिकं विमानम्। सम०२ मणित- मणितं-रतकूजितम्। ज्ञाता० १६८। मणुअ-मर्त्यः-मनुजः। स्था० ४६६) मणिदत्त- मेघवर्णोद्याने यक्षायतनम्। निर०४०। | मणुअलोअ- मनुष्यलोकःमणिनाग- राजगृहे नदविशेषे नागविशेषः। स्था० ४१३। अर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रपरिमाणः। आव० ३१| मणिपीठिका- मणिमया पीठिका। जीवा० २२३। मणुग्घाय- आचाराङ्गस्य सप्तविंशतितममध्ययनम्। मणिपुर- नागदत्तगाथापतीनगरम्। विपा. ९५१ उत्त० ६१७ मणिपेढिया- पीठिकाविशेषः। स्था० २३० मणुणसंयओगसंवउत्त- मनोजसंप्रयोगसंप्रगुक्तः। औप० मणिप्पभ- मणिप्रभः-अज्ञातोदाहरणे धारिण्याः साध्व्या ४३ जातः पुत्रः, अजितसेनस्य पुत्रत्वेन प्रसिद्धः। आव. मणण्ण- मनसः इष्टं मनोज्ञम्। आव०७२६। मनोज्ञः६९९| मनोऽ-नुकूलः। जम्बू० २४१ मणिप्पभोभास- मणिप्रभयाचितः। मरण । मणुण्णा- मनोज्ञता-सामान्येन कमनीयता, अथवा मणिमेखला- रत्नकाञ्ची। ज्ञाता० २७। यथाभि-प्रायमनुकूलता। दशवै० २११। मणियंगा- भूषणदायकवृक्षविशेषः, अष्टमकल्पवृक्षः। मणुन्न- मनोज्ञम्। सूर्य० २९३॥ मनोज्ञः-विपाकेऽति स्था० ५१७। मण्यङ्गाः-मणीनां सुखज-नकतया मनःप्रह्लादहेतुः। जीवा० ४९। आभरणभूतानामङ्गभूताः-कार-णभूता मणयो वा मणुमइया- मनुमतिका-सर्वविरक्तताविषये अगानि-अवयवा येषां ते मण्यङ्गाः-भूष देवलास्तराजस्य दासी। आव०७१४१ णसम्पादकोः। स्था० २९९। मणुयलंभ- मनुष्यलाभः। आव० ३४५१ मणियए- मणियुक्तम्। आव० ५६०| मणुया- मनुर्जाता मनुजा-मनुष्याः। स्था० २२॥ मणियाए- मणिकारः-परलोकफलविषये श्रेष्ठी। आव० मणुस्स- मनोरपत्तयं-मनुष्यः। प्रज्ञा० ४३। मनोरपत्यं ८६३ | मनु-ष्यः। जीवा० ३३। मनोरपत्यं-मनुष्यः। उत्त० ६४४। मणिरयण- चक्रवर्तेः षष्ठमेकेन्द्रियं रत्नम्। स्था० ३९८१ | मणुस्सखेत्त- मनुष्यक्षेत्रः-मनुष्योत्पत्त्यादि मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [66] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] विशिष्टाकाशखण्डः चतुर्थी राजधानी। स्था० २३१। मल्लिजिनस्य पञ्चचत्त्वारिंशद्योजनलक्षणप्रमाणः। स्था० ९९। शिबिकानाम। सम० १५१। मनोरमामणुस्सदेवदुग्गई- मनुष्यदेवदुर्गती दक्षिणपूर्वरतिकरपर्वतस्योत्तरस्यां शक्रदेम्लेच्छकिल्विषिकत्वादि-लक्षणः। उत्त०४७९| वेन्द्रस्याजुकाया अग्रमहिष्या राजधानी। जीवा० ३६५ मणुस्समड- मनुष्यमृतः-मृतमनुष्यदेहः। जीवा० १०६| मणोरमाइं- रम्यतया मनोरमाणि। सम०१६) मणुस्सरुहिर- मनुष्यरुधिरम्। प्रज्ञा० ३६१| मणोरह- मनोरथः नालन्दायाः समीपे उद्यानविशेषः। मणोगए- मनोगतं-मनसि गतम्। भग. ११६। मनोगतः। सूत्र० ४०७। तृतीयदिवसनाम। जम्बू. ४९०| मनोरथःविपा० ३८। मनोगतं-मनसि गतो-व्यवस्थितः। जीवा. ब्रह्म-णविशेषः। आव० ३४८१ २४२। मनोगतं-मनस्येव यो गतो न बहिर्वचनेन मणोविन्भमो- मनोविभ्रमः-चित्तभ्रान्तिः। प्रकाशितः। जम्बू० २०३।। ब्रह्मचर्यमनपालयामि नवेत्येवं रूपं शृङ्गारप्रभवं मणोगत- मनोगतः-अबहिःप्रकाशितः। ज्ञाता० २९। मनसोऽस्थिरत्वम्। प्रज्ञा० ५३८५ मणोगम-मनोगमः-देवविमानविशेषः। औप०५२। मणोबलिय- मनोबलिकः-मानसावष्टम्भवान्। औप० २८। मणोगुलिआ- मनोगुलिका पीठिका। जम्बू. ३२६। मनोगु- | मणोसिला- मनःसिला। आचा० ३४२। मनःशिला। उत्त. लिका-पीठिकाविशेषरूपा। जम्बू०८१| मनोगुलिका- ६८९। मनःशिला-पृथ्वीभेदः। आचा० २९। जीवा० १४० पीठिका। जीवा० २१३। मनोगुलिका-पीठिकाविशेषरूपा। मनःशिला-बादरपृथ्वीकायभेदः। प्रज्ञा० २७। चतुर्थो जीवा. २३४| मनोगुलिका-गुलिकापेक्षया प्रमाणतो मह- वेलंधरनागराजः। स्था० २२६। तीतरा। जीवा० ३६३। मणोहर- मनोहरः-तृतीयदिवसनाम। सूर्य. १४७ मनोहरमणोगुलिया- पीठिका। जम्बू० ५८पीठिका। राज० ७०, आक्षेपकरः। सम०१६) ८८, ९ मणोहरा- मुनिसुव्रतस्वामिनः शिबिका। सम० १५१। मणोज्ज- गुल्मविशेषः। प्रज्ञा० ३२ मण्डक- द्रव्यविशेषः। ओघ. १६८१ मणोज्जगुम्मा- मनोऽवद्यगुल्माः। जम्बू. ९८५ मण्डकादि- वल्लचणकादि। बृह. २५७ अ। मणोदव्व- मनसः सम्बन्धि योग्यं वा प्राप्य मनोद्रव्यं मण्डप- द्राक्षामण्डपकः। जीवा. १८८ मनो-द्रव्यपरिच्छेकोऽवधिः। आव० ३६) मण्डल- देशः। उत्त० ३७७। श्र्वा। दशवै० १६७। ज्योतिष्कमणोमाणसिय- मनसि जातं मानसिकं मनस्येव यद् मार्गः। सम० ५६। तथाविधचारभूमिः। सम०७५ वर्तते मानसिकं-दुःखं विषयः। प्रश्न. ४६। देशः। स्था० ३४३। इङ्गितं क्षेत्रम्। वचनेनाप्रकाशित्वान्मनोमानसिकं रहस्यी-करोषि स्था० ३९९| चतुर्थं योधस्थानम्। आचा० ८९। गोपयसीत्यर्थः। ज्ञाता०२८१ योधस्थानम्। स्था० ३॥ यत्र प्रतिबिम्बसंभूतिः। जम्बू. मणोरम- मनोरमः- यानविमाणकारी देवविशेषः। जम्बू. 40। बलदेव-वासुदेवद्वयद्वयलक्षणाः समुदायाः। सम० ४०५। मनांसि देवानामपि अतिसुरूपतया रमयतीति १५६| मनोरमः, मेरुनाम। सूर्य.७८। मनदरम मण्णा- शकुनिका। निशी० ४४ आ। रुचकदीपेअपरार्द्धाधिपतिर्देवः। मनोरमः- मिथिलायां मण्णामि- मन्ये-अवबुध्ये। भग० १४२॥ चैत्यविशेषः। उत्त. ३०९। ब्रह्मलोककल्पे मण्णिहिति- मंस्यति। आव० ५१५) विमानविशेषः। निर०४०। शीबिकाविशेषणम्। ज्ञाता० | मण्णुइत्तो- मन्युयितः। उत्त० १९३। १५१। देवविमा-नविशेषः। सम०१७। मनोरम मण्यङ्गक-दूमगणविशेषः। जीवा. २६८ वीरपुरनगर उद्यानम्। विपा० ९५ मण्हो- मसृणः। औप०१० मणोरमा- मनांसि देवानामपि, अति सरूपतया रमयतीति | मतंगय- मताङ्गकाः-मयकारणभूताः। सम० १८१ मनोरमः, मेरुनाम। जम्ब० ३७५। शक्राग्रमहिषीणां मत-समान एवागमे आचार्याणामभिप्रायः। भग०६२ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [67] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] मतः। आव० ३०३ ओघ० १६७। मात्रं-मात्रायुक्तं कॉस्यादिभाजनं मतङ्गओ-मताङ्गकः-मद्यविधिनोपपेतो दूमविशेषः। भोजनोपकरमित्यर्थः। स्था० १२० मत्तः-मदकलितः। जीवा० २६५ जीवा. १२श मात्रकःस्थाल्यादिः। ओघ. १७० भायणं। मतानुज्ञा- निग्रहस्थानम्। सूत्र० ३८६) दशवै. ९९ आ। मात्रं-कुण्डलिकादि। ओघ०१६८ आचा० मति- मतिः-सम्यगीहापोहरूपा। जीवा० १२३। मतिः- ३४२मात्रं-भाजनं शीतोदकं वा। आचा० ३४६। मात्रासंवेदनम्। नन्दी० १०८ स्वसमुत्था मतिः। निशी० ८१ परिच्छदः। स्था० १२०। मात्रा-प्रमाणम्। जम्बू० २८५) आ। मतिः-अपायधारणम्। अन्यो० ३६। अपायो मात्रा-परिच्छदः। भग०६२१| निश्चयः इत्यर्थः। सम० ११५ मतिः-अवग्रहादिका। | मत्तओ- मात्रकः। आव०४१२। प्रश्न.१०७ मत्तग- मात्रकं-समाधिः। आव. २६८। मतिज्ञान- उत्पन्नार्थग्राहकं साम्प्रतकालविषयम्। प्रज्ञा० मत्तगतिग- श्लेष्मप्रश्रवणोच्चारमात्रकत्रिकम्। बृह. ५३० २४३ मतिभंगदोस- मतिभङ्गः-विस्मृत्यादिलक्षणो दोषः मति- | मत्तजला- नदीविशेषः। स्था०८०१ मत्तजला नदी। भङ्गदोषः, द्वितीयो दोषः। स्था० ४९२ जम्बू० ३५२ मतिविभमः- चिकित्सा, युक्तागमोपपन्नेऽप्यर्थे फलं मत्तभज्जिओ- मृतभार्यः। उत्त०८५ प्रतिसं-मोहः। आव० ८१५१ मत्तय- मात्रकम्। आव० ५१३। मात्रकम्। उत्त० ९७। मतिसम्पत्- अवग्रहेहापायधारणरूपा चतुर्धा सम्पत्। भायणं| निशी० ३८ अ। उत्त० ३९ मत्तयतिगं- खेलकाइयसण्णा। निशी. १८१ अ। मती- मतिः-आचारसम्पदः। व्यव० ३९१ अ। मतिः- मत्ता- कण्णस्य अहो महंता गलसरणी। निशी. २१६ अभिनिबोनिबोधिकम्। स्था० ३६३। आ। मात्रा-अल्पता। आचा० १२३। मात्रा-शब्दलक्षणमत्कुण-दंशमशकभेदः। सम०४१। तेन्द्रियजीवविशेषः। वाची। निशी० ९२ आ। मत्वा-ज्ञात्वा। आचा०६२ थोवे प्रज्ञा. २३ परिणामे य। दशवै० ६० अ। मदिरामदभाविताः। बृह. मत्कोटक-दंशमशकभेदः। सम०४१। १३८ आ। मात्रा-आकारभावातिरिक्तपरिमाणान्तमत्तंग- मत्ताङ्गः-वृक्षविशेषः। आव० ११० रप्रतिपत्तिव्यदासार्थः, मत्तंगता- मत्तं-मदस्तस्याङ्ग-कारणं मदिरा प्रतिबिम्बातिरिक्तपरिणामान्तरव्युदा-सार्थः। प्रज्ञा. तद्ददातीतिमत्तं-गदा। स्था० ५१७ ३७२। मात्रा-परिमाणम्। उत्त० ८४। मत्तंगया- मताङ्गकाः मत्तं-मदस्तस्य मत्ताग्गाही- मात्रग्राहिणी। बृह. ५८ आ। कारणत्वान्मद्यमिह मत्तदशब्देनोच्यते, मत्तियावई- मृत्तिकावती-दशार्णजनपदार्यक्षेत्रम, तस्याङ्गभूताः-कारणभूतास्तदेव वाऽङ्ग अवयवो येषां । राजधानी। प्रज्ञा. ५५ तेऽङ्गकाः सुखपेयमयदायिनः। स्था० ३९८१ मत्तेल्लओ:- मत्तः। आव. २०३। मत्तंगा- मत्तं-मदस्तस्याङ्ग-कारणं मदिरारूपं येषु ते मत्थ- मस्तकं-उपरितनभागः। जम्बू. २२१| मत्ताङ्गानाम द्रुमगणाः। जम्बू. ९९। मत्थएण वंदामि- मस्तकेन वन्दामि। आव०७९३। मत्त- मत्तः पीतमद्यतया। ज्ञाता०८१। मदवन्त। मत्थकड- मस्तककृतम्। भग० ४३६) ज्ञाता० २२१। मदः। स्था० ५१७। मत्तः-मदः। जम्बू. मत्थय- मस्तकं-प्टम्। भग० ४६२। मस्तकम्। आव० ९९। मात्रा-मात्रया युक्त उपधिः। भग० ९४१ दप्तः। ७०३ उत्त. २४६। मदिरादिना मत्तः। आचा० १५२। मात्रं- | मत्थयधोया-धौतमस्तका अपनीतदासत्वा। ज्ञाता० ३७। कांस्यभाजनम्। भग० २३८ मात्रं भाजनविशेषः। भग० । | मत्थयसूल- मस्तकशूलम्। भग० १९७) ३९९। मदकलितः। जीवा० १२२॥ मात्रकः-कुण्डलिकादिः। | मत्थुलिंग- मस्तुलिङ्ग-शेषं भेदः फिप्फिसादि, मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [68] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] कपालमध्य-वतिभेज्जकमित्येके। स्था० १७० मदनत्रयोदशी-तिथिविशेषः। भग० ४७६। प्रश्न. १४० भेज्जम्। तन्दु। मदनफल- वमनकारकं फलम्, आचा० ३१३॥ मत्थुलुंग- मस्तकभेज्जकम, भेदः मदनशलाका- शारिका, कोकिला वा। जीवा. १८८1 फिप्फिसादिमस्तुलुङ्गम्। भग० ८८1 मस्तुलिङ्ग- मदुग्ग- मद्गवो-जलवायसः। भग० ३०९। कपालभेज्जकम्। प्रश्न०८ मद्द- हठः। बृह. ३० आ। मत्यज्ञान- अविनष्टार्थग्राहकं साम्प्रतकालविषयम्। मद्दणा- मर्दना-ग्रामविशेषः। आव० २१० प्रज्ञा०५३० मद्दव- मार्दवं-अनुच्छ्रितता। दशवै० २३४। मार्दवं-अहङ्कमत्स्य- उदकाश्रितजीवविशेषः। आचा० ४६। पञ्चेन्द्रिय- तिजयः। भग० ८१। मृदवः-अलसतया कार्याकरणम्। जीवः। प्रज्ञा० २३। उत्त० ५४९। मार्दवं-माननिग्रहः। ज्ञाता०७१ मत्स्यण्डी- खण्डशर्करा। जीवा. २६८। मद्दवत्त- मार्दवत्वं-भावनम्रता। आव. २६४। मत्स्यबन्धपुत्र- शारिकदत्तः। स्था० ५०८। मद्दवय- मार्दवः। उत्त० ५९१। मत्सयाण्डक-नाट्यविशेषः। जम्बू०४१४। मद्दवया- अणुस्सितया। दशवै० १२४ आ। मत्स्याण्डकप्रविभक्ति- मकराण्डकप्रविभक्ति मद्दविया- मार्दवेन चरन्ति मार्दविका, शतकृत्त्वोऽपि जारप्रविभ-क्तिमारप्रविभक्त्यभिनयात्मको गुरुप्रेरिता न सम्यगनुष्ठानं प्रति प्रवर्तन्ते किन्त्वलसा मत्स्याण्डकमकराण्डक-जारमारप्रविभक्तिनामा एव। उत्त० १४९। चतुर्दशनाट्यविधिः। जीवा. २४६। मदुए- मट्कः-श्रमणोपासकः। भग० ७५० मथियं-मथितं-दधीव विलोडितम्। प्रश्न. १३४। मयं- मज्जानम्। व्यव० ४१६अ। मथुरा- ऋद्धिरससातगौरवदृष्टान्ते पुरीविशेषः। आव. मद्यव्यसनं- मद्यपानकेन मूर्ध्निम्। बृह० १५७ अ। १७९| निर्जलभूभागभावि स्थलपत्तनम्। उत्त०६७६| | मधु- मद्यविशेषः। जीवा० ३५१। खण्डं, शर्करा वा। जीवा० स्कंदिला-चार्यप्रमुखश्रमणसङ्घकृतवाचनास्थानम्। ર૬૮ नन्दी०५१। जउण-नीवनगरी। निशी० ४१ अ। मधुक- महावृक्षम्। जीवा० १३६] क्षपकातापनस्थानम्। व्यव० ११५आ। मधुकरवृत्ति-भ्रमरवृत्तिः। उत्त०११७ भण्डीरयक्षयात्रास्थानम्। निशी० ७८1 अ। बृह. १६० मधुकरवृत्त्या - भ्रमत इहमेव। उत्त०६६७ आ। अव्यक्तबालमुक्त्वा निष्क्रान्तवणिक्वास्तव्या मधुगुलिया- मधुगुटिका-क्षौद्रवटिका। स्था० २०९। नगरी। व्यव. १९९ अ। नगरीविशेषः। व्यव. १४६ अ। | मधुर- सुखावहः। निशी० १०९ अ। निशी. २७८ अ। सूत्र० ३४३। दक्षिणा उत्तरा च पुरीद्वयविशेषः। आव० पञ्चमरसः। प्रज्ञा० ४७३। मधरस्वरं, कोकि-लारुवत्। ३५६। मन्दश्रद्धाविषये नगरी, यत्र मङ्ग्राचार्यः। आव. स्था० ३९६। त्रिधा शब्दार्थाभिधानतः। स्था० ३९७ ५३९। यत्र साधुभगिनीदा-सीभूता। बृह. २४२आ। श्रवणमनोहरम्। अनुयो० २६२। तृणफलम्। अनुयो० मथुरापुरी- नगरीविशेषः। बृह० २७६ आ। १७२। मथुरावाणिओ- मथुरावणिक, रहस्याभ्याख्याने वणिग्- मधुरतृण- तृणविशेषः। दशवै. १८५१ विशेषः। आव० ८२१। मधुररसा- वनस्पतिविशेषः। भग०८०४। मद-मदः-हर्षमात्रम्। भग० ५७२। मधुरवचनता- मधुरं रसवत् यदर्थतो मदणा- बलीन्द्रस्य पञ्चमाऽग्रमहिषी। भग० ५०३। विशिष्टार्थवत्तयाऽर्थाव-गाढत्वेन सोममहा-राज्ञो द्वितीयाऽग्रमहिषी। भग० ५०५ शब्दतश्चापरूषत्वसौस्वर्यगाम्भीर्यादिगणोपेतत्वेन मदन-कामः। नन्दी० १५५१ श्रोतुरालादमुपजनयति तदेवंविधं वचनं यस्य स तथा मदनकामा- मोहनीयभेदवेदोदयात् प्रादुष्यन्ति। आचा. तद्भवो मधुरवचनता। उत्त० ३९| १३५ | मधुराकोंडइल्ला- भावसुण्णा, परपितिणिमित्तं मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [69] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] बाहिरकिरिया सुड्डु उज्जुत्ता निशी० ०८३अ मधुला पादगण्डम् बृह० २२४ आ मधुसित्य मधुयुतं सित्थं । नन्दी० १५५| मधुसित्थु मदनम् । स्था० २७१ मधूक वृक्षविशेषः । पुष्पविशेषः । सूर्य० १७३ | मधुरं कलम्। ज्ञाता० २५ मध्यजीवा- जीवाया मध्यभागः । स्था० ३९५| मध्यदेश- गुर्जरादि। अनुयो० १३९ । मध्यप्रदेश देशः । दशवै० २८१ । मध्यम- आद्यन्तयोश्चान्तरम् । अनुयो० ५४ । सप्ततिरेकोनच वर्षेणोना तावत्। व्यव० ३०२अ उभयप्रकृतिः तीव्र-मन्दरूपः आव०८ मध्यमबुद्धिः यथोक्तं सामर्थ्यमवबुध्यते, द्वितीयो विनयः । प्रज्ञा० ४२५| - आगम - सागर - कोषः ( भाग : - ४) मध्यमरुचक- रुचकद्वीपस्याभ्यन्तरः । ज्ञाता० १२७| मध्यमा- सोमिलवास्तव्यानगरी । आव० २२९ | मध्याश्रवत्व- मधुवन्मधुरवक्ता । आचा० ६८ लब्धिविशेषः । स्था० ३३ मन मनः औदारिकादिशरीरव्यापाराहृतमनोद्रव्यसमूहसाचि व्याज्जीवव्यापारः स्था० २०१ मनः पर्याप्ति- यया पुनर्मनः प्रायोग्याणि दलिकान्यादाय मन-स्त्वेन परिणमय्यालम्ब्य मुञ्चति सा मनःपर्याप्तिः । बृह० १८४ आ । मनः पर्यायज्ञानजिन विशिष्टमनः पर्यायज्ञानधरः जिनः । आव० ५०१ | मनः पर्यायाः- मनसः पर्यायाः मनःपर्याया मनोभेदा-मनोधर्माः बाह्यवस्त्वालोचनप्रकाराः । नन्दी ६६ | मनपज्जव - मनसि मनसो वा पर्यवः मनपर्यवः सर्वतस्त परिच्छेदः । आव० ८ मनपज्जवनाणं मनः पर्यायं च तत् ज्ञानं मनः पर्यायज्ञानं यदि वा मनसः पर्यायाः मनः पर्यायाः, पर्यायाः धर्माः बाह्यव-स्त्वालोचनप्रकारा इत्यनर्थान्तरं तेषु तेषां वा सम्बन्धि ज्ञानं मनः पर्यायज्ञानं उदं चार्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रान्तर्वर्तिसंज्ञिमनोग , तद्रव्यालम्बनम् । प्रज्ञा० ५२७ | मनपसिणविज्जा- मनःप्रश्नविद्या: मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] मनः प्रश्नितार्थोत्तरदायिन्यः । सम० १२४ | मनसिकरणं चेतसि करणं, अनुजानितां यस्यावग्रह इति मनस्येवानुज्ञापनम् । बृह० ११९ अ । मनस्कार रूपादिज्ञानलक्षज्ञानामुपादानकारणभूतो यमाश्रित्य परलोकोऽभ्युपगम्यते बौधैः प्रश्न. ३१ मनांसि - मनस्त्वेन परिणमितद्रव्याणि । अनुयो० २ मनुज - पञ्चेन्द्रियजीवविशेषः । प्रज्ञा० ९ । मनुष्यपक्षाः यक्षभेदविशेषः । प्रज्ञा० ७०| मनुष्यानुपूर्वी आनुपूर्व्याः तृतीयो भेदः । प्रज्ञा० ४७३ मनुस्सदुग- म्लेच्छबोधिकादीनां मनुष्याणां भयं तन् मनुष्यदुर्ग। बृह॰ २२९ अ । मनोगुलिया मनोगुलिका जीवा० २३०१ मनोज कोमलम् जीवा. १८८ मनोज्ञा:- संविग्नाः । ओघ० १२० | मनोदुष्प्रणिधान प्रणिधानं प्रयोगः दुष्टं प्रणिधानं दुष्प्रणिधानं, मनसो दुष्प्रणिधानं मनोदुष्प्रणिधानं कृतसामायिकस्यगृहस-त्केतितकर्तव्यता सुकृतदुष्कृतपरिचिन्तम्, सामायिकप्रथमोऽतिचारः । आव० ८३४ | मनोभक्षण- आहारविशेषः ये तथाविधशक्तिवशात् मनसास्व शरीरपुष्टिजनकाः पुद्गलाः अभ्यवह्रियन्ते, यदभ्यवरणानन्तरं तृप्तिपूर्वः परमसन्तोष उपजायते । प्रज्ञा० ५१०| मनोयोग:- औदारिकवैक्रियाहारकशरीरव्यापाराहृतमनोद्रव्यसमूहसाचिव्याज्जीवव्यापारः । आव० ५८३ | मनोरमा वापीनाम। जम्बू• ३७०| किन्नरभेदविशेषः ॥ प्रज्ञा० ७०| महोरगभेदविशेषः । प्रज्ञा० ७० | मन्त्र- एकत्वे दृष्टान्तः स्था• २५ पुरुषदेवताधिष्ठितः पठितसिद्धो वा मन्त्रः । बृह० २०३ आ मन्त्रगृह- गुह्यापवरकः । दशवै० १६६ । मन्त्रणं सामर्थ्यम्। प्रश्नः ५३ ॥ [70] मन्द मनाक् । आचा० ३१४ मन्दः - अतिशुद्धः । आव २० मन्दर- मन्दरो नाम पर्वतः । जम्बू० ३५९| ऊर्ध्वलोके भागवर्त्तिः । प्रज्ञा० ७९ | ज्ञाता० १२८| मन्दरकूड- मन्दरकूट- नन्दनवने द्वितीयकूटनाम जम्बू. ३६७ मन्नंति- मन्यमानः । सूत्र० ४२४ | *आगम - सागर- कोष" (४) Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] मन्न- मतिः, मननं-मतिः स्खलत्प्रजल्पितम्। ज्ञाता०८१। मन्मनंकञ्चिदर्थपरिच्छित्तावपिसूक्ष्मध-र्मालोचनरूपा अव्यक्तमीषल्ललितम्। निर० ३० मन्मनं-यस्य बुद्धिरितियावत्, अथवा 'मन्ता' मन्नियव्वं (मनितव्यं) जल्पतः स्खलति वाणी। प्रश्न. २५। मन्मनःअभ्युपगमः। स्था० २११ अव्यक्तवान्। प्रश्न०४११ मम्मणः-अर्थसिद्धो मन्नक्खो - महद्दौर्मनस्यम्। बृह. २६० आ। मनुष्यविशेषः। आव०४१३। मन्नसी- मन्यसे-प्रतिजानीये। उत्त०५१० मम्मणवाणिओ-मम्मणवणिग्-अनिर्वेदेन सञ्चयेन मन्नामि- मन्यसे। प्रज्ञा० २४७) चार्थोपार्ज-नकारकवणिग। दशवै० १०७ मन्ने- मन्ये निपातो वितर्कार्थः। स्था० २४७ मन्यसे। मम्मुही- मृन्मुखी-जन्तोर्नवमीदशा। दशवै०८1 उत्त० ३२३। मन्ये-मन्यन्ते। दशवै. १९८१ मन्ये- मयंगतीर- मृतेव मृता विवक्षितभूदेशे तत्कालाप्रवाहिणी वितर्कयामि। ज्ञाता०८३। सा चासौ गङ्गा च मृतगङ्गा तस्यास्तीरं मन्य-क्रोधः। नन्दी. १५० मृतगङ्गातीरम्। उत्त० ३५४। मृतगङ्गातीरम्। उत्त. मन्युभर- क्रोधभरः। उत्त०६३ ३८३ मम- ममोपरि। ज्ञाता०१९०| माम्। सूत्र० ३०८१ मयंगतीरदह- मृतगङ्गातीरहृदः-मृतङ्गा यत्र देशे ममच्चं-मामकीनम्। आव० ५६५ गङ्गाजलं व्यूढमासीद। ज्ञाता०९१| ममज्जमाण- ममत्वमाचरन्। उत्त०४२ मय- मदः-कामोद्रेकः। उत्त० ४२८। मृतं-जीवविमुक्तमाममहुत्त- ममायत्तः। आव०८४८। त्रम्। ज्ञाता० १२९। मतं-समान एवागमे आचार्याणामभि ममाइ-ममत्ववान्। सूत्र. १९४१ प्रायः। भग०६२। मृतः-परासुतां गतः। ज्ञाता० ११, ११५ ममाइय- ममत्वम्-आत्मीयाभिधानम्। दशवै० १९६। | मयग- मृतकं-मृतं-जीवविमुक्तमात्रम्। ज्ञाता० १७३। ममा-यितं-मामकम्। आव०१४२। ममायितं-स्वीकृतं मयगहण- मतग्रहणं-अभिप्रायग्रहणम्। ओघ०७१। परिग्रहम्। आव० १४२। मामकम्। आचा. १४२ मयट्ठाणं-मदस्थान-मानस्थानम्। आव०६४६) ममाइयमइ-ममायितं-मामकं तत्र मतिर्ममायितमतिस्तां | मयण-मदन-कलविशेषः। आव०४२४। मदनः चित्रो यः परिग्रहविपाकज्ञः। आचा० १४२ मोहोदयः। दशवै०८५ मदनः। दशवै.८६| ममायए- ममायते-ममेति प्रतिपदयते। पिण्ड० ४३। मयणकाम- मदनकामः-मदयतीति मदनः-चित्रो ममायच्चो- ममाधीनः। निशी०४४ अ। मोहोदयः स एव कामः-मदनकामः। दशवै० ८५ ममायति-परिगेपति। द० ९९। ममेत्येवं कुर्वन्ति ममा- | मयणगिज्जे- मदनीयं-मदनोदयकारि। स्था० ३७५१ यते-स्वीकुर्वति। प्रश्न. ९४। ममायति मयणफल- मदनफलम्। दशवै. ९६। परिगृह्णन्ति(ति)। दशवै. २०३। मयणमिज्जा- मदनबीजम्। आव० ८१३। ममि-मामकम्। सूत्र० ३०८५ मयणसलागा- मदनशलाका-पक्षिविशेषः। आव०४२८१ ममेयंति- ममीकृते। निशी० ३१३ अ। मदनशलाका-सारिका। जम्बू. ३०| मदनशाका-लोममम्म- मर्म-प्रछन्नपारदोर्यादिदुश्चेष्टितम्। प्रश्न० १२१| पक्षिविशेषः। जीवा०४१। शारिका। जीवा. १८८1 मर्म-परापभ्राजेनाकारि कुत्सितं जात्यादि। उत्त० ३४५ लोमपक्षिविशेषः। प्रज्ञा०४९। मम्मण- द्रव्यप्रधानो वणिग्विशेषः। सूत्र० १०२॥ मयणसाला- मदनशाला-शारिका। प्रश्न. ३७। आतध्यायी धनवान्। वणिम्। सूत्र० १९४। अर्थार्जनपरो मदनसारिका। ज्ञाता० १०० व्यक्तिविशेषः। आव० ७७। साकाक्षो वणिग्विशेषः। मयणा- शक्रेन्द्रस्य तृतीयऽग्रमहिषी। स्था० २०४। उत्त० ३१६। मन्मनं-मन्मनमिव मन्मनं चास्फुटत्वात्, | मयणिज्ज-मदनीयं-मन्मथवर्द्धनम्। औप०६५। मदनीयं अधर्मदवारस्यैकविंशतितमं नाम। प्रश्न. २७ मन्मनः मन्मथजननात्। जीवा. २७८ मदनीयंयस्य वाचःस्खलन्ति। आव०६२८ मन्मन मन्मथजनकत्वात्। जम्ब०११९| मदनीया मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [71] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] मन्मथजननी जीवा० २५१| मयरंद मकरन्द निर्यासः पुष्परसः। दश- ६४१ मयहर- आभीरः | निशी० १३ अ । महत्तरः । आव० ७३८ । मयहरग महत्तरः अयं च महानयं महान, अनयोरतिशयने महान्। आव० ८४३ | महत्तरः प्रयोजनविशेषः आव-८४४१ आगम - सागर - कोषः ( भाग : - ४) मयहरगागारो- महत्तराकारः-महत्प्रयोजनः । आव ० ८४३ | मयहरिका- महत्तरिका - वृद्धाssर्या । उत्त० ३०१ | मयहरिया महत्तरिका आर्या आक ७०१। महत्तरिका। आव० २६२ प्रवर्तिनी । गच्छा०| मयहरीया महत्तरिका ज्ञाता० १२६| महारिया महत्तरिका। आव ०७१७ मयालि अनुत्तरोपपातिकदशानां प्रथमवर्गस्य द्वितीयमध्ययनम् । अनुत्तः । मयालिःअन्तकृदशानां चतुर्थवर्गस्य द्वितीयमध्ययनम् । अन्त० १४ | मयूरंक- नृपतिविशेषः। निशी० ८७ अ मयूर मयूरः :- लोमपक्षिविशेषः । जीवा० ४११ बहीं जीवा. १८८ मयूरग. मयूरक:-कलापवर्जित प्रश्न. ८ मयूरबंध - बन्धनविशेषः । उत्तः ५३ । बन्धविशेषः । उत्त० ४५६ | मयूरांगचूलिका- मयूरांगमय्यचूलिका आभरणविशेषः । व्यव० २२५ अ । मयूरा लोमपक्षिविशेषः प्रजा० ४९॥ मरक- दुरितविशेषः । भगन्न मरकत- रत्नविशेषः । आव० २५९ | जीवा० २३ ॥ मरगय मरकतः पृथिवीभेदः आचा० २९| प्रज्ञा० २७ मरकतः- मणिभेदः । उत्त० ६८९ । मरच्छा- सनखपदविशेषः । प्रज्ञा० ४५| मरणंत- मरणान्तः- मरणरूपोऽन्तो- विनाशो यस्मात्सः । मरणान्तः-दण्डादिघातः । भग० ७०२ | मरणान्तः-चरमकालः । दशवै० १८८ मरण मियन्ते प्राणिनः पौन पौन्येन यत्र चतुर्गतिसंसारे स मरणः । आक १२८ मरणं शोकायतिरेकेण मरणम्, असंप्राप्तकायस्य दशमो भेदः। दशवें. १९४१ मरणंप्रत्यागरूपम् । प्रज्ञा० ३ | मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [72] [Type text] मरणकालं - मरणावसानः कालो यस्य तत् तथा मरणकालः- अवसरो यस्य तत् । उत्त० ६०० | मरणेन वा कालो मरणस्य कालपर्यायत्वान्मरणकालः । भग० ५३३ | मरणभय- सप्तभयस्थानेषु षष्ठः । स्था० ३८९ | प्राणपरित्यागभयं सप्तमभयस्थानम्। आव० ४७२१ 1 मरणाद्भयम् । आव० ३४६ । मरणविभत्ति मरणानि प्राणत्यागलक्षणानि तानि च द्विधा - प्रशस्तान्यप्रशस्तानि च तेषां विभजनंपार्थक्येन स्वरू-पप्रकटनं यस्यां ग्रन्थपद्धतौ सा मरणविभक्तिः । नन्दी० २०५१ मरणासंसप्प ओग मरणाशंसाप्रयोगः आव० ८३९१ मरहट्ठ- महाराष्ट्र:- चिलातदेशवासीम्लेच्छविशेषः । प्रश्न. १४| मराक चतुरिन्द्रियजीवविशेषः । प्रज्ञा० २३॥ मराल - मरालः-गलिः । आव० ७९७ । मराली - मरालिः- म्रियत इव शकटादौ योजिते सति च ददाति लक्षादि लीयते च भुवि पत्तनेनेति, दुष्टाश्र्वो दुष्टगोणो वा उत्त• ४९॥ मरिच तिक्तरसवान्। प्रज्ञा० ४७३॥ मरिय - मरीचिः । आव० ३६० | मरी मरीचिः - इक्ष्वाकुकुलोत्पन्नो भरतसुतः । आव ० १०९ | मरीचिः । आव० १४९ | मरीईसमोप्पणा - मरीचिं समर्पणा - समारचना । जम्बू० २४२ मरीचि- उदात्तवर्णसुकुमारत्वचा युक्ता । जम्बू० ११७ मरीचि- किरणसङ्घातः। सूर्य० ४५ | मरुंडि धाइविशेषः । ज्ञाता० ३७| कोष्ठविशेषः । भग० ४६० मरुमि मरो मरुवालुकानिवहः । उत्तः ४५९ | मरुकः । आव• २६२॥ मरुकः- द्रव्यगर्हायामुदाहरणम् । आव. ४८६। मरूकः-ब्राह्मणः । आव० ५६१ | बम्भण्डः । ओघ० २०४ | मरुअ- मरुतः देवाव्यन्तरादयः। जम्बू॰ १९६। मस्अरायवसभकप्पे मरुतो देवा व्यन्तरादयस्तेषा राजान: सन्निहितादय इन्द्रास्तेषां मध्ये वृषभामुख्याः सौधर्मेन्द्रादयस्तत्कल्प-तत्सदृशः । जम्बू० १९६| "आगम- सागर-कोषः " (४) Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] ७० मरुग-मरुकः-चिलातदेशवासीम्लेच्छः। प्रश्न. १४॥ मरुयवसभकप्प- मरुवृषभकल्पः-देवनाथभूतः। ब्राहमणः। आव. २७३। मरुकः-धिग्वर्णः। दशवै. २५९। मरुतवृषभ-कल्पा वा-मरुद्देशोत्पन्नगवयभूतः। प्रश्न मरुगिणि- ब्राह्मणी। आव० ५५ मरुत- किंपुरुषभेदविशेषः। प्रज्ञा० ७०| मरुकः-ब्राह्मणः। | मरुया- वनस्पतिविशेषः। भग० ८०२। उत्त० २२५ मरु- मरु:- निर्जलदेशावयवविशेषः स्थल इति। औप०८८1 मरुतेल्ल- मरुदेशीयपर्वतोत्पन्नं तैलं मरुतैलम्। बृह. मर्कटक- वानरः। नन्दी०१५० २०९। मर्कटवर्ण- इषत्कृष्णवर्णः। जीवा० २७१। मरुत्-अग्नेः संज्ञान्तरम्। आव० १३५१ मर्कटस्थानीय- उभयोः पार्श्वयोरस्थिः । सम० १४९। मरुदेव- मरुदेवः त्रयोदशम कुलकरनाम। जम्बू. १३२॥ मर्जिका- रसालू। सूर्य. २९३। षष्ठः कुलकरः। आव० १११। सम० १५३। षष्ठः मईलः- उपर्यधश्च समो मृदङ्गविशेषः। जीवा० १०५१ कुलकरः। सम० १५०| स्था० ३९८१ मर्यादा- आचारः। स्था० ५१११ मरुदेवा-अन्तकृद्दशानां सप्तमवर्गस्याष्टममध्ययनम्। मल- उव्वट्टितो फिट्टति। निशी० १०८ आ। मलःअन्त० २५। नाभिकुलकरस्य पत्नी। जम्बू. १३५१ पूर्वबन्धं, निकाचितं, साम्परायिकं वा कर्म। आव० ५०७) मरुदेवा-यावत्सिद्धभावं वनस्पतौ दृष्टान्तः। आव० मलः-मलवदत्यन्तमात्मनि लीनतया मलः- अष्टप्रकारं ३७९। आराध-नाविषये ऋषभदेवमाता, कम। मलाश्रयत्त्वात् औदारिक शरीरं मलः। उत्त० अस्यामवसर्पिण्यां प्रथमः सिद्धः। आव०७२४॥ २१८ मलः-बद्धावस्थं रजः। औप. ५६। मल:देशविरत्यस्पृष्टौ दृष्टान्तः। आव० ३६३। कक्खडीभूतः। प्रश्न० १३७। मलः-स्वेदवारिसम्पर्कात् मरुदेवि- मरुदेवी-ऋषभदेवमाता। आव० १६० कठिनीभूतं रजः। आव०६५८ अष्टप्रकारं कर्म। उत्त. मरुदेवी-सप्तमकुलकरभार्या। स्था० ३९८1 गृहलिङ्गसि- | २१८। मलः- कठिनीभूत रजः। भग० ३७) द्धत्वे दृष्टान्तः। उत्त०६७८ नाभिकलकरपत्नी। प्रज्ञा० स्वेदवारिसंपर्कात्कठिनीभूतं रजो मलः, १०९। सम० १५०| एकभवसिद्धत्वे दृष्टान्तः। आव. अष्टादशमपरीषहः। आव०६५७। निधत्तनिका३६२। मरुदेवी-सप्तमकुलकरपत्नी। आव० ११२ अप्र- चितावस्थाम्। व्यव० २५५ मादवतामपूर्वधराणामपि शुक्लध्यानोत्पत्तिः। आव. मलइ-मर्दयति। आव० २१७ ६०३। सम्यग्ज्ञानात् मुक्तेदृष्टान्तः। उत्त० ६८५ मलए- मलयं-मलयविषयम्, विकलेन्द्रियनिष्पन्नं अत्यन्तस्थावरा सिद्धा। उत्त. २०४। सर्वसंवरक्रियाया वस्त्रम्। स्था० ३३८। देशविदेशः तत्र भवम्। बृह. २०१ अभावे दृष्टान्तः। उत्त०७० अ। मलयः-मलयोद्भवं श्रीखण्डम्। जीवा. २६४| मलयःमरुदवृषभकल्पा- देवराजोपमाः अभ्यधिकं शेषराजेभ्यः चन्दनोत्पत्तिखानिभूतः पर्वतः। जम्बू०४१२। राज-तेजोलक्ष्म्या दीप्यमानाः। सम० १५८ मलण- मर्दनम्। बृह. २९१ आ। मलनं-मर्दनम्। प्रश्न मरुप्पवाय-निर्जलदेशप्रपातम्। ज्ञाता० २०२। १४| मलनं व्रणस्य। आव०७४६) मरुबक- गन्धद्रव्यविशेषः। जीवा० १९१| मलना- ओहावणा। ओघ० ९३ मरुय- मरुतः-लोकान्तिकदेवविशेषः। स्था०६२। मरुकः- मलय- मलयं-मलयजसूत्रोत्पन्नम्। आव० ३९४। मलयप्रश्न. १६श म्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा० ५५ देशोत्पन्नं (पतङ्गकीटजम)। अन्यो० ३५ विन्ध्यः । मरुयग- वलयविशेषः। प्रज्ञा० ३३। मरुबकः-पत्रजातिवि- स्था० ४६२। मलयः-चिलातदेशनिवासीम्लेच्छविशेषः। शेषः। ज्ञाता० १२५। मरुकः-साहचर्ये गृहीते शुद्धे च काले प्रश्न. १४। मलयोद्भवं-श्रीखण्डम्। जम्बू०५९। मलयःप्रस्थापनवेलायां दृष्टान्तः। आव० ७४५) पर्वत-विशेषः। जम्बू०७५। जनपदविशेषः। भग०६८० मरुयगपुड- पुष्पजातिविशेषः। ज्ञाता० २३२। मलयदेशोत्पन्नः वस्त्रविशेषः। ज्ञाता०२८९। मलयंमरुयपक्क-मरुतपक्वं-वायपक्वम्। विपा०८०| श्रीख-ण्डम्। जीवा० २४४१ भग०४७७। ग्रामविशेषः। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [73] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] ५५ आव० २१८१ ३१७। राजविशेषः। भग० ४६३। मल्लकी-राजविशेषः। मलयगिरि- बृहत्कल्पटीकाकारः। बह. ९६अ। गिरिवि- भग० ११५ मल्लकी। औप. ५८१ शेषः। ज्ञाता० २२२व्याकरणकारः। बृह. २आ। मल्लक-भाजनविधिविशेषः। जीवा० २६६। मलयज- मलयजः-श्रीखण्डः। भग०४७७) मल्लकच्छा-आर्थिकानामेकवस्त्रकम्। ओघ० २०९। मलयववई- मलयवती काम्पिल्यस्ता ब्रह्मदत्तराज्ञी च। मल्लच-लणाकृतिः। निशी. १७९ आ। उत्त० ३७९। मल्लकिन- राज्यविशेषः। राज०१२१| मलयवती-कथाकथको ग्रन्थः। व्यव० ११३ आ| निशी. | मल्लग- मल्लकं-शराबः। नन्दी. १७७ मल्लकं-शरावम्। २७७आ। भग. २६९। मल्ल। ज्ञाता०४० सरावं। निशी. ७३ आ। मलया- जनपदविशेषः। प्रज्ञा० ५५ म्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा० मल्लगसंपुड- मल्लकसम्पुटम्। आव०६२१। मल्लचंगेरी- माल्यचङगेरी। जीवा. २३४॥ मलिए- मर्दितः-मानम्लानिप्रापितः। जम्बू. २७७। मल्लचलणाकृति-मल्लकच्छा। निशी. १७९ आ। मलिज्जंतु- मल्वन्ताम्। प्रश्न० ३९। मल्लदाम- माल्यदामा-पुष्पमाला। भग०४७८१ मलिज्जइ- मृद्यते। आव० ७६४। माल्यदामः- पुष्पमाला। ज्ञाता०३७ माल्यदामःमलिणिज्जति- मलिनीयते। आव०४९३। पुष्पमाला। भग० ३१८१ मलिना-मानभञ्जनात्। स्था०४६३। मल्लदिन्न- मल्ली लघुभ्राता। स्था० ४०२। मलिय- मलितः-कृतमानभङ्गः। औप० १२। मलितं परि- | मल्लदिन्नए- मल्लीलघुभ्राता। ज्ञाता० १४२| भुक्तम्। बृह२२१ आ। मलितं-पुरुषाभिलषणीययोषि- मल्लपडलय- माल्यपटलकम्। जीवा० २३४| दङ्गमर्दनम्। ज्ञाता० १६५। मलितः-उपद्रवं कुर्वाणः। मल्लमंडिय-तृतीयः परावृत्तपरिहारः। भग०६७४| राज०११| मल्लय-मल्लकं-सरावम्। ओघ० १४० मलिया- मर्दिता। बृह० ११७ आ। मदिया। व्यव० १४१ मल्लवंता- माल्यवान-रम्यक्वर्षस्य वृत्तवैताढ्यः पर्वतः। जीवा० ३२६। मलेइ-मर्दयति। आव. २१७५ मल्लवास- माल्यवर्षा। भग. १९९। मलेह- विनाशयथ। बृह. १२अ। मल्लाज्झियाइ-मल्लाः-कड्यावष्टम्भनस्थाणवः मल्ल-माल्य-मालास् साधु, पृष्पमिति। प्रश्न. १६०| बलहरणाधा-रणाश्रितानि वा छत्राराधारभूतानि माल्यं-पुष्पम्। जीवा० २०७। माल्यं ऊर्ध्वायतानि काष्ठानि। भग० ३७६। ग्रथितादिभेदभिन्नम्। जीवा० २४४। माल्यं-पुष्पदामः। मल्लाणवण- माल्यानयनम्। आव. २३०| जीवा० २४५। माल्यं-ग्रथितप्-ष्पाणि। भग० २००९ मल्याराम- द्वितीयः परावृत्तपरिहारः। भग० ६७४। मल्लः-मल्लयुद्धकारी। जम्बू. १२३। माल्यं-पुष्पं मल्लि- परीषहादिमल्लजयात्प्राकृतशैल्या तद्रचनापि माल्यम्। स्था० ४२१। माल्यं-ग्रथितानि छान्दसत्त्वाच्च मल्लिः, एकोनविंशतितमो जिनः, पुष्पाणि। अनुयो० २४। माल्यं-पुष्पं तद्रचनापि। स्था० यस्मिन्गर्भगते मातुः सर्वर्तुकवर२८६। माल्यं- अविकशितानि पुष्पाणि। अन्यो० २४। सुरभिकुसुममाल्यशयनीये दोहदो जातस्ततः मल्लिः। माल्यः-ग्रथितपुष्पः। उत्त०६६५ मल्लः प्रतीतः। प्रश्न. आव० ५०५ १३७। धारकः। औप०७०| मल्लः-कठिनीभूतः। औप. मल्लिअ-मल्लिका-विचकिलपुष्पं, लोके बेलि इति ८६। मल्लः -प्रतीत। जीवा० २८१। मल्लः । अनयो० ४६। प्रसिद्धम्। जम्बू. १९२। मल्लिका-विचकिलः। जम्बू० देव-विमानविशेषः। सम० ३९। माल्यं-विकसित दामः। २६५ औप. ५६। | मल्लिआगुम्मा- मल्लिकागुल्माः। जम्बू०१८ मल्लई-मल्लकिः-मल्लकि नामानो राजाविशेषः। भग० | मल्लिका- गन्धद्रव्यविशेषः। जीवा० १९१| आ। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [74] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] विचकिलकुसुमम्। जम्बू. ५२८१ ओघ० १३९| ज्ञानम्। प्रश्न९७ मल्लिया- गुल्मविशेषः। प्रज्ञा० ३२ मल्लिका-जातिः। मसिण- मसुणम्। ओघ० ३०उत्त० ३०४। निशी० १३८ उत्त. १४२। मल्लिका-विचकिलः। ज्ञाता० १२५ आ। मल्लियापुड- पुष्पजातिविशेषः। ज्ञाता० २३२। मसी- मषी-मष्युपलक्षितो लेखनजीवी। जीवा० २७९। मल्लिस्सामी- षण्णां मसीई- मषी-दीपशिखापतितं एव कज्जलं राजपुत्राणामुवाहार्थमागतानामवधिज्ञानेन ताम्रभाजनादिषु सामग्रीविशेषेण घोलितम्। जम्बू. ३२ तत्प्रतिबोधनार्थं यथा जन्मान्तरे सहितैरेव प्रव्रज्या | मसीगुलियाई- मषीगुलिका-घोलितकज्जलगुटिका। कृता। आचा० २११ जम्बू. ३ मल्लिहाण- माल्याधानं-पुष्पबन्धनस्थानं शिरः, मसु-स्मश्रु। निशी. २१० अ। केशकलापः। भग० ४८०१ मसूर-धान्यविशेषः। प्रज्ञा०४११। भिलगा, चनकिका। मल्ली- ज्ञातायामष्टममध्ययनम्। सम० ३६। भग. २७४। धान्यविशेषः। भग०८०२। औषधि विशेषः। मल्लीषष्ठाङ्गेऽष्टमं ज्ञातम्। उत्त०६१४१ प्रज्ञा० ३३। मसूरा-मालवादिदेशप्रसिद्धधान्यविशेषः। ज्ञाताधर्मकथायाः प्रथमश्रुतस्कंधेऽष्ट-ममध्ययनम्, जम्बू. १२४। मसूरः-द्विदलविशेषः। पिण्ड. १६८1 एकोनविंशतितमजिनस्थानोत्पन्ना तीर्थकरी। ज्ञाता० मसूरकम्। ज्ञाता० २२९। मसूरः-धान्यविशेषः। प्रज्ञा० ९। मालायै हितं तत्र वा साध्विति माल्यं-कुसुमं १९३ तद्गतदोहदपूर्वक जन्मत्वेनान्वर्थतः शब्दतस्तु मसूरए- पोतमयमसूरकः, अप्रतिलेखितदूष्यपञ्चके निपातनात् मल्लीति नाम। ज्ञाता० १२९। पञ्चमो भेदः। स्था० २३४| पोतमयसूरकःमल्लेण-मालाभ्यो हितं माल्यं-कुसुमम्। ज्ञाता० १२५ अप्रतिलेखितदूष्यप-ञ्चके पञ्चमो भेदः। आव०६५२ मल्लेस्सामि- मर्दयिष्यामि। आव०६७६) मसूरक- आसनविशेषः। भग० १३१। धान्यविशेषः। जीवा. मशकगृह- रक्तांशुकः। भग० ५४० मषीभाजन- लिप्यासनम्। भग० २३७) मसूरकचन्द्र-ध्यान्यविशेषदलम्, चक्षुरिद्रियसंस्थानम्। मस- मषम्। अनुयो० २१२। निशी० ६१ अ। भग० १३११ मसक-मच्छरः। नन्दी०५८। मसूरगचंद- मसूरकाख्यस्य-धान्यविशेषः मसग- मशकः-चतुरिन्द्रियजीवभेदः। उत्त० ६९६| चतुरि- | यच्चन्द्राकृतिदलं स मसूरकचन्द्रः। जीवा० १५१ न्द्रियविशेषः। प्रज्ञा० ४२। मशकः। आव० १०२। मशकः- | मसूरचंदसंठाणसंठित- मसूरचन्द्रसंस्थानसंस्थितं कृत्तिमण्डितःवस्त्रविशेषः। ज्ञाता० २३२१ चक्षुरिन्द्रि-यम्। प्रज्ञा० २९३। मसमसाविज्जई-शीघ्रं दह्यते। भग०१८४ मसूरय- ब्रूयादिपूर्णं वल्कलगद्दिकादि। बृह० २२० । मसाण- श्मशानं-पितृवनम्। दशवै. २६७। मसूरा- मालवविसयादिसुचवलगा रायमासा। दशवै० ९२ मसाणपाल- मशानपालः-श्मसानरक्षकः। आव०७१७ आ। चणईयाओ-तिलमुग्गमासाः प्रतीताः। स्था० ३४४। मसार- मसारः-मसृणीकारकः, पाषाणविशेषः। औप. १० लोमपक्षीविशेषः। प्रज्ञा०४९। मसार:-मसृणीकारकः, पाषाणविशेषः। ज्ञाता०६। महंत- इच्छन्। प्रश्न. ५०| महान्तं-दीर्घम्। ज्ञाता० १३३ मसारगल्ल- मसारगल्लकाण्डं-रत्नप्रभायां पञ्चमं महत्-स्फीतिमत्। प्रज्ञा०६०० गवक्खकडए मसारगल्लानां विशिष्टो भूभागः। जीवा० ८९। महागवाक्ष-कटकेन-बृहज्जलसमूहेन। ज०२१| मसारगल्लः। प्रज्ञा० २७ मसारगल्लः-मणिभेदः। उत्त० | महंतर-महान्। मरण। ६८९। ज्ञाता० ३१। मणि-भेदः। जीवा० २३। मसारगल्लः- महततरा-आयामतः। भग०६०५ पृथिवीभेदः। आचा० २९। महंतरत्था- महद्रथ्या-राजमार्गः, देवयानरथो वा। आव. मसि- मषी-कज्जलम्। भग० ६७२। मशीन्यमक्षरलिपिवि- | ७४०। रायमग्गो। निशी० ७१ आ। रायमग्गो-देवजा १५ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [75] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text]] اوا णरहो वा विविधा संवहणा गच्छति। निशी०७१ अ। महच्च- महती ऐश्वर्यलक्षणाऽर्चा-ज्वाला पूजा वा यस्य महंती- महती-सर्वधर्मानुष्ठानानां बृहती, अहिंसायाः अथवा महांश्चासावर्थपतितया अर्घ्यश्च पूज्य इति पञ्चदर्श नाम। प्रश्न० १०३ अ। महा! महार्यो वा, माहत्थं-महत्त्वं तद्योगात्माहत्यो महंधकार-तमस्कायस्य चतुर्थं नाम। स्था० २१७) वा, इश्वर इत्यर्थः। स्था० ११७ महं- महत्-बहुत्वे बृहत्वे, अत्यर्थे प्राधान्ये वा। सूत्र० १४२। | महच्चपरिसा- महत्पर्षत्-महत्त्वोपेतसभा महतां समूहः। भग० ८३। मम-महद्वा। भग०६७१। महत्-प्राधान्यं- औप०८३ विस्तीर्णम्। निशी० ७७ अ। मोक्खो। दशवै० १२३ अ। महजण- महाजनः-पौरजनपदरूपः। बृह. १५४ अ। महत्-विस्तीर्णं अतिप्रभूतं वा। सूर्य २५८१ महान्- महज्जुइ- महाद्युतिः। भग० ८६। सूर्य २८६। महती लघ्वपेक्षया मध्यमः। प्रश्न० ३९। महः-प्रतिनियत- दयुतिः-तपोदीप्तिस्तेजोलेश्या वाऽऽस्येति महादतिः। दिवसभाव उत्सवः। जम्बू. १२३। महान्-चक्रवर्ती। उत्त०६६। जम्बू० २४१। महज्झयणा- सूत्रकृताङ्गस्य द्वितीयश्रुतस्कन्धे महआस- महाश्वः-बृहत्तरङ्गः जम्बू० २६४। महान्ति-प्रथ-मश्रुतस्कन्धाध्ययनेभ्यः- सकाशाद् महइ- महती-यावच्छक्तितुलिता। जीवा० २४५। ग्रन्थतो बृहन्ति अध्य-यनानि महाध्ययननि। स्था० महइमहंत- महातिमहान् अतिगुरुकः। दशवै० ५५५ महइमहालए- अतिशयेन महान्। राज०४२। महज्झुइए- महाद्युतिकः-शरीरआभरणादिदीप्तियोगात। महइमहालिय- महतिमहालया। आव० ५५८१ महाति-महा- | ज्ञाता० ३४। लयः। आव० ५०६। महातिमहालयः द्रुमविशेषः। दशवै. | महड्ढीए- राजदिबहुमतो विद्यातिशयसंपन्नो वा एते ४१। अतिमहति। ज्ञाता०४१। महातिमहती। ज्ञाता० । महर्द्धिकाः। बृह० २१२ आ। ४६। महान्तौ-गुरू 'अतो ति अत्यन्तं महसां-तेजसां राजामात्यश्रेष्ठिपुरोहिततत्त्रग्रामकूट महानां वा-उत्सवानामालयो-आश्रयौ महतिमहं आलयो राष्ट्रकूटगणधरान्यतमः। बृह. २१२आ। महती-महाप्रवा समय-भाषया महान्तौ इत्यर्थः। महतिमहालयौः। माणा प्रशस्या वा ऋद्धिः-चक्रवर्तिनमपि योधयेत् स्था०६९। महामहन्त इति वक्तव्ये समयभाषया इत्यादिका विकरणशक्तिः, तणाग्रादपि महइमहालया। स्था० २२८१ महान्ति च तानि हिरण्यकोटिरित्यादिरूपा वा समृद्धिरस्येति महर्द्धिकः विस्तीर्णानि च अतिमहालयाश्च देवविशेषणं वा। उत्त०६७। महती ऋद्धिसमृद्धिरस्येति। अत्यन्तमुत्सवाश्रयभूतानि। सम०७२। महातिमहती। महर्द्धिकः-दिव्यानकारिलक्ष्मीकः। उत्त. ३५० भग० १३८ महण्णव- महार्णवः-संसारः। उत्त०४५३| महक्खम- महतीक्षमा। भग० ४६९। महण्णवा- महार्णवा-बहदकत्त्वात्-महार्णवगामि। स्था० महग्गहा- महाग्रहा महानर्थसाधकत्वादिति। स्था० ३०९। महार्णवकल्पा महासमुद्रगामिन्यो वा महानद्यः। ४२९ बृह. १५९ आ। महग्घं- महाघम। आव०४१४१ महान-अर्घः-पजा। जम्ब. महताहतं- महदाख्यानं, अहवा महता शब्देन वादित्रमाहतं २७३। भग० १९९। महान् अर्घः-पूजा यत्र स महार्घः।। वा। निशी० ७१ आ। जीवा० २४३। महाघम्-परार्ध-उत्तमाघम्। दशवै० २२१॥ | महति-महान्। आव. २८९। महतीवीणा महचंद- महाचन्द्रः-दत्तराजस्य य्वराजः। विपा० ९५ शततन्त्रिकावीणा। जम्बू. १०१। महाचन्द्रः-अप्रतिहतराजकुमारः। विपा०९५।। महतित्तकघृत- औषधिविशेषः। भग० ३२६। महाचन्द्रः-साहजनीनगर्यधिपतिः। विपा०६५) | महतिमहलय- विस्तीर्णम्। सूत्र० ३२५१ महश्चन्द्रः-विपाकदशायां दवितीयश्रुतस्कन्धे महतिमहालय- महातिमहालयम्। उत्त०५१। नवममध्ययनम्। विपा. ८९| महती- उच्चा। सूत्र० ३२५। सर्वतोभद्रप्रतिमाया द्वितीयो मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [76] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] भेदः। स्था० २९२। भद्रोत्तरप्रतिमाया द्वितीयो भेदः। | महहुमे- पदानीकाधिपतिः। स्था० ३०२ स्था० २९३। अति सूक्ष्मा। भग०७६७। शततन्त्रिका महपरिण्णा- महापरिज्ञा-आचारङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धस्य वीणा। जीवा० २६६। राज० ५०० नवम-मध्ययनम्। प्रश्न०१४५ आचारङ्गस्य महत्तर- गणसम्पतः। दशवै० १०३। महत्तरः नवममध्ययमन्। सम०४४। उत्त०६१६) अन्तःपुररक्षकः। औप० ७७ अन्तःपुरकार्यचिन्तकः। महप्प- महासावया। बृह. ९३ । भग० ५४७। ग्राम-प्रधानपुरुषः। बृह० ३३ अ। सव्येसु महब्बल- महाबलः-विपाकदशानां द्वितीयश्रुतस्कन्धे उप्पज्जमाणेसु गोढिकज्जेसु पुच्छणिज्जो सप्त-ममध्ययनम्। विपा० ८९। महाबलः-बलराजस्य गोद्वित्तभोयणकाले जस्स जेट्ठ-मासणं धुरे ठविज्जति पुत्रः। विपा. ९५। महाबलः-महाविदेहे अधिपतिः। आव. सो महत्तरो। निशी. १५८ आ, १७६ आ। महत्तरिकः, ११५। महाबलः शारीरप्राणापेक्षया। भग० ८६। कुमारः। ग्रामप्रधानः, वाटकोपेतः। व्यव० २४३ आ। महत्तरः- भग. १७८१ महाबलः-भगवत्यामतिदिष्टः। अनुत्त०३। कन्थान्तःपुरपालकः। व्यव० १३३ आ। गम्भीरः। व्यव० महा-बलः-पुरिमतालनगराधिपतिः। विपा० ५५० १६९। आ। महत्तरः-अग्रेसरः। नन्दी०६२ भगवत्यामुक्तो महाबलातिदेशः। अन्त०४१ महत्तरगतं- महत्तरकत्म्। जम्बू०६३। बलधारण्योः पुत्रः। ज्ञाता० १२११ रोहीतकनगरे राजा। महत्तरय- महत्तरकः-अन्तःपुरकार्यचिन्तकः। भग. निर०३९। ४६०१ महब्भयं- महद्भयं-महतां भयमस्मादिति महद्भयम्। भग. महत्तरागार- महत्तराकारः। आव० ८५३। १७५१ महत्तरिया- महत्तरिका-दिक्कुमारिका तुल्यविभवाः। महमरुय- महामरुत्-अन्तकृद्दशानां सप्तमवर्गस्य जम्बू० ३८४१ सप्तमम-ध्ययनम्। अन्त०२५) महत्थ-भाषाभिधेय अर्थः-विभाषावार्तिकाभिधेयः महय- महत्-अपरिमितम्। आचा० १०० महत्-दिव्यमहार्थः। नन्दी० ५३। महान्-प्रधानार्थो यस्याः सा भावेन यद् वयवस्थितम्। आचा० १६६। महत्महार्थाः, महान्-सम्यग्दृष्टिः भव्यस्तेष् स्थितः स्फूर्तिमान्। जीवा० २४५१ महत्स्थः पूजास्थः। आव० ५९६। महान् अर्थो महयण-महाजनः-विशिष्टपरिषत्। दशवै०१४। मणिकनकरत्नादिक उपयुज्यनो यस्मिन् सो महार्थः। | महयरग- महत्तरकः-अन्तःपुरकार्यचिन्तकः। ज्ञाता० जीवा० २४३। महान् अर्थो मणिकन-करत्नादिक उपयुज्यमानो यस्मिन् स महार्थः तम्। राज० १०२। महया-अन्तकृद्दशानां सप्तमवर्गस्य पञ्चमाध्ययनम्। महग्घं-महान् अर्घः-पूजा यत्र स महाघः। राज० १०२ अन्त०२५। महया-अतिशयेन महान्। जीवा० २०५१ महान अर्थो-मणिकनकरत्नादिकः। जम्बू. २७३। महयाभड- महता-बृहता प्रकारेणेति गम्यते महाभटः। महत्थरूवा- महान् भग०४६४। अपरिमितोऽनन्तद्रव्यपर्यायात्मकतया-ऽर्थः-अभिधेयं महया महया- अतिशयेन महान। जीवा० ३६० यस्य-तन्महार्थं रूपं-स्वरूपं न तु चक्षुर्ग्राह्यो गुणः ततो महरिह- महाघु-बहुमूल्यं, अथवा महान्-चक्रवर्ती तस्य महार्थं रूपं यस्याः सा तथा, महतो वाऽर्थान् अर्ह-योग्यम्। जम्बू० २४१। महं-उत्सवमर्हतीतिमहार्हः। जीवादितत्त्वरूपान् रूपयति दर्शयतीति महार्थरूपाः। जम्बू० २७३। महार्हः-महाघम्। जम्बू० ८२। महार्हाःउत्त०३८५ महोत्सवार्हाः। जम्बू. १०२। महं उत्सवमर्हतीति महार्हः। महथणी- अथत्थणी। निशी. ९४ । जीवा० २४३। महार्हः-महोत्सवाहः। जीवा० २६७। महंमहद्दी- महती-ज्ञानोपष्टम्भादिकारण उत्सवमर्हतीति महार्हः। राज० १०२। महतां योग्यः। विकलत्वादपरिमाणा ऋद्धितर्महार्द्धि याञ्चा, परिग्रहस्य ज्ञाता०५६। चतुर्दशमं नाम। प्रश्न० ९२। महलयसीहणिक्कीलियं- महासिंहनिक्रीडितं तपोविशेषः। ३७। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [77] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] اواyo अन्त०२८१ महलू- तपनीयपट्टम्। जम्बू० २१११ महाकंदिय- महाक्रन्दितःमहल्ल- महान्। आव. २०६, ३५८, ३१४। महान् वृद्धः। व्यन्तरनिकायानामुपरिवर्तिव्यन्त-रजातिविशेषः। उत्त० १९३। वृद्धः। आव०७६। बृहत्तरम्। बृह० ६४ अ। प्रज्ञा० ९८। महाक्रन्दितः-वाणमन्तरवि-शेषः। प्रज्ञा०९५) महत्। आव० ३०५ महत्-महाप्रमाणम्। दशवै० २१७) महाकच्छ-विजयविशेषः। जम्बू. ३४६। महाकच्छ:महत्तमम्। भक्त। ऋषभप्रभोः शिष्यः। आव० १४३। श्रीऋषभस्वामिनो महल्लए- महति। आव० ५५७। आर्यरक्षितपिता। उत्त. महा-नाम तः। जम्बू० २५२। ८४| महाकच्छकूड- महाकच्छकूट-पद्मकूटवक्षस्कारे तृतीय महल्लपयोयण-महत्प्रयोजनः महत्तराकारः। आव. कूट-नाम। जम्बू० ३४६|| ८४३ महाकच्छा-। स्था० ८० अतिकायमहोरगेन्द्रस्य महल्लपिंड-पितृव्यः। आव० १७३। तृतीयाग्र-महिषी। स्था० २०४। अतिकायस्य महल्लया- महता भण्डकेन। ओघ. १६९। महत्प्रमाणं- तृतीयाग्रमहिषी। भग. ५०५। धर्मकथायाः पञ्चमवर्गस्य भाज-नम्। ओघ०१६९। सप्तविंशतितममध्ययनम्। ज्ञाता० २५२। महल्लि- महती। आव. २०० महाकण्ह-निरयावल्यां प्रथमवर्गे षष्ठममध्ययनम्। महल्ली- महती। आव० ४१६) निर०३। महव्वाइ-महावादी। दशवै०५३ महाकण्हा- महाकृष्णा-अन्तकृद्दशानामष्टमवर्गस्य महसिव- षष्ठबलदेववासुदेवयोः पिता। सम० १५२। षष्ठममध्य-यनम्। अन्त० २७। महाकृष्णामहसुक्क- महाशुक्रः-वासुदेवागमनकल्पः। आव० १६३। सर्वतोभद्रप्रतिमाकारिका। अन्त०२९। महसेण- मुकुटबद्धराजा। भग०६१८ महाकप्पसयसहस्सा-| भग०६७४। मल्लीसहप्रव्राजकोऽष्ट-मकुमारः। ज्ञाता० १५२, २०७। महाकल्पशतसहस्त्रम्। भग० ६७४। बलवर्गशाहस्त्रोकः। अन्त०२ चन्द्रप्रभजिनपिता। महाकप्पसुयं- महाग्रन्थं महार्थम्। नन्दी. २०४। सम० १५० महासेनः-सुप्रतिष्ठन-गरनपतिः। विपा. महाकम्मतर- विधायमानानलापेक्षयाऽतिशयेन महान्ति ८२। महासेनः-चन्द्रप्रभपिता। आव० १६१। कर्माणि-ज्ञानावरणादीनि बन्धमाश्रित्य यस्यासौ महसेणवणुज्जाण- महसेनवनोद्यानं-क्षेत्रम्, महाक-र्मतरः। भग० २२९। अनन्तरनिर्गम-सामायिकक्षेत्रम्। आव० २७६। महाकल्प- श्रुतधरविरोधः। आव० ५३१| महांधकार- महान्धकारं-महातमोरूपम्। भग० २७०। | महाकहापडिवन्न- महाकथाप्रतिपन्नः-महाकथाप्रबन्धः। महा- अष्टमं नक्षत्रम्। स्था० ७७। मघाः-महामेघाः। जीवा- | भग० ३२७ ३८७ मघा-मण्डिकपुत्रजन्मनक्षत्रम्। आव० २५५) महाकाए- महोरगेन्द्रः। स्था० ८५। महाकायःमहान्-प्रधानः प्रभूतो वा। आव० ५९६। बृहत्। उत्त. उत्तरनिकाये सप्तमो व्यन्तरेन्द्रः। भग० १५८ ३६६। महत्-प्रभूतम्। जीवा० १२८। महत्-भवनपति महाकाओ-पंचिंदिओ। निशी. ७२ अ। महाकायःव्यन्तरेभ्योऽतिप्रभूतम्। ओघ० २५८१ महत्-प्रशस्तमा- मूषकादिः। आव० ७४१। त्यन्तिकं वा। स्था० १७१। महान् महाकादम्बा- गन्धर्वभेदविशेषः। प्रज्ञा०७० अविचिन्त्यशक्त्यपेतः। नन्दी० २३। महान् महाकाय- महाकायः-महोरगः। जीवा. १७२। महाकायःकषायोपसर्गपरिषहेन्द्रियादिशत्रगणजया-दतिशायी। महोरगेन्द्रः। जीवा० १७४। महाकायःनन्दी० २३। महत् पूर्वम्। दशवै० ४० अ। बाहुल्ले। सजातःप्रीणितश्च। दशवै २१७५ दशवै० १११ महाकाया- महोरगभेदविशेषः। प्रज्ञा०७० महाओहस्सरा- महौघस्वरा-बलीन्द्रस्य घण्टा। जम्बू० | महाकाल- भौतपरिगृहीताऽर्हत्प्रतिमा आव० ८११| मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [78] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] देवविमानविशेषः। सम० ३५ श्मसानविशेषः। अन्त० धणगुप्त गुरवः। उत्त.१६५ महागिर्याचार्यः ११। महाकालः-पञ्चदशसु परमाधार्मिकेषुः अष्टमः। । मिथिलानगर्यां लक्ष्मीगृहे आचार्यः। आव० ३१६) उत्त० ६१४। महाकालः-अष्टमपरमाधार्मिकः। आव० | महागिह- महपाहन्ने बहुत्ते वा, महंतं गिहं महागिह, ६५०। महाकालः- केयूपाभिधपातालकलशे देवविशेषः। बहुसु वा उच्चारएस महागिह। निशी० २६५अ। जीवा०३०६| अवन्त्यां महाकालश्मशानः। व्यव. १४९| | महागुल्मिकं- जातिभेदः। जीवा० १३६| महाकालः-लोकीकैः परिगृहितं चैत्यम्। आव०६७० महागोव- भगवन्तैव षट्कायरक्षणार्थं यतः प्रयत्नं निरयावल्यां प्रथमवर्गे तृतीयमध्ययनम्। निर० ३। चक्रुस्तेन महागोवः प्रोच्यन्ते। आव० ३८३। श्रमणस्य महाकालः-अष्टमपरमाधार्मिकः। सूत्र. १२४ भगवतो महा-वीरस्य गोशालककृतोपमा, गोपोअष्टाशितीमहाग्रह एकोनषष्ठीतममहाग्रहः। स्था० ७९| | आरक्षकः स चेतरगोरपिशाचेन्द्रः। स्था० ८५। वायकुमारस्य द्वितीयो क्षकेभ्योऽतिविशिष्टत्वान्महानिति महागोपः। उपा० लोगपालः। स्था० १९८1 त्रिपल्योपमस्थितिको देवः। ४५ स्था० २२६। चक्रवर्तेः सत्त-मनिधिः। स्था० ४४८१ महाघोष- ओदीच्येन्द्रस्य लोकपालः। स्था० २०५१ महाकालः-उत्तरनिकाये प्रथमो व्यन्तरेन्द्रः। भग. महाघोष-देवविमानविशेषः। सम० १२ लान्तककल्पे १५७। महाकालः-पिशाचेन्द्रः। जीवा. १७४। महाकालः- देवविमानविशेषः। सम०१७। महाघोषःतमतमापृथिव्यां द्वितीयो महानिरकः। प्रज्ञा० ८३। स्तनितकुमाराणा-मिन्द्रः। प्रज्ञा० ९४| महाघोषः-नरके महाकालः-अष्टशीतौ सप्तपञ्चाशत्तमो महाग्रहः। पञ्चदशमपरमाधा-र्मिकः। आव०६५० महाघोषःजम्बू. ५३५ पञ्चदशमपरमाधार्मिकः। उत्त०६१४ महाघोषःमहाकाल- पिशाचभेदविशेषः। प्रज्ञा० ७० उत्तरनिकाये दशम इन्द्रः। जीवा० १७१। महाघोषःमहाकालप्पभ- कालवालस्योत्पातपर्वतः। स्था० ४८२ स्तनितकुमारेन्द्रः। स्था० ८५। महाघोषःमहाकलिंदा-धर्मकथायाः षष्ठमवर्गे अग्रमहिषी। ज्ञाता० अतीतोत्सर्पिण्यां सप्तम कलकरः। स्था० ३९८१ २५२ जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रेऽतीतायामत्सर्पिण्यां सप्तम महाकालि- महाकालनिधिः। जम्ब० २५८। कुलकरः। सम० १५०| जम्बूद्वीपे ऐरवतवर्षे महाकाली- अन्तकृद्दशानां अष्टमवर्गस्य आगमिण्यामुत्सर्पिण्यां द्वादशमस्तीर्थकरः। सम० तृतीयमध्ययनम्। अन्त०२५ आर्याविशेषः। अन्त० १५४। महाघोषः-उत्तरनिकाये दशम इन्द्रः। भग० १५७) ૨૮ महाघोसं-धर्मघोषगाथापति नगरम्। विपा. ९५ महाकिण्हा- नदीविशेषः। स्था०४७७। महाघोषः-पञ्चदशमपरमाधार्मिकः। सूत्र. १२४। सम. महाकुमुद-देवविमानविशेषः। सम० ३३ २९ महाकुम्भीय- महाकुम्भी-महत्यूखा। प्रश्न०१४। महाघोसा- महाघोषा-इशानेन्द्रस्य घण्टा। जम्बू. ४०५ महाकुष्ठ- द्वितीयं क्षुद्रकुष्ठम्। प्रश्न० १६१। महाचंद- जम्ब्वैरवते आगाम्यष्टम तीर्थकृतः। सम० एकादशक्षुद्रकुष्टो द्वितीयः। आचा० २३५। १५४ महागंगा-सप्तगंगा। भग० ४७४। महाजण- महाजनः। दशवै० १०५ महागरा- महाकराः-ज्ञानादिभावरत्नापेक्षया आचार्यः। महाजणवाण-सिंघाडगठ्ठाणं णीतो चउक्कं वा आरामाउ दशवै.२४६। वा गामणीतो एतेषु महाजणट्ठाणेस्। निशी० १३४। महागिरि- महागिरिः-योगसंग्रहेनिश्रितोपधानदृष्टान्ते महाजणणाओ- महाजनज्ञातः-महानिनादः। आव० ६३८५ आर्य-स्थूलभद्रस्य जयेष्ठः शिष्यः, उपाध्यायः। आव. महाजस- महद् यशः-ख्यातिर्येषां ते महायशाः। सूर्य ६६८ एलापत्यगोत्रवान आचार्यः। नन्दी०४९। २८६। स्था० ४३०। जम्बुदद्वीपे ऐरवतवर्षे महागिरी- महागिरिः-मिथिलायामाचार्यः। उत्त. १६३। आगमिण्यामुत्सर्पिण्यां चतुर्थः तीर्थकरः। सम० १५४| मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [79] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] महाजाइगुम्मा- महाजातिगुल्माः। जम्बू. ९८१ अतिकृष्णदिव्यो-पलक्षिता पृथ्वी। अनुयो० ८९।। महाजाई- गुल्मविशेषः। प्रज्ञा० ३२१ महातव-महातपः। भग० १४२ प्रशस्ततपाः। भग० १२॥ महाजाण- महद्यानम्-महच्च तद्यानं च महद्यानं- महत्-प्रशस्तमाशंसादोषरहितत्वात्तपो यस्य स सम्यग्दर्श-नादित्रयं यस्य स महायानो-मोक्षः। महातपा। सूर्य. १ महायानः-महच्च तद्याने च महायानं-मोक्षः। आचा. महातवोतीर- महातपस्तीरम्। उत्त. १६७ १७२। महातवोतीरप्पभ- महातपस्तीरप्रभं नाम प्रश्रवणम्। महाजातिगुम्म- गुल्मविशेषः। जीवा० १४५ आव.३१८५ महाजुद्ध- महायुद्ध-परस्परं मार्यमाणकतया युद्धम्। जीवा. | महातवोवतीर- महांश्चासावातपश्चेति महातपः ૨૮ महातपस्योपतीरं तीरसमीपे महातपोपतीरम्। भग. महाजुद्धाई- महायुद्धानि-व्यवस्थाहीनाः महाराणाः। जम्बू १४२॥ १२५ महातिमहालया- अतिमहान्तश्च ते आलयाश्च-आश्रयाः महाजुम्मा- महान्ति च तानि युग्मानि च महायुग्मानि। मति-महालया महान्तश्च तेऽतिमहालयाश्चेति भग० ९६४। महतिमहलयाः अथवा लय इत्येतस्य स्वार्थिकत्वात् महाणंदियावत्त- महाशुक्रे देवविमानविशेषः। सम० ३२१ महतिमहान्त इत्यर्थः द्विरु-च्चारणं च महच्छब्दस्य घोषस्य लोकपालः। स्था० १९८१ मन्दरादीनां सर्वगुरुत्वख्यापनार्थम्, अव्युत्पन्नो महाण- महाजनो-गच्छः । बृह. २४० आ। महाजन:- वाऽयमिति महदर्थे वर्तत इति। स्था० १६६) समस्तसङ्घः। व्यव० २३५। महाजनः। मरण | महातीरा- महानदीविशेषः। स्था० ४७७ महाणक्खत्त-मघानक्षत्रम्। सूर्य. १३०| महाथंडिल- महास्थाण्डिल्यम्-मृतोज्झनस्थानम्। आव. महाणदी- महानदी-गुरुनिम्नगा। स्था० ३०९। ६२९। महाणस- उवक्कडसाला। निशी. २७२ आ। महादामड्ढी- ऋषभाणिकाधिपती। स्था० ३०३। महाणससाला- महानससाला-रसवतीगृहणि। ज्ञाता० महादिहाः- पिशाचभेदविशेषः। प्रज्ञा० ७० १५०| महादीवी- पट्टराज्ञी। आव० ५५७। महाणसिण- महानसे नियक्ता महानसिकी। ज्ञाता० महादुम- महाद्रुमः-बलीन्द्रस्य पादत्राणीकाधिपतिः। ११९। महानसिनी। आव० २१५ जम्बू. ४०७। आनतकल्पे देवविमानविशेषः। सम० ३५। महाणिणाओ- महानिनाद इति महाजनज्ञातः। आव. महादुमसेण- महाद्रुमसेणः-अनुत्तरोपपातिकदशानां ૬૨૮૫ दवितीयव-र्गस्य नवममध्ययनम्। अनुत्त०२ महाणिणादो- महानिनादो-महाजनज्ञातः। बृह. १४७ आ। | महादेवाः- किंपुरुषभेदविशेषः। प्रज्ञा०७० महाणुभाग- महानुभागः-महाप्रभावः। भग० १२५ महाधण-निरयावल्यां पञ्चमवर्गे नवममध्ययनम्। महाणुभागा- महानुभागा-सातिशयमाहात्म्या। उत्त० निर० ३९ ३७० महाधम्मकहो- श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य महाणुभाव- महान्-प्रधानः प्रभूतो वाऽनुभावः-सामर्थ्यादि- । गोशालककृतो-पमा। उपा० ४५ लक्षणो यस्य स महानुभावः। आव०५९६। महानुभावः- | महाधायई- महाधातकीअचिन्त्यसामार्थ्यः। ज्ञाता०७४। महानभावः-विशिष्ट- उत्तरकुरुषुपञ्चिमार्द्धनीलवगिरिस-मीपे वृक्षविशेषः। वैक्रियादिकरणाचिन्त्यसामर्थ्यः। भग० ८६| जीवा० ३२८१ महातपस्तीरप्रभा- मणिनागवास्तव्यनदविशेषः। स्था० महाधायतीरुक्खे- वृक्षविशेषः। स्था० ७९| ४१३ महाध्ययनानि- सूत्रकृताङ्गस्य द्वितीयश्रुतस्कन्धे महातमःप्रभा- महातमसःप्रभा यस्यां सा, | महान्ति प्रथमश्रुतस्कन्धाध्ययनेभ्यः- सखाशाद् मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [80] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] ग्रन्थतो बृहन्ति अध्ययनानि। स्था० ३८७। महापच्चक्खाण- महत्प्रत्याख्यानम्। नन्दी० २०६। महानई- महानदी महापज्जवसाण- महत्-प्रशस्तमात्यन्तिकं वा पर्यवसानंस्वपरिवारभूतचतुर्दशसहस्रनदीसम्पदुपेत-त्वेन पर्यन्तं समाधिमरणोऽपुनर्मरणतो वा जीवीतस्य यस्य स्वतन्त्रतया समुद्रगामित्वेन च प्रकृष्टा नदी। जम्बू. स तथा, अत्यन्तं शुभाशयत्वादिति। स्था० १७०| यस्य २९० कर्मणः क्षयकरणात् महापर्यवसानः। व्यव० १६५ अ। महानलिण-सहस्रारकल्पे देवविमानविशेषः। सम० ३३। महापण्ण-महती-निरावरणतयाऽपरिमाणा प्रज्ञा महानिज्जामए- श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य केवलज्ञा-नात्मिका संवित् अस्येति महाप्रज्ञा। उत्त. गोशालककृतो-पमा। उपा०४५। २४१ महानिनाद- शब्दितम्। ओघ० ४८। महापण्णवणा- जीवादीनां पदार्थानां प्रज्ञापनं प्रज्ञापना महानिमित्त-निमित्तशास्त्रविशेषः। ज्ञाता०२० सैव बृहत्तरा महाप्रज्ञापना। नन्दी. २०४१ महानिसीह-यदग्रन्थार्थाभ्यां महत्तरं तन्महानिशीथम्। | महापद्म- महादविशेषः। प्रश्न. ९६ भावितीर्थंकरः। नन्दी . २०६। नन्दी०११४॥ पद्मं निषधहदे पद्मम्। स्था० ३२६। महानील- प्रसिद्धं वस्तुजातम्। प्रज्ञा० ९१। महानीलः- महापभ- ब्रह्मलोककल्पे देवविमानविशेषः। सम० १३ मणिविशेषः। औप०४९। महा-प्रभः क्षोदवरे दवीपे पश्चिमाञधिपतिर्देवः। जीवा. महानीला- महानदीविशेषः। स्था०४७७। ३५५ महानुभाग- वैक्रियादिकरणशक्तित्वात्। ज्ञाता० ३४। महापम्ह- महापक्ष्म नाम विजयः। जम्बू. ३५७। अचिन्त्यशक्तियुक्तस्त्वात्। स्था० २४७) महापरिज्ञा- आचारङ्गस्य सप्तममध्ययनं, यत् महापइरिक्कतरा- महत्प्रतिरिक्तं-विजनमतिशयेन। भग० | व्यवच्छिन्नम्। आचा० २५९। ६०५ महापरिण्णा- महती प्रतिज्ञा-अन्तक्रिया लक्षणा महापउम-नवमिधौ पञ्चमः। स्था०४४८१ जम्बूद्वीपे सम्यग्विध-येति प्रतिपादनपरं महापरिज्ञा। स्था० ४४५) भरतक्षेत्रे आगमिण्यामुत्सर्पिण्यां प्रथमः तीर्थकरः। महापरिज्ञा-अष्टाविंशतिविधाचारप्रकल्पे सप्तमः। सम० १५३। जम्बूदवीपे भरतक्षेत्रे आव०६६० आगमिण्यामुत्सर्पिण्यां नवमश्चक्री। सम० १५४। महापरिन्ना- महापरिज्ञा आकाशगामिविद्यास्थानम्। सतद्वारनगरे सन्मतिराज्ञो पुत्रः। भग० ६८८५ आव. २९४१ महापद्यनिधिविशेषः। जम्बू० २५८१ महापद्मः- महापवेसणतर- अतिशयेन महत्प्रवेशपुण्डरिकी-नगर्यां नृपतिः। उत्त० ३२६। स्था०७३। गत्यन्तरान्नरकगतौ जीवानां प्रवेशः। भग०६०५। महापद्मः भवि-ष्यदुत्सर्पिण्यां प्रथमतीर्थकरः, महापव्वय- महापर्वतः-हिमवदादि। ओघ. १२९। श्रेणिकराजजीव इति। स्था०४३३। सहस्रारकल्पे महापशु-पुरुषः। व्यव० १५५आ। देवविमानविशेषः। सम० ३३। सुका-लमहापद्मायाः पुत्रः। महापसिणविज्जा- महाप्रश्नविद्याः-वाचैव प्रश्ने निर० २० नवमश्चक्री। सम० १५२। महापद्मः सत्युत्तरदा-यिन्यः। सम० १२४॥ नवमश्चक्रवर्ती। आव० १५९। उत्त०४४८। महापद्मः- महापह- महापथः-राजमार्गः। औप०४, १७ आव० १३६। महाहिमवति हृदः। स्था०७३। पोण्डरिकिणी-नगर्यां महापथः-राजपथः। जीवा० २५८१ महापथः-राजमार्गः। राजा। ज्ञाता० २४३। निरयावल्यां द्वितीयवर्गे द्विती- ज्ञाता०२५। महापथः-राजमार्गः। भग० १३७। भग० २००, यमध्ययनम्। निर० १९| २३८ महापथः-राजमार्गः। प्रश्न०५८ स्था० २९४। महापउमद्दह- महापद्मद्रहः-द्रहविशेषः। जम्बू. ३०१| महापाडिवय- महोत्सवानन्तरवृत्तित्वेनोत्सवानवृत्या महापउमा-सुकालकुमारस्य देवी। निर०२० शेष-प्रतिपद्धर्मविलक्षणतया महाप्रतिपदः। स्था० २१३। महापगब्भ- महाप्रगल्भः-अतिस्फारः। प्रश्न २० | महापाण- महाप्राणः-महाप्राणनामब्रह्मलोकविमानम्। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [81] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] उत्त०४४५ महाप्राणं-ध्यानविशेषः। आव०६९७५ महाबाहू- चचुर्थो बलदेवः। सम० १५४१ महापाणादी-महाप्राणादिध्यानः। व्यव० १७६) महाबीर्य- महाबीजम्। ओघ० ९७। महापान- पीबतीति वा मितोतीति वेति वावपि महाबोहित्थ- महोतम्। आव० ६०२। शब्दावेताववि-रद्धो तत्त्वत एकार्थावित्यर्थः। व्यव. महाभद्द-महाशुक्रकल्पे देवविमानविशेषः। सम० ३२ १७७ । महाभद्दा- तृतीया प्रतिमा। स्था० २९२। अहोरात्रदवयमाना महापाली- सागरोपमप्रमाणा। उत्त०४४५) महाभद्रप्रतिमा। ओघ. ३०| महाभद्दा-प्रतिमाविशेषः। महापिउए- महापिता-पितुयेष्ठभ्राता। विपा. १७ आव. २१५ महाभद्रा-प्रतिमाविशेषः। स्था०६५ महापीठ- महापीठः-वज्रसेनधारिण्योः पुत्रः। आव० ११७५ अहोरात्रप्रमाणा कायोत्सर्गरूपा। स्था० १९५५ महापुंख- लान्तककल्पे देवविमानविशेषः। सम० २२ महाभयंकर- अतिभयकारी। ज्ञाता०६३। महापंड- लान्तककल्पे देवविमानविशेषः। सम० २२ महाभाए- महाभागः-महानुभागः। सूत्र. २८६) महापुंडरीए- महापुण्डरीको द्रहः। जम्बू. ३८०। जलरू- महाभिसेओ-महंततरो अभिसेओ। निशी. २७५अ। हविशेषः। प्रज्ञा० ३३ महाभीमा- राक्षसभेदविशेषः। प्रज्ञा० ७०। महापुर-नगरं-बलराजधानी। विपा० ९५ वासुपूज्यस्य महाभीमे- किम्पुरिषस्य द्वितीय इन्द्रः। भग० ८५) प्रथमपारणकस्थानम्। आव० १४६| अष्टमः प्रतिवासुदेवः। सम० १५४१ महाभीमःमहापुरा- महापुरी-राजपूः। जम्बू. ३५७। स्था० ८० उत्तरनिकाये चतुर्थो व्यन्तरेन्द्रः। भग० १५८ महापुरिस- महापुरुषाः छत्रपत्यादयः। जम्बू. १२५/ महाभीमः-राक्षसेन्द्रः। जीवा० १७४। किंपरिषेन्द्रः। स्था० ८५। महापुरुषः-उत्तरनिकाये षष्ठो | महाभीमसेण- जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे अतीतायामवसर्पिण्यां व्यन्तरेन्द्रः। भग० १५८१ महापुरुषः-किंपुरुषेन्द्रः। जीवा० सप्तमः कुलकरः। सम० १५०। स्था० ५१८५ १७४। महापुरुषः-जात्यायुत्तमः। प्रश्न. १३३| महाभैरव- महाभैरवम्। आव० २२७) महापुरुषदत्ता- महाविद्या। आव० ४११। महाभोगा- महानदीविशेषः। स्था० ४४७। महापुरुषाः-किंपुरुषभेदविशेषः। प्रज्ञा० ७०| महामंडलिए- महामण्डलिकः-अनेकदेशाधिपतिरल्पर्द्धिकः महापोंडरीय- महापोण्डरीकः-रुक्मिण्यां ह्रदः। स्था०७३। जीवा०४०। महामण्डलिकः-अनेकदेशाधिपतिः। प्रज्ञा० सहस्रारकल्पे देवविमानविशेषः। सम० ३३१ ४७) महापोय- महापोतं महाबोहित्थम्। आव०६०२ | महामंति- महामन्त्री-मन्त्रिमण्डलप्रधानः। भग० ३१८१ महाप्पा- महात्मा-उदात्तस्वभावः। जम्बू. २१८। महामन्त्रीः-मन्त्रिमण्डलप्रधानः। जम्बू. १९० महाबल-निष्क्रमणे भगवत्यागतं दाहरणम्। अन्त०१९ | महामटुं- मकारस्यालाक्षणिकत्वात्महानर्थः-प्रयोजनं गुणसमृद्धनगरे राजा। पिण्ड० ४७। महाबलः-सम्यग्दृष्टौ | मुक्ति-रूपमस्येति महार्थः। उत्त०५२७५ साकेतनरेशः। आव ७०६| षष्ठो बलदेवः। सम.१५४१ महामणुस्सत्तण- महामन्ष्यत्वम्। आव० ३९९। जम्बूद्वीपे ऐरवतवर्षे आगमिण्यामुत्सर्पिण्यां महामण्डलीक-महाराजा। आव०८४० त्रयोविंशतितम-तीर्थकरः। सम० १५४। महाबलकुमारः- । महामन्त्री-मन्त्रिमण्डलप्रधानः। भग०४६४। राज० १२१| भगवतिगतोऽति-देशः। अन्त० । महाबलः महामह- इंदमहादि। निशी. १९७ आ। शतबलराजपुत्रः। आव० ११६। निरयावल्याः पञ्चमवर्गे महामाउया- महामाता-पितुयेष्ठभ्रातृजाया, भातुर्येष्ठाः निषढाध्ययने दृष्टान्तः। निर० ३९। भगवत्यामभिहित सपत्नी वा। विपा. १७ दृष्टान्तः। ज्ञाता०१२९| निशी. १७६ आ। महामाठर-स्थानिकाधिपतिः। स्था० ३०३ सर्वकार्येष्वापृच्छनीयः। निशी. १९५आ। महामाणस- चतुरशिति महाकल्पशतसहस्रः। भग०६७४। पर्वतायुपाटनसामोपेतत्वात् महाबलः। ज्ञाता० ३४। | महामात्र- हस्तिव्यावृत्तः। औप०६२। महाबलग- महाबलः। आव०७११| | महामात्रा- हस्त्यारोहा। विपा० ४६। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [82] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] महामाहण- मा हन्मि - न हन्मीत्यर्थः, आत्मना वा हनननिवृतः परं प्रतिमा हन' इत्येवमाचष्टे यः स माहनः महान्माहनो महामाहनः । उपा० ४०| श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य गोशालककथितोपमा । उपा० ४५॥ महामुणि महामुनिः प्रशस्यतपस्वी । उत्तः ३६९ | महामेह - महान् मेघो दशवर्षसहस्रावधि एकेन वर्षणेन भूमेर्भावुकत्वात् महाभेघः । जम्बू. १७३१ महामोह- अङ्गनाभिष्वङ्गःमहामोहकारणत्वान्महामोहः । आचा० १२८ महायसा महायशाः विख्यातसद्गुणः । दशकै २४९ ॥ महायशः- बृहत्प्रख्यातिः । भग०८६। महायुद्ध- महायुद्धं व्यवस्थाविहीनमहारणः । भग. १९८ महारंभा- महारम्भः आगम-सागर- कोषः ( भाग : - ४ ) पञ्चेन्द्रियादिव्यपरोपणप्रधानकार्यकारिणः कुटुम्बिनः । स्था० १२६ । महारयण- महारत्नं वज्रम् । सम० १५७। महारयणविहाडगा - महारत्नं वज्रं तस्य महाप्राणतया विघटका अड्गुष्ठतर्जीनीभ्यां चूर्णका महार्नविघटकाः, वज्रं हि अधिकरण्यां धृत्वा अयोधनेनाऽऽस्फोट्यते न च भिद्यते तावेव भिनत्तीति दुर्मेदं तदिति, अथवा महती या रचना सागरशकटव्यूहादिना प्रकारेण सिसङ्ग्रामयिषोर्महासैन्यस्य रणरङ्गरसिकतया महाबलतया च विघटयन्ति वियोजयन्ति ये ते महारचनाविघटकाः । सम० १५७ । महारन्नः- लोकपालः। स्था० ४८३ । लोकपालस्याग्रभूताः प्रधानाः । स्था० २०५| महाराजिक लोकप्रसिद्धम् तृतीयाधर्मद्वारस्य चतुर्दशनाम प्रश्न. १८त महाराय - लोकपालः । भग० ५२० | लोकपालः । निर० २६ | महारायत्त महाराजत्वं लोकपालत्वम्। सम० ८६| महारायवास- महान् - रागो-लौल्यं यत्र स चासौ वासश्च महा-रागवास: गृहवासः, यद्वा महान् अराग:- अलौल्यं यत्र स चासौ वासश्चेति । जम्बू० १४१ । महाराया- महाराजः आव० ११८ | महाराष्ट्र :- अधोऽवनि । पिण्ड० १६७ | महारिट्ठ न्यायाधिपतिः । स्था. ४०६। महारिह महम् उत्सवं क्षणमर्हतीति महार्हाणि । राज० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [83] [Type text] ४८1 महारुक्ख महावृक्षं मधुकादिकम्। जीवा० १३६ ॥ महारुधिरनिवडण महारुधिरेनिपतनम्। भग० १९७ महारुधिराणि- छत्रपत्त्यादिसक्तरुधिराणि जम्बू. १२५1 महारोरुए- महारौरवः तमापृथिव्यां चतुर्थो महानिरयः । प्रज्ञा० ८३ | महारोहिणी - महारोहिणी-विद्याविशेषः । आव० ६८६ । महार्थ महार्थत्व बृहदभिधेयता सम० ६३ ॥ महार्थकर्मप्रवादपूर्व- पूर्वविशेषः । उत्त० ९३ । महालओ - महानालयोऽस्येति महालयः सर्वत्रानिवारितत्वात् आव० ५६७। - महालय- महालयः- महाकायः । सूत्र० ३७४ | महालय :महात्यः । उत्तः ४६१ महाश्रये वक्षःस्थलादिप्रमाणः । आचा० ३८१| महालयसव्वतोभद्द- महालयसर्वतोभद्रं तपोविशेषः । अन्त० ३०| महालयाइं - महालयाणि अतिशयमहान्ति, महान् वा लयः कर्मश्लेषो येषु तानि । उत्तः १९०१ महालिज्जइ- महापिडहम्। जीवा० ३०६ | महालिया विस्तीर्णा । सूत्र० ३२५ महालोहिअक्खो महिषानिकाधिपतिः । स्था० ३०२१ महावच्छ महावत्सा विजयः । जम्बू• ३५२ महावज्जा महावर्ज्या बृह० ९३ अ महावप्पे महावप्रो विजयः । जम्बू. ३५७| महावाय महावातः उद्दण्डवातः । ज्ञाता० १७१ | महावासतरा- अवकाशो-बहूनां विवक्षितद्रव्याणामवस्थान योग्यं क्षेत्रं महानवकाशो येषु ते महावकाशाः अतिशयेन महावकाशा महावकाशतराः । भग० ६०५| महाविजय- देवलोकः । आचा० ४२१ | महाविजया खाद्याविशेषः जीवा० २७८१ जम्बू. १९८८ महाविज्जा- महावैद्याः केवलिचतुर्दशपूर्ववित्प्रभृतिः। आव० ५६८| महाविद्या-महापुरुषदत्तादिरूपा। आव ० ४११। महाविदेह महाविदेहनामवर्ष चतुर्थ वर्षम्। जम्बू. ३१०१ महाविदेहः कर्मभूमिविशेषः । प्रज्ञा० १५१ महाविदेहःमहाबलराजधानी वैरजड़गराजधानी च। आव० ११५ *आगम - सागर- कोष" (४) Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] ज्ञाता० २२७। जम्बूविदेहः। ज्ञाता०१२११ वर्षक्षेत्रम। चक्रादि व्यूहरचनोपे-ततया सव्यवस्था महारणाः। ज्ञाता०७६, १६६, २५३।। जम्बू० १२६| महाविदेहा-महान्-अतिशयेन विकृष्टो-गरीयान देहः- महासंयुग- महासङ्ग्रामः। भग० २२५। शरीर-माभोगः इति यावत् येषां ते महाविदेहाः, अथवा | महासउणि-महाशनिः-कृष्णपितृवैरिणी महान्-अतिशयेन विकृष्टः-गरीयान् देहः-शरीरं-कलेवरं विद्याधरयोषितः विकृर्वितगन्त्रीरूपा। प्रश्न० ७५ येषां ते महाविदेहाः। जम्बू० ३१२ महासक्ख- आशुगमनादश्वो-मनः अक्षाणि-इन्द्रियाणि महाविस- महाविषं-जम्बूद्धीपप्रमाणस्यापि देहस्य अश्वा-क्षाणिमहान्ति च तानि यस्यासौमहाश्वाक्षः। व्यापन-समर्थम्। भग०६७२। महत् जीवा. १०९। महाश्वाक्षः-स्फीतमनाःजम्बूदवीपप्रमाणशरीरस्यापि विषतयाऽऽभावनात्। स्फूर्तिमच्चक्षुरादीन्द्रियश्च। प्रज्ञा० ६०० ज्ञाता० १६२। महाविषः। उत्त० २१३। महासक्खा- महाश्वाक्षाः-आशगमनादश्वो-मनःअक्षाणिमहाविसा-महाविषा प्रधानविषयक्ता। आव. १६६। इन्द्रियाणि स्वस्वविषयव्यापकत्वात् अश्वश्च अक्षाणि महाविस्संद-महाविष्यन्दम्। आव० ५११। चेत्यश्वाक्षाणि महान्त्यश्वक्षाणि येषां ते महाश्वाक्षाः। महावीर- वीर सूर-वीर-विक्रान्तावी' तिवचनात् प्रज्ञा०८८५ रिपुनिराक-रणतो विक्रान्तः, स च चक्रवर्त्यादिरपि महासग्ग- महास्वर्गः। भग० २२० स्यादतो विशेष्यतेम-हांश्चासौ । महासड्ढी- महाश्रद्धी-महती चाऽसौ श्रद्धा च महाश्रद्धा सा दुर्जयान्तररिपुतिरस्करणाद्वीरश्चेति महावीरः। भग० | विद्यते भोगेषु तदुपायेष् वा यस्य स तथा। आचा. ७ आवश्यके वर्णीतः। ज्ञाता०१२९। बृह. २५७ आ। १३९। ब्राह्मणचेटकप्रश्नोत्तरदाता। आव०६६। निशी. १४५ | महासत्ता- सर्वत्र सदित्येवमनुगताकारावबोधहेतुभूता। अ। भगवान्। बृह. १६६ अ। महावीरः-कर्मदार स्था० ३९१ णसहिष्णुः। सूत्र० २५६। श्रीमान् महाराजः। भग० १। महासत्थ- महाशस्त्रं-नागबाणादि। जम्बू. १२५ द्वितीयोऽमुक्तरूपे दृष्टान्तः। स्था० २८४। महासत्थनिवडण- महाशस्त्रनिपतनं महाविहि- महावीथिः-सम्यग्दर्शनादिरूपः मोक्षमार्गः। । महायुद्धादिकार्यभूतम्। भग० १९८१ महावेगा-भूतभेदविशेषः। प्रज्ञा० ७०| महोरगभेदविशेषः। | महासत्थनिपतण- महाशस्त्रनिपतनं-यन्नागबाणादीनां प्रज्ञा०७० दिव्या-स्त्राणां प्रक्षेपणम्। जीवा. २८३। महावेज्ज-अष्टांगायुर्वेदरूपं वैदयशास्त्रं चक्रे तच्च | महासत्थवाहे- श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य यथाम्नायां येनाधीतं स महावैद्यः। बृह० १६० अ। गोशालककृतो-पमा। उपा०४५ जोगी धणंतरी तेण विभंगणाणेण दई रोगसंभवं महासद्दियं- वक्खरियं दाणसंगहियं काउं महाजणमज्झे वेज्जसत्थयं कयं तं अधीयं जेण जहुत्तं सो बोल्लवेति महासद्दियं| निशी. २०अ। महाविज्जो। निशी० १३९ अ। महासन्नाह- बृहत्पुरुषाणामपि बहूनां यः सन्नाहः। जीवा० महाशिलाकंटकं-कोणिकपक्षे अमरकृतो प्रथमो संग्रामः। २८३ व्यव० ४२६ । महासमरसंघाओ- महासमरसंघातः-महायुद्धसमूहः। आव० महाशिलाकापल्य- जम्बूद्वीपप्रमाणो चर्थःपल्यः।। ७११| अनुयो० २३७ महासय- उपाशकदशायामष्टममध्ययनम्। उपा० १। महासंगाम- महासंग्रामः-चेटिककौणिकवत् घौरसङ्ग्रामः। | राजगृहे गाथापतिः। उपा० ४८१ जीवा० २८३। महासङ्ग्रामः-सव्यवस्थचक्रादिव्यूहरचनो- | महासागर- महासागरः-स्वयम्भूरमणः। आव० ५६७। पेतमहारणः महाशस्त्रनिपातनादयस्तु त्रयो महासामाण-सहस्रारकल्पे देवविमानविशेषः। सम० ३३ महायुद्धादिकार्यभूताः। भग० १९८१ महासङ्ग्रामाः- | महाशुक्रकल्पे विमानम्। भग०७०६) मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [84] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] महासाल- महाशालः-पृष्टिचम्पानगर्यां युवराजा। उत्त० । महासेणकण्हा- महासेनकृष्णा३२१। महाशालः-श्रीवीरशिष्यः केवलीजातश्च। उत्त. अन्तकृद्दशानामष्टमवर्गस्य दशममध्ययनम्। अन्त० ३२३। २७। महासेनकृष्णा। अन्त० ३२१ महासावय- षष्ठशतकस्य तृतीयोद्देशकः-महाश्रावकः। महासेते- नाट्याधिपतिः। स्था० ४०६। भग. ३२६। महासेन- द्वारामत्यां बलवर्गमुख्यः। ज्ञाता० १०० महासासण- महाशासनः-राजाधिपः। आव०७१२२ महासोक्ख- महासौख्यः। भग० ८६। महासौख्यः-महमहाशासनः-महामण्डलिकः। आव०७१८ महाशासनः। त्सौख्यं यस्य प्रभूतसवेंदोदयवशा स महासौख्यः। उत्त०३०२। जीवा० १०९। महासौख्यः-महत्सौख्यंमहासिला- सचेयणाऽसंदा महासिला। निशी० ८२ आ। प्रभूतसवैयोदयवशात् यस्य स महासौख्यः। जीवा. महासिलाकंटए- महाशिलैव कण्टको जीवितभेदकत्वात २१७। सूर्य २५८१ महासौख्यः विशिष्टस्खयोगाद। महाशिलाकण्टकः। यत्र ज्ञाता० ३०| प्रभूतसद्वेद्योदयवशाद् यः सः तणशकलादिनाऽप्यभिहतस्याश्व महासौख्याः । प्रज्ञा० ८८1 महत् सौख्यं येषां ते महाहस्तादेर्महाशिलाकण्टकेनेवाभ्याहृतस्य वेदना जायते सौख्यः। सूर्य. २८६। महत्सङ्ग्रामः महाशिलाकण्टकः। भग० ३१६) भवनपतिव्यन्तरेभ्योऽतिप्रभूतं तदपेक्षया तेषां महाशिलाकंटओ- महाशिलाकण्टकः प्रशान्तत्वात् सौख्यं येषां ते महासौख्याः। सूर्य. २५८ सङ्ग्रामविशेषः आव०६८४१ महासोतामो- पादत्राणाधिपती। स्था० ३०२ महासिव- महाशिवः-षष्ठपुरुषपुण्डरीकवासुदेवपिता। महास्कन्द-भूतभेदविशेषः। प्रज्ञा० ७० आव. १६३१ महास्थण्डिल- शबपरिष्ठापनभूमिलक्षणम्। बृह. २३७ महासीहनिक्कीलिय-तपविशेषः। ज्ञाता० १२४। महासीहसेण- महासिंहसेनः-अनुत्तरोपपातिकदशानां महाहरि- महाहरिः-हरिसेनपिता। आव. १६२ दविती-यवर्गस्य द्वादशममध्ययनम्। अनुत्त०२। महाहरी-हरिसेन चक्रिणः पिता। सम० १५२ महासुक्क- महाशुक्रः-सप्तमदेवलोकः। भग० २२०। सह- | महाहिमवंत-महाहिमवान्-हेमवतक्षेत्रस्योत्तरतः स्रारकल्पे देवविमानविशेषः। सम० ३३। महाशक्रः-सुप्रभ | सीमाकारी-वर्षधरपर्वतः। जीवा० १९४। महाहिमवान्। १ सुदर्शना रनन्द ३ बलदेवत्रयागमनस्थानम्। आव.. आव. २९७ १६३। ज्ञाता० १९१। महाहिमवत्- जम्बूद्वीपे दक्षिणस्यां पर्वतः। स्था०६८, महासुक्का- महाशुक्लाः-अतिशयोज्वलतया चन्द्रादित्या- ७०,७२। दयः। उत्त. १८७। महाशक्रः-कल्पोपगः वैमानिकभेद- | महिंद- माहेन्द्रः-पर्वतविशेषः। शक्रो वा। जम्ब०७६) विशेषः। प्रज्ञा० ६९। महाशुक्रः-नारायणवासुदेवागमन- माहेन्द्रः-स्पार्श्वजिनप्रथमभिक्षादाता। आव० १४७। विमानम्। आव० १६३। माहे-न्द्रः-अष्टममुहूर्तनाम। सूर्य. १४६। माहेन्द्रमहासुविण- महाफलत्वात्। भग० ५४३ पर्वतविशेषः। शक्रो वा। औप० १११ लान्तककल्पे महासेए- महाश्वेतः-व्यन्तरेस इन्द्रविशेषः। प्रज्ञा० ९८१ दवादशमसागरोपमस्थि-तिकदेवविमानविशेषः। सम. महासेण- जम्बूद्वीपे ऐरवतवर्षे आगमिण्यामुत्सर्पिण्यां तीर्थ-करनाम। सम० १५४। महासेनः महिंदकनं- महाशुक्रल्पे देवविमानविशेषः। सम० २७। अनुत्तरोपपातिकदशायां द्वितीयवर्गस्य महिंदकुंभसमाण- महेन्द्रकुम्मसमानः-महाकलराप्रमाणः। द्वितीयमध्ययनम्। अनुत्त० २। कुभेन्द्रः। स्था० ८५। । जीवा० २०५१ महासेणकण्ह-निरयावल्यां प्रथमवर्गे दशममध्ययनम्। | महिंदकुंभसमाणाः- महाकलराप्रमाणा यद्वा महीन्द्रो निर० ३। राजा तदर्थं तस्य। समबन्धिनो वा कुम्माः । २२ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [85] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] अभिषेककलशा तत्समानाः। जम्बू. ५० जर्जरितम्। ज्ञाता०८६ सेव्यतया वाञ्छितः। उपा०४० महिंदज्झय- लान्तककल्पे देवविमानविशेषः। सम० २२ मथितः माननिमंथनतः। भग० ३१९। महिंदज्झया- महेन्द्रा-अति महान्तः समयभाषया ते च । महिया- महिका-धूमिका। दशवै० १५३। महिका-धूमिका। ध्वजाश्चेति अथवा शक्रदेवेन्द्रध्वजा। स्था० २३२ आचा० ३३३। धूमिया-सायं कत्तियमग्गसिरादिसु मणिपेढिकोपरिध्वजा। स्था० २३० गब्भमासे भवति। निशी० ६९ आ। महिका-गर्भमासेषु महिंदुत्तरवडिंसग- महाशुक्रकल्पे देवविमानविशेषः। गर्भसू-क्ष्मवर्षा। उत्त०६९१। धूमिका। ओघ० १४१| सम. २७ महिका-धूमिका। स्था० २८७। जो सिसिरे तुसारो पडइ महिअ- महितः-पुष्पादिभिः पूजितः। आव० ५०७। सो। दशवै. ६८ आ। गर्भमासादिषु सायं प्रातर्वा महिआ- महिकाः-धूमिकारूपोऽप्कायः। ओघ० ३१| धूमिकापाती महिका। आचा० ४०। महिका-धूमिका। महिता सूत्र. ३५८१ महिका-आपाण्ड्रा । भग. १९६। महिकायथावस्थितानन्यसाधारणगुणोत्कीर्तनलक्षणेन गर्भमासेषु सूक्ष्मवर्षम्। जीवा० २५। स्निग्धा-घना भावस्तवेनार्चिताः। नन्दी. १९२१ घनत्वादेव भूमौ पतिता महिओ-महितःहृष्टो, तुष्टो, नन्दितो वा। आव०७५९। सार्द्रतणादिदर्शनद्वारेणोपलक्ष्यमाणा महिका। जीवा० हृष्टतुष्टनन्दितो। निशी० ७८ अ। म्लानिं प्राप्तिः। बृह. २८३। महिका-गर्भमासेषु सूक्ष्मवर्षा। प्रज्ञा० २८१ ११४ । महिला- मिथिला-अकम्पिकगणधरजन्मभूमिः। आव० महिका-स्निग्धा घना। अन्यो० १२१। प्रालेयं-स्नेह- २२५। मिथिला-द्रव्यव्युत्सर्गे विदेहजनपदे नगरी। आव. सूक्ष्मविशेषः। दशवै० २२९। ७१९। महिच्छं- महेच्छं-अविदयानद्रव्यविषये महाभिलाषम्। महिला)भं- महिलास्तूपं-कूपतटम्। आव० २७५) प्रश्न० १२४१ महिलाभाव- महिलाभवम्। आव० २१३। महिच्छा-महेच्छा-अपरिमितवाञ्छा, महिवइपहा- महीपतिपथा-राजमार्गः, महीपतिप्रभा। परिग्रहस्यैकादशमनाम। प्रश्न. ९२। महेच्छा ज्ञाता० ३। महीपतिपथः-राजमार्गः। राज०३। महाभिलाषः। प्रश्न. ९७ महिषानीक- पञ्चमोऽतीकभेदः। जीवा० २१७। महिट्ठ- महिष्ट-तर्कसंसृष्टम्। विपा० ८० महिस- महिषः-द्विखुरचतुष्पदः। जीवा० ३८१ महिसःमहिइढिए- महर्द्धिकः विमानपरिवारापेक्षया। भग० ८६ सौरमेयः। जीवा० २७२। महिइढिओ-राया। निशी. १४३ आ। बृह. १६५ महिसपोहो- छगणपोहः-गोमयम्। पिण्ड० ८३। महिडढीय- महर्द्धिकः-ग्रामस्य नगरस्य वा रक्षाकारी। | महिसमड- महिसमृतः-मृतमहिषदेहः। जीवा० १०६। व्यव० १९ । महिसा- द्विखुरविशेषः। प्रज्ञा० ४६। महित- महितः-अभिष्टुतः-द्रव्यस्तवेन पूजितश्च। महिसिंदुरुक्ख- खजूरीवृक्षः। आव० १९४। अनुयो० ३७।मथितम्। आव०८1 महिसी- कृताभिषेका देवी महिषी। राज०१४। महित्थ- गच्छाविशेषः। प्रज्ञा० ३२। महिस्सर- भूतेन्द्रः। ठापा०८५ महिमा- महिमा देवकृता। आव० २४१। महिमायात्रा। मही- महानदीविशेषः। स्था०४७७ आव० ५३७। भगवत्प्रतिमायाः महीयांस- पूज्याः। नन्दी०६५।। पुष्पारोपणादिपूजात्मकः। बृह. २७६ अ। महु- मधम्। आव० ४०२। मधु-मद्यविशेषः। जम्बू. १००। महिमाकाल- महिमकालः। आव०६६५ मधु-शर्करापरपर्यायम्। जम्बू. १०४। मधु-मद्यविशेषः महिमाण- महात्म्यम्। मरण। प्रज्ञा० ३६४। मधु-ब्रह्मदत्तस्य द्वितीयप्रासादः। उत्त. महियं- देवविमानविशेषः। सम० ४१। गोरसम्। आव० ९५ ३८५। मधु-क्षौद्रम्। उपा० ४९। मधु-मद्यविशेषः। उत्त. गोरसं। आव०६२४। तक्रम्। बह० २८ अ। मोहितं ६५४ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [86] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text]] महआसव- मध्वाश्रवः। औप० २८१ मथुरा-परलोकनमस्कारफलदृष्टान्ते पुरी। आव० ४५४। महुकेढव- मधुकैटभः-पुरूषोत्तमवासुदेवशत्रुः। आव० असत्याकारे निर्व्याघाते नगरी। आव०६२२। तितिक्षोदा१५९। हरणे जितशत्रुराजधानी। आव०७०२। निशी० ३५२। महुकोसय- मधुकोशकः-क्षौद्रोत्पत्तिस्थानम्। प्रश्न० ३८५ मथुरा-श्रमणीप्रभृतीनां मानुष्योपसर्गे नगरम्। व्यव० महुघात- मधुघातः-मधुग्राहकः। प्रज्ञा० १३॥ १९६। श्रमण्युपसर्गकृबोधिकनिवारिकः क्षपकस्थानम्। महत्त- कालविशेषः। भग० ८८८1 बृह. २४०। चन्द्रप्रभगाथापतिवास्तव्या नगरी। ज्ञाता० महपुग्गल- मधुपुद्गलम्। आव०८५७ २५३। तिविहं सुत्तअत्थअभिहाणमहरं। दशवै० ३५ ।। महुमहण- मधुमथनं-आक्रष्टुम्। आव० ४८१ मथुरा-योगसंग्रहे भावपत्सु दृढधर्मत्वदृष्टान्ते नगरी, महमुह- दुर्जनः। बृह. २५५आ। । यमुना-राजधानी। आव०६६७। देवनिर्मितस्तूभस्थानम्। महुमेहणि- मधुमेहो-बस्तिरोगः स विद्यते यस्यासौ व्यव० १९७। मथूरा-शूरसेनजनपदे आर्यक्षेत्रम्। प्रज्ञा० मधुमेही, मधुतुल्यप्रस्त्राववानित्यर्थः। आचा० २३६। ५५ मथुरा-कृष्णपुरी। आव० १६२। मथुरामहुर- मधुरं-मधुरस्वरेण गीयमानम्। जीवा० १९४१ त्रिपृष्ठवासुदेव-निदानभूमिः। आव०१६३। मधुरस्वर-कोकिलारुत्वत्। जम्बू०४०। मधुरं श्रवणम- महुला- पादे गंडं। निशी. १३७ आ। नोहरम्, अष्टमो सूत्रगुणः। आव० ३७६। मधुरं- महवयण- वनस्पतिविशेषः। भग० ८०२। सूत्रार्थोभयैः श्राव्यम्, गद्यलक्षणविशेषः। दशवै० ८८ महस-नगरीविशेषः। निशी० २४१ अ। महरः-चिलातदेश-वासीम्लेच्छविशेषः। दशवै० १८० | महुसिंगिणिरुहा- वृक्षविशेषः। भग० ८०४। मथुरा। आव० १७३। मधुरं-कर्णसुखकरणम्। ज्ञाता० महसिंगी-साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः। प्रज्ञा० ३४| २११। मधुरः-श्रवणसु-खकरः। ज्ञाता० २३२। षष्ठ महसित्थ- येन प्रदेशेनालक्तकामिन्याः पात्यते दूतप्रेषणस्थानम्। ज्ञाता० २०८५ मधुरः तावन्मात्रं यो लिम्पति कर्दमः स मधुसित्थः। ओघ० हलादनबृंहणकुत्। स्था० २६| २९। मधुसिक्थं-औपपातिक्यां दृष्टान्तः। उत्त० ४२१| महुरग- मधुरम्। आव० ६२० मदनम्। भग० ३९९। मधुसिक्थः -तलयोर्यः कर्दमो महुरतण- तृणविशेषः। प्रज्ञा० ३३। लगति। बृह. १६३ । महुररस- मधुररसः-साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः। | महुसित्थगी- तीलान्तगमेत्तो। निशी० ८० अ। प्रज्ञा० ३४॥ महुसित्थजलं- मधुसित्थकजलं-यद् महुरसर- मधुरस्वरं मधुमत्तकोकिलारुतवत्। अनुयो. अलक्तकमार्गावगाहि-कर्दमस्योपरि वहति। ओघ० ३२॥ १३२ महेंदज्झया- महेन्द्रध्वजः। जीवा० २२९। महुरस्सरा- मधुरस्वरा-द्विपकुमाराणां घण्टा। जम्बू. महेइ- मथ्नाति-घर्षयति। भग० ५२० महति। आव. १९७। ४०७ महेन्द्रसिंह- कुवलयमालागतराजपूत्रः। स्था० ५१६) महरा- मथुरा-जितशत्रुराजधानी। उत्त० १२०। मथुरा- महेयक्षा- महोरगविशेषः। प्रज्ञा०७०| चिरप्रतिष्ठितापुरी, इन्द्रदत्तपुरोहितवास्तव्यानयरी। महेलागुण- महेलागुणःउत्त० १२५। मथुरा-जितशत्रुराजधानी। उत्त० १४८१ प्रियंवदत्वभर्तृचित्तानुवर्तकत्वप्र-भृतिः। जीवा० २७४। मथुरा-यत्राक्रियावादीनिह्नव उत्पन्नः। उत्त० १७३, महेसक्ख- महेशाख्यः इति महान् ईशः-ईश्वरः इत्याख्या १७९। शङ्ख-युवराजराजधानी। उत्त० ३४५। मथुरा- यस्य महेशाख्यः ईशं-ऐश्वर्यमात्मनः ख्यातिनगरीविशेषः। दशवै. ३६। मथुरा अन्तर्भूतण्य-र्थतया ख्यापयति-प्रथयति जिनदासवास्तव्यानगरी। आव० १९८। मथा। आव. महांश्चासावीशाख्यश्च। जीवा० १०९। महान् ईश-ईश्वर ३०। मथुरा-पर्वतराजनगरी। आव० ३४४। मथुरा- इत्याख्या-शब्दप्रथा यस्य लोके स महेशाख्यः, अथवा चक्षुरिन्द्रियोदाहरणे जितशत्रराजधानी। आव० ३९८१ ईशानमीशो, 'भावे घञ्' प्रत्ययः, ऐश्वर्यमित्यर्थः, 'ईश मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [87] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] افا۲ ऐश्वर्ये' इति वचनात् तत्र ईशं ऐश्वर्यमात्मनः ख्याति- | महोरगच्छाय-महोरगच्छाया-छायागतिविशेषः। प्रज्ञा. अन्तर्भूतण्यर्थतया ख्यापयति प्रकाशयति तथा ३२७ परिवारादिकीर्त्या वतते इति ईशाख्यः महोरगा- महोरगाः-उरःपरिसर्पभेदविशेषः। प्रज्ञा०४६। महांश्चासावीशाख्यश्च महेशाख्याः। प्रज्ञा० ६०० वाणव्यन्तरभेदविशेषः। प्रज्ञा०६९। महेसक्खा- महेशः-महेश्वर इत्याख्या-अभिधानं यस्या महोसही- महौषधिः-राजहंसीप्रमुखः। जम्बू०४११ असौ महेशाख्यः महेशाभिधा। भग० ८६। महान् ईशः- | महोवगरण- महोपकरणं-द्रव्यनिचयम्। आचा० १२३। ईश्वरः इत्याख्या येषां ते महेशाख्याः। सूर्य. २८६। इति- | मांस-थलम्। अनुयो० १४१। मांसं-अशुचिविशेषः। प्रज्ञा० महान् ईश-ईश्वर इत्याख्या-प्रसिद्धिर्येषां ते महेशाख्याः, | ८० अथवा ईशानमीशो भावे 'घ'प्रत्ययः ऐश्वर्यमीत्यर्थः- । मांसकच्छप- कच्छपभेदः। सम० १३५। 'ईश ऐश्वर्ये' इति वचनात तमीशं-ऐश्वर्यमात्मानं- मांसखलं- यत्र सड़खडिनिमित्तं मांस छित्वा शोष्यते ख्यान्ति अन्तर्भूतण्य-र्थतया ख्यापयन्ति-प्रथमयन्ति | शुष्क वा पुजीकृतमास्ते ते तत्तथा। आचा० ३३४॥ इति ईशाख्याः महान्तश्च ते ईशाख्यश्च महेशाख्याः। । | मांसलं- गुरुधर्मकत्वात्। जीवा० ३३१, ३७० अकठिनः। प्रज्ञा०८८1 जम्बू० ४६। मांसलः-बहलः। जीवा० ३५१| महेसरा- महेश्वरः-जिनदासः। आव० ३९६। महेश्वरः- मांसानुसारि-मांसान्तधात्व्यापकम्। स्था० ३७५ विद्याचक्रवर्ती। आव० २८५ महेश्वरः-रुद्रापरनामा। माअनि-मादनि-निरयावल्यां पञ्चमवर्गे आव० ६८५, ६८६। महेश्वरः-श्राद्धक्लोत्पन्नस्य द्वितीयमध्ययनम्। निर० ३४॥ सत्यकिनाम। दशवै. १०७। महेश्वरः माइअंग- मातृकाङ्ग-आर्तवविकारबहुलम्। भग० ८८1 व्यन्तराणामिन्द्रविशेषः। प्रज्ञा० ८९। माइअ-हस्तपाशितम्। जम्बू० २०५१ महेसरदत्ते- महेश्वरदत्तः-जितशत्रुराजपुरोहितः। विपा. | माइग्गाम- स्त्रीवर्गः। बृह० ३१४ आ। माइहाण- मातृस्थानं-माया। दशवैः ५९। महेसरीए- विन्ध्यगिरिपादमूले नगरम्। भग० ६५२१ माइहाणिय- मातृस्थानिकः-मायिकः। दशवै. ५९। महेसि- महान्-बृहन् शेषस्वर्गाद्यपेक्षया माइमिस्सिगा- मातृप्रभृतिका। आव० ७०३। मोक्षस्तमिच्छति-अभिलषति महदेषी महर्षि वा। उत्त. माइय- मयूरितः-सजातप्ष्पविशेषः। भग० ३७। ३६६। महर्षिः- महैषी वा महांश्चासौ ऋषिश्चेति महर्षिः- | मयूरितः। औप०७ मायिनो-वजकः। ज्ञाता० १९११ महान्तं एषितुं शीलं यस्येति महैषी। दशवै० ११६| रूक्षादिवाल-युक्तत्त्वात् पक्ष्मलम्। ज्ञाता० २३७। महेसी- महर्षिः-महैसी, महः माइया- मयूरिता। ज्ञाता० ५। हस्तपासिका। प्रश्न० ४७। एकान्तोत्सवरूपत्वान्मोक्षस्त-मिच्छतीत्येवं शीलः माइल्ल- मायावान्। स्था० ५१४। मायामहैषी। उत्त. २५५। महैषी-मोक्षैषी। दशवै. २४६| परवञ्चनोपायचिन्ता तवान्। उत्त० २४५ मायालःमहर्षिः-महांश्चासौ सर्वज्ञत्वतीर्थप्रवर्तनाद्यति- मायावान्। ओघ० १५०, ९८१ मायावी। ओघ० १५१। शयवत्वाद् ऋषिश्च मनिरिति तीर्थकरः। प्रश्न० २। माइवाहय- मातृवाहकः-विकलेन्द्रियजीवविशेषः। अन्यो. महो- महः-एकान्तोत्सर्वरूपत्वान्मोक्षः। उत्त० २२५ महोदरो- जो बहुं भुञ्जति सो। निशी० १४ आ। माइवाहा-दविन्द्रियविशेषः। प्रज्ञा०४१। मातृवाहः-कोद्रवामहोयर- महोदरः महज्जठरः। उत्त० २७३। कारतया ये कोद्रवा इति प्रसिद्धा। जीवा० ३१| महोरग-उरःपरिसर्पभेदः। सम० १३५जीवा० ३९। माइसपत्ति- मातृसपत्नी। आव० ३६६। महोरगः-उरःपरिसर्पविशेषः। प्रश्न । माई- मायी-अनन्तानुबन्धिकषायोदयवान्। प्रज्ञा० ३३९। महोरगकण्ठ- महोरगकण्ठप्रमाणो रत्नविशेषः। जीवा. मायी-उत्कटरागदवेषः। प्रज्ञा० ३०४| माया-कौटिल्यम्। दशवै. २५४। माया-अनन्तानबन्धिकषायः। भग०४४। ६८ १४१ २३४१ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [88] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text) अभीक्ष्णं मायाप्रतिसेवी । व्यव० २५४ | माईठाण - मायास्थानम् । सम० ३९। आगम - सागर - कोषः ( भाग : - ४) माउ- माता। आव० ३७२ माउओय मातुरोजः जनन्याऽऽर्तवं शोणितम्। भग०८७ मागतं वस्त्रस्यादयन्तभागों मूलदशारूपों वस्त्रं यतो व्यूयते तदादिभूत्वान्मातृका अन्तः दशान्तः बृह २३५| माउगा- मातृका-कृष्णवासुदेवनिदानकारणम् । आव ० १६३ | माउगाओ मातरः- प्रवचनमातरोऽष्टौ प्रवचनमूलम् । आ० ४८३ | माउगापय- मातृकापदं-उत्तरभेदापेक्षया त्र्यशीतिविधलवम् । नन्दी० २३ माउग्गाम- मातृगामः । बृह० १८४ आ । माउपय मातृकापदं, तद्यथा उपन्नेइ वेत्यादि इह प्रवचने दृष्टिवादे समस्तनयवादबीजभूतानि मातृकापदानि भवन्ति तद्यथा उपन्ने वा विगमेड़ वा धुवे वात्ति स्था• २२३ माउयंगा - मात्रङ्गानि आर्त्तवपरिणतिप्रायाणीत्यर्थः । स्था० १७०| मायकाय मातृकापादनि उप्पणेति वेत्त्यादीनि तत्समूहः मातृकाकाय आव• ७६७ माउयपय- मातृकापदः- 'उप्पण्णे इ वा विगमेइ वा धुवे इवा' इति ऐषां मातृकवत्सकलवाङ्मयमूलता। अकाराद्यक्षरात्मिका उत्त० १४१ प्रवचने दृष्टिवादे समस्तनयवादबीजभूतं मातृकापदम्। दशवै० ७। मातृकापदं मातृकाक्षरादि मातृका भूतं वा पदम्। दशवै० ८७| मातृकापदं- 'उप्पन्ने इ वा विगमे इ वा धुवे इ वा', इत्येष मातृकावत्सकलवाङ्गमयमूलतया अवस्थितानामान्यतरद्विवक्षितं अकारादयक्षरात्मिकाया वा मातृकाया एकतरोऽकारादिः । स्था० ६ | माउया- मातृका-प्रवचनपुरुषस्योत्पादव्यध्रौव्यलक्षणा पदत्रयी। स्था० ४८१। वस्त्रादिव्यूतिभागः । बृह० २३५ अ। सख्यो मातरो वा । ज्ञाता० १५८ । माउयाणुयोग- दशविधद्रव्यानुयोगे द्वितीयः । मातृकाप्रवचन पुरुषस्योत्पादव्ययधाव्यलक्षणा पदत्रयी तस्य मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [89] [Type text] अनुयोगः । स्था० ४८१। माउर चक्षुरिन्द्रियनष्टः । भक्तः । माउन मातुलः मातृसहोदरः। दशकै २१५ माउलिंग मातुलिङ्गम् । प्रज्ञा० ३६४१ मातृलिङ्गंबहुबीजकम् प्रज्ञा० ३२| मातृलिङ्गं बीजपूरकम्। दशवै० १८५५ वनस्पतिविशेषः । भग० ८०३। मातुलिङ्गःबीजपुरकः । अनुयो० १९२ माउलिंगपाणगं- पाणकविशेषः । आचा० ३४७ | माउलिंगी - गुच्छाविशेषः । प्रज्ञा० ३२| माउलुंग मातुलुङ्गः प्रजा० ३२८ माउसिया मातृस्वसा जननीभगिनी । विपा० पटा माउसियाउत्तो मातृष्वसेयः आव. १८८० माओऊयं- मातृरजः। तन्दु० । माकंदी- चंपायां सत्थवाहः ज्ञाता० १५६। मागंदियपुत्त- महावीरविभोः शिष्यः । भग० ७३९ | मागंदी - ज्ञातायां नवममध्ययनम् । आव० ७५३ | सम० ३६ । मागध- तीर्थविशेषः । ज्ञाता० १२८ । द्रव्यतीर्थः । आव ० ४९८ ५८ मागधगणिका नानाविधकपटकरणदक्षा गणिका । सूत्र १०५| मागह- मगधजनपदजातत्वान्मागधः । भग० ११४ | मागधः क्षत्रियवैश्याभ्यां जातः । आचा० ८ मगधदेशः । ज्ञाता० ११६ | मागधः- भट्टः । ज्ञाता० ४। मागध मङ्गलपाठकः। अनुयो० ४६ । जम्बूद्वीपे तृतीयं तीर्थम् । स्था॰ १२२| मागधः-भट्टः । औप० ५। मागधः-बन्दीभूतः । जीवा. २८०| मगधेषु भवं मागधं मगधदेशव्यपहतम् । स्था० ४३५| मागहओ मागधिकः - मागधसत्कः ओघ० २१५| मागहतित्थकुमार मागधतीर्थकुमारः मागधतीर्थस्याधिपतिः कुमारो मागधतीर्थकुमारः, तन्नामकः देवः जम्बू० २०३ | मागहपत्थ- प्रमाणेन मगधदेशव्यवहृतः प्रस्थोः मागधप्रस्थः । मागधप्रस्थः । ज्ञाता० ११९ | मागहपेच्छा- मागधप्रेक्षा । औप. ९९| माहिआ मागधिका-छन्दोविशेषः । जम्बू. १३८१ मागहिय कलाविशेषः ज्ञाता० २८१ मागहिया मागधिका उत्त० १३७| *आगम - सागर- कोष" (४) Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] माग्गमग्गि- पृष्ठतःपृष्ठतः। आव० ३८८1 मृषाभाषाया द्वितीयो भेदः। स्था०४८९। मानम्। पिण्ड. माघभद्रा- वापी नाम। जम्बू. ३७०| १२११ विभागनिष्पन्ने प्रथमो भेदः। अनुयो० १५१ माघवति- कृष्णरात्रेः तृतीयं नाम। स्था० ४३२१ मानः-गर्वपरिणामः। जीवा० १५) ज्ञाता०२७ स्था० माघवती- माघवती-कृष्णरात्रिः। भग. २७१। ३३६। मानः-जात्यादिगुणवानहमेवेत्येवं मननंमाजिष्ट- रागविशेषः। जम्बू. १८८1 अवगमनं, मन्यते वाऽनेनेति मानः। स्था० १९३। मानःमाडंब- मडम्बं जलदुर्गम्। उत्त० ३४३। अहमितिप्रत्ययहेतुः। उत्त० २६१। मानः-जातिकुसर्वतश्छिन्नजनाश्र-यविशेषरूपं मडम्बम्। अन्यो. २३॥ लरूपबलादिसमुत्थो गर्वः। आचा० १७०। मान-प्रस्थमाडंबिअ- माडम्बिकः-पूर्वोक्तमडम्बाधिपः। जम्बू. १२२१ कादिः। आचा० ४१३। मान-सेतिकादि तविषयम्। स्था० माडम्बिकः-चित्रमण्डपाधिपः। राज० १२११ मडम्ब-जल- ४४९। मान-जलद्रोणप्रमाणता। ज्ञाता०११। एतत्। बृह. दुर्ग तस्मिन् भवो माडम्बिकः तद्भोक्ता। उत्त० ३४३। १३३ अ। वंदण-अब्भुट्ठाणपव्वइओ जो रागदेसे कीर-इओ माइंबिआ- माडम्बिकः-मडम्बाधिपतिः जीवा० २८० वा। दशवै०८८आ। मानः। राज०१३३ माडंबिइया- माडम्बिकः-छिन्नमडम्बाधिपतिः। ब्रह. माणक-माप्यविशेषः। जम्ब० २४४। १२१ ॥ माणकर-माणकरः-गच्छार्थकरोऽहमिति माद्यति। स्था० माडंबित- माडम्बिकः-छिन्नमडम्बाधिपः। स्था० ४६३। २४१। प्रज्ञा०३२७ माणजुत्तो- जलपरियाए दोणीए जलस्स दोणं छड्डेतो माइंबिय- माडम्बिकः-प्रत्यन्तराजा। प्रश्न. ९६। माड- माण-जुतो। निशी० ८५आ। द्रोणं पाणियस्य म्बिकः-छिन्नमडम्बाधिपः। भग० ३१८,४६३। पडिच्छति। निशी. ६अ। माडम्बिकः संनिवेशविशेषनायकः। भग० ११५, ४६३। माणण- माननं-अभ्युत्थानासनदानाञ्जलिप्रग्रहादिरूपम्। चित्रमण्डपा-धिपः। राज० १२१] आचा. २६। माडबी- माडम्बिकः-प्रत्यन्ताधिपः-छिन्नमडम्बनायकः। | माणनिसूरण- दृप्तारात्यहङ्कारविनाशकः। उत्त०४४८१ बृह० २५५ आ। माणनिस्सिआ-माननिःसृता-मृषाभाषाभेदः। माडबिओ- जो छिण्णमंडवं भुञ्जति सो माडबिओ। निशी० मानाध्माताः। दशवै० २०९। माननिःसृता २७० । यत्पूर्वमनुभूतमप्यैश्वर्यमात्मोत्कमाढभाग-रजतमय उत्सेधः। जम्बू०४९। र्षख्यापनायानुभूतभस्माभिस्तदानीमैश्वर्यमित्यादि माढर- रथानितापती। स्था० ३०३। वदतो भाषा। प्रज्ञा० २५६। माढरि-साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः। प्रज्ञा० ३४१ | माणपिंडो- माणहितो जं एसतित्ति सो माणपिंडो, माढी- सन्नाहविशेषः। जम्बू० २०६। तन्त्राणविशेषः। अभिमाणतो पिंडग्गहणं करेतिति माणपिंडो। निशी. प्रश्न.४७ १०० आ। माण-मानं-कुडवादि। आव०८२३। मानक्रिया-मानाय माणब्भंस- मानभ्रंशम्। ज्ञाता० १९२। यत्करणम्, क्रियायाः नवमो भेदः। आव०६४८ मानं- माणभद्द-मिथीलायां चैत्यः। भग० ४२५ जलद्रोणप्रमाणता। औप०१३। मान माणमाणे- मानयन् तदनुभावमनुभवन्। ४६२१ मानावमानगणिमप्र-तिमानलक्षणम्। आव० १२८ माणयति- मानयति श्रुतोपदेशं प्रति चोदनादिभिः मानं-जलद्रोणप्रमाणता। प्रश्न०७४। मान-प्रमाणम्। शिष्यान् दशवै० २६४। सूर्य०१७१। मानः वन्दना-भ्युत्थानलाभनिमित्तः। माणवए- माणवर्गः-षट्चत्त्वारिंशत्तमो महाग्रहः। स्था. दशवै. १८७ मानं-जलद्रोणप्रमा-णताः। जम्बू. २४३। ७९| माणवकः। दशवै०६३। माणवकः। सूर्य. २६७। मानं-जलद्रोणप्रमाणता। स्था० ४६१। मान-स्वलक्षण अष्टाशीतौ षट्चत्त्वारिंशत्तमो महाग्रहः। जम्बू. ५३४। अनन्तानबन्ध्यादिविशेषः। आचा० १६४। भग०१४३ | माणवक- चैत्यस्तम्भः। सम०६४। सौधर्मसभायां मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [90] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] स्तम्भः। ज्ञाता०१५ माणिभद्दत- महापद्मसेनापतिः। स्था०४५९। माणवग- माणवकः-चैत्यस्तम्भः। जम्बू. ३२७। चक्रवर्ते- माणिभद्र- द्रव्यपूतिनिरूपणे समिल्लपरे यक्षः। पिण्ड. ऽष्टमो निधिः। स्था० ५५८१ ८३। अनिसृष्टद्वारविवरणे गृहस्थविशेषः। पिण्ड. माणवगण-श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अष्टम गणः। ११३ यक्षभेद-विशेषः। प्रज्ञा०७०| स्था०४५११ माणिम- माणजोगो-माणणोओ। दशवै० १५७ आ। माणवगनिही- माणवकनिधिः। आव० ११४१ मान्यः। दशवै. २७५ माणवगा- माणवकनामानः चैत्यस्तम्भः। जम्बू. १६३। माणो- माणिका-षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयपलप्रमाणा। माणस- गान्धर्वानिकाधिपतिः। भग०६७४। स्था० ४०६। अनुयो० १५२। मानी-जात्यादिमदो पेतः। सूर्य. २९६। माणसन्ना- मानोदयादहङ्कारात्मिका माणुम्माणियं- एगस्स वलमाणं अन्नेण अणनीयत इति उत्सेकादिपरिणतिर्मानज्ञा। प्रज्ञा० २२२१ माणुम्माणियं। निशी० ७१ । मनोदयादहकारात्मिकोत्सेकक्रिया, मानसः माणम्माणियहाणाणि- मानोन्मानस्थानानिसंज्ञाऽनयेति मानसंज्ञा। भग० ३१४१ मानप्रस्थकादिः उन्मान-नाराचादि, यदि वा मानोदयादहङ्कारात्मि-कोत्सेकक्रियैव मानोन्मानमित्यश्वादीनां वेगादिपरौक्षा तत्स्थानि सज्ञायतेऽनयेति मानसज्ञा। भग. ३१४| तवर्णनस्थानानि वा। आचा० ४१३ माणसिय- मानसिकः। आव-७७८। मनसा निर्वृत्तो माणुस- मनसि शेते मानुषः, मनोरपत्यमिति वा। उत्त. मानसः स एव मनःक्तो मानसिकः। आव० ५७१। १८१। मानुषः। आव. २७३। मानसिक-चिन्तितम्। स्था० ४६६। माणुसखेत्त- मानुषक्षेत्र-समयक्षेत्रमम्। प्रज्ञा० ४२९। माणसीसहस्स-मानसीसहस्रम्। जीवा. २३३। माणुसरंधणाणि- मानुषरन्धनानि चुल्ल्यादीनि। आचा० माणा- माना-मानानुगता। आव० ५४८ ४११। माणि-माणिभद्रभिधानदेववासत्त्वान्माणिभद्रकूटम्। माणुसुत्तर- मानुषोत्तरः-पुष्करवरस्य द्वीपस्य स्था०४५४१ बहमध्यदेशभागे पर्वतः। जीवा० ३३३, ३४३। माणिओ-मानिकः। ओघ. ९८१ रः। आव. १९२१ मण्डलाकारपर्वतः। स्था० माणिज्जामि- मानयिष्ये। उत्त०८४९। १६६। मानुषेभ्यो-मानुष-क्षेत्राद्वोत्तरः परतो वर्ती माणिभद्द- माणिभद्रः-वर्द्धमानपरस्य विजयवर्द्धनोद्याने मानुषोत्तरः। स्था० १६६। ईशान-कल्पे यक्षः। विपा० ८८1 माणिभद्रः वैश्रमणस्य पुत्रस्थानीयो देवविमानविशेषः। सम०२ देवः। भग० २००। माणिभद्रः-उत्तरनिकाये व्यन्तरेन्द्रः। | माणुस्स- मानुष्यकं-मनुष्यसम्बन्धिं औदारिकशरीरम्। भग. १५८ भग०६८० निरयावल्यां तृतीयवर्गे उत्त० १८४। मानुष्यम्। आव० ३४१| षष्ठमध्ययनम्। निर० २१। सुधर्मसभायां माणेमाणी- मानयन्ती स्पर्शद्वारेण। ज्ञाता० ३३। माणिभद्रसिंहासने देवः। निर० ३६। मणिपतिनगाँ मातङ्गविद्या- यदुपदेशादतीतादि कथयन्ती डोण्ड्यः। गाथापतिः। निर०३६। माणिभद्रः-यक्षे-न्द्रः। जीवा० स्था० ४५११ १७४| निशी. २२ अ। माणिभद्रं-औत्तरपौरत्ये मातमिस्सिया- मातृमिश्रा। आव० ८२३। दिग्विभागे चैत्यः। सूर्य.रामाणिभद्रः-यक्ष-विशेषः। मातापितृसमान- अम्मापिइसमाणो-उपचारं विना साधुषु आव. २२५ मिथिलानगर्यां चैत्यविशेषः। जम्बू. ९, एकान्तेनैव वत्सलः। स्था० २४३। मातिघर- मातृगृहम्। आव०८६३। माणिभद्दकूड- मणिभद्रनाम्नो देवस्य निवासभूतं कूटं मातुलिंग- बीजपूरम्। आव० ३५६) मणिभ-द्रकूटम्। जम्बू० ७७। मणिभद्रकूट मातुलुंग- बीजपूरकम्। अनुत्त०६। वैताढ्यकूटनाम। जम्बू० ३४१। | मातृवाहकाः- ये काष्ठशकलानि समोभयाग्रतया ५४० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [91] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] सम्बन्धिः । उत्त०६९५१ मामिया- मामिका मातुलभार्या। विपा० ५८१ मातृस्थान- मायागारवम्। दशवै० २२६। कपटम्। पिण्ड० | मायंकटु-मायां कृत्वा-मायां पुरस्कृत्य माययेत्यर्थः। १४४। अनुयो० १४०| आव० ८३८॥ स्था० १३७ मात्रः- कास्यभाजनायुपकरणमात्राया आधार विशेषः। मायंग- मातङ्गः-हस्तौ। जीवा० १२२ अनुयो० १५९ मायंगी-मातङ्गी-योगसंग्रहे शिक्षादृष्टान्ते श्रेणिकदौहित्री मात्रा- तुल्यवाची। निशी. १०८ आ। अभयपत्नी विदयाधरपुत्री। आव०६७३। मात्रापुत्रीय- सङ्ग्रामे परानीकसुभटेन जेत्रा। सूत्र० ८० मायंजण- तृतीयो वक्षस्कारः। स्था० ३२६। मातजनोमात्सिकमल्ल-मल्लविशेषः। व्यव० ३५७ अ। वक्षस्कारादिः। जम्बू० ३५२ माथुरकोट्टइल्ल- उदायिनृपमारकः। आव० ५२९। मायंदी- माकन्दी-षष्ठाङ्गे नवमं ज्ञातम्। उत्त०६१४। माथुरखभार- आक्रोशसहः। मरण। ज्ञाताधर्मकथायाः प्रथमश्रुतस्कन्धे नवममध्ययनम्, माथुरी- मथुरापरिसङ्घटितमत इयं वाचना माथरी। माकन्दीनाम वणिक् तत्पुत्रो माकन्दीशब्देनेह गृहीतः। नन्दी० ५१। मथुरापुर्यां पुनरनुयोगः प्रवर्तित इति ज्ञाता०९। वाचना माथुरी। नन्दी० ५१ माय- गुप्तत्वेन मायाप्रधानोऽतिचारः। स्था० ४१९। मातंमादिमिस्सगा- मातृमिश्रका। आव० ६७६) अन्तःप्राप्तावस्थिति तद्रव्यम्। अन्तरवस्थितम्। मान-धान्यमान-सेतिकाकुडवादि। जम्बू० २२७। मान- उत्त० ५१३। माया-परमञ्चनाध्यवसायः। आचा० १७०| जलद्रोणमानता। भग. ११९। माया-दशविधमृषायां तृतीया मृषाभाषा। स्था०४८९। मानकर-कथमहमनभ्यर्थितः कथयिस्यामीति मानकरः। मायन्ने- यावद् द्रव्योपयोगिता मात्रा तो जानातीति स्था० २४११ तज्ज्ञः । आचा० १३२ मानक्रिया- यज्जात्यादिमदमत्तस्य परेषां माया- मीतये वाऽनयेति माया। स्था० १९३। माया-सर्वत्र हीलनादिकरणम्। स्था० ३१६] स्ववीर्य निगूहनम्। आव० ४३। माया-वञ्चनबुद्धिः। मानमूरण- मानमर्दनः। जम्बू० ४२१| सूर्य. ३२९। मात्रा-आहारमात्रा। भग० १२२१ मात्रामानवत्तिए- मानप्रत्ययः-जात्यादिमदहेतुकः। सम० २५। । आलम्बन-समूहांशः। भग. २९४। मातामानसं- एकस्मिन् वस्तुनि चित्तस्यैकाग्रता। बृह. २५६। व्युत्पत्तिभूमिः। प्रश्न. १७ मर्यादा-मात्राशब्दस्य मानससरः-दिव्यसरोवरविशेषः। प्रज्ञा. १५९। मर्यादावाचित्वेनापि रूडत्वात्। उत्त. २६९। मानुष- मनुजः। नन्दी० १६११ | परिमाणार्थोऽयं मात्राशब्दः। उत्त० २६९। ज्ञाता०७१। मानुषोत्तर- लब्धिमतामेकोत्पातस्थानम्। आव० ४७ परवञ्चनबुद्धिः। ज्ञाता० २३८। परवञ्चनाभिप्रायः। मामए- मामकः-ममेदमहमस्य स्वामीत्येवं परिग्रहाग्रही। व्यव. २९ मात्रशब्दः। आकारभावव्यतिरिक्तप्रति सूत्र०६९। मामकः-मा मम समणा घरमइंत् ओघ० १५६) बिम्बादिधर्मान्तरप्रतिषेधचाचकः, निशी० २९२ । वास्तव्यपरिणामप्रति-षेधवाचकः। आव० ३३८५ मामग- मामकं-यत्राहं गृहपतिः मा कश्चिद् गृहमागच्छेत् स्वपरव्यामोहोत्पादकं शाठ्यम्। उत्त० २६१। एतादृशं गृहम्। दशवै० १६६। य एवं वक्ति -मा मम प्रतारणबुद्धिः। प्रश्न० ५८माया। पिण्ड० १२१। समणा घरमइंत्। ओघ० ९३ मायाक्रिया, क्रियाया एकादशमोभेदः। आव०६४८। मामणा- ममीकारार्थे (देशीवचनम)। आव० १२८। निकृतिः। आव० ७८९। मायान्गता। आव० ५४८५ मामाओ- आहारादिएस् चेव सव्वेस् ममत्तं करेति मायनिर्वत्तितं यत्कर्म मिथ्यात्वादिकं तदपि माया। मामाओ। विविधदेसगुणेहिं पडिबद्धो मामाओ। निन्चू प्रज्ञा० ५५८ अनार्जवम्। प्रज्ञा० ३३५। निकृतिरूपा। ९२ आ। जीवा. १५ मायाविषयं गोपनीयं, प्रच्छन्नमकार्य कृत्वा मामाक- ईर्ष्यालुः। बृह. २४६अ। नो आलोचयेत् मायाम्। स्था० १३७। परवञ्चनबुद्धिः। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [92] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] ज्ञाता०७९। मात्रा-संयमयात्रार्थं परिमिताहारग्रहणम्। मायाशल्यम्। स्था० १४९। मायाशल्य-माया-निकृतिः नन्दी. २१० मात्रा-परिणमणम। उत्त. २८१। अष्टमं सैव शल्यं मायाशल्यम्। सम०९। पापस्थानकम्। ज्ञाता०७५ मायी- मायीत्युपलक्षणत्वात् कषायवान्। भग. १९३। मायाक्रिया- यच्छठतया मनोवाक्कायप्रवर्तनम्। स्था० मार-मारः-आयुष्ककर्मक्षयलक्षणः। आचा० ३८। चतुर्थ३१६ नरके तृतीय अपक्रान्तो नरकेन्द्रः। स्था० ३६५ मारःमायागारव- मायागारवं-मातृस्थानम्। दशवै. २२६। मदनः मरणं वा। प्रश्न० ६७ नाट्यविशेषः। जम्बू. मायानियडीपसंग- मायैव निकृतिर्मायानिकृतिस्तस्याः ४१४। मारः मणिलक्षणविशेषः। जीवा. १८९| मारंप्रसङ्गः । आव. २६४। संसारम्। आचा. १६९। मायानिस्सिया- मायानिःसृता, यत्परवञ्चनादयभिप्रायेण | मारणंतिअसमग्घाए- मारणान्तिकमुदघातःसत्य-मसत्यं वा भाषते। प्रज्ञा० २४६। अन्तर्मुहूर्तशेषा-युष्ककर्माश्रयः। शरीरनामकर्माश्रयः। मायामोस-मायामृषा-वेषान्तरकरणतो लोकविप्रतारणम्, सम० १२१ सप्तदशमं पापस्थानकम्। ज्ञाता०७५ मारणंतिय- मारणान्तिकी-मारणमेव योऽन्तस्तत्र भवा। वेशान्तरभाषान्तर-करणेन यत्परवञ्चनं तत् स्था० ५७ मारणमेवान्तो-निजविजायुषः पर्यन्तो मायामृषा। भग०८० मायामृषा-वादः। औप०७९| मरणान्तः तस्मिन् भवः मारणान्तिकः। उत्त० २४२। मायामोषः-तृतीयकषायदवितीयाश्रवयोः सयोगः। भग० | मारणंतिया- मारणं-प्राणत्यागलक्षणं सर्वायुष्कक्षयलक्षणं ८० मायामृषा-मायालक्षणकषायानुगत च, तमेवान्तस्तत्रभवा मारणान्तिकी। आव०८३९। त्वात्मृषारूपत्वाच्च। अधर्मद्वारस्य चतुर्थं नामः। मारणंतियहियासणा- मारणान्तिकाभिसहना-कल्याणमिप्रश्न. २६। माया च निष्कृतिर्मषा च-मषावादो मायया त्रबुद्धया मारणान्तिकोपसर्गसहनम्। वा सह मृषा मायामृषा, प्राकृत्वान्मायामोसं, सप्तविंशतितमोऽनगार-गुणः। अन्त्यगुणः। आव. वेषान्तरकारणेन लोकप्रता-रणम्। स्था० २७। ६६० मायामृषावादः। दशवै०१८ब। मारण- प्राणवियोजनं असिशक्तिकुन्तादिभिः। आव० मायामोसि-मायामृषा-तृतीयकषायद्वितीयाश्रवयोः ५५८। अव्यक्तत्वापादनम्। आचा० ३९। संयोगः। औप०७९। मारणसमुग्घाए- मारणे-भवो मारणः स चासौ मायावत्तिए- मायाप्रत्ययो मायानिबन्धनः। सम० २५ ___ समुद्घातश्च मारणसमद्घातः । जीवा० १७) मायावत्तिया- मायाप्रत्ययकी-विंशतिक्रियामध्ये तृतीया। | मारणा- मरणहेतुः विपा. ४२१ मारणा-प्रतीता, प्राणवधस्य आव०६१ माया प्रत्यया-माया-अनार्जवं क्रोधादिरपि सप्तमः पर्यायः। प्रश्न. १ स च प्रत्ययः-कारणं यस्याः सा, सम्यग्दृष्टेस्तृतीया मारा- शूना। ज्ञाता० २०२। क्रिया। प्रज्ञा० ३३४। माया-शाठ्यप्रत्ययो-निमित्तं माराए- मारणाय। आचा० १२७। यस्याः कर्मब-न्धक्रियाया-व्यापारस्य वा सा तथा। मारामारी- डामरम्। आव०७११| स्था०४२ मारामुक्के- मारा-शूनी तस्या मुक्तो वा स मारामुक्तो मायासन्ना- मायासञ्झा माराद्वा-मरणान्मारकपुरुषाद्वा मुक्तो-विच्छुटितः। मायावेदनीयेनाशभसङ्क्लेशादनृत-सम्भाषणादिक्रिया। ज्ञाता० २०२० प्रज्ञा० २२२। मायासज्ञा-मायोदये मारि- झटिति वर्षविषया प्रतीतिः। नन्दी. १९। मारिःनाशुभसङ्क्लेशादनृतसम्भाषणादिक्रियैव जन-मरकः। सम०६श मारि-मरकः। जम्बू. आव० सज्ञायतेऽनयेति मायासज्ञा। भग० ३१४| मायासल्लं-मायाशल्यम्। ओघ. २२७। माया-निकतिः मारीइ-मारी-युगपद्रोगविशेषादिना बहनां शल्यते-बाध्यते अनेनेति शल्यं सैव शल्यं कालधर्मप्राप्तिः । जम्ब० १२५ ४०१ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [93] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] ४५ मार्ग- पृष्टः। दशवै० २३५। छेदनं-मार्गातिक्रमणम्। स्था० | निशी० १७३ अ। ३४६| माला- समूहः। ज्ञाता० १३३। अनेकसुरकुसुमग्रथिता। मार्गतः- | नन्दी०। ६० आव०१८४| मालाः-श्रेणयः। जम्बू. १०४। अरहट्टस्य मार्गण- निपुणबुद्धयान्वेषणम्। पिण्ड. २९| माला। ओघ. १९| मार्जार- बिडालः। उत्त०६२६। बिडालः। प्रज्ञा०२५४। मालाकारा- श्रेणिविशेषः। जम्बू. १९३ वायुः। स्था० ४५७ मालिअं- मालितं-धारितम्, परिहितम्। जम्बू. १८७ मार्जारपादिका- हरितभेदः। आचा० ५७ मालिण- मुकुली-अहिभेदविशेषः। प्रज्ञा० ४६। मार्जिता- शिखरिणी। आचा० ३३६) मालिणीय- मालनीयं-परिवारणीयम्। जीवा. १९९। माल- उपरितलव्यवस्थितः। ओघ० ५२। कायोत्सर्गे मालिय-मालिकम्। जीवा. २६९। पञ्चम-दोषः। आव० ७९८ मालः गृहोपरि क्रियामाणः। माली-सुविधिनाथस्य चैत्यवृक्षः। सम० १५२। भग. २७४। आचा० ३६२। उपरितलम्। ओघ.५२ वनस्पतिवि-शेषः। राज०७९। वनस्पतिविशेषः। जम्बू मालोमा-लकः-उपरितनभागः। ज्ञाता० १५७) द्वितीयभूमिका। बृह. १३। श्वापदादिरक्षार्थे मालुआ- एकास्थिकफलवृक्षविशेषः। जम्बू. ४६। मञ्चविशेषः। ज्ञाता०६३। माल मालुगा- मालुका विनयविषये अम्बर्षिब्रह्मणभार्या कोगृहस्योपरितनभागः। स्था० १२४। श्राविका। आव०७०८५ त्रीन्द्रियजीवभेदः। उत्त०६९५१ मालक- गृहोपरितनभागः। बृह. १६८ आ। मालुज्जेणि- दृष्टान्तसूचकं वचनम्। ओघ० १९। मालंकार- हरितराजः। स्था० ३०२। मालुय- वनस्पतिविशेषः। भग० ८०३। मालुकःमालणा- माल्यते-व्याप्यते इति मालणा। ओघ. ९२२ वृक्षविशेषः। प्रज्ञा० ३१| मालुकः-एकास्थिकफलवृक्षमालणीया- परिवारणीयानि। जम्बू. ४३। जीवा० १९६, विशेषः। राज०८० ३५९। मालुया- मालका-वल्ली। सूत्र०८ माल्का-एकास्थिकमालती- ज्ञातिः। जम्बू०४५। कुसुमम्। ४७३। फला। जीवा. २०१। त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः। जीवा. ३२१ मालनीयं- परिवारणीयम्। ज्ञाता०४२। वल्लीविशेषः। प्रज्ञा० ३३ मालय- माल्यम्। आव० १५१। मालुयाकच्छ- मालुकानाम एकास्थिकवृक्षविशेषः। तस्य मालयघर- मालकगृहं-द्वितीयभूमिकायुपरिवतिगृहं। । यत्कक्ष तत्तथा। भग० ६८५१ मालकाकच्छः-एकास्थिजम्बू. १०६ कफलवृक्षः। ज्ञाता०७८ मालवंत- माल्यववक्षस्कारनिभोत्पलादि मालुयामडवर- मालुकामण्डपकः-वृक्षविशेषयुक्तो योगान्माल्यवद्देव-स्वामिकत्वाच्च माल्यवदहृदः। मण्डपकः। जीवा० २०११ जम्बू. ३२० माल्यं-पुष्पं नित्यमस्यास्तीति माल्यवान् | मालोहड-मालात्-मञ्चादेरपहतं-साध्वर्थमानीतं देवः। जम्बू. ३३९। सीता-नदयां प्रथमवक्षस्कारपर्वतः। यद्मक्तादि तन्मालापहृतम्। त्रयोदशम उद्गमदोषः। स्था० ३२६। माल्यवन्नाम वृत्तवैताढ्यपर्वतः। जम्बू. पिण्ड० ३५ ૨૮૦[. माल्यवत- रम्यग्वर्षे पर्वतः। स्था०६८। मालवंतदह- उत्तरकुरौ पञ्चमहृदः। स्था० ३२६। माल्यवान्- पर्वतविशेषः। प्रज्ञा० १५९। मालव-मालवा म्लेच्छविशेषाः शरीरापहारिणः। व्यव. माश्वग्गो-स्त्रीजनः। बृह. १११ अ। १४ अ। मालवकः-स्तेनः। आव०८१९। मालवः माषतष- घोसंतस्स वि जस्स गंथो न हायति स मेहो। चिलातदेशनिवासीम्लेच्छविशेषः। प्रश्न. १४। निशी० ३६ आ। अपूर्वधराणामप्रमादवती शुक्लध्याम्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा० ५५ नोत्पत्तिः। आव० ६०३। अल्पश्रुतत्वे दृष्टान्तः। उत्त. मालवग-जनपदविशेषः। भग०६८० पर्वतविशेषः। ૬િ૮૦ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [94] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] माषतुषादि- श्रमणविशेषः। भग० ८९५ देशविरतः। भग० ८९। साधः। आचा० २९४। मनिः। मास-माषः-पञ्चरक्तिकामानः। उत्त. २९७ आचा० १६३। ब्राह्मणः। आव० १८८1 माहनः-श्रावकः। औषधिविशेषः। प्रज्ञा० ३३| धान्यविशेषः। भग० ८०२। भग० १४११ मा हनं इत्याचष्टे यः परं पति स्वयं माषः-चिलातदे-शनिवासीम्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा० १४१ हनननिवृत्तः सन्तिति स माहनो-मूलगुणधरः। स्था० अन्यानि नामानि समयावलिकादीनि असतीति मासः। १०८। माहनं-मा हन-मा विनाशय मानानि वा द्रव्यक्षेत्रा-न्यसतीतिमासः मानासनात् इत्येवंपरुपणाकारिणः। स्था० ५२१। ब्राह्मण:मासः। निशी. १४० अ। पर्वगवनस्पतिविशेषः। प्रज्ञा० संयतासंयतः। सूत्र. १२० ब्राह्मणः-ब्राह्मणविशेषः। ३३। कालमानविशेषः। भग० ८८८ भाषाः। २५७माषो- सूत्र. ३४१ मा वधीइत्येवं रूपं मनोवाक्क्रिया च यस्यासौ दशाधंगुञ्जामानः सुवर्णादि-मयः। निर० २४। माषा। माहनः। उत्त०४४२। माहनः-ब्राह्मणः। उत्त०४१८ मा भग. २९० धान्यविशेषः। दशवै. १९३। हणति प्रवृत्ति यस्यासौ माहनःमासकप्प- मासकल्पम्। आव० ६३० नवब्रह्मचर्यगुप्तिगुप्तो ब्रह्मचर्यधार-णाद्वा मासग्ग- मासाग्रः। आव० १७३। ब्राह्मणः। सूत्र. २६३। ब्राह्मणः। स्था० ५०८। भगवान्। मासपन्नी- मासपन्नीः-वनस्पतिविशेषः। भग० ८०४। आचा. २६९। मा वधीरिति प्रवृत्तिर्यस्य स माहणः । मासपाण्णि- साधारणबादरवनस्पतिविशेषः। प्रज्ञा० ३४१ सूत्र० ५८। ब्राह्मणः-बार्हस्पत्यमतानुसारी परिव्राजकामासयं-जत्थ गिहपती भणति। दशवै.७६ आ। दिर्वा श्रमणोपासकः। सूत्र०१४। माहणो-ब्रह्मणःमासरासिवण्णाभ- मांसराशिवर्णाभः। जीवा० ३७०| द्विजातिः। सूत्र० ३९३। माहणो-माहनः स माससिंगा- माषफलिका। प्रज्ञा० २६६। ब्रह्मणचर्योपेतः। सूत्र०४२५। ब्रह्मणःमासा- परिवर्ताजनपदे आर्यक्षेत्रम्। प्रज्ञा०५५ माषाः। ब्रह्मचर्य्याद्यनुष्ठाननिरतः। सूत्र. १४३। माहन:पिण्ड० १६८1 समयविशेषः। स्था० ८६] परमगीतार्थः श्रावकः। राज० १२८१ मासावल्ली- वल्लीविशेषः। प्रज्ञा० ३२ माहणकुंडग्गाम- सोमिलबम्भणग्गामं। निशी० २९ आ। मासिआ- प्रथमभिक्षुप्रतिमा। सम० २१। ऋषभदत्तब्राह्मणवास्तव्यं नगरम्। भग०४५६| मासिए-तपविशेषः। आव० ३२७। ब्रह्मणकुण्ड-ग्रामः- ऋषभदत्तब्राह्मणवास्तव्यं मासिएणंभत्तेणं- मासिकेन भक्तेन-मासोपवासैः। जम्बू. नगरम्। आचा० १७८ ૨૮૦]. माहणवणीमग- पञ्जमो वनीमगः। स्था० ३४१। मासियं-प्रथमाभिक्षुप्रतिमा। ज्ञाता०७२। माहप्प- माहात्म्यं-महानभावताम्। ज्ञाता०२११। माहण-मा वधीरिति प्रवृत्तिर्येषां ते माहनाः माहप्पता- महतो अप्पा माहप्पता। प्रभावः। निशी. १। उत्तरगणमूलग-णवन्तः संयतः इत्यर्थः। स्था० ३१२ माहल- चतुरिन्द्रियजीवभेदः। उत्त०६९६) माहनः-ब्राह्मणः। स्था० ३१२। माहनः-ब्राह्मणः। स्था० | माहिद- माहेन्द्रः-सप्तमो मुहूर्त्तनाम। जम्बू० ४९१। ३४२। माहनः-ब्राह्मणः। उत्त० ३०७। मा हनेत्येवं माहिंदः-सप्तमतीर्थकृत्प्रथमभिक्षादाता। सम० १५१| योऽन्यं प्रति वक्ति स्वयं हनननिवृत्तः सन्नसौ माहेन्द्रः-भोगपुरे क्षत्रियः। आव. २२२। माहेन्द्रः-इन्द्रमाहनः, ब्रह्म वा ब्रह्मचर्यं कुशलानुष्ठानं विशेषः। आव २२५। दवादशमसागरोपमस्थितिको वाऽस्यास्तीति ब्राह्मणः। भग० २२६। मा प्राणिनो जहि- देवः। सम० २२। माहेन्द्रः-चतुर्थदेवलोकवास्तव्यदेवः। व्यापादयेत्येवं प्रवृत्तिः उपदेशो यस्य माहनः प्रज्ञा०६९। सप्तममुहूर्तनाम। जम्बू०४९। सब्रह्मचारी वा ब्राह्मणः। सूत्र. २९८ मा हन माहिंदफल-माहेन्द्रफलं-इन्द्रयवः। उत्त० १४२ इत्येवमादिशति स्वयं स्थल माहिंदरे- अनन्तनाथजिनस्य पूर्वभवनाम। सम० १५१| प्राणातिपातादिनिवृत्तत्वाद्यः स माहनः, अथवा माहिंदवडिंसग- माहेन्द्रावतंसकः-माहेन्द्रलोकस्य मध्येsब्राह्मणो-ब्रह्मचर्यस्य देशतः सद्भावाद ब्राह्मणो- वतंसकः। जीवा० ३९११ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [95] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] माहू-यस्मादर्थे। निशी० ६२आ। मनोज्ञः। जीवा० २२९॥ माहेन्द्र-रोहिणीज्येष्ठादिनक्षत्रसम्भवम्। अनुयो० २१६ | मिउग्गह-तृतीयमहाव्रते प्रथमा भावना। आचा० ४२६। माहेसर-माहेश्वरः-मायाश्राद्धः। आव० २९६| माहेश्वरः। मिउणियाणि- मृद्कानि। गणि। आव० ३९९। मिउत्तं- मृदुत्वं-कायनम्रता। आव. २६४। माहेस्सरी-लिपिविशेषः। प्रज्ञा० ५६। माहेश्वरी- मिउमदव- मृदु च तन्मार्दवं च मृदुमार्दवंनगरीविशेषः। आव. २९५ महत्या ईश्वर्या कारितेति अचिन्त्यमार्दवम्। ज्ञाता०७७ माहेश्वरी-दक्षिणापथे पुरी। आव० १७४। मिउमद्दवसंपन्न- मृदुः यन्मार्दवंमाहोज्ज- माधुर्य-मार्दवम्। बृह. २५६ ।। अत्यर्थमहकृतिजयस्तत्सं-पन्नः-प्राप्तः। भग० ८११ माहोज्जहोज्जा- माधुर्यहार्या-मार्दवग्राह्या। बृह. २५६। मृदुः-द्रव्यतो भावतश्चावनमन-शीलस्तस्य भावः कर्म मिंज- मजा-अस्थिमध्यावयवविशेषः। प्रश्न ८ बीजम। वा-मार्दवं यत्सदा मार्दवोपेतस्यैव भवति तेन सम्पन्नः स्था० ५२१। मिजा-कीकसमध्यवर्ती धातुः। भग. तदस्यासात्सदा मृदुस्वभावो मदमा-र्दवसंपन्नः। उत्त. १३५ कीकसमध्यवर्ती धातुविशेषः। औप. १०० ५९१। मध्यावयवः। भग०८८1 मयूरपिच्छमध्यवर्तिती। मिउमद्दवसंवण- ममार्दवसम्पन्नः-मृदुः-मनोजें जम्बू. ३५। मिजं-बीजम्। मिजं-बीजफलम्। प्रज्ञा. परिणाम सुखावहं यन्मार्दवं तेन सम्पन्नः, न ३७ कपटमार्दवोपेतः। जीवा० २७८१ मिठ- गजपरिवर्तुकः। बृह. ३११ अ। मिए- मृगः-अज्ञः। दशवै० २४७ मिढियागाम- मिण्ठिकाग्रामम्। आव० २२६। मिग- मृगः-अरण्यप्राणी। उत्त० २४९। मृगः-आटव्यपशुमि- मेराति। आव० ७८२। मृदुमार्दवत्त्वम्। आव० ७८२। विशेषः। प्रश्न. १३५। मृगः-श्वापदः। सूत्र० १५०। मृगःमाम्। उत्त० ३६५ अज्ञः बालशैक्ष्यकादि। व्यव० २५० अ। मिअंक- गुच्छाविशेषः। प्रज्ञा० ३२ मिगकोट्ठक- मृगकोष्ठकं-नगरं, यत्र जितशत्रुराजा। आव. मिअ- अतिवचनविस्तररहितं। सङ्क्षिप्ताक्षरं मितम्। २९१। अनुयो० १३३ मिगचरिय- मुगाणां चर्या इतश्चेतश्चात्प्लवनात्मकं मिअगंध- मृगगन्धः-जातिवाचकःशब्दः। जम्बू. १२८॥ चरणं मृग-चर्या। उत्त०४६२ जम्बू० ३१३ मिगचरिया- मितचारिता-परिमितभक्षणात्मिका। उत्त. मियलोमिय- ये मृगेभ्यो ह्रस्वका मृगाकृतयो बृहत्पुच्छा ૪૬રા. आटविकजीवविशेषास्तल्लोमनिष्पन्नं मृगलोमिकम्। । मिगदेवी- मृगादेवी-बलश्रीमाता, राज्ञी। उत्त० ४५० अनुयो० ३५ मिगपरिसा-अधित्तसत्ता अगीतत्था। निशी. १९ अ। मिआ- मिता-गृहस्थैरनुज्ञाता भूमिः। दशवै० १६८१ अधीतिनः परमगीतार्थाः। बृह. १०२आ। मृगपर्षद। मिआवई-मृगावती-भावप्रतिक्रमणोदाहरणे आर्या-उदयन- | निशी. ३८ आ। माता। आव० ४८५। भृगावती-आर्योदयनमाता, यस्वा | मिगवण- सावस्त्यामुद्यानम्। राज० ११४॥ आर्या चद्दनासकाशे केवलमृत्पन्नम्। आवा० ४८५ | मिगवालंकी- मृगवालुंगी लोके प्रसिद्ध। प्रज्ञा० ३६४। मिइंग- मृदङ्गो-मार्दलः। स्था० ३९५। मृदङ्गो-मईलः। | मिगवितीए- मृगैः-हरिणैर्वृत्तिः-जीविका यस्य स भग० ४७६| मृगवृत्तिकः। भग० ९३ मिई- मृगी-मृगीरूपेणोपघातकारिणी विदया। आव० ३१८१ | मिगव्वं- मृगव्यं-मृगया। उत्त०४३८, ४३९। आहेडगो। मिउ- मृदुः-कोमलम्। नन्दी० ५। मृहः-अकोपनः, कोम- | निशी० १३६ आ। मृगया व्यसनं-अनेकेषां लालापी वा। उत्त०४९। मृट्टः-कोमलः। जीवा. २०७। मृगादिजन्तूनां वधं करोति तत्। ब्रह. १५७ अ। मृदुः-मनोजम्-परिणामसुखावहम्। जीवा० २७८। मृदुः- | मिगसिंग- मृगशृङ्ग-समासतो द्रव्यशस्त्रम्। आचा० ३३॥ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [96] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] मिगसिर- मृगशिरः-अचलजन्मनक्षत्रम्। आव. २५५। मिथ्यादृष्टिः, उदितमिथ्यात्वमोहनीयः। सम० २८१ मृगशिरः। सूर्य १३०। मृगशिरः संस्थानाम्। जम्बू. मिथ्यादृष्टिः। पिण्ड०६९। ४९७ मिच्छदिहिया- मिथ्यादृष्टिकाः-मिथ्या-विपर्ययासवती मिगा-अज्ञाः। व्यव. २५० जिनाभिहितार्थसार्थाश्रद्धानवती दृष्टिः-दर्शन-श्रद्धानं मिगावई- मृगावती-प्रजापतिपत्नी। आव० १७४। येषां ते मिथ्यादृष्टिकाःमृगावती-त्रिपृष्ठवासुदेवमाता। आव० १६२। मृगावतिः- मिथ्यात्वमोहनीयकर्मोदयादरुचितजिन-वचनाः। भावप्रतिक्रम-णोदाहरणे तद्पयुक्तो व्यक्तिविशेषः। स्था० ३०१ आव०४८५ क्षामणे ज्ञातम्। भक्त०। मिच्छा-मिथ्या। स्था० ४९९। मिथ्या-अनृत। दशवै. १२६। मिगावती- उदायनमाता। भग० ५५६। मृगावती-शतानीक- मिथ्याकारः-मिथ्यक्रिया। आव. २५८१ म्लेच्छाराजपत्नी। आचा०६३। पारसीकादयः। बृह. १३४ । दवितीया। सामाचारी। मिज्जई- मीयते-तोल्यते स्वीक्रियते। आचा० ४३० भग. ९२०| दशधा सामाचार्यां दवितीया। स्था० ५०० मिच्छं पडिवज्जमाणा- तं गुहिं कयं मेरं मिथ्येति प्रतिक्रमामि। आव० ५७३। अभिक्कमंतित्ति, सुयाए जहा जइ वयंडहरया न होता। मिच्छाउक्कड- मिश्रयाष्कृतम्। आव० २६४१ दश. १३२॥ मिच्छाउक्कडपयक्खरत्तो- मिथ्यादुष्कृतपदाक्षरार्थः। मिच्छ- वैपरीत्यम्। स्था० ४७३। मिथ्याभावं-विनयभ्रंश- आव०७८२ मित्यर्थः। स्था० ३९९| मिथ्यात्वं म्लेच्छयंवा मिच्छाकार- कथंचत् स्खलितस्य भिथ्या मदीयं अनार्यत्वम्। भग० ६७५ मिथ्यात्वम्। दशवै० २४४। दुष्कृतमिति भणनं मिथ्याकारः। बृह. २२२। मिथ्यामिच्छगद्दभ- म्लेच्छगर्दभः। ओघ० ८४ असदेतद् यन्म-याऽऽचरित्येवं करणं मिथ्याकरः। मिच्छत्त्वं- मिथ्यात्वं-विपर्यासः। प्रश्न०६२ मिथ्यात्वं अनुयो० १०३ तत्त्वार्थाश्रद्वानरूपम्। आव०८११। मिच्छादसण-मिथ्या विपरीतं दर्शनं मिथ्यादर्शनम्। मिथ्यात्वमोहनीय स्था० १४९। मिथ्यादर्शनंपदगलसाचिव्यविशेषादात्मपरिणामो मिथ्यात्वम्। अतत्त्पेनत्तयामिनिवेशरुपम्। उत्त०७०७) आव० ५६४। मिथ्यात्वं-क्रियादिनामसम्यग्रूपता, मिथ्यादरर्शनं-अनत्त्वार्थ श्रद्धानमिति। सम०९। मिथ्यादर्शनाना-भोगादिजनितो विपर्यासो मिच्छादसणवत्तिया- मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकौ, दुष्टत्वमशोभनत्वं इति भावः। स्था० १५३। मिथ्यात्वं- विंशतिक्रियामध्ये चतुर्थी। आव०६१२२ मिथ्यादर्शनंतत्त्वार्थाश्रद्धानम्। उत्त० २६१। मिथ्यात्वं प्रत्ययो यस्याः सा तथा। स्था०४२ मिच्छत्तकिरिया- मिथ्यात्वक्रिया-सर्वाः मिच्छादसणसल्ल-मिथ्यादर्शनशल्यम्। ओप०२२७ प्रकृतिविंशत्त्युत्त अष्टादशमं पापस्थानकम्। ज्ञाता०७१ रशतसङ्ख्यास्तीर्थकराहारकशरीरतदङ्गोपाङ्गत्रिकरहि | मिच्छादण्ड- मिथ्यैव-अनपराधिष्वेव दोषमारोप्य दण्डो ता यया बध्नानि सा। सूत्र. ३०४। मिथ्यात्वक्रिया- मिथ्यादण्डः। सूत्र० ३३० असुन्द-राध्यवसायात्मिका क्रिया। जीवा. १४३। मिच्छादिही- मिथ्यादृष्टिः-अन्यतीर्थकः। भग. १९११ मिच्छत्तवेयणिज्ज- जिनप्रणीततत्त्वाश्रद्धानात्मकेन मिथ्यादृष्टिः-भूतग्रामे प्रथमं गुणस्थानम्। आव० ६५०| मिथ्या-त्वरूपेण वेद्यते तन्मिथ्यात्ववेदनीयम्। प्रज्ञा० यदा पुनरेकस्मिन्नपि वस्तुनि पर्याये वा एकान्तो ૪૬૮ી. विप्रतिपद्यते तदा मिथ्यादृष्टिरेव। प्रज्ञा० ३८८1 मिच्छत्ताभिणिवेस- मिथ्यात्वाभिनिवेषः। उत्त. १५७ मिथ्यादृष्टिः-विपर्यस्तदृष्टिः। जीवा० १८ मिथ्यात्वाभिनिवेशः-बोधनविपर्यासः। स्था० २८५४ मिच्छादुक्कड- मिथ्यादुष्कृतम्। दशवै० १०४। मिच्छदिट्ठी- मिथ्या-विपरीता दृष्टिर्यस्याऽसौ मिच्छापच्छाकड- मिथ्येतिकृत्वा पश्चात्कृतं मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [97] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text ) न्यायवादिभिर्य-त्तत्। मिथ्यापश्र्चात्कृतम्, अधर्मद्वारस्य द्वादशम नाम प्रश्न. २६| मिच्छापावतण मिथ्याप्रवचन आगम- सागर - कोषः ( भाग : - ४ ) शाक्यादितीर्थिकशासनमिति । स्था० ४५१ | मिच्छामि - मिथ्या विपर्यस्तोऽस्मि भवामि मिथ्याकरोमि वा, मिथ्यामीति, म्लेच्छवदाचरामि वा म्लेच्छामिति मिच्छामि स्था० २१५| मिच्छावाद- मिथ्यावादः - नास्तिक्यम् । दशवै० १११ | मिथ्याबाद: नास्तित्वम् स्था० २११ मिच्छोवयार- मिथ्योपचारः मातृस्थानगर्भा क्रियाविशेषः आव० ५४ मिज्ज- मरणं प्राणत्यागः । भग. १९ मिणाल- मृणालं पद्मनालम्। प्रश्न. १६३॥ मृणालपद्मनालः । जीवा० १९८० मृणालं पद्मतन्तुः । जीवा- १९| मृणाल:- एकजीवकः । प्रज्ञा० २७| मिणालिया- मृणालिका-बिशम्। जीवा० २७२। मितः पूरितः । अनुयो० २२४ | मितवीही मृगवीथी। स्था० ४६८ मित्त - मित्र:- मणिपदानगरनृपतिः। विपा० ९५५ मित्रंपश्चात्स्नेहवत्। स्था० २४५| मित्रं- स्नेहास्पदम् । जम्बू० १२३ | मित्रं सुहत्। भग० १६३ । मित्रसहवर्धितम् । उत्त २६१। मित्रं सहपांशुक्रिडितादि । उत्त॰ १८८\ मित्रं- सुहृत्। विपा० ५८। मित्रं-स्नेहविषयः । जीवा० २८१ | मित्रः- वणिग्ग्रामे राजा । विपा० ४५। मित्रःतृतीयमुहूर्तः। जम्बू॰ ४९१। मित्रः-तृतीयो मुहूर्तः। सूर्य॰ १४६| मित्रः नन्दपुराधिपतिः । विपा० ७९॥ मित्तगा बलव्यन्तरेन्द्रस्य प्रथमायमहिषी स्था० २०४ मित्तजण मित्रजनः सुहल्लोकः । सम० १२८० मित्तदाम- जम्बूद्वीपे भरतवर्षेऽतीतायामुत्सर्पिण्यां प्रथमः कुलकरः । सम० १५० | स्था० ३९८ \ मित्तदोसवत्तिए- मित्रदोषप्रत्यय: मातापित्रादिनामल्पेऽप्यपराधे महादण्डनिर्वर्त्तनम् । सम० २६| मित्तनंदी - मित्रनन्दिः-साकेतनगरनृपतिः । विपा० ९५| मित्तपगत- मित्रप्रकृतः जेमनादिप्रकणः । आव० ६५ मित्तप्पभे- मित्रप्रभः संवेगोदाहरणे चम्पानरेशः । आव ० ७०९ | मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] मित्तवग्ग मित्रवर्ग:-: :- सुहृत्समूहः। उत्त॰ ३८९ | मित्तवती मित्रवती कायोत्सर्गदृष्टान्ते चम्पायां श्रेष्ठिपुत्र सुदर्शन पत्नी श्राविका । आव० ८०० | मित्तवादी तृतीयोऽकीरियावादी स्था० ४२५| मित्तवाहण - जम्बूद्वीपे आगामिन्यामवसर्पिण्यां प्रथमकुलकरः । स्था• ३९८ मित्तसमाण- मित्रसमानः-सोपचारवचनादिना प्रतीक्षतेः । स्था० २४३ | मित्तसिरी- मित्रश्रीः- आमशालवने श्रमणोपासिका । उत्तः १५९| मित्रश्रीः- अम्बशालवने श्रमणोपासकः । आव ० ३१४|| मित्रश्रीः- आमलकल्पायां निह्नवप्रतिबोधक श्रावक- विशेषः आव. ३१५१ [98] मित्ता- मित्राणि सहजातकादीनि । बृह० १३५अ मित्तिज्जमाण- मित्रियमाणाः मित्रं ममायमस्त्वितीष्यमाणः । उत्तः ३४६ मित्तिया - वत्सगोत्रभेदः । स्था० ३९० | मिती - मैत्री - यत् मैत्रीनिमित्त प्रतिमिच्छन् वन्दते तत्, कृतिकर्मणः त्रयोदशम् दोषः ५४४१ मित्तीभावं मित्रभावं परहितचिन्तालक्षणम्। उत्तः ५८४ | मित्रद्वेषण्ड- मात्रादीनामल्पापराधेऽपि महादण्डनिवर्त्तनलक्षणः । प्रश्न० १४३ | मित्रवाचक- क्षमाश्रमणविशेषः। व्यव॰ १००अ। मित्रा - रुधिरगजराज्ञा । प्रश्न० ९० ॥ मिथिला- मिथिला-सूर्यवक्तव्यापुरी । सू० १। मिथिलाज-नकराजधानी प्रश्न. ८५| नगरीविशेषः । जम्बू. ५४० | मिथुन- युग्मम्। प्रश्र्न॰ ६६ । मिथ्यादृष्टिः- बालः भग० ६४ | आचा० २८१ । मियंक मृगाइकं मृगचिनं विमानम्। सूर्य २९२श मिय- मृगः हरिणशृगालादिकः । सू० ३१९॥ मृगःआटव्यः। सम॰ ६२| मित्तं वर्णादिनि यतपरिमाणम्, सप्तमसूत्रगुणः । आव ७६७ मित-परिमिताक्षरम् । प्रश्न. १२० मितं-पदपदाक्षरैः नापरिमितमिर्त्यः । स्था० ३९७| मित्तं वर्णादिनियतपरिमाणम्। अनुयो० २६२ मियउत्त- मृगपुत्रः- राजपुत्रविशेषः, दुःखविपाके प्रथममध्य-यनम् । विपा० ३५1 "आगम- सागर-कोषः " (४) Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] ३४१ मियगंध- मृगमदगन्धः-भारतवर्षे मनुष्यभेदः। भग. मिलिय-मिलितं-अनेकशास्त्रसम्बन्धिनि २७६| सूत्राण्येकत्रमोल-यित्वा यत्र पठति तत् मियग्गाम- मृगग्रामः-नगरविशेषः। विपा० ३५ मिलितमसदृशधान्यमेलकवत्। अन्यो० १५ मिलितःमियचक्क- मृगा हरिणशृगालादयः आरण्यास्तेषां मिलितवान्। आव० ५७८१ दर्शनरुतं ग्रामनगरप्रवेशादौ सति शुभाशुभ यत्र मिलेक्खु- म्लेच्छः-अव्यक्तवाक्। उत्त० ३३६) चिन्त्यते तत् मृगचक्रम्। सूत्र० ३१९| मिल्हिअ- मुक्तः। चतु मियचारिया- मृगचारिका-उत्तराध्ययनेषु मिश्रः- मिश्रस्कन्धः सूक्ष्म एवेषदबादरपरिणामाभिमुखः एकोनविंशतितमम-ध्ययनम्। उत्त०९। मिश्रः। आव० ३५। उपसर्गानां समुदायनिष्पन्नत्वात् मियलद्धय-तापसविशेषः। भग० ५५९। संयत इति। अनुयो०११३। पदभेदः। आव. ३७९। मियलया-तापसविशेषः। निर०२७ मिश्रकव्यवहार-व्यवहारविशेषः। स्था० २६३। मियलोम- मृगरोमज-शशलोमजम्। स्था० ३३८1 मिसजाय- मिश्रजातं-आदित एव मियवणे- वीतभयनगरे उद्यानम्। भग०६१८ गृहिसंयतमिश्रोपस्कृतरू-पम्। दशवै. १७४। मियवालुंकी-साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः। प्रज्ञा० | | मिसा- मृषा-विरोधिनीत्वाद, भाषाविशेषः। प्रज्ञा० २४८१ मिसिमिसंत-दीप्यमानम्। ज्ञाता० १९। दीप्यमानम्। मियवालुंकीफल- मृगावालुङ्कीफलम्। प्रज्ञा० ३६४। राज०४८। चिकचिकायमानम्। भग० ४७८५ मियवाहण- जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे आगमिन्यामुत्सर्पिण्यां देदीप्यमानम्। औप०६६। उदगिरत्। त०। प्रथमः कुलकरः। सम० १५३| मिसिमिसिंत-दीप्यमानम्। जम्बू. १९०| मियसंकप्प- मृगेषु सङ्कल्पो-वधाध्यवसायः छेदनं वा । मिसिमिसायमान - चिकिचिकायमानम्। प्रश्न० ७६ यस्यासौ मृगसङ्कल्पः, व्याधः। भग० ९३। दीप्यन्। आव० १०१। आचा०४२३ मिया- मृगा विजयक्षत्रियराजस्य देवी। विपा. ३५१ मिसिमिसीमाण-क्रोधज्वलया ज्वलन्। विपा. ५३ द्विखरविशेषः। प्रज्ञा० ४५ क्रोधाग्निना देदीप्यमानः कोपप्रकर्षगतिपादनार्थः। मियावई- मृगावती-शिक्षायोगदृष्टान्ते भग. ३२१ हैहयकलसंभूतवैशा-लिकचेटकतृतीयापुत्री। आव०६७६। | मिसिमिसेमाण- देदीप्यमानः-क्रोधज्वलनेन। भग० १६७। त्रिपृष्ठवासुदेवस्य माता। सम० १५२ क्रोधाग्रिना देदीप्यमानः। ज्ञाता०६४। मियावती- मृगावती-शतानीकराजपत्नी। आव० २२२।। मिस्स-विचिकित्सासमापन्नः। बृह. १८३आ। मृगावती-शतानीकराज्ञी। विपा०६८1 उवालद्धे दिलुतो मिस्सकाले-मिश्रकालःनिशी. १३४ आ। नारकभयानगसंसारावस्थानकालस्य तृतीयो भेदः।, मिरिय- मरिचः। आचा० ३४८ मिरियं। प्रज्ञा० ३६५ नारकाणां मध्यादेकादय उदवृत्ताः यावदेकोऽपि मिरियचुण्ण- मरिचचूर्णम्। प्रज्ञा० ३६५ शेषस्तावन्मिश्रकालः। भग०४७। मिलक्खू- दब्भमिडादी। निशी० ७१ आ। म्लेच्छगृहम्। | मिस्सकेसी-मिश्रकेशी-उत्तररुचकवातस्तव्या द्वितीया ओघ. १५७। बर्बरशबरपलिन्द्रादिम्लेच्छाप्रधानम्। दिक्कुमारीमहत्तरिका। जम्ब० ३९१। मिश्रकेशीआव. ३७७ उत्तररु-चकवास्तव्या दिक्कुमारी। आव० १२२ मिलाइ-म्लायति-शुष्यति। आचा०६६। मिस्सजाए-आहारदोषः। भग०४६६) मिलाणं- पर्याणम्। औप०७०| पर्याणम्। भग० ४८० | मिस्सवेयणिज्ज- यत्तु मिश्ररूपेण जिनप्रणीततत्त्वेषु न मिलिक्ख-म्लेच्छाः-अव्यक्तभाषासमाचारः। प्रज्ञा० ५५ | श्रद्धानं नापि निन्देत्येवंलक्षणेन वेद्यते मिलितं- दृष्टम्। आव० ८५६। तन्मिश्रवेदनीयम्। प्रज्ञा०४६८।। मिलिमिलिमिलंत-चिकिचिकायमानः। प्रश्न० ४८१ | मिहत्थु-साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः। प्रज्ञा० ३४। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [99] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] मिहिला- मिथिला-सामुच्छेदनिह्नवोत्पत्तिस्थानम्। स्कृतम्। प्रश्न. १५४॥ आव० ३१२ मिथिला नगरी यत्र पद्मरथो राजा। आव० मीसग- मिश्रकं-उत्पन्नविगतोभयः, सत्यामषाभाषाभेदः। ३९१। मिथिला-ब्रह्मदत्ताधिकारे नगरी। उत्त० ३८०| दशवै० २९। मिश्रः-आनापानपर्याप्त्याऽपर्याप्तः। आव० मिथिला-मल्लिजिनस्य प्रथमपारणकस्थानम्। आव० ३३४॥ १४६। मिथिला-मल्लिजन्मभूमिः। आव० १६०| मीसजाए- मिश्रजातं-चतुर्थ उद्गमदोषः। मिश्रेण-कुटुम्बमिथिला-कोण्डिन्यशिष्यस्थानम्। आव. ३१६| प्रणिधानसाधुप्रणिधानमीलनरूपेण भावेन जात यद् मिथिलाचतुर्थ-निह्नवस्थानम्। उत्त० १६३। मिथिला- | भक्तादि तन्मिश्रजातम्। पिण्ड० ३४॥ नमिरा-जधानी। उत्त. २९९, ३०३, ३०४, ३०९। मीसजायं- मिश्रजातम्। आचा० ३२९। मिथिला-दत्तवासुदे-वनिदानभूमिः। आव० १६३। मीसज्जाए- गृहसंयताऽर्थम्पस्कृततया मिश्रं जातंमिथिला-जनक-राजधानी। आव. २२११ मिथिला- उत्पन्नं मिश्रजातम्। स्था० ४६० जितशत्रुराजधानी। जम्बू. ९। मिथिला-विदेहजनपदे | मीससापरिणया- मिश्रकपरिणताः-प्रयोगविस्रसाभ्यां आर्यक्षेत्रम्। प्रज्ञा० ५५ मिथिला-नमिजन्मभूमिः। परिणताः प्रयोगपरिणाममत्यजन्तो विस्रसया आव० १६० माणभद्रचैत्यस्थानीयानगरी। भग०४२५१ स्वभावान्तरमापादिता मुक्तकडेवरादिरूपाः, कुम्भकराजस्य राजधानी। ज्ञाता०१२४| अथवौदारिकादिवर्गणारूपा विस्रसया निष्पादिताः चोक्षापरिव्राजीकास्थानम्। ज्ञाता० १४४। सन्तो ये जीवप्रयोगेणेकेन्द्रियादि-शरीरप्रभृतिमिहण- जुम्मंतस्स भावो मेहणं। मिह वा रहस्सं तम्मि परिणामान्तरमापादितास्ते मिश्रपरिणताः। भग० ३२८१ उप्पण्णं मेहणं। निशी० ७७ अ। मिथुनं-दाम्पत्यम्। | मीसा- प्रयोगविस्रसाभ्यां परिणताः। स्था० १५२ आचा० ३३१। मिथुनं-स्त्रीपुंसयुग्मम्। स्था० १०६। मुंगुंद- मुकुन्दो-मुरजविशेषो योऽतिलीनं प्रायो वाद्यते। मिथुनकं-स्त्रीपुरुषयुग्मरूपम्। जीवा० १८३। जम्बू. १०१ मिहणग- मिथुनकनरः। आव० ११० मंजु-शरस्तम्बः। बृह० २०३ । सरस्स छल्ली। निशी. मिहुणाइ-स्त्रीपुरुषयुग्मं मिथुनकम्। राज०६९। १२१ । स्था०४४६] मिहो- परस्परम्। भग० ५५२। मुंजकार-मुजाकारी। अनुयो० १४६। मिहोकहा- मिथःकथा-राहस्यिकीवार्ता। दशवै. २३५ - काश्यपगोत्रविशेषः। स्था० ३९० राह-सियकहा। दशवै. १२५ । भक्त। दिविकथा। | मुंजमेहला- मुञ्जमेखला-मुञ्जमयः कटीदवरकः। ज्ञाता० व्यव. २४६। मीणगा- वतिरोचनेन्द्रस्य प्रथमाऽग्रमहिषी। भग० ५०४। | मुंजविप्पक- शरस्तंबत्वग्भवं रजोहरणम्। बृह. २०३ अ। मीमांसा- प्रमाणजिज्ञासा। नन्दी० २५०। आचा० २४९। | मुंजमेहला- मुञ्जमेखला-मुञ्जमयः कटीदवरकः। ज्ञाता० मीरा- दीर्घचुल्ली। सूत्र० १२५। दीर्घचुल्ली। आव० ६५१। २१३। मीराकरण- कटैवारादेराच्छादनम्। बृह. ३०८ आ। मुंजविप्पक-शरस्तंबत्वग्भवं रजोहरणम्। बृह. २०३ अ। मीस- मिश्र-शब्दादिषु रागादिकरणम्। आव० ७६४। मुंजापिच्चेते- कुट्टितत्वक् तन्मयं मुञ्जः-शरपर्णीति। मिश्रमरणम्। मरणस्य दशमो मेदः। उत्त० २३० स्था० ३३८१ मिश्रः-एकदेशानुगमनशीलः मुंड-मुण्डः-स्थाणविशेषः, यस्मिन् महिषी वा यदौपरिधादेशान्तरगतपुरुषैकलोचनोपघातवत्। आव० ४२। परिक्षिप्यते। अनुत्त० ५। मुण्डः-अच्छेदकः। भग० औदारिकमिश्र औदारिक एवापरिपर्णो मिश्र उच्यते। | ७०५। मण्डनं मण्डः-अपनयनम। स्था० ३३५॥ भग० ३३६। मिश्रः-क्षायोपशमिकः। व्यव० ४७ । | मुंडपरसू- मुण्डपरशुः-मुण्ड(कुण्ठ) कुठारः। प्रश्न० ६०| तृतीयं प्रायश्चित्तम्। स्था० २००१ मुंडभाव-भुण्डभावः-दीक्षितत्वम्। भग० १०९। मीसक- मिश्रकं-मिश्रजातं-साध्वर्थ गृहस्थार्थं चादित उप- | मुंडमालहम्मिय- मुण्डमालहऱ्या २१३ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [100] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] उपर्यनाच्छादितशिखरादि- भागरहितं हर्म्यम् । जम्बू० आगम- सागर- कोषः ( भाग : - ४ ) १०५ | मुंडरूई - मुण्डरूचि :- मुण्ड एव मुण्डन एव केशापनयनात्मनि शेषानुष्ठानपराङ्मुखतया रुचिर्यस्याऽसौ मुण्डरुचिः । उत्त० ४७८ । मुंडसम - मुण्डश्रमणः । उत्त० १५१ । मुंडसेना- अराज्ञका सेना । बृह० ६४अ । मुंडापयितुं- लोचकारापणे। व्यव० २१५अ। मुडावलि- मुण्डाः-स्थाणुविशेषा येषु महिषीवाटादौ परिघाः परिक्षिप्यन्ते तेषां निरंतरव्यवस्थितानामावलीपङ्क्तिर्या सा । अनुत्त० ५| मुंडावत- मुण्डयितुं शिरोलोचनेन । स्था० ५७। मुंडावियं- मुण्डापितं - लुञ्चितम्। भग० १२२| - यत्र शिखापि स्वसमयतच्छिद्यते ततः प्राग्वत् मुण्डि-त्वम्। उत्त० २५०। मुण्डितः । ज्ञाता० ५७ | मुंडिय - मुण्डितः । आव ० ६१७ | मुंडियसिर- मुण्डितशिरः। आव० २२२ मुंडिवग- मुण्डिकाम्रकं-ध्यानसंवरयोगविषये शिम्बावर्द्धन नगरनरेशः । आव ० ७२२ मुंमुही- मोचनं मुक् जराराक्षसी समाक्रान्तशरीरगृहस्य जीवस्य मुचं प्रतिमुखं-आभिमुख्यं यस्यां या मुङ्मुखीति। स्था० ५१९ | मुंढी- अनन्तकायभेदः । भग० ३००| मु- आवाम्। उत्त० ३८७| आत्मनिर्देशार्थत्वाद्वयमिति। उत्त० २९२॥ मुइंग- मृदङ्गो-लघुमर्दलः। जम्बू० १०१ | मृदङ्गो-उर्ध्वायतोऽधो विस्तीर्ण उपरि च तनुः आतोद्यविशेषः । आव ० ४१| मत्कोटकः। आव० ४३५ | (देशीपद) मत्कोटवाचकमम्। व्यव० १४० आ । मृदङ्गः मर्दल एव । प्रश्न० १५९। मुइंगपुक्खरे- मृदङ्गो लोकप्रतीतो मर्दलस्तस्य पुष्करम्। जम्बू० ३१| मुइंगमत्थए- मृदङ्गानां मर्दलानां मस्तकानीव मस्तकानि उपरिभागाः-पुटानीत्यर्थः मृदङ्गमस्तकानि । भग० ४६२ मुइंगमत्थए- मृदङ्गानां मर्दलानां मस्तकानीव मस्तकानि उपरिभागाः-पुटानीत्यर्थः मुनि दीपरत्नसागरजी रचित मृदङ्गमस्तकानि। भग० ४६२ । मुइंगलिया - कीटिका। संस्ता०| [Type text] इंगा कीटका | ओघ० १८४ | पिपीलिका । व्यव० १० मुइओ - योनिशुद्धः परिशुद्धोभयपक्षसंभूत इत्यर्थः, राजवंशीयमातापितृकः । बृह० २५५अ । मुइत उदितो-मउडपट्टबंधेन पयाहिं वा अप्पणो वा अभिसित्तो। निशी० २७० अ मुइय- मुदितं सकलोपद्रवविहितः । उत्त० ४४८। मुउल- मुकुलं-कोरकम्। प्रश्न० ८४ | मुउलिणो- मुकुलं-फणाविरहयोग्यशरीरावयवविशेषाकृतिः सा विद्यते येषां ते मुकुलिनः । प्रज्ञा० ४७ | मुउलिय- मुकुलितः-मुकुलाकारः। भग॰ ६६३। मुकुंद - बलदेवः | निशी० २६९ अ । मुकुन्दोमुरजवाद्यविशेषः। राज० ५०। उपरिसङ्कुचितोऽधो विस्तीर्णो मृदङ्ग - विशेषः । जीवा० १०५ | मुकुल- कोरकावस्थः। जम्बू० ५२८| कुड्मलं-कलिका वा । जीवा० १८२ मुकुला- नासापुटद्वयस्यापि यथोक्तप्रमाणतया संवृत्ताकारतया च मुकुलाकाराः । जीवा० २७६। मुकुलिया - मुकुलिता गुल्मिता । जीवा० १८३ । मुकुलिनः अहिभेदः । सम० १३५ | मुक्क- मुक्तः । ज्ञाता० २०२ | मुक्तः क्षिप्तः । ज्ञाता० १८ मुक्तः-करप्रेरितः। ज्ञाता० ४०। मुक्तः अन्यजन्मि तेनै-वोज्झितः। उत्त॰ ४२ | मुक्तः क्षिप्तः । ज्ञाता० ४ | मुक्कदीहनीसास- मुक्तदीर्घनिःश्र्वासः। आव० ७०७ | मुक्कधुरा- संजमधूरा मुक्का जेण सो मुक्कधुरे । निशी ० ९२ आ [101] मुक्कधुरासंपाडगसेवी- धूः-संयमधूः परिगृह्यते मुक्तापरित्यक्ता धूर्येनेति समासः, सम्प्रकटंप्रवचनोपघातनिरपक्षमेव मूलोत्तरगुणजालं सेवितुं शीलमस्येति सम्प्रकटसेवी, मुक्तधूचा सम्प्रकटसेवी चेति विग्रहः । आव० ५२३ | मुक्कवात- मुक्तवादी वा सिद्धवादी । प्रश्र्न० २८| मुक्किल्लय- मुक्तम्। प्रज्ञा० २७०| मुक्ख- मोक्षः कृत्स्नकर्मक्षयात्स्वात्मन्यवस्थानम् । उत्त० ५६२| मोक्षं-दुःखापगमं मोक्षकार “आगम-सागर-कोषः " [४] Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] संयमानुष्ठानम्। आचा० २३४ | मोक्षःजीवकर्मवियोगसुखलक्षणः । दशवै० १५९। मुक्खगइ- मोक्षगतिः-उत्तराध्ययनेषु अष्टाविंशतितममध्यय-नम् । उत्त० ९ | मुक्खगमणबद्धचिंधसन्नाह- मोक्षगमनबद्धचिह्नसन्नाहः मोक्षोः-मुक्तिस्तदगमनाय बद्धमिति धृत चिह्नधर्मध्वजादि तदेव सन्नाहो दुर्वचनशरप्रसरनिवारकः क्षान्त्यादिर्वा येन सः । उत्त० ४६४ | मुक्खपह- मोक्षपन्थाः तीर्थकरः । आव० ७८० मुक्खपहदेसिय- मोक्षपथदेशितः-तीर्थकरदेशितः । आव ० ७८० | आगम-सागर-कोषः (भागः - ४) मुक्खभावपडिवन्न- मोक्षे-मुक्तौ भावेन - अन्तःकरणेन प्रतिपन्नः- आश्रितः मोक्षभावप्रतिपन्नः, मोक्ष एव मया साधितव्य इत्यभिप्रायवान्। उत्त० ५८७| मुक्त- बाह्याभ्यन्तरग्रन्थिबन्धनात् । सम० ५ | मुक्तादाम- (मगधदेशप्रसिद्ध) कुम्भप्रमाणमुक्तामयम्। जीवा० २१० | मुक्तामणिमय- मुक्ताः- मुक्ताफलानि मणयःचन्द्रकान्तादि रत्नविशेषः । मुक्तरूपा वा मणयो रत्नानि मुक्तामणयः तद्विकारो मुक्तामणिमयः। सम० ७८ । मुक्तावलि- तपोविशेषः । व्यव० ११३आ। मुक्तावली - मुक्ताफलमयी । ज्ञाता० ४३ । मुक्ताशैल- मोक्तिकपर्वतः । अनुयो० २५४ ॥ मुक्ति- निर्लोभिता। उत्त० ५९०| मुख- मुखवस्त्रिका | ओघ० १११ | गन्त्र्या उपरि यद्दीयते । अनुयो० १५१। मुखपोतिका - मुखपिधानाय पोतं वस्त्रं मुखपोतं मुखमेव स्व चतुरङ्गुलाधिकवितस्तिमात्रप्रमाणत्वात् मुखपोतिकामुखवस्त्रिका। पिण्ड॰ १३ मुखरपिशाच- पिशाचभेदविशेषः । प्रज्ञा० ७०| मुगुंद- मुकुन्दः- वासुदेवो बलदेवो वा । आचा० ३२८\ मुकुन्दो-वासुदेवो बलदेवो। भग॰ ४६३। मुकुन्दःबलदेवः । आचा० ३२८| मुकुन्दः - वादित्रविशेषः । उत्तः १४३। मुकुन्दः-बलदेवः। जीवा० २८१ । मुगुंदमहो- मुकुन्दमहः-बलदेवस्य प्रतिनियतदिवसभावी मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] उत्सवः । जीवा० २८१ | मुगु- मुसा - खाडहिल्लाकृतिः । प्रश्न० ८। मुगुसपुंछ- भुजपरिसर्पविशेषः । उपा० २१। मुगुसा- खाडहिल्ला । उपा० २४| मुग्ग- मुद्गः प्रसिद्धाः । भग० २९० । औषधिविशेषः। प्रज्ञा॰ ३३ | मुद्गः । दशवै० १८३ | भग० ८०२ | मुग्गकन्नी - अनन्तकायभेदः । भग० ३००| मुग्गपण्णी-साधारणबादवनस्पतिकायविशेषः । प्रज्ञा० ३४ | मुग्गर- मुद्गरः- आयुधविशेषः । उत्त० ४६०। मुग्गरपाणी- मुद्गरपाणिः- राजगृहस्य बहिर्यक्षविशेषः । अर्जुन-मालाकारस्य कुलदेवता। उत्त० ११२ । मुग्गसिल्ल- मुद्गशैलः । आव० १०० मुग्गा- मुद्गाः । पिण्ड० १६८। मुद्गाः धान्यविशेषः । अनुयो० १९३ । मुग्गाछिवाडी - कोमलमुद्गफली । बृह० १६५आ। मुग्धक- अव्यक्तविज्ञानम् । निर० ३०| मुच्चइ- मुच्यते-पुण्यापुण्यरूपेण कृच्छ्रेण कर्मणा । जीवा० ४८। शेषकर्मांशैर्मुच्यते। प्रज्ञा० ६०६। प्रतिसमयं विमुच्यमानो मुच्यते। भग० ३४ | मुच्चति- मुच्यते भवोपग्राहिकर्मचतुष्टयेन। उत्त० ५७२ | मुच्यते भवोपग्राहि कर्मणा । आव० ७६१ । मुच्चिस्संति- मोक्षन्ति-कर्मराशेः परिनिर्वास्यन्तिकर्मकृतवि-कारविरहाच्छीती भविष्यन्ति । सम० ७ | मुच्चेज्जा- मुच्येत भवोपग्राहिकर्मभिरपि। प्रज्ञा० ४००| मुच्छए- मुर्च्छयेत्-गार्ध्यं विध्यात्, संपर्कं कुर्याद्वा। सूत्र० ४८ [102] मुच्छति मूर्च्छति तद्दोषानवलोकनेन मोहमचेतनत्वमिव यान्ति संरक्षणानुबन्धवतो वा भवतीति। स्था० २९२ मुच्छा- साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः । प्रज्ञा० ३४ | मूर्च्छा-संरक्षणानुबन्धः। भग० ५७३॥ मूर्च्छा - अनुरागः । ओघ॰ १२१| मूर्च्छा-मोहः-सदसद्विवेकनाशः। स्था॰ ९८ मुच्छि - मूर्च्छितः । विपा० ३८। मचर्च्छितः- होहवान् दोषा-नभिज्ञत्वात्। भग० २९२॥ मूर्च्छितः - मूढः । विपा० ५३। मूर्च्छितो गाढमर्म्मप्रहारादिना। आचा० १५२| मूर्च्छितः-संजातमूर्च्छः-जाताहारसंरक्षणानुबन्धः “आगम-सागर-कोषः " [४] Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] तद्दोषविषये वा मूढः । भग० ६५० मुच्छिज्जंताणं- वीणाविषञ्जीवल्लकीनां मूर्च्छनम्। राज० ५२॥ आगम-सागर-कोषः (भागः - ४) मुच्यते-भवोपग्राहिकर्म्मभिः । स्था० १८१| मुझ- मुति संसारमोहेन वोच्यते । आचा० २१५ | मुज्झियव्वं मोहितव्यं प्राप्तविपाकपर्यायलोचनायां मूढेन भाव्यम् । प्रन० १५८ | मुज्झह- मुह्यत मोहं-तद्दोषदर्शने मूढत्वं कुरुते । ज्ञाता १४८| मुट्ठि- मुष्टिः। उत्त० ४६१ । मुष्टिः । आव० ८४५ | मुष्टिःपिण्डिताङ्गुलिकः पाणिः। जम्बू० १७४ | - लघुरो घनः । भग० ६९७ मुट्ठओ- मौष्टिकः- यो मुष्टिभिः प्रहरति मल्लः । प्रश्र्न० १४१ | मुट्ठिय- मुष्टिका -मुष्टिः । जीवा० १२१ । मौष्टिकः-मल्लः कसराजसम्बन्धो चाणुराभिधानो मल्लः । प्रश्र्न०७४ | मुष्टिकः मल्लः। विकथाभेदः । दशवै० ११४। मुष्टिकःमुष्टिप्रमाणः पाषाणः । प्रश्र्न० २१ | मौष्टिकः चिलातदेशवास्तव्यम्लेच्छ - विशेषः । प्रश्न० १४ | मौष्टिकः- मल्ल एव, यो मुष्टिभिः प्रहरन्ति । ज्ञाता० ४०| मुट्ठि कहा- मुष्टिककथा - मल्लसम्बन्धिनी कथा । दशवै० ११४| मुट्ठिया- जूज्झणमल्ला । निशी० २७७ अ । मुट्ठियुद्ध- कलाविशेषः। ज्ञाता० ३८| मुट्ठिवाए- मुष्टिवातः-अतिवेगतो वज्रग्रहणाय यो मुष्टेर्बन्धनै जायमानो वातः । भग० १७६ । मुट्ठी- मुष्टः- अङ्गुलिसन्निवेशविशेषात्मिका। उत्त ४७८। पुत्थगपणगे तईयं । निशी० १८१ अ । बृह० २१९ आ । चतुरंगुलदीर्घो वृत्ताकृतिः अथव समचतुरस्रचतुरंगुलो वा पुस्तकः। बृह० २१९आ। मुष्टिपुस्तकं यत् चतुरङ्गुलदीर्घं वा वृत्ताकृति, चतुरङ्गुलदीर्घमेव चतुरस्रं वा । आव० ६५२। चतुराङ्गुलदीर्घः वृत्ताकृतिश्च पुस्तकः । स्था० २३३| मुट्ठीपोत्थगो- चतुरंगुलदीहो चउरस्सो मुट्ठिपोत्थगो। निशी० ६९ अ मुडिंबक- आचार्यः । व्यव० १७० आ । मुनि दीपरत्नसागरजी रचित मुति मन्यते - जानाति । दशवै०७४ | मुणमुणायंत- जल्पन् । उत्त० २१५| [Type text] मुणाल- मृणाल - पद्मतन्तुः । राज० ३३ । मृणालं-मद्मनालः । राज० ७८। मृणालं-पद्मनालम् । जीवा० १२३ | मृणालंपद्मनालम्। जीवा० १२३ | मृणालं - पद्मनालम् । जम्बू॰ २९१। मृणालं - पद्मतन्तुः । जम्बू० ३५| मुणालाओ - पद्मनालानि । जम्बू० ४२ | मुणालिया- मृणालिका-पद्मनीकन्दोत्था । दशवै० १८५ | मृणालिका-पद्मिनीमूलम् । प्रश्न० ८१ । मृणत- मृणन्-लपन् । आव० ५६१ । | मुणि- मन्यते जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनिःविशिष्टसंवि-त्समन्वितः । प्रज्ञा० ५। मुनिः मन्यते जगतस्त्रिकालाव-स्थामिति । आव० ५०५। परित्यक्तलोकव्यापारः मुनिः। आव० ४००। मनुते मन्यते वा जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनिः सर्वज्ञत्वात्। आव ० ६०। मुनिः-वाचंयमः। भग० ४६०। मुनिः विपश्चित् साधुः आव० ५९३ | मन्यते जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनिः साधुः । आव ० ५८६। मुणि ( पिसा) ऊ- पिशाचः । आव० ५२ | मुणिओ - मुनिः- पिशाचः । आव० २०६ । मुणिचंद - मुनिचन्द्रः पाश्र्र्वापत्यः स्थविरः । आव० २०२ मुनिचन्द्रः-चन्द्रावतंशकराज्ञः सुदर्शना कनिष्ठपुत्रः। आव॰ ३६६। मुनिचन्द्र चन्द्रावतंसकराजकुमारः । उत्त० ३७५ | राजगृहे परिषहकर्ता । मरण० | मुज्जह जानीयाः । ओघ० २१ | मुणिणो मुनयः मुनिवेषविडम्बिनः। आचा० ११३| मुणिय- मुणित- ज्ञानम् । प्रश्र्न॰ ३६। मुणितः-ज्ञातः। आव० ५९१। मुणियपुव्वसार- मुणितपूर्वसारः । आव० ५३६ । मुणिसुव्वए- जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे आगमिन्यामुत्सर्पिण्यां एकादशमतीर्थकरः। सम० १५३ | चम्पायां तीर्थकृत्। ज्ञाता० २२२॥ अर्हन्तः । भग० ७०७ | विंशतितमो जिनः, तस्मिन् गर्भगते सति माताऽतीव सुव्रता जातेति मुनिसुव्रतः । आव ० ५०५ | मुणी - मुनिः- कालत्रयवेदी। सूत्र॰ ६१। मुनिः-तपस्वी। उत्त॰ २२३| मनुते जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनिः । [103] “आगम-सागर-कोषः " [४] Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] اوا सूत्र० २९८१ मुणति-प्रतिजानीते सर्वविरतिमिति मुनिः। | मुक्तावलिवरे द्वीपेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः। जीवा० ३६९। उत्त० ३५७। मुणिति-प्रतिजानीते सर्वं मुत्तावलिवरावभास- मुक्तावलिवरावभासःद्वीपः सावद्यविरतिमिति मुनिः। उत्त० ५५० सावज्जेसु समुद्रश्च। जीवा० २६८१ माणं सेवतिति। दशवै. ३३ आ। ओघ०६२ मुत्तावलिवरावभासभद्द-मुक्तावलिवरावभासभद्रः मुणेयव्य- मुणितव्यः-प्रतिज्ञातव्यः। उत्त० ५२७। मुणि- मुक्तावलिवरे द्वीपे पूर्वार्द्धापतिर्देवः। जीवा. ३६९। तव्यः- प्रतिज्ञातव्यः। उत्त०४२७। मुत्तावलिवरावभासमहाभद्द-मुक्तावलिरमहाभद्रःमुण्डमालहर्म्य- द्रुमगणविशेषः। जीवा० २६९। मुक्ताव-लिवरावभासे द्वीपेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः। जीवा. मुतव- वनस्पतिविशेषः। भग०८०२॥ ३६९। मुत्कल- अपवर्तनादिकरणयोग्यः। उत्त० ५८५। सूर्य मुत्तावलिवरावभासमहाव- मुक्तावलि०महावरः-मुक्ता वलिवरावभासे समुद्रेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः। जीवा० ३६९। मुत्त-मुक्तो-बाहमाभ्यन्तरग्रन्थिबन्धनेन मुक्तः | मुत्तावलिवरावभासवर- मुक्तावलि०वरः-मुक्तावलिवमहावीरः। भग०९। भग० ११११ मक्तो-मुक्त इव रावभासे समुद्रे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः। जीवा० ३६९। मुक्तः। सुत्र ० २९८। मूत्रम्। ज्ञाता० ४९। मुक्तः- मुत्तावली- मुक्तावली मुक्ताफलमयी। जीवा० २५३॥ कृतकृत्यः निष्ठितार्थः। जीवा० २५६। मुक्तं-यत्पूर्वभवेषु । मुक्तावली-द्वीपः समुद्रश्च। जीवा० ३६८१ मुक्तावलीपरित्यक्तं तत्। प्रज्ञा० २७०। तपोविशेषः। अन्त० ३१। मुक्तावली-चतुःसमुद्रसारभूतो मुत्तमउड- मुक्तोच्छ्रितबाहुद्वयरूपः। बृह. १६७ आ। मुक्ताहारविशेषः। चक्षुरिन्द्रियान्तर्दृष्टान्ते मुत्तसक्करा- पाषाणकः। निशी० ११७ अ। धनसार्थवाहदुहिता। आव० ३९९। मुत्ताजाल- मुक्ताजालं-मुक्ताफलमय दामसमूहम्। मुत्तावलीवर- मुक्तावलीपारः-द्वीपःसमुद्रः। जीवा० ३६८। जीवा० १८१। मुक्ताजालः। जीवा० २६०। मुत्ताहलमुत्ताजालतरोपियं- | आव०४२३ मुक्ताधारपुडक- मुक्ताधारपुटकं-शुक्तिसंपुटम्। प्रश्न. मुत्ति-मुक्तिः । प्रज्ञा० १०७। मणिकारः। नन्दी. १६५ मोचनं मुक्तिः -अहितार्थकर्मविच्युतिः। आव० ७६० मुत्तालत- मुक्तानामाश्रयत्वान्मुक्तालयः। स्था० ४४०। । मुत्तिमग्गे- मुक्तिमार्गः-अहितकर्मविच्युतेरूपायः। मुत्तालय- मुक्तालयः- इषत्प्राग्भारायाः सप्तम नाम। ज्ञाता०५१। मुक्तिमार्ग प्रज्ञा० १०७। ईषत्प्राग्भाराया अष्टमनाम। सम० २२१ केवलज्ञानादिहितार्थप्राप्तिद्वारेणाहितकर्मविच्यमुत्तावलि- मुक्तावली-केवलमुक्ताफलमयी। भग० ४७७ | तिद्वारेण च मोक्षसाधकम्। आव० ७६०| मुत्तावलिमद्द- मुक्तावलिभद्रः-मुक्तावलिद्वीपे अहितविच्युतेरू-पायः। भग० ४७१। पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः। जीवा० ३६९। मुत्तिय- मौक्तिकं-मुक्ताफलम्। प्रश्न. १६३। मुत्तावलिमहामह-मुक्तावलिमहाभद्रः मुत्तिया- द्वीन्द्रियविशेषः। प्रज्ञा०४१। मुक्तावलिद्वीपेऽपरा -धिपतिर्देवः। जीवा० ३६९। मुत्ती- मुक्तिः निर्लोभता। जम्बू. १५१। मुच्यन्ते सकलमुत्तावलिमहावर- मुक्तावलिमहावरः-मुक्तावलिवरे कर्मभिस्तस्यामिति मुक्तिः। स्था० ४४०। ईषत्प्राग्भासमुद्रेऽ-पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः। जीवा० ३६९। रायाः सप्तमं नाम। सम० २२। मुक्तिः -निर्लोभिता, मुत्तावलिवर- मुक्तावलिवरः-मुक्तावलिवरे समुद्रे सिद्धिर्वा। प्रश्न० १३६। मुक्तिः-ईषत्प्राग्भारायाः सप्तमं पूर्वार्धाधिप-तिर्देवः। जीवा० ३६९। मुक्तावलिवरः- नाम। प्रज्ञा० १०७। मुक्तिः -निर्लोभिता। प्रश्न. ९२। मुक्तावलि समुद्रे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः। जीवा० ३६९।। मूर्तिः-शरीरम्। उत्त० ५१६। मूर्तिः-शरीरम्। निशी. मुत्तावलिवरभद्द- मुक्तावलिवरभद्रः-मुक्तावलिवरे द्वीपे ३०८ आ। पूर्वार्धाधिपतिर्देवः। जीवा० ३६९। मुत्तोली- मुक्तोली-मोट्टा(द्दा)अध उपरि च संकीर्णा मध्ये मुत्तावलिवरमहाभद्द- मुक्तावलिवरमहाभद्रः- | त्विषद्विशाला कोष्ठिका। अनुयो० १५१। मुक्तोली नाम मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [104] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] अध उपरि च संकीर्णा मध्ये त्विषदविशाला कोष्ठिका। २१७ जम्बू० २३५१ मुनि-सन्तः। आव०७६० मुदग्ग- मुयग्ग-बाह्याभ्यन्तरभूपुद्गलरचितशरीरो मुनिए- ज्ञाते तत्वे सति ज्ञात्वा वा तत्त्वम्, मुनिकःजीवाः। स्था० ३८३ तपस्वीति। ग्रहगृहीतः। भग०६६८ मुदाहिए- उदाहृते। ज्ञाता० १३३। मुनिचन्द्रसूरि-अनुयोगद्वारटीकायां आचार्यविशेषः। मुदुग- ग्राहविशेषः। जीवा० ३६) अनुयो० २७१। मुद्गर- शस्त्रविशेषः। प्रज्ञा० ९७। मुनिपर्षद्- यथोक्तानुष्ठानानुष्ठायिसाधुपर्षद। राज०४६। मुद्गरक- मगदन्तिकापुष्पम्। बृह. १६२ आ। मुनिसुव्रतः- विशालायां यस्य पादुकेः। नन्दी० १६७। मुद्गफली- असारौषधिविशेषः। आव० ३६। मुनिसुव्रतस्वामी- भृगुकच्छे कोरड्कोद्याने समवसरकः। मुद्दग- गुच्छाविशेषः। प्रज्ञा० ३२॥ व्यव. १७३ आ। मुद्दा- मुद्रा। आव० ४२१। मुद्रा-अङ्गलीयकं नाम मुद्रा। | मुभूर्षुः- मरणेच्छुः । नन्दी० १४७।। उपा०५१ पट्टकः। बृह० ८४ अ। मुम्मु- गद्गद्भाषित्वेनाव्यक्तभाषी, मुकादपि मूको मुद्दाभिसित्तो- सेणावइ अमच्च मूकामूकः। सम० २१६॥ पुरोहियसेडिसत्यवाहसहिओ रज्जं भुंजति। निशी. मुम्मुर- विरलाग्निकणं भस्म मुर्मुरः। दशवै० १५४॥ २७० । मुम्मुरः-अग्निकणमिश्र भस्मः। ज्ञाता० २०४। मुर्मुरःमुद्दाल- मोद्दालः-द्रुमगणविशेषः। जम्बू. ९८॥ भस्ममिश्राग्नि-कणरूपः। उत्त०६९४। मर्मरःमुद्दिआबंध- मुद्रिकाबन्धः-ग्रन्थिबन्धः। ओघ० १४५ फम्फूकाग्नौ भस्मामिश्रि तोग्निकणरूपः। जीवा. २९। मुद्दिआसार-मृद्वीका-द्राक्षा-तत्सारनिष्पन्न आसवो प्रविरलाग्निकणानुविद्धं भस्म मुर्मुरः। आचा०४९। मृद्वीका-सारः। जम्बू. १०० मुर्मुरः-फुम्कुमकादौ भस्ममिश्रिता-ग्निकरणरूपः। मुद्दिय- मुद्रितं-मृन्मयमुद्रादानेन। ज्ञाता० ११६। अवलिप्य प्रज्ञा० २९। मुर्मुरः- फुम्कुकादौ मसृणोऽग्निः। जीवा० कृतमुदं। बृह० ११६८ आ। मुद्रितं-आच्छादितम्। आव० १०७। मुर्मुरः-भस्माग्निः। प्रश्न०१४। मुर्मुरः४३२॥ वल्लीविशेषः। प्रज्ञा० ३२ आपिङ्गला अर्धविध्याताऽग्निकणा मुर्मुरः। पिण्ड. मुद्दिया- मृद्वीका-द्राक्षा। स्था० २४१। १५२। अगनि कणियासहितासोम्होत्थारो। निशी० ५२ मृत्तिकादिमुद्रावता। स्था० १२४। मृद्वीका-द्राक्षा। आ। मुर्मुरः-फुस्कुकादौ मसृणाग्निरूपः। भग० ६९४। उत्त० ६५४। मुद्रिकाः-साक्षराङ्गुलीयकाः। जम्बू. १९०| ज्ञाता० २०१। मुर्मुरः-भस्ममिश्राग्निकणरूपः। स्था० मृद्वीका-द्राक्षा। प्रज्ञा० ३६५। जीवा० ३५१, २६५ ६९४। ज्ञाता० २०१। मुर्मुरः-भस्ममिश्रीग्निकणरूपः। मुद्दियापाणग- पानकविशेषः। आचा० ३४७। स्था० ३३६। मुद्दियासारए- मृद्वीकासारः-मृद्वीका-द्राक्षा मुम्मुरमाई- मुर्मुरादिकाः-उल्मुकादिः। आव० १३३। तत्सारनिष्पन्नः। प्रज्ञा० २६५ मुम्मुही- दशदशायां नवमी दशा। निशी. २८ आ। मुद्धत- मूर्द्धान्तः-उपरितनोभागः। सूत्र. २८८ मुयंग- मृदङ्गः-लोकप्रतीतो मईलः। जीवा० १८९। पः। बृह. १५ अ। परं-प्रधानं। निशी. २०० अ। मृदङ्गः-लघुमट्टलः। जीवा० २६६। मृदङ्गः। प्रज्ञा० ५४२॥ मुद्धज- मूर्द्धजः-केशः। जीवा० २३४१ मृदङ्गः-लघुमर्दलः। जम्बू. १९२। जीवा० २४५। मुद्धया- ग्राहविशेषः। प्रज्ञा० ४४। मृदङ्गः। जम्बू. १३७। मृदङ्गः-मईलः। सूर्य. २६७। मुद्धसूल- मूर्द्धशुलं-मस्तकशूलम्। ज्ञाता० १८१। मुयंगसंठिय- मृदङ्गसंस्थितः आवलिकाबाह्यस्य मुद्धा- मूर्धा। आव० १२५ द्वादशमं संस्थापनम्। जीवा० १०४। मुद्धाभिसित्त- मूर्धाभिषिक्तः। सूर्य. १४७। मुयंत- मुञ्चत्-त्यजत् सामर्थ्यात्। उत्त० ३३४। मुद्राविन्यास- एककं पुरतो बिन्दुवयसहितः। प्रज्ञा० | मुयच्चा- मृतार्चा-मृतेव मृता संस्काराभावादा-शरीरं मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [105] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] येषां ते तथा, निष्प्रतिकर्म्मशरीरा इत्यर्थः । यदि वाअर्चातेजः स च क्रोधः स च कषायोपलक्षणार्थः, ततश्चायमर्थः-मृता-विनष्टा अर्चा- कषायरूपा येषां ते मृतार्चाः, अकषायिणः इत्यर्थः। आचा॰ १८९। मुयरुक्ख- वलयविशेषः । प्रज्ञा० ३३ | - म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा० ५५। राजा । व्यव० २९२ मुरग- त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः । जीवा० ३२ | मुरज- मुरजः- महामर्द्दलः । जम्बू० १९२| मुरजःलघण्टिका । औप० ८७ आगम- सागर- कोषः ( भाग : - ४ ) मुरण्डदेशराजा- मरुण्डयः । जम्बू० १९१। मुरय- मुरजो - महामर्द्दलः । भग० ४७६ | मुरल- मुरलो - मानविशेषः । ज्ञाता० ११६। मुरव- वाद्यविशेषः । जीवा० २६६ | शिखरम् । स्था० २३३ | मुरजः-मर्दलविशेषः । जीवा० १०५, २४५ मुरवखोड - व्यग्रः | निशी० ३४७ अ । मुरवसंठित- मुरजसंस्थितः मर्द्दलसंस्थितः, आवलिकाबायस्य एकादशम संस्थानम् । जीवा० १०४ | मुरवी - सङ्कलकं-मुरजाकारमाभरणम् । भग० ४७७ मुरवी-मृङ्गाकारामाभरणम्। जम्बू० २७५| मुरिया - मौर्या :- मयूरपोषकवंशोद्भवः । बृह० ४३ आ । मरुंड- मुरुण्डः-विद्यामन्त्रद्वारविवरणे प्रतिष्ठानपुरे राजा । राजा। आव० ४२४ | मुरुण्डः- वैनयिक्यां ग्रन्थिविषये पाटलीपुत्रे राजा । आव० ४२४ | मुरुण्डःराजा । पिण्ड० १४१ | मुरुण्ड:चिलातदेशनिवासीम्लेच्छविशेषः । प्रश्न० १४ | पाटलीपुराधिपः। बृह॰ १६०अ मुरुंडराया- नृपतिविशेषः । निशी० ७७आ । मुरुंडोराया- नृपतिविशेषः । निशी० १०२अ । मुल्लभंड- मुल्यभाण्डम् । उत्त० २१० | मुशल- शस्त्रम् । भग० २१३ | मुषण्ढिः- शस्त्रविशेषः । जीवा० १९३ । वनस्पतिकायिकभेदः । जीवा० २७| मुष्टिकं - लोकप्रतीतं युद्धम् । अनुयो० १७७ । मुसंढि- मुषण्ढिः-शस्त्रविशेषः । जीवा० १६०। मुसण्ढिःप्रहरणविशेषः। प्रज्ञा॰ ८६। मुशुण्ढिः-प्रहरणविशेषः। प्रश्न० ८। संढी- धान्यविशेषः । भग० ८०४ | मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] मुसल - मुशलं चतुर्हस्तम् । अनुयो० १५४ | मुशलं प्रसिद्धम् । प्रश्र्न॰ ८। षण्णवतिरङ्गुलं मुसलं वोढस्कन्धकाष्ठम्। जम्बू ० ९४ | संख्याविशेषः । सम० ९८ । मुसलि- मुसली - घट्टना । ओघ० १०९ । कालमानविशेषः । भग० २७५| मुसा मूषा-स्वर्णादितापनभाजनम् । भग० ५४१ । मुसावा- द्वितीयं पापस्थानकम् । ज्ञाता० ७५| मुसावाय- सतोऽपलापोऽसतश्च प्ररूपणं मृषावादः । प्रज्ञा ४३८ मुसावायवत्तिए- मृषावादः - आत्मपरोभयार्थमलीकवचनंतदेव प्रत्ययः कारणं यस्य दण्डस्य स मृषावादप्रत्ययः । सम० २५| मुसुंढि- मुशुण्ढिः-प्रहरणविशेषः । जीवा० ११७ | मुशुण्ढिः प्रश्र्न॰ २१| मुशुण्ढिः-शस्त्रविशेषः । जम्बू० ७६ | साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः । प्रज्ञा० ३४ | कन्दविशेषः । उत्त० ५७१| भग० २३१ | मुस्सा- मूलविशेषः । जीवा० १३६ । मुह- मुखः-समुद्रप्रवेशः। जम्बू॰ २९४। मुखं-कारणम्। सूत्र॰ २८३। मुखं-द्वादशाङ्गुलप्रमाणम् । अनुयो० १५६ । मुखं- समुद्रप्रवेशः। जम्बू० ३४९ | मुखं- आभिमुख्यम् । स्था॰ ५२०। मुखं-प्रधानम्। उत्त॰ ५२४। मुखं-उपायः। उत्त० ५२४ | मुहकाणुआ- लज्ज नि०० १३०| मुहकाणुआ- निशी० ६९ अ मुहणंतए- मुहणंतकः-रजोहरणमुखवस्त्रिका | ओघ० ११७| मुहणंतग- मुखानंतकं-मुखवस्त्रिका। आव० ७८१\ मुखानन्तकं-मुखवस्त्रिका | ओघ० २०८, २१४॥ मुहणत्तकं- मुखान्तकं-मुखवस्त्रिका। प्रज्ञा० १५६। मुहबंध- अश्र्वबन्धनविशेषः। ज्ञाता० २३०| मुहभंडग- मुखभाण्डकं-मुखाभरणम्। जम्बू॰ २६५। मुहमंगलिय- मुखमङ्गलिकः-चाटुकारिणः । जम्बू० १४२ मुहभंडग- मुखभाण्डकं - मुखाभरणम् । भग० ४८० | मुहमंडव- मुखे-अग्रद्वारे आयतनस्य मण्डपः मुखमण्डवः। स्था० २३२॥ मुखे अग्रद्वारे आयतनस्य मण्डपः मुखमण्डपः। स्था० २३०| मुखमण्डपः । जीवा० २२७ मुहमक्कडिया- मुखमर्कटिका । आव० २०६, ४३०, ६७७ [106] “आगम-सागर-कोषः " [४] Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] ११५ मुहमाख- मुखस्य परामर्षः-प्रमार्जनम्। ओघ. १९०५ | राज० ५२ मुहरि- मुखरिः-नानाविधासम्बद्धाभिधायी। औप० ९२। मूच्छिए- मूर्छितो-मूढो-गतविवेकचैतन्यः। ज्ञाता० ८४। मुखमेव अरिः-शत्रुरनर्थकारित्वाद् यस्य सः मुखारिः। | मुट्ठिअ- चिलातदेशवासीम्लेच्छविशेषः। प्रश्न०१४। प्रश्न० ३६। मुखेन-प्रभूतभाषणादिमुख-दोषेण भाषमाणं | मूढ-माष्टिकामूढः-अविनिश्चितः। ज्ञाता० २२७। मूढःअरिं-वैरिणं आहवति-करोतीति मौख-रिकः। ब्रह. २४८ हिताहितप्राप्तिपरिहारहितः। आचा० १४१। मूढः। अविभागस्थः। आव० २८५। मूढः-स्वरूपात् चलितः। मुहवण्ण- मुखवर्णो-मुखच्छाया। उत्त० २८७। दशवै० १०२॥ तत्त्वश्रद्धानं प्रति मूढः। भग० ३१२। मूढोमुहा- मुघा-प्रत्युपकारानपेक्षतया दीयमानम्। प्रश्न. ९८१ गुणदोषानभिज्ञः। स्था० १६५ मुहाजीवी- मुधाजीवी-सर्वथा अनिदानजीवी। दशवै० १८१। मूढक- मूढां-स्वभावाच्चलिताः। प्रज्ञा०६१। मुहाणंतगं- मुखानन्तकम्। आव० ७२३ मूढाणिय- मूढ़-नियतदिग्गमनाप्रत्ययं 'अणियं ति अग्रं महादाइ-मुधादाता-अनिदानदाता। दशवै०१८१ तण्डं अनीकं वा-पर्वतकं जनसैन्यं यस्य स तथा। प्रश्न. मुहालद्ध- मधालब्ध-कोण्टलादिव्यतिरेकेण प्राप्तम्। दशवै. १८११ जं कोंटलवेंटलादीणि मोत्तूणमितरहा लद्धं | मूत- मुद्गादि। व्यव० ३३९ अ। मूतः-पुटबन्धः। बृह. तं। दशवै० ८३ आ। १३५ । मुहिया- मुधिका-मुधा। दशवै० ५७। मूय- मूक-मन्मनभाषी। आचा० २३३। मूक-यद् आलापमुहुत्तंतरं- मुहूर्तान्तरम्। आव० ३५३। काननुच्चारयन् वन्दते, कृतिकर्मणि त्रिंशत्तमो दोषः। मुहुत्त- अन्तर्मुहूर्तम्। बृह० ७४ आ। अन्तर्मुहूर्तः-सप्त- आव० ५४४ सप्ततिरिसङ्ख्यालवाः। जीवा० ३४४ मूयइंगलिया-कीटिका। आव० ३७२। लवसप्त-सप्त-तिरूपः। ज्ञाता० १०४। मुहुर्तः- मूयग- मूयकः-मेदपाटप्रसिद्धतृणविशेषः। प्रश्न. १२८ सप्तसप्ततिलवप्र-माणः- कालविशेषः। आव०५८३।। मूरग-विध्वाद्यकः। व्यव० २८४ आ। मुहर्त-मुहुर्तेन गच्छामि कृत्य-समाप्तौ। स्था० १४३। | मूरयति- चूर्णयति। प्रश्न०७४ सप्तसंप्ततिलवप्रमाणः। स्था०८६) मूर्छितः- गृद्धः-काङ्खावान्। आव० ५८७। सप्तसप्ततिप्रमाणः। भग० २११। ज्ञाता० ३८१ मुहूर्त- | मूर्ति- जरा। विशेषः २७३।। व्याख्यानतो विशेषप्रतिप्रत्ति-रंतर्महत-मित्यर्थः।। | मूल- समीपः। उत्त० ६२६। मूलग्णप्रत्याख्यानम्। आव. व्यव० २४५आ। लवानी सप्तस-प्तत्या मुहूर्तः। जम्बू ४७९। मूलं-सट्टामूलादि। दशवै० ११८1 मूलं-मूलकर्म९०| मुहूर्तः-अभिषेकोक्तनक्षत्रस-मानदैवतः। जम्बू. अक्षतयोनिक्षतयोनिकरणरूपं। विवहविषयम्। રાછ૪). गर्भाधान-परिसाटरूपम्। पिण्ड० १४२। मूलकःमुहूत्तग्ग- मुहूर्ताग्रं-मुहूर्तपरिमाणम्। सूर्य १०११ शाकविशेषः। स्था०४०६। स्था०१९ मूलः-आश्रये मुहुत्तमद्धं- अनन्तर्मुहूर्तम्। सूत्र० ३४४। अपरनाम। जम्बू०४१९। मूल-कारणम्। आव० ३२५। मुहूर्तान्त- भिन्न मुहूर्तम्। आव० ३१। मूलं-निबन्धनम्। महाव्रतारोपणम्। भग० ९२० मूआ- मूका-महाविदेहे नगरी। आव. १६७। निरवशेषपर्या-योच्छेदमा-धायभूयो महाव्रतारोपणं तत्। मइंगा-पीपिलिया। निशी० ५७ आ। व्यव. १४ आ। संसारः। आचा० ९९। प्रधानम्। आचा. मूइअंगाई- मुइंगादयः-पिपीलिकाकन्थ्वादयः। पिण्ड. ९९| घातिकर्म-चतुष्टयम्। मोहनीयं मिथ्यात्वम्। १०६| आचा० १६० जीवा० १८७ जटा। स्था० ५२११ सकाशम्। मूइआ- मूकीकृतं-निःशब्दीकृतम्। ज्ञाता० २३७। ओघ. २०| जटा। प्रश्न. ९२ अर्धःप्रसर्पि स्वावयवः। मूओ- अरतौ दुर्लभबोधिः। मरण | उत्त. २३। कन्दस्याधो वति। प्रश्न. १५२१ राशि:मूच्छनं- मुकुन्दहुडुक्काविचिक्कीकडवानां मूर्छनम्। | नीवीः। उत्त० २७८। कृताञ्ज-ल्यायौषधिमूलम्। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [107] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] प्रश्न. १०९। मूल-कारणम्। आचा० ९९। मूलं-असंयमः प्राणातिपातविरमणादयः। भग०८९४| मूलो-जीवः तस्य कर्म वा। आचा० १६० मोहनीयं-तद्भेदो वा कास्तस्य गुणः। बृह० ६७। बृह. १४३ अ। मूलगुणःस्थान-शब्दादिको विषयग्णः। आचा. ९९। चारित्रकल्पवृक्षस्य मूलकल्पाः गुणःप्रायश्चित्तविशेषः। स्था० २००। मूलं-उशीरादि। आचा० प्राणातिपातविरमणादिः। भग० २९६| निशी. १६६ अ। ३०। मूलं-निकटम्। भग० २१७। मूलं-करणं-काषायाः। आद्यगुणः प्रधानगुण इत्यर्थः। निशी. २८ अ। आचा. ९९। मूलं-प्राणातिपातादौ पुनव्रतारोप-णम्। मूलगुणघाइण- मूलगुणान् घातयितुं शीलं येषां ते आव० ७६४। समीपम्। उत्त० ३०२। आसन्नम्। जम्बू० मूलगुणघा-तिनः३५९। मूलनक्षत्रम्। सूर्य. १३०| सचित्तं-तरुशरीरम्। अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानवरणाः वादआव०८२८ समीपम्। औप०९। मूलं-विदारिकारूपम्। शानां कषायाणामुदयः। आव० ७८ दशवै. १७६। सव्वछेदो। निशी. १३आ। समीपम्। मूलगुणनिर्मितः- पुरुषप्रायोग्याणि द्रव्याणि। आव० २७७। ज्ञाता० २७ मूलगुणविषय-आधाकर्मादि। आव० ३२५१ मूलए- मूलकः-कन्दविशेषः। उत्त०६९१। मूलकः-अन- | मूलगोत्ता- मूलभूतानि-आदिभूतानि गोत्राणि मूलगोत्राणि न्तकायविशेषः। भग. ३०० स्था० ३९० मूलओ- आदितः सर्वथैवेत्यर्थः। स्था० ५०२। मूलग्गाम- यत्र ग्रामे साधवः स्थिताः स मूलग्रामः। बृह. मूलक- अनन्तकायिकम्। प्रज्ञा० २५९। वनस्पतिकायवि- | ७९ ॥ शेषः। जीवा. २७। मूलक-मूलकर्ममूलकादिप्रयोगतो | मलचेतिय-आन्दपरे चैत्यम। निशी. ३५५ । गर्भ-पातनादि। प्रश्न. ३८५ मूलछिज्ज- मूलं-अष्टमप्रायश्चित्तेन छिद्यते-विदार्यते मूलकम्म- यदनुष्ठानाद्गर्भशातनादेर्मुलमवाप्यते यद्दोष-जातं तन्मूलच्छेद्यं अशेषचारित्रच्छेदकारि। तद्विधानादे-वाप्तो मूलपिण्डः। आचा० २५१। मूलकम आव०७८ नाम पुरुषद्वे-पिण्याः सत्या मूलदत्ता- अन्तकृद्दशानां पञ्चमवर्गस्य पुरुषद्वेषीणीकरणमपुरुषद्वेषिण्याः सत्या द्वेषि- दशममध्ययनम्। अन्त०१५) णीकरणम्। व्यव० १६२ आ। मूलकर्म-वशीकरणम्। मूलदलिय- मूलदलिक-मूलदलं-आदिभूतद्रव्यम्। प्रश्न. पिण्ड० १२११ १३४१ मलकरण- सामायिकादीनि प्रतिक्रमणावसानानि। मूलदेव- कलाशिक्षायामुदाहरणगतः। दशवै० १०९। चोरः। विशुद्धक-तव्यतायां मूलकरणम्। आव० ७७९| निशी. १२० अ। मूलदेवः चौरिकारकः। व्यव० ३३आ। यदवयवविभागविर-हितमौदारिकादिशरीराणां मूलदेवः। उत्त० २१८। मूलदेवः-औत्पात्तिप्रथममभिनिर्वतनम् तत् मूलक-रणम्। उत्त० १९७५ कीबर्धिदृष्टान्ते मार्गविषये पान्थविशेषः। आव०४२० मूलग-मूलक-शाकविशेषः। जम्बू. १२४। वनस्पति- पुण्डरीकसार्थगामी। नन्दी. ११४। मलदेवः-उज्जयिन्यां विशेषः। भग० ८०२। वनस्पतिविशेषः। भग०८०४। राजा। दशवै ५७ हरितविशेषः। प्रज्ञा० ३३मूलकः-सपत्रजालकम्। दशवैः | मूलनय- मूलभूतो नयः। अनुयो० २६४। १८५ मुलपलंब-याल्लोकस्योपभोगमायाति मूलगपत्त- पत्तविसेसं। निशी. ६० अ। तदेतन्मूलपलम्बम्। बृह. १४३ आ। मूलगबीय- मूलकबीज-शाकविशेषबीजम्। भग० २७४। मूलपढमाणुओग- मूलं-धर्मप्रणयनात्तीर्थकरास्तेषां मूलगम- मूलगमः-मूलदोषभेदः। ओघ० १२४ प्रथमः-सम्यक्त्वावाप्तिलक्षणपूर्व मूलगूण- मूलगूणः-मूलभूतो गुणः-उत्तरगुणाधारः-सम्य- । भवादिगोचरोऽनयोगो मूलप्रथमान्-योगः। नन्दी० २४२। क्त्वमहाव्रताणुव्रतरूपः। आव० ७८1 मूलगुणः-प्राणाति- | मूलप्रथमानुयोगः स चैकस्तीर्थकराणां पातनिवृत्त्यादिः। दशवै० १६१। प्रथमसम्यक्त्वावाप्तिभवादिगोचरो यः स मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [108] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] मूलप्रथमानुयोगः। स्था० २००१ मूल महाव्रतारोपणाई प्रायश्चित्तम्। भग. ९२० तावत्तीर्थकारास्तेषां प्रथमसम्यक्त्वा मूलाहारा- तापसविशेषः। निर० २७ प्तिलक्षणपूर्वभवादिगोचरोऽन्योगो मूलप्रथमानयोगः। | मूलिग- औषधिविशेषः। प्रज्ञा० ३३ सम० १३११ मूलियं- मूले भवं मौलिकं-मौलधनम्। उत्त० २८१। मूलपत्ती- मूलपत्री। आव० ३५७। मूलुक्खयपडिवक्ख-मूलतो हतः शत्रुः चतु०। मूलप्पओगकरण- मूलप्रयोगकरणं जीवप्रयोगकरणस्य मूषिकार- कलादिश्रेष्ठिविशेषः। विपा० ८८1 प्रथमो भेदः। आव०४५८ मूस- मूषः-धान्यम्। प्रणज्ञा० २६६। मूलफल- मूलफलम्। सूत्र० २९३। स्था० ११८ मूलफलम। मूसए-मूषकः। आव २१७ भग० ३२६। मूसग- मूषकः-मूषकप्रधाना विद्या। आव० ३१८५ मूलबीय- मूलबीजः-आर्द्राकादिः सूत्र० ३५०| मुलबीजः- | मूसगमड- मूषकमृतः-मृतमूषकदेहः। जीवा० १०६। जात्यादि। आचा० ३४९। मूलमेव बीजं येषां ते मूलबीजः- | मूसा- भुजपरिसर्पविशेषः। प्रज्ञा० ४६। मुषा-स्वर्णादितापउत्पलकन्दादिः। स्था. १८७ दशवै० १३९। मलबीजः- नभाजनविशेषः। ज्ञाता० १६० कदल्यादि। आचा० ५७ मूसियारदारए- मूषिकारदारक इति पितृव्यपदेशेन। मूलभूत-द्वारभूतम्। आव०८३९। अङ्गप्रविष्टं-अङ्गभूतं | ज्ञाता०१८४१ वा। नन्दी . २०३ मृग-सत्त्वभेदोपलक्षितः, तन्त्वभीरुत्वादिना। स्था० मूलभोयण- आहारदोषः। भग० ४६७। मूलं-पुनर्नवादीनां । | २०९। अगीतार्थः क्षुल्लकादिः। व्यव० २०० । तस्य भोजनं तदैवं वा भोजनं भूज्यत इति भोजनमिति | मृगदंश- शुनकः। प्रज्ञा० २५४। कृत्वा। स्था०४६०| ज्ञाता०४९। मृगमद- कस्तूरी। नन्दी. १७२। मूलमंत- मूलानि प्रभृतानि दुरावगाढानि सन्ति येषामिति मृगया- मृगव्या। उत्त० ४३८। मूलवन्तः । जम्बू० २९। मृगापति- आर्यादनया प्राप्तोपालम्भा। व्यव० ११७ अ। मूलयपत्तसरिसया- मूलं-आद्यं यत्पर्ण निःसारं मृगापुत्र- पूर्वकृताशुभकर्मोदयवान्। आचा० ३८१ परिपक्वप्रायं तत्तल्या यदि वा मूलकपत्रतुल्याः दुःखविपाके दृष्टान्तः। सूत्र. १५६) शाकपत्रप्रायाः। ओघ०६४। मृगीपद- गुज्झंग। निशी० २११ अ। मूलवंत- मूलवान्-मूलं प्रभुतं दूरावगाढं च अस्त्यस्येति। | मृणाल- शीतस्पर्शपरिणता। प्रज्ञा० १०॥ जीवा० १८७ | मृतकभक्त-पितृपिण्डः। आचा० ३२८१ मूलवस्तु- द्वारभूतं वस्तु। आव० ८३९। मृतसूतकं- मृतेऽनंतरं दश दिवसान् यावत्। व्यव० ७आ। मूलसीरि- मूलश्रीः-शाम्बामारभार्या। अन्त०१८ मृदङ्ग- आतोद्यविशेषः। प्रज्ञा० ८७ वाद्यविशेषः। अन्तकृद्दशायां पञ्चमवर्गस्य नवममध्ययनम्। अन्त० | नन्दी० ८८ १५ मृदु-सन्नतिलक्षणः। स्था० २६। प्रज्ञा० ४७३। मूला-धनवाहश्रेष्ठिपत्नी। आव० २२२मूलं-यत् मृदुक- मधुरस्वरम्। स्था० ३९६। कन्दस्या धस्तात् भूतेरन्तः। प्रसरति। प्रज्ञा० ३१| मृद्वी-सललिता। आव० ५६६| कन्दादधस्तिर्य-ग्निर्गतजटा समूहावयवरूपा। जम्बू. मृदविका- अविनाशिद्रव्यम्। आचा० १३० मृद्विकासार-खर्जूरसारः द्राक्षासारः निष्पन्न मूलाविय- मूलकबीजम्। स्था० ४०६। आसवविशेषः। जीवा. २५६। मूलाबीया- मूलकः-शाकविशेषः तस्य बीजं मूलबीजकम्। | मृषाक्रिया- आत्मज्ञात्याद्यर्थं यदलीकभाषणम्। स्था० स्था०४०६। ३१६| मूलारिह- मूलार्ह-पुनर्वतोपस्थापनम्। औप० ४२। मूलं- मृषावाक्- उन्नम्यमानः केनचित् दुर्विग्धेनाहोऽयं २८४१ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [109] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] महाकुलप्रसूत आकृतिमान् पटुप्रज्ञः। आचा० २१६।। मेघोघरसियं- मेघौघरसितं-शब्दविशेषः। आव० २९२ मृष्टा- अमृता पथ्या वा। आव० ५९४। मृष्ट इव मृष्टाः- मेज्झ-भेध्यम्। व्यव० ४१८ आ। सुकुमारशानया पाषाणप्रतिमेव शोधिता वा मेढओ- मेषः-औत्पत्तिकी दृष्टान्ते मुख्यः। आव० ४१६। प्रमार्जनिकयेव। स्था. २३२१ मेढक- मेढकः-मुण्डकः। प्रश्ना०८। मृष्टान्नार्थी- मष्टान्नं अर्थते। ओघ०४९। मेढी- सफलफलकाधारभूतकाष्ठरूपा यस्याः सा तथा। मेंढ- मङ्गादनम्। बृह० ९६ आ। ज्ञाता० १५७। खलकमध्यपर्तिनी स्थूणा यस्यां मेंढमुह- मेण्ढमुखः-अन्तरदवीपविशेषः। जीवा० १४४॥ नियमिता गोपंक्तिर्धान्यं गाहयति तदवधमालम्ब्य मेण्ढमुखनामा अन्तरद्वीपः। प्रज्ञा. ५० सकलमन्त्रिमण्डलं मन्त्रणीयार्थान धान्यमिव मेंढमुहदेव- अन्तरद्वीपविशेषः। स्था० २२६। विवेचयति सा मेढी। ज्ञाता०११। खलकमध्यवर्तिनी मेंढिय- मेंढिका। आव. २२२१ स्थूला। भग० ७३९। मेढी-खलक-स्तम्भः। गच्छा। मेंढियगाम-शालकोष्टकचैत्यस्थानम्। भग०६८५ मेत- मेदः-चिलातदेशनिवासीम्लेच्छविशेषः। प्रश्न १४| मेंढिविसाण-मेण्ढविषाणं-मेषशृङ्गम्। स्था० २१९। मेतज्ज- मेतार्यः-नवपूर्व्यनगारः। आव० ३६९। मेंढविषाणा-मेषशृङ्गसमानफूलावनस्पतिजातिः। स्था० | मेतार्यः- दुःखसम्बोध्ये दृष्टान्तः। आचा० ३५१ १८५ मेत्त- मात्रा-द्वात्रिंशत्तमांशरूपा। भग० २९२१ मे- माम्। उत्त० ३६७ बुध्यादिपरि-णामस्याभिनवत्वख्यापनपरः। ओप० मेअन्न-मीयत इति मेयं-ज्ञेयं जीवादिवस्तु तज्जानाती- १० क्रियायाः दशमभेदः। आव०६४८ मात्रशब्दःतिमेयज्ञः। उत्त० ४४३। तात्पर्यार्थविश्रान्ते-स्तुल्यवाची। व्यव० ७२ आ। मेई- मातङ्गी। आव० ३६७। मेत्तायं- मात्रकम्। आव० ४०७। मेए- श्वपचः-चाण्डालः। दशवै० ३५ मेदा- गृहीतचापा दिवा रात्रौ जीवहिंसापरम्लेच्छविशेषः। मेखला- भूषणविधिविशेषः। जीवा. २६९। मेखस्य माला। | बृह. ८२ आ। अनुयो० १५० मेद्ध-अंगादानं। निशी. ३०आ। मेघंकरा- ऊवलोकवास्तव्या दिक्कुमारी। आव० १२२॥ मेधा- शीघ्रं ग्रन्थग्रहणम्। निशी. १७४ अ। अपूर्वश्रुतमेघ- मेघः। उपा० २६ ग्रहणशक्तिः । सम० १२८ मेघकुमार- श्रेणिकधारिण्योः पत्रः महावीर भगवतः | मेय- मेदः। ज्ञाता० १७३। मेदः-देहे धातुविशेषः। प्रश्न० ८। शिष्यः। ज्ञाता० ११८ मेघकमारः। ज्ञाता० १५३। मेदः। प्रज्ञा० ८० मयः। उत्त० ४७५१ मेघकुमारः ज्ञातायां प्रथमाध्ययनेऽभिहितः। ज्ञाता० मेयज्जे- मेदार्यः-एतद्गोत्रोत्पन्नव्यक्तिविशेषः। सूत्र. १२९। अन्त०२, १० ४०९| कौंचदयालमुनिः। मरण | मेतार्य:मेघकुमारतवो- उपाशकदशायामानन्दाध्ययने तपोवर्णने दशमगणधरः। आव. २४०। मेतार्यः। आव० ३६८। दृष्टान्तः। उपा० १८१ मेरए- मेरकं-मदयविशेषः। प्रज्ञा० ३६४। मेघघणसंनिवासं-घनमेघसदृशं-सान्द्रजलदसमानं काल- मेरओ- मेरकः-मदयविशेषः। जीवा. २६५, ३५१| कमित्यर्थः। भग० १२७ मेरग- मेरकं तालफलनिष्पन्नम्। विपा० ४९। पसन्नो मेघनाद-कालगते जागरणनिमित्तमध्ययनम्। व्यव० सुरापायोगेहिं दव्वेहिं कारइ। दशवै० ८८ आ। मेरकं२५८ आ। पत्रशाकविशेषः। जम्बू. २४४। मद्यविशेषः। उपा०४९। मेरकः-मद्यविशेषः। जम्बू० मेघमालिनी-ऊर्ध्वलोकवास्तव्या दिक्कुमारी। आव० १००। मेरक-प्रसन्नाख्यां, सुराप्रायोग्यद्रव्यनिष्पन्नमन्यं वा। दशवै. १८८1 मेघवती- ऊर्ध्वलोकवास्तस्य दिक्कुमारी। आव० १२२ | मेरय- मेरकः-स्वयम्भूवासुदेवशत्रुः। आव० १५९। मैरेयंसमेघस्वरा- धरेन्द्रस्य घण्टा। जम्बू. ४०७। | सका रकः। उत्त०६५४३ चा, १२२१ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [110] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] मेरा- | सम० १५२। मुञ्जसरिका। प्रश्न. १२८१ मर्यादा- | मेहता- अणुभवंता। दशवै० १३५आ। चारित्ररूपा। आव. २६४| हरिषेणमाता। आव० १६१ | मेह-सुमतिनाथजिनस्य पिता। सम० १५० मेघःमर्यादा-सीमा। आव०६३९। सामाचारी। आव ७४४| अन्तकृ-द्दशानां षष्ठमवर्गस्य चतुर्दशममध्ययनम्। मर्यादा-विभागरूपा। जम्बू. २१८ मर्यादा। ओघ० १२१। अन्त०१८। भेघः-राजगृहे कुमारः। अन्त०२३। मेघःसामाचारी। निशी० ७३ अ। मर्यादा। स्था० ३३१| सुम-तिपिता। १० मेघः-मेघक्कमारः। विपा० ९० मर्यादा। स्था० ४१६ मेघः- कलम्बुकः सन्निवेशषवास्तव्यः। आव. २०६। मेरामेहावी- मर्यादामेधावी-चरणकरणप्रवणमतिमान्। निरयावल्यां दवितीयवर्ग उदाहरणम्। निर० २० बृह० १२५ आ। मेघानगारः। ज्ञाता०७३। स्थावच्चाप्त्रेदृष्टान्तः। मेरु- पर्वतः। आचा० ४११। मेरुदेव योगात् मेरुः। जम्बू० ज्ञाता०१०१। श्रेणिकपुत्रः। ज्ञाता०५९। ३७५। ज्ञाता० ३१। कैलासपर्वतो मेरुः। निशी. ९८ अ। आमलकल्पानगर्यांगाथापति। ज्ञाता० २५१| मेरुकं- व्यग्रम्। आचा० ३५४। मेहकुमार- श्रेणिकपत्रः। ज्ञाता० ३७) मेरुकान्त-महोरगभेदविशेषः। प्रज्ञा ७० मेहणाओ- मेघनादः-विद्याधरविशेषः। आव० ३९३। मेरुगिरितुंगसरिस- मेरुगिरितुङ्गसदृशः मेहमालिनी- मेघमालिनी चतुर्थी दिक्कुमारीमहत्तरिका। मेरुगिरेस्तुङ्गानि-उच्छितानि तैः सदृशः जीवा० ३८८ कैलासपर्वतोमेरु-उच्छित इत्यर्थः। आव० ५६६। मेहमुह- मेघसुखः। जम्बू० २३९। मेघमुखः-कुमारः। आव० मेरुताल- वृक्षविशेषः। जम्बू. ९७। १५० मेघमुखः-अन्तरद्वीपविशेषः। जीवा० १४४॥ मेरुप्पभ-हस्तिविशेषः। ज्ञाता०६४। मेघमुखनामान्तरद्वीपः। प्रज्ञा० ५०| मेरुप्रभः-किंपुरुषभेदः। प्रज्ञा०७० मेहमुहदीव- अन्तरद्वीपविशेषः। स्था० २२६। मेरुमती- नदी। व्यव० २८० आ। मेहरह- शान्तिनाथजिनस्य पूर्वभवनाम। सम० १५१| मेरुयालवण- एकोरूकद्वीपे वृक्षविशेषः। जीवा० १४५ मेघरथः-मध्यमिकनगधिपतिः। विपा० ९५ मेरु- सकलतिर्यग्लोकमध्यभागस्य मेहराति- मेघरात्रिः कालमेघरेखातल्यत्वात। भग० २७१। मर्यादिकारित्वान्मेरुः। सूर्य. ७८1 मिन्दरः। स्था० ६८१ कृष्णरात्रेवितीयं नाम। स्था० ४३२। मेलक-समवायः। आचा० ३२८१ मेहला- मेखला-कट्याभरणम्। प्रश्न. १५९। मेखलामेलणदोष- मीलनदोषः-संसर्गदोषः। आव. ५२१| रसना। ज्ञाता० १६५ मेलणदोष- मीलनदोषः-संसर्गदोषः। आव०५२११ मेहवई- मेघवती-दवितीयादिक्कमारीमहत्तरिका। जम्ब मेलणा- मिलना-संसर्गः। बृह. ५अ। ૨૮૮1. मेलिमिंदा-दीकराहिभेदविशेषः। प्रज्ञा०४६। मेहवन्न- मणिदत्तयक्षायतनस्थानोदयानम्। निर०४०। मेल्हे- त्यजसि। आव० ३५११ मेहसिरि- मेघगाथापतिपत्नी। ज्ञाता० ३५१। मेस- मेषः-यथामेषोऽल्पेऽम्भसि अनवालयन्नेवाम्भः | मेहस्सर- मेघस्वरः-मेघस्येवातिदीर्घः स्वरो यस्य सः। पिबति, एवं साधुनाऽपि भिक्षाप्रविष्टेन जीवा० २०७१ बीजाक्रमणदिष्वनाकुलेन भिक्षा एवं साधुनाऽपि मेहा- मेधा-अपूर्वापूर्वबृंह-णोहात्मको ज्ञानविशेषः। व्यव० भिक्षाप्रविष्टेन बीजाक्रमणादिष्वनाक्लेन भिक्षा १४४। आमलक-ल्पानगर्यां मेघगाथापतिपत्री। ज्ञाता० ग्राह्या, साधोरुपमानम्। दशवै०१८ २५१। मेघा-पटुत्वम्। आव० ७८७ मेधा-हेयोपादेया धीः। मेसर-लोकपक्षीविशेषः। प्रज्ञा०४९। लोमपक्षिविशेषः। जम्बू. १८२ चमरेन्द्रस्य पञ्चम्याऽग्रमहिषी। भग. जीवा०४१। ५०३। धर्मकथायाः-प्रथमवर्गे पञ्चम-ध्ययन्। ज्ञाता० मेहंकरा- मेघकरानाम्नी राजधानी। जम्बू. ३६८1 २४७। मेधा-वस्तुरूपावधारणशक्तिः । उत्त० २८७। भेधामेघकरा-प्रथमा दिक्कुमारीमहत्तरिका। जम्बू. ३८८1 प्रथमं विशेषसामान्यार्थावग्रहमतिरिच्योत्तरः। सर्वोऽपि ग मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [111] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] विशेषसामान्यार्थावग्रहः। नन्दी० १७५। मेधा-श्रुतग्रहण- | मैथुनप्रत्ययिकः। भग० १३४॥ शक्तिः । स्था०४१६। मेघः-पयोदः। स्था० २७०० मेहुणसंसग्ग- मैथुनसंसर्गः-मैथुनसम्बन्धं मेहावि- मेधावि-स्वाभिपदसंज्ञादिप्राप्तार्थधारकम्। जम्बू० | योषिदालापादि। दशवै० १९८१ २३७ मेघावि। उपा०४६। मेहणसण्णा- मैथुनसज्ञा-मैथूनाभिलाषः, मेहावी- मेधावी-कुशलः। आचा० ३९। मेधावी-मर्यादाव्य- वेदमोहोदयजो-जीवपरिज्ञामः। आव० ५८० वस्थितः। आचा०४९। मेधावी-प्लविनोत्पलवनयोरू- | मेहुणसन्ना- मैथुनसज्ञा-वेदोदयजनिता मैथुनाभिलाषः। पायज्ञः। सूत्र. २७३। सकृत्श्रुतदृष्टकर्मज्ञः। भग०६३१ जीवा० १५। मैथुनसज्ञा-पुंवेदोदयान्मैथुनाय मेधावी-सर्वभावज्ञः। आचा० ३०५ मेधावी-सकृच्छुत- स्त्र्यालोकदृष्टकर्मज्ञः। अन्यो. १७७। मेधावी नप्रसन्नवदनसंस्तम्भितोरुवेयनप्रभृतिलक्षणक्रिया अपूर्वविज्ञानग्रहणश-क्तिकः। औप०६५ मेधावी- मैथुनसंज्ञा। प्रज्ञा० २२२वेदायुदयान्मैथुनाय परस्पराव्याहतपूर्वीपानुसन्धा-नदक्षः। जीवा० १२२॥ स्त्राद्यङ्गालोकनप्रसन्नमेधावी-सकृत्श्रुतदृष्टकर्मज्ञः। जम्बू. ३८८1 मेधावी- वदनसंस्तम्भितोरुवेपथुप्रभृतिलक्षणा क्रियैव अपूर्वश्रुतदृष्टग्रहणशक्तियतः। प्रश्न. ११६। मेधावी- सज्ञायतेऽन-येति मैथनासज्ञा। भग० ३१४। मर्यादया धावतीत्येवशीलमिति निरुक्तिव-शात् मेहुणा- मैथुनिका- मैथुनाजीवया। व्यव० २०९ अ। श्रुतग्रहणशक्तिस्तद्वत्। स्था० ३५३। मेधावी-मर्या- मेहुणी- मैथुनिका-मातुलदुहिता। बृह० ७२ अ। दावर्ति। स्था०४१६। मेधावी-विदितासारसंसारस्वभावः। मेहे- मेहः सेचनम्। सूत्र. ११८ आचा० ११११ मेधावी-बुद्धिमान। आचा० १४७ मेधावी- मैथुनकम्मी- मैथुनकर्म प्रारभन्ते। व्यव० १९३ आ। तत्त्वदर्शी। आचा० १६२। मेधावी-अप्रमत्तयतिः मैथुनासेवना-अभिगमगमनम्। आव०८२५ मर्यादा-व्यवस्थितः श्रेण्य) नापर इति। आचा० १७३।। | मोंढ-म्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा० ५५ मेधावी-न्यायावस्थितः। आव. ५१६। मेधावी मोंढरि- वल्लिविशेषः। भग०८०४। मर्यादाव्यवस्थितः, सश्रुतिको मो- अवधारणार्थे। सूत्र. १५४। स्मो-भवामो। भग० ६६८। हेयोपादेयपरिहारप्रवृत्तिज्ञः। आचा० २०९। मेधावी- अस्माकम्। उत्त० ३१० मो-अयं निपातो वाक्यालंकाअर्थावधारणशक्तिमान्, मर्यादावर्ती वा। उत्त०६५। रार्थः। दशवै०७८१ मेधावी-अवधारणशक्तिमान। उत्त. १०४ मेधावी- मोउद्देसए- तृतीयशतकस्य प्रथमोद्देशकः। भग ५०६। साधुः। दशवै. १७८१ मोउयो- रागदोसविरहितो दोण्हवि मज्झे वट्टमाणो तला महिल-स्थविरविशेषः। मक्त। स मोउयो भण्णति। निशी. १३९ । मेहुण- मैथुनं-मिथुनस्य कर्म, द्वितीयमब्रह्मनाम। मोएज्जए- वरुणस्य पुत्रस्थानीयो देवः। भग. १९९। प्रश्न०६६। मैथुनः-मातुलपुत्रः। बृह० ९०आ। मिथुनं- मोएति-मोचयति। आव० ३५११ स्त्रीपुंसयुग्मं तत्कर्म मैथुनम्। स्था० १०६। चतुर्थं मोक्ख- बन्धस्य वियोगो मोक्षः। बद्धानि यानि कर्माणि, पापस्थानकम्। ज्ञाता० ७५| मैथुनं-अब्रह्म। आचा० तेन कर्मणा सर्वाभावरुपतया यो विश्लेष एव मोक्षः। ३३१ आचा० ३६१। अष्टप्रकारकर्मबन्धवियोगो मोक्षः। दशवै. मेहुणपच्चय- मैथुनप्रत्ययं-मैथुननिमित्तम्। जीवा. ३९। मोक्षः-कृत्स्नकर्मक्षयादात्मनः स्वात्मन्यवस्थानम्। स्था० ४४६। मोक्षम्। ज्ञाता० ५५ मेहुणपडिताते- मैथुनप्रतिज्ञया-मैथुनार्थमिति। स्था. मोक्खपहोयारग-मोक्षपथावतारकः, सम्यग्दर्शनादिष ३१५ प्राणिनां प्रवर्तका इत्यर्थः। सम० ११११ मेहुणवत्तिए- मैथुनस्य वृत्तिः-प्रवृत्तिर्यस्मिन्नसौ मोक्खमग्गगई- उत्तराध्ययनेषु मैथुनवृत्तिको मैथुनं वा प्रत्ययो-हेतुर्यस्मिन्नौ अष्टाविंशतितममध्ययनम्। सम०६४। ३८५ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [112] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] २९८० मोक्खविणओ- इहलोकानपेक्षस्य श्रद्धानज्ञानशिक्षादिष् मुनित्वं तद-प्यसावेव मौनं वा वाचः संयमानम्। आचा. कर्म-क्षयाय प्रवर्तनं मोक्षविनयः। उत्त०१७ १४३। मौनं-मुनेः इदं सर्वज्ञोक्तं सम्यग्मौनम्। आचा० मोक्खहिकार- मोक्खकारणं| निशी०६अ। ર૦૮. मोगरपाणी- मुदगरपाणिः-यक्षविशेषः। अन्त०१९। मोणचर- मौनं-मौनव्रतं तेन चरति मौनचरकः। स्था. मुद्गर-पाणिः-अन्तकृद्दशानां षष्ठमवर्गस्य तृतीयमध्ययनम्। अन्त०१८ मोणपय- मौनपदं-मौनीन्द्रं पदयते-गम्यते मोक्षो येन तत् मोगरावड- मत्स्यविशेषः। जीवा० ३६) पदं-संयमः। सूत्र०६१। मोगली- वल्लीविशेषः। प्रज्ञा० ३२१ मोत्ति- मुक्तिः-निष्परिग्रहत्वमलोभत्वमित्यर्थः। स्था० मोग्गर- गुल्मविशेषः। प्रज्ञा० ३२। मगरः-अयोधनः। ३७४। प्रश्न. २१। मुद्गरः-शस्त्रविशेषः। जीवा. ११७ मोत्तिया-दवीन्द्रियजीवविशेषः। जीवा० ३१| मुद्गरः। आव० ६६१। मगदंति पुक्फा। निशी० १४१ | मोदकप्रिय- कुमारविशेषः। नन्दी० १६६| आ। भग० २३१। मोदत्ती- गुलवजणी। निशी. ६४ अ। मोग्गरगुम्म- मुद्गरगुल्मम्। जम्बू० ९८५ मोमइया- ठाहेऊण बीयाणि पच्छा ताए ओहाडिज्जंति। मोग्गल्लसेलहिर- मोदगलशैशिखरं-पर्वतविशेषः। व्यव. दशवै १११ । ४३२आ। मोय- अब्भतरो गिरो। निशी. २३ । मोकः-मूत्रम्। बृह. मोग्गलायण- मौद्गल्यायन-अभिजिद्गोत्रम्। जम्बू. २०३ अ। मूत्रितम्। निशी. १०० आ। मूत्रणम्। पिण्ड. ५००। कुत्सगोत्रे भेदः। स्था० ३९० १३१। मोचः-प्रस्रवणं-कायिका। सूत्र० ११८ मोग्गलायणसगोत्त- मोद्गलायनगोत्रं मोयइ- वनस्पतिविशेषः। भग०८०३। मोचकीअभिचीनक्षत्रगोत्रम्। सूर्य १५० वृक्षविशेषः। प्रज्ञा० ३१ मोघ- शुभफलापेक्षया निष्फलो यो मोहः। सम० ११०| मोयए-मोचकः-परेषां कर्मबन्धनमौचकः। भग०७१ मोचक- बाह्याभ्यन्तरग्रन्थिबन्धनात्। सम०५) मोयण- मोचनं नाम न अन्यथा मोक्षः, एतद् दत्त्वा मोचक-मोचयत्यन्यानिति मोचकः। जीवा० २५६। मुच्यते इति वंदनकं देयम्। कृतिकर्मणि षविंशतितमो मोचाकाण्ड- कदलीस्तम्भः। प्रश्न० ८३। दोषः। आव० ५४४। मोच्चं-मोच्यम्। मरण। मोयपडिमा- मोका- परित्यागप्रधाना प्रतिमा मोकप्रतिमा। मोच्छति- मोक्ष्यति-स्रक्ष्यति। भग० ३०६। व्यव. ३४९ आ। मोकः-कायिकी तदा उत्सर्गप्रधाना मोच्छिहिति- मोक्ष्यति-स्रक्ष्यति- । जम्बू. १६७। प्रतिमा मोकप्रतिमा। व्यव. ३४९ अ। मोकपतिमाप्रमोटित-मग्नः। ज्ञाता० १५९। स्रवणप्रतिमा। स्था०६५। मोकप्रतिमा-प्रश्रवणाभिग्रहः। मोहित- मौष्टिकः-मुष्टिप्रमाणः प्रोतचर्मरज्जुकः औप० ३२। मोयप्रतिमा-प्रश्रवणप्रतिज्ञा। स्था० १९५१ पाषाणगो-लकः। उपा०४७ मौष्टिकः मोयसमायार- 'मोया त्ति कायिका तत्समाचरणात्सभिक्षुमष्टिप्रमाणपाषाणः। प्रश्न. ४८१ स्तगन्धो भवति। आचा० ३६४। मोडणं- नाशकम्। मरण। मोया- कायिका। आचा० ३६४। मोचा-चमरस मोडणा- मोटना-गात्रभजना। प्रश्न. ५६। विषयकोद्देशके नगरी। भग. १५३। मोकामोडिउण- आमोट्य। उत्त० १३९। मोकानामनगरी, भगवतीसूत्रस्य तृतीयशतकस्य मोढेरकाहार- मोढेरकग्रामस्य समासन्नो देशः, प्रथमोद्देशकः। भग० १६९। परिभोग्यः। सूत्र० ३४३ मोयावइत्ता- मोचयित्वा साधना मोण- मौनं-वाग्निरोधलक्षणम्। आव० ७८० तैलार्थदासत्वप्राप्तिभगिनीव-दिति। स्था० २७६) संयमानुष्ठा-नम्। आचा० २१२। मौनः संयमः, मुनेर्भावः | मोरग- मयूरपिच्छनिष्पन्नम्। आचा० ३७२। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [113] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] मोरगगिरमिस्सा- मयूरपिच्छं। निशी. १७७ आ। निष्फलः मोहः स्नेहः। उत्त० ३९२। मोहः अज्ञानं मोरगीवा- मयूरग्रीवा। प्रज्ञा० ३६० मिथ्यात्वमोहनीयं वा। आचा० ११३। मोहः अज्ञानं मोरपुत्तपाय- मयूरपुत्रपादः। आव०८२२। मोहनीयभेदो वा। आचा० १४१। मोहःमोरपोसग- मयूरपोषकः। आव० ४३३। पदाथेष्वयथार्थावबोधः, श्रोतृमनोमूढता। सम० ११० मोरय-मुरियादि सुरियति मोरयो सगवंसो। निशी० ४। मोहो मोहनं वेदरूपमोहनीयोदयसम्पाद्यत्वाद मोराग-मोराकं-सन्निवेषविशेषः। आव० १८९। अस्याज्ञानरूपत्वाद् मोहः अब्रह्मणम्। प्रश्न०६६। मोरिए- मौर्यः-सप्तमगणधरपिता। आव० २५५। मोहः-व्यामोहो वेदादयो वा। सूत्र०३१९। मोहः-मोहनं मोरियपुत्त- ताम्रलिप्तिनगर्यां गाथापति। भग० १६१। अब्रह्मणो नवम नामा। प्रश्न०६७। मोहःमौर्यपुत्रः-सप्तमो गणधरः। आव० २४० ज्ञानावरणदर्शनावरणमोह-नीयात्मकः। उत्त० २१३। मोरिवंशपसुओ- मौर्यशप्रसूतः-बलभद्राभिधः मोहः-अज्ञानम्। दशवै० ११९। श्रमणोपासको राजविशेषः। आव. ३१५ मोहकल- मोहकर्दमः। भक्त मोरी- मयूरी-तत्प्रधाना विदया। आव० ३१९। मोहगुणा- मोहगुणाः-मोहयति जानानमपिण मोलिकडे- अबद्धपरिधानकच्छ इत्यर्थः। सम. २० जन्तुमाकुलयति प्रवर्तयति चान्यथेति मोहः, तस्य मोलीण- जनपदविशेषः। भग०६८० गुणाः तदुपकारिणः शब्दादयः। उत्त० २२६। मोल्ल- मूल्यम्। आव० ११६| मोहजाल- मिथ्यात्वादि। आव० ७८८1 मोस- मोषः-स्तेयः। उत्त०६३३ मषा-सत्याया विपरीत- | मोहट्ठाण- मोहस्थानानिरूपा क्रोधाश्रितादिभेदा मृषा। आव०१६। मृषावादम्।। वारिमध्योवमग्नत्रसप्रमाणमारणादीनि त्रिंशत। उत्त. स्था०१३९। मृष-मृषावादम्। प्रश्न०४। ६१७ मोसलि- मोसलिः-ग्रामविशेषः। आव० २१९। मोशली- | मोहण- मैथुनसेवा। जम्बू०४५। जीवा० २००। प्रत्युपेक्षणक्रियाविशेषः। ओघ० १०८ तिर्यगूर्ध्वमधो वा | मोहणगिह- मोहनगृहम्। जीवा० ३६९। घट्टना। उत्त०५४१। उड्ढमहो तिरियं वा कुड्डादिसु मोहणघर- मोहनगृहं-सुरतगृहम्। जम्बू. १०६। सम्मोआमसंतं पडिलेहेति मोसलो। निशी. १८१ आ। होत्पादकं गृहं रतिगृहं वा। ज्ञाता० १२६। मोसली- प्रत्युपेक्षमाणवस्त्रभोगेन तिर्यगूर्ध्वमधो वा | मोहणघरगा- मोहनगृहकं-मैथुनसेववासभवनानि घट्टनरूपा। स्था० ३६१। तत्प्रधानानि गृहकाणि। जम्ब०४५। जीवा० २००९ मोसा- मृषा विराधिनीत्वात् भाषाविशेषः। प्रज्ञा० २४८। मोहणसील- मोहनशीलः-निध्वनप्रियः। ज्ञाता०६३ मृषा-अर्थानभिधायिनी अवक्तव्येत्यर्थः। भग. ५०० मोहणिज्ज- मोहनीयं-त्रिंशत्संख्याकं मोहनीयस्थानं महामोसाणुबंधि- मृषा-असत्यं तदनबध्नाति पिशुनाऽतिसं मोहबन्धनहेतुः। मोहनीयं-मिथ्यात्वमोहनीयम्। भग. सद्भू-तादिभिर्वचनभेदैस्तत् मृषानुबन्धिः । स्था० १८९। ६५३। मोहणयं-येनात्मा मुह्यति तच्च ज्ञानावरणीयं मोसुवएस- मृषोपदेशः-मिथ्योपदेशकरणम्। आव० ८२० मोहनीयं वा। बृह. २३९ । मोहंज्झाणे- क्रोधादिरागादिव्यक्तिहीनः सामान्यो मोहः | मोहणीयं-सामान्येनैकप्रकृत्तिकर्ममोहनीयं मोहश्च, तद् ध्यानम्। आतु। विशेषेण चतुर्थी प्रकृतिः। आव०६६१ मोह-अज्ञानं, कामो वा। प्रश्न० ८५। अज्ञानलक्षणश्च सामान्येनाष्टप्रकारं कर्म, विशेषेण चर्थी प्रकृतिः। मोहः। आव० ४९७। मोहः सम० ५२ गृहकर्तव्यताजनितवैचित्यात्मकः मोहनि- मैथनसेवा करोतिः। जीवा० २०११ हेयोपादेयविवेकाभावात्मको वा। उत्त०१५१। मोहः- | मोहनीयं- येनात्मा मुह्यति तच्च ज्ञानावरणीयं मोहनीयं अभिष्वङ्गः। उत्त०४८५ मोहः-अज्ञानम्। उत्त०६२३ । वा। व्यव० १९५ आ| मोघं-निष्फलं यथा भवति एवं सुव्ययावा मोघो- मोहभावणा- मोहभावना। उत्त०७०७। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [114] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] मोहमहभयपयट्टओ- मोहमहाभयप्रकर्षकः, प्रवर्द्धकः यदृच्छावादी- मतविशेषः। भग० १०५ मोहोमू-ढता महाभयं-अतिभीतिः, तयो प्रकर्षकः- यमति- बध्ननति। व्यव० १९० आ। प्रवर्तको प्रवर्द्धको वा यः स। प्रश्न ५ यथाप्रवृत्तिकरण- इह गम्भीरभवोदधिमध्यविपरिवर्ती। मोहर-मौखरं मौखर्येण पूर्वसंस्तवपश्चात्सस्तवादिना जन्तुर-नाभोगनिवर्तितः गिरिसरिदुपलघोलनाकल्पः बहुभाषितेन यल्लभ्यते तत्। १५४। शिष्योपमा मुखर यथाप्रवृत्तिक-रणः। स्था० ३११ यथैव प्रवृत्तं करणंएव मौखरो-मुखरतया चाटुकरणतो य आत्मानं पुत्रतया परिणामविशेषः। आव०७५ अभ्युपगमयति स मौखर इति भावः। स्था० ५१६। यथार्थ- आहोश्चित् पलाशाभिधानवत्। आव०५१। मोहरिए- मुखं-अतिभाषणातिशयेन वदतीति मुखरः स | यथालन्द- उत्कृष्टलन्दं पंचरात्ररूपमेकस्यां वीथ्यां एव मौखरिको-बहुभाषी, अथवा मुखेनारिमावहतीति चरणशीला यस्मात्ततोऽमी उत्कृष्टलन्दानतिक्रमः। निपा-तनात् मौखरिकः। स्था० ३७३। मौखयं-धाष्टयं बृह० २२९ । प्रायमस-त्यासम्बद्धधप्रलापित्वम्। आव०८३०| यथालघुस्वकं- एकान्तलघुकं-जघन्यं मध्यमं वा। व्यव० मोहरिय-मौखर्य-धार्ट्यं ३०७ आ। प्रायमसत्यासम्बर्धप्रलापित्वम्। उपा०१० मुखरः- यन्त्र-अधिकरणविशेषः। भग० १८२ वाचालः-असम्बद्धप्रलापी। जम्बू. २६४। यन्त्रक-तिलादिनिष्पीडनयन्त्रम्। शस्त्रविशेषः। भग० मोहामोह- अङ्गनाभिष्वङ्गः। आचा. १२८ २१३| मोहियाणि- मोहितानि-निध्वनानि। ज्ञाता० १६५) यन्त्ररूपकपाट- यन्त्रसंयुक्तकपाटम्। पिण्ड० १०६) मोहोद्भवः- कामोद्भवः। ओघ०७१। यमक-विचित्रचित्रकूटपर्वतौ। स्था० ३२७५ मौज-काष्ठपादुकः। सूत्र० ११८ यमदीप- सूत्रकृताङ्गस्य पञ्चदशमध्ययनम्। उत्त. मौद्गलिः- बौद्धविशेषः। आचा० १३५ ६१४ मक्षणं- नवनीतम्। जीवा० १९२ यमलपदं- वर्गद्वयस्य सामयिकी परिभाषा। अन्यो. म्लेच्छा- कर्मभूमिजभेदः। सम० १३५। २०६। अष्टानामष्टानामङ्कस्थानानां सामयिकी संज्ञा। -x-x-x-x अनुयो० १०६| यव- उज्जयिनीनगरे गर्दभपिता। बृह. १९१ अ। य-चः वाच्यान्तरद्योतनार्थः। जम्बू. २४३। यकारो-विक यवधान्य-धान्यविशेषः। ओघ. १६३। प्पदरिसणे। निशी०६२। यवन- देशविशेषः। उत्त० ३३७ यक्षदिन्न- मालापहृतद्वारविवरणे जयन्तपुरे गृहपतिः। यवनालक- कन्याचोलकः। आव०४२ पिण्ड० १०८ यवनिका- वस्त्रम्। उत्त०४२५ यक्षाः- श्वाः। बृह०७४ आ। यवमध्व- प्रकीर्णतपोविशेषः। उत्त०६०१। यक्षोत्तम-यक्षभेदविशेषः। प्रज्ञा० ७० यवसः- आवसिका। बृह. २४७ आ। पौष्टिकाहारः। नन्दी. यज्ञ- प्रतिदिवस स्वस्वेष्टदेवतापूजा। जीवा० २८१। १४७ यतना- जयणाइ-उपयुक्तस्य गगमात्रदृष्टित्वम्। आचा० यवोराजा- अनिलनरेन्द्रसुतः। बृह. १९० आ। ३७२ यशस्वन्तः-किंपुरुषभेदविशेषः। प्रज्ञा०७० यतितव्यं- प्राप्तेषु तदवियोगार्थं यत्नः कार्यः। स्था० ४४१। यशोजीवित- कीर्तिजीवित यथा महावीरस्येति। स्था० ७ यत्कडिल्लं-अयो-लोहं तन्मयम। ओघ. ५० यशोधर- दुर्गायुपयाचिते पिष्टमयकुक्कुटबलिदाता। यदुः- यादवः। उत्त०४९० आचा० २७ यादृका- अभिनवप्रसूतगौ। व्यव० २२५ अ। यशोधरा-स्तोकस्यापि प्रमादजनितवेदनीयादिकर्मणो यदृच्छा- यथेच्छा। आव०८१७ सम० १११। स्था०२६८१ बहतीव्रफलत्वे स्त्रीः। दशवै. ११३। आधाकर्मसम्भवे यदृच्छावादिमत-मतविशेषः। भग० १०५। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [115] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] अन्त-दृष्टान्ते आभीरी। पिण्ड०६४ सम्बन्धिन एकस्याणोरूप-येकोऽणः स्थाप्यते ततो यशोभद्रसूरि- आचार्यविशेषः। पिण्ड० ४४| मिलताश्चत्वारो भवन्ति। प्रज्ञा० १२१ यशोमती- शुद्धाधाकर्मगवेषणायां श्राविका। पिण्ड०७५ | युग्मप्रदेशं घनवृत्तं- द्वात्रिंशत्प्रदेशं द्वात्रिंशत्प्रदेशावगाढं यष्टा- याजकः। उत्त०५२३। च तच्चैवं-पूर्वोक्तद्वादश प्रदेशात्मकस्य याइ-आइ भाषायां अरिः-शत्रुः। ज्ञाता०८६) प्रतरवृतस्योपरि द्वादश, तत उपरिष्टादधश्चान्ये याकिनी- हरिभद्राचार्यस्य धर्ममाता महत्तरा। दशवै. चत्वारश्चत्वारः परमाणवः स्थाप्यन्ते। प्रज्ञा० १२ २८६। युग्मप्रदेश प्रतरचतुरस्र- चतुष्परामाण्वात्मकं याग- यज्ञः। उत्त०३१४| चतुष्प्रदेशावगाढं च तत्र तिर्यग् दविप्रदेशे दव पक्तौ याज्ञवल्क्य-स्मृतिविशेषः। आव०१५८1 स्थाप्यन्ते। प्रज्ञा० १२॥ यातना- प्राणेभ्यो जीवस्यातिपातना। प्रश्न०६। युग्मप्रदेश घनवृत्तं- द्वात्रिंशठादेशं द्वात्रिंशत्प्रदेशावगाढं यात्रा- महिमा। आव० ५२७। यात्रा। स्था० २५१ च तच्चैवं-पूर्वोक्तद्वादश प्रदेशात्मकस्य यात्राभूतकः- यात्रा-देशान्तरगमनं तस्या सहाय इति प्रतरवृत्तस्योपरि द्वादश, तत उपरिष्टादधश्चान्ये भियते यः स। स्था० २०३। चत्त्वारश्चत्वारः परमाणव इति। प्रज्ञा० ११| यापय-निर्वाहय। बृह. २८१ आ। युग्मप्रदेशं घनायतंयापयति- निर्वाहयति। व्यव० १०७ आ। द्वादशपरमाण्वात्मकंद्वादशप्रदेशवगाढं च, तत्र यायित्वस्य- बोधपर्यायत्वात्। स्था० २४१। प्रागुक्तस्य षट् प्रदेशस्य प्रतरायस्योपरि तथैव तावन्तः यावक- लाक्षारसः। अन्त०९। परमाणवः स्थाप्यन्ते। प्रज्ञा० १२१ यावज्जीविकव्रत- मध्यमविदेहतीर्थकरतीर्थेषु भवति इति | युग्मप्रदेश प्रतरचतुरस्र- चतुष्परामाण्वात्मकं तेषूपस्थापनाऽभावाद। स्था० ३२३। चतुष्प्रदेशावगाढं च तत्र तिर्यग् विप्रदेशे द्वे षड्तौ यावत्- परिमाणे, मर्यादायाम्, अवधारणे वा। आव०४५५) स्थापयन्ते प्रज्ञा० १२ यावत्कथा- यावती-यत्परिमाणा कथा-मनुष्योऽयं युग्मप्रदेश-प्रतरत्र्यसं-षट्परमाणनिष्पन्नं देवदत्ता-दिर्वाऽयमिति व्यपदेशलक्षणा। स्था० २३६। षट्प्रदेशावगाढं च, तत्र तिर्यग् षट्परमाणवः यावत्कथिक- आजन्मभावि। दशवै० २६। स्थाप्यन्ते, त आद्यस्याध उपर्यधो भावेनाण्द्वयं यावपंगुणे- उद्घाटयेत्। सूत्र०६५। द्वितीयस्याध एकोऽणुः। प्रज्ञा० ११।। यावयहा- यावदर्थ-अपरिसमाप्तम्। दशवै०१८२। | युग्मप्रदेशं श्रेण्यायतं-द्विपरमाणु द्विप्रदेशावगाढं च, यक्ति-अन्यान्यभक्तिभिस्तथाविधद्रव्ययोजनम। स्था० | तत्र तिर्यग निरन्तरं अणदवयं स्थापत्ये। प्रज्ञा० १२ ४२११ युग्मप्रदेशं प्रतरवृत्तं- द्वादशपरमाण्वात्मकं युग- पञ्चाब्दिकः कालविशेषः। स्था० ७६| दवादशप्रदेशावगाढं च, तत्र निरन्तरं चत्वारः सुषमदुषमादिः। भग० ६३१। कालः। व्यव० ३१७ आ। परमाणवश्चतुर्वाकाशप्रदेशेषु रुचकाकारेण युगन्धर- कूबरम्। जम्बू० २११। व्यवस्थाप्यन्ते, ततस्तत् परिक्षेपे शेषा अष्टौ। प्रज्ञा० युगमत्स्य- मत्स्यविशेषः। प्रश्न. ९। १२ युग्मप्रदेशं घनचतुरसं युग्यम्- यानम्। दशवै. २१८ अष्टपरमाण्वात्मकमष्टप्रदेशावगाढं च तच्चैवं- युग्यकम्- गोल्लविषये जंपानं द्विहस्तप्रमाण चतुरस्रं चतुष्प्रदेशात्मकस्य पूर्वोक्तस्य प्रतरस्योपरि चत्वा- सेवदिक-मपशोभितम्। स्था० २४० रोऽन्ये परमाणवः स्थाप्यन्ते। प्रज्ञा० १२॥ युज्यते- व्यापार्यते। प्रज्ञा० ३१७) युग्मप्रदेशं घनत्र्यसं- चतुष्परमाण्वात्मकं युधिष्ठिरः- पाण्डुराजज्येष्ठपुत्रः। प्रश्न० ८७। चतुःप्रदेशावगाढं च प्रतरत्र्यस्रस्यैव त्रिपदेशात्मकस्य युका- त्रीन्द्रियजीवविशेषः। प्रज्ञा. २३। षट्पदिका। आव. मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [116] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] ५७४। द्वितीयवर्गे तृतीयमध्ययनम्। ज्ञाता० २५१। यूथिका- 'जूई' इति प्रसिद्धा। जीवा. १९१| र-र:-पूरणार्थे निपातः। आव० ५२७। रः-अयं निपातः यूपक-संज्ञाच्छेयावरणो य ज्यओ सक्कदिणतिन्नि। किलशब्दार्थः। दशवै०७९। (सन्ध्याच्छेदावरणश्च यूपकः शूक्ले दिनांस्त्रीन) रइ- रतिः- आनन्दः। भग० ६१८॥ धृतिः। उत्त० ३९८१ अनुयो० १२१। बेटकाख्यं जलमध्यवर्ति तटम्। ब्रह. रतिः-विषयेषु मोहनीयोदयाच्चित्ताभि रतिः। भग० ८० ३४ । रति-दयिताङ्गसङ्गजनिता प्रीतिः। उत्त०४२८१ यूव- यूपः- मेरोरपरस्यां पातालकलशः। जीवा० ३०६। रइकरा- रतिकराःयोग- यागः-देवपूजा। ज्ञाता०४१। नन्दीश्वराभिधानाष्टमद्वीपचक्रवालविदिक्बीजाधानोद्धेदपोषणकरणम्। राज०१०९। स्था० २५ चतुष्टयव्यवस्थिता झल्लरीसंस्थिताः पर्वतविशेषाः। योगनिरोध- एतदभिधानं शक्लध्यानम्। भग० १८४। प्रश्न. ९६ योगराज-आधाकर्मसम्भवे अन्तर्दृष्टान्ते आभीरः। रहत्ताण-रजस्त्राणं-पात्रवेष्टनकम्। बह० २३७ अ। पिण्ड०६४१ रइपसत्त- रतिप्रसक्तः- रमणप्रसक्तः। सूर्य २९४। योगसङ्ग्रहाः- यैर्योगाः-शुभमनोवाक्कायव्यापाराः सम्यग् | | रइमोहणिज्ज- यदुदयात् बाह्याभ्यन्तरेषु वस्तुषु गृह्यन्ते-स्वीक्रियन्ते ते आलोचनानिरपलापादयो प्रमोदमाधत्ते तत् रतिमोहनीयम्। प्रज्ञा० ४६९। द्वात्रिंशत्। उत्त०६१८ रइयं-रचित-औद्देशिकभेदरूपम्। भग०२३१। रचितंयोगड- बलीवर्दः। निशी० ३७ आ। औद्देशिको भेदो-यन्मोदकचूर्णादि पुनर्मोदकतया योत्रिन्यन्ते- वहनाय सज्जीक्रियन्ते। ओघ० ७५ करदध्या-दिकं वा यत्करम्बकादितया विरचितं तत्। योधनी- आधाकर्मस्मभवे अन्तर्दृष्टान्ते वत्सराजस्य औप० १०१। रचितः-स्वयमेव रचनां प्राप्तः। जीवा. स्त्री। पिण्ड०६४१ १६०| रचितः- स्वस्वनामकर्मोदयनिर्वतितः। जीवा. योधाः- शौर्यवद्भ्यो विशिष्टतरः। राज०१११| २७१। रतिदः-स्वकर्मणा निष्पादितः। जीवा० २७२। योनका- धात्रीविशेषः। ज्ञाता०४१। रचितं-न्यस्तम्। ज्ञाता०२५ योवारि-धान्यविशेषः। बृह. १९९ आ। रइयग-रचितकं-काश्यपात्रादि। व्यव. १६४ अ। यौवनिका- युवावस्था। नन्दी. १६१। नन्दी. १६८१ प्रज्ञा० रइया- रचिता-विरचिता रतिदा वा। जीवा. २२६। रचितः ४७५ स्वयमेव रचनां प्राप्तः। प्रज्ञा० ८६) -x-x-x-x रइल- रजोवद्, जलवृद्धिहानिभ्यां पङ्कबहुलम्। जीवा० ३०३, ३७० रंगमि- षष्ठवासुदेवनिदानकारणम्। आव० १६३। रइल्लय- रचितम्। ओघ० १५९। रंग- रङ्गः। आव० ३४४, ३६०, मण्डपः। आव०७०३। रइल्लिय- रजोयुक्तम्। भग० २५४। रङ्गः-रक्तावयवच्छविविचित्ररूपः। दशवै०८६) रइवक्का- रतिवाक्या-रतिकर्तृणि वाक्यानि यस्यां सा रङ्गवत्, रक्तम्। स्था० ४४९। रतिवाक्या चूडा। दशवै० २७० रंगजण- रङ्गजनः-नृत्यप्रेक्षकजनः। आव० ५२८१ रई- पद्मप्रभोः प्रथमा शिष्या। सम० १५२। रतिःरंगण- रङ्गणं-रागायुपरञ्जनम्। औप० ३५। स्था० ४६४। विषयरागः। प्रश्न. १३७। रतिः-रमणं रतिः-संयमविषया रंजण-रजनं-जीवस्वरूपोपरञ्जनकारि रागादिकं वस्तु। धृतिः। उत्त० ८२ प्रश्न. १५७ रउग्घाओ- रज उद्घातः-विश्रसा परिणामतः रंटणिया- रुण्टनकादि-रुदितक्रिया। ज्ञाता० २०२। समन्ताद्रेणपत-नम्। आव०७३५) रंडा- रण्डा-गतधवा स्त्री। ओघ०७२। रण्डा-विधवा स्त्री। रउग्घाय- रजोद्घातः-दिशां रजस्वलत्वम्। भग० १९६) आव०६४० रउस्सला- रजस्वला-रजोयुक्ता। भग० ३०६। रजःरंभा- बलेन्द्रस्याग्रमहिषी। भग. ५०३। धर्मकथायां मनि दीपरत्नसागरजी रचित [117] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] लक्ष्णतरा रेणुपुद्गलः। जीवा० २४५। राजः-लक्ष्णरे- रजकनीलिकोत्थ- द्रव्यक्रोधः। आव० ३६११ णुपुद्गलः। जम्बू० २८९। रजः-कठिनं रजोहरण-निषदयादवयोपेत्तम। बह. १५० आ। स्वेदार्द्रामलरूपम्। पांशु वा। उत्त० १२३। धर्मध्वजः। पिण्ड०४। रएइ- रञ्जयति। ज्ञाता० २०५१ रज्ज- राज्य-प्रभुता। स्था० ३४३। राजादिपदार्थसमुदायः। रएउं- रङ्गयित्वा। ओघ० १४३। भग०६९१। राष्ट्राधिपत्यरूपम्। उत्त०४४१। राज्यम्। रओ- पृथ्वीकाय आरण्यं वायूर्द्धतमागतं रजः। आव०७३३| ज्ञाता० १३१। राणयभोत्ती रज्ज। निशी० ८३ । रक्ख- रक्षः-वैश्रमणस्य पुत्रस्थानीयो देवः। भग० २०० एकनपाज्ञावर्ति मण्डलम्। बृह० ८० अ। यावत् देशेषु रक्खतिया- धनगोपपत्नी। ज्ञाता०११५ एकभूपतेराज्ञा तावद्देशप्रमाणमेतेषु यत्र यस्य। बृह. रक्खस-राक्षसः-त्रिंशत्तम मुहूर्तः सूर्य. १४६। जम्बू० ८० ४९१। राक्षसः-व्यवन्तरः। बृह. २६४ आ। रज्जआ-दोरकोत्ति। निशी. १२१ आ। व्यन्तरभेदविशेषः। प्रज्ञा०६९। रज्जणता- मणसा पीतिगमणं रज्जणता। निशी० ७१। रक्खा-रक्षा जीवरक्षणस्वभावत्त्वात्। रज्जवइ-स्वतन्त्रः। भग० ५४२२ अहिंसायास्त्रयस्त्रिंशत्तमं नाम। प्रश्न. ९९। रज्जसुंक- राज्यप्राप्तव्यम्। ज्ञाता० १३१। रक्खिअज्ज- रक्षितार्यः। उत्त. २९६। रज्जसुक्कः - राज्यशुल्क। आव० ३४४। रखिज्जा- रक्षितार्याः उत्त० १७३। रज्जह-रज्यत-रागं कुत। ज्ञाता० १४८। रक्खिए- रक्षोऽस्यास्तीति रक्षितः रक्षायां नियुक्तो रज्जियव्वं- रक्तव्यं-रागकार्यः। प्रश्न. १५९। रक्षिको । व्यव० १९० अ। रज्जु-दशनालिकानिष्पन्ना। अन्यो० १५४। रज्जूःरक्खियज्ज- पितृप्राव्राजकः, निशी० २९ आ। निशी० १२९ | रज्जुगणि-तम्। सूत्र० २६९। रज्जुः। आव० ५१५) आ। फलकसङ्घातन-दवरिका। ज्ञाता० १५७ अक्खी-सप्तदशमतीर्थकृत्प्रमाशिष्या। सम० १५२| रज्जुगणित- सङ्ख्यया भेदः। स्था० २६३। रक्खोवयग- रक्षोपगतः-रक्षामुपगतः, सततं प्रयुक्त रक्षः।। रज्जुच्छाया- छायाया भेदः। सूर्य ९५१ भग० १९४१ रज्जमती- दोरो। निशी. १२१ आ। रक्तं- गेयरागेण रक्तः-भावितः। अनुयो० १३२ रज्जू- रज्ज्वा यत्सङ्ख्यानं तद्रज्जरभिधीयते। स्था० रक्तचन्दन- चन्दनविशेषः। सम० १३८ ४९६। रज्जुः । आव० २७३। रक्तपटवेष- रक्तवस्तवेषः। नन्दी. १५७ रज्झइ-राध्यते। आव० २०६३ रक्तपट्टलिङ्ग-तव्वणियः। आव०६२८१ रह- राष्ट्र-ग्रामनगरादिसम्दायम्। उत्त० ४४२। रक्तपाच-दीर्घग्रीवो जलचरः। निशी. ५६ आ। रद्वउड-रट्ठमहत्तरो। निशी० २०९ । राष्ट्रकूटःरक्तरत्न- पद्मरागरक्तम्। अन्यो० २५४। राष्ट्रमहत्तरः। बृह. २१२आ। रक्तवती- नदीविशेषः। स्था०७५ प्रपातह्रदविशेषः। स्था० | रहिओ- राष्ट्रिकः। आव. २१९। ७५ रहकूड- राष्ट्रकूटः-मणलोपजीवी राजनियोगिकः। विपा रक्ता- शिखरिणिवर्षधरे पञ्चम कूटम्। स्था०७२। ३९| नदीवि-शेषः। स्था०७५। प्रपातहृदविशेषः। स्था०७५ | रहथेरा- राष्ट्र व्यवस्थाकारिणो बुद्धिमन्त आदेयाः रक्तोदा- शिखरिणिवर्षधरे अष्टमं कूटम्। स्था० ७२ प्रभविष्ण-वस्ते राष्ट्रस्थविराः। स्था० ५१६| रचियग- रचितकं-मोदकचूर्णादिसाध्वाद्यर्थं प्राप्य रद्वधम्म- राष्ट्रधर्मः-देशाचारः। स्था० ५१५ पुनर्मोद-कादितया विरचितम्। प्रश्न.१५४ रद्ववद्धण- राष्ट्रवर्धनः-अज्ञातोदाहरणे रजउग्घात- रजस्वलादि शोयामुसस्सु समन्ततोऽन्धकार | प्रद्योतात्मजपालकल-घुपुत्रः। आव० ६९९। इव दृश्यते तत्र पांशुवृष्टौ रजउग्घातो। व्यव० २४०। | रहिय- राष्ट्रिकः-राष्ट्रचिन्तानियुक्तकः। प्रश्न० ९६| मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [118] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] २०४१ रडइ-रोदिति। आव० ४२० रटति। आव० ४३२। | रतिरुद्ध- अंजलि। निशी० १२०आ। रडिय- रटितं आरट्टीरूपम्। प्रश्न. १६० रतिश्रेष्ठा- किन्नरभेदः। प्रज्ञा० ७०| रण्ण-अरण्यम्। आव०६७१] रतिसेणा- किन्नरेन्द्रस्य तृतीयाऽग्रमहिषीः। स्था० २०४। रण्णतणं- अरण्यतृणं। तृणपञ्चके पञ्चमो भेदः। आव. किन्नरस्याग्रमहिषीः। भग० ५०४१ ६५२ रति- रतिः-इह विषयगता गृह्यते, सा पुनर्ललना अवगूरण्णिगो-आरण्यकः। आव०४४७ हनादिका, तथाभूतोऽप्यवजुगूहिषुः स्त्रीभिरभिधीयते। रत-जीवस्वरूपोपरजनाद्रज इव रजः-कर्म। स्था० आचा० १०६। रतिः-रतिहेतुत्वात्। अहिंसायाः सप्तमं ३१९। मैथुनम्। सम० १६। रजः-पापम्। रतं रतिः रयः- नाम। प्रश्न. ९९। रतिः-कामरागः। प्रश्न. १३८1 रम्यते औत्सुक्यम्। प्रश्न. १५७। स्था० ४०६। आरण्णो वा अस्यामिति रतिः-स्पर्शनादिसम्भोगजनिता उद्धओ आगओ। निशी० ६९ आ। चित्तप्रल्हत्तिः। उत्त० २४३॥ रतणप्पभा- भीमराक्षसेन्द्रस्य चतुर्थी अग्रमहिपी। स्था० | रतंसुअ- रक्तांशुकः मशकदंशादिनिवारणार्थकमशकगृहाभिरतणसंचया- जम्बुद्वीपप्रमाणा चतुर्थी राजधानी। स्था० धानवस्त्रविशेषः। जम्बू० २८५ २३१| रत्तंसुय- रक्तांशुकं-अतिरमणीयं रक्तं वस्त्रम्। जीवा० रतणसंचय- मानुषोत्तरपर्वते अपरोत्तरस्यां २१०। रक्तांशुकं-मशकगृहाभिधानो वस्त्रविशेषः। सूर्य रत्नसंचयकूटम्। स्था० २२३॥ २९३। अतिरमणियं वस्त्रम्। जम्बू०५५ रतणुच्चत- मानुषोत्तरपर्वते दक्षिणापरस्यां दिशि रत्त- रक्तः-संमर्दितः। जम्बू० २१२। अहोरात्राः। उत्त. रत्नोच्चय-कूटम्। स्था० २२३। ५३७। गेयरागानुरक्तेन यत् गीयते तत्। जम्बू. ४०| रतणुच्चता- जम्बूद्वीपप्रमाणा दवितीया राजधानी। लोहितम्। भग०१० रक्तं-तिरोहितम्। सूर्य. २६४। स्था० २३१ रक्तं-गेयरागानुरक्तेन यद्गीयते तत्। जीवा० १९४| रति- रतिः-रतं, निधुवनम्। अब्रह्मण एकोनविंशतितमं रक्तः। भग० १७७। रक्तः-तिरोहितः। सूर्य० २३४। रक्तंनाम। प्रश्न०६६। चित्तरमणम्। ज्ञाता० १६२ रतिः- गेयरागेणान-रक्तः। स्था० ३९६) तदवस्था-ऽसक्तिरूपा। जीवा० १२३। रत्तकंबलसिला- रक्तकम्बलशिला- अभिषेकशिलाया रतिकरगपव्वत- नन्दीश्वरद्वीपे पर्वतः। स्था० २३१। नाम। जम्बू० ३७२। रतिकरपर्वत- नन्दीश्वरदवीपे पर्वतः। ज्ञाता० १२८। रत्तकणवीर-रक्तकणवीरम्। आव०६८१| रतिकरा- रतिकराः-रतिकरणादतिकराः। स्था० २३३| रत्तकणवीरए- रत्तकणवीरः। प्रज्ञा० ३६११ नन्दीश्वरद्वीपे विदिग्व्यवस्थिताः। रत्तगंड- रक्तौ-रजितौ गण्डौ यैस्तानि रक्तगण्डानि। चत्वारश्चतःस्थानकाभिहि-तस्वरूपाः पर्वताः। स्था० ज्ञाता० १५८० ४८० रत्तचंदण- रक्तचन्दनम्। आव० ६८१। रतिकर्म- यदुदयेन सचित्ताचित्तेषु बाह्मद्रव्येषु रत्तच्छ- रक्ताक्षी-अशिवकारिण्या विशेषणम्। ओघ०१७ जीवस्य रतिरुत्पद्यते तत्। स्था० ४६९। रत्तणिक्खेत्त- रजनिक्षेत्रम्। सूर्य. ११, १२ रतिघर- रतिगृह-क्रीडास्थानम्। आव० ५१। रत्तपड- रक्तपटः-परिव्राजकः। ज्ञाता० १९३। रतिप्पभा-किन्नरेन्द्रस्य चतर्थाऽग्रमहिषीः। स्था० २०४। रत्तपडवेस- रक्तपटवेषः। आव. ४२११ नन्दी. १५७ रतिप्रिय- किन्नरभेदः। प्रज्ञा०७० रत्तपडा- पुव्वपच्छसंथुत्तो। निशी. १४७ अ। सक्का। रतियभोती- ठविय पाहुडियं भंजति णिक्खित्तभोती वा निशी० ९८ । ठविण भोति घंटिक्करगपरलगादिस जो य वट्टिय | रत्तपाओ- रक्तपादः-महापुरस्य रक्तशोकोद्याने यक्षः। आणे भंजति सो रतियभोती। निशी. ९१ अ। विपा. ९५ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [119] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] रत्तबंधुजीव- रक्तबन्धुजीवः । प्रज्ञा० ३६१ ॥ रत्तबंधुजीवय रक्तबन्धुजीवकं लोहितबन्धुकम् । अन्तः आगम- सागर - कोषः ( भाग : - ४ ) ९। रत्तरयण- रक्तरत्नं पद्मरागादि । भग० १६३ | प्रश्न० १३४ | रक्तरत्नम् । आव० ५२| रत्तवई- रक्तवती महापुरे बलराजस्य कन्या । विपा० ९५| रक्तवती-महापुरे दत्तराजी विपा० १५५ रक्तावतीनदीविशेषः । जम्बू० ३८१ रत्तवईकूड - रक्तावत्यावर्तनकूटम्। जम्बू० ३८१| रत्तवडोवासग रक्तपटोपासकः । आव० ३०७ रत्तसिला रक्तशिला अभिषेकशिला जम्बू० ३७२ रत्ता- रक्ता-नदीविशेषः । जम्बू० ३८१ । रत्तासोग रक्ताशोकं महापुरनगरे उद्यानम्। विपा० २५ रक्ताशोकः । प्रज्ञा० ३६१ | रत्थामुह रथ्यामुखं रथ्याप्रवेशः आव. १३६ | रत्नकाण्ड षोडशविधरत्नमयं षोडशसहस्रबाहल्यम् । रत्ति - रात्रिः । उत्त० १३६ | रत्तिया- रक्तिका-गुञ्जा। जम्बू० ३४ | रत्तुप्पल रक्तोत्पलवद्भक्तः जाता० ६४। रक्तोत्पलम् । प्रज्ञा० ३६१ | रत्था- रथ्या-राजमार्गः । जम्बू० १८८। रथ्या-वीथिः । ओघ० रम्म- रम्यो विजयः । जम्बू० ३५२| रम्यः। ज्ञाता० ७८\ ९९. १९८१ सेरिका । ६०५ | लान्तकल्पे विमानविशेष: सम. १७ सम० ८८ रत्नपुर- अनिसृष्टद्वारविवरणे माणिभद्रादीनां नगरम् । पिण्ड० १९३३ रत्नशेखर रत्नपुरनगरे राजा सूत्र- ४१३॥ रत्नाकराः- शुद्धाधाकर्मवर्ण्यगवेषणायां सूरयः। पिण्ड ७५ रत्नाधिकम् । आव० २५१श रत्नावलि - तपविशेषः । व्यव० ११३ आ । रत्नावलिःद्वीपः समुद्रोऽपि च। आभरणविशेषः । प्रज्ञा० ३०७ रथमुशल- चेटककोणकयोयुद्धे संग्रामः । व्यव० ४२६ अ रथसंगिणेल्ली - रथमाला । ज्ञाता० ५९ | रथानीक- सप्तानीकेषु तृतीयम्। जीवा० २१७। स्थावर्त्तीपर्वत वज्रस्वामिनः पादपोपगमनस्थानम् । आचा० ४१९| रथ्या आपणवीथिः । जीवा० २४६ ॥ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] रथंतिया रन्धयन्तिका ओदनस्य पाचिका ज्ञाता० ११७ | रन्न - अरण्यतृणम् । स्था० २३४ । राजा, राजनाद् दीपनात् शोभावत्त्वाद् आराध्यत्वाद् वा राजा । स्था० १९८ अरण्यम् । प्रज्ञा० १११ | रन्निग अरण्यकः- अरण्यवासी प्रज्ञा० ११२ | रप्फुक- दुष्टव्रणः । बृह० ७२ आ रप्फुग दुडुव्वणो निशी० ११४आ। रप्फो- तीतो । निशी० ४३ अ रमइ रमते रतिमाबध्नाति । जीवा० २०१ रमए- रमते अभिरतिमान् भवति। उत्त० ६१। रमण भर्ता । ज्ञाता० १६५ भर्त्ता, लावकादिखेड्डम् । आव• ३४६। कुर्कुटादिक्रीडात्मकम् । उत्त० १५१। रमणओ रमणकः । आव० ९३ । रमणिज्ज - लान्तककल्पे विमानविशेषः । सम० १७ । रमणीयो विजयः । जम्बू० ३५२ | रमति रमते धृतिं कुर्वति । आचा० ७८ रमति रतिं कुर्वति। ज्ञाता० २३२\ रमिज्जा-रमेत वर्तेत दश- २४५१ रम्मग- लान्तककल्पे विमानविशेषः । सम० १७| रम्यकूटं रम्यक्क्षेत्राधिपदेवकूटम्। जम्बू. ३८० रम्यको विजयः । जम्बू० ३५२ रम्मगकूड- रम्यक्कूट - रम्यक्क्षेत्राधिपकूटम्। जम्बू ३७७ । रम्मगवासा- रम्यक्वर्षः, अकर्मभूमिविशेषः । प्रज्ञा. ५०% रम्यवास- रम्यक्वर्ष-महाहिमवन्निषधयोरत्नराले वर्षम् । स्था० ६८| रम्यक- नीलवर्षधरपर्वते अष्टमं कूटम् स्था० ७ रुक्मि वर्षधरपर्वते तृतीयं कूटम् । स्था० ७२ ॥ रय रजः बध्यमानकं कर्म आव० ४०६ | रज:- निसर्गनिर्मलजीवानुरञ्जनाद् रजः कर्म आव• ४३८८ रयःवेगः चेष्टाऽनुभवः । फलं वा । आव० ४३९। रजःजीवस्वरूपो परञ्जनात्कर्म ज्ञानावरणादि। प्रश्न. ९८ रज्यते अनेन [120] स्वच्छस्फटिकवच्छुद्धस्वभावोऽप्यात्माऽन्यथात्वमापा दद्यत इति रजः कर्मबध्यमानकं बद्धं च । उत्तः १८५ "आगम- सागर- कोषः " [४] Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] वोत्पाटितं व्योमवति। भग ६६५% राजः वातोत्खातम् प्रश्न० ५९ । रजः- रेणुः । जीवा० २७७ रजः - बध्यमानं बद्धं ईर्यापथं वा कर्म आक• ५०७ | रजः पृथिवीरजः । आव ० १७६। वातोत्खातमाकाशवर्ति रजः सम• ६९। रतःअनुद्वेगवान्। दशवै० ७३ । रजः- आरण्यपांशुः । दशवै० १५२१ रजोहरणम् । ओघ १११ *लक्षणतरा रेणुपुद्गला रजः । राज० १८ धूमागारो आपांडुरो निशी० ७० अ रजः कर्म। उत्तः ३३५ रजः सचित्तपृथिवीकायः । ओघ० २१५१ रज:- बध्यमानं कर्म्म नन्दी० ४१| रतंस्त्र्यादिभिः सह विषयानुभवनम् । उत्तः ४२६ । रयःवेगः । उत्त० ५०८ आव० ६०२ रयःसंक्रमणोद्वर्त्तनापवर्तनादयोग्यम् । व्यव० २५५ा रयउग्धाए विश्वसापरिणामतः समन्ताद्वेणुपतनं रज उद्घातो भण्यते। स्था० ४७६ । राज उद्घातः रजस्वलादिक । जीवा० २८३ | आगम- सागर - कोषः ( भाग : - ४ ) रयणं- रत्नं कर्केतनादि । प्रज्ञा० २७| भग० १६३ | प्रश्न० ३८० रत्नं- इन्द्रनीलादि जीवा० १६४ रत्नम् । सूर्य. २६३ | रत्न- इन्द्रनीलादि, जलसमुद्भवं वा आव० २३०१ रत्नः- रत्नमयः । आव० २३१ | रत्नम् । आव० ४०७ | वज्रवैडूर्यादि। प्रज्ञा॰ ४३। कर्केतनादिरत्नः । ज्ञाता० ३१| रजतः । ज्ञाता०] [34] जलजातं रत्नम् । जम्बू• राम रमन्ते रज्यन्ते ग्राहका येभ्यः सल्लक्षणेभ्यस्तानि रत्नानि। जम्बू॰ १४२| रत्नम्। दशवै० १९३। मानुषोत्तरपर्वते दक्षिणपूर्वस्यां दिशि रत्नकूटम् । स्था० २२३1 रत्नं-मनुष्यजातावुत्कृष्टत्वात् रजनो वा रयणमाला - रत्नमाला - रत्नमाला रत्नशेखरराजस्याऽग्रम-हिषीः । सूत्र० ४१३| रयणवई- रत्नवती-यक्षहरिलस्य तृतीया सुताब्रह्मदत्तराज्ञी । उत्त० ३९९ | रयए- रजतकूटं, इदं चान्यत्र रुचकमिति प्रसिद्धम् । जम्बू० रयणवाणियओ - गिरिणगरे रत्नवणिक् । आव०५२ रयणवासा रत्नवर्षः रत्नवर्षणम्। भग० १९९| ३३७| रयग वत्थसोहगो । निशी० ४३ आ रयणविचित्त- रत्नविचित्रं रत्नखचितम्। आव० ५०४, रयगहर- रजकगृहम् । आव० ६९२ ॥ रयगसेणी- रजकश्रेणिः। आव० ६९स रञ्जकः । भग० ४६८ | रत्नम् । आव० ८२६ | रयणकंड - रत्नकाण्डं प्रथमं काण्डं - रत्नानां विशिष्टो भूभागः । जीवा० ८९ | रयणकरंड - रत्नकरण्डकः । जीवा० २३४ | रयणकरंडग- रत्नकरण्डकः । जम्बू. ४१०१ रयणदीव- रत्नद्वीपः - आहारैषणाविवरणे वणिग्दृष्टान्ते द्वीपः । दश० १९ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित रयणद्दीव- द्वीपविशेषः । ज्ञाता० १५७ रयणपंजर- रत्नपञ्जरः रत्नसमुदायः । जम्बू० २९८ रयणपुर रत्नपुरं धर्मनाथजन्मभूमिः । आक १६० रत्नपुरं रत्नशेखरराजधानी सूत्र ४१३३ रयणप्पभा- रत्नानां प्रभा दीप्तिर्यस्यां सा रत्नप्रभाप्रथमा पृथिवी । भग० ६८ । रत्नानां प्रभा - ज्योत्स्ना यस्यां सा रत्नप्रभा । अनुयो० ८९| रत्नप्रभा-रत्नबाहुल्या पृथिवी । जीवा० ८९| रत्नानि प्रभा-स्वरूपं यस्याः सा रत्नप्रभा-रत्नबहुला, रत्नमयी प्रज्ञा० ४३ ॥ भीमराक्षसेन्द्रस्य चतुर्थी अग्रमहिषी। भग० ५०४। रत्नप्रभा - रत्नैर्वा प्रभाति शोभते या सा स्था० ५२५५ । [Type text] ५०५| रयणवुडी- रत्नवृष्टिः भग० १९९| रयणसंचया रत्नसञ्चया उत्तरपश्चिमरतिकरपर्वतस्योत्त रस्यामीशानदेवेन्द्रस्य वसुन्धराया अग्रमहिष्या राजधानी । जीवा० ३६५ | रत्नसञ्चया नगरी । जम्बू० ३५२ रयणसिरी- रतनीनामगाथापतेर्भार्या। ज्ञाता० २५११ रयणा- रत्ना उत्तरपश्चिमरतिकरपर्वतस्य पूर्वस्यामीशान- देवेन्द्रस्य वसुनामिकाया अग्रमहिष्या राजधानी । जीवा० ३६५ | स्था० २३१। रचनानामादिविन्यासलक्षणा आव. ४७२१ निशी० २४ अ रयणा- रत्नानि तत्तज्जातिप्रधानवस्तूनि । जम्बू० १९७ | रयणागर- रत्नाकारः । ज्ञाता० २२८ । रत्नाकारः-रत्नानां खनिः । भग० १९९ | रयणाभ- रत्नानां वैडूर्यादीनामाभानमाभास्वरूपतः प्रतिभा सनमस्यामिति रत्नाभा । उत्त• ६९७ रयणामए रत्नमयः अन्तर्बहिरपि रत्नखचितः । जम्बू [121] "आगम- सागर-कोषः " (४) Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] १६३ | रयणामय- रत्नमयम् । प्रज्ञा० ९५ । रयणालंकार- रत्नालङ्कारं मुकुटम्। जम्बू. २१६६ रयणावलिभद्द- रत्नावलिभद्रः रत्नावलिद्वीपे पूर्वार्द्धाधिपति देवः । जीवा० ३६९ | रयणावलिमहाभद्द- रत्नावलिमहाभद्रः आगम - सागर - कोषः ( भाग : - ४) रत्नावलिद्वीपेऽपरा-र्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६९ | रयणावलिमहावर- रत्नावलिमहावरः- रत्नावलिसमुद्रेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६९ | रयणावलिवर- रत्नावलिवरः-द्वीपविशेषः, समुद्रविशेषश्च जीवा० ३६८१ रत्नावलिवरःरत्नावलिसमुद्रे पूर्वाद्वाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६९१ रत्नावलिवरः- रत्नावलिवरे समुद्रे पूर्वार्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६९| रयणावलिवरभद्द रत्नावलिवरभद्र - रत्नावलिवरे दवीपे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६९ | रयणालिवरमहाभद्द- रत्नावलिवरमहाभद्रः- रत्नावलिवरे द्वीपेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा ३६९१ रयणावलिवरमहावर रत्नावलिवरमहावरः - रत्नावलिवरे समुद्रेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा• ३६९॥ रयणावलिवरावभासभद्द- रत्नावलिवरावभासभद्रःरत्नाव-लिवरावभासे द्वीपे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः। जीवा० ३६९| रयणावलिवरावभासमहाभद्द- रत्नावलिवरावभासमहाभद्रः- रत्नावलिवरावभासदीपेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा ३६९। रत्नावलिवरावभासे समुदे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६९ ॥ रयणावलिवरावभासवर रत्नावलिवरावभासे समुद्रे पूर्वार्द्धा-धिपतिर्देवः । जीवा० ३६९ | रयणावली- रयणेहिं रयणावली नि० २५४१ निशी. ३०६ । रत्नावली - आभरणविशेषः। तपो विशेषः । अन्तः २५ | रत्नमयी । भग० ४७७ । रत्नावलिः- द्वीपवि-शषः, समुद्रविशेषश्च । जीवा० ३६८। रत्नावली-आभरणविशेषः, रत्नावलीव रत्नावली, यथा हि रत्नावली उभयत आदिसूक्ष्मस्थूलस्थूलतरविभागकाहलिकाख्यसौवर्णाव यवद्वययुक्ताभवति, पुनर्मध्यदेशे मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] " स्थूलविशिष्टमण्यलङ्कृता च भवति एवं यत्तपः पट्टादावुपदर्श्यमानमिममाकारं धारयति तद् रत्नावलीत्युच्यते । अन्तः २५ रयणावलीवरावभास- रत्नावलिवरावभासः - द्वीपविशेषः समुद्रविशेषश्च जीवा० ३६८ १ रयणाहिय- रत्नाधिकः-प्रव्रज्यापर्यायाधिकः, श्रुताधिकः समवया वा। सूत्र० २४४ | रयणि रत्नि:-हस्तः । भग० ३०९ रत्निः द्विवितस्तिप्रमाणा, हस्तः । जीवा० ४०| रयणिखेत्त- रजन्या एव । सम० ८६ | रयणी देवे वितस्ती रत्नि:-हस्तः अनुयो० 91 हस्तः । स्था० ३६, २०४, २८६ । प्रज्ञा० ४८, ४२६ | भग० २७५ | स्था० ३९३ | चतुर्विंशत्यङ्गुलप्रमाणः । भग० २७५॥ चमरेन्द्रस्य तृतीयाऽग्रमहिषीः। भग० ५०३ ५०५ चतुर्विंशतिरङ्गुलानिरत्निः । नामकोशादौ “बद्धमुष्टिर्हस्तो रत्निः।” जम्बू॰ ९४| धर्मकथायां प्रथमवर्गे तृतीयम-ध्ययनम्। ज्ञाता० २४७। आमलकल्पायां गाथापतिः । ज्ञाता० २५१ | रतनीगाथापतेर्दारिका ज्ञाता० २५१। बद्धमुष्टिको हस्तः रत्निः जम्बू. १६६॥ रजनी- पिण्ड दारुहरिद्रा । उत्तः १४२ रत्निः वितताङ्गुलिर्हस्तः । सम० १३ रयणीपमाणमित्तं- रत्निप्रमाणमात्रं यथा दण्डो हस्तप्रमाणो भवति तथा। ओघ० २१४ | रयणुच्च रत्नानां नानाविधानामुत्-प्राबल्येन चय:उपचयो यत्र स रत्नोच्चयः । सूर्य० ७८ | रयणुच्चओ रत्नोच्चयः मेरुमहीधरः । बृह• २६५ आ रयणुच्चय- त्रयोदशमं स्वप्नम् । ज्ञाता० २०| रयणोच्चय- रत्नानां नानाविधानामुत्-प्राबल्येन चयःउपचयो स रत्नोच्चयः, मेरुनाम जम्बू० ३७५ | रयणोच्चया- रत्नोच्चया- उत्तरपश्चिमरतिकरपर्वतस्य दक्षिण-स्यामीशानदेवेन्द्रस्य वस्तुप्राप्ताया अग्रमहिष्या राजधानी । जीवा० ३६५ | रयणोरुजाल- रत्नोरुजालं-भूषणविधिविशेषः । जीवा० २६९॥ रत्नोरुजालं-रत्नमयं जङ्घायाः प्रलम्बमानं सकलकं सम्भाव्यते । जम्बू. १०६। रयत रजतकाण्डं द्वादशं रजतानां विशिष्टो भूभागः । जीवा० ८९ [122] "आगम- सागर-कोषः " (४) Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] रयत्ताणं-रजस्त्रामण। ओघ. १९९। रजस्त्राणं तिक्तादिरूपम्। प्रज्ञा० ५९९। श्रोतृणामाक्षेपकारी पात्रवेष्टनची-वरम्। प्रश्न. १५६। रजस्त्रामम्। आव. गुणविशेषः। बृह. १९२ आ। इक्षुरसः। निशी० १०७ अ। ६२३। राजस्त्राणं-आच्छादनविशेषः। ज्ञाता०१३ धातुपाणिएण तंबगादि आसित्तं सुवण्णादि भवति सो रजस्त्राणं-आच्छादनविशेषः। जम्बू. २८५ रसो भण्णति। निशी० ८६ आ। रसः लक्षणम्। दशवै. रययकूड- रजतकूट-नन्दनवने पञ्चमं कूटनाम। जम्बू० ४८। रसः-शृङ्गारादिः। प्रश्न. ११७। रसः-मधुरादिकः३६७ भोगो वा। उत्त०४०६। तीमनकाम्जिकादिः। स्था० रययवडिंसए- रजतावतंसकः-अपरस्यामवतंसकः। जीवा० ३८६। विकृतिः। आचा० ३०६। फाणिताद्रसः। दशवै० ८४| ३९११ रसः-निष्यन्दः सारः। दशवै० ११० रयरेणुविणासण- लक्ष्णतरा रेणुपुद्गला रजस्त एव रसकषाय- हरीतक्यादीनां रसः। आव. ३९० स्थूला रेणवः रजांसि च रेणवश्च रजो-रेणवस्तेषां रसगा- रसमनुगच्छन्तीति रसगाःविनाशनं रजो-रेणुविनाशनम्। जीवा० २४५। कटतिक्तकषायादिरसवे-दिनः संज्ञिनः इत्यर्थः। आचा. रयसंसद्हडा- रजःसंसृष्टाहृता-पृथिवीरजः सम्बद्धा नीता २३७ प्राभृतिका। आव० ५७६) रसगारव- रसगौरवं रसेन गौरवंरयसुसंपउत्तं- शृङ्गमयो दारूमयो वंशमयो इष्टरसप्राप्त्यभिमानाप्राप्तिवाऽगुलिकोश-स्तेनाहतायास्तन्त्र्याः स्वरप्रकारो प्रार्थनद्वारेणात्मनोऽशुभभावगौरवम्। आव० ५७९। लयस्तमनुसरद् गेयं लयसुसंप्रयुक्तम्। जीवा. १९५१ | रसहाए-रसार्थं सरसमिदमहमास्वादयामीति धातुविशेषो रयहरणं- रजोहरणम्। आव० ३१९, ७९३। रजोहरणं- वा रसः, स चाशेषधातूपलक्षणं ततस्तदुपचयः धर्मध्वजः। पिण्ड० १३। ज्ञाता०५३ स्यादित्येतद-र्थम्। उत्त०६६७। रयहरणचाय- रजोहरणवर्जः, रजोहरणग्रहणम्। व्यव० रस(सर)देवी- चतुर्थवर्गे नवममध्ययनम्। निर० ३७। २७आ। रसना- जिह्वा। जीवा० २७३। रयहरणपडिग्गहमत्ता- रजोहरणप्रतिग्रहमात्रा। आव. रसनिज्जूढ- रसनियूढं-कदशनम्। दशवै० २३१| ३५६। रसनिज्जूहणया- घृतादिरसपरित्यागः। स्था० २३३॥ रयिप्पिया- धर्मकथायां पञ्चमवर्गेऽध्ययनम्। ज्ञाता० रसपरिच्चाओ- रसत्यागः। भग० ९२११ २५२२ रसमाणप्पमाणे- रसमानप्रमाणंरयुग्घात- महास्कन्धावारगमनसमुद्धता इव सेतिकादेश्चतुर्भागाधिकमभ्य-न्तरशिखाय्क्तं विश्रसापरिणामतो समंता रेणुपतनं। निशी० ७० अ। यद्रसमानं क्रियते तत्। अन्यो० १५२ रयुग्घाय- रजउद्घातः-रजस्वला दिशः। अन्यो० १२१।। | रसमान- कर्षादि। स्था० १९८१ चतुःषष्टिकादि। जम्बू रयोहरण- रजोहरणम्। प्रश्न० १५६) રરના रल्लग-रल्लकः-कम्बलविशेषः। जम्बू. १०७ रसमुच्छिए- तत्पिशितास्वादस्तत्र मूर्च्छितो-गृद्धो रसरल्ला-दधिजन्तुविशेषः। आव०६२४। मूर्छितः। उत्त०४३८1 रवइ- रवते-शब्दं करोति। जीवा० २४८१ रसमेह- रसजनको मेघो रसमेघः। जम्बू. १७४। रविगत- जत्थ सूरो द्वितो तं रविगतं। निशी. ९९ अ। रसया- रसाज्जाता रसजाः-तक्रारनालदधितीमनादिष रवित- रुतम्। ज्ञाता० १६० पायुकृम्याकृतयोऽति सूक्ष्मा जीवाः। दशवै० १४१। रस- रस्यते-आस्वादयत इति रसः। प्रज्ञा० ४७३। रसवती- शालनकादि। व्यव० ८१ अ। अत्यन्तासक्तिरूपः। उत्त० २९६। रस्यते रसवाणिज्ज-रसवाणिज्यं- रसव्यापारः। आव०८२९ अन्तरात्मनाs-नुभूयत इति रसः। अनुयो० १३५। रसं- | रसहरणी- रसो ह्रियते-आदीयते यया सा रसहरणी-नाभिरसग्राहकं रसनेन्द्रि-यम्। रस्यते-आस्वादयतेऽनेन नालम्। भग०८ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [123] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] रसाः पृथगेव शृङ्गारादयो वा । उत्त० २९६ । रसातण- रसः- अमृतरसस्तस्यायनं प्राप्तिः रसायनम् । आगम - सागर - कोषः ( भाग : - ४) स्था० ४२७ | रसायण रस- अमृतरसस्तस्यायनं प्राप्तिः रसायनम् । आयुर्वेदस्य सप्तमाङ्गम् । विपा० ७५ सालू- मज्जिका । प्रन० १६३ | रसालूः - मज्जिका । भग० ३२६| रसालू: मर्जिका सूर्य० २९३ | रसावण- मज्जावणो । निशी० १५४ आ । मद्यापणम् । बृह० १८६ अ । रसिए- रसिक:स्निग्धमधुरः । बृह २१७ अ रसणी- रसिनी-सौवीरिणी । बृह० २७३ आ रसितं रसिकं माधुर्याद्युपेतम् स्था० ३७५1 रसियं रसितं शूकरादिशब्दितमिव करुणोत्पादकम् । प्रश्न. १६०। रसितं रसयुक्तं दडिमामादि। आव ७२६ । रसेसि रसैसी पानार्थी। आचा० ३१४| रसोदए- पुष्करवरसमुद्रादिषु रसोदकम् । प्रज्ञा० २८१ रस्सी - रश्मिः प्रग्रहः । उत्त० ५०७ । रस्सीमंडल रश्मिमंडल: सूर्यः । आव. १९२१ रह- क्रीडारथादयः । जम्बू० ३०| रणरथः । जम्बू० ३७ विजनम् । स्था० ४६६। रथः प्रश्न. ८ रथः - रथाङ्गः चक्रम् । प्रज्ञा० ६०० | यानरथः सङ्ग्रामरथश्च । अनुयो० १५९| रथः क्रीडारथः सङ्ग्रामरथश्च जीवा. १८९। रथःद्विप्रकारैः यानरथसङ्ग्रामरथभेदभिन्नः । जीवा० २८१ रथः शकटः । बृह० ७४ आ । भग० २३७ | रहघणघणाइय- रथघणघणायितम् । जीवा० २४७ | रहछाया- रथच्छाया । प्रज्ञा० ३२७ | रहट्ठाण रहः स्थानं गुह्यापवरकमन्त्रगृहादि । दशवै० १६६ | हरणेमी रथनेमिः । दशकै ९६| रहनेउर- रथनूपुरं विद्याधरनगरविशेषः । आव० १४४ रहनेउरचक्कवालपामोक्खा - रथनूपुरचक्रवालप्रमुखाःविद्याधरनगरविशेषाः । जम्बू० ७४ । रहनेमीज्जं- उत्तराध्ययने द्वाविंशतितममध्ययनम् । सम० ६४ | रहनेमियं- उत्तराध्ययनेषु द्वाविंशतितममध्ययनम्। उत्त० ९| रहनेमी रथनेमि: समुद्रविजयस्य द्वितीयः सुतः। उत्तः ४९६| मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] रहपहकर रथनिकरः । औप० ४। रहमुसल- रथमुशलः- सङ्ग्रामविशेषः । भग० ३१७ | रथमुशलः यत्र रथो मुशलेन युक्तः परिधावन् महाजनक्षयं कृतवान् असौ रथमुशलः सङ्ग्रामः । भग० ३२ रथमु-शलम् आव• ८१२| रथमुशल:सङ्ग्रामविशेषः। आव॰ ६८४ । रथमुशलम् । निरया ० १८ | रहरेणू- रथगमनोत्खात रथरेणुः स्था० ४३५ रथरेणु:रथगमनोत्खात रेणुः। अनुयो० १६३ । रथगमनात् रेणु रथरेणुः। जम्बू॰ ९४। रथगमनोत्खात रेणु रथरेणुः । भग० २७५| रहवीरपुर- रथवीरपुरं-बोटिकोत्पत्तिस्थानम् । आव० ३१२ रथवीरपुरं यत्र बोटिकानां दृष्टिरुत्पन्ना तन्नगरम्। आव० ३२३ रथवीरपुरं यत्र बोटिकदृष्टिरुत्पन्ना तत् कर्बटविशेषः । उत्त० १७८८ रहसंगेल्ली- रथसगेली- रथसमूहः । ज्ञाता० ५८ भगव ४७४। रथसंगेल्लिः- रथसमुदायः । औप०७२। रथसङ्गेल्ली रथसमुदयः, (देश्योऽयं शब्दः)। जम्बू॰ २६५| रहसाअब्भक्खाण रहः- एकान्तस्तेन हेतुना अभ्याख्यानं रहोऽभ्याख्यानम्। उपा०७ रहसिर- रथशिरः स्थायभागः, काकमुखः । जम्बू० २४९१ रहसुत्तं- रहस्यसूत्रं निशीथादिकम् । बृह० १४५ अ रहस्स- ह्रस्वं- अल्पम्। स्था० ४३ रहस्यं एकान्तम् । सूत्र ११०] ह्रस्वस्वरं लघुशब्दम् । अनुयो० १३२१ स्था० ३९६ ॥ रहस्यं-ऐदम्पर्यम्। भग० ११४। रहस्य एकान्तकृत्यत्वात्। अब्रह्मणस्त्रयोविंशतितमं नाम । प्रश्न० ६६ । एकान्तयोग्यः । भग० ७३९ । ह्रस्वः हस्वर्णाश्रयो विवक्षया लघुर्वा वीणादिशब्दवत्। स्था० ४७१ रहस्य:अषड क्षीणः । राज० ११६। अपवादपदानि बृह० २६५ आ । अववातो। निशी० १०२ आ । रहस्यं - गुप्तत्वम्। ज्ञाता० १९१। रहस्यं-एकान्तयोग्यम् । ज्ञाता० ११| रहस्कड रहः कृतं प्रच्छन्नकृतम्। भग० ११७| रहस्सगुज्झं- सति रहस्से वि गुज्झंगं मृगीपदमित्यर्थः रहस्स अरुहं जं गुज्झं तं रहस्सगुज्झं निशी. २९२ आ। रहरुसङ्काण- गुज्झावरगा जत्थ वा राहस्सियं मंतेति । दशकै ७६ [124] "आगम- सागर-कोषः " (४) Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] १६३ रहस्सब्भक्खाण- रहस्याभ्याख्यानं-एकान्तेऽभ्याख्यानं | राइमई- राजीमतीः-उग्रसेनपुत्री। दशवै० ९६। असदध्यारोपणम्। आव० ८२० राइयं- रात्रिकं-रजनिनिवृत्तम्। प्रतिक्रमणविशेषः। आव० रहस्सिय-रहस्सियकम्। आव. २६७। रहस्सिया- रोहस्यिकी। बृह. ५९ आ। राइल्लऊण-रालालिप्तं-सन्धितं कृत्वा। आव०४२५ रहाणीयं-रहेहिं बलदरिसणा रहाणीय। निशी. ७१ राइस्सिउ-राजाश्रितः। निशी० २५अ। रहावत्त- रथावतः-पर्वतविशेषः। आव. १७६, ३०४। राई-राज्ञः-चक्रवर्त्यादि। स्था० १७२ धान्यविशेषः। रहितं- अग्रपादाभ्यामीक्षणं एकपक्षदृष्टिसंबन्धो वा। ब्रह. निशी. १२० अ। आमलकल्पायां गाथापतिः। ज्ञाता० १४ आ। २५०। रातीगाथापतेर्दारिका। ज्ञाता०२५०। राजानोरहिय-रहितः-परित्यक्तः । उत्त० ४२८। मण्डलिकाः। राज० १२१। राजी। राज० ११२ राअ- राजा-चक्रवर्ती। भग०७००| भरताधिपः। आव० राईण- राजानः-क्षत्रियेभ्योऽन्ये। आचा० ३३४१ १५६। चक्रवर्ती-वसुदेवः-बलदेवः-महामण्डलिकश्च। राईणिया- राजानः-तत्कल्पा ईश्वरादयो वा। सूत्र०७१। अनुयो० २३ राईतिहो- यस्तु पश्चार्द्धभागः स रात्रितिथिः। सूर्य. १४९। राइंदिय-रात्रिन्दिवं- रात्रिदिवसप्रमाणम्। सूर्य०६१। राईसिरी- रातीगाथापतेर्भार्या। ज्ञाता० २५० राइ-धर्मकथायां प्रथमवर्गे दवितीयमध्ययनम्। ज्ञाता० राईहिंतो-राजभ्यः । आव० ३४४ २४७। राजा-महामण्डलिकः। स्था० ४६३। राउल-राजकुलम्। आव० ९९। ओघ०१५२ आव. २७९| राइए- रात्रिशब्दोऽप्यहोरात्रवाची। जम्बू. १५० राउलओ- राजकुलगः। आव०८९) राइणा-राज्ञा। ओघ. १९८1 आव० ३६७) राउलग- राजकीयः। बृह. २७ आ। राइणिओ-रात्निकः-आचार्यः। आव०६३८ रात्निकः- राउला-राजकीया। ओघ० १४० आचार्यः, अन्यो वा यो जातिश्रुतपर्यायादिभिर्महान्। राउलिय- राजकुलिकम्। उत्त० ११९। राजकुलीनः। आव० आव०६५४१ ५५८। राजकुलीयः-राजकुलसम्बन्धो। दशवै०४५। राइणियपरिभासिय-रानिकपरिभाषी-यो राओ- सन्ध्या विकालवियुता रात्रिर्वा। बृह. ९२आ। रात्निकस्यआचार्यस्य संज्झा। निशी. १९३अ। जातिश्रुतपर्यायादिभिर्महतोऽन्यस्य वा पराभवकारी। राओवरयं- रात्र्यपरतम्। उत्त०४१४। रागः-अभिष्वङ्गः पञ्चममसमाधिस्थानम्। आव०६५३ उपरतः निवृत्तो यस्मिंस्तत्रागोपरतम्। उत्त०४१४| राइणिया- पुव्वदिक्या सब्भा उवदेसगा वा, जे वा अन्ने रात्रोपरात्रम्-अहर्निशम्। आचा० ३१३। पूया। दशवै. १२४। आव०७९३॥ राक्षसराक्षसाः- राक्षसभेदविशेषः। प्रज्ञा० १७०| राइण्ण-राजन्यः-भगवद्वयस्य वंशजः। भग० ११५ राग-रागः-रञ्जकरसः। स्था० २१९। रक्ताता। जीवा. यस्तेनैव वयस्यतया व्यवस्थापितस्तदवंशजश्च १७३। रूपादयाक्षेपजनितः प्रीतिविशेषः। आव. २७२। राजन्यः। औप० २७ रागः-रागानभूतिरूपत्वादस्य अब्रह्मणो विंशतितमं राइतओ- रागवान्। आव० २०९। नाम। प्रश्न०६६। रागः-पित्रादिष् स्नेहरागः। प्रश्न राइन्ना- आदिदेवेनैव-वयस्यतया व्यवहृताः। भग०४८१। १३७। रागः-स्नेहरागः। प्रश्न. १३८। रागः-रक्तता। कुलार्यभेदविशेषः। प्रज्ञा० ५६। राजन्याः-वयस्यतया प्रज्ञा. ९६। रागः-अभिष्वङ्गलक्षणः। आव० ८४८। व्यवस्थापितः। जम्बू. १४५। राजन्याः-सखिस्थानीयाः। कम्मजणितो जीवभावो रागो। निशी०७अ। आचा० ३२७। ये तु वयस्यतयाऽऽचरितास्ते राजन्याः। अभिष्वङ्गलक्षणः। आव० ५९७) स्था० ३५८। राजन्याः -भगवद्वयस्यवंशजाः। राज० रागज्झज्ञा-इष्टविषयावाप्तौ रागझञ्झा। आचा० १७०| १२१ रागद्दोसतुलग्ग- रागद्वेषयोस्तुलाग्रमिव राइभत्ते- रात्रिभक्तः-रात्रिभोजनम्। दशवै०११६) तदनभिभाव्यत्वेन राग-दवेषतुलाग्रम्। उत्त० ११५ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [125] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम- सागर - कोषः ( भाग : - ४ ) [Type text] रागद्दोसभयाईयो- रागश्च प्रतिबन्धात्मको द्वेषश्च अप्रीतिरूपो मयं च इहलोकभयादि रागद्वेषभयानि तान्यतीतो निष्क्रान्तः रगद्वेषभयातीती रागादिरहितः । उत्तः पराण रागभावितमूर्ति- अभिष्वङ्‌गलक्षणरागरक्तः । आव ० ५८५ | रागरत्त- अभिष्वङ्गलक्षणो रागस्तेन रक्तःतद्भावितमूर्तिः रागरक्तः । आव०५८५ राजगिह- राजगृहं-जरासंधराजधानी। प्रश्र्न० ७५| राजगृह- नगरविशेषः । भग० ५ प्रसेनजनितराजधानी । नन्दी० १५१। महावीरविहारभूमिः । बृह० १६६ । राजचम्पक- वरचम्पकः । जम्बू० १८३। राजनियुक्त राजाज्ञापालकः । नन्दी० १५१| राजभाग- राजाभाव्यद्रव्यापह्नवः । प्रश्न० ५८ । राजयक्ष्म- रोगविशेषः । स्था० ४४७ । राजवर्णवान्- राजभटः । विपा० ६३ । राजहंसी महौषधीविशेषः। जम्बू. ४११ राजा- राजा आव० १७२॥ राजावग्रहः- अवग्रहस्य द्वितीयो भेदः । आचा० १३४ | भरताधिपावग्रहः आव० १५६| राजि भृगुः। ओघ० १३७ राडी- राटिः कलहः । भग० ८०] राटी-कलहः । उत्तः १००१ राढा अवज्ञा व्यव० २७८ आ विभूषा दशकै० २०६ | राढमणी- काचमणिः । उत्त० ४७८ । राण- दानः । भग० ७७६ | रातिंदिवग्ग- रात्रिन्दिवाग्रं- रात्रिन्दिवपरिमाणम् । सूर्य. ११ | रातिणि उपरिभाषी रात्निकपरिभाषी- आचार्यादिपूज्यपुरुषपराभवकारी, पञ्चममसमाधिस्थानम्। सम० ३७॥ रातिणिय- रत्नैः - ज्ञानादिभिर्व्यवहरतीति रात्नि: बृहत्पर्यायो ज्येष्ठो वा । स्था० ३०१ | राती - राजिः- रेखा । स्था० २३५ | ईशानेन्द्रस्य द्वितीयाऽग्रमहिषी स्था० २०४ राजिः पद्धतिः । प्रश्न० ८३ | संझा | निशी० २६५ आ । रात्री - रज्जत इति रात्री, सच रागस्वभाव्या उभयोरपि विद्यते। निशी० १४० अ । रात्रीओजनम् - तृतीयः शबलः । प्रश्न. १४४१ राम राम नवमबलदेवः आव. १५९॥ रामः वसुदेव मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] ज्येष्ठसुतः। उत्त॰ ४८९ । रामः तापसीपुत्रः परशुरामः । आव० ३९२ ॥ ज्ञाता० २५३ । रामः । नन्दी० २१८ | रामकहा अन्तकृद्दशानामष्टमवर्गस्याऽष्टममध्ययनम् । अन्तः २५, ३०| प्रथमवर्गेऽष्टममध्यनम्। निर० ३ रामगुत्त- रामगुप्तः- राजर्षिः, योऽशनादिकं भुञ्जान एव सिद्धि प्राप्तः । सूत्र० ९५| रामदेव अयोध्याधिपतिदशरथराजपुत्रः पद्मापरनाम । प्रश्न० ८७| रामपुत्त- अनुत्तरोपपातिकदशानां तृतीयवर्गस्य पञ्चममध्यय-नम्। अनुत्त०२ रामरक्खिया- धर्मकथायां दशमवर्गेऽध्ययनम् । ज्ञाता २५३। ईशानदेवेन्द्रस्य चतुर्थाऽग्रमहिषी। भग० ५०५| रामरक्खियात- जम्बूद्वीपप्रमाणा राजधानी । स्था० २३१| रामरक्षिता- ईशानदेवेन्द्रस्य चतुर्थ्याऽग्रमहिषी । जीवा० ३६५| रामा-धर्मकथायां दशमवेर्गेऽध्ययनम् । ज्ञाता० २५३ | ईशानदेवेन्द्रस्य तृतीयाऽग्रमहिषी । जीवा० ३६५ | भग० ५०० सुविधिनाथमाता सम० १५१। आव० १६० जम्बुद्वीपप्रमाणा राजधानी स्था० २३१। रायसी - राजांसो राजयक्ष्मा सोऽस्यातीति राजांसी, क्षयी। आचा० २३३| राय- रागः-विषयाभिष्वङ्गः । दशवै० ८६ । रायकरंडग- राजकरण्डकः अमूल्यरत्नादिभाजनत्वात्सारतम इति । स्था० २७२॥ रायकरण- न्यायालयम् । निशी० १०१ अ । रायकहा- राज्ञः नृपस्य कथा राजकथा। स्था० २०९ | राजः सम्बन्धी कथा राजकथा। आव० ५८१। राज्ञःअमुकशोभन इत्यादिका । दशकै १९४१ रायकेर- राजकीयः । ओघ० ९७ । रायगिह- राजगृह- जितशत्रुनगरम्। आचा० ७५% राजगृहश्रेणिकराजधानी। सूत्र० ४०७ । आव० ९५, १९९| राजगृहंभगवत्यां द्वितीयशतके पञ्चमोद्देशकेऽघहदप्रश्ने नगरम्। भग० १४१। राजगृहं विकुर्वणाऽधिकारे नगरम्। भग० १९३ | राजगृहं श्रेणिकराजधानी अनुत्त० ७.८ १८, २३ भग. ३७९, ५०२१ राजगृहं नगरविशेषः । अन्तः २३१ राजगृह-मगधजनपदे आर्यक्षेत्रविशेषः । [126] *आगम - सागर- कोष" (४) Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] प्रज्ञा०४४। राजगृह-नगरविशेषः। भग० १०९। राजगह- २१ राजगह-नगरविशेषः। आव० ३१४ राजगह-यत्र स्कन्द-कचरित्रेनगरम्। भग० ११२, १२६। राजगृहं- मौर्यवंशप्रसूतबलभद्रराजस्यनगरी। आव० ३१५ उत्त. नगरम्। भग० १३९। राजगृह-ईशानेन्द्रस्य १६२ राजगृह-नगरम्। आव० ३५२, ३६७। वैक्रियरूपकरणतेजोले-श्यासाम्र्योपदर्शने नगरम्। धनसार्थवाहवास्तव्यं स्थानम्। आव० ३७०। रायगृहंभग० १५ राजगृहं-असुरक्-माराणां समवसण-स्थानम्। ज्ञात०११३। राजगृहं-। उत्त० २८८, गतिशक्तिप्ररूपणायां नगरम्। भग० १६९। राजगृहं- ३७९, ३८०| राजगृह-भावोपायोदाहरणे नगरम्। दशवै. चमरोत्पातक्रियानिरूपणे नगरम्। भग० १८१। राजगृहं- ४११ राजगृह-मायापिण्डदृष्टान्ते नगरम्। पिण्ड० १३३, योनिसङ्ग्रहवक्तव्यतायां नगरम्। भग० ३०३। राजगृह- १३७। राजगृह-नगरम्। महावीरसमवसरणस्थानम्। आयुष्कादिनिरूपणे नगरम्। भग० ३०४। राजगृहं- भग० १३४। राजगृहं-क्षत्रीयनगरम्। प्रज्ञा०५५ नगरं परमत-निरासे नगरम्। भग० ३२३। राजगृहं- इन्द्राणां राजगृहाख्यं यत्र श्रेणिकराजा। निर०१। लोकपा-लिपालनिरूपणे नगरम्। भग० १९४। राजगृहं- श्रेणिकराजधानी। उपा०४८ श्रेणिकराजधानी। ज्ञाता० असुरकुमा-राणां देववक्तव्यतायां नगरम्। भग० २०० १११ द्रौपद्याः स्वयंवरे सप्तमदूत-प्रेश्यस्थानम्। राजगृहं-दिक्षु वात-प्रतिपादने नगरम्। भग० २११। ज्ञाता०२०८। ज्ञाता०२५३| धनसार्थवाह-वास्तव्यं राजगृह-संसारिणः शाश्वतादिस्वरूपनिरूपणे नगरम्। नगरम्। ज्ञाता० २३५। यत्र चतुष्पुत्रको धन्नो श्रेष्ठिः । भग० ८९। राजगृहं श्रेणि-कराजधानी। दशवै० १०२।। व्यव. ३६। यत्र श्रेणिकराजा। व्यव० १९ अ। राजगृहं। दशवै० १० धन्यसा-र्थवाहवास्त-व्या नगरी। सुलसावास्तव्यं नगरम्। व्यव० १८| राजगृह-अपरनाम ज्ञाता०७९। गौतमस्वामिवक्तव्य-तायां नगरम्। क्षितिप्रतिष्ठितं चणकपुरं वृषभपुरं कुशाग्रपुरं च। आव. ज्ञाता०१७०, १७१। यत्र गुणशीलचैत्यम्। श्रेणिकराज- ६७० नगरीविशेषः। निशी. १५ श्रेणि-कराजनगरी। धानी। ज्ञाता० १७८१ नंदमणिकारवास्तव्य-नगरम्। बृह० ३१ अ। वीरसमवसर-णस्थानम्। बृह० ४६। ज्ञाता० १७८। राजगृहं-संवरोदाहरणे नगरम्। आव० रोहिणिधन्यसार्थवाहनगरी। ज्ञाता० ११५१ ७१३। राजगृह- अप्रमादविषये जरासन्धराजधानी। | रायग्गल- अष्टाशीतौ महाग्रहे षडशीतितमः। स्था० आव०७२१। राजगृहं-साधुजुगुप्साविषये नगरम्। आव० | रायणा- राज्ञा। आव० ३४३। उत्त. १४८, ३०२ ८१६। राजगृहं-परलोकफलविषये नगरम्। आव०८६३। रायणिओ- रात्निकः-रत्नाधिकः। बृह. १०० अ। राजगृहं-नगरम्। उत्त० ८९, १०४। राजगृहं-क्षितिप्रति- | रत्नाधिकः-पर्यायज्येष्ठः। ओघ० १५० ष्ठितस्यचतुर्थं नाम। उत्त० १०५। राजगृहं-अर्जुनमाला- | रायणित- रत्नानि भावतो ज्ञानादीनि तैर्व्यवहरति इति कारवास्तव्यं नगरम्। उत्त० ११२ राजगृहम्। उत्त० रात्निकः पर्यायज्येष्ठ इत्यर्थः। स्था० २४२। रात्निकः१५८१ राजगृहम्-अर्थसिद्धदृष्टान्ते नगरम्। आव० ४१३। | रत्नाधिकोऽनुभाषकः। व्यव० १७१ । राजगृहं-पारिणामिकीबुद्धिविषये नगरविशेषः। आव० | रायण्ण- राजन्यः-वयस्यः। आव० १२८। राजन्यः-अय४२८। राज-गृहं-द्रव्यव्युत्सर्गोदाहरणे नगरम्। आव० स्यः। बृह. १५२ । ४८७। राजगृह-शुद्धविषये वस्त्रदृष्टान्ते नगरम्। रायदारिए- राजामात्यमहत्तमादिभवनेषु मच्छद्भिर्यद् श्रेणिकराजधानी। आव० ५६२श राजगृह-संवेगोदाहरणे परिभुज्यते तद् राजद्वारिकाम्। बृह. १०४ अ। नगरम्। आव०७०९। राज-गृह-नगरविशेषः। रायदारिय- रायकुलं पविसंतो जं परिहेति तं रायदारियं। श्रेणिकराजधानी। आव० ९५। राजगृहं निशी. १६२। मनिसुव्रतस्वामिनः प्रथमपारणकस्थानम्। आव. १४६। | रायद्व-रायदविष्टं-राजा दविष्ट इति। आव० ६२६॥ राजगृह-नारायणपुरम्। आव० १६२। राजगृहं-मुनिसुव्रत- | रायधम्म- राजधर्मो-निग्रहानग्रहादिः। जम्बू. १६७। स्वामिजन्मभूमिः। आव० १६३। विश्वनन्दीवास्तव्यं । राजधर्मः-दुष्टेतरनिग्रहपरिपालनादिः। दशवै० २२ नगरम्। आव० १७२। राजगृहं-नगरम्। आव० १९९, २११, | रायन्न- राजन्यः तत्रैव वयस्यः। स्था० ११४॥ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [127] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] रायपसेणी- राजप्रश्नीयम् । भग० १९६ । रायपिंड राजपिण्डः- राजसम्बन्धी पिण्डः। भग- २३१ राय पिंडे - साधुनामकलप्यम्। भग० ४६७। रायपुर राजपुर- अरजिनस्य प्रथमपारणकस्थानम् आव १४६। राजपुरं परलोकफलविषये दामन्नकदृष्टान्ते नगरम् । आव० ८६३ | रायपेसिया - राजप्रेष्याः दण्डपाशिकप्रमृतयः । आचा० ३३४| रायमच्च- राजाऽमात्यः मन्त्री । दशवै० १९१ | रायमास- राजमाषः चपलकः । दशवै० १९३ | राजभाषाःसामान्यतश्चपलः, श्वेतचवलिक वा पिण्ड १६८ पंडरचवलगो । निशी० १४४ आ । रायक्ख- राजवृक्ष:- एकोस्कद्वीपे वृक्षविशेषः । जीवा० १४५ | रायलक्खणसंजु राजेव राजा तस्य लक्षणानि चक्रस्वस्ति काइकुशादीनि त्यागशौचशौर्यादीनि वा तैः संयुतो युक्तो राजलक्षणसंयुतः । उत्त० ४८९। रायललिए- नवमबलदेवस्य पूर्वभवनाम सम० १५३1 राजललितः रामबलदेवपूर्वभवः आव० १६३॥ रायललिओ राजललितः वासुदेवपूर्वभवः आव० ३५८० रायवंसडिया राजवंशे स्थिता राजो मातुलभागिनेयादयः । आचा० ३३४| रायवत्ती- साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः । प्रज्ञा० ३४| आगम - सागर - कोषः ( भाग : - ४) रायवरसासण- आबद्धमुकुटराजः । जम्बू. २००१ रायविडी - राजवेष्टिः- नृपतिहठप्रवर्त्तितकृत्यम् । उत्तः ५५३ | रायवग्गह- राज्ञा सङ्ग्राम उपलक्षणत्वात् सोनापतिग्रामभोगि कमहत्तपुरुषस्त्रीमल्लयुद्धान्यस्वाध्यायिकम् । स्था० ४७७ । रायसंमत- रायवल्लभो निशी. १६अ रायसंमय- राजसंमतः मन्त्र्यादिः । दशवै० १०३ | रायसंसारिया राजान्तरस्थापना गृह. १५५आ। रायसत्याणि सत्यमादियाणि निशी. २७७ अ रायसभा- राजसभा | आव० ३२० | रायसुयसेद्विमच्चासत्थवाहसुया- राजसुत मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] श्रेष्ठ्यमात्यसार्थ- वाहसुताःउत्तरकुरुसौधर्ममहाविदेहाधिपतिमहाबलसुतस्य वयस्याः । आव० ११५ । रायहंस राजहंसः मरालः । उत्त० ६९९| राजहंस लोमपक्षिविशेषः । जीवा ४१ लोमपक्षिविशेषः । प्रज्ञा० ४९ ॥ उत्त० ६९९| रायहाणिरुव- राजधानीरूपम् । भग० १९३ । यहाणी - राजधानी- राजाधिष्ठानं, राज्ञः पीठिकास्थानम्। आचा० २८५ | राजा धीयते विधीयते अभिषिच्यते यस्यां सा राजधानी, जनपदानां मध्ये प्रधाननगरी स्था० ४७९। राजधानी यत्र राजा अभिषिच्यते स्था• ३९४ राजधानी सूत्र ३०९ । यस्यां राजाऽभिषिच्यते राजधानी स्था० ८६ । राजधानी - यत्र राजा स्वयं वसति । भग० ३६ । राजधानी- राजाधिष्ठानं नगरम्। जीवा० ४० राजधानी यत्र स्वयं राजा वसति सा। जीवा० २७९ । राजधानी- राजाधिष्ठानं नगरम् । प्रज्ञा० ४८। जत्थ राया वसइ सा रायहाणि । निशी० ७० आ रायाधिडिया रायहाणी निशी २२९ अ राजाऽनया धीयत इति राजधानी, राज्ञः पीठिकास्थानम् उत्त० ६०५% राया- राजा चक्रवर्त्तिबलदेववासुदेवप्रभृतिः । सूत्र० ५६ । राजा-चक्रवर्त्यादिः। सूत्र॰ ८७। राजा-माण्डलिक्रः। औप० ५८ | भग० ३१८| राजा मण्डलिकः । औप० १४। राजा - चक्रवर्ती। जीवा० १२९| राजाचक्रर्ती बलदेववासुदेवौ महामाण्डलिको वा । जीवा० २८०। राजाअष्टाशितौ महा ग्रहे पञ्चाशीतितमः । जम्बू• ५३पा राजा पृथिवीपतिः । प्रज्ञा० ३३०| राजा उभययोनिशुद्धःमातृपितृपक्षपडि-शुद्धः । व्यव० १६९ आ राजा ०] आव २४३१ मडबिओ निशी. २७० आ राजा चक्रवर्तिमण्डलिकादिः । आव २३८८ राजा बद्धमुकुटः आव• ५१६६ राजा । आव० ४२९| [128] रायाएण- राज्ञा । आव० ३४३ | रायाणो वितिउरायराया समं पव्वाइया निन्यू ४९ आ । चक्रवर्त्तिवासुदेवाः । स्था० १२६॥ रायाण- राज्ञा । आव० ३६० | राज्ञा । आव० ३५०| रायाणि राजानम् । आव० ६७६ । राज्ञा । आव० ८१६ । रायाणि - रत्नाधिकः- चिरदीक्षितादिः । दशवै० २३५ | "आगम- सागर- कोषः " [४] Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] गीतार्थः । ओघ० १७ रायाभिओग राजाभियोगः । आव• ८१el रायाभिसेय- राज्याभिषेक राज्याभिषेक आगम-सागर- कोषः ( भाग : - ४ ) राज्याभिषेकसामग्रीम्। ज्ञाता० ५२॥ रायारक्खियो- सिरोरक्षः। निशी. १९५ रायाराम- राजारामः क्षत्रियपरिव्राजकविशेषः । औप० ९१। रायाराया- राजराजः क्षत्रियपरिव्रजकविशेषः । औप० ९१ । रायहिट्ठिय- राजाधिष्ठितः-स्वयमध्यासितः। ज्ञाता० १८९ | रायाहिणकज्जा- राजाधीनां कार्या यस्य स राजाधीनकार्याः। जाता० १८९ रायाहीण- राजाधीनः राजवशवर्त्तिनः । ज्ञाता० १८९॥ रायी चमरेन्द्रस्य द्वितीयाऽयमहिषी भग० ५०३, ५०५ राल रालकं तृणविशेषः सूत्र० ३०९१ राउल कंगुभेया दशकै १२१ कड्गुलपलालम्। निशी० ६१ अ राग - औषधिविशेषः । प्रज्ञा० ३३ | रालकः- धान्यविशेषः । तृणपञ्चके चतुर्थो भेद आक ६५२२१ रालकः धान्यविशेषः । दशवै० १९३ । रालगः । आव० ८५५| रालकःकड्गविशेषः । स्था० ४०६, २३४१ रालकः कङ्गविशेषः । भग० २७४, ८०२ | रालकः- कविशेषः एव स चायं विशेषः । बृहच्छिराः कगुरल्पशिरा रालकः । जम्बू १२४) अल्पतरशिरा रालकः। निशी. १४४ आ रालियं रालिकं अतिशयेन स्कारप्रभूतवेलामिति यावत् । व्यव० ४८ आ । राव- अशिवप्रादुर्भावः । नन्दी० ६२ ॥ राग - राजा । निशी० १०७ अ । मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] राशिव्यवहारः इति प्रसिद्धः, । स्था० ४९७। बहुल्ले। दशकै ७४ राह- राधः । उत्त० ९९| राहक्खमणा- राधक्षमणा आर्याविशेषः । उत्त० ९९| राहस्सिए राहस्थिकाः पुरुषेण भोगे स्त्रियाः स्तनिताद्याः। बृह॰ ५६अ। राहु भगवत्यां द्वादशशतके षष्ठ उद्देशकः। भगः ५५रा राहुकम्मं राहुकर्म रहुक्रिया । सूर्य • २८८ राहुहत जत्थ रविससीण ग्रहणं आसी तं राहुहतं निशी० ९९ अ राहुहय- राहूहतं-यत्र सूर्यस्य वा ग्रहणम् । व्यव० ६२अ । राहू - अष्टाशीतो महाग्रहे चतुश्चत्वारिंशत्तमः । स्था० ७९ ॥ भगवत्यां द्वादशशते षष्ठोद्देशकः। अग० ५८५ राहूः । जम्बू० ५३५ | सूर्य० २८७ रिखा-रेखा । बृह० ८८अ रिंगणं- अग्रतः किंचिच्चलनं । बृह० ११। रिंछो- अच्छमल्लो | निशी० १२९ अ । रिउगइ ऋजुगतिः गतिभेदः । भग- २८७ रिउजड़- ऋजुजडः शिष्यभेदः । भग०६१। रिउण्हाता ऋतुस्नाता। आव• ३४३॥ रिउपडिसन्तु रितुप्रतिशत्रुः प्रजापतेः पूर्वभवः आक १७४ | रिउव्वेद ऋग्वेदः चतुर्णा वेदानां प्रथमः भगः ११२ ऋग्वेदः । ज्ञाता० १०५ | रिए- रीयेत-अनुष्ठानविषयतया प्राप्नुयात् । उत्त० ५१५ रिक्क भुधा निशी. १८७ अ विभक्तः आव० १११। रिक्कासि त्यक्तवान्। आचा० ३०२ | रिक्ख ऋक्षं नक्षत्रम् आक० १२० १८२ रिक्खा वर्त्मनि अनभिप्रेते तिरश्चीनं रेखाद्वयं पात्यते । ओघ ७७ रिक्थं द्रव्यम् प्रश्न० ५३३ रिगसिका वादित्रविशेष: जीवा. २६६। रिगिसिगिआ रिगिसिगिका घर्ण्यमाणवादित्रविशेषः । रावण - सीतापहारी । राक्षसः । प्रश्न० ८७ । रावणःनारायण वासुदेवशत्रु आव० १५९| रावेंता- रायवन्तः शब्दान् कारयन्तः स्वजल्पिकान्यनुवाद- यन्तः । जम्बू० २६४१ रावेइ- घृतजलाभ्यामार्द्रयति । ज्ञाता० २०६ | राशित्रयस्थापक:- वैराशिकः आव० ३११। राष्ट्र - जनपदैकदेशः । भग० ६९१ । जम्बू. १०१। राष्ट्रपाल- मायापिण्डोदाहरणे नाटकविशेषः। पिण्ड० १३८ रिङ्खी- भार्यादेशकरः अन्यार्थः पुरुषविशेषः । पिण्ड० रासी- राशि:- त्रैराशिकपञ्चराशिकादि स्था० २६३ धान्यादेरुत्करस्तद्विषयं सङ्ख्यानं राशिः स च पाट्यां रिङ्गित- यत्राक्षरेषु घोलनया संचरन् स्वरो रगतीव तत् १३५| [129] *आगम - सागर- कोष" (४) Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] घोल-नाबहुलम्। अनुयो० १३२ परिवारादिका। प्रज्ञा० ६०० रिच्छ- ऋक्षः। जीवा० २८२। रिपुमईन- आन्दपुरस्य राजा। पिण्ड० ३१| रिट्ठ- रिष्टरत्नकाण्डं-षोडश, रिष्टरत्नानां विशिष्टो | रिभित- यत्राक्षरेषु घोलनया संचरन् स्वरो रङ्गतीव भूभागः। जीवा०८९। स्था० १९८, ४०६। रिष्ठः घोलनाब-हलम्। स्था० ३९६| स्वरघोलनावत्तम्। कंसराजसत्को मल्लः। प्रश्न०७४। रिष्ठः ज्ञाता०२५ स्वरघोलनावद् मधुरः। ज्ञाता० १७९| लोकान्तिकदेवस्य जातिविशेषः। आव० १३५ षडिवशतितमो नाट्यविधिः। जीवा० २४७। रिष्ठरत्नः। ज्ञाता० ३१ब्रह्मलोककल्पे रिभिय- चउविहे नट्टे बीओ भेओ। निशी. ९ अष्ठ। विमानप्रस्तरः। ज्ञाता० १५०| रिष्ठः-द्रोणकाकः। उत्त. रिभितः-स्वरघोलनाप्रकारवान्। ज्ञाता०२३ स्वरघोल६५२ अष्टादशसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम० नाप्रकारोपेतम्। ज्ञाता० २१११ यत्र स्वरोऽक्षरेषु-घोलना३५रिष्ठः-रिष्टविमानवासी नवमो लोकान्तिकदेवः। स्वरविशेषेष संचरन् रागेऽतीव प्रतिमासते स भग०२७१। पदसञ्चारो रिभितम्। जीवा० १९५जम्बू० ४० रिभितं रिहग-रिष्ठकः-फलविशेषः। उत्त०६५२ स्वरघोल-नावत्। प्रश्न १५९। रिहपुर- रिष्टपुरं-शीतलजिनस्य प्रथमपारणकस्थानम्। | रिम्भित- षडिवशतितमो नाट्यविशेषः। जम्बू४१७॥ आव०१४६| मृदुपदसञ्चाररूपम्। जम्बू०४१७। रिठ्ठपुरा- अरिष्ठपुरा-राजधानीनाम। जम्बू० ३४७) रिय-रीतं-रीतिः, स्वभावः। भग० २२। रीतं-आचारङ्गस्य रिडवण्ण-रिष्ठा-मदिरा तदवदवर्णो यस्य स रिष्ठावर्णः। द्वादशममध्ययनम्। उत्त०६१६) ज्ञाता० २३० रिश्यजिव- तृतीयं महाकुष्ठम्। प्रश्न० १६१। रिहवसभघाति-रिष्टवृषभघाती रिसओ- ऋषयः-मनुयः। उत्त० ४१३। कंसराजसत्करिष्टाभिधान-प्तदुष्टमहावृषभमारकः। रिसभ- वृषभस्तद्वद् यो वर्तते स ऋषभः। स्था० २९३। प्रश्न०७४। रिसभा- मणिपिठिकानाम। स्था० २३० रिहा- रिष्ठाख्यविमानप्रस्तटवासिनः। ज्ञाता० १५१| रिसह- ऋषभः-मर्कटबन्धोपरिवेष्टनपट्टः। सूर्य० ४। जम्बू० रिष्टा-जम्बूफलकलिका। जीवा० २६५। अरिष्टा, १५। ऋषभः-लोहादिमयपट्टबद्धकाष्ठसम्पुटः। भग० १२॥ राजधानीनाम। जम्बू० ३४७। स्था०८० वृषभस्तद्वद् यो वर्तते सः। स्वरविशेषः। अनुयो० रिट्ठाभ- ब्रह्मलोककल्पे विमानविशेषः। सम०१४ १२७। ऋषभस्तदुपरिवेष्टनपट्टः। राज०५७। ऋषभःरिष्टाभन-वमं लोन्तिकविमानम्। भग. २७१। रिष्टाभा- | वृषभस्तद्वत् यो वर्तते सः, सप्तस्वरे द्वितीयः। रिष्टरत्नव-र्णाभा या शास्त्रान्तरे जम्बूफलकलिकेति अनुयो० १२७ प्रसिद्धा। जम्बू. १०० रिसहनाराय- ऋषभनाराचं-यत् कीलिका रहितं संहननं रिण- ऋणम्। मरण। तत्, द्वितीयं संहननम्। जीवा० १५, ४२१ रित्त- रिक्तं-गुणविशेषः। जीवा० १९४१ रिसिभासिय- ऋषिभाषितं-उत्तराध्ययनादि। दशवै.४। रित्तओ- रिक्तः। आव० ३५७ रीइज्जति- दूविज्जति। निशी. १४६ अ। रित्तय- रिक्तं-तुच्छम्। आव० ६४३। रीइया-रीतिका-पीतला। औप. ९३। रिद्ध- ऋद्धः-भवनैः पौरजनैश्चातीव वृद्धिमुपगतः। सूर्य० । रीढा- यदृच्छिता। यदृच्छा। बृह० ५। | ऋद्धं-पुरभवनादिभिर्वृद्धम्। भग०७। रीणा- खिन्ना। भक्त रिद्धि- ऋद्धिः-परिवारादिका। भग. १३२ ऋद्धिः-ऋद्धिहे- रीतिज्जति-दूइज्जति। निशी० ३३४ आ। तुत्वेन। अहिंसाया विंशतितमं नाम। प्रश्न. ९। ऋद्धिः- रीयंत-रीयमाणंविभूतिः। आव० ५८५ निस्सरन्तमप्रशस्तेभ्योऽसंयमस्थानेभ्यः प्रशस्तेष्वपि रिद्धी- ऋद्धिः-परिवारादिका। प्रश्न० १२०| ऋद्धिः-विमान- | गुणोत्कर्षादुपर्युपरिवर्तमानम्। आचा० २४७। मनि दीपरत्नसागरजी रचित [130] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] रीयमाणः-संयमानुष्ठाने गच्छन्। आचा० २४२। | रुदितयोनिकम्। अन्यो० १३१॥ रीयमाणः- विहरन्। उत्त०४९८ रीयन्ते-गच्छन्ति, रुइयसद्द-रुदितशब्द-मानिनीकृतं रतिकलहादिकं। उत्त. वर्तन्ते। दशवै०७२। ४२५ रीय-रीतं-गमनम्। भग० ३८१, ७५४| रुइल-रुचिः-दीप्तिस्तां लाति-आददाति रुचिलं रीयओ-रीयमाणः-सम्यगनुष्ठानवान्। आचा० २१७। सद्दीप्तिमत्। सूत्र. २७२। आरणकल्पे विमानविशेषः। कुर्वन्। भग०७५४। सम० ३८ रुचिरं-संस्थानविशेषभावतो रमणीयम। रीयते- विजहार। आचा० ३०१। जीवा० २७३। रुचिलः-स्निग्धतया रीयमाण- रीयमाणः-संयमानुष्ठाने पराक्रममाणः सन्। । देदीप्यमानच्छविमानम। जीवा१८७। आचा० २५११ रुई- रुचिः-चेतोऽभिप्रायः। सूत्र. २९० रुचिः-जिनप्रणीरुंचण- रुञ्चनम्-पिजनम्। पिण्ड० १६१] ततत्त्वाभिलाषरूपा। प्रज्ञा० ५८ रुचिः-प्रतिभासः। रुंचती- रुञ्चती-कर्पासं लोठिन्या लोठयती। पिण्ड० १५७१ उत्त०६६। रुचिः-परमश्रद्धानुगतोऽभिप्रायः। राज० १३३ रुचिज्जमाण- लक्ष्णखण्डीक्रियमाणः। जम्बू. ३६) | रुक्-पृथवी। निशी० २२२ अ। रुंजग- रुजकः वृक्षविशेषः। दशवै०१७ रुक्क- वृषभादिब्दकरणम्। अनुयो० २९। रुंटण- रुदनं-रुदितप्रायः। ज्ञाता० २३५ रुक्ख- वृक्षः। आचा० ३८२। वृक्षः-चूतादिः। आचा० ३० रुंद- रुन्दः-विस्तीर्णः। प्रश्न. १६। सम० ११५ औप०६७। वृक्षः-तरुः। भग० २७८। सङ्ख्यातजीवादिवृक्षविषयः। नन्दी०४५। रुद्रं-विस्तीर्णम्। प्रश्न.७५ निर्देशः। भगवत्त्याः अष्टमशतके तृतीय उद्देशकः। भग० ३२८१ विस्तारः। जम्बू०४५६। वृक्षाः-रूक्षा वा सहकारादयः। जम्बू०६५) वृक्षःरुंदा-दीहा। निशी० १२१ आ। विस्तीर्णा घंघलादिः। ब्रह. चिञ्चिणिकादिः। दशवै. १८५। वृक्षः-कदम्बादिः। दशवै. २९० आ। रुन्दा-विस्तीर्णा। उत्त०४५२। २२९। वृक्षः- सहकारादयः। ज्ञाता० ३३, ६५ पृथ्व्यारुंदाइ- दीर्घा दृष्टिर्दिक्षु। भग० ६७९। काशयोर्यथास्थितः, रुं-पृथिवीं खायतीति वा। दशवै०६। रुंदाए- यदयसौ वसतिर्विस्तीर्णा भवति। ओघ०८२ रुक्-पृथवी तं खातीति रुक्खो। निशी. २२२। रुंपण-रोपणं-वपनम्। पिण्ड०६३। रुक्खखेड्ड- वृक्षक्रीडः। आव० १८१। रुंभंत- रुन्धानः-सञ्चरिष्णूनां मार्ग स्खलयन्। प्रश्न. रुक्खगिह- रुक्खोच्चिय गिहागारो रुक्खगिह, रुक्खो वा ५१ घरं कड। निशी. ६९ आ। रुंभणं- रोधणम्। प्रश्न० २४१ रुक्खमह- वृक्षमहः-वृक्षसत्क उत्सवः। जीवा० २८१। रुंभह- रुन्छ। आव० ३६९। ज्ञाता० ३९। आचा० ३२८ रु-त्ति-पुहवी। दशवै० ५ रुक्खमूल- वृक्षमूलं-वृश्च्यत इति वृक्षस्तस्य मूल-अधोभूरुअग- रुचकं-ग्रीवाभरणभेदः। जम्बू०७३। रुचकः-रुचिः। भागः। उत्त० १०९। वृक्षमूलम्। आचा० ३०७ जम्बू० ११११ रुचकः। जम्बू० २०९। रुक्खा- वृक्षाः-प्रतयेकबादरवनस्पतिकायिकः चूतादयः। रुअगकूड- रुचकः प्रज्ञा० ३० भग० ३०६| चक्रवालगिरिविशेषस्तदधिपतिकूटम्।जम्बू. ३०८। रुक्मि-पर्वतविशेषः। स्था०६८ रुचककूट-नन्दनवने षष्ठं कूटनाम। जम्बू० २६७। । रुक्मिवर्षधरेदवितीयकूटम्। स्था० ७२१ रुअगवर- त्रयोदशे रुचकवराख्ये द्वीपे रुक्मिणी- भीष्मराजपुत्री। प्रश्न० ८८1 दृष्टमधिकृत्य कुण्डलाकृतीरुचकः। स्था० १६६| कामक-थायां वासुदेवपत्नी। दशवै० ११० रुअगिंदे- । सम० ३३ आधाकर्मणऽभोज्यतायां उग्रतेजः स्त्री। पिण्ड०७१। रुइ- रुचिः-रुचिः-प्रतिभासः, अभिलाषः। उत्त०६६। आच्छेदयदवारविवरणे जिनदास-पत्नी। पिण्ड० १११ रुइयजोणी- रुदितं योनिः समानरूपतया जातिर्यस्य तद | रुक्मी- पर्वतविशेषः। स्था० ७०| कुण्डिन्यधिपतिभीष्मरा मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [131] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text]] जपुत्रः। प्रश्न० ८८ गहिअं महादेवायतमित्यर्थः। निशी. ९१ आ। रौद्रं-रौद्ररुग्ग- रुग्णः-जीर्णतां गतः। ज्ञाता० १९३। ध्यानम्, उत्सन्नवधादिलक्षणं ध्यानम्। आव० ५८२। रुचक- बहसमभूमिभागे रत्नप्रभाभागे मेरुमध्ये प्रथम मुहर्तनाम। जम्बू. ४९१| पञ्चमः अष्टप्रदेशो रुचकः। स्था० १२७।। परमाधार्मिकः। शक्ति-कुन्तादिषु नारकान् प्रोतयति स कुण्डलवरावभाससमुद्रानन्तरं द्वीपः, तदनन्तरं रौद्रत्वाद् रौद्रः। सम० २८1 रुद्रः-महादेवः। भग० १६४। समुद्रोऽपि। प्रज्ञा० ३०७ दशवै० ८५ त्रयोदशमद्वीपः। रूद्रः-नरके पञ्चमः परमा-धार्मिकः। आव०६५०। रौद्रो ज्ञाता० १२७। द्वीपविशेषः। सम० ३४ निस्तृशत्वात्। ज्ञाता० २३८१ रोदयत्यपरानिति रुद्रःनिषधवर्षधरपर्वते नवमकूटम्। स्था०७२। प्राणिवधादिपरिणत आत्मैव। उत्त० ६०९। हरः। अनुयो. रुचकवर- रुचकसमुद्रानन्तरं द्वीपः तदनन्तरं २५ समुद्रोऽपि। प्रज्ञा० ३०७। दवीपविशेषः। आव० ४७ रुद्दए- रुद्रकः-आर्जवोदाहरणे ग्रन्थिच्छेदकः द्वीपविशेषः। अनुयो० ९०। कौशिकार्यलघु-शिष्यः। आव० ७०४। रुचकवरावभास- रुचकवरसमुद्रानन्तरं द्वीपः, तदनन्तरं रुद्दपुर- रुद्रपुरम्। आव० ३८० समुद्रोऽपि। प्रज्ञा० ३०७ रुद्दमह- रुद्रमहः-रुद्रस्य प्रतिनियतदिवसभावी उत्सवः। रुचकसंस्थित- यदयपि ग्रामः स्वयं न समस्तथापि यदि | जीवा० २८१। आचा० ३२८। ज्ञाता० ३९। रुचकवलयशैलववृत्ताकारव्यवस्थितैर्वृक्षैर्वेष्टितः। | रुद्दसोमा- रुद्रसोमा-आर्यरक्षितमाता। उत्त.९६। रुद्रसोमा बृह. १८३आ। -आर्यरक्षितमाता। आव. ३९६) रुचिंसु- पिष्टन्तः पिंषन्ति पेक्ष्यन्ति वा। आचा० ३४३। रुद्धं-| ज्ञाता०१४६। रुचिय-रुचितं-पिष्टम्। बृह० २०८ आ। रुद्धा-रुज्वादिभिः संयमिताः-चारकादिनिरुद्धाश्च। प्रश्न. रुचे- रुचेस्तु-करणेच्छार्थता। स्था० ३८ए । रुच्चति- रोचते। आव० ८२२। रुद्र- यस्य मायाशल्ये दृष्टान्तः। आव०५७९स्था० २५५) रुज्झइ- रुह्यति-रुध्यते रोहति। आव०७६४| रुधिर- अरिष्ठपुराधिपतिः। प्रश्न० ९०। रुधिरः। प्रज्ञा० रुट्ठ- रुष्टः- उदितक्रोधः। ज्ञाता०६४। रुष्टम्-क्रोधाध्मातं वन्दते क्रोधाध्मातो वा। कृतिकर्मणि अष्टादशमदोषः। | रुधिरबिंदुसंठिए- रुधिरबिन्दुसंस्थितम्। सूर्य. १३०| आव. ५४४। रुष्टः-रोषवान्। विपा०४३। रुष्टः- | रुन्न- अश्रुविमोचनम्। प्रश्न. २०। रुदितं-प्रलपितम्। उदितक्रोधः। भग० ३२२ ज्ञाता० १९०, १९२, २१७ | प्रश्न०६२। रुदितं-अश्रविमोचनयक्तं शब्दितम। प्रश्न. रुडित-उपचारकः। व्यव० ३६१। १६० रुढ- रुढं-स्फूटितबीजम्। दशवै० १५५ रुप्प- रुपम्। आव० ५२६। रुप्यः। प्रज्ञा० २७ रुप्यरुण्टणा-अवज्ञा-अनादरः। पिण्ड०७४। पृथिवीभेदः। आचा० २९ रुती- रुचिस्तु तदुदयसम्पाद्यं तत्त्वानां श्रद्धानम्। स्था० रुप्पकूला- रुप्यकूलानदी, सूरीकूटम्। जम्बू० ३८० १५११ रुप्पगा- छेदनोपकरणं। निशी. ३२५ अ। रुत्त- रुप्तः-कोपोदयाद् विमूढः। भग० ३२२। रुप्तः- रुप्पच्छए- रुप्यच्छदः-रूप्याच्छादनं छत्रम्। जीवा० २१४। क्रोधोदयाद्विमूढः, स्फूरितकोपलिङ्गः। जम्बू. २०२१ रुप्पच्छद-रजतमयाच्छादनं छत्रम्। जम्बू०५९। रुदिय-रुदितं-आराटीमोचनम्। प्रश्न. २० रुप्पवालुगा- रुप्यवालुका-नदीविशेषः। आव० १९५५ रुद्द- रुद्रं-विस्तीर्ण। ओघ. २१३ प्रश्न०६३। सम. १५२२ रुप्पागर-रुप्याकरः-यस्मिन्निरन्तरं महामूषास्वयोदलं रुद्रः-स्वयम्भूवासुदेवपिता। आव० १६३। विद्या- प्रक्षिप्य रुप्यमुत्पाट्यते सः। जीवा० १२३। चक्रवर्ती, अपरनाम सत्यकिः। आव० ३६८। रुद्रः-पञ्च- | रुप्पिणी- रुक्मिणी-कृष्णवासुदेवदेवीमुख्या। अन्त० २। दशसु परमाधार्मिकेषु पञ्चमः। उत्त०६१४। रुद्दघरं, | रुक्मिणी-अन्तकृद्दशानां ५६ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [132] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text ) पञ्चमवर्गस्याऽष्टममध्ययनम् । अन्त० १५| रुक्मिणी । अन्त० १८० कृष्णवासुदेवराशी ज्ञाता० आगम- सागर - कोषः ( भाग : - ४ ) १००| रूप्पी- अष्टाशीती महाग्रहे सप्तविंशतितमः । जम्बू• १३५ स्था० ७१| कुन्थुनाथजिनस्य पूर्वभवनाम सम० १५१। पञ्चमवर्षधरपर्वतः । जम्बू० ३७९ । रुक्मिकूटं, पञ्चमवर्ष-धरपतिकूटम्। जम्बू० ३८०| कुणालाधिपती । ज्ञाता० १२४१ रुक्मी-कुणालजनपदाधिपतिः श्रावस्तीवास्तव्यः । स्था० ४०१ कुणालाधिपती जाता १४०| रूप्पोभास अष्टाशीतौ महाग्रहे अष्टाविंशतितमः । जम्बु० ५३५ | स्था० ७९ । रुप्फए- रुष्कं (रुम्फ) का। रुम्फका । आव० ७६४ | रुब्भंतो- रुध्यमानः । आव० १७५ । कथं रुतं रवः । ज्ञाता० २५ खणं रुतं शब्दकरणम्। दशवै० १४१। रुतं-कर्पासपक्ष्म जीवा० २१० रुतं-कर्पासविकारः । भग० १३४| रुयए- रुचकः-रुचकाभिधानस्त्रयोदशद्वीपान्तर्गतः प्रकारा- कृती रुचकद्वीपविभागकारितया स्थितः । सम ९२॥ रुचकः- मणिविशेषः । जीवा० २३ | रुचकःरत्नविशेषः । प्रजा० २७ रुयकंता- भूतानन्दस्य पञ्चमी अग्रमहिषी । भग० ५०४ रुयग- रुचकः । आचा० १३ | रुचकः- रुचिः । औप० १९ | रुचकः-कुण्डलाकृतीकः पर्वतः । स्था० १६७। रुचकः मणिविशेषः । औप० ४९ रुचकः वर्णः। ऑप. ५४ रुचकः-रुचिः। जीवा० २७१। रुचकः- कुण्डलवरावभास समुद्रपरिक्षेपी द्वीपः । रुचकद्वीपपरिक्षेपी समुद्रश्च । जीवा• ३६८| सूर्य • ७८ रुचकः पृथिवीभेदः आचा० २९| रुचकः- मणिभेदः । उत्त० ६७९| रुचकं कान्तिः । प्रश्न० ८१) रुचकः कृष्णमणिविशेषः आव० १८६। रुयगवर चुचकसमुद्रपरिक्षेपी द्वीपः । रुचकवरद्वीपपरिक्षेपी समुद्रश्च । जीवा० ३६८ | रुचकःरुचकवरे समुद्रे पूर्वा-र्द्धाधिपतिर्देवः। जीवा॰ ३६८। रुचकः- जम्बूद्वीपात्त्रयोदशमरुचकवराभिधानद्वीपान्तर्वर्ती मण्डलाकारपर्वतः । प्रश्न. ९६ रुचकवर:- प्रयोदशमद्वीपवर्ती पर्वतविशेषः । प्रश्न० १३५ | मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] रुयगवरभद्द- रुचकवरभद्र रुचकवरे द्वीपे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६८ रुयगवमहाभद्द रुचकवरमहाभद्रः रुचकवरे द्वीपेऽपरार्द्धाधि पतिर्देवः । जीवा० ३६८१ रुयगवरमहावर रुचकवरमहावर रुचकवरे समुद्रेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६८ | रुयगवरावभास- रुचकवरावभासः-रुचकवरसमुद्रपरिक्षेपीद्वीपः। रुचकवरावभासद्वीपपरिक्षेपी समुद्रश्च । जीवा० ३६८ | रुयगवरावभासभद्द- रुचकवरावभासमद्रः- रुचकवरावभासे द्वीपे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६८ | रुयगवरावभासमहाभद्द- रुचकवरावभासमहाभद्रः रुचकव-रावभासे दवीपेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६८ रुयगवरावभासमहावर- रुचकवरावभासमहावरः रुचकवरावभासे समुद्रेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः जीवा० ३६८० रुयगवरावभासवर रुचकवरावभासवरः- रुचकवरावभासे समुद्रे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः जीवा० ३६८| रुरयगावती- भूतानन्दस्य चतुर्थी अग्रमहिषी । भग. ५०४१ जोणीत रुदितं योनिः जातिः समानरूपतया यस्य तद् रुदितयोनिकम् स्था० ३९३॥ रुयप्पभा भूतानन्दस्य षष्ठी अयमहिषी अग० ५०४ रुरु रुरुः- मृगविशेषः । प्रश्र्न० ७] जम्बू. ४३| भग४ष्टत रुरु-चिलातदेशनिवासी म्लेच्छ प्रश्न. १४ साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः । प्रज्ञा० ३४ रुरुःद्विखुरविशेषः । प्रज्ञा० ४५| आचा० ७३ | रुरुयज्झया रुरुध्वजा। जीवा० २१५ | रुरुरुरु-विखुरश्चतुष्पदो मृगविशेषः । जीवा० ३८॥ कलित- स्लति भूमौ लुठति । प्रश्न. ४९॥ रुवसहगय रुपसहगतं सजीवं भूषणसहितं वा दशकै १४८| रुविज्जमाण श्लक्ष्णखण्डीक्रियमाणः । जीवा० १९२ | रुहिर- रुधिरशब्दो रक्तार्थः । जम्बू० २०६। रुहिरमाक्किण्ण विक्षिप्तरुधिरः अनुयो० १३७ रुहिरवरिस रुधिरवर्षः आव ७३४॥ रहिरोग्गलंत मुद्धाण गलदुधिरमूर्धा | उत्त० १०| रुअग- रुचकः- चक्रवालगिरिविशेषः । जम्बू. ३१०| रूएइ- रुतं-कर्पासपक्ष्प | जम्बू० ३६ । [133] "आगम- सागर-कोषः " (४) Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text]] रूक्ष-स्नहोपदर्शनरहितम्। व्यव० ५६ आ। स्पर्शभेदः।। प्रज्ञा०४७३ रूढ- चिरप्ररुढम्। नन्दी०४६| रूढा- प्रादुर्भूता। दशवै० २१९। रूद्धारो- रूद्धारः-अपवादः। व्यव० ३०३। आ। रूप- शरीरसौन्दर्यम्। ज्ञाता० २११। आकारः। सम० १३९ रूपक- रूप्यम्। नन्दी० १४६। आचा० १६७। रूपकथा- रूपस्य प्रशंसनं द्वेषणं वा स्त्रीकथायास्तृतीयः भेदः। आव. ५८१ रूपकदोष- स्वरूपभूतानामवयवानां व्यत्ययः। अनुयो. ર૬રા. रूपयक्षाः- यक्षभेदः। प्रज्ञा०७० रूपशालिनः- किन्नरभेदविशेषः। प्रज्ञा०७० रूपसप्तैकक- आचाराङ्गद्वितीयश्रुतस्कन्धे पञ्चममध्ययनम्। स्था० ३८७। रूपसहगत- सजीवं भूषणविकलं वा रूपं भूषणसहितं। रूपसहगतम्। स्था० २९१| रूप्पि- भेशकसुतः। ज्ञाता० २०९। रूप्यकूला- नंदीविशेषः। स्था०७४। प्रपातह्रदविशेषः। स्था०७५ रूयंसा- धर्मकथायां चतुर्थवर्गेऽध्ययनम्। ज्ञाता० २५२ स्था० १९८। भूतानन्दस्य दवितीयाऽग्रमहिषी। भग. ५०४१ स्था० १९७५ रूय- रूतं-कर्पासपक्ष्म। सूर्य. २९३। रोगो। निशी० ७७ आ। रूयकता- धर्मकथायां चतुर्थवर्गेऽध्ययनम्। ज्ञाता० २५२। रुयग- रूतादेव्याः सिंहासनम्। ज्ञाता० २५२। रूयगगाहावई- चम्पायां गाथापती। ज्ञाता०२५२ ख्यगसिरी- रूचकगाथापतेर्भार्या। ज्ञाता०२५२| रुयगावती- धर्मकथायां चतुर्थवर्गेऽध्ययनम्। ज्ञाता० २५२। रूचकावती-मध्यरूचकवास्तव्या दिक्कुमारी। आव० १२३॥ रुयप्पभा- धर्मकथायां चतुर्थवर्गेऽध्ययनम्। ज्ञाता० २५२। रुययंसा- रूचकांशा-मध्यरूचकवास्तव्या दिक्कमारी। आव०१२३ रुयया- रूचका-मध्यरूचकवास्तव्या दिक्कुमारी। आव० १२३॥ रूयवडिंसए-रूतादेव्या भवनम। ज्ञता०२५२ रूया- रूचकगाथापतेर्दारिका। ज्ञाता० २५२। धर्मकथायां चतुर्थवर्गे प्रथममध्ययने देवी। ज्ञाता० २५२। भूतानन्दस्य प्रथमाऽग्रमहिषी। भग० ५०४१ स्था० १९८१ रूयाणंदा- रूतादेव्या-राजधानी। ज्ञाता०२५२ रूवंधर- रूप-रजोहरणादिकं-वेषं धारयती रूपधरः। उत्त. ४३६। रूव-रूप-आकृतिः। उत्त० ४४२। रूपं-आकारः। उत्त. ४३६| रूव-रूप-आकृतिः। उत्त० ४४२। रूपं-आकारः। उत्त० ५४२, ४७३। सुसंस्थानता। उत्त०६२६। रूप्यत इति रूपं-वर्णः संस्थानं वा। उत्त०६। रूप्यते-अवलोक्यत इति रूपं आकारश्चाविषयः। स्था० २५। रूपं-स्वाभावः नेपथ्यादि। स्था० १०८। रूपं-मूर्तिवर्णादिमत्त्वम्। स्था. १९६। रूपकः-रूप्यम्। नन्दी. १६५। रूपापेक्षया सत्यं रूपसत्यम्। स्था०४८९। रूदन्ति। पिण्ड० ११० रूतम्। ओघ. १४०। विशे० १०५। रूपं। रूवं णाम जं कट्ठचित्तलेप्पकम्मे वा पुरिसरूवं कयं अहवा जीवविप्पमुक्कपरिस-सरीरं तं। निशी. १ अ। रूपंअनुत्तरसुररूपादनं-तगुणम्। ज्ञाता० ६। बलाविशेषः। द्वासप्ततिकलाषु तृतीया। ज्ञाता० ३८॥ सुविभत्तगोवंगअहीण-पंचेदियत्तणं| निशी. २९० अ। उद्वतनस्नानजंपास्वेदकरणणहदन्तवालसंठावणादियं आभरणवत्थाणि वा णाणादेसियाणि विवि-हाणि। निशी० ८ आ। णिजीवं, भूषणवज्जियं वा। द० ६६। रूपं-भूषणरहितं जीववियुक्तं वा। बृह० ४१ अ। रूपः- रूपं-मूर्तिः । व्यव० १७१ अ। रूपं नाम-स्पर्शरूपादिसम्मूर्च्छनात्मिका मूर्तिः। प्रज्ञा० ८। रूपं नामसंकटविकटादिरूपम्। आचा० २४। रूपं-विहित नेपथ्यं शरीरसुन्दरता वा। भग० १३६। रूपं-अनवबद्धा-स्थीनि कोमलफलरूपम्। आचा० ३९१। रूपं-निर्जीव प्रतिमारूपम्। स्था० २९१। रूपं-मूर्तिवर्णादिमत्त्वम्। स्था० ३३३। रूपं-सुसंस्थानता। उत्त. २६७। रूपंआकारसौन्दर्यम्। उत्त०४९५ रूप्यंलेप्यशिलासवर्णमणिवस्त्रचित्रादिष रूपनिर्माणम्। सम० ८४। रूपंआकृतिः। प्रश्न. ३६। रूपं- आकारः। अनुत्त०४। रूपंरूपकम्। जीवा० १८० रूपं-आकारविशेषः। प्रश्न० ८५ रूपं-आकृतिः। प्रश्न. ११७। रूपं-शरीरसुन्दरता, मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [134] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] सुविहित-साधुनेपथ्यं च। प्रश्न. १२५। रूप-सौन्दर्यवती स्वसहिय- तदेवाभरणसहियं। निशी. ७७ अ। आकतिः। प्रज्ञा० ५५१। रूपं-मतिः । स्था० ३९। रूवहेउ-| स्था० ९० नरयुग्मादि। सूर्य. २६४। रूपं-अङ्ग रूवा- रूप-राजहंसचक्रवाकसारसादीणि, प्रत्यगावयवसन्निवेशविशेषः। सूर्य. २९२। रूपं- गजमहिषमृगयूथा-दीणि वा, जलान्तर्गतं काष्ठकर्मादि। आव० १२८। रूप-अन्यूना-ङ्गता। उत्त. करिमकरादीणि वा। सूत्र० २७२। १४५ आव० ३४१। रूप-आकृतिः । आव० ५६९। रूपं- रूवाणुवाए- अभिगृहीतदेशाद बहिः प्रयोजनभावे रूपमदः-यद् रूपस्य मानम्। आव०६४६। रूप-लेप्य- शब्दमनुच्चारयत एव परेषांसमीपानयनाथ शिलासुवर्णवस्त्रचित्रादिष रूपनिर्माणम्। जम्बू. १३७ । स्वशरीररूपदर्शनं रूपानपातः। आव०८३। रूपानुपातःरूपः-स्वभावः। प्रज्ञा० ३५९, ३७१। रूपं-महा-राष्टिकादि। रूपदर्शनम्। आव० ८३४१ उत्त० ४२४। रूपं-कटाक्षनिरीक्षणादि चित्रादि-गतं वा।। | रूवियं- सुरूपम्। आव०७१५१ उत्त०४२७। रूपं-पिशितादिपुष्टस्य शरीरशोभा-त्मकम्। | रूवियलिंग-रोदनचिह्नम्। मरण | उत्त० ४४०। रूपं-रूपस्पर्शायाश्रया मूर्तिः। उत्त० ६७२ | रुवी- गुच्छाविशेषः। प्रज्ञा० ३२। बाहिरब्भंतरकरणवजितो रूपं-निर्जीवं, प्रतिमारूपम, भूषणविकलं वा रूपम्। सा रूवी, मुडो सुक्किल्लवासधारी कच्छ ण बधति, दशवै० १४८। रूपं-सदाकारसंस्थानम्। जम्बू. २३६।। अबंभ-चारी, अभज्जगो भिक्ख हिंडइ। निशी० ३१ आ। रूवकहा-अन्ध्रीप्रभृतीनामन्यतमाया रूपस्य यत्प्रशंसादि | रूह- रूक्षः-निःस्नेहः। ज्ञाता०१११| सा रूपकहा। स्था० २०९। रूपकथा-रूपसम्बन्धेन स्त्रीणां | रे-लघोरामन्त्रणं साक्षेपवचनः। उत्त० ३५८१ कथा। प्रश्न. १३९। रेक्का - रेखा। आव० ४३ रूवखंधे-रूपस्कन्धः-पृथिवीधात्वादयो रूपादयश्च। सूत्र० रेगा- रेको विविक्तः। व्यव० १५७ आ। २७। रूपस्कन्धः-पृथिवीधात्वादिको रूपादिकश्च। रेचक-भ्रमरिका। जम्बू०४१८१ प्रश्न.३१ रेचिंतं- निष्पन्नम्। जम्बू०४१८१ रूवग-रूप्यकः। उत्त०२७६। आव०४१७ रेणा- कल्पकवंशप्रसूतशकटालस्य सप्तमी पुत्री। आव. रूवगदोस- रूपकदोषः-स्वरूपावयवव्यत्ययः, सूत्रदोष ६९३ विशेषः। आव. २७४। रेणुगा- रेणुका-अनन्तवीर्यभार्या। आव० ३९२। रूवजक्खा- रूपयक्षाः-धर्मपातकाः। व्यव० १६९। | रेणुगुंडिय- रेणुगुण्डितं-रेणुधूरितम्। ओघ० ११० रूपयक्षाः-रूपेण मूर्त्या यक्षा इव रुपयक्षाः मूर्तिर्निमंतो- | रेणुय- रेणुः-भूवर्ती तु रेणुः। सम०६१। धर्मिकनिष्ठा देवाः। व्यव० १७१ अ। रेणुया- साधारणबादरवस्पतिकायविशेषः। प्रज्ञा० १६) रूवतेण- रूपवन्तमपलभ्य स त्वं रूपवानित्यादि भावनया भग० ८०४१ रूपस्तेनः। प्रश्न० १२५। रूपस्तेनः-राजपुत्रादितुल्यरूपः। | रेणु-रेणुः-स्थूला रेणुपुद्गलाः। जीवा० २४५। रेणुः-स्थूलदशवै० १९० तमरजः पुद्गलः। जम्बू० ३८९। रेणुः-रजः। ओघ० २१५। रूववती-धर्मकथायां पञ्चमवर्गेऽध्ययनम्। ज्ञाता० २५२। रेणुः-स्वपतः शरीरे लगति। ओघ० २१७। रेणुः-वालुका। भूतेन्द्रस्य प्रथमाऽग्रमहिषी। भग० ५०४ स्था० २०४। भग० ३०७। जम्बू. १६९। धूलिः। ओघ० २१३। रजः त रूवसंघाट- रूपसङ्घाटः-रूपयुग्मम्। जीवा० १८०| एव स्थूला रेणवः। राज०१८ भग०६६५ रूवसच्च- अतद्गुणस्य तथारूपधारणं रूपसत्यम्, यथा | रेभित-कल्स्वरेण गीतोद्गातृत्वाम्। जम्बू०४१७ प्रपञ्चयतेः प्रव्रजितरूपधारणम्। दशवै० २०८। रेरिज्जमाण- हरिततया देदीप्यमानः। राज०१४५१ रूवसच्चा- रूपसत्त्या-पर्याप्तिकसत्याभाषायाः पञ्चमो रेरिज्यमाणः-देदीप्यमानः। भग० ३००। भेदः। प्रज्ञा० २५६| रेल्लग- रेल्लकः- पूरः। आव० ५८१। रूवसहगय-रूपसहगतम्। प्रज्ञा०४३८। | रेल्लण- प्लावनम्। पिण्ड० १२॥ मनि दीपरत्नसागरजी रचित [135] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] रेवई-बलदेवस्य राज्ञी। निर० ३९। महाशतकगाथाप- रोएति- रोचयति-चिकीर्षाविषयीकरोति। स्था० १७६। तेर्भार्या। उपा०४८ सम० १५४१ रोएमाण-रोचयन-सात्मीभावेनान्भवन्। आव०४। रेवए- उद्यानविशेषः। बृह. ३० अ। द्वारत्यां रोएमि-चिकीर्षामि। भग० १२१। चिकीर्षामि। भग० ४६७। पर्वतविशेषः। निर० ३९ रोचयामि-अभिलाषातिरेकेणासेवनाभिमुखतया। आव. रेवतए- यत्र नन्दनवनोदयानम्। अन्त०१८ ७६१ रोचयामि-करणरूचिविषयीकरोमि रेवतग- रैवतकः-उज्जयन्तः। ज्ञाता० ९९, १०० चिकीर्षामीत्यर्थः। ज्ञाता०४७ रेवतत- रैवतकः-द्वारवत्यां पर्वतविशेषः। अन्त०१। रोग-रोगः-सयोघाती ज्वरशूलादिः। प्रश्न १६। रोगःवारवत्यामुत्तरपश्चिमे पर्वतः। अन्त०१८ ज्वरादिः। प्रश्न. २५ रोगः-व्याधिः। विपा०४०। रोगरेवतय- रैवतकं-द्वारवत्यामुद्यानविशेषः। अन्त०१८ कालमहाव्याधिः। औप. ९६। रोगः-शीघ्रतरघाती रेवताः- गान्धर्वभेदविशेषः। प्रज्ञा० ७० ज्वरादिः। प्रश्न. ११७। रोगः-रूजा, सदयोघातिगदो वा। रेवति- परग्रामदूतीत्वदोषविवरणे सुन्दरदुहिता। पिण्ड प्रश्न. १६२। रोगः। आव० ५८५ रोगः-चिरकालिको १२७ नक्षत्रविशेषः। स्था० ७७ रोगः। आव०७५९। रोगः- कृष्ठादिकः। आचा० ३३०| रेवतिया- रेवतिका-श्रेष्ठिकुले कन्याविशेषः। उत्त. १०८ ज्वरादिः। उत्त० ४५४। आचा० ३६३| कालसहः रेवती- मेण्ट्रकग्रामे गाथापतिपत्नी। भग० ६८५१ कुष्ठादिः। स्था० ११९। कुष्ठादिः। भग०४७१। स्था० रेवतीणक्खत्त- रेवतीनक्षत्रम्। सूर्य० १३० १५०| पीडाकारी। भग०६९० रोगः-कालसही व्याधिः। रेवययं-रैवतकं-उज्जयनन्तम्। उत्त०४९२। भग० १२२। रोगः-सद्योघाती शूलादिः। भग० ३०६) रेहत- शोभमानम्। ज्ञाता० १८१ रोगः-चिरस्थायी कुष्ठादिः। जम्बू० १२५। गलत् रेहा- रेखाः-पादपर्यन्तर्तिनी सीमा। जम्बू. ५१७ कुष्ठादि। उत्त० ३४५। रोगःरोअए- रोचयेत्- विनिश्चयं कुर्यात्। दशवै० १७७। ज्वरातिसारकासश्वासादिः। षोडशम परीषहः। आव. रोअणागिरि- रोचनागिरिः-रोहणागिरिः, हस्तिकूटनाम्। ६५७ जम्ब० ३६० रोगिविहि-रोगविधिः-वैद्यशास्त्रपुस्तकम्। बृह० २९५ रोइअ- रोचयित्वा-प्रियं कृत्वा। दशवै. २६५ आ। रोगविधिः-चिकित्सा। ब्रह. २९५आ। रोइआवसाणं- रोचितावसानं-गेयविशेषः। जम्बू. ४१२। रोगावत्था- रोगप्रकारा। निशी० १२आ। रोइए- चिकीर्षितः। भग० १०१। रोगिणिया- रोगः-आलम्बनतया विद्यते यस्यां सा रोइज्जत-रोच्यमानं-प्रशस्यमानं-दीयमानं वा। आचा. रोगिणी सैव रोगिणिका, सनतकुमारस्येव। स्था० ४७४। रोगिणीता- रोगिणिका। स्था० ४७३। रोइत- रोचितः-चिकीर्षीतः। स्था० ३५६। रोगिया- सञ्जातज्वरकुष्ठादिरोगः।- आशुघातिरोगः। रोइयं-रोचितं-सम्यग्भावितम्। जीवा. १९४| ज्ञाता०१७९| रोइयावसाण- रचितं-यथोचितलक्षणोपेततया भावितं रोचनागिरि- रोहणागिरिः। जम्बू० ३६५। सत्त्या-पितमवसानं यस्य तत् रोचितावसानम्। जीवा० | रोज्झ- पशुविशेषः। उत्त० ४६० विखुरविशेषः। प्रज्ञा० २४७। रोचितावसानं-रोचितं अवसानं यस्य तत् शनैः ४५ शनैः प्रक्षिप्यमाणस्वरं यस्य गेयस्यावसानं तत्। | रोझ- रोझः-विशिष्टपुच्छः प्राणि विशेषः। आचा०७३। जम्बू. ३९| रोट्ट- लोट्टः-घरट्टादिचूर्णः। पिण्ड० १९। चाउललोट्टो। ओघ. रोएइ-रोचितं-अभिलाषातिरेकेणासेवनाभिमुखतयेति। १३७ लोट्टो। ओघ. १३४ लोट्टो। निशी. ३८ अ। स्था० २४७। श्रद्धते चिकीर्षति वा। भग० १३३। रोड-| निशी. १०२। रोएज्जा- रोचयेत्-चिकीर्षामीत्येवमध्यवस्येत्। प्रज्ञा० | रोडति- लुठति। आव० ७०३। बोलं कुर्वन्ति। उत्त० १४९। ३९९| आव० ७०४ तिरस्करोति। आव० ३४३। स्खलनां ३९६। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [136] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] करोति। आव. ३४४॥ रोरुत-रोरूकः-| स्था० ३६५ रोडॅतो-स्खलन्। निशी. १०१ अ। रोल-बोलकरणम्। ओघ.१०३ बोलम। निशी. १०१ अ। रोद्द- रोदयतीति रौद्रं-रिपुजनमहारण्यान्धकारादि, बोलम्। निशी. २१० । तद्दर्शना-युद्भवो विकृताध्यवसायरूपो रसोऽपि रौद्रः। । रोलिंतेण-विलोडयता। निशी० ७९ अ। अनुयो. १३५ रोदयति-अतिदारुणतया अश्रूणि रोलिति- लुठति। उत्त० १४८१ मोचयतीति रौद्रम्। अनुयो० १३५। रुद्रः-पञ्चमः रोवइ-रोदिति- रारटति। पिण्ड० १२२ परमाधार्मिकः। सूत्र० १२४। रौद्रं-अतिक्रूराध्यसायः। रोवग-रोपकः-वृक्षः। दशवै०१७, १९| दशवै०१४। भीषणाकारतया रोद्रः। ज्ञाता०९७। रोगणिया- रोदिनी बालकरुदनकारि-व्यन्तरी विशेषः। ध्यानस्य दवितीयो भेदः। भग. ९२३। रुद्रः-दिवसस्य आव०५३६। प्रथमो मुहूर्तः। सूर्य. १४६। रोविहिइ (देशी०)-आद्रतां नेष्यति। नन्दी. १८० रोद्दी- रूद्रः-शिवस्तेन रोद्रो-आर्द्रा देवता, कालिनीत्यपर- रोवे- रुदन्ति। पिण्ड० ११११ नाम। जम्बू. ४९९। रोषणः-जीप्तः। आव० ७१९। रोधग- युद्धकालो। निशी० २६१ अ। रोस- रोषः-क्रोधस्यैवानुबन्धः। भग० ५७२। रोपणयोग्य- लाजायोग्यः। आचा ०३९१| रोसा- रोषात् शिवभूतेरिव या सा रोषा। स्था० ४७३। रोप्पिओ-रौप्यकः। आव. ३५६। रोह-रोधः-गमनस्य व्याघातः। ओघ०४७। रोहकःरोमंथंतो-रोमन्थायमानः। आव. १८८1 एतन्नामा मुनिपुङ्गवः। भग० ८०, ५०१। रोम-रोमः-चिलातदेशनिवासीम्लेच्छविशेषः। प्रश्न. १४। | रोहउत्त- रोहगुप्तः-श्रीगुप्तस्थविरशिष्योऽतिश्राद्धः। कक्षादिकेशाः। भग०८ रोमः-म्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा० आव० ३१८१ ५५ रोम- कक्षादिलोमम्। प्रश्न १०७ रोहओ-रोहकः-भरतदारकः। नन्दी० १४५ आव० ४१६। रोमक-रोमकदेशोद्भवः। म्लेच्छविशेषः। जम्बू. २२० रोहक- एतन्नामा मुनिपुंगवः। भग०८० रोमकूव-रोमकूपः। आव० ११७ रोहग-रोधकः। ओघ. २१० रोधनं रोधकः-परचक्रेण रोमग-रोमकः-चिलातदेशवासी म्लेच्छः। प्रश्न. १४। नगरादिवेष्टनम्। बृह. १०९ आ। रोमपक्खी-रोमपक्षिणः-राजहंसादयः। उत्त०६९९। रोहगअसज्झा- रोधकासाध्या। आव० ६४। रामपक्षा- रोमप्रधानः पक्षी रोमपक्षस्तदवान्। रोहगसज्ज-रोधकसज्जः । आव०६८४| राजहंसादयः। उत्त०६९९। रोहगुत्त- रोहगुप्तः- श्रीगुप्ताचार्यशिष्यः। उत्त० १६८। रोमराई- रोमराजिः-तनूरुहपक्तिः । जीवा. २७१। रोहगु-प्तमन्त्रिः। आचा० १८७। त्रिराशिप्ररूपकः। बृह. रोमालोण-रुमालवणं-लवणभेदः। दशवै०११८। १२४आ। रोहगुप्तः- षडुलुकः। स्था० ४१३॥ रोय-रोगः। ज्ञाता० १११, ११३ रोहणागिरि-रोचनागिरिः। जम्बू० ३६५ रोयइत्ता- रोचयित्वा-तदभिहितार्थानुष्ठानविषयं रोहणिकः- लौकिकपरिनिर्वत्यां दृष्टान्तः। व्यव० २०९। तदध्ययनादि विषयं वाऽभिलाषमात्मन उत्पाद्य। रोहति- रोहति-अतिशयेन प्ररूढं भवति। पिण्ड ३२ उत्त० ६७२ रोचयित्वा-अभिलाषमुत्पाद्य। उत्त. रोहिअंसकूड- रोहितांशादेवीकूटम्। जम्बू० २९६ છછરા. रोहिअदीव- द्वीपविशेषः। जम्बू. ३०२। रोयमाण- शब्दमश्रुणि विमुञ्चत्। ज्ञाता० १५७ रोहिअप्पवायकुंड- रोहिताप्रपातकुण्डः। जम्बू. ३०२। रोयायंक-रोगाश्चासावातङ्कश्च कृच्छ्रजीवितकी रोहिआ-रोहिता-नदीविशेषः। जम्बू. ३०२ रोगातङ्कः। ज्ञाता० १११| रोहिडय- रोहिडकं-उदयो मारणान्तिक इतिविषये नगरम। रोरुए- रोरवः-तमतमापृथिव्यां तृतीयो महानिरयः। प्रज्ञा. | आव०७२३॥ ८३ रोहिणि-नक्षत्रविशेषः। स्था० ७७। सम० १५४। रोहिणी मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [137] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] मौर्यपुत्रजन्मनक्षत्रम्। आव. २५५) हिंसायतिक्रौर्यानुगतं रौद्रम्। स्था० १८८१ रोहिणिया- रोहिणिका-त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः। जीवा० ३२ । | रौप्यकूला-रुक्मिवर्षधरे षष्ठं कूटम्। स्था०७२। प्रज्ञा० ४२। रोहिणिका-रोहिणीपर्यन्तानि। सूर्य. ११४१ -x-x-x-xधनरक्षितभार्या। ज्ञाता० ११५ रोहिणी- ज्ञाताधर्मकथायां सप्तममध्ययनम्। सम० ३६) लंख-लखः-महावंशानखेलकः। प्रश्न. १४१। औप० ३। नवमबलदेवस्य माता। सम० १५२। स्था० २०४। भग. लखः-यो महावंशाग्रमारुह्य नृत्यति। जीवा० २८१। ५०४ शक्रेन्द्रस्याष्टमी अग्रमहिषी। भग०५०५। लखः-महावंशानखेलकः। राज० रा लखःसोमस्य प्रथमाऽग्रमहिषी। भग०५०५। वंशानखेलकः जम्बू० १४२। लखः-यो कटुद्रव्यमिवोपभुज्यमानम-तिशयेनाप्रीतिजनिका। महावंशाग्रमारोहति सः। अन्यो०४६। जीवा. १२० दक्षिणपश्चिमरतिकर-पर्वतस्योत्तरस्यां लंखगकुलं- लखकक्लम्। आव० ३५९। सुदर्शनाराजधान्यधिष्ठात्री शक्रदेवेन्द्रस्य लंखा- वंशवरत्तारोहगा। निशी० ४३ आ। लंखिका- परिधानं। निशी० १७९ आ। चतुर्थ्यग्रमहिषी। जीवा० ३६५। राममाता। प्रश्न० ७३। अरिष्ठपुराधिपतिरुधिरसुता वसुदेवपत्नी च। प्रश्न. लंगती- शनैः शनैः खजति। उत्त०४३। ९०| देवदाली। प्रज्ञा० ३६५। जम्बू० १५९। जम्बू. १६९। लंगलिय- लाङ्गालिकः-कार्पटिकविशेषः। ज्ञाता०५८ वापीनाम। जम्बू. ३७०। नक्षत्रनाम। सूर्य. १३० लंघण- लङ्घन-अतिक्रमणम्। जम्बू. २३७। जीवा० १२२॥ महाविद्यानाम। आव० १४४। रामबलदेवमाता। आव. लङ्घनं-गर्तादेरतिक्रमम्। जम्बू० २६५, ५३। लङ्घनं१६२ रोहिणी-ज्ञातायांसप्तममध्ययनम्। आव०६५३। उत्प्लुप्तगमनाम्। उत्त० १३५१ आचा० १०६) रोहिणी-उदयो मारणान्तिक इति विषये जीर्णगणिका। लंचा- लञ्चा-उत्कोटा। प्रश्न० ५८ ललितागोष्ठ्याः पाचिका। आव०७२३। वसुदेवस्य लंछ- लञ्छः-चौरविशेषः। विपा० ३९। प्रथमा राज्ञी। उत्त०४८९। रोहिणी-षष्ठाड़गे सप्तमं लंछण- लाञ्छन-कर्णादिकल्पनाऽकनादिभिः। प्रश्न ज्ञातम्। उत्त०६१४॥ त्वग्विशेषः। उत्त०६५३ ३८ लञ्छनं-चिह्नविशेषः। अनुयो० २१२। धर्मकथायां पञ्चमवर्गेऽ-ध्ययनम्। ज्ञाता० २५२ लंचिज्जइ- लञ्छयते-खण्ड्यते। दशवे. २२६। धर्मकथायां नवमवर्गेऽध्ययनम्। ज्ञाता०२५३। ज्ञातायां लंछिते-क्षते। निशी० १२१ आ। अवलिप्यकृताक्षरम्। बृह. १६८ आ। सप्तममध्ययनम्। श्रेष्ठिवधूः। ज्ञाता०९। रोहिणीप्रभृति- विद्यासाधनाभिधायिकानि शास्त्राणि। लंछिय- लाञ्छितं-रेखादिकृतलाञ्छनम्। भग० २७४। सम०४९। लाञ्छितं-रेखादिना। ज्ञाता०११६, ११९| रोहितांशा- हिमवद्वर्षधरपर्वते सप्तमं कूटम्। स्था०७१। लंछिया- रेखादिभिः कृतालाञ्छना। स्था० १२४। नदीविशेषः। स्था०७५ लंछेऊण- लाञ्छयित्वा। आव०४२११ लंतगवडिंसए- लन्तकदेवलोकस्य मध्येऽवतंसकः रोहिता- महाहिमवति चतुर्थं कूटम्। स्था० ७२। रोहियंस-तृणविशेषः। प्रज्ञा० ३३। भग० ८०२१ लन्तका-वतंसकः। जीवा. ३९२१ रोहिय- रोहितः-चतुष्पदविशेषः। प्रश्न. ७ लंतगा- लान्तकं-तृतीयवासुदेवागमनदेवलोकः। आव. रोहियप्पवायद्दहे- । स्था०७५/ रोहियमच्छ- मत्स्यविशेषः। प्रज्ञा० ४४। जीवा० ३६। लंतय- महाशक्रे देववमानविशेषः। सम० २७ लान्तकःरोहिया- रोहिता-रोहितजातीया। उत्त०४०७। कल्पोपगवैमानिकभेदविशेषः। प्रज्ञा०६९। रोहीडए- रोहीटकं वैश्रमणदत्तराजधानी। विपा० ८२ लंद-अधिगं च पोरिसी लन्दम्। निशी. १८आ। नगरविशेषः। महाबलस्य राजधानी। निर०४०। लंब-लम्बः-भवनपतिष् नवम इन्द्रः। जीवा० १७० रौद्र- भल्लिगृहोपाख्यानाद्रौद्रः। आचा. १४६। रौद्रं लंबण- लम्बनम्। दशवै० ३८। मेण्द्रम्। निशी० ११६ आ। लम्बनं-कवलः। ओघ. १०४। पिण्ड० १७२ आव०७२६॥ १६३ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [138] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text ) लम्बनकं - हस्तः । ओघ० १८७ | लंबणभिक्खा लम्बनैः कवलैर्भिक्षा ओघ० १०४५ लंबणया दवरकेन लम्ब्यन्ते - कीलिकादौ क्रियन्ते। ओघ० ९२ लंबणा - लम्बना:-नङ्गराः । ज्ञाता० १५७। लंबिओ- कारिता। आव० ४१९ । लंबियगा- लम्बितकाः तरुशाखायां बाहौ बद्धाः । औप० ८७ लंबुत्तर- लम्बोत्तरं कायोत्सर्गे दोषविशेषः आव० ७९८८ लंबूसग लम्बूसक दाम्नामग्रिमभागे मण्डनविशेषः । जीवा. १८९। जम्बू. २४) लम्बूसग दाम्नामयिमभागे प्रागणे लम्बमानो मण्डनविशेषो गोलकाकृतिः । जम्बू, ५० | जीवा० २०६ | लम्बूसगः- दाम्नामग्रिमभागे गोलकाकृति मण्डनविशेषः । जीवा० ३६१। आभरणविशेषरूपः । राज० ३९ दाम्नामग्रिमभागे आगम - सागर - कोषः ( भाग : - ४) मण्डनविशेषः । राज० ६४ | लंभ - कलम्भः । ओघ० २०२१ संभणमच्छ मत्स्यविशेषः । प्रज्ञा० ४४ लम्भनमत्स्यः मत्स्यविशेषः । जीवा० ३६| लय लगितः नियोजितः । ज्ञाता० १३३| लए लवक - वृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३२ लउड- लकुटं-वक्रकाष्ठम् । औप० ४० जीवा० ११७ लकुटः । ज्ञाता० ५९ । लकुटः । प्रश्न० ८, ५८, २१ सम १२६| जम्बू. २६६ | लउय- वृक्षविशेषः। भग० ८०३ | लउल लगुड :- विपा. ७१॥ लकुटः । औप० ७१॥ लउलग्गं- लकुटाराम् । जीवा० १०६ । लउसिया- म्लेच्छविशेषः । भग० ४६० लकुसिका-धात्रीविशेषः । ज्ञाता० ३७ - लाति आव• ४१९, ४२१ लज्जह- आददीध्वम् । आव० ४२२ लकुशदेशजा लकुशिकी। जम्बू. १९१| लक्ख छद्मम्। निशी० ८० अ, ३६ आ । लक्खणं- लक्षणं यवमत्स्यादिकम् । सूत्र. ३१८ लक्षणंवस्तुस्वरूपम्। प्रश्नः 391 लक्षणं स्वस्तिकादि जीवा० २७४१ लक्षणं तदन्यव्यावृत्तिस्वरूपम् । प्रज्ञा० ११०| लक्षणं शब्दप्रमाणस्त्रीपुरुषवास्त्वादिलक्षणम्। प्रश्न० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text ) १०९| लक्ष्यते तदन्यव्यपोहेनावधार्यते वस्त्वनेनेति लक्षणम्। स्था० ४९३ लक्षण लक्ष्यते तदन्यव्यवच्छेदेन ज्ञायते येन तत लक्षणं- असाधारणं स्वरूपम् । सूर्य • २५६ लक्ष्यतेऽनेनेतिलक्षणं पदार्थस्वरूपम् । आव० २८१ लक्षणं लिङ्गम्। आचा० ६९| लक्षणं - मानोन्मानादि । स्वरूपम्, नियमः । भग० ११४। लक्षणं-सहजं लक्ष्म। भग० ११९ । लक्षणंस्वस्तिकादि। जम्बू. ११३ सत्त्वादि जम्बु० २२९| लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणं दृष्टान्तः स्था० ४९३ | सहजाये। निशी० ६१ अ । माणादियं लक्खण, अहवा जं सरी-रेण सह उप्पण्णं तं लक्खणं निशी० ८५आ। लक्षणंशुभाशुभसूचकं पुरुषलक्षणादि उत्त० २४५१ रूपम्। उत्त० ५६१। असाधारणं स्वरूपम्। उत्तः ५५६ । लक्षणंशङ्खस्वस्तिकादि । अनुयो० १५७ लक्षणंस्वस्तिकचक्रादि। जाता० ११। लक्षणं स्वरूपम्। सम० १२१ | अन्त० १५, १८ लवखणकार- लक्षणकार-लक्षणवित् । बृह० पृ० ५२ अ लक्खणदोष- लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणं दृष्टान्तस्वद्दोष:साध्यविकलत्वादिः । स्था० ४९३३ अव्याप्तिरतिव्याप्तिर्वा स्था० ४९३॥ लक्खणवंजण- लक्षणं-पुरुषक्षणं शास्त्राभिहितं, मानोन्मानादिकं वा व्यञ्जनं मषतिलकादि। स्था० ३६१ | लख्खणवंजणगुणोववेआ- लक्षणानि मानादीनि वज्रस्वस्ति-चक्रादीनि वा व्यञ्जनानि तिलकमषादी तेषां गुणाः-मह-र्द्धिप्राप्त्यादयस्तैरुपेताः शकन्ध्वादिदर्शनादुपपेतायुक्ता लक्ष व्यञ्जनगुणोपेताः । सम• १५७| लक्खणसंवच्छरे- प्रमाणसंवत्सर एव लक्षणानां वक्ष्यमाणस्व-रूपाणां प्रधानतया लक्षणसंवत्सरः । स्था० ३४४ लक्षणेन यथावस्थितेनोपेतः संवत्सरो लक्षणसंवत्सरः। सूर्य० १५३ | लक्खणा- लक्ष्मणा-अन्तकृद्दशानां पञ्चमवर्गस्य चतुर्यमध्य-यनम् । अन्त०] १५ लक्ष्मणाकृष्णवासुदेवस्य राजी। अन्त० १८| चन्द्रप्रभजिनस्य माता। सम० १५१ | आव० १६० | लक्खवाणिज्ज लाक्षावाणिज्यं लाक्षाव्यापारः आव० [139] "आगम- सागर- कोषः " [४] Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] १२९| लक्खारस- लाक्षारसः रक्तत्वेन प्रतीतः । प्रज्ञा० ३६२ | लक्षण - लाञ्छनाद्यनेकविधलक्षणव्युत्पादकः । सम० ४९ ॥ स्वरूपम्। सम० १२१ स्वरूपं मानादि वज्रस्वस्तिकचक्रादि वा सम० १५७। लक्षणज्ञ- सलक्षणः कविः । दशवै० ८७ | आगम-सागर- कोषः ( भाग : - ४ ) लक्षणा- व्याख्याङ्ग पञ्चमम्। आचा० ५५ | लक्ष्मण- वासुदेवजेष्ठभ्राता। प्रश्न० ८७| लक्ष्मी शिखरिणी वर्षधरे षष्ठं कुटम्। स्था० ७२ लक्ष्मी:पौण्डरीकहदवासिनी। स्था० ७३] लक्ष्मी आधायापराव र्तितद्द्वारे निलय श्रेष्ठीपुत्री। पिण्ड० १००| लक्ष्यते चिन्हह्यते, अबोटोऽयं प्रवेश इति कथ्यते। ओघ० ९२ लगंड- दुःसंथितं काष्ठम्। प्रश्न. १०७। दुःसंस्थितंकाष्ठम्। बृह० २०० अ लगण्ड वक्रकाष्ठम्। औप० ४०| लगंडसाई- वक्रकाष्ठशायी। आव० ६४८ । लगंडसाती लगण्डशायी भूम्यलग्नपृष्ठः । स्था० ३९७१ लगण्ड- किलदुः संस्थितं काष्ठं तद्वन्मसतकपार्ष्णिकानां भुविलगनेन पृष्ठस्य चालगनेनेत्यर्थः । स्था० २९९ लगेहिती लगिष्यति। आव ०६८५ - । लग्ग - लग्नः । आव० ३५३ | लग्ग - भवति । आव० ७०२ | लग्गिया- लग्ना। आव० ४४४ । लघु- प्रायस्तिर्यगूर्ध्वगमनहेतुः। स्था॰ २६। स्पर्शभेदः। प्रज्ञा० ४७३ | लघुभूत- अनुपधित्वेन गौरवत्यागेन। स्था० ४६५५ लघुलाघवोपेत- शीघ्रतरः । जम्बू० ५२९| लघुशाटिका- गन्धकाषायिका । जम्बू० ४२० लघुस्सग लघुस्वकः । उत्त० ३३०| लच्छिमई- जयचक्रिणः स्त्रीरत्नम् । सम० १५२ | षष्ठवासुदेवस्य माता सम० १५३२ लक्ष्मीवती-दक्षिणरूचक-वास्तव्या पञ्चमी दिक्कुमारी महत्तरिका । जम्बू॰ ६९१। लक्ष्मीमती-षष्ठवासुदेवस्य माता पुरुषपुण्डरीकमाता। आव० १६२१ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित ३१६ | लच्छी चतुर्यवर्गे षष्ठध्ययनम् । निर० ३७॥ लच्छीकूड- लक्ष्मीकूट- पुण्डरीकद्रहसूरीकूटम्। जम्बू० ३८१| लच्छीहि लक्ष्मीगृह- मिथिलायां चैत्यविशेषः उत्त० १५३| लज्जणिज्जाए लज्यते यस्याः सा लज्जनीया । ज्ञाता० १४३| लज्जनास- असंप्राप्तकामभेदः । लज्जानाशःगुर्वादिसमक्षमपि तद्गुणोत्कीर्तनम्। दशकै १९४ लज्जमाण- लज्जमानः-संयमानुष्ठानपरः । आचा० ३६ । लज्जमानः- लज्जां कुर्वाणः । आचा० ४५१ लज्जमानःस्वागमोक्तानुष्ठानं कुर्वाणः सावयानुष्ठानेन वा लज्जां कुर्वाणः आचा• ४५ लज्जा- लज्जा व्रीडा संयमो वा प्रसिद्धा । भग० १३६ । लज्जा- अपवादभीरूपा संयमो वा । औप० ३२ शिरसोऽधोsवनमनं गात्रसङ्कोचादिका । अनुयो० १३८ | लज्जासंयमः । दशकै १९९ | मनोवाक्कायसंयमः । राज० ११८ ॥ लज्जाते. दशविधदाने पञ्चमप्रकारः । हियादानं [Type text] यत्तल्लज्जा-दानम् । स्था० ४९६ । लज्जायित- लज्जापितः प्रापितलज्जः। प्रश्न ६० लज्जावण- लज्जामापयति-प्रापयतीति लज्जापनः । प्रश्न० ६० | लज्जासंजए लज्जाया सम्यग् यतते कृत्यं प्रत्यादृतो भव-तोति लज्जासंयतः । उत्त० ८६ लज्जासमा लज्जासमा-लज्जा - संयमः तेन समा सदृशी तुल्या संयमाविरोधिनी । दशवै० १९९| लज्जिए - लज्जितः व्रीडितः । ज्ञाता० १४३ | ज्ञाता० २०२ - भग० ३८१| लज्जू- संयमवान् रज्जुरिव वा रज्जू: अवक्रव्यवहारः । भग० १२२| रज्जुरिव रज्जुः-सरलत्वात्। प्रश्न० १५७ लज्जा संयमः। उत्त० २६९ | रज्जुरिवावक्रव्यवहारत्। ज्ञाता० ७२ हा सलवणिमा | जीवा० २७५ | लच्छिमती लक्ष्मीवती दक्षिणरूचकवास्तव्या दिक्कुमारी लट्टाशाक शाकविशेषः। कौसुंभशालनकम्। बृह० ३१४५ आव० १२२| लट्ठ लष्टः- मनोज्ञः । ज्ञाता० १। लष्टः- मनोज्ञः । जीवा० २२९। लष्टः। आव० ४१५। लष्टः- सौभाग्यवान्। प्रश्न० लच्छिहर लक्ष्मीगृह- मिथिलायां चैत्यविशेषः आव० [140] "आगम- सागर-कोषः " (४) Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] ११६| कर्दमो यत्राध्वनि। बृह. १६२ आ। यावन्मात्र लक्तकेन लहतर-लष्टतरः। आव० ३१८ पदो रज्जन्ते तावन्मात्रो यत्र पथि कर्दमः। ब्रह. १६२ लहदंत- अनुत्तरोपपातिकदशानां प्रथमवर्गस्य आ। सप्तममध्यय-नम्। अनुत्त० १। लत्तिका-कशिका। आचा०४१२ अनुत्तरोपपातिकदशानां द्वितीयवर्गस्य लत्तिया- कंसिका। स्था०६३| तृतीयमध्ययनम्। अन्त्त० लष्टदन्तः लत्तियासद्द-पाणिप्रहारशब्दः। स्था०६३। अन्तरद्वीपविशेषः। जीवा० १४४। लट्ठदन्तनामा लद्ध-लब्धः-प्राप्तः, उपनतः। दशवै. ९२। लब्धः-लब्धिअन्तरद्वीपः। प्रज्ञा० ५० विशेषाद् ग्रहणविषयतां गतम्। भग० २२४। लब्धः-उपलद्वदंतदीवे- अन्तरदवीपविशेषः। स्था० २२६। लब्धः। ज्ञाता० ११। लब्धं प्राप्तं-जन्मान्तरे तदुपार्जनालट्ठबाह-शीतलनाथजिनस्य पूर्वभवनाम। सम० १५१| पेक्षया। भग. १५९। लट्ठि- यष्ठिः -दण्डः। औप०६९। यष्टिः । ओघ. १७५ लद्धट्ठ- लब्धः-उपलब्धोऽर्थः-परमार्थरूपो येन स लब्धार्थो लडिग्गाहा- यष्टिग्राहा-काष्ठिका। औप०६९। ज्ञाततत्त्व इति। सूत्र०४०८। ज्ञाता० १०९। लट्ठिया- यष्टिः आत्मप्रमाणा। ओघ. २१७। लद्धहा- लब्धः-प्राप्तः पुष्करिणीशब्दान्वर्थतयाऽर्थो यया लट्ठी- यष्टिः-आत्मप्रमाणाः। ओघ० २१८द्वीपयष्टिः। सा लब्धार्था। सूत्र. २७०। आस्थानमास्था-प्रतिष्ठा सा भग. ३७७। आयप्पमाणा। निशी. १२४ अ। लब्धा यया सा लब्धास्था। सूत्र. २७२लब्धार्थं लडह- ललितम्। प्रश्न०८३। लडहशब्देन गन्त्र्याः अर्थश्रवणात्। भग० १३५ स्वतः। भग० ५४२ पश्चाद्भाग-वर्ति (गृह्यते)। उपा० २२॥ लद्धलक्ख- लब्धलक्षः-अवसरज्ञः। प्रश्न०४६। लब्धलक्षःलडहा- सलवणिमा। जीवा० २७१। जम्बू. १११| अमोघहस्तः। जम्बू० २३२॥ लड्डुक- मोदकः। ओघ०४८ लद्धसद्द- लब्धशब्दः-प्राप्तख्यातिः। प्रश्न०७१। लड्डुग- मोदकः। आव० ३०७ निशी. ११आ। लद्धा- लब्धानि सन्मानादिना। ठापा०४६६। स्था० ४६६। लड्डुगपिय- लड्डुकप्रियः-मोदकप्रियः। पिण्ड० ३३। लब्धा-उपार्जिता जन्मान्तरे। स्था० २४५। भवान्तरे लड्डय- लड्डुकः-मोदकः। आव० ८१४। उपार्जिता। ज्ञाता०२४८ ज्ञाता० १०७ लब्धा लण्हं- मसृणम्। जीवा० १६० प्रज्ञा० ८७ लक्ष्णं उपार्जनतः। ज्ञाता० १३४॥ मसृणम्। सम० १३८१ लद्धावलद्धी- लब्धं-लाभोऽपलब्धिश्चलण्हा- लक्ष्णा-मसृणा। स्था० २३२। मसिणा। निशी. अलाभोऽपरिपूर्णलाभो वा लब्धापब्धिः। भग० १०१। १२४ अ। मसृणा घुटितपटवत्। जम्बू० २०। लद्धि-लब्धयःलता- कम्बा। स्था० २१९। लताः-चम्पकलतादयः, येषां दानलाभभोगोपभोगवीर्यश्रोत्रचक्षुघाणरसनस्कन्धप्रदेशे स्पर्शनाख्याः दश। आचा० ६८ लब्धिः-तदावरणकर्मक्षविवक्षितोर्ध्वगतैकशाखाव्यतिरेकेणान्यच्छाखा-न्तरं योपशमलक्षणा। आव० ३७७। परिस्थूरं न निर्गच्छति ते लता विज्ञेयाः। प्रज्ञा० ३० लद्धिपुलाओ- लब्धिपुलाकः-यस्य देवेन्द्रर्द्धिसदृशा ऋद्धिः, पंक्तिः । निशी. १२८ आ। य शृङ्गनादितकार्ये समुत्पन्ने चक्रवर्तिनमपि लताप्रविभक्तिक- एकविंशतितमो नाट्यविशेषः। जम्बू. सबलवाहनं चूरयितुं समर्थः। उत्त० २५६। ४१७ लदिलियलब्धा- प्राप्। आव० ५०६।। लतावलय- नातिकेरकदल्यादि। उत्त०६९२ लद्धिवीरिए- वीर्यान्तरायक्षयक्षयोपशमतो या वीर्यस्य लत्त- अलत्तोऽलक्तकः। ओघ. २९। अलक्तः लब्धिः सैव तद्धेतृत्वाद्वीर्यं लब्धिवीर्यम्। भग० ९५ अलक्तकः, अलक्तवान्। मार्गः। ओघ. २९। लक्विीरियं-जो पृण संसारी जीवो अपज्जत्तगो ठाणाति लत्तगपह- लत्तकपथः-अलक्तकस्थानं यावत् पदोः । सत्तिसंजुत्तो तस्स तं। निशी० १९ । मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [141] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] लड़ी- लब्धिः शक्तिमात्रम्। आचा० ६७ प्राप्तिः । भग० ८१३ | केवलज्ञानादिलब्धिनिमित्तत्वाल्लब्धिः । अहिंसायाः सप्तविंशतितम नाम प्रश्न० ९९| लब्धिःतत्तदावरणकर्मक्षयोपशमरूपा प्रज्ञा० ३०९ लद्धुं- लब्ध्वा। उत्त॰ १८५| आचा० १२९| लद्वेल्लिआ - लब्धपूर्वा । आव० १७३ । आगम- सागर - कोषः ( भाग : - ४ ) लन्द- लन्दः-कालः। बृह० २२९ अ । लपण लपनं- बहवसकृदालपनम्। दशवै० २१६ | लपनश्री घृतशर्कराप्रचुरं पक्वान्नम् । पिण्ड. १३९ | लब्धप्रतिभ- परवाद्युत्तरदानसमर्थः। आचा० २। लब्धि- ज्ञानदर्शनावरणीय क्षयोपशमरूपा यत्सन्निधानादात्मा द्रव्येन्द्रियनिर्वृत्ति प्रति व्याप्रियते। आचा० १०४) भावेन्द्रियभेदः । भग०८७ आत्मनोज्ञानादिगुणानां तत्तत्कर्मक्षया दितो लाभः । भग॰ ३५०| श्रोत्रेन्द्रियादिविषयस्तदावरणक्ष-योपशमः । जीवा० १६ | लब्ध्यक्षरं ऽक्षरोपलम्भस्तत्। आव० २४| लब्ध्यपर्याप्तकाः- ये पर्याप्तका एव सन्तो म्रियन्ते ते लब्ध्य-पर्याप्तकाः । प्रजा० २६ येऽर्याप्तका एव मियन्ते ते जीवा० १०॥ लब्भा- कल्पते। आव० ५३० | उपलभ्येत । ओघ० २२६ । लभ लभते भवत्याभाव्यम्। अध० १५५1 लभियाणवि लब्ध्वाऽपि । उत्त० ४७७ लम्बनोत्क्षेप ईर्यापथप्रतिक्रमणाद्युत्तरकालम् । आव ५७७ । लयंत- गृह्णन्। आव० ७२० आददानः । उत्त० ३०४ | लय-लत-अशोकलतादिः जम्बू० १६८१ लता- कम्बा । जम्बू० २३५। लयः-तन्त्रीस्वनविशेषः । दशवै० ८८ लवण-लयनं गुहादिकमाश्रयः । सूत्र० ३०१। लयनंशिलामयगृहम् प्रश्न. ५२१ लयनं स्थानं वसतिरूपम् । दशवै॰ २३६। लयनं-गृहम्। जम्बू० ३२१। लयनं उत्कीर्णपर्वतगृहं गिरिगुहा वा कार्पटिकाद्यावासस्थानं , वा अनु० १५९ । लयन- गृहा । उत्त० ४९३ | जीवा० २६९ | लयसम शृङ्गदार्वाद्यन्तरमयेनाङ्गुलिकोशकेनाहतायास्त न्त्र्याः स्वरप्रकारो लयस्तमनुसरतो गातुर्यद्गेयं तत् । मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text ) स्था० ३९६ | तन्त्रीस्वरप्रकारो लयस्तमनुसरता स्वरेण यद् गीयते तत् । अनुयो० १३२१ चउत्थं नहं । निशी. १अ । लयसुसंप्रयुक्त शृङ्गदारुदन्तादिमयो यो गुलिकोशकस्तेना हतायास्तन्त्र्याः स्वरप्रकारो लयस्तमनुसरद् गेयम् जम्बू० ४०| लया- येषां स्कन्धप्रदेशे विवक्षितोर्ध्वशाखा व्यतिरेकेणान्यत् शाखान्तरं तथाविधं परिस्थूरं न निर्गच्छति सा लता । जीवा० २६ | लता तिर्यक्शाखा । जीवा० १८२ | लता पद्मादिकाः । जम्बू० ४१७ । लतावल्ली। कायोत्सर्गे दोष-विशेषः आव० ७९८१ लतातिर्यक् शाखाप्रसाराभाकत् । जम्बू० २५| लता । सम १२६| सूत्र ३१२२ लता अशोक लतादिः । भग० ३०६ | लता-कम्बा। प्रश्र्न० ५७, १६४ ॥ जं० १४७ | लता - तनुका । औप॰ ९। लता-चम्पकल-तादिः । जीवा० २६| लता - अशोकलतादिः । ज्ञाता० ७८ | लता - कम्बा । ज्ञाता० ८६ | सहकारलतादिः । ज्ञाता० ३३ | ज्ञाता० ६५ | लयाजुद्ध- एकोणषष्ठीका । ज्ञाता० ३८ लयायुद्ध योधयो यथा लता वृक्षमारोहन्ती आमूलमाशिरस्तं ववेष्टि तथा यत्र योधः प्रतियोध शरीरं गाढं निपीड्य भूमो पतति तत् लतायुद्धम् । जम्बू. १३९॥ ललइ- ललति-मनईप्सितं यथाभवति तथा वर्त्तते । जीवा० २०१ ललति मनईप्सितं यथाभवति तथा वर्त्तते। जम्बू० ४६१ ललाट- भालम्। आचा० ३८ \ ललिअ ललितम् आव० १७२१ तलिनः मनोजचेष्टाक लितः। जम्बू० १२५| ललित प्रसन्नता। जम्बू० २५४ | ललितं पाशकादिक्रीडा संप्राप्तकामस्य पञ्चमो भेदः । दशवै० १९४| अमित्त- ललितमित्रः दत्तवासुदेवपूर्वभवः आव० १६३ | ललिइंदिय- ललितेन्द्रियः- गर्भेश्वरः, राजपुत्रादिः । दशवै० २४९| ललिइंदिया- आगभाउ ललियाणि जेसिं ते, अच्यंतसुहितत्ति दश १३६॥ ललिए ललितः सुदर्शनबलदेवपूर्वभवः आव० १६३ [142] *आगम - सागर- कोष" (४) Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] ललित- इ8। निशी. १५८ आ। भग. ३७ पल्लवियतः। ज्ञाता०५ पल्लवितः। औप० ललियंग- ललिताङ्गः-ईशानदेवलोके इन्द्रः आव० ११५ ७ लवकितः-सज्जातपल्लवलवः। जम्बू. २७१ ललियंगअ-ललिताङ्गकः-ईशाने श्रीप्रभे विमने पल्लवितः जीवा. १८२। ऋषभदेवपू-र्वभवः। आव०१४६। लवङ्ग-औषधिविशेषः। आव०८१११ ललिय- ललितं-प्रसन्नता। औप०१३। ललितं-सलील- लवण- सान्निपातिकरसोपेतत्वात् लवणम्। जीवा० ३०३। गतिः। जम्बू० ४१६। ललितं-श्रुतिसुखम्। जम्बू० ५२८ जीवा० ३७०। ऊषभेदः। मृत्तिकाभेदः। आचा० ३४२। ललितं-प्रशन्नता। ज्ञाता० २७। ललितईप्सितम्। १६८१ प्रकृतिक्षारं, तथाविधिं शाकादि लवणोत्कटं वा अन्यत्। ललियघडा- जलबूदिता मुनयः। संस्ता०। दशवै. १८० ललियमित्त- सप्तमवासुदेवस्य पूर्वभवनाम। सम० १५३1 | लवणपंचय- लवणपञ्चकंललिया-क्रीडाप्रधाना। ज्ञाता० २०५१ अन्त०१९। सैन्धवसौवर्चलबिडरौमसामुद्रलक्ष-णम्। सूत्र० १५९ अटिलत्वम्। व्यव० २९० आ। ललिता | लवणसमुद्द- सङ्ख्यातद्वीपसमुद्रेषु प्रथमः समुद्रः। दुर्ललितगोष्ठी। भुजङ्गसम्दायः। अन्त० १९| ज्ञाता० १२१, १३२ ललियागोडी- ललितागोष्ठी-उदयो मारणान्तिक इति लवणसमुद्दत- लवणसमुद्रान्तः-लवणसमुद्रदिक्। जीवा० विषये गणिका। आव०७२३॥ ३१५ ललियासणीओ- इष्टासनभोजनपरिवेषिकः द्विभागश्च | लवणसमुद्र- जम्बूद्वीपरिक्षेपी समुद्रः। प्रज्ञा० ३०७ घटायां। बृह० १९० आ। अविधिपुरः कर्मवारकः। लवणरसास्वादनीरपूरितः समुद्रः। अनुयो० ९० अविधिना पुरः कर्मकारिणीं वारयति तदा लवणोदए- लवणोदकं लवणसमुद्रे। प्रज्ञा० २८१ ललितासनिकः। बृह. २८५ लवमात्रीकृतः- विदारितः। उत्त० ५०७। लल्ल- लल्लः-अव्यक्तः। प्रश्न०४१| लवय- लवकः-एकोरुकदवीपे वृक्षविशेषः। जीवा० १४५ लल्लक्क- नरकावासविशेषः। भक्त० सीतपडतं ण लवल्लि- लवित्रीम्। महाप्र०।। सहति। निशी. ३५० लवसत्तम- लवसप्तमः-पञ्चान्त्तरविमानवासीदेवः, लल्लिव्याकरण- बलरजनम्। दशवै. १८६ सर्वोत्कृष्ट-स्थितिवर्ती प्रधानः देवः। सूत्र० १५१| लवंग-तंबोलपत्तसहिया खायइ तं। निशी० ६०अ। लवसत्तमा- लवसप्तमा- अनुत्तरसुरभवस्थितिः। प्रश्न लवङ्ग-फलविशेषः। जीवा० १३६। प्रश्न. १६२ १३५। लवसप्तमा-अनुत्तरसुरभवस्थितिः। लवंगविट्ठ-दाणफल अप्पणा कहेति कहावेता जो पादं एकोनपञ्चाशत-उच्छवासानां लवो भवति, उप्पादेति एयं। निशी० १४१ आ। व्रीह्यादिस्तम्बलवनं वा लवस्त-त्प्रमाणः कालोऽपि लवंगुरुक्ख- वलयविशेषः। प्रज्ञा० ३३। लवः, ततो लवैः सप्तमैः-सप्तप्र-प्रमाणैः लव- एकोनपञ्चाशद्च्छवासप्रमाणः। ३४५ सप्तसङ्ख्यैर्विवक्षिताध्यवसायविशेषस्य सप्तप्राणनिष्पन्न एकः स्तोकस्तैः सप्तभिः। अनुयो० मुक्तिसम्पादकस्या-पूर्यमाणैर्या स्थितिबध्यते सा। १७९। कर्म। सूत्र० ६६। सप्त स्तोका यः स लवः। जम्बू. प्रश्न. १३५। लवसप्तमा-सप्तलवाः कालविशेषा आय् ९० अलापीः- उक्त-वती। उत्त० १३७ लपतीति लपः- प्रभन् स्यात् सप्तलवप्रमाणं यद्यायः प्राप्येतेत्यर्थः वाचालः, घोषितानेक-तर्कविचित्रदण्डकः। सूत्र. ३९३। ततः सिद्ध्येयुः परं त आयुस्तावन्मानं नह-नैव भवति लवः-सप्तस्तोकाः। जीवा० ३४४। लव: ततस्ते लवसप्तमा देवा जाता लवे सप्तमे सप्तस्तोक(सप्तप्रमाण)रूपः। भग० २११। लव: सिद्धिरभविष्यत् यदि तावदायर्भवेदयेषां ते लवसप्तमा सप्तस्तोकप्रमाणः। भग. २७६। सप्तस्तो-करूपः। नाम्नेकार्थे समासो बहलमिति समासः लवसप्तमा। ज्ञाता० १०४। लवः-बिन्दुः। आव० २३६) व्यव० १३२आ। लवाःलवहय- लवकितं-सञ्जातपल्लवलवमङ्कुरवदित्यर्थः। | शालादिकवलिकालवनक्रियाप्रमिताः कालविभागः मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [143] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] सप्तसप्तसंख्या मान-प्रमाणं यस्य कामस्यासौ | ११८ लघुभूतः- संयमः। उत्त० ४१०। लघुःलवसप्तमस्तं लवसप्तमं कालं यावदायुष्यप्रभवति वायुस्तद्वद्भूतं-भवनमेषां लघुभूताः वायूपमाः। उत्त. सति से शुभाध्यवसायवृत्तयः सन्तः सिद्धिं न, गता ४१० अति तु देवे-फूत्पन्नास्ते लवसप्तमाः, ते च लहुभूयगामी- लघुभूतो-मोक्षः, संमयो वा, तं गंतु शीलमसर्वार्थसिद्धाभिधानानुत्तरसु-रविमाननिवासिनः। भग० स्येति लघुभूतगामी, लघूभूतं वा कामयितुं शीलमस्येति ६५१ लघुभूतकामी। आचा० १६४१ लवसप्तमः- अल्पतरदेवविशेषः। उत्त०६७। लभूयविहारी- लघुभूतविहारी-अप्रतिबद्धविहारी। उत्त० लवा- शाल्यादिकवलिकालवनक्रिया प्रमिताः ४१० कालविभागाः। भग०६५११ लय- लघुकं-सत्त्वसारवर्जितत्वेन तुच्छ शीघ्रं वा। प्रश्न लवाति- सप्तस्तोकप्रमाण लवाः। स्था० ८६। १२०| लघुकः-त्रिंशदिवसपरिमाणः। व्यव. १८७ अ। लवलाव- कालोपलक्षणं तेन क्षणे क्षणे सामाचार्य्यनष्ठानं | लहुयतराग- लघुतरकः-पंचविंशतिदिनमानः। व्यव. कार्यम्। सम० ५८1क्षणे क्षणे सामाचार्यनष्ठानम्। १८७| प्रश्न. १४६। लवालवं-कालोपलक्षणं क्षणे क्षणे लहुया- त्रीन्द्रियजीवविशेषः। प्रज्ञा० ४२॥ सामाचार्यनुष्ठानं कार्यं। योगसङ्ग्रहे सप्तविंशतितमो लहुवित्तीपीरक्खेव- वर्तनं वृत्तिःयोगः। आव० ६६४ द्वात्रिंशत्कवलपरिमाणल-क्षणा तस्याः। परिक्षेपः लवावसंकी- लव-कर्म तस्मादपशङ्कितुं अपसर्तु शीलं संक्षेपो वृत्तिपरिक्षेपः लघुर्वृत्तिपरि-क्षेपोऽस्येति यस्य स लवापशकी। ओकायतिकः शाक्यादिश्च। लघुवृत्तिपरिक्षेपः। आचा० २६४। सूत्र० २१४॥ लहुस- अल्पम्। निशी० १३३ आ। लसण- लशुनं-कन्दविशेषः। उत्त० ६९१| लहुसग- लघुः-गुणगौरवरहितः स्वः-आत्मा विद्यते यस्य लसि- रसिका। बृह० २५४ अ। स लघुस्वकः। प्रश्न० २७ लसुण- लशुनं-कन्दविशेषः। आव० १०१। लहुसतरग- लघुस्वतरकः दशदिवसमानः। व्यव० १८७। लसुन-दुरभिगन्धपरिणता। प्रज्ञा० १०५ लहुसयंसि- लघुः स्व-आत्मा स्वरूपं अस्य स लघुस्वकःलहु- प्रायस्तिर्यगूर्वाधोगमनहेतुरर्कतूलादिनिश्रितो लघुः। | अल्पस्वरूपः। ज्ञाता० ८६। अनुयो० ११०| वायुः। उत्त० ४१०| लहुसोय- लघुस्वकः-पंचदशदिवसः। व्यव० १८७ अ। लहुअ-स्तोकता। आव० ४४१। लहस्सग-स्तोकः। व्यव० १८५अ। लघुस्वभावः। भग० लहुई- लघ्वी-क्षुल्लिका। जम्बू०४१। ___४७०| तुच्छाशयत्वादिना लघुः। उत्त० १०४। लहुईकओ- लघुकृतः-विगोपितः। आव० ७०४। लहुहत्थ- क्रियासु दक्षहस्तः। ज्ञाता० ७९| लघुहस्तः-दक्षलहुओ- लघुकः। बृह० ४९ अ। हस्तः। विपा० ७५। लघुहस्तः-हस्तलाघवः। प्रश्न० ४६। लहुकरण- लहुकरण गमनादिका लहू- लघुः परिणमलघुः। जीवा० ३५५५ शीघ्रक्रियादक्षत्वमित्यर्थः। ज्ञाता०९२ लघकरणं- लाइअं- छगणादिना भूमेरुपलेपनम्। जम्बू०७६। दक्षत्वम्। उपा०४४। लाइउं- आनेतुम्। आव०४३६| लहुपरक्कमे- लघुपराक्रमः-ईशानेन्द्रस्य लाइओ-दत्तः। ओघ० ३१४। पादत्राणिकाधिपतिः। जम्बू० ४०५ स्था० ३०३। लाइताओ- लग्नः। आव० ३५४। लहुब्भूओ- लघुभूतः-वायुः। उत्त० ५०५१ लाइम- लवनवती-लवनयोग्यः। दशवै० २१९। लहुभूय- लघुभूतः-अल्पोपधितया गौरवत्यागाच्च, लाइमाः- लज्जायोग्याः रोपणयोग्या वा। आचा० ३९१। लघभूतो वायुस्तद्वद् यः सततविहारः सः। औप. ३७ लाइयं- यद भूमेश्छगणादिनोपलेपनम्। सम० १३८ मोक्षःसंमयो वा। आचा० १६४। लघुभूतः-वायुः। दशवै. | छगणादिना भूमिकायाः संमृष्टीकरण। भग० ५८२। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [144] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] ४७५ यद्धमेर्गो-मयादिनोपलेपनम्। राज० ३६) उग्गमुप्पादणेसणासुद्धेण आहारोवधिणा यद्भमेच्छगणादिनोपलेपनम्। औप० ५। संजमभरवहणट्ठयाए अप्पणो सरीरगं लाढेतीति लाढो। यद्भमेर्गोमयादिना उपलेपनम्। जीवा० १६०, २२७। प्रज्ञा० | निशी० ३५आ। ८६| लाढावज्जभूमी- लाढावज्रभूमिः-म्लेच्छभूमिः। शुद्धभूमिः। लाउए- तुम्बकत्रेपणभुवम्। ओघ० ९४। आव० २१२ लाउडिय- डंगरपेच्छणयं। निशी० ३५८ अ। लाढाविसय-लाढाविषयं-जनपदविशेषः। आव २०६। लाउय- अलाबुकम्। ओघ० १५९। तुम्बिका। भग० ५७६) लाढाहि- यापय। उत्त० २७३। लाउयवण्णाभ- आर्द्रतुम्बवर्णाभं-राहविमानम्। २८७। लाढेति-स्थापयति, | बृह० २५८ आ। लाउलिया- डंगराः-दस्यवः। बृह. २७३ आ। लिप्पासण-लिप्यासनं-मषीभाजनम्। राज०९७ लाउल्लोइय- लाइयं-छगणादिना भूमौ लेपनं उल्लोइयं लाबु- तुम्बकम्। अनुयो० १४२।। सटिकादिना लकट्यादिष् धवलनम्। ज्ञाता० ३९। लाभंतर- लाभान्तरं-लाभविच्छेदः। उत्त. २१८ लाएइ-ददाति-अर्पयति। दशवै०८०४ लाभंतराय- यद्दयवशाद्दानग्णेन प्रसिद्धादपि दार्गृहे लाएत्तु- लापयित्वा-लागयित्वा। बृह. ४४ अ। विद्य-मानमपि देयमर्थजातं याञ्चाकुशलोऽपि लाक्षा- जतु, दारुमत्तिके प्रसिद्ध इति। स्था० २७२ गुणवानपि याचको न लभते तल्लाभान्तरायः। प्रज्ञा. लाघव- द्रव्यतोऽल्पोपधिता भावतो गौरवत्रयत्यागः। औप०३२। अल्पोपधित्वम्। प्रश्न. १३७ लाघवं- लाभ- अर्थावाप्तिः। उत्त० २९७। लम्भनं लाभः अपूर्वार्थअप्रतिबद्धता। आव०६४६। लाघवं-द्रव्यतोऽल्पोपधित्वं प्राप्तिः । उत्त० २१७। लाभः। व्यव० ३४१ आ। भावतो गौर-वत्यागः। क्रियास् दक्षत्वम्। भग० १३६| लाभत्थि- लाभार्थी-भोजनमात्रादि प्राप्त्यर्थी। जम्बू. २६७। लाघवं-क्रियासु दक्षत्वम्। ज्ञाता०७ लाभार्थीः-सामान्येन लाभेप्सुः। ज्ञाता० ५८। द्रव्यतोऽल्पोपधित्वम्। ज्ञाता०६। क्रियासु दक्षत्वम्। लामंति- रम्याणि। औप०७० राज०११९| लाम- रम्याणि। जम्बू० २६५, ५३० लाघवपहार- लाघवप्रहारः-दक्षताप्रयुक्तघातः। प्रश्न०४९। | लायंत- आददानः। आव०६९७ लाता। आव०४२५ लाघविय- लाघविकं-अल्पोपधिकम्। भग. ९७। लायप्पहार- | ज्ञाता० २३०१ लाजा-शालिविह्यादेरग्निना यो लाजः, क्रियते स इति। लाया- विहिया। निशी. १०० आ। राजा। आव० ४३७, आचा० ३२३॥ ६८५ णाम बीहिया तिमि भट्ठे भुज्जिता तोण तंदुलेस् लाञ्छनम्-अङ्कनम्। आव० १८८५ पेज्जाकज्जति तं। निशी. १०० आ। लाञ्छना- अपभ्राजना। आव० ५७३। लायातरणं- लाया-विहिया-तिमि भट्ठेस् भज्जिता ताण लाटदेश- ईषल्लवणस्भावजल देशः। प्रज्ञा० २९। तंदुलेसु पेज्जा कज्जति तं। निशी. १०० आ। लाटा- जनपदविशेषः। प्रज्ञा. ५५१ लालप्पणपत्थणा- लालपनस्य-गर्हितलापस्य प्रार्थनेव लाटाचार्य- आचार्यविशेषः। निशी० १५३ आ। प्रार्थना लालपनप्रार्थना। तृतीयाधर्मद्वारस्य लाढ- सदनुष्ठानतया प्रधानः। उत्त०४१४ पञ्चविंशतितमं नाम। प्रश्न. ४३। जनपदविशेषः। भग०६८० जनपदविशेषः। आचा० लालप्पमाण- लालप्यमानः-भोगार्थमत्यर्थं लपन वाग्दण्डं ३७८। येन केनचित् प्रासकाहारोपकरणादिगतेन करोति। आचा० १२११ विधिनाऽऽत्मानं यापयति-पाल-यतीति लाढः। सूत्र० | लाला- ललतीति लाला अत्रुट्यन्मुखश्लेष्मसन्ततिः। १८९। लाढः-यापकः, लाढयति प्रासकैषणीयाहारेण आचा० १३८ मुखाद् यो स्रावः। जीवा० ३९| जीवा० २०७। साधुगणैर्वाऽऽत्मानं यापयतीति लाढः, प्रशंसाभिधायि लाला, मुखात् स्रावः। प्रज्ञा० ४७ वट्टा। वतिः। निशी वा देशीपदम्। उत्त. १०७| साधु जम्हा २१ अ। वर्तिः । बृह. १७७ अ। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [145] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] लालाओ- वज्रमय्यः। जम्बू. ५३। लासति- लास्ययति-लास्यरुपं नृत्यं करोति। जीवा० २४७ लालाविस-लालविषः-उरःपरिसर्पविशेषः। जीवा० ३९। लासिया-लासिका- धात्रीविशेषः। ज्ञाता० ३७ लालाविसा- लाला-मुखात् स्रावः तत्र विषं येषां ते लाह-हाभमदः लाभस्य मानम्। आव०६४६। लालाविषाः। प्रज्ञा०४६ लाहनक- प्रहेणकम्। पिण्ड. १०३। लालियं- लालितं-अश्वकलाविशेषः। उत्त० २२३। लाहुक्कं- लाघवम्। बृह० २११ आ। लालेमाणे- उपलालयन्-लीलया उपभुजानः। राज०४३। | लिंग-रजोहरणमुखवस्त्रिकारूम्। व्यव० १८४ अ। लावक- लावकः-पक्षिविशेषः। प्रश्न सिखिधूमवर्ण- | प्रव्रज्या। बृह० ७८ अ। लिङ्ग-साध्वेशः। भग०६१| लावक-| निशी०७१। लिङ्ग्यते साधुरनेनेति लिङ्गलावकादिखेड्ड- रमणम्। आव० ३४६) रजोहरणादिधरणलक्षणम्। लिङ्ग्यते-गम्यतेऽनेनायं लावग- लावकः-पक्षिविशेषः। आचा. २६। लावकः व्रतीति। आव० ५२५१ रजोहरणम्। व्यव० १६७ । स्था० पारापतः। आव० ८१९। लावकः-लोमपक्षिविशेषः। जीवा० २३४ ४११ लिंगकसायकुसील- कषायकुशीलविशेषः। भगः ८९० लावगा- लोमपक्षिविशेषः। प्रज्ञा०४९। अल्पगरा। निशी. लिंगपुलाए- लङ्गमाश्रित्य पुलाकस्तस्यासारताकारी २७७ । विराधकोलिङ्गपुलाकः। भग० ८९० लावण- लवणसंस्कृतः। विपा०४९। लिंगपुलात- यथोक्तलिङ्गाधिग्रहणात् लावणिया- लावणिका लवणसमुद्रभवा। सूर्य० २८० निष्कारणेऽन्यलिङ्गकर-णादवा चतुर्थो भेदः। उत्त. लावण्ण- लावण्यं-स्पृहणीयाता। प्रश्न० ८५ लावण्यं- २५६। सौन्दर्यम्। आव०५६९| लावण्यं-आकारस्थ लिंगभिन्न-लिङ्गभिन्न-लिङ्गव्यत्ययः, स्पृहणीयता। जम्बू. ११६। लावण्यं-शरीराकृतिविशेषः। | सूत्रदोषविशेषः। आव० ३७५ भग०६४३। नयनमनसामालादको गुणः। उत्त० ६२६। | लिंगी-लिंगिनः-असंजता गिही लिंगी वा। लिंगमेषां लावन्नं- लावण्यं-आकारस्य स्पृहणीयता। औप० १३ । विदयत इति लिंगिनः-अन्य पाखण्डिनः इत्यर्थः। लावण्यं-अतिशायी मनोभवविकारहेतः परिणतिविशेषः। निशी० १३० अ। प्रज्ञा० ५५१। लावण्यं-स्पृहणीयता। ज्ञाता० २११। लिंछा- चुल्लीस्थानम्। स्था०४१९। लावण्यं-स्पृहणीयत्वम्। ज्ञाता० १६५। लिंड-लिन्द्रं अशैवलपुराणणजलवत्। प्रश्न. १६३। ज्ञाता० लाययंति- उपनिमन्त्रयेयुः-उपलोभयेयुः। सूत्र० ५९। लावलवियं- लौल्योपेतम्। आव० ५३७। लिंद-। जीवा० ३७० लावलव्वता- द्रुतत्वेन। निशी. १५अ। लिंपण-लिम्पनं-छगणा;ना भूमेः प्रथमतो लेपनम्। प्रश्न लाविया-उपनिमन्त्रणा। सूत्र. ५९। १२७ लासक- लासकोः-य रासकन् गायति, जयशब्दप्रयोक्ता | लिंपेति- छगणादिना पुनर्मसृणी कुर्वति। ज्ञाता० ११९। वा भाण्डः। राज० लिंब-लिम्बः-बालोरमस्योर्णायुक्ता कृतिः। ज्ञाता० १३। लासकदेशज-लासिकिः। जम्बू१९९) लिंवो- | निशी. २२४ आ। लासग- लासकः-यो रासकान् ददति तेषां प्रेक्षा। जम्बू लिक्ख- गणना। उ०मा० गा०४३७। १२३। लासकः-यो रासकान् गायति, जयशब्दप्रयोक्ता लिक्खा-। भग. २७५ वा भाण्ड इति। जीवा. २८११ प्रश्न. १४११ औप० ३। लिङ्ग- वर्षाकल्पादिरूपो वेषः। उत्त. ५०३। लिङ्गःअनुयो० ४६। रजोहरणमुखपोतिकादिः। व्यय०३ लासगा- जयसद्दपयोत्तारो लासगा-भडा इत्यर्थः निशी लिङ्गतः- कषायैर्लिङ्गान्तरं कुर्वन्। स्था० ३३७। २७७ ॥ | लिङ्गभिन्न- यत्र लिङ्गव्यत्यः। अनुयो० २६२। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [146] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] लिच्च-कोमलानि नमशीलं च। जम्बू. ५५ लुक्क- छन्नः, स्थिरः। निशी० ७३ आ। लुञ्चितः। पिण्ड. लिच्छारिए- लिप्तम्। निशी० ७२ आ। ७६| लिच्छारियं-लिप्तम्। आव० ७४२१ लुक्ख- रूक्षः-स्नेहवर्जितम्। आव० ७२६। रूक्षः-काकादि लित-नम्रशीलम्। नमनशीलम्। जीवा. २१० दिग्धम्। शब्दवत्। स्था० ४७१। रूक्षः-घूसरवर्णम्। बुभुक्षावशेन सम० १३६। सर्वतो गोमयादिनैव लिप्तम्। भग. २७४। रूक्षीभूतत्वम्। भग० १२५। रूक्खो-वृक्षः। उत्त० १३८ लिप्तं-उपदिग्धम्। प्रज्ञा० ८० लिप्तं-नवम एषणादोषः। रूक्षः-पुद्गलद्रव्याणामेवाबन्धनिबन्धनं भस्माद्याधारो पिण्ड० १४७ रूक्षः। अनुयो० ११० रूक्षः-स्नेहकार्याकरणात्। ज्ञाता० लित्ताणं- सर्वतः। स्था० १२४। १६५ लिन्द्र- गोवराक्ष(ख्य)रसविशेषकलितत्वात्। जीवा० ३०३। लुक्खकच्छू- रूक्षकच्छुः-खर्जूविशेषः। उत्त० ३०१। लिपि- अष्टादशस्थानोक्ता। जम्बू. १३७ लक्खबंधणपरिणाम- रूक्षस्य सतो बन्धनपरिणामःलिप्तं-| आचा० ३४५ रूक्षब-न्धनपरिणामः। प्रज्ञा० २८८ लिप्पत्-। ओघ. १३९। लक्खया- रूक्षता। भग० ३०६। लिप्पासण- लिप्पासनं-मषीभाजनम्। जीवा. २३७५ लुहंतो- लुठन्-गच्छन्। आव० ३५१| लिप्सा-लब्धुमिच्छा। आव० ८२५१ लुद्ध- लुब्धः। ओघ० १५०| लोध्र-गन्धद्रव्यम्। दशवै. २०६। लिम्ब- लिम्बं कोमलं नमनशीलं च। राज० ३७ आचा० ३६३। लिवी-लिपिः-पुस्तकादावक्षरविन्यासः। भग० ५। दोहिं। | लद्धदिहता- | निशी. २०२ अ। मिलिउ उप्पाइया अधवा मिडमाइ। निशी. २५२ अ। लद्धणंद- लुब्धनन्दः वणिग्विशेषः। लोभे उदाहरणम्। लिसति-दर्शनीयत्वातिशयतः श्लिष्यति। जीवा. १९६। आव० ३९७। लुब्धनन्दः-लोभवशात् शूलायां भिन्नः। लिसिस्सामो- श्लेषयिष्यामः। सूत्र.४१३। आव० ३९७ लिसी- ऋषयः। बृह. २८३ अ। लुद्धणंदी- लोभे इमं उहाहरणम्। निशी. ३५२ आ। लिहइ-लेढि। विशे०६३५ लुद्धनंद- लुब्धनन्दः-पञ्चमाणुव्रते उदाहरणम्। आव० लोनता-निरोभावः। विशे०१०६२ ८२६| लीलट्ठियसालभंजिया- लीलास्थितशालभजिका- लुद्धय- लुब्धकः-व्याधः। प्रश्न. १३॥ लीलास्थि-तपत्रिका। जीवा० २०४, ३०६। लुप्ततेजा- अर्धीभूततेजाः। भग० ६८४। लीला- ललिताङ्गनिवेशरूपा। जम्बू०५१। लुप्पंत- लुप्यमानः-छियमानः। उत्त० २६४। ललिताङ्गनिवे-शरूपा। जीवा० २०६। लुप्पई- लुप्यत-कर्भणा क्लेशमनुभवति। आचा० ३०५। लीलाकट्ठय-लीलाकाष्ठम्। आव. २२४। लुप्यते- लुप्यते-दारिद्र्यादिभिर्बाघ्यते। उत्त० २६२। लीलाकम्बिका-लीलावेतः। लीलायष्टिः। नन्दी. १४८ | लुब्धक- वागुरिकः। सूत्र० ३२१।। लुंक-| निशी. १५७ आ। लुब्धकदृष्टान्तभावितः- श्रमणोपासकभेदः। भग० २२७। लंग-भेजकम्। भग० ८८ लुभ्यति- प्राणिनि स्निह्यति संश्लिष्यतीति वा। प्रश्न. लुग्गंसि- रुग्ने जीर्णतां गतः। ज्ञाता० ११५॥ लुग्ग- लुग्नः जलसेचना करणतः। व्यव० ११५अ। लुलिय- लुलितं-तीरभूवि लुठितम्। प्रश्न० ५०| लुंचिंसु- अलुञ्चिषुः। आचा० ३१२। | ललिया- ललिया-मदवशेन चर्णिता, स्खलत्पदेत्यर्थः लुपणा- लोपना-छेदनं प्राणानाम्। उपा० ५०| ललिता-अतिक्रान्तप्राया। ज्ञाता० ९७। प्राणवधस्यैकोनत्रिंशत्तमः। पर्यायः। प्रश्न०६। लस्सेल्लय-शाकम्। निशी० ४०आ। लूपणा धणाणं-धनानां लोपनां-परद्रव्याणां अवच्छेदनं | लूडित- लुण्डितः। आव० ३६५। अध-र्मदवारस्य षोडशमं ना। प्रश्न०४३। | लूणावेइ- लावयति। आव० २१२१ اوا मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [147] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] ५३ लूर्णेति-। ज्ञाता० ११६ लुंडिया- लिण्डिका। आव० ४१७ लूता- कुष्ठभेदः। आचा०७५ अवरदविगा। ओघ १३० लेख-विधा लिपिविषयभेदात्। सम० ८३। विसकुम्भो। निशी. ४८ अ। लेखनी-लेखिती-ययाऽक्षराणि लिख्यन्ते। जीवा. २३७। लूया- लूता-कोलिकपुटम्। बृह. २७८ अ। लूता अनुयो० १२३ कोलियकः। ओघ० १२६। लेच्छड़-लिप्सुकः वणिगादिः। सूत्र. २७८। लेच्छकिःलूयातंतुपुडग- लूतातन्तुपुटकम्। उत्त० ३२५ एतन्नामानो राजविशेषः। भग० ३१७। क्षत्रियविशेष लूषयन्- शनैः प्रमार्जयन्। ३२९। एव। सूत्र. २३६। लिप्सूः वणिग्विशेषः। स्था० ५०८। लूषयेत्- दशेत्। व्यव० १३३। लेच्छकी-राजविशेषः। औप. ५८१ भग० ११५, ४६३। लूसए- लूषयति-मुष्णाति व्यसकापादितमनिष्टमिति लेच्छकिनः- राजविशेषाः। राज०१२१। लूषकः। स्था० २६२। लूषयति-मुष्णाति। स्था० २६२। | लेच्छारिय- खरण्टितः। व्यव. २४६ आ। खरण्टितम्। लषयेत् स्वकं स्वत एव खण्डयेत्। दशवै०१७६ पिण्ड०७४। लिप्तम्। निशी० २२० । लूसग- लूषकः-विकल्पभेदः। दशवै० ५७। लूषकः-व्रतानां लेज्झ- लेह्य-मधुशिखरिणीप्रभृति। ज्ञाता० २३२। विध्वंसकः। आचा. २५३ लेड- लेष्टुः। प्रश्न० ५८1 लेष्टुः, विजातिरत्नम्। जम्बू. लूसण- लूषणं-हस्तादिना पनकादेः सम्मार्जनम्। औप० २१२२ लुहुअ-लेष्टुकम्। आव० २१८ लूसिए- लूषितः खड्गादिना। दशवै० २६७। लेण-लयनं-आश्रयः सत्त्वानाम्। स्था०४३० लयनंलूसिमो- रुष्यामः-रोषं कर्तुमर्हामः। बृह. २८७ अ। गृहम्। स्था०४५१। लयनं-पर्वतनिट्टिगृहम्। प्रश्न० ८। लूसेज्ज-विरोधयेत्। आचा० ३४४। लयन-शैलगुहम्। प्रश्न० १२७। लयनं-गुहा। उत्त०६४। लूसेमाणी- मुष्णन्ति। जीवा० ३६२। लयनं-उत्कीर्णपर्वतगृहः। भग० २३८१ लयनं-पर्वतनिलहे- रूक्षः-शरीरे मनसि च द्रव्यभावस्नेहवर्जितत्वेन क्कुटितगृहम्। जम्बू. १०७। लयनम्। दे० यस्स परुषः, लूषयति वा कर्ममलमपनयतीति लूषः। स्था० उवरिजं देवकुलं तं। निशी. १९२ आ। लयनं१८१। रूक्षः-संयमः। सूत्र०८८ रूक्षः। भग०४८४| रूक्षः- गिरिपर्वपाषा-णगृहः। ज्ञाता०८० अन्तप्रान्ताहारत्वेन रूक्षः। सूत्र. २९८ रूक्षः-स्नेहप- लेणसुहुम- लयनसूक्ष्मम्। स्था० ४३०| रित्यागात्। साधोरूपमानम्। दशवै० ८४। लेत्थारिय- लिप्तम्। ओघ. १४४। आगन्तुकस्नेहादि-रहितं, रामरहितपगताङ्गारम्। लेप- नाभिप्रमाणे उदकसंस्पर्श लेपः। व्यव० २५आ। आचा० १४४। स्वजनादिषु स्नेहविरहाद्रूक्षः साधुः। लेपकल्पिक-सूत्रोक्तप्रकारेण लेपं परिहरति-परिभोगयति दशवै. २६२। रूक्षः-निःस्नेहम्। स्था० २९८१ स लेपकल्पिकः। बृह. ८२आ। लेपकृतम्। बृह. २३८। तैलादिवीर्जतम्। स्था० २९८। रूक्षः-निःस्नेहः। ज्ञाता० । लेप्प- लेप्यं-मृत्तिकाविशेषः। प्रश्न० १६०| लेप्यं वज्रलेपा१११। रूक्षं-आगन्तुकस्नेहादिरहितं द्रव्यतो भावतोऽपि, दिश्लेषद्रव्यः। उत्त० ४६१। रागरहितमपगताङ्गारम्। आचा० १४४। रूक्षं लेप्पकम्म- लेप्यकर्म-लेप्यरूपकम्। अनुयो० १२ अप्रीणितम्। भग० १८९। रूक्ष-निःस्नेहम्। प्रश्न. १०६। लेप्यपुत्त-लिकादि। अनुयो० १२। रूक्षः-संयमान्निःसङ्गात्मकः। आचा० २५८। लेप्पकार- लेप्यकारः-शिल्पभेदः। अनुयो० १४९। लूहदेसिए- रूक्ष्यदेश्यं-रूक्षकल्पमन्तप्राप्तम्। आचा. लेप्पणवाण- लेप्यस्थानम्। आव० ४२२॥ ३१० लेप्पार-तुन्नाकविशेषः। प्रज्ञा०५६। लूहवित्ती- रूक्षवृतिः-संयमवृत्तिः। दशवै. १८७ लेप्यकर्म- लेप्यरूपकम्। अन्यो० १३। लेप्यकर्मलूहि-तित्थे चिट्ठति। निशी. १७आ। पुस्तकर्मम्। आचा०४१४१ लूहेति-रूक्षयति। आव० १२३॥ | लेलु- लोष्ठः। सूत्र० २९८1 लोष्टः। दशवै० १५२। लेष्टुः मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [148] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text]] १३९ इट्टालखण्डः। दशवै. २२८। लेष्टुः। पिण्ड० १०६। | श्लेषणता- पादमाकृष्य स्थितो यावत्तत्र वा तत्र वातेन लेलू- लेष्टुः। आव०६५६। पृथिवीशकलम्। आचा० ३३७ लग्नः, नृत्त्यं शिक्ष इति अतिनाभितं किञ्चिदङ्ग लेव- लेपः-नालन्दाबाहिरिकायां गाथापतिः। सूत्र०४०७ तत्रैव लग्नं वा, आत्मसंदेवनीया वातिकाः पैत्तिकाः लेपः-उदकमेव नाभिप्रमाणम। ओघ. ३ लेपः- नाभि- श्लेष्मिकाः सान्निपातिका वा। आव०४०५) प्रमाणजलम्। ओघ० ३२। लेपकः पात्रकाणाम्। ओघ० लेसणाबंध-श्लेषणा-इलथद्रव्येण द्रव्ययोः सम्बन्धनं १३० लेपः-नाभिप्रमाणमुदकम्। आव०६५६। लेपः- तद्रूपो यो बन्धः । भग० ३९८५ भोगपुरपाषाणादिनिष्पन्नः। पिण्ड० ९| लेपः-तक्रादिः। | लेसा-लेश्या-अध्यवसायविशेषरूपा। आचा० ३१ पिण्ड० ११७। लेपः-शकटाक्षादिनिष्पादितः पात्रगतः अध्यवसायः। आचा० २५८ अन्तःकरणरूपा। चित्तविपरिगृह्यते। उत० २६९। उपचयः। उत्त. २९६। लेपः-। प्लती। आचा० ३३२ लिश्यन्ते प्राणी कर्मणा यया। निशी० ७३ । लेपः-अवश्रावणादि। ब्रह० २२० लेपः- स्था० ३१। लेश्याम् इति लेश्या, दीप्तिः मण्डलम्। सम० नाभिमानं जलम्। बृह. १६१। लेपः-वत्थमालो। निशी ३०| कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यादात्मनः शुभाशुभपरिणामः। १२६ आ। लेपः-सुक्कजंघद्धाओ आरुभेऊण उवरिं जीवा० १५। लेश्याः-अन्तःकरणवृत्तयः तैजसीप्रभृतो जावणामि वुड्ढति एस लेवो भन्नति। निशी. ७८ आ। वा। आचा. २८२। श्लेषयन्त्यात्मानमष्टविधेन कर्मपेति लेवकडा- लेपकृता-अनायुक्ता। ओघ० १८६। लेश्याः-काया-दयन्यतमयोगवतः लेवण- लेपनः। आचा० ३६८ लेपनः-मलः। व्यव० १०४ कृष्णादिद्रव्यसम्बन्धादात्मनः परिणामः। आव. २० अ। कुद्दाणलिंपणं। निशी. २३० आ। लेश्या-अन्तःकरणवृत्तिः। सूत्र. १२०। लेश्या-देहवर्णः। लेवदाणं- लेपदान-पात्रकस्य कर्तव्यं लेपेन लेपनम्। ओघ. औप०५०। भग० १३ तजोलेश्या-दिका। औप० ९९। लेश्या-कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यजनित आत्मपरिणामः। लेवमाया- लेपमर्यादा-अलेपं संलिय। दशवै. १८२॥ विपा०५३। लेश्या-देहवर्णसुन्दरता। जीवा. १६२ लेश्यालेवाड- लेपकृत्। आव०८५७। रश्मिसङ्घातः। जम्बू०४६४| लेश्या-अन्तःकरणवृत्तिः। लेवालेव- लेपालेपः। आव० ८५४१ प्रश्न. १५७। लेश्या-तेजः। भग० ६५५। जम्बू. १०३। लेवि- सउणो पक्खी। निशी० ५११ सूर्य ७७। लेश्या-उत्तराध्ययनेषु लेववरि-लेपोपरि-परेण नाभेर्जलं यत्। ओघ० ३२ चतुस्त्रिंशत्तममध्ययनम्। उत्त० ९। दशवै०५८। लेपोपरि-जङ्घार्थ संघट्टो नाभिर्लेपः परतो लेपोपरीति। लेशयति-श्लेषयतीवात्मनि जननयनानीति लेश्या। आव०६५६| अतीव चक्षुरोक्षेपिका स्निग्धदीप्तरूपा छाया। उत्त. लेवोवरि-णाभींतो आरभेऊण उवरिं लेवोवरि भन्नति। ६५०। इत्थीमादि तदंगपरिभोगज्झवसाओ लेसा। निशी ७८ आ। निशी. १ | लेश्यालेश्या- अन्तः परिणामरूपाया शक्लादिका। स्था० ४२११ शक्लादिद्रव्योपहितजीवपरिणतिरूपा। जम्बू. २७९। लेस-लेश्या-भास्वरता। नन्दी०४५ लेशः-संश्लेषः। जीवा. लेश्या- आत्मपरिणामः। उपा० २६। २०७। श्लेषः-श्लेषद्रव्यम्। प्रश्न. १५३| लेसागई- यत्तिर्यमनुष्याणं कृष्णादिलेश्याद्रव्याणि लेसज्झयणं- उत्तराध्ययने चतःत्रिंशत्तममध्ययनम्। नीलादिले-श्याद्रव्याणि सम्प्राप्य तद्रूपादितया सम०६४१ परिणमन्ति सा लेश्या-गतिः। विहायोगतेरेकादशम लेसणं- श्लेषणं-ऊर्वादीनां जानुप्रभृतिभिः सम्बन्धः। भेदः। प्रज्ञा० ३२७ प्रज्ञा० ३२९| | लेसाणुवातगती- लेश्याया अनुपातः-अनुसरणं तेन गतिः लेसणता- आत्मसञ्चेतनीयोपसर्गे चतुर्थो भेदः। स्था० लेश्यानुपातगतिः। विहायोगतेद्वादशम भेदः। प्रज्ञा० ૨૮૦૧ ३२७ लेसणया- श्लेषणता-वङ्कगतेः तृतीयो भेदः। प्रज्ञा० ३२८१ | लेसिओ- श्लेषितः-पिष्टः, भूम्यादिषु वा लगितः। आव० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [149] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] २३०१ ५७३। लोइय-असंजयमिच्छादिढिलोगो धेप्पति। निशी०६३ लेसिज्ज- लेषयेत्-संश्लेषं कुर्यात्। आचा० ३४४। अ। असारम्। निशी. २७३ आ। लौकिकी-असंविलेसेइ- श्लेषयति-आत्मनि श्लिष्टान्। करोति। भग. ग्नलोकसम्बन्धिनी। प्रश्न. १३९ लोइया- लोलिकाः-इतिहासादिकर्तारः। दशवै. १२७। लेसेति-लेशयति-मनाक् स्पृशति। प्रज्ञा० ५९३। लोउत्तर- लोकोत्तरः-जैनः जम्बू०४९१। लेसेह- लषयथ। भग० ३८१| लोए- लोकः-पाखण्डिलोकः। दशवै० १०६। लोकः-जनः। लेस्सा लेश्याः-कृष्णादिभेदा अशुभाः शुभाश्च दशवै. १०६। लोक-रामायणादिकम्। दशवै० ११४। कषाययोगप-रिणामविशेषसमत्थाः। आचा०६८ लेश्या- लोकः-मनुष्यलोकः। दशवै० १९८1 लोकःलेशनात् संश्लेषणात् लेश्या। भग०४६। लेश्या प्राणिसङ्घातः। दशवै० २२२। लोक्यते-दृश्यते आत्मपरिणामवि-शेषः। भग० ८९। लेश्या-मनोवृत्तिः। केवलालोकेनेति लोकः-धर्मास्ति-कायादिद्रव्याधारभूत भग० १२३। लेश्या किरणरूपा। ज्ञाता० १७०| लेश्या- आकाशविशेषः। ठाण०१४। लौकः- लौकिकशास्त्रम्। प्रज्ञापनायाः सप्तदश पदम्। प्रज्ञा०६। लेश्या प्रथमः कुडङ्गः। आव०८५६। लोकःदेहवर्णसुन्दरता। प्रज्ञा०८८ लेश्या-लिष्यते आत्मा अर्द्धतृतीयद्वीपरसमुद्रपरिमाणः। दशवै०६८ कर्मणा सहानयेतिलेश्या-कृष्णादि जीवलोकः- भग०६७३। लोकःद्रव्यसाचिव्यादात्मनः परिणामविशेषः। प्रज्ञा० ३३०| रूपरसगन्धस्पर्शशब्दविषयाख्याः- आचा० ६४| आचा० जीवपरिणतिः। भग०६३१। लेश्या-योगपरिणामः। ६४। रूक्षः। आचा० ३५५। लोकः- पञ्चास्तिकाययम। प्रज्ञा०६०७। लेश्या-पौरुषाच्छाया। सूर्य. ९६। लेश्या- औप०७९। लोकः-जीवलोकः। ज्ञाता०६१। प्रकाश्यं वस्तु। सूर्य. ९६। लेश्या। सूर्य०७३। लोओ-लोकःलेस्सापए- लेश्यापद-प्रज्ञापनायाः सप्तदशमं पदम्। भग० | क्षितिजलानलानिलवननरनरकनाकितिर्यग-रूपः। प्रश्न. ३३॥ लोकः-प्रवचनबायो जनः। जम्बू. ४९१ लेस्सापद- लेश्यापदं- प्रज्ञापनायाः सप्तदशमं पदम्। लोकधर्म-"आपच्छिऊण गम्मइ क्लं सीलं च मणिअं भग. २०५ होइ। अभिजाओति अ भणणइ सो वि जणो माणिओ लेस्सापय- प्रज्ञापनायां लेश्यापदस्य दवितीयोद्देशकः। होइ।” बृह० २४० आ। भग०४६। लोकपडिपूरणा- इषत्प्रागभारस्यैकादशमनाम। सम० २२ लेह- लेखनं लेखः-अक्षरविन्यासस्तविषया कला-विज्ञानं । | लोकपाला- सोमादयः दिग्नियुक्तकाः। स्था० ११७। लेखः। जम्ब०१३७ लेखः-लिपिविषयभेदात्। दविधा। | कबिंदसार- लोके-जगति श्रुतलोके च अक्षरस्योपरिबि सम० ८३। रेखास्थं परिपूर्णम्। व्यव० ४५३ आ। न्दुरिव सारं-सर्वोत्तमं सर्वाक्षरसन्निपातलब्धिहेतुत्वात् लेहचेड- लेखदारकः। आव० ३५४। लोकबिन्दुसारम। नन्दी० २४१।। लेहत्थ- रेखा-पादपर्यन्तवर्तिनी सीमा तत्स्थम्। रेखास्थं | लोकविजओ- भावलोकस्य रागद्वेषलक्षणस्य विजयो सूर्य. १३३ निराक-रणं यत्राभिधीयते स लोकविजयः। स्था० ४४४। लेहसाला- लेखशाला-शिशुशिक्षणशाला। आव० ४२९। लोकसन्ना- शब्दाद्यर्थगोचरा विशेषावबोधक्रियैव लेहा- प्रथमाकला। ज्ञाता० ३८१ सज्ञायते अनयेति लोकसज्ञा-ज्ञानोपयोगः, अन्ये लेहाइया- द्वासप्ततिकलायां आदिमा। ज्ञाता० ३८ पुनः लोक-दृष्टि-लॊकस त्याहः। भग० ३१४। लेहायरिओ-लेखाचार्यः-उपाध्यायः। आव० १८२ लोकसार- अज्ञानाद्यसारत्यागेन लेहारिय- लेखहारकः। आव०७१० लोकसाररत्नत्रयोदयुक्तेन भाव्यमित्येवमर्थ लोकसारः। लोआययमय-लोकायतमतं-नास्तिकाभिप्रायः। दशवै. स्था० ४४४१ १२५ | लोकाग्र- मुक्तिपदम्। उत्त० ५८९। २०४। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [150] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] लोकान्तिकदेव तिर्यग्नरनारकनाकिलक्षणजीवलोकः। सम० ३। लोकःसारस्वता दित्य वह्नय रुणगईतोय५ सजिभव्यलोकः। सम० ३। लोकः- आत्मव्यतिरिक्तः तुषिता ६व्याबाधण्मरुताटरिष्ठाः९। स्था० ६२ धनपुत्रशरीरादिः। आचा० १७२। लोकः-षड्जीवनिकालोकायतिक-नास्तिकवादी। प्रश्न. ३११ यात्मकं कषायलोको वा। आचा० १७३। लोकः-शरीरलोकालोकः-लोके चतुर्दशरज्ज्वात्मके अलोको पुत्रदुहितृस्नुषाज्ञात्यादिः। आचा. १२९। लोक्यत इति लोकालोकः। आचा० १७०८ लोकः। दशवै०७०| लोकः-रामायणादिः। दशवै.११११ लोक्कइ-लोक्यते-निश्चीयते। भग. २४९। असंयतलोकः। आचा. २०७। भगवत्याः एकादशशतके लोगंतिता- लोकान्ते-लोकाग्रलक्षणे सिद्धस्थाने भवा दशम उद्देशकः। भग. ५१९। लोकः-लोक्यतेऽनेनेति लोका-न्तिकाः। स्था०४६३। लोकः-ज्ञानम्। आव० ७८९। लोकः- लोकशास्त्रं लोगंतिय- लोकस्य-ब्रह्मलोकस्य अन्ते-समीपे भवं तत्कृतत्वात् तदध्येयत्वाच्चार्थशास्त्रादिः। स्था० १७४। लोका-न्तिकं, लोकान्तिको व देवः। भग. २७२। भगवत्या द्वादशशतके सप्तम उद्देशकः। भग० ५५२। लोगंतिया- लोकान्तिकाः। आचा० ४२२। लोकस्य ब्रह्म- लोकः-भव्यसत्त्वलोकः, प्राणिलोकः, देशनायोग्यो लोकस्यान्तः-समीपं कृष्णराजीलक्षणं क्षेत्रं निवासो येषां विशिष्टः, उत्कृष्टमतिर्भवतिर्भव्यसत्त्वलोकः ते लोकान्ते वा-औदयिकभावलोकावसाने भवा पञ्चास्तिकायात्मको वा। जीवा० २५५। लोकः-जन्म। अनन्तरभवे मुक्तिगमनादिति लोकान्तिकाः प्रश्न० ८६। लोकः-मनुष्य-लोकः। आव० ५३८। लोकःसारस्वतादयोऽष्टधा। स्था० ११७। ब्रह्मलोककल्पे श्रेण्या गुणितं प्रतरम्। अनुयो० १७३। लोकःरिष्ठविमानप्रस्तरे वासिनो देवाः। ज्ञाता०१५०| उत्पत्तिस्थानं, देवगत्यादिपुण्यप्रकृत्युद-यविषयतया लोगंधकार-लोकान्धकारं। अन्धकारमेव। भग० २७० लौक्यत इति। उत्त०१८२ लोगंधगारेति- लोके अयमेवान्धकारो नान्योऽस्तीदृश लोगकंत- देवविमानविशेषः। सम० २५१ इति लोकान्धकारः। स्था० २१७। लोकगूड- देवविमानविशेषः। सम० २५ लोग- लोकयतीति लोकः-प्राणिगणः। लोगट्टिई-लोकस्थितिः-लोकानभावः। जीवा० ३२६) चतुर्दशरज्ज्वात्मकः प्राणिगणो वा। आचा० २२लोकः- | लोगद्विती- लोकस्य-पंचास्तिकायात्मकस्य स्थितिःप्राणिसङ्घातः। आचा. २३। लोकः-अप्कायलोकः। स्वभावो लोकस्थितिः। स्था०४७११ आचा० ४४। लोकः- अग्नि-कायलोकः। आचा. ५१| लोगठिती- लोकस्थितिः-लोकव्यवस्था। स्था० १३२ लोक-लोक्यत इति लोकः-लोकालोकस्वरूपः। लोक्यत । लोगतमिस्स- लोकतमिश्र-अन्धकारम्। भग० २७०। इति लोकः। लोकः-विशिष्ट-तिर्यङ्नरामरूपः। भग०७१ लोगदव्व- लोकस्यांशभूत द्रव्यं लोकद्रव्यम्। स्था० ३३३ लोकः-एकेन्द्रियादिप्राणिगणः। लोगनाह- लोकस्य-सज्ञिभव्यलोकस्य नाथः-प्रश्र्लोकविशिष्टतिर्यग्नरामररूपः। सम० ३। लोकस्य लोक्यते नाथः। भग० ८ सम० ३। लोकनाथः-संज्ञिभव्यलोकस्य इति लोकः। सम० ३। लोक्यते-दृश्यते केवलालोकेनेति योगक्षेमकारकः। भग०७ लोकस्य-भव्यलोकस्य लोकः-लोकालोकस्वरूपं वस्तु। सम०१८ सज्ञिभ- नाथः-योगक्षेमकृत् लोकनाथः। जीवा० २५५ व्यलोकः। भग० ८। लोक्यते-केवलिना दृश्यत इति लोगनिक्कुड- लोकनिष्कुटम्। प्रज्ञा० २३१॥ लोकः। अनयो० २३६। त्रयोदशमसागरोपमस्थितिकं लोगनिक्खुड- लोकनिष्कुटः। प्रज्ञा० ७७। देवविमानम्। सम. २५ लोकं-पञ्चास्तिकायात्मकम्। लोगपईव- लोकस्य-देशनायोग्यस्य विशिष्टस्य प्रदीपःआव. ५०० लोकः-लोकात् लभ्यं भिक्षामात्रादिकम्। देश-नांशुभिर्यथाऽवस्थितवस्तुप्रकाशको लोकप्रदीपः। पिण्ड० ९३। लोकः-उत्कृष्टमतिः। राज० १०९। जीवा० २५५। लोकस्यप्राणिलोकः पञ्चास्ति-कायात्मको वा। राज०१०९। विशिष्टतिर्यग्नरामररूपस्यान्तरतिमिरनिकलोकः-मनुष्यलोकः। दशवै. ३० लोकः रनिराकरणेन प्रकृष्टपदार्थप्रकाशकारित्वात्प्रदीप इव मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [151] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] प्रदीपो लोकप्रदीपः। सम० ३। भग०८1 लोगसण्णालोगपज्जोअगर- लोक्यते इति लोक इति व्युत्पत्त्या मतिज्ञानादयावरणक्षयोपशमाच्छब्दार्थगोचरा लोका-लोकस्वरूपस्य विशेषावबोधक्रियैव संज्ञायतेऽनयेति लोकसंज्ञा। स्था० समस्तवस्तुस्तोमस्वभावस्याखण्डमार्तण्ड-लमिव ५०५। लोकसंज्ञा-स्वच्छन्दघटितविकल्परूपा लौकिकानिखिलभावस्वभावावभासनसमर्थकेवलालोकपूर्वक- चरिता। आचा० १२ प्रवचनप्रभापटलप्रवर्तनेन प्रदयोत-प्रकाशं लोगसन्ना- लोकसज्ञा-ओघसज्ञाविशेषावबोधक्रिया। करोतीत्येवंशीलो लोकप्रद्योतकरः। भग०८ सम० ३। ज्ञानोपयोग इति। लोकस्य हेया प्रवृत्तिर्वा। प्रज्ञा० २२२१ लोगपज्जोद्योयगर- लोकस्य लोकसंज्ञा-विषयपिपासा संज्ञिता धनायाग्रहग्ररूपा वा। उत्कृष्टमतेर्भव्यसत्त्वलोकस्य प्रद्योतनं प्रद्योतः आचा०१५८ प्रदयोतकत्वं- विशिष्टज्ञानशक्तिकरः। जीवा. २५५ लोगसार- लोकस्य-चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्य सारः-परमार्थो लोगप्पदीव- लोकप्रदीपः लोकसारः। आचाराङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धे विशिष्टतिर्यनरामराणामन्तरति-मिरनिराकरणेन पञ्चममध्ययनम्। आचा० १९६। स्था० ४४४। प्रकृष्टप्रकाशकारकः। भग०७ लोगसिंग-देवविमानविशेषः। सम. २५ लोगप्पभ-देवविमानविशेषः। सम० २५ लोगसिट्ठ-देवविमानविशेषः। सम० २५ लोगबज्झ- लोकबाह्यः-जनवर्जनीयः। प्रश्न०६१। लोगहिऊ- लोकस्य-एकेन्द्रियादिप्राणिगणस्य हितःलोगमज्झावसाणिअ- लोकमध्यावसानिकम्। आत्यन्तिकतद्रक्षाप्रकर्षप्ररूपणेनानुकलवर्ती लोकहितः। चतुर्थोऽभिन-यविधिः। जम्बू०४१२। सम० ३। लोगमज्झावसाणिय- चतुर्थोऽभिनयविधिः। जीवा. २४७। | लोगहिओ-लोकस्य-प्राणिलोकस्य लोगमत्थयत्थ- लोकमस्तकस्थः-त्रैलोक्योपरिवर्ती। पञ्चास्तिकायात्मकस्य वा हितोपदेशेन सम्यक दशवै०१५८ प्ररूपणाया वा हितः लोकहितः। जीवा० २५५ लोगय- लोकं-स्थानम्। सूत्र०७४। लोगहिय- देवविमानविशेषः। सम० २ लोगरूव-देवविमानविशेषः। सम० २५ लोगा- लोकौ-जन्मनि। प्रश्न०८६ लोगलेस-देवविमानविशेषः। सम० २५। लोगागासछिद्द- लोकाकाशछिद्रः। प्रज्ञा० ७७। लोगवण्ण-देवविमानविशेषः। सम. २५१ लोगाणुभाव- लोकानभावः-लोकमर्यादा। स्था० २५३। लोगवत्ती- लोकतप्तिः । आव. २६२१ लोगावत्त- देवविमानविशेषः। सम० २५१ लोगवाओ- लोकाना-पाखण्डिनां पौराणिकानां वा वादो लोगत्तम- लोकस्य-तिर्यनरनारकनाकिलक्षणजीवलोकलोकवादः-यथास्वमभिप्रायेणान्यथा वाऽभ्युपगमः। स्योत्तमःसूत्र०४९। चतुस्त्रिंशब्दुद्धातिशयाद्यसाधारणगुणगणोपेततया लोगविजओ-लोकविजयः-आचारप्रकल्पे सकलसुरासरखचरनरनिकरनमस्यतया च प्रधानो प्रथमश्रुतस्कन्धस्य द्वितीयमध्ययनम्। प्रज्ञा० १४५ लोको-त्तमः। सम० ३। लोकस्य-भव्यसत्त्वलोकस्य लोकविजयः-आचारङ्गस्य द्वितीयमध्ययनम्। सम० सकलक-ल्याणैकनिबन्धनतया भव्यत्वभावनोत्तमो ४४। उत्त०६१६। लोकोत्तमः। जीवा० २५५। लोकोत्तमः-भावलोकादेः लोगविजय- लोकविजयः-आचारङ्गस्य प्रथमश्रुतस्कन्धे प्रधानः। आव०५७० द्वितीयमध्ययनम्। आचा०८३। स्था० ४४४। | लोगत्तर- लोकस्योत्तराः-साधवः, लोकस्य वोत्तरं-प्रधानं लोगवित्तं- लोकवृत्तं लोकोत्तरं-जिनशासनम्। अन्यो० २६। लोकोत्तरःआहारभयमैथुनपरिग्रहोत्कटसंज्ञात्मकम्। आचा. २०७। | लोकप्र-धानः। दशवै० २३ लोकस्य-असंयतलोकस्य वित्तं-द्रव्यम्। आचा. २०७४ | मोगत्तरवडिंसग-देवविमानविशेषः। सम० २५ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [152] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] पदा लोगोवयारविणओ-लोकोपचारविनयः-लोकपक्तिफलः, न प्रवर्तनम्। स्था० ३१६ अर्थनिमित्त विनयश्च। उत्त. १७। लोकोपचारविनयः- | लोभणिज्जा- लोभनीयाः-गृद्धिजनकाः। उत्त. २२७। लोकप्रतिपत्तिफलः। दशवै. २४०। लोकानामुपचारो- लोभनिस्सिय- लोभनिसृता-मषाभाषाभेदः। दशवै० २०९। व्यव-हारस्तेनन स एव वा विनयो लोकोपचारविनयः। | लोभवत्तिए- लोभप्रत्ययः। दवादशं क्रियास्थानम्। सम० स्था०४०९। २५ लोगोविजओ-लोकविजयः- आचारप्रकल्पस्य दवितीयो | लोभसन्ना- लोभोदयाल्लोभसमन्विता भेदः। आव० ६६० सचित्तेतरद्रव्यप्रार्थनैव सज्ञायतेऽनयेति लोभसज्ञा। लोचकम- कूर्चमुण्डनादि। बृह. २९५आ। भग० ३१४१ लोचना- गुरुपुरतः प्रकाशना। भग० ७२७। लोभहेतोः- वधाद्विरतः। आचा० १६४। लोट-सिलापुत्तओ। दशवै७९। लोभातिरेग-लोभातिरेकः-लोभाभिप्रायः। ओघ. १९३। लोट्ट- रोट्टः-कुट्टिताः तद्नुलाः। ओघ० १३४। रोट्टः-पिष्टः। लोभिल्ल- लोभवान्। ओघ. ९८१ दशवै. २८५ निशी. १९६ अ। लोट्टः-ककट्कः । आव. लोमंथिय- मल्लः। नटः। आव० ४२६। ઈરરા. लोम- आहारभेदभिन्नः। स्था० ९३। लुनं लीयते वा तेषु लोट्टिय- कुमारकावस्थः हस्ती। ज्ञाता०६३। यूका इति लोमानि। उत्त० २५४१ लोढ- शिलापुत्रकम्। दशवै० १७२। यव्यवं। ओघ० १६६। लोमठिक- कोकन्तिकः। आरण्यजीवविशेषः। जीवा० ३८ लोढणी- यन्त्रविशेषः। ओघ. १६६। लोमपक्खी- लोमात्मको पक्षौ विद्यते यस्य सः लोण- लवणम्। आव०६२० ओघ. १३०| पृथिवीभेदः। लोमपक्षी। जीवा०४१। लोमपक्षी-लोमात्मकौ पक्षौ आचा० २९। लवणं-साम्भरिलवणम्। दशवै० ११८ लोमपक्षौ तदवन्तः। प्रज्ञा० ४९। लोमपक्षी-हंसादिः। लवणं-सामुद्रादि। प्रज्ञा० २७ स्था० २७३। लोमपक्षीः। सम० १३५१ लोणभाव- लवणभावः-क्षारभावः। आव०५२२॥ लोमपक्षः-लोमात्मकः पक्षः लोमपक्षः। प्रज्ञा०४९। लोणित-सलवणम्। आव. ९० लोमसिया-चिभर्टिका। आव०४१७ लोद्दणक-उदकाश्रितजीवाः। आचा०४६| लोमसियाओ-त्रपुष्यः। निशी० १५१ अ। लोद्ध-लोद्रः(द्धः)-वृक्षविशेषः। प्रज्ञा० ३२ भग० ८०३। लोमसी-अपया। निशी० ३। लोध्रः-वृक्षविशेषः। ज्ञाता०६५। लोमहत्थ- लोमहस्तकः-मयूरपिच्छपुजनिकः। जम्बू. लोद्धयदिढतभाविया- लुब्धकदृष्टान्तभाविताः। ८२। लोमहस्तक-मयूरपुञ्जनिकः। राज० ९६| श्रमणोपासके द्वितीयो भेदः। स्था० ११० लोमहत्थग- लोमहस्तकः-मयूरपिच्छपुजनिकः। जीवा. लोभ-लोभे निश्चितं वणिक २३४१ प्रभृतीनामन्यथाक्रीतमेवेत्थंक्रीत-मित्यादि। | लोमहत्थचंगेरी- लोमहस्तचङ्गेरी-मयूरपिच्छपुञ्जनिका दशविधमृषाभेदे चतुर्थः। स्था० ४८९। लोभः चंगेरी। जीवा० २३४॥ पिण्डदोषविशेषः। पिण्ड० १२१। लोभः- गार्दध्यलक्षणः। लोमहत्थय- लोमहस्तकम्। जीवा० २५६। जीवा. १५। लोभः-मूर्छाः। प्रश्न०४श लोभः-चित्तवि- लोमहरिस- रोमहर्षः-रोमोद्धर्षः। जीवा० १०७। लोमहर्षःमोहनम्। प्रश्न. ९७। तृष्णापरिगृहपरिणामः। आचा० लोमोद्धर्षः। प्रज्ञा० ८११ भयविकारः। स्था० ४६१। १७०। लोभनं-अभिकाङ्क्षणं लभ्यते वाऽनेनेति लोभः। | लोमहार- प्राणहारः। उत्त० ३१२। लोम-रोमं हरतिस्था० १९३। द्रव्याद्यभिकाङ्क्षा। उत्त० २६१। गाय- अपनयति प्राणिनां यः स। उत्त० ३१२ मभिकाङ्क्षा। उत्त० २९७। नवमपापस्थानकम्। ज्ञाता० | लोमावहार- लोमान्यवहरति यः स लोमावहारः। ७५ लोभः-अभिष्वङ्गः। दशवै. १८७। निःशूकतया भयेन परप्राणान् विनाश्यैव भष्णाति यः लोभक्रिया- यल्लोभाभिभूतस्य सावद्यारम्भपरिग्रहेषु सः लोमावहारः। प्रश्न०४६| मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [153] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] लोमाहार- लोमाहारः-खल्वोघतो वर्षादिषु यः लोयायय- लोकायतः-नास्तिकवादी। दशवै.५१।। पुद्गलप्रवेशः स मूत्राद् गम्यत इति। भग० २७) लोयावादी- लोकः-प्राणिगणस्तं वदितं शीलमस्येति लोमभिराहारः लोमाहारः। प्रज्ञा० ५०७। लोकवादी। आचा० २२। लोकः-चतुर्दशरज्वात्मकः लोय- लोकः-बाह्य अभ्यन्तरश्च, तत्र बाह्यो प्राणिगणो वा तत्रापतितुं शीलमस्येति लोकापाती। धनहिरण्यमात-पित्रादिः, आन्तरस्तु आचा० २२ रागद्वेषादिस्तत्कार्यं वा अष्टप्रकारं कर्म। आचा० | लोल- रत्नप्रभानरके नरकावासाः। स्था० ३६५। लोलः-व्रते १४५ असंयतलोकः। आचा० १४४। इन्द्रियानुकूलं चञ्चलः। प्रश्न. १२० लोलः-चञ्चलः। स्था० ३७३। रसादयुपेतमुच्यते। आचा० ३३६। लोकः-गृहस्थलोकः। लोलः-यद् भूमौ करे वा प्रत्यपेक्षमाणवस्त्रस्य लालनम्। आचा० १४८ लोकः-भूतग्रामः। आचा० १६५। लोकः- उत्त० ५४१। लोलः-अप्राप्तप्रार्थनपरः (भिक्षुः)। दशवै. यथावस्थितजन्तुलोकः, तदाधारं वा क्षेत्रम्। आचा० ર૬૮. १५४१ ज्ञाता०६० लोकः-षड्जीवनिकायः। आचा० १५३। | लोलइ-लोलयति-लोटते। पिण्ड० १२४ लोकः-पञ्ञ्चास्तिकायात्मकः-लोक्यते-प्रमीयत इति | लोलग- ललिगो। निशी. १४ आ। लोक इति व्युत्पत्त्या लोकालोकरूपः। स्था० ३९| लोलति- लुठति। आव० ३५८१ लोयइ- रोचते। बृह. २८३ अ। लोलयति- कलुषयति। बृह० ५५ अ। लोयग- लोवर्ग-निर्गुपामशनादि। बृह. १७८ अ। लोलया- लोलता। आव० ४२११ लोयग्गं-कोकाग्रं लोकाग्रे वर्तमानत्वात्। प्रज्ञा० १०७। लोलयासढे- लोलता-पिशितादिलाम्पटयं लोकाग्रं-ईषत्प्राग्भाराख्यम्। आव० ७८९। तद्योगाज्जन्तुरपि तन्मयत्वख्यापनार्थं लोयग्गथुभिय- लोकाग्रस्तूपिका-लोकाग्रस्य स्तूपिकेव। लोलतेत्युक्तः। शाठ्ययोगाच्छठःईषत्प्राग्भाराया नवमं नाम। प्रज्ञा० १०७| विश्वस्तजनवञ्चकः। उत्त० २८० लोयग्गपडिवाहिणी- लोकाग्रप्रतिवाहिती लोकाग्रेण लोला- भूमौ लोलते हस्ते वा पुनः पुनर्लोलयति प्रत्युह्यत इति। ईषत् प्राग्भाराया दशमं नाम। प्रज्ञा० प्रत्युपेक्षयन्। ओघ० ११०| लोलयति प्रत्यपेक्षमाणः। ओघ० ११०| लोलत इति, चञ्चला(प्रत्युपेक्षणा)। ओघ. लोयट्टिई- लोकस्थितिः लोकव्यवस्था। भग. १८६। ११०| लोलाः- लम्पटाः। उत्त० ५९० लोयणा- लोचना-सर्वकामविरक्तताविषये देवलास्तराज्ञी। | लोलिक्कं- लौल्यं-अधर्मद्वारस्याष्टमं नाम। प्रश्न०४३। आव०७१४१ लोलियं-लोठितम्। आव० १०२। लोयनाभी-लोकस्य-तिर्यग्लोकस्य स्थालप्रख्यस्य लोलिया- लौल्यम्-लौलप्यम्। आव० ८३१| नाभिरिव -स्थालमध्यगतसमुन्नवृत्तचन्द्रक इव | लोलुए- रत्नप्रभानरके नरकावासः। स्था० ३६५) लोकनाभिः। सूर्य ७८१ लोलुप्यमान- लालप्यमानम्। उत्त० ४००। लोयफूड- लोकेन-लोकाकाशेन सकलस्वप्रदेशैः स्पष्टो लोलेति-लोलयति। आव०६५११ लोकस्पृष्टः। भग० १५११ लोष्टक- मृतपिण्डः। नन्दी० १५० लोयमज्झ- लोकस्य-तिर्यग्लोकस्य समस्तस्यापि मध्ये | लोष्टकप्रधान- वर्लकवरः। भग० ७६७। वर्तते इति लोकमध्यः। सूर्य० ७८1 लोह- लोभक्रिया-लोभाय यत्करणं, क्रियाया द्वादशमो लोयमेत्त- लोकमात्र-कोकपरिमाणम्। भग० १५१। ___ भेदः। आव०६४८ लब्धवस्तुविषयगृयात्मकम्। उत्त. लोयसंजोग-लोकसंयोग-लोकेनासंयतलोकेन संयोगः- ६६४। भग०८०४१ सम्बन्धः ममत्वकृतः। आचा० १४४| लोहकंटिया-संडासओ। निशी. १८आ। लोयाणी- साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः। प्रज्ञा० ३४। | लोहकडाह- लोहकटाहं-कवेल्ली। भग. २३८१ लोयाणुभाव- लोकानुभावः-लोकप्रभावः। भग० १८६| | लोहकडाहि- लोहमयं बृहत्कडिल्लम्। अनुयो० १५९ اواهم ८1 मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [154] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] लोहकाराम्बरीषः- लोहकारकोष्टकः । जीवा० १२४ | लोहग्गल - राजधानी यत्र जितशत्रू राजा । आव० २१० | लोहार्गल : नगरविरेषः, वज्रजड़घराजधानी आव० १४६ । लोहग्गलणगरसामी- लोहार्गलनगरस्वामी आगम-सागर- कोषः ( भाग : - ४ ) वज्रजङ्घनामराजा । आव० ११६ । लोहजंघ- द्वितीयः प्रतिवासुदेवः सम० १५४ लोहजइङ्घःप्रयोतस्य लेखहारकः। प्रथमं रत्नम् । आव० ६७३ | लोहदंड- लोहदण्डम् । आव० ३८३ | लोहनिस्सिया- लोभनिसृता-यल्लोभाभिभूतः कूटतुलादिकृत्वा यथोक्तप्रमाणमिदं तुलादीति वदतो भाषा । प्रज्ञा० २५६ । लोहप्पा लोभात्मा-लोभस्वभावः परिग्रहस्य त्रयोदशम १७२ आ । लोहि कन्दविशेषः । उत्त० ६९१ | लोही मण्डनकादिप चनिका कविल्ली। अनुयो. १५९। लोहिअक्ख पद्मरागः । जम्बू० ४८, २०१ लोहि अक्खमणी- लोहिताक्षमणिर्नाम रत्नविशेषः । जम्बू० ३४| लोहिच्च- लौहित्यं-र्लाहित्यायनम् । आर्द्रागोत्रम्। जम्बू० ५००| लोहिच्चायणसगोत्त- लौहित्यायनसगोत्रम् । सूर्य० १५० | लोहिणी- साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः । प्रज्ञा० ३४१ लोहितंक- लोहिताइकः त्यकः । सूर्य० २९४१ लोहितक्ख- चमरेन्द्रस्य मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] महिषानीकस्याधिपतिदेवविशेषः । स्था० ३०२ लोहिताक्षकाण्ड-चतुर्थं लोहिताक्षानां विशिष्टो भूभागः । जीवा० ८९| नाम | प्रश्न० ९२ लोहबद्ध लोहवर्धः अयश्चर्मरज्जुकः । जम्बू. २११। लोहसंकला- लोहसङ्कला । प्रश्र्न० ५६ । लोहसंघाडय लोहशृङ्गाटकम् । आव. ६७१। लोहसन्ना- लोभवेदनीयोदयतो लालसत्वेन सचित्तेतरद्रव्यप्रार्थना लोभसञ्ज्ञा । प्रज्ञा० २२२ ॥ लोहा लोभा लोभानुगता। आव० ५६४८१ लोहारओ लेखहारकः दूतः आव• ६७३३ लोहारकुट्टी आसेवेसणं । निशी० ६९आ। लोहियक्खकूड लोहिताक्षकूटं लोहितरत्नवर्णत्वात्। गन्धमा-दनवक्षस्कारपर्वते षष्ठः कूटः । जम्बू० ३१३ | लोहारघर- लोहकारगृहम् आव० २२४५ लोहारबरिसा- लोहाकारस्याम्बरीषा-भ्राष्टा आकरणानीति लोहियपत्ता- चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः। जीवा॰ ३२\ प्रज्ञा॰ लोहाकाराम्बरीषा स्था० ४१९६ ४२ लोहार्यगोतम अन्येनापि भक्तिकर्तव्ये दृष्टान्तः । व्यव लोहितक्खमणी- लोहितक्षमणिः रत्नविशेषः । जीवा. १९१| लोहिताक्षमणिः-लोहिताक्षनामरत्नविशेषः । प्रज्ञा० ३६१| लोहितक्खरयणपडिसेओ- लोहिताक्षरत्नप्रतिषेकः । जीवा० २३४| लोहितपाणी- लोहितौ पाणी अग्रिमौ पादौ लोहितपाणी । ज्ञाता० ९७ । लोहितपूयपाई लोहितं रुधिरं पूयं रुधिरमेव पक्वं ते वे अपि पक्तुं शीलं यस्या सा लोहितपूयपाचिनी कुम्भीविशेषः । सू० १३३ | लोहिताक्ष- लोहिताङ्कः- अष्टाशीतौ महाग्रहे तृतीयः । जम्बू. ५३४१ लोहियक्ख- लोहिताक्षं रत्नविशेषः । प्रज्ञा० ९९| लोहिताक्षः पृथिवीभेदः । मणिभेदः । आचा० २९ | अष्टाशीतौ महाग्रहे तृतीयः स्था• ७८] लोहिताक्षो मणिभेदः । प्रज्ञा० २७| लोहिताक्षो मणिभेदः । उत्त० ६८९ | लोहिताक्षरत्नः। जाता० ३१| लोहियपाणि- लोहितौ रक्तो रक्ततया पाणि-हस्तौ यस्य स तथा । ज्ञाता० २६८ लोहिया गोत्रविशेषः कौशिकगोत्रस्य एकशाखा स्था ३९० | लोही वनस्पतिजीवविशेषः । आचा० १७ लौहीमण्डकादि पचनिका। भग० २३८। लौही-अनन्तकायभेदः । भग० ३००| भग० ८०४ | लौही लोढीतिप्रसिद्धः आव० ६५१| लोहीलो कवल्ली। निशी. ३१७ अ लोहीसंठितो- लोहीसंस्थितः- आवलिकाबाह्यस्य चतुर्थं संस्थानम् जीवा. १०४ | लौही वनस्पतिकायिकभेदः । जीवा० २७॥ ल्हसिय. म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा० 941 ल्हसूण- लसुनकन्द वनस्पतिविशेषः प्रज्ञा० ३७ | [155] "आगम- सागर- कोषः " [४] Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] ल्हादि ल्हादन औणादिक इ प्रत्ययः प्रल्हति । व्यव० ६३अ । ल्हासिव ल्हासिकः- चिलातदेशनिवासीम्लेच्छविशेषः । प्रश्न० १४| आगम - सागर - कोषः ( भाग : - ४) - X - × - × - X व वंक- वक्रः-असंयमः कुटिलः । आचा० ६४॥ वङ्कं वक्रम्। भग॰ ३०८। वङ्कः-वक्रः, फलादौ विपरीतः, कुटिलः। स्था० १८३। वक्रः-असंयतः । व्यव० ८आ। वङ्कं वक्रम्। आव० ६४२। वड्को - वक्रः । ज्ञाता० १५७। वक्रः वचसा । उत्त० ६५६ । वंकड वक्रम्। उत्तः पाटा वकणया वड़कनता-वक्रीकरणं, वञ्चनता। स्था० ४२१ कति वक्तव्यति बाधयतीत्यर्थः । व्यव० १२५ आ । वंकसमायार- क्रियया वक्रसमाचारः । उत्त० ६५६ । वक्रसमाचारः-असंयमानुष्ठायी। आचा. ६४। वंका- वक्रा । प्रज्ञा० ३२९ | वंकानिकेया- वकस्य असंयमस्य आ मर्यादया संयमावधि-भूतया निकेतभूता, आश्रया, वड्को वा निकेत येषां ते वङ्कानिकेता। आचा० १८४ | वंग- त्रपुकम्। प्रश्र्न० १५२। व्यङ्गं-सलाञ्छनम्। भग॰ ३०८| देशविशेषः । भग० ६८० । वङ्गाः जनपदविशेषः । प्रज्ञा० ५५| वंगुड- कर्पूरः। निशी० १२४ अ वंगुरिते उद्घाट्यताम् बृह० २५ आ वंचण वञ्चनं वत्सस्यान्यमातरि योजनम्। प्रश्न. ३८१ वञ्चनं प्रतारणम् । जाता० ७९॥ वञ्चनं प्रतारणम् । ज्ञाता० २३८] वञ्चनं प्रतारणम् । सूर्य- ३२९॥ वंचणया वञ्चनता प्रतारणम्। ऑप. ८१| वंचणा- वञ्चना। अधर्मद्वारस्यैकादशमं नाम । प्रश्न २६| वंचे वञ्चति पल्युञ्चति । आव ०६६। वंजण व्यञ्जनं मषतिलकादिकम, पश्चाद् भव व्यञ्जनम् भग० २१९| व्यञ्जनं मषतिकलादि । जम्बू० ११३। व्यञ्जनं- अक्षरम् । भग० ६ । व्यञ्जनंतीनादिप शाकं । पिण्ड० १७ । व्यञ्जनं शालनकम् । तक्रादि वा । भग० ३२६ । व्यञ्जनं-उपकरणेन्द्रियम् । नन्दी० १६९ | व्यंजनं उपस्थरोमम् । व्यव० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] ४५३ आ । व्यञ्जनं मषतिलकादि। ज्ञाता० ११ | व्यञ्जनं व्यजतेऽनेनार्थः । प्रदीपेव घट इति व्यञ्जनंतच्चोपकरणेन्द्रियं शब्दादित्वपरिणतद्रव्यसड़घातो वा स्था० ५१ व्यञ्जनं इन्द्रियशब्दादिद्रव्यसम्बन्धः । स्था० ५१ | व्यञ्जनं मषादि। स्था० ४२८ । व्यञ्जनंअर्थज्ञापकः, सम्बन्धः । नन्दी० १६८ । व्यञ्जनंउपकरणे-न्द्रियम्। नन्दी० १६९| व्यञ्जनंभाष्यमाणाकारादिवर्णजा-तम् । नन्दी० २८८। व्यञ्जनंमषतिलकादिः। अनुयो० १५७ | व्यञ्जनं- तिम्मणं । ओघ० १३३ । व्यञ्जनं तक्रशाकादिकम् । पिण्ड० १७५ | व्यञ्जनं मषतिलकादिः । स्था० ४६१ व्यंजयतीति व्यंजणं तं च अक्खरं निशी ९आ पच्छाजायें। निशी० ६१| अ | अर्थाभिव्यञ्जकत्वादत्र पदम् । बृह० १३० अ मसादिकं वंजणं, अहवा पच्छा समुप्पण्णं. वंजणं | निशी० ८५आ। व्यञ्जनंमषादि। आव० ६६० | व्यञ्जनं - प्रसस्ततिलकादि। उत्त० ४८९ । व्यञ्जनंतिलकमषकादि। सम० १५७ । व्यज्यतेऽनेनार्थः प्रदीपेनेव घट इति व्यञ्जनं तच्चोपकरणेन्द्रियं शब्दादिपरिणतद्रव्यसड़घातो वा भग० ३४४] व्यञ्जनं व्यज्यते- आविष्क्रियतेऽर्थोऽनेनेति व्यंजनं शब्दः । आचा० २०२| व्यञ्जन-शब्दः । सूत्र० ५। व्यञ्जनंतिलकमषादि-कम् । सूत्र० ३१८८ व्यञ्जनंमतिलकादि । जीवा० २७४॥ व्यञ्जनं तक्रादि शालनक वा | प्रश्न. १५३ | व्यञ्जनं शब्दः । आव० ६०७ | व्यञ्जनं शब्दः । आव० २८४ व्यज्यतेऽनेनार्थ इति व्यञ्जनं तच्च उपकरणेन्द्रियस्य शब्दादिपरिणतद्रव्याणां च यः परस्परं सम्बन्धः । प्रज्ञा० ३११ | व्यञ्जनं-त्रिविधप्रत्याख्यानचिन्तायां चतुर्विध इत्येवमादि। आक• ८५१] व्यञ्जनं पुद्गलः। आव ४६२॥ व्यञ्जनं द्रव्यम् । आव० ४६३ । व्यञ्जनंमषादिव्यञ्ज नफलोपदर्शक शास्त्रम् सम० ४९॥ व्यञ्जनं-शालनकं तक्रादि। सूर्य० २९३। व्यजनंतिलकमषादि। प्रश्नः ७४ व्यञ्जनं- शब्दरूपम् आव २६५ | वंजणपरिआवन्नं व्यंजनं शब्दस्तस्य पर्यायः अन्यथा भवनं व्यञ्जनपर्यायः तमापन्नं प्राप्तंव्यञ्जनपर्यायापन्नम्। उत्त० २०२ [156] "आगम- सागर-कोषः " (४) Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] ४६२१ वंजणपरियावन्नं- व्यजनपर्यायापन्न-कथञ्चित् जीवा० २५६। प्रागवस्थापरि-त्यागेनावस्थान्तरापत्तिरित्यर्थः। आव० | वंदओ- वन्दितुम्। आव०४८७। वंदण- वन्दन-अभिवादनम्। जम्बू० ३९८। वन्दनं-परिशुद्धं वंजणलद्धि-व्यञ्जनं-अक्षरं तस्य लब्धिः व्यञ्जनलब्धिः वन्दनम्। आव० ५२४। वन्दनं-अभिवादनं प्रशस्तकायतथा-विधकर्मक्षयोपशमः। उत्त०५८४| वाङ्गमनःप्रवृत्तिः। आव०७८७ वन्दनं-अभिवादनम्। वंजणुग्गह- व्यञ्जनावग्रहः-सम्बन्धावग्रहः। नन्दी. आव० ८११। वन्दनं-स्तुतिः। भग० ११५ वन्दनं शिरसा। १६८ व्यञ्जनावग्रहः-शब्दादिरूपतया आव०४०६। ज्ञाता०४४। वन्दनं-अभिवादनम्। राज. परिणतद्रव्याणामव्यक्तरूपः मव्यक्तरूपः परिच्छेदः। २७। सिरं बारसावत्तं। निशी० २३७ आ। सिरप्पणानन्दी. १६८ व्यञ्जनावग्रहः-अवग्रहे प्रथमो भेदः। मादि। दशवै. १६३। वन्दनः-माङ्गल्यः। ज्ञाता० १२ नन्दी . १७४। वन्दनं-नमस्तुभ्यमित्यादिवाचाऽभिष्टवचनम्। उत्त. वंजणोग्गह- व्यंजनावग्रहः-व्यञ्जनेन-उपकरणेन्द्रियेण ૬૬૮1. शब्दादित्वपरिणतद्रव्याणां व्यञ्जनानामवग्रहो वंदणकलश-वन्दनकलश:-मङ्गलकलशः। जीवा०२२७) व्यञ्जनावग्रहः। स्था० ५१। व्यंजनेन सम्बन्धेनावग्रहण वन्दनकलशः-माङ्गल्यघटः। जम्बू०७६। सम्बध्यमानस्य शब्दादिरूपस्यार्थस्याव्यक्तरूपः। वंदणकलसहत्थगय- वन्दनकलशहस्तगतः-वन्दनकलसो परिच्छेदः व्यञ्जनावग्रहः। व्यज्यन्ते इति हस्ते गतः यस्य स। जीवा० २४८। व्यञ्जनानि, व्यञ्जनानाम्पकरणेन्द्रियसम्प्रा- वंदणवत्तिया- वन्दनप्रत्ययं-अभिवादननिमित्तम्। आव. प्तानामवग्रहः-अव्यक्तरूपः परिच्छेदो वा। प्रज्ञा० ३११। | ७८६) वंजियाओ-णामेहि। निशी. २७६ अ। वंदणिज्ज- वन्दनीयं स्तुतिभिः। औप. ५। वन्दनीयम्। वंजुल-सप्तमभवनवासी चैत्यवृक्षम्। स्था० ४८७। सूर्य. २६७ वजुलः-खदिरचञ्चुः। प्रज्ञ०८ वजुलः-वेतसः। वंदति- वन्दते-स्तौति। राज०४८ वन्दते-वाचा स्तौति। दशवै० ८४१ ज्ञाता०1 वंजुलग- लोमपक्षिविशेषः। प्रज्ञा० ४९। लोमपक्षिविशेषः। | वंदामि- वन्दे मस्तकेन। आव० ७६३। जीवा०४१। वंदित्ता- वन्दित्वा-स्तुत्वा। स्था० १११| वंझा- अपत्यफलापेक्षया निष्फला। ज्ञाता०७९। वंदिमो- वन्द्यः । दशवै० २७४। वंट- भागः। बृह. १३७ आ। वंदिय- वन्दितः-त्रिविधयोगेन सम्यक्स्तुतः। आव. ५०७। वंठा- वण्ठा-अकयविवाहा भीतिजीविणो य वंठा। ओघ. | वन्दितः स्तुत्या। भग० ५८२। वन्दित्वा-वाग्भिः स्तुत्वाप्र-शस्य। आचा० ३४१। वंडुरापाल- मन्चरा अश्वपालः। आव० ९७ वंध- वन्ध्यः षविंशत्तममहाग्रहः। जम्बू. ५३५१ वंत- वान्तं-वमनम्। ज्ञाता० १४७। वान्तं-उद्गीर्णम्। वंफेज्ज-अभिलषेत्। सूत्र. १८३। उत्त० ३३९। वान्तः-परित्यक्तः। भग० १७६। वंतं- वंमिए- वल्मीकः। आव० ६१९। संमच्छिमम-नष्योत्पत्तिस्थानम्। प्रज्ञा० ५०, ३७ वंमी- रप्फो- निशी० ४३ अ। वंता- वान्त्वा-त्यक्त्वा। आचा० १७२। वंश- प्रवाहः-आवलिका। जम्बू० २५८१ वंती- णाम पडिया। निशी. १०। वंस-वंशः-महान् पृष्टवंशः। जीवा. १८०| वंशः प्रतीतः। वंद- वृन्दः-समूहः विस्तारवत्समूहः। जम्बू. २००।। जीवा. २६६। वंशः-प्रतरभेदः। प्रज्ञा० २६६। वंशः-वेणः। वंदइ- वन्दते-वाचा स्तौति। जम्बू०७१। वन्दते-स्तुति प्रश्न. १५९। वंशः-कवेलकम्। जम्ब०२३। आचा० ३७८। कोरति। जम्बू. १५९। वन्दते स्तौति। सूर्य०६। वन्दते वंशः-पुत्रपौत्रादिपरम्परा। स्था० ५२४। वंशः- वेणुः। कायेन। सूत्र. २७४। वन्दते-प्रसिद्धेन चैत्यन्दनविधिना। ज्ञाता० २३२॥ वंशः-क्रमभाविपरुषपर्वप्रवाहः। नन्दी. ८९ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [157] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text ) ५०| वंशः-प्रवाहः। प्रज्ञा० ५ | पर्वगविशेषः । प्रज्ञा० ३३ | वनस्पतिविशेषः । भग. ८०२२ वंशः जम्बू. १०१ वंश:वेणुः यो मुखेन वाद्यते । दश० ४५| वंशः प्रवाहः । स्था० ७६। वंशः-प्रवाहः। आव० ६१ | वंशः क्रमभाविपुरुषपर्वप्रवाहः । नन्दी० ५०| वंशः प्रवा आवलिका । जम्बू० १६६ | दंडगाकरणं । निशी० २३२ अ । वंशहरिवंशादिकम् । ज्ञाता० २११। ज्ञाता० ३९ | वंसकडिल्ल वंशसमुदायः स्था० ३३१| सकवेल्या महतां पृष्ठवंशानामुभयतस्तिर्यक् स्थाप्यमाना वंशाः केवल्लुकानि प्रतितानि । जीवा१८० | महतां पृष्ठ - वंशानामुभयपस्तिर्यक्स्थाप्यमाना वंशाः वंशकवेल्लुकानि। जीवा० ३६० | वंसकुडंग वंशकुडङ्ग-वंशीजाली उत्त० ३०१ | वंसकुडंगी- वंशकुडगी आव० ३८४ वंसग- वंशकायः। बृह॰ ९२ अ । व्यंसकः - विकल्पभेदः । दशवै० ५७ | वंसत व्यंसकः व्यंसयति परं व्यामोहयति शकटतित्तरीग्राहकधूर्तवद् यः स स्था० २६१ व्यंसयति परं व्यामोहयति शकटतित्तरीयाहकधूर्तवद् यः स व्यंसकः । स्था० आगम- सागर - कोषः ( भाग : - ४ ) २५४| वंसदंड- वनस्पतिकायविशेषः । भग० ८०२ वंसावरु - वनस्पतिकायविशेषः । भग० ८०२ वंसविदल- वंशविदलम् । आव० २०१ वंससिहर वंशशिखरम् । आव० ३६० | वंसा वंशः महन्तः । जम्बू० २३| वंशः प्रवाहः । जम्बू० १६६। वंशाच्छित्त्वराधारभूताः । भग० ३७६ । वंसी- वंशी वंशजाली स्था० १२२ वंशकरीलगर्भ भवं वस्त्रम् । बृह० २०१ आ । वंसीकलंका- वंशीकलड़का वंशजालीमयी जाता० २३६ | वंशीकलङ्का-वंशीजालीमयी वृत्तिः । विपा० ५५ वंशीकुडंग वंशीकुडङ्गः । आव० २११ | वंशकुडङ्ग वंशवनम् । आव ०७१७ वंसीण- कुहणविशेषः। प्रज्ञा० ३३ वंसीपत्ता- संयुक्तवंशीपत्रद्वयाकारत्वात् वंशीपत्रा। प्रज्ञा० २२७ | वंसीपत्तिया वंशीपत्रिका वंश्या वंशजाल्याः पत्रकमिव या सा वंशीपत्रिका स्था० १२२ ॥ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित वंसीपासायं- वंशीति-वंशगहनं, तदुपलक्षितं प्रासादं वंशीप्रासादम् । उत्त० ३७९% वंसीमुहा वंशीमुखा जीवा० ३१। वीन्द्रियविशेषः । प्रज्ञा० ४१ | वसीमूल वंशीमूलं - अलन्दकादि। बृह० १८२ आ । वंशीमूलं गृहबहिः स्थितमलन्दकादि। बृह. १७९ अ वंशीमूलम् । प्रजा० ३४ वंसीसिए - वैश्वासिको विश्वासस्थानम् । ज्ञाता० ४८ । व वकारः पादपुरणः ओघ० ६६ । वइ- वाक्-वचनं वाक् औदारिकवैक्रियाहारकशरीरव्यापारा [Type text] हृतवाग्द्रव्यसमूहसाचिव्याज्जीवव्यापारो वाक् वाग्योगः । स्था० २० | गोउलं । निशी० ३५८ अ । वाग्तीर्थकराज्ञा आगमरूपा। आचा० २०९ | वइउला मुकुली अहिभेदः । प्रजा० ४६ ॥ वइक्कम व्यतिक्रमः अपराधः आव• १४७ व्यतिक्रमःकृते उपयोगे पदभेदादिः यावदुत्क्षिप्तं भोजन दात्रा । आव• ५७६। व्यतिक्रमः- विशेषेण पदभेदकरणतोऽतिक्रमः । व्यव० ९० अ व्यतिक्रमःस्थितिलङ्घनम् । अनुयो० १३८ वइगुन्न- वैगुण्यं वैधर्म्य- विपरीतभावः। आव ०७५८ वइण्ण- वितीर्णो-र -राज्ञाऽनुज्ञातः। ज्ञाता० ११| वइते - परसम्बन्धिनीं वाचमात्मनि तथैव सम्पादयन् वाक्स्तेन । प्रश्न० १२५ | वइदिस- वैदेशम् | आव० ३०७ | विदेशः योगसंग्रहेऽनिश्रितोपधानदृष्टान्ते पाटलिपुत्रादन्यदेशः आव• ६६८१ वइदुप्पणिहाण- वाग्दुष्प्रणिधानं कृतसामायिकस्यासभ्यनिष्ठुरसावद्यवाक्प्रयोगः आव• ८३४७ वड़देही- विदेहा नाम जनपदः सोऽस्याऽस्तीति विदेही । विदेहजनपदाधिपः । उत्तः ३२०१ वइबल- वाग्बल-मन्त्रादिसामर्थ्यम्। आचा० ४१७ । वइय- वज्रः-गोकुलम्। आव० ४७ वइया - व्रजिका। आव० ५३७ । व्रजिका-लघुगोकुलम् । पिण्ड ९६| [158] वर वज्रं शक्रायुधम्। जीवा० १६१ । वज्रं कीलिका । प्रज्ञा० ४७२१ वज्रः पृथिवीभेदः आचा० २९॥ वज्रकाण्डं दद्वितीयं वज्राणां विशिष्टो भूभागः । जीवा० ८९ | वैरं 1 *आगम - सागर- कोष" (४) Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] २५ परस्प-रमसहमानतया हिंस्यहिंसकताध्यवसायः। | वइरवालुए- वज्रवालका नदीसम्बन्धिपलिनमपि जम्बू. १२७। वज्रस्वामी-बालभावेऽपि वर्तमानस्य वज्रवालुका, यद्वा वज्रवद्वालुका यस्मिंस्तथा मातरमवगणय सङ्घ-बहुमानकारकः। नन्दी. १६७ तस्मिन्नरकप्रदेश इति। उत्त० ४५९। वजः। हीरकः। उत्त०६८९। रत्नविशेषः। निशी० २२९ वइरवेइआ- वज्रवेदिका-दवारण्डिकोपरि वज्ररत्नमयी आ। वज्रः-हीरकः। प्रज्ञा० २७। वेदिका। जम्बू०७९। त्रयोदशसागरोपमस्थितिकं विमानम्। सम. २७ वजं- | वइरसामि-यस्य माउलो समियआयरिओ। निशी. १०३ हीरकमणिः। जम्बू०८२ वज्र-शक्रायुधम्। प्रज्ञा० ८७ | वहरसामिउप्पति- वज्रस्वाम्युत्पतिः। दशवै०५१। वज्र-कीलिका। सम० १४९। वैरं-रत्नविशेषः। ज्ञाता० ३१] | वहरसामी-दुर्भिक्ष निवारकः। निशी. १६अ। वइरकंत-त्रयोदशसागरोपमस्थितिकं विमानम्। सम० वइरसिंग-त्रयोदशसागरोपमस्थितिकं विमानम्। सम० २५१ २५१ वइरकूड- वज्रकूटं-नन्दनवने अष्टमकूटम्। जम्बू० ३६७। | वइरसिट्ठ- त्रयोदशसागरोपमस्थितिकं विमानम्। सम. त्रयोदशसागरोपमस्थितिकं विमानम्। सम० २५ वइरजंघ- वज्रजङ्घः-लोहार्गलनगरस्वामी। आव० ११६) । वइरसेण- वैरसेनः। आव. ११८ पुष्कलावतीविजये लोहार्गलनगरे ऋषभपूर्वभवे वइरसेणा-धर्मकथायाः पञ्चमवर्गेऽध्ययनम्। ज्ञाता० वज्रजङ्घः। आव० १४६। वैरजङ्घः-महाविदेहेऽधिपतिः। ર૬રા. आव० ११५ तृतीयवासुदेवप्रतिशत्रुः। सम० १५४। वइरागर- वैराकरः। ज्ञाता०२२८। वहरणाभ- वज्रनाभः-वज्रसेनधारिण्योः पुत्रः चक्रवर्ती।। वइराड- वैराटपुरं-वत्सजनपदे पुरं, आर्यक्षेत्रम्। प्रज्ञा० ५५। आव० ११७ वइरामइए- वज्रमया-वज्ररत्नात्मिका। जम्बू० २०| वहरणाम- प्रथमतीर्थकृत्पूर्वभवनाम। सम० १५१| वइरुत्तरवडिंसग- त्रयोदशसागरोपमस्थितिकं विमानम्। वइरदंडा- वज्रो-वज्ररत्नमयो दण्डो रूप्यपट्टमध्वर्ती येषां ते | सम० २५४ वज्रदण्डाः। राजन वइरोअण- 'विइति विशिष्ट रोचनं-दीपनं वइरनाभ- वज्रमयो नाभिः-मध्यभागो ययोस्ते वज्रनाभः। दीप्तिरितियावत् येषामस्ति ते वैरोचना, जम्बू०५७ ओदीच्यासुराः। जम्बू. १६२१ वइरप्पभ- त्रयोदशसागरोपमस्थितिकं विमानम्। सम० वइरोयण-विविधैः प्रकारे रोच्यन्ते-दीप्यन्त इति विरोचस्त एव वैरोचनाः-उत्तरदिग्वासिनोऽसुराः वइरभूती-आयरियो महाकविः। व्यव० १८० आ। तेषामिन्द्रः। स्था० २०५१ वैरोचनम्। तृतीयं वइरमज्झ- वज्रमध्यः। औप० ३२ निशी. ३०६ अ । लोकान्तिकविमानम्। भग० २७१। वइरमज्झा- वज्रस्येव मध्यं यस्यां सा वज्रमध्याः। तन्वि- अष्टसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम० १४१ त्यर्थः। स्था०६५। वज्रमध्या-याऽद्यन्तवृद्धा मध्ये हीना | वइरोयणराया-वैरोचनराजः-वैरोचनेन्द्रः। जीवा० १६६। च। स्था० १९५४ वइरोयणिंद- बलीन्द्रः। भग० १५६। जीवा. १६६। वइरमय-दिव्यो वज्रमयःस्थालः। आव. २७७) वइरोसभ- वज्रऋषभ-वज्रऋषभनाराचं संहननम्। उत्त. वइररूव-त्रयोदशसागरोपमस्थितिकं विमानम। सम. ४५२। वइरोसभनाराय- वज्र-कीलिका ऋषभः-परिवेष्टनपट्टः वइरलेस-त्रयोदशसागरोमपस्थितिकं विमानम। सम. नाराचं-उभयतो मर्कटबन्धः वज्रर्षभनाराचम। प्रज्ञा० ४७१ वइरवण्ण- त्रयोदशसागरोमपस्थितिकं विमानम्। सम० वइसस- वैशसं-दुःखम्। बृह. ९३ अ। | वइसाह- अंतो पण्हितातो काउं अग्गतले वाहिजरहठितो २५१ २५१ २५१ २५ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [159] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] सोरिट्ठिओ वा जुज्झइ तं। निशी. ९० अ। विशाख- वक्रजडाः। उत्त०५०२| वक्रजडास्थानम्। निर०८ वैशाखम्। आव०६६६। वैशाख- चरमतीर्थकरतीर्थसाधः। स्था० २०२। पाणीअभ्यन्तरे समश्रेण्यां करोति, अग्रतलौ बाह्यतः, | वक्कबंध- वल्कबन्धनं सूत्रबन्धनं बालबन्धनश्च। विपा० लोकप्रवाहे तृतीय स्थानम्। आव० ४६५। वैशाख-वैशाख- | ८११ नामकम्। जम्बू० २०१३ वक्कमइ- व्युत्क्रामति-उत्पद्यते। आचा० ५९। वइसाहठाण- वैशाखस्थानकम्, चैवं-“पादौ सविस्तरौ व्युत्क्रामति-उत्पद्यते। प्रज्ञा० ३८१ कार्यों, समहस्तप्रमाणतः। वैशाखस्थानके वत्सः कूटल- | | वक्कमण- व्युत्क्रमणं-उत्पत्तिः। भग० ८७ क्ष्यस्य वेधने ||१||" जम्बू० २०११ | वक्कमति- व्यतिक्रामति-मुञ्चति। सूर्य २७८१ वइस्स-द्वेष्यः उत्पद्यते। स्था० १२२। अवक्रमते-आगच्छति। प्रज्ञा० तत्तद्दोषद्ष्टत्वात्सर्वस्याप्रीतिभाजनमिति। उत्त. ૨૨૮. वक्कममाणंसि- व्युत्क्रामति-उत्पद्यमाने। ज्ञाता०२० वए- वज्रं-गोकुलम्। आव० ५३८॥ वज्रःगोकुलम्। बृह. १८८ | वक्कय- वल्कजः तृणविशेषः। प्रज्ञा० १२८। वल्कजः। आ। आचा० ३६६ वक्कंत- व्युत्क्रान्तः-उत्पन्नः। स्था० ३०७। व्युत्क्रान्तः- वक्कलनियत्था- वलक्लवस्त्रा। आव २०९। उपगतः। ओघ० १३० व्युत्क्रान्तः-उत्पन्नः। ज्ञाता० वक्कलवासी- वल्कलवासा। भग० ५१९। वल्कवासा। १२५ निर०२५ वक्कंतिए- व्युत्क्रान्तः-उत्पन्नः। ज्ञाता०६४। वक्कसुद्धि- वाक्यशुद्धिः दशवैकालिकस्य वक्कंतिय- व्युत्क्रान्तिः-उत्पत्तिः निष्क्रमणं च। जीवा. सप्तममध्ययनम्। दशवै० २०७१ ३५ वक्ख- वक्षः। जीवा० २७५वक्षः-मध्यः। जम्बू० ३१४| वक्कंतिया- व्युत्क्रान्तिशब्दोऽत्रोत्पत्तिवाची। प्रज्ञा०४४| वक्खाण- व्याख्यानं-सुत्राभिप्रायः। सूत्र० २३१| वक्कंती- व्युत्क्रान्ति-उत्पत्तिस्थानप्राप्तस्योत्पादः। वक्खार- वक्षसि-मध्ये, स्वगोप्यं क्षेत्रं द्वौ संभूय स्था० ३५९। व्युत्क्रान्तिलक्षणार्थाधिकारयुक्तत्वात् । कुर्वन्तीति वक्षस्कारः। जम्बू०३१४| वक्षस्कारःव्युत्क्रान्तिः। प्रज्ञापनायाः षष्ठं पदम्। प्रज्ञा० ६। पर्वतविशेषः। प्रज्ञा०७११ वक्षारपर्वतःव्युत्क्रान्तिः। जीवाना-मुत्पादः। भग० १०७ प्रमाणागुलप्रमेयः। अनुयो० १७१। वक्षस्कारःव्युत्क्रान्तिः -प्रज्ञापनायां पदम्। जीवा० २१। भग० ७६२, चित्रकूटादिका विजयविभागकारीपर्वतः। प्रश्न. ९६। वक्खारपव्वत- वक्षस्कारपर्वतः। ज्ञाता० १२११ वक्कंतीपयं- व्युत्क्रान्तिः-जीवानामुत्पादस्तदर्थं पदं- वक्खारपव्यय- वक्षारपर्वतः-वक्षस्कारक्षेत्रकारीपर्वतः। प्रकरणं व्युत्क्रान्तिपदं तच्च प्रज्ञापनायां षष्ठम्। भग. स्था० ७१। वक्खित्त- व्याक्षिप्तम्। आव. ५४९। व्यक्षिप्तःवक्कंतीय- प्रज्ञापनायाः षष्ठं पदम्। भग० ५१२, ५१३, हलकुलिश-वृक्षच्छेदादिव्यग्रः। ओघ. २३ ५८३ वक्खित्तचित्ता- व्याक्षिप्तचित्तता। उत्त० २१६। वक्क- मङ्गलवचनम्। वाक्यम्। ज्ञाता० १३३। वाक्यं- वक्खित्ता- वस्त्रं प्रत्युपेक्ष्य ततोऽन्यत्र यमनिकादौ वचनम्। उत्त० २६७। वल्कलः-वधः। सूत्र० १२५ प्रक्षिपति यद् अथवा वस्त्राञ्चलादीनां यदूर्ध्वक्षेपणं सा वक्कइय-वक्रयेण कियत्काल भाटकप्रदानेन निर्वता वा विक्षिप्ता। स्था० ३६१ क्रयिकी। व्यव. २७२ आ। वक्खेव- व्याषेपः। आव० ५४२ विक्षेपः-विलम्बः। आव. वक्कजडा- वक्राश्च-वक्रबोधतया जडाश्च तत एव स्वका- ७०६। व्याक्षेपः-प्रतीघातः। आव०७२१। व्याक्षेपःनेककविकल्पतो विवक्षितार्थप्रतिपत्तयक्षमतया बहुकृत्यव्याकुलतात्मकः। उत्त.१५११ ९५११ १०७ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [160] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] वक्तव्यता- शास्त्रीयोपक्रमे चतुर्थो भेदः । आचा० ३ स्वसम-येतरोभयवक्तव्यताभेदात् त्रिद्या । स्था० ४ | पदार्थविचारः आव० ५६। आगम- सागर - कोषः ( भाग : - ४ ) वक्रजड- चरमजिनसाधुः। भग० ६१। वक्रपुर- पुरं आधाकर्मण अभोज्यतायां दृष्टान्ते उग्रतेजसः पदातेः पुरम् । पिण्ड• ७१। वग- वृकः । भग० १९१ | वगडा- ग्रामादेः परिक्षेपः । बृह० १ अ । परिक्षेपः । व्यव॰ १७८ अ । पाटकः । बृह० १९८ आ । वृत्तिपरिक्षेपः । बृह० १५७ अ । वृत्तिः । व्यव० १३४ आ । वग्ग वर्गः समानजातीयवृन्दम् । औप० ५९ व्याघ्रःशार्दूलः। जीवा॰ २८२। वर्गः-तेनैव राशिना तस्य राशैर्गुणने भवति । प्रज्ञा० २७४५ वर्ग:अध्ययनादिसमूहः । स्था० ५१३ | वर्गः समूहः । सम० ११८| वर्गः घन एव घनेन गुणितः । उत्त० ६०१ । वर्गःअध्ययनसमुदायः । निर० ३] वर्ग:अध्ययनसमुदायत्मकः । सम० ६५ वर्गः संख्यानं यथा द्रव्यो वर्गश्चत्वारः सदृशद्विराशिघातः स्था० ४९६| वग्गड़ वल्गनि । जीवा० २४ वग्गचूलिया वर्गः अध्ययनादिसमूहः तस्य चूलिका वर्ग-लिका स्था० ५१३ | वर्गचूलिका व्याख्याचूलिका | व्यव० ४५४ आ वर्गचूलिका वर्गः अध्ययनानां समूहो तेषां चूलिका नन्दी० २०६। वग्गण-वल्गनं-कूर्द्दनम्। ज्ञाता० २३२॥ वल्गनं उल्लङ्घनम्। औप० ६५। वल्गनं उत्कूर्दनम् । जम्बू॰ ४३०| वल्गगनं- उल्लङ्घनम्। भग• ५४२॥ वल्गनंउत्कूर्द्दनम्। जम्बू॰ २६५| वग्गणा- वर्गणा-समुदायः । प्रज्ञा० २६५ | वर्गणा वर्गःसमुदायः । स्था० २८१ वर्गणा समुदायः आव० ३४ वग्गतव- पण्णवत्यधिकचतुः सहस्रपदात्मकं (४०९६) । तपः एतदुपलक्षितं तपः वर्गतपः। उत्त॰ ६०१। वग्गली- वाहीविससो निशी. ३१५ आ वग्गवग्ग वर्गस्य वर्गो वर्गवर्गेः, स च यथा द्वयोर्वर्गश्चत्वारश्चतुर्णां वर्गः षोडशेति स्था० ४९६ वर्गवर्गः खण्डखण्डः । औप० ११८१ वर्ग एव वर्गेण गुण्यते तदा वर्गवर्गः उत्त० ६०१। वग्गवग्गतवो- वर्गवर्गतपः मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] षोडशाधिकद्विशतसप्तसप्ततिसहसप्तषष्टिलक्षैककोटिपदात्मकम्। (१६७७७२१६) तपः । उत्त० ६०१ | वग्गसीह- सप्तदशतीर्थकृत्प्रथमभिक्षादाता सम० १५१| वग्गा वल्का वंशादिबन्धनभूता वटादित्वचः । भग० ३७६ । वग्गियं वल्गनं अश्वकलाविशेषः । उत्त २२३॥ वग्गु- वल्गुः- विमानविशेषः । उत्त० ३२१ | वग्गुमई- वल्गुमती- सचित्तद्रव्यशय्योदाहरणम्। आचा० ३५९| वग्गुर वग्गुरो श्रेष्ठी आव० २१०१ वग्गुरपडिओ वागुरापतितः । आव० ३४६ । वग्गुरा- वागुरा-मृगबन्धनम् । ज्ञाता० १०१ । वागुरा-मृगबन्धनविशेषः । प्रश्न० १३ | निशी० ११ अ । वागुरेव वागुरापरिकरः । राज० १२२ वग्गुरिय- वागुरिकः- पाशप्रयोगेण मृगघातकः । बृह०८२ वग्गुरी - वक्कपादिगा । निशी० १३६ आ वग्गुलि- वल्गुली-पक्षिविशेषः । प्रश्र्न० ८। वल्गुलिःमक्षिकाभक्षणजनितो व्याधिविशेषः ओघ० १८२ वल्गुलि पक्षिविशेषः आक ७४२१ वग्गुली- चर्मपक्षिविशेषः । जीवा ४१ वल्गुली चर्मपक्षीविशेषः । प्रज्ञा० ४९ वान्तिरोगः । बृह० १८५ आ । वग्गू वल्गुः चतुर्यस्य इन्द्रलोकपालवैश्रमणस्य विमानम्। भग० १९४| वल्गुःईशानेन्द्रलोकपालवैश्रमणस्य विमानम् । भग० २०३ | वल्गुर्विजयः । जम्बू० ३५७| वल्गुः वाग् । आव० १६७| वाग्-वाणिः । उत्त० ३९८८ स्था० ८०१ वग्गूहिं वाग्भिर्यकाभिरानन्द उत्पद्यत इति भावः । स्था० ४६३ | वग्घ- विरुवो। निशी० १२९ अ । व्याघ्रः - सनखच तुष्पदविशेषः । जीवा० ३८१ व्याघ्रः आव० ३८४ व्याघ्रःपुण्डरीकः । उत्त० १३५१ व्याघ्रः । पिण्ड० १३३| व्याघ्रः । जम्बू० १२४ | व्याघ्रचर्म । आचा० ३९४ | व्याघ्रः | निशी० १३८ आ । व्याघ्रः । भग० १९० | [161] वग्घमड- व्याघ्रमृतः मृतव्याघ्रदेहः । जीवा० १०६ । वग्घमुह- व्याघ्रमुखनामान्तरद्वीपः। व्याघ्रमुखःअन्तरद्वीप - विशेषः । जीवा० १४४ | वग्धमुहदीव षट्योजनशतावगाहाकद्वीपः स्था० २२६ | *आगम - सागर- कोष" (४) Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] वग्धरणसाला - व्याघरणशाला-तोसलिविषये ग्राममध्ये शाला। बृह० १७५ अ वग्धसीह व्याघ्रसिंहः कुन्थुजिनप्रथमभिक्षादाता। आव ० १४७ ॥ आगम - सागर - कोषः ( भाग : - ४) वग्धा सनखचतुष्पदविशेषः प्रजा० ४५ वग्घाडीओ - उपहासार्थ रुतविशेषः । ज्ञाता० १४४ | वग्धारिअ - अवलम्बितः । जम्बू० १०| प्रलम्बितः । जम्बू० ७७ प्रलम्बमानः । औप० ५। वग्घारिता- उष्णीकृत्यः । दशवै० ८७ वग्धारिय प्रलम्बितः । जीवा. १६० | अवलम्बितः । जीवा. २०६ | प्रलम्बितः । जीवा० २२७ | आवलम्बितः । जीवा० ३६१|प्रलम्बमानः। ज्ञाता० ४। व्याधारितं आर्द्रम् । आव ० ६५६ | प्रलम्बितः । राज० ३६ प्रलम्बितः । प्रज्ञा० ८६ | ज तिण्णि वा सपडत्ति जत्थ वा णेव्वं वासकप्पो गलति जत्थ वा वासकप्पं भेत्तृणं अंतो काउ य उल्लेति । निशी० ३५३ आ । वग्धारियपाणि- प्रलम्बितभुजः। भग० १७४ प्रलम्बभुजः । आव० ६४८। वग्धारियपाणीर- प्रलम्बितभुजः । ज्ञाता० १५४) वग्धावच्च व्याघ्रपप्यं उत्तराषाढागोत्रम्। जम्बू. ५००| वाशिष्ठगोत्रे चतुर्थो भेदः । स्था० ३९० । वग्घावच्चसगोत्त- व्याघ्रापत्यसगोत्र उत्तराषाढानक्षत्रगोत्रम्। सूर्य० १५०। वग्घी- व्याघ्री, तत्प्रधाना विद्या, पठितसिद्धा विद्या । आव० ३१९| वचनपरुषताव्यसन- खरपरुषवचनैः सर्वानपि जनान्निर्विशेषमाक्रोशति । बृह० १५७ अ वचनसम्पत्- आदेयवचनतादिचतुर्भेदभिन्ना सम्पत् । उत्त० ३९| वच्चंत - व्रजन्तः । ज्ञाता० १८९ | वच्चंसी- वचो वशनं सौभाग्याद्युपेत यस्यास्ति स वचस्वी, अथवा वर्चः तेजः प्रभाव इत्यर्थस्तद्वान् वर्चस्वी ज्ञाता० ६ | वर्चः तेजः प्रभाव इत्यर्थस्तद्वान् वर्चस्वी राज० ११८१ वर्चस्वी विशिष्टभावोपेतः, वचस्वी-विशिष्टवचनयुक्तः । भग० १३६ । 'वचो' वचनं सौभाग्याद्युपेत यस्यास्ति स वचस्वी राज० ११८ वर्चस्वी: शरीबलोपेतः सम० १५६ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] - वच्च- वचः वचनं सौभाग्याद्युपेतम् । वर्चः वा तेजः प्रभाव इति । औप० ३३१ पुरीषम् ओघ० १२२१ वर्चःविष्ठा दशकै० १६७ | वच्चं गिहस्स समततो निशी० १९२ अ तणविसेसो निशी. १२९ आ च्युतं विशिष्ट. वानम् राज० ९३ वर्चः तेजः राज० tta वच्चक- दर्भाकारम् । बृह. २०३ अ तृणरूपवाद्यविशेषः । जम्बू० १०१ | जीवा० २६६ | वच्चसि - वर्चस्वो रूपवान्। आचा० ३६४। बच्चामेलिय- व्यत्यामेडितं कोलिकापायसवत्। आव ७३१॥ व्यत्याम्रेडितः । आव० १०३ | एकस्मिन्नेव शास्त्रेऽन्यान्य-स्थाननिबद्धान्येकार्थानि सूत्राण्येकत्र स्थाने समानीय पाठतो व्यत्याम्रेडितम् । आचारादिसूत्रमध्ये स्वमतिचर्चितानि तत्स दृशानि सूत्राणि कृत्वा प्रक्षिपतो व्यत्याम्रेडितम् । अस्थानविरतिकं वा व्यत्याम्रेडितम् । अनुयो० १५) बच्चायाहिति प्रत्यायास्यति आव० २१ वच्छ- वत्सो नाम विजयः । जम्बू० ३५२ | वत्सः - गोसुतः । ओघ० १४१ वृक्षः । उत्त० ३०९। वत्सः- आर्यजनपदविशेषः । प्रज्ञा० ५५| वच्छः तरुः । दशवै० १७ | वात्स्यंवत्स्यस्यापत्यं वात्स्यः । नन्दी• ४९ वक्षः-उरुः | ज्ञाता० १९ | वच्छग- वत्सकः-तर्णकः । पिण्ड० १३० | वच्छगविप्पक तृणविशेषः । त्वग्मेवं रजोहरणम् । व्यव २०३ अ वच्छगा- वत्सका-कौशाम्ब्युञ्जयिन्योरन्तराले नदी। आव० ६९९ | वच्छभूमी वत्सभूमिः कौशाम्बीविषयः, मेतार्यगणधरजन्मभूमि । आव २५५ वच्छमित्ता व समित्रा काञ्चनकूटे देवी जम्बू० ३५31 वत्समित्रा षष्ठी दिक्कुमारीमहत्तरिका। जम्बू• ३८ वत्समित्रा अधोलोकवास्तव्या दिक्कुमारी आव० १२१| वच्छल्ल- वात्सल्यं साधर्मिकजनस्य [162] भक्तपानादिनोचित-प्रतिपत्तिकरणम् । उत्त० ४६७ । वात्सल्यं समानधार्मिकाणां प्रीत्योपकारकणम्। प्रज्ञा० १६। वात्सल्यं समानधार्मिक- प्रीत्युपकाराकरणम्। दशकै १०३1 आदरं । निशी० १४अ वात्सल्यंसमानधार्मिकस्याहारादिभिः प्रत्युप-करणम्। व्यक "आगम- सागर- कोषः " [४] Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] ၃ १९॥ कन्दः-अनन्तकायविशेषः। प्रज्ञा० ३६४। वज्रकन्दःवच्छल्लया- वत्सलता-वत्सलभावः-अनुरागः कन्दविशेषः। उत्त०६९१। यथावस्थित-गुणोत्कीर्तना यथानुरूपोपचारलक्षणा। वज्जकूड- तहयोदशसागरोपमस्थितिकं देवविमानम। आव० ११९। वत्सलता-वात्सल्यः-अनुरागः सम० २५१ यथावस्थितगुणोत्कीर्त-नानुरुपोपचारलक्षणः। ज्ञाता० वज्जणा- वर्जना-लौकिकलोकोत्तरभेदभिन्नपरिहरणायाः षष्ठो भेदः। आव० ५५२ वच्छवाली- वत्सपाली। आव० ३५३ वज्जणाभ- चतुर्थतीर्थकृतप्रथमशिष्यः। सम० १५२ वच्छसुत्त- वक्षःसूत्र-हृदयाभरणभूतसुवर्णसङ्कलकम्। वज्जतुंडा- वज्रतुण्डिका। आव० २१६) भग०४७७) वज्जपरिवज्जी- वर्जनीयं वयं-अकृत्यं वच्छा- मूलगोत्रे तृतीयो भेदः। स्था० ३९० स्था० ८० तत्परिवर्जीअप्रमत्तः वय॑परिवर्जी। आव. १९८१ वच्छाणुबंधिता- वत्सः-पुत्रस्तदनुबन्धो यस्यामस्ति सा वज्जपाणी- वज्रं पाणावस्येति वज्रपाणिः इन्द्रः। प्रज्ञा० वत्सानुबन्धिका वैरस्वामिमातुरिव प्रव्रज्यायां दशमो १०१। भेदः। स्था० ४७४१ वज्जप्पभ- त्रयोदशसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। वच्छाभूमी- वत्सभूमीः-अषाढाचार्यस्थानम्। उत्त० १३३ सम०२५ वच्छाय-तृणविशेषः। बृह. २०३ अ। वज्जभीरु- वज़ंत इति वयं पापं वज्रभीरुर्वा वजं वावच्छावई- वत्सावतीविजयः। जम्बू० ३५२। वज्र-वद् गुरुत्वत् पापमेवेति। प्रश्न. १३८ वच्छी- चारुदत्तसुता-ब्रह्मदत्तराज्ञी। उत्त० ३७९। संसारभयउव्विग्गा थोवमपि पावं णेच्छति। दशवैः वज्ज- वज्र-कीलिकाकीलितकाष्ठसम्पुटोपमम्। भग० ४११ १२। वयं-अवयं पापम्। उत्त०६५६। वयं-पापं वज्जमाण- वाद्यमानः-तुर्यः। ज्ञाता० २३७। वय॑त इति, वज्र वज्रवद्गुरुत्वात् पापम्। प्रश्न. १३८ | वज्जरिसह- वज्रर्षभः-सहननविशेषः। आव० ११११ वज्रवद्वज्रगुरुत्वा-त्कर्म। आचा० २९३। वज्रं-वज्रवद्वज्र- वज्जरिसहनाराय- वज्रर्षभनाराचं-द्वयोरस्थोरुभयतो गुरुत्वात्कर्म। सूत्र० ३३१। त्रयोदशसागरोपमस्थितिकं । मर्कट-बन्धेन बद्धयोः पट्टाकृतिं गच्छता तृतीयेनास्या देवविमानम्। सम० २७। वयं पापम्। प्रश्न०६२ परिवेष्टितयो रुपरितदस्थित्रयभेदि कीलिकाख्यं जनपदविशेषः। भग०६८० वज्र-गुरुत्वात्कर्म, अवदयं वज्रनामकमस्थि यत्र भवति तत्। प्रथम संहननम्। वा पापम्। आचा० २९३। वज्र-वज्रवत् जीवा० १५,४२१ गुरुत्वाद्धिंसाऽनृतादिपापं कर्म। स्था० १९७। वज्र- वज्जरिसहनारायसंघयण- वज्रर्षभनाराचसंहननं इह, संहवज्रमिव वजं गुरुत्वात्तकारिमाणिनामतिगुरुत्वेनाधो- । ननं-अस्थिसञ्चयविशेषः। इह वज्रादिनां लक्षणमिदम् गतिगमनात्। वय॑ते वा विवेकिभिरिति वर्जः "रिसहो य होइ पट्टो वज्जं पण कीलियं वियाणाहि। प्राणवधस्य पञ्चविंशतितमः पर्यायः। प्रश्न०६। उभओ मक्कडबंधो नारायं तं वियाणाहि||१||"त्ति, तत्र वाद्यम्। स्था० २८६) वज्रं च तत् साधारणबादरवनस्पनिकायविशेषः। प्रज्ञा० ३४| वज्र- कीलिकाकीलितकाष्ठसंपुटोपमसामर्थ्ययुक्तत्वात, हीरकः। जम्बू. ४१४। वर्जः-अवद्यः, वज्रः। भग०६८४। ऋषभश्च वर्त्यत इति वयं अवयं या। स्था० १९७। पावं। निशी. लोहादिमयपट्टबद्धकाष्ठसम्पुटोपसामर्थ्यान्वितत्वात् ७४ आ। वज्र-र्षभः स चासी नाराचं च उभयतो वज्जकंत-त्रयोदशसागरोपमस्थितिकं देवविमानम। मर्कटबन्धनिबद्धकाष्ठ-संप्टोपमसामोपेतत्त्वाद् सम० २६ वज्रर्षभनाराचं, अन्ये तु कीलि-कादिमत्वमस्मानामेव वज्जकंद- वज्रकन्दः-अनन्तकायभेदः। भग० ३०० वज्र- | वर्णयन्ति। भग० १२॥ वज्रर्षभना-राचसंहननम्। सूत्र मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [163] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text]] ४॥ १५ आयुधविशेषः। ज्ञाता० १२८। गुरुस्पर्शपरिणतः। वज्जरूव- त्रयोदशसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम. प्रज्ञा० १० २५ वज़कन्दः- वनस्पतिकायिकभेदः। जीवा. २७) वज्जलाढ-वज्रलाढः-म्लेच्छजातिविशेषः। आव० २११। वज़तन्दुल-अत्यन्तदेर्भेदतन्दुलम्। उत्त० ३९२। वज्जलेस- त्रयोदशसागरोपमस्थितिकं देवविमानम। वज्रतन्दुलकल्प-यो न वासयितुं शक्यः। स्था०४८१ सम०२५ वज्रपाणि- वज्राभिधानमायुधं पाणावस्येति। उत्त० ३५०| वज्जवण्ण-त्रयोदशसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। वज्रमपि लक्षणं पाणौ सम्भवतीति वज्रपाणिः। उत्त. सम०२५ ३५१। वज्जवित्ती- वर्यवृत्तिः-प्रधानजीविकः। अन्यो० १३० । वजमध्य-प्रकीर्णतपोविशेषः। उत्त०६०१ वज्जविराइय- वज्रस्येव विराजितं वज्रविराजितम्। जीवा. वजमध्या- वज्रमध्योपमितमध्यभागा वज्रमध्या। व्यव० २७५ ३५६अ। वज्जसिह-त्रयोदशसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। वज़स्वामी- वचनप्रभावे दृष्टान्तः। व्यव० १९ अ। बालस्य सम०२५ सूत्रार्थनिष्पन्नतायां दृष्टान्तः। व्यव० १४३ अ। बालत्वे वज्जा-विदयते-ज्ञायते-आभिस्तत्त्वमिति विदया निष्पन्नः। बृह. २२ अ। बालोऽपि निष्पन्नः। ब्रह. आरण्यकब्र-हमाण्डपुराणात्मिका। उत्त० ५२६। वा- २८४ । नवविधशय्या-प्रकारे पञ्चमः। बृह. ९३ अ। वज्रा- वज्रान्त- श्रुयते च वज्रान्तं गणितम्। स्था० ४७८१ पारिणामिकीबुद्धिदृष्टान्ते काष्ठश्रेष्ठिपत्नी। आव. वटभा- मडहकोष्ठः। निर०७ महत्कोष्ठा। ज्ञाता०४१। ૪ર૮1. वटिका- गुटिका। उत्त०१४३| वज्जवत्त-त्रयोदशसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। वढ्त- वर्तमानाः-ये तपोऽहप्रायश्चित्ते वर्तन्ते। व्यव० सम० २५४ ९७ आ। जे तवे चेव वढूति। निशी. १२२ । वज्जी- वज्री-इन्द्रः। भग० ३१७ वट्ट- वर्त्म। औप०६४| वृत्तम्। ओघ० २१०वृत्तं वज्जत्तरवडिंसग-त्रयोदशसागरोपमस्थितिकं वर्तुलम्। जीवा० २२९। वृत्त-सूत्रावलनकम्। जीवा० देवविमानम्। सम० २५ २७०| वृत्त-सूत्रावलनकम्। प्रश्न० ८० घनतीमनम्। वज्झं- वध्यः। आव० ३६९। वध्यः। आव०६४। ज्ञाता० प्रश्न. १५३॥ वृत्तं-वर्तुलम्। ओघ० २११। वेष्टनकः १४३। वर्धः-चर्मपञ्चके तृतीयो भेदः। आव०६५२ श्रीदेवताध्यासितः पट्टः। बृह. २५५ अ। निशी. ७१ अ। वज्झकत्तण- वर्द्धकर्तनं-त्वगत्रोटनम्। सम० १२६। समचउरंस। निशी. १४ आ। द्वितीयं संस्थानम्। भग० वज्झकार- वध्यकारः शिल्पविशेषः। अन्यो० १४९। ८५८। वृत्तः-चक्रवालतया परिवलः । जीवा० ९७। वज्झपाणपीय-वध्याप्राणप्रीतः-वध्यप्राणपीतो वा, वृत्तः-द्वितीयं संस्थानम्। प्रज्ञा० २४२। छात्रः। आव. वध्यश्च हन्तव्याः प्राणपीताश्च-उच्छवासादिप्राणप्रियाः ५६१। वृत्त-समचतुरस्रम्। बृह० २४९ अ। वृत्तं प्रणतीतो वा-भक्षितप्राणा यः स तथा। प्रश्न. ५९। वर्तुलम्। जीवा० २७०। वज्झयाणभीय- वधकेभ्यो भीतिः। प्रश्न. ५९। वट्टइ- वर्तते। ओघ० १५९। वर्तते-युज्यते। आव० ७०८। वज्झा- हत्या। निशी. ३५१| निशी. १२११ वर्तते। आव० ४१५ वज्झार-शिल्पार्यविशेषः। प्रज्ञा०५६) वट्टए- वर्तकान्-जत्वादिमयगोलकान्। ज्ञाता० २३५) वज्झियायण- वाभ्रव्यायनं-पूर्वाषाढागोत्रम्। जम्बू. ५०० | वट्टक- वर्तकः-पक्षिविशेषः। प्रश्न ८ वट्टकःवज्झियायणसगोत्त- पूर्वाषाढानक्षगोत्रम्। सूर्य० १५०। । रक्तपादपः। निशी० ७१ अ। वज्झुक्का- बाह्यक्रीडा। आव०८१६ वट्टकन्दुका- क्रीडाविशेषः। सूत्र. १८४| वज़- रत्नविशेषः। आव० २५९। गुरुस्पर्शपरिणतः। जीवा० | वट्टक्खुर- वृत्तखुरः-प्रधानाश्वः। ओघ० १५६| मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [164] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] वहखुर- घोड़ओ निशी० २०८ अ | वडखेड- कलाविशेषः । ज्ञाता० ८ आगम-सागर- कोषः ( भाग : - ४ ) वट्टग वृत्तक- भोजनक्षणोपयोगी घृतादिपात्रम् जम्बू० १०१। लोमपक्षिविशेषः । जीवा० ४१॥ वर्तक-गोलकम् । जम्बू० ३९२१ लोकपक्षिविशेषः । प्रज्ञा० ४९ । वट्टणं-वोत्तंत एक्कतो वलेति, सक्कारवलणं, पण्हाए वा भगो वट्टणं । निशी. १९१ अ । त्वग्वर्त्तनं-सयनम् । निशी० २४७ अ | निशी० २४० अ वहत परिवेषयन् । स्था० १४८० वहति वर्त्तते प्रादुर्भवति । आचा० १० वर्त्तते युच्यते । आव० ८२०] वर्त्तते। आव० ८२२२ वर्त्स्यति । उत्तः ३०२ वट्टपव्वया वत्तपर्वताः शब्दापातिविकटापादिकाः । वर्तुलविजयार्द्धपर्वतविशेषाः। प्रश्न. ९५ वाणी - वर्त्तमानां साराम् । व्यव० ७८ अ । अवत्था। निशी० ३२५ आ । वय वर्तुलम् आव० १९४ वर्त्तकः जत्वादिमया बालरमणकविशेषः । अन्त०५१ वट्टवेयड्ढपव्व- वृतः वलयाकारत्वात् वैताड्ढ्यः नामतः स च सो पर्वत्तः चेति विग्रहः वृत्तवैताद्यपर्वतः स्था० ७९। वसण्ठाणपरिणय- वृत्तसंस्थानपरिणतः कुलालचक्रादिवत् । प्रज्ञा० १९ । वट्टा- बृहत्तरा रक्तपादा। निशी० २७७ अ । वर्त्तकापक्षिविशेषः । भग० ७५४ वृत्ता- वृत्तार्द्धवलयाकारा । सूर्य॰ ७१। वृत्ता-वृत्तार्द्धवलयाकारा। सूर्य० ७३। वृत्ताअर्द्ध-वलयाकारा। जम्बू० ४५४ | वर्त्तनी । आव० ८०१ | वट्टि- वर्त्तिः। आचा० ५७ । वर्त्तिः दशा । जम्बू० १०२ वट्टि - उपचितकठिनभावः । जम्बू० ५२| वडिआ वर्त्तिता, वृत्ता । जम्बू- ११०१ वहिज्जमाणचरए परिवेष्यमाणचरकः । औप० ३९१ वडिय वर्त्तितः वृत्तिं कारितः, तत्र क्षिप्त इति। ऑप० ८७ वतः बद्धस्वभावः, उपचितकठिनभावः । जीवा० २०७ | वर्त्तितः- बद्धस्वभावः, उपचितकठिनभाव इति । जीवा० ३६१ | वडिया वर्त्तिता वृत्तिः । जीवा० २७० श्लेषद्रव्यविमिश्रितानां वलिता । प्रज्ञा० ३3 | परिवेषिता । मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] आव० ४३४ | वही वत्ती जीवा० २६६॥ वर्त्तिःश्लेषद्रव्यमिश्रितानां वलिता एकरूपा । प्रज्ञा० ३४ | वडावरए वर्त्तकवर:- लोष्टकप्रधानः । भग० ७६६ ॥ as - वनस्पतिविशेषः । भग० ८०३ | जक्षवानव्यन्तरस्य चैत्यवृक्षः । स्था० ४२१ वटः खाद्ये वृक्षविशेषः । आव ० ८२० बहुबीजकवृक्षविशेषः प्रज्ञा० ३२ वडउरं- जलोदरम्। बृह० २७२आ। वडग- त्रसरीमयम्। भग० ५४७ । वटकः खाद्यविशेषः । पिण्ड १७ वडगर- मत्स्यविशेषः । जीवा० ३६ | मत्स्यविशेषः । प्रज्ञा० ४४| वडथलग- वटस्थलकं विश्रामविषयः । उत्त० ३७९ । वडपुरग. वटपुरकं- नगरम् । उत्त० ३७९॥ वडप्फडंत- अभीक्ष्णमितस्ततो भ्रमणः । बृह० २४७ अ । वडभ- सर्वमङ्गपार्श्वहीनम् । निशी० ४३ आ । निशी० २७७ आ| वडभः वामनः । ओघ० ७४ । वटभः वक्रोपरिकायः । प्रश्न. २५ | वामनः । बृह० २४२ आ । वडभत्त- वडभत्वं विनिर्गतपुष्ठीवडभलक्षणम्। आचा० १२० | वडभि धात्रिविशेषः । जाता० ३७॥ asभिया- वटभिका - वक्राधः कायाः । औप० ७७ | वडभीया- वडभिका-महडकोष्ठावक्राधः काया । जम्बू० १९१| वडवामुह वडवामुखः मेरो पूर्वस्यां दिशि महापातालकलशः । जीवा० ३०६ | वडा मत्स्यविशेषः । प्रज्ञा० ४४ | वडार - वण्टकः । ओघ० २०४ | भागच्छा० । व्यव० २५४ अ । वडिंस अवतंसः- दिग्हस्तिकूटनाम। जम्बू० ३६० | वडिंसग - अवतंसः - शेखरः । जीवा० १९३ | वडियं पतितः । ज्ञाता० २०५ | वडेंस - अवतसः - शेखरः - गिरीणां श्रेष्ठः मेरुनाम । जम्बू० ३७५ | वडेंस अवतंसकः । सूर्य ७८ वडेंस अवतंसक-शेखरकम्। औप० ७१ वसा किंनरस्य प्रथमाऽग्रमहिषी स्था० २०४१ किंनरस्य प्रथमाऽग्रमहिषी। भग० ५०४ | धर्मकथायाः पञ्चमवर्गे [165] "आगम- सागर- कोषः " [४] Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text]] अध्ययनम्। ज्ञाता० २५२ वड्ढेइ- कलहयति। आव० ३२३। कलहयति। आव० ६९२। वड्ड- बृहत्। आव० २०५। वृद्धः। ओघ० १७५, १८२। वण- वनः-तरुविशेषः। जीवा. १८२ व्रणः-क्षतलक्षणः। वड्डक-अष्टकमय भाजनम्। बृह० २४१ ।। आव० ७६४। व्रणः-छिद्रम्। दशवै. ९५| वनः-वनस्पतिवड्डकरअ- बृहत्करः-व्यन्तरविशेषः। आव० ४११। कायः। ओघ० ३५। वनम्। सूत्र० ३०७। वनं-एकजातिवड्डकुमारी- दरिद्र श्रेष्ठीधूया। व्यव० १७ अ। वृद्धकुमारी। यवृक्षसमुदायः। भग० ९२ वन-वनखण्डः। प्रश्न ३९। ओघ०७४। वनं-वनस्पतिकायः। ओघ० ३५। एकजातीयवृक्षैर्वनम्। वड्डखेड्ड- बृहती क्रीडा। आव० ३९५१ जीवा० १८६। वनं-नगरविप्रकृष्टम्। जीवा० २५८। वनंवड्डग- वड्डकं-कमढकम्। बृह. २९९ अ। एकजातीयानामुत्तमानां महीरूहाणां समुदायो वनम्। वड्डतर- बृहत्। निशी० १०८ अ। प्रज्ञा० ५१। वनं-नगरविप्रकृष्टम्। प्रश्न. १२८। वनंवड्डयर-वृद्धत्तरः। ओघ० १७५ कायजालम्। आव० ५६७। वन-अरण्यम्। उत्त० ११६) वड्डवड्डेणं- बृहताबृहता। आव० ३६७। वनं-नगरवि-पकृष्टम्। भग० २३८ वनः-तरुविशेषः। वड्डा- बृहती वयसा। ज्ञाता०२४८। जम्बू. २५। व्रणः-अरक्तदविष्टेन व्रणलेपदानवद वड्डुगा- सुसंतरं संभुजति। निशी० ४७ आ। भोक्तव्यम्, साधोरुपमा-नम्। दशवै० १८१ वड्डेणं- बृहता। आव० ९०। नगरविप्रकृष्टं वनम्। राज०११२ वनंवड्डेति- कलहयति। उत्त० १७९। एकजातीयवृक्षाकीर्णम्। अनुयो० १५९। वनं-द्रुमविशेषः। वड्ढ- बृहत्। आव० २३७। वृद्धः। दशवै०४० राज० ८नगरविप्रकृष्टं वनम्। ज्ञाता० ३३ वड्ढइ- वर्द्धकिः स च स्वविज्ञानप्रकर्षप्राप्तोऽमित्वापि एकजातीयवृक्षः। ज्ञाता०६३। देवकुल-रथादीनां प्रमाणं जानाति। नन्दी. १६५। वर्द्धते- | वणकप्प- वनकल्पः-पार्श्वस्थादिविहारः। ब्रह० ११२ आ। वर्द्धमानः। जीवा० ३३९। वर्धकिः। आव० ४२७। वर्द्धकिः। वणकम्म- वनकर्म-वनं क्रिणाति विक्रयक्रियया। आव. दशवै०४१। ८२९| वड्ढइमाई- वर्धक्यादिः। आव० ५५ वणकुला- अतिशयकुला। निशी० ८५अ। वड्ढइरयण- वर्द्धकिरत्नं सूत्राधारमख्यम्। जम्बू. १९७| वणकुसुम- वणवृक्षकुसमम्। प्रज्ञा० ३६२ वड्ढकुमारी- दरिद्दसेडिकुले रूपवती पुत्री। निशी० ७। वणखड- वनखण्डः-अनेकजातीयैरुत्तमैर्वृक्षेरुपशोभितम्। वड्ढणी- वर्द्धनी बहुकरिका। भग० ५२०| सम० ११७ अनेकजातीयानामत्तमानां महीरूहाणां वड्ढति- वर्द्धकी-सूत्रधारः। स्था० ३९९। समूहो वनखण्डः। प्रज्ञा० ५६१। वड्ढतिरियण- चक्रीणां तृतीयं पञ्चेन्द्रियरत्नम् सूत्रधारः। वणगहर- वनगह्वरम्। ओघ. ५३। स्था० ३९८ वणचर- वनचरः-पुलीन्द्रः। प्रश्न० ३८पुलीन्द्रः। निशी० वड्ढमाणगिह- वर्द्धमानगृहं अनेकधा १२८ । वस्तुविद्याऽभिहितम्। उत्त० ३१२। वणचरग- वनचरकः-सबरः। प्रश्न. १३॥ वढ्ढमाणते- अवधिज्ञानस्य तृतीयो भेदः, वणचारिण- वनेषु-विचित्रोपवनादिषूपलक्षणत्वादन्येषु च सर्वरूपिद्रव्याणि विषयीकरोति तत्। स्था० ३७०। विविधास्पदेषु क्रीडैकरसतया चरितुं शीलमेषामिति वड़ढमाणी- वर्धमाना। आव०७८६ वन-चारिणः-व्यन्तराः। उत्त०७०११ वड्ढवास- वृद्धस्य-जरसा परिक्षीणजंघाबलस्य वा सतो वणणसाला- वयनशाला। दशवै० ५२ वासो वृदद्धवासः। अथवा वृद्धः-कारणवशेन रोगेण वृद्धि वणणिगुंज- वननिकुञ्चम्। आव० ६२२। गतो वासो वृद्धावासः। व्यव० १०१ अ। वणतिल्ल- व्रणतैलं-व्रणसरोहकं तैलम्। व्यव० १२९ अ। वढिप्पउत्त- वृद्धिप्रयुक्तम। आव० ४२२ वणदव-वनदवो-अनाग्निः । ज्ञाता०६३। वढियाइय- वर्धितम्। आव० ५०७। वणनिउंज- वननिकुञ्जम्। आव०४२०० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [166] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] वणनिगुंज- वननिकुञ्जः। ओघ० ३४।। अनेकजातीयैरुत्तमैश्च पादपैराकीर्णम्। अनयो० १५९। वणमाल-द्वाविंशतिसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। वनष-ण्डः-एकानेकजातीयोत्तमवृक्षसमूहः। जीवा. सम०४१ आभरणविशेषः। उपा०२६। वनमाला २५८। वन-षण्डः-अनेकजातीयवृक्षसमूहः। जीवा० ३००। आभरणवि-शेषः। औप० ५०| वनमाला-रत्नादिमय वनखण्डम्। आव०१८५ स्था०८६) आपदीन आभ-रणविशेषः। औप०५१। वनमाला- वणसुक- वणे सुको। वणचरेण यो स्गो गहितो वणस्को। वनस्पतिस्रक्। औप०५१| वनमाला। जीवा० १७२। निशी० १६१ । वनमाला-चन्दनमाला। जीवा. २६८। वनमाला- वणहत्थी- वनहस्ती। उत्त० ३८० मालाविशेषः। प्रश्न ७७। वनमाला वणाणलेवण- व्रणानलेपनं-क्षतस्यौषधेन विलेपनम। अनेकसुरकुसुमग्रथिता अन्या वा माला। आव० १८४। भग० २९४१ वनमाला-चन्दनमाला। जम्बू०१०४। वणि-जे णिवद्विता ववहरंति। निशी० ४५अ। वणयर- वनचरकः-शबरादि। ज्ञाता०६२| वणिउ- वणिक्-सांयात्रिकः। उत्त०४०५। वणराइ- वनराजिः-वृक्षाणां पङ्क्तिः । जम्बू० ९८१ वणिए- वणिक्-पण्याजीवः। जम्बू. १२२॥ वणराई- वनराजिः-वृक्षापङ्क्तिः । भग० २३८ वनराजी- वणिओ- व्रणितो-जर्जरीकृतः। बृह० २५६ व। लुहुओ प्रतीता। प्रज्ञा० ३६०| वनराजी-सिन्धुदत्तज्येष्ठसुता रायचिंघसहियो। निशी० ३५८ अ। वनुतो-प्रायो ब्रह्मदत्तराजी। उत्त० ३७९। अनेकजातीयवृक्षाणां दायकसम्मतेह श्रमणादिष्वात्मानं भक्तं पक्तिः । ज्ञाता०६३। वनराजिः-एकानेकजातीयानां दर्शयित्वापिण्डं याचते इति वनीपकः। पिण्ड० १३० वृक्षाणां पङ्क्तिः । जीवा० २६५। एकजातीयानामितरेषां वणिज- वणिज्यः। दशवै० ५८ वा तरूणां पक्तिः वनराजिः। अनुयो० १५९। वणिज्ज- वनति-दर्शयति। पिण्ड० १३० वणिज्यवनराजी- वनराजी-एकजातीयोत्तमवृक्षसमूहः। जीवा. करणम्। जम्बू०४९३ वणिमट्ठ- वनीपकः-कृपणः। दशवै० १७३| वणलया- वनलता-चम्पकलतादि। भग०४७८। वणियंतरावणट्ठाण- वणिजोऽन्तरापणे उत्थानम्। स्था० लताविशेषः। प्रज्ञा० ३२ वनलता। आव०६४९। ३३० वणवासिण- गेरुआ। निशी. ९८ अ। वणी- वनी। स्था० ३४२ वणवासीणगरी- यत्र वासुदेवस्य जेट्ठभाओ जराकुमारस्स वणीमओ-दरिद्रः। ओघ. १५६| पुत्तो जियसत्तू राया। निशी० २५८१ वणीमग- वनीपकः-इह तु यो यस्यातिथ्यादिभक्तो भवति वणविदुग्ग- वनविदुर्गः-नानाविधवृक्षसमूहः। भग० ९२ तं तत्प्रसंसनेन यो दानाभिमखं करोति स वनीपक सूत्र० ३०७ इति। स्था० ३४२। वनीपकः-भिक्षाचरः। पिण्ड० १२११ वणविरोह- वनविरोध-द्वादशममासनाम। जम्बू. ४९०। वनी-पकः-याचकः। जम्बू०६६। वनीपकः-भिक्षुः। आव० वणविरोही- वनविरोधीः-द्वादशममासनाम। सूर्य. १५३। ६४०। दातुर्यस्मिन्-भक्तिस्तत्प्रसंसयाऽवाप्तो वणसंड- एकजातीयवृक्षसमूहात्मको वनखण्डः। भग. वणिमगः- वणमगपिण्डः। उत्त्पादनादोषे दाणादिफलं २३८। वनषण्डः-पाटलषण्डे नगरे उद्यानम्। विपा०७४। लवित्ता लभंति तेसिं जं कडं तं। निशी. २७० अ। वनष-ण्डः-अनेकजातीयानामुत्तमानां महीरूहाणां वणीमग्ग- वनीपकः-तकः। प्रश्न. १५४।। समूहः। जीवा० १८६। अनेकजातीयवृक्षः। ज्ञाता०६३।। वणीमया- वणीमकः-वन्दिप्रायः। आचा० ३२५ वनीपअनेकजातीयाना-मुत्तमानां महीरूहाणां समूहो कता-रङ्कवाल्लल्लिव्याकरणम्। प्रश्न. १०९। वनखण्डः। राज०७३। एक-जातीयवृक्षसमूहः। वण्ण- वर्णः-लाघा। भग. ९० वर्णः-चन्दनम्। भग. वनखण्डः। ज्ञाता० ३३। एकाऽनेकजा २००। वर्णः-शरीरच्छविः। जम्बू० १८२वर्णःतीयोत्तमवृक्षसमूहो वनखण्डः। राज० ११२। वनखण्डं- | निषादपञ्चमादिः। दशवै० ८८ वर्णः-अर्द्धदिग्व्यापी। ર૮. मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [167] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] दशवै० २५७| वर्णकालः आव० २५७॥ वर्ण:वर्णमाधिकृत्य | जीवा० १०७ । वर्णग्राहकं चक्षुरिन्द्रियम्, वर्ण्यते यथाऽवस्थितं वस्तुस्वरूपं निर्णीयतेऽनेनेति वर्ण कृष्णादिरूपं वा प्रज्ञा० १९९। वर्ण- गौरादि। आव ५६९| वर्ण्य-स्निग्ध-वर्णोपेतम् । ओघ० २११। वर्ण्यतेअकृयते वस्त्वनेनेति वर्णः। अनुयो. ११०) वर्ण:यशः। ओघ० ५३। वर्णः -वर्ण-तया यथात्म्यम् । औप० १०९। वर्ण श्लाघा, यथावस्थित-स्वरूपकीर्त्तनम् । जीवा० १८० । वर्णः - वर्णकनिवेशः । जीवा० २०४॥ वर्ण:वर्णकनिवेशः। जीवा उप९॥ वर्ण: यशः। ओघ० ५३३ वर्णनं वर्णः श्लाघनम् उत्त० १७ वर्ण:-लाघा उत्त० ५७९। वर्णकः-कम्पिल्लकादिः । आच० ३६३ | निशी० ११९अ। वर्ण्यते-प्रशस्यते येन स वर्णः साधुधारः । आचा० २१२॥ वर्णः सर्वदिग्गामी यशः । स्था० १३७ | जसो पभावितो भवति । निशी० ११९ आ । वर्ण: आगम - सागर - कोषः ( भाग : - ४) सुस्निग्धगोरत्वादिकः। उत्त० २६७। वण्णओ - वर्णकः । सूत्र० २ | वर्णनग्रन्थः । जम्बू० ४८ | जा सुगंधा चंदाणादि चूर्णानि । निशी. ११६ । वण्णकाल- वर्णकालः वर्णश्चासौकालश्चेति। दशकै १ वण्णग- वर्णकं वर्णविशेषपादक लाधादिकम्। सूत्र ३३०| वण्णगविलेवण- वर्णकविलेपनं मण्डनकारिकुकमादिविलेपनम् । औप. ६६। वण्णफासजुत्त वर्णस्य स्पर्शयुक्तं अतिशायिवर्णस्पर्शाभ्यां युक्तम् जीवा० २५३1 वण्णवज्झ- वर्णवध्यं-वर्णवाह्यम्। श्लाघावध्यं अशुभं वा । भर०९० । वण्णवासा- वर्णवर्षः-चन्दनवर्षणम्। भग० २००| वण्णबुडी- वर्णवृष्टि:- चन्दनवृष्टिः । भग० १९९ | वण्णा वर्णाः ककादिव्यञ्जनानि प्रश्न. १९७ वण्णास- वर्णभेदविवक्षा-वर्णादेशः । जीवा० २३ | वण्णासी- वर्णादेशी-वर्णाभिलाषी । आचा० २१२ | वण्णावास- वर्णकव्यासः वर्णकविस्तरः । भग० १४५ । वर्णः श्लाघा यथावस्थितस्वरूपकीर्त्तनं तस्यावासोनिवासो ग्रंथपद्धतिरूपो वर्णकनिवेशः वर्णावासो, वर्णव्यासोवर्णक ग्रन्थविस्तरः । जम्बू० २२| वर्णकव्यासो वर्णकविस्तारः । उपा० २०| वर्णावास:वर्णकनिवेशः । जीवा० २८९ वर्णावासः वर्णस्य श्लाघा • मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] यथावस्थितस्वरूपकीर्तनस्य निवासः, वर्णकनिवेशः । जीवा. १८० वह अन्धकवृष्णिः । द्वारिकाधिपतिः यादवविशेषः । अन्त० ३ वहिदसा - निरयावलिकायां पञ्चमवर्गः । निर० ३ | वहिपुंगव वृष्णिपुङ्गवः यादवप्रधानः । उत्तः ४९० वही- तृतीयलोकान्तिकः । स्था० ४३२ | वहिन - वैरोचनविमानवासी तृतीय लोकान्तिकदेवः । भग० २७१ | वह्नि। आव० १३५। वह्नि-तृतीयो लोकान्तिकदेवः । ज्ञाता० १५१। वहीदसा अन्धकवृष्णिदशा-अन्धकवृष्णिनराधिपकुले ये जातास्तेऽपि अन्धकवृष्णयः तेषां दशा:अवस्थाश्चरितम-तिसिद्धिगमनलक्षणा यासु ग्रन्थपद्धतिषु वर्ण्यता अन्धक- वृष्णिदशाः । अन्धकवृष्णिवक्तव्यताप्रतिपादिका दश अध्ययनानि । नन्दी० २०८ वत स्थूलप्राणातिपातविरमणादि स्था० २३६ व्रतानिसप्तशिक्षाव्रतानि। स्था- २३६| वतिओ सविसतातो गतो नि०चु० ८१ आ वतिकर- सुदासुद्धाणं मेलओ निशी. ९९ अ वतिकलिओ कोणेसु भिण्णो निशी १२५ अ वतिकार - संसग्गी | निशी० १६१ अ । वतिक्कमो मर्यादातिक्रमः । बृह० १९४अ वतिज्झाणं । निशी० ४९ आ [168] - वतिता गोउलं निशी० ९६ आ वतिर वज्रं कीलिका स्था० ३५01 वनिरोअण तृतीयं लोकान्तिकविमानम्। स्था० ४३२ | वतिसंकिलेस संक्लेशविशेषः स्था० ४८९। वतिस्ससि वदिस्यति-उपदेशस्यति जाता० १५८० वतीदिसं निशी २४३ आ वत्त- जं अतीते काले इयाणि दशकै २८ वृत्तं-अतिक्रान्म् ।। दशवै० ६२॥ वृत्तः जातः । प्रश्न० ८६ । वत्रंसूत्रवलनकम्। औप. २०| व्यक्तंअक्षरस्वरस्फुटकरणतो यद् गीयते। जीवा॰ १९४। व्यक्तं अक्षरस्वरस्फुटकरणात्। जम्बु० ४०। वृत्तःएकवारं प्रवृत्तः व्यव. ४४१ अ वर्त्त सूत्रवलनकम्। जम्बू. ११०) व्यक्तः संजातश्मश्रु बृह० ८८ आ *आगम - सागर- कोष" (४) Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] । ३३ व्यक्तं-अक्षरस्वरस्फुटकरम्। अनुयो० १३२। विद्या वस्त्रविद्या भवति तया परिजपितेन वस्त्रेण वा वत्तणा- पूर्वगृहीतस्य पुनरुद्वलन वर्तना। व्यव० २७६ । प्रमृज्यमानः आतुरः प्रगुणो भवति। व्यव० १३३ आ। अ। वर्तन्ते-भवन्ति भावास्तेन तेन रूपेण तान्प्रति वस्त्रं-क्षौमिकः कल्पः। आचा. २४० वस्त्रं-प्रावरणम्। प्रयोजकत्वं वर्तना। उत्त०६५१। वर्तना आचा० ३९३। वस्त्रं-चीनांशुकादि। आव० १२९। प्राग्गृहीतस्येवास्थिरस्थ सूत्रादेर्गुणनम्। आव० २६७। वत्थकुंडगा- वणादीणं कुलेसु जे वत्थकुंडगा। निशी० ५२ वर्तना-भवन्ति भावास्तेन तेन रूपेण तान् प्रतिप्रयोजकत्त्वं वर्तना। उत्त० ५६१| वत्थपलिआम- वत्थपलिआमं णाम वत्थो रुक्खो भण्णइ, वत्तमाणप्पयं- सूत्रे भेदविशेषः। सम० १२८१ तम्मि रुक्खे जं फलपते विकाले अण्णेवि पक्केस् ण वत्तव्य- वक्तव्यः। आव० २२० पव्वति आमं सरडी भूतं तं वत्थपलिआम भण्णति। वत्तव्यया- वक्तव्यता-यथासम्भवं निशी० १२५ आ। प्रीतिनियतार्थकथनम्। अनयो० २४३। वक्तव्यता- वत्थपाएसा- वस्त्रपात्रे-आचारप्रकल्पे पदार्थविचारः। उत्त. १४१ द्वितीयश्रुतस्कन्धस्य पञ्चमषष्ठाध्ययने। पश्न. वत्ता- वृत्तो समाप्ता। बृह. १३५ आ। १४५ वत्तावत- चरः | निशी. १७३। वत्थपुस्तमित्त- वस्त्रपुष्पमित्रः-आर्यरक्षगच्छे मुनिः। वत्ति- वृत्तिः -प्रवृत्तिः । भग० २९४। दशा। भग० ३७७। आव० ३०७ वत्तित- वर्तितः-पुजीकृतः, धूल्या वा स्थगितः। आव० | वत्थमित्ता- णत्तियं कारति दक्खो। निशी० ३३२आ। ५७३। वत्थल- गुच्छविशेषः। प्रज्ञा० ३२। हरितविशेषः। प्रज्ञा० वत्तिज्जा- वर्तयेत्-अन्यत्र पातयेत्। आचा० ४२८। वत्तिय- वर्तितं-वत्तुलीभूतम्। आव० ६६५। वार्तिकम्।। | वत्थवासा- वस्त्रवर्षः। वस्त्रवर्षणाम्। भग० १९९। वार्तिकं-अशेषपर्यायकथनम्। आव० ८६। वत्थविहि-कलाविशेषः। ज्ञाता० ३८ वत्तिया- वतिया-वलिता। आचा० ५७ वर्तिता- वत्थवुट्ठी-वस्त्रवृष्टिः। भग० १९९। शाखादीनां वा समतया वृत्तीभूताः सन्तो वर्तिता वत्थव्वग- वास्तव्यः। आव० ८५८१ अभिधीयन्ते। ज्ञाता० ११६| वत्थि- वस्तिः -शलाकानिवेशनस्थानम्। प्रश्न. ७६) वत्ती- संदेशः। निशी० ३४६ आ। वतिः । आव०६२११ बस्तिः। आव० ६२१। बस्तिः -दृतिः। भग० ८२। बस्तिःवत्तीकरण- व्यक्तीकरणशीलः-व्यक्तिकरः। आव० ९६। | गुह्यदेशः। प्रश्न. १७ बस्तिः -दृतिः । भग० ७५७। वत्तेइ-वर्तलीकरोति। भग० २३० वत्थिकम्म- कडिवायअरिसविणासणत्थं च अपाणद्दारेण वत्तेज्जासि- निर्वतयसि। उपा०४२ वत्थिणा तेल्लादिप्पदाणं वत्थिकम्म। निशी० ८९ आ। वत्तेति- वर्तयति-आवतपतितं कर्वति। प्रज्ञा० ५९२। बस्तिकर्म-चर्मवेष्टनप्रयोगेण शिरःप्रभृतीनां स्नेहपुरणं वत्तेल्लय- वर्तते। आव० ३०६। गुदे वा वादिक्षेपणम्। विपा०४१। बस्तिकर्मवत्तेह- वर्तयथ-लक्षणतां नयथ। भग० ३८११ चर्मवेष्टनप्रयोगेन शरिः प्रभृतीनां स्नेहपुरणं, गदे वा वत्थंतकम-दसातो तुणति। निशी. १२१ आ। वादिक्षेपणम्। ज्ञाता० १८१। वत्थ- वस्त्रम्। प्रश्न. ८ वस्त्रम्। आव० ११५ वस्त्रम्। वत्थिनिग्गह-बस्तिनिग्रहः-उपस्थनिरोधमात्रम्। उत्त. आव० ३१४, ७८३। वस्त्रं-आचारप्रकल्पस्य चतुर्दशो ४२११ भेदः। आव०६६०| रुक्खो। निशी. १२६ अ। वत्थिपएस- बस्तिप्रदेशो नाम जनपदविशेषः। भग०६८० वस्त्रं सामायिकलाभे छत्रमध्यभागवर्तीदण्डप्रक्षेप स्थानरूपः। जम्बू. २४२। दृष्टान्तः। आव० ७५। आचाराङ्गे चतुर्दशममध्ययनम्। | वत्थिप्पदेस- बस्तिप्रदेशः। गृह्यदेशः। प्रश्न० ८४ सम० ४४। वस्त्रं-पटलकरूपम्। उत्त० ५४०| अन्या वत्थिसंजम- बस्तिनिरोधः, भावब्रह्म तु साधूनां मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [169] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] बस्तिसंयमः। आचा० ९। मैथुनोपरमः। निशी. १। | वत्थू- वस्तु-नियतार्थाधिकारप्रतिबद्धो वत्थो- बस्तिः-चर्ममयी खल्ला। ओघ० ३४। बस्तिः- ग्रन्थविशेषोऽध्ययनव-दिति। सम. १३१। वस्तुअपरचर्ममयस्थिग्गलकस्थगितग्रीवान्तर्विवरोऽतिविवृ परिच्छेद विशेषाः अध्ययनवद् विभागविशेषः। सम० त-मुखीकृतपाश्चात्यप्रदेशः। पिण्ड०१८ चम्मनमयी २६। वस्तु-अर्थाधिकारविशेषः। व्यव० ९०आ। वस्तुसोयव्वे-ज्झसालासु भवति। निशी. ६०आ। विषयाधारभूत रासभादि। आव० ५८४| वस्तूवत्थीकम्म- वत्थीदइओ भण्णइ, तेण दइएण घयाइणि ग्रन्थविच्छेदविशेषः। नन्दी० २४११ अधि-द्वाणे दिज्जति। दशवै. ५११ बस्तीकर्म वत्थेणं- मज्झेण गंतुकामा देसीभासा पत्रे। निशी. ३१६ पुटकेनाधिष्ठाने स्नेहदानम्। दशवै० ११८ अ। वत्थु- पक्षविशेषे प्रथमः। स्था० ४९२। वस्तु वत्थेसणा- वस्त्रैषणा-आचाराङ्गस्यसचेतनमचेतनं वा शरीरम्। प्रज्ञा० २९१। वस्तु चतुर्दशममध्ययनम्। उत्त० ६१६) दोषावासः। प्रश्न. १२०| वास्तुः-गृहभूमे विद्या वत्सराज- आधाकर्मसम्भवे अन्तर्दृष्टान्ते वस्तुशास्त्रप्रसिद्धम्। जम्बू० १३८वस्तुः-चेतनादि। योगराजस्यानुजः। पिण्ड०६४। आच्छेदयदवारविवरणे आव० ५८३। वसन्त्यस्मिन्निति वास्तु: गोपालः। पिण्ड०१११ खातोच्छ्रितोभयात्मक। उत्त० १८८। वास्तुः-गृहभूमिः। | वत्सवणिग्जायादृष्टान्तः।- अव्याक्षिप्तचित्ते दृष्टान्तः। जम्बू. २०७। अत्थाधिकारो। निशी० ११७ आ। दशवै० १६३। वास्तुविद्या। आव० ६६०। पहाणपरिसो आयरियादी | वदनोपपत्ति- द्वारघटना। जम्बू० २५९। वत्थं परिणामगा वा। निशी. १३८ आ। वास्तुः गृहम्। वदासि- अवादीत्-उक्तवान्। सूर्य०६। बृह. ५० अ। वस्तु-आचार्यादिः प्रधानपुरुषो यद्वा । वद्दलए-वार्दलकं-मेघः। राज०२३। गीतार्थः। ब्रह. १५९ आ। वास्तु-धवलगृहादि। आचा. वद्दलग- वद्दलकं-दुर्दिनम्। स्था० १४२। १२१। वास्तु गृह शरीरं दुःसंस्थितं विरूपं वा वद्दलिताभतेइ-वईलिका-मेघाडम्बरं तत्र हि वृष्ट्या । उपधिर्मद्यस्योपक-रणम् । स्था० १९४। वास्तु भिक्षाभ्रमणाक्षमो भिक्षुकलोको भवतीति गृही तदर्थं आगारम्। आव० ८२६। वस्तु-प्रकरणात् पक्षः। स्था. विशेषतो भक्तं दानाय निरूपयतीति। स्था० ४६० ४९३। गृहम्। बृह०१०। वद्दलिया- वार्दलिका-मेघदुर्दिनम्। भग० २३१। वईलिकावत्थुदोस- पक्षदोसः। स्था०४०२। वृष्टिः । ज्ञाता०४९। वत्थपरिच्छा- वास्तुपरीक्षाया, अथवा वास्तूनां परिच्छेदः- | वद्दलियाभत्त- वार्दलिका भक्तं-दुर्दिने भिक्षुकाणां आच्छादनं-कटकम्बादिभिरावरणम्। जम्बू० २०९। निर्वाहार्थं विहितं भक्तम्। भग. २३१। भग० ४६७। वत्थुपाढए- वास्तुपाठकः। आव० ६७० वद्देणं- महत्ता । बृह. २८ अ। वत्थुपाढगरोइत- भूमिविशेषः। ज्ञाता० १७८१ वद्धकम्मत- वर्द्धकर्मान्तम्। आचा० ३६६) वत्थुप्पएस- वास्तुप्रदेशः-गृहक्षेत्रैकदेशः। जम्बू० २०९। वद्धणि- वर्भानी, गलंतिका। जम्बू. १०१। वत्थल- वत्थूलादिहरितं भण्णति। निशी. १४२ आ। वद्धमाण- उत्पत्तेरारभ्य ज्ञानादिभिर्वर्द्धत इति वर्द्धमानः, गुल्मविशेषः। प्रज्ञा० ३२॥ चतु-विंशतितमोजिनः, येन गर्भगतेन ज्ञानकुलं वत्थुलगुम्मा- वस्तुलगुल्मा। जम्बू० ९८१ विशेषेण धनेन वर्धितं तेन। आव. ५०६। वर्द्धमानकंवत्थुविज्जा- वास्तुविद्या शरावसंपुटम्। जीवा० १६१। वर्द्धमानपुर-अनन्तजिनस्य प्रासादादिलक्षणाभिधायिशास्त्रा-त्मिका। उत्त०४१७ प्रथमपारणक-स्थानम्। आव० १४६। वर्द्धमानःकलाविशेषः। ज्ञाता० ३८१ वृद्धिभाक्। उत्त०४९२। तीर्थकरः। निशी० ३५२ आ। वत्थुसंखा- वस्तुसङ्ख्यादृष्टिवादे श्रुतपरिकर्मसङ्ख्या। । वर्द्धमानक-पुरुषारुढं पुरुषरूपं वा। औप० ५१। वर्द्धमानकं अनुयो० २३४ शरावसंपुटम्। भग० ४७९। वर्द्धमानः। जम्बू० २०९। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [170] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text]] ५३५ वर्द्धमानः। जम्बू० ४१९। वनमाला- आभरणविशेषः। स्था० ४२१। वनस्पतिपल्लववद्धमाणग- वर्द्धमानकं शरावम्। औप. १० वर्द्धमानकं- स्रजः। सम० १३८१ । जम्बू. ३१। द्वाषष्ठितममहाग्रहः। स्था० | वनराजी- एकजातीयोत्तमवृक्षसमुहो वनराजी। राज. ७९। वर्द्धमानकः-स्कन्धारोपितनरः। जम्बू. १४२। ११ वर्द्धमानकं-शरावं पुरुषारूढः पुरुषो वा। प्रश्न० ७० वर्द्ध- वनविदुर्ग- नानाजातीद्रुमसंघातः। व्यव० ३४९ आ। मानकं-शरावसम्पुटम्। राज०८ वर्द्धमानकः वनाधिपति- यक्षभेदविशेषः। प्रज्ञा० ७०| स्कन्धारो-पितपुरुषः। ज्ञाता० ५८ वर्द्धमानकः। जम्बू० वनाहारा- यक्षभेदविशेषः। प्रज्ञा०७० वनीपक-वनीपकः-वनति भक्तमात्मानं दर्शयतीति। वद्धमाणपुर- वर्द्धमानपुरं-नगरं विजयमित्रराजधानी। पिण्ड० १३०| उत्त०४१८१ विपा०८1 वन्दते- वाचा स्तौति। निर० ३। वद्धमाणय- वर्द्धमानकं-शरावसंप्टम्। जीवा० १८९। वर्द्ध- वन्न- वर्णः-एकदिग्व्यापीसाधुवादः। स्था० ५०३। वर्णःमानक शरावसंप्टम्। प्रज्ञा० ८७। एकदिग्व्यापीसाधुवादः। भग०६७३। वर्ण:वद्धमाणसंठिए- वर्द्धमानसंस्थितम्। सूर्य. १३० गाम्भीर्यादि-गुणैः श्लाघागौरादि। उत्त० २८४। वर्णःवद्धमाणसामि- रायगृहनगरे चतुर्विंशतितीर्थकरः। ब्रह. सुस्निग्धौ गोर-वादिः। उत्त०४७३। वर्णः ३१ अ। सीहपरिभवे दृष्टान्तः। व्यव० १६६ आ। वर्णमधिकृत्यः। प्रज्ञा० ८११ वर्णः-संयमः मोक्षो वा। वर्द्धमान-स्वामी यस्य पुरतः सूर्याभदेवेन द्वात्रिंशन् आचा० २९५ वर्णः-देहछाया। बृह. १९७ आ। वर्णःनाट्यविधयो भाविताः। जीवा० २४६। वर्द्धमानस्वामी- गौरवम्। ओघ.१८३। भावप्रतिक्रमणो-दाहरणे भगवान्, यस्य पार्वे वन्नइस्सामि- वत(ण)यिष्यामि-रचयिष्यामि। प्रज्ञा. कौशाम्ब्यां चन्द्रसूर्यौ सविमानेन वन्दितमागतौ। आव० १६३ ४८५१ वन्नओ- वर्णकः-वर्णनम्। भग०६) वद्धमाणा- शाश्वत्प्रतिमानाम। स्था० २३० वर्द्धमानाशा- वन्नग- वर्णकं चन्दनम्। ज्ञाता० ३० श्वतप्रतिमा। जीवा०२२८ वन्नगपेसिया- चन्दनपेषिका। भग०७६६। वद्धमानक-नाट्यविशेषः। जम्बू० ४१४। वन्नड्ढ- वर्णाढ्यः। ओघ० २१११ वद्धा- वर्धाः-चर्मपरिच्छेदनकम्। व्यव. २९९ अ। वन्नय- वर्णकः-चन्दनम्। पिण्ड० ९६। वर्णकम्। आव० वडिओ- जस्स वालस्य आ छेज्झं दाउ वसणा गालिया। ४२७ निशी० ३४ अ। बृह. १०० आ। वन्नसंजलण- सद्भूतगुणवर्णनम्। भग० ९२५। वद्धीसग-वद्धीसकः-वाद्यविशेषः। अनुत्त०६। वन्नसंजलणा- वर्णसज्वलना- सद्भूतगुणोत्कीर्तना। वद्धीसक- वाद्यविशेषः। प्रश्न. १५९। दशवै० २४२ वद्धेउं- वर्धयितुं-षण्डयितुम्। आव० ८२४। वन्निआ- वर्णिका-पीततमृत्तिका। दशवै० १७० व हिंति- वर्द्धितकं करिष्यतः। विपा०५४। वन्नित- वर्णितं फलतः। स्था० २९७। वध- वधः-यष्ट्यादिताडनम्। प्रश्न. ३७ वन्निया- वर्णिका-पीतमृत्तिका। आचा० ३४२। वधग- वधकः-स्वयं हन्ता। जीवा० २८० वन्हिबाण- तादृशवह्निप्रकारेण परिणतः वधू-स्नुषा। उत्त० २६४ प्रतिवैरिवाहिनीष विघ्नोत्पादको भवति। जम्बू. १२५ वन- एकजातीयमसन्धातः। व्यव० ३४९ आ। वन्ही- उष्णस्पर्शपरिणता। प्रज्ञा. १० वनचरसुरा- भगवत्यामेकोनविंशतितमशतके वपु- तेयो। निशी०६१। दशमोद्देशकः। भग०७६१| वपुमंतो- वपुणाम तेयो सो जस्स अत्थि देहो सो वपुमंतो। वनपिशाचः- पिशाचे षोडशमभेदः। प्रज्ञा० ७०| निशी०६१ । मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [171] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] वप्प- वप्रः-केदारः। जम्बू. ४२। वप्रः-केदारो जलस्था-नम्। | वर्म-लोहम-यक्तूलकादिरूपम्। जीवा० २५९। वर्मजम्बू. २९११ वप्रः। आव० ५८१। वप्रः केदारो त्वक्त्राणविशेषः। विपा० ४६। जलस्थानम्। जीवा० १९८१ वप्रः-केदारः। आचा० ४१३। वम्महतोह- मन्मथयोधः। चत् । वप्रः-केदारः-जल्स्थानम्। जीवा० १२३। नवमभवण- वम्मा- वामा-पार्श्वमाता। आव० १६०| वाम्या। आव० वासीचैत्यवृक्षम्। स्था०४८७। वप्रो-विजयः। जम्बू. १०११ ३१७। वप्पो केदारो। निशी० ६९आ। वम्मिय- वर्मितं-सन्नद्धम्। जीवा० २५९। वर्मितःवप्पगा- वप्रका। आव० १३७। वप्रका-जयचक्रीमाता। आव० | वर्मीकृतः। भग. १९३। वर्मितः-वर्मतया १६१ कृतोऽङ्गेनिवेशनात्। भग० ३१८ निशी. ३आ। वप्पव्वव-सन्दिग्धः। निशी. २८९ आ। वम्मियसन्नद्ध- वर्मणि नियक्तः वार्मिकास्तैः सन्नद्धःवप्पा-। स्था० ८० नमिनाथमाता। सम० १५१। एकाद- कृत-सन्नाहो यः स वार्मिकसन्नद्धः। ज्ञाता० २२११ शमचक्रीमाता। सम० १५२ वप्रा-नमिमाता। आव. वम्मीय- वल्मीकः। आव. १५३। १६०| वप्रा-समन्नतो भूभागो ग्रामान्तरे वा केदाराः। वयंस- वयंस्यः-स्निग्धकः। आव० १९१। वयस्यः-समा आचा० ३३७। वप्राः-प्रकारा यावद्गृहम्। आचा० ३९०। नवयः- गाढतरस्नेहास्पदः। जम्बू० १२३॥ वप्पावई- वप्रावती विजयः। जम्बू. ३५७। वयंसग- अवतंसः-शिरस्त्राणम्। जम्बू. १३७। वयस्यकः। वप्पिणा- केदारवान् तटवान् वा देशः केदारः एव। भग० आव०११६ वयस्यः । आव.२७२। ૨૨૮. वयंसिदा- वयस्या। आव०२२२१ वप्पिणि- केदारः। प्रश्न केदारः। औप० ३। केदार। वयंसिया- वयस्या। आव० ३६७ प्रश्न० १६१| वय- वज्र-प्रापकम्। जम्बू. २३५। व्रतं-चित्रं द्रव्यादिविषवप्पु-वपूः-शिखरम्। भग० ४७२। यनियमरूपम्। प्रज्ञा० ३९९। व्रतंवप्रः-वर्जितत्त्वं बहुफलं च एभिर्गुणैरूपपेतो वप्रः। निशी निर्गन्थप्रव्रज्यालक्षणम्। प्रश्न० १३६। व्रतं१४१ ॥ अवद्यहेतुत्यागः। उत्त. १०४ वयः- यौवनम्। पिण्ड. वमढण- उद्वेगम्। बृह. २४६ अ। १४५। देहावस्था। नन्दी. १६५। व्रतम्। आचा० १४१| वमढेति- खरंटेति। निशी. २११ आ। व्ययः। अनुयो० १५४। व्रतं-सति असति वा वस्तुनि वमण- वमनं उदगीरणम्। उत्त०४१७। वमनं-छर्दनम्। तदिच्छापरित्यागतस्तन्निवृत्तिः। व्यव० ४१ आ। ओघ० १६४। वमनम्। ज्ञाता० १७१। छड्ड्णं । दशवै. व्रजः-गोकुलम्। उपा० २। व्रतं-नियमः। प्रश्न. ३२ वेदः१४९। उड्ढविरेयो वमणं, अहो सावणं विरेयो वमणं। आगमो लौकिकलोकोप्रात्तरकवचनिकभेदः। ज्ञाता० निशी दि०८९आ। ७। व्रतं-नियमः। निर०२४। व्रतप्रतिमा श्रावकस्य वमणि-पोंडयं। निशी. १२६अ। दवितीया प्रतिमा। आव०६४६। प्राणिनां वमति- त्यजति। उत्त० ३४६। त्यजति-क्षपयति। स्था० कालकृतावस्था। स्था० १२८ वयति पर्यटति। आचा० १४१। व्ययः। उत्त०६३२। व्रतं-मूलग्णः । सम० १०७। वमणी- वमनं-स्वतः सम्भतम्। विपा०८१ व्ययः-क्षयः। प्रश्न.१०२ व्रतः-नियमः-महाव्रतः। स्था० वमालीभूत-विप्रकीर्णम्। निशी. १७४ । २९०। वयः-संसारः, अवस्थाविशेषः। आचा० १४२। वमित्तए- वमयितुम्। ज्ञाता० ११० वयगाम- वज्रगामः। आव० २२० वमी- वान्तिः । आव० ६२५१ वयगुत्त- वाचि वाचा वा गप्तः वाग्गप्तः मौनव्रती वम्म- वृणोति-आच्छादयति शरीरकमिति वर्म- | सुपर्यालोचि-तधर्मसम्बन्धभाषी वा। सूत्र० १९२। अश्वतनु-त्राणम्। उत्त० २२३। वर्म-सन्नाहविशेषः। वयगुत्तया- वाग्गुप्ता- कुशलवागुदीरणरूपया। उत्त० जम्बू. २०५। वर्म-लोहकुत्तलादिरूपम्। जम्बू. २१९। ५९१३ ३२० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [172] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] वयग्गाम- वाज्रग्राम-गोकलप्रायग्रामं भकारि वचना। औप. २८१ प्रत्यन्तग्राममित्यर्थः। उत्त. ३९४। वयर- वज्र-रत्नम्। ओघ. ९| वयछक्क- व्रतषक-प्राणातिपातादिविरतिलक्षणं वयरक्खमण- वज्रक्षमणः। उत्त० ९६) रात्रिभोजन विरितिपर्यवसानम्। आव० ६६० वयरणी- वैतरणिः-त्रयोदशमपरमाधार्मिकः। सूत्र. १२४१ वयछिद्दाइं- व्रतानां-प्राणातिपातनिवृत्त्यादीनां छिद्राणि- वयरागर- वज्राकारः-वज्राख्यमणीनामाकरः। भग० १९९। अतिचाररूपाणि-विवराणि व्रतच्छिद्राणि। उत्त० ५८० वयवंता- व्रतवन्तःवयजोग- वाग्योगः-औदारिकवैक्रियाहारकशरीरव्यापारा- रात्रिभोजनविरमणषष्ठपञ्चमहाव्रतधारिणः। आचा. हृतवान्द्रव्यसमूहसाचिव्याजीवव्यापारः। आव०६०६) ३५० वयजोगसुय- वाग्योगश्रुतं-द्रव्यश्रुतमेव। आव० ५०| वयवलिय- वाग्वलिकः-दृढप्रतिज्ञः। प्रश्न० १०५ वयणवचनं- प्रज्ञापनम्। भग० २४७ वचनम्। प्रश्न. ११८ वयसमाहारणया- वाक्साधारणया-स्वाध्याय एव वाग्निवे वचनं-आज्ञा। प्रश्न. १५१। वचनं-वाक्यम्। उत्त० ३०७। शनात्मिकया वाचा साधारणा वाक्साधारणा। उत्त. वचनं वस्तुवाचि। अनुयो० १३४। वदनं-मुखम्। ज्ञाता० ५९ ३१। वचनं-आदेशः। ज्ञाता० १५८। उच्यत इति वचनं- वयसा- वचसा। स्था० ४३ अर्थः। दशवै.७५ वचनं, चतुर्थीपरिज्ञा। व्यव० ३९१ वयसाहारणदंसणपज्जय। वचनं-अभियोगपूर्वक आदेशः। भग० १६८। वाक्साधारणदर्शनपर्यवावाक्साधा-णाश्च वयणप्पभूय- वचनेन अप्रभूता अल्पभूता वा अल्पत्वं दर्शनपर्यवाश्च सम्यग्भेदरूपाः। उत्त० ४९२ पाप्ता वचनाल्पभूता वचनात्प्रभूता वा स्तोकाक्षरेति। वयसुहया- वाचि सुखं यस्यासौ वाक्सुखस्तस्य भावो उत्त० ३८५ वाक्सुखता। प्रज्ञा० ४६२१ वयणभिण्ण- वचनभिन्न-वचनव्यत्यः। सूत्रदोषविशेषः।। वयस्स- वयस्यः-समानवया गाढतरस्नेहविषयः। जीवा. आव० ३७५ २८१। वयस्यः । आव०८२२| वयणभिन्न- वचनभिन्नं यत्र वचनव्यत्यः। अनुयो० २६२ | वयायार- वागाचारः वाग्व्यापारः। आचा० ३८६। वयणमित्त- वचनमात्र-निर्हेतुकं, सूत्रदोषविशेषः। आव० । | वरंकुर- वराङ्कुरः-प्रथममुद्भिद्यमानः। जम्बू० ३२४। ३७४| वचनमात्रं-निर्हेतुकम्। अनुयो० २६२ वरंग- वराङ्गः-गण्डः। जीवा० २१३। वयणविभत्ती- एकत्वदवित्वलक्षणोऽर्थो यैस्तानि | वरंति- वारयति आप्तुमिच्छति। सूर्य० ८३। वचनानि विभज्यते कतृत्वकर्मत्वादिलक्षणोऽर्थो यया | वर- ऐरावते तीर्थकृत्। सम० १५३। वरंसा विभक्तिः वचनात्मिका विभक्तिः वचनविभक्तिः। अत्यन्तमत्कृष्टम्। जम्बू. १९७। वरः-परिणेतरः। स्था० ४२८। वचनविभक्तिः -वचनानां विभक्तिः । ज्ञाता० २४८१ निशी. १४१ आ। अनुयो० १३४१ वरइ- वृणोति-आच्छादयति। जीवा० ३३९। वयणसमकं-वचनसमम्। उत्त० ३०४। वरकणगनिहस-वर-प्रधानं यत्कनकं तस्य निकषःवयणातिक्कम- वचनातिक्रमः। आव. १७३। कषप-ट्टके रेखारूपः वरकनकनिकषः। प्रज्ञा० ३६१| वयणाम-अण्मयत्थे। निशी. १२६ अ। वरकण्णपूर- वरकर्णपूरः प्रधानकर्णाभरणविशेषः। भग. वयणिज्ज- वचनीयः गमुः। आचा० २५१। वयति- वपति-रोपयति। उत्त० ३६१।। वरकमलगब्भगोरी- वरकमलगर्भः-कस्तूरिका तद्वद् वयतेण- वास्तेनः-धर्मकथकादितल्यरूपः। दशवै. १८९। गौरीअव-दाता वरकमलगर्भगौरी, श्यामवर्णत्वात, वयदुक्कडा- वाग्दुष्कृता-असाधुवचननिमित्ता। आव० कस्तूरिकया इव श्यामेत्यर्थः। ज्ञाता० १२९। ५४८1 वरकलस- वरकलशः। जम्बू० ४१९। वयवलिय- वाग्बलिकः-प्रतिज्ञातार्थनिर्वाहकः-परपक्षक्षो- वरका- पारसा कंबला| निशी० २५५ अ। ३१७ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [173] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] ८४१ वरका। सूत्र० ३८८1 वरधणू- वरधनुः-पारिणामिकीबुद्धौ अमात्यपुत्रः। आव. वरक्क- कोयवगो। निशी. ६१ अ। ४३ वरक्कोलो- | निशी० १२६ अ। वरधनु- अमात्यः, पारिणामिकीबुद्धौ दृष्टान्तः। नन्दी. वरगंध- वरगन्धः-वासः। जीवा० १६० वरगन्धः १६६। अत्मात्यपुत्रः। नन्दी. १६७। प्रवरवासः। औप० २२। गुटिकाप्रयोगकारकः। व्यव० २०० आ। वरगंधिय-वरगन्धिकम्। सूर्य. २९३। वरपट्टण- वरपट्टनं-प्रधानाच्छादनकोशकम्। औप०६८। वरगंधिया- वरगन्धाः वासाः। प्रज्ञा० ८७ वरपत्तनं-वराच्छादनकोशकम्। प्रश्न० ७७। वरग- वरः। आव०२९३| आव०५५८४ वरट्टः-धान्य- वरपट्टणुग्गय- वरपट्टनोद्गतःविशेषः। भग० २७४। मण्यादिमहार्घमूल्यम्। आचा० प्रसिद्धतत्तत्पत्तनविनिर्गतः। जीवा. २६९। ३१७ वरपट्टन- प्रधानवेष्टनकः। भग. १४२ वरघरए- सम्बन्धः वासभवनः। ज्ञाता०१४| वरपवरभवण- वरप्रवरभवनं-वराणां प्रवरगेहम्। प्रश्न वरचंपग- वरचम्पकः-राजचम्पकः। जम्बू. १८३ वरचीण- वरचीनं-दुकूलवृक्षवत्कस्यैव यत् आभ्यन्तरहीरै- । | वरपुंडग- वरपुण्ड्रगं-विशिष्टं पुंड्ररदेशोद्भवं हरितम्। जीवा० निष्पाद्यते सूक्ष्मतरं च भवति तत् चीनदेशोत्पन्नं वा। ३६५ प्रश्न०७१। वरपुंडरीए- धवलं सहस्रपत्रं पुण्डरीकं, वरं च तत्पुण्डरीकं वरण- वरणः-सेतुबन्धः। ओघ. ३११ जलोपरि सकपाट- वरपुण्डरीकम्। सम०३। पालीबन्धः। बृह० १६१ अ। वरणः-वनस्पतिविशेषः। वरपुरिस- वरपुरुषो-वासुदेवः। राज० ३३। वरपुरुषःजम्बू० २४४। वासुदेवः। जीवा० १९११ वरणा-आर्यजनपदविशेषः। प्रज्ञा०५५। वरपुरिसवसण- वरपुरुषः-वासुदेवस्तस्य वसनं-वस्त्रं वरण्डक- वरण्डकम्। ओघ० १७४। वरपु-रुषवसनम्। प्रज्ञा० ३६१। वरतरुणी- वरतरुणी-सुभगा स्त्रीः। जम्बू. २२२। वरप्पसन्ना- वरा चासौ प्रसन्ना च मदयविशेषे वरति- वृणोति-आच्छादयति। सूर्य० २७८। वरप्रसन्ना। प्रज्ञा० ३६४। वरतूर- वरतूर्यम्। प्रश्न० ४८१ वरफलह-वरफलक-प्रधानफरकः। प्रश्न०४७। वरत्ता- वरत्रा-चर्ममयीमहारज्जः । प्रश्न. ५६। ओघ. वरफलिहा- वरपरिधा-प्रबलार्गला। प्रश्न०४८ वरबोन्दिधर- प्रधानसजीवः स्व्यक्तावयवशरीरोपेतः। वरदत्त- वरदत्तः-विपाकदशानां वितयश्रुतस्कंधे सूर्य. २८६। दशममध्य-यनम्। विपा०८९। वरदत्तः वरभ- हस्तिबन्धनम्। उत्त० ४११। मित्रनन्दिराजकुमारः। विपा० ९५। अरिष्ठनेमिशिष्यः। । वरभवण- वरभवन-प्रासादः। औप०४ वरभवनंनिर०४०। नेमिनाथस्य प्रथम-शिष्यः। सम० १५२। सामान्यतो विशिष्टं गृहम्। जीवा. २७९। नेमिनाथस्य प्रथमभिक्षादाता। सम० १५११ वरभूती- वइरभूती वज्रभूतिः-महाकई आयरिओ। व्यव० वरदाम- द्रव्यतीर्थविशेषः। आव० ४९८ जम्बूभरते २२७ आ। द्वितीयं तीर्थम्। स्था० १२२ वरमउड- वरमुकुट-प्रवरशेखरः। प्रश्न० ७० वरदिण्ण-नेमिजिनप्रथमभिक्षादाता। आव० १४७) वरमल्लिहायणा- वरं माल्याधानं-पृष्पबन्धनस्थानं शिरःवरधणु-वरधनुः-धनुपुत्रः। व्यव० १९८ आ। वरधनु:- केशवकलापो येषां ते वरमाल्याधाना। भग० ४८० ब्रह्मराजस्य धनसेनापतेः स्तः। उत्त० ३७७। वरमुरय- वरमरजः-महामर्दलः। प्रश्न. १५९। वरधणुपिया- वरधनुपिता-पारिणामिकिबुद्ध्या येन वरयते- वरयति-सूर्यलेश्यासंशष्टो भवति। सूर्य जतुगृहा-न्निष्काशितः कुमारः। आव० ४३०| वरया-वराकाः। दशवै०४७ १३६। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [174] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] वररयणरुवचिंचइयं | आचा० ४२३ । वररुड़ वररुचि:- नन्दस्याष्टाधिकशतश्लोकपाठकः कश्चिद्धि-गजातीयः आक ६९३३ वररुचिः। उत्तः आगम-सागर- कोषः ( भाग : - ४ ) १०४ | वररुची- वररुचिः ब्राह्मणविशेषः, योगसंग्रहे शिक्षादृष्टान्तः, नन्दराजानमष्टशतेन श्लोकानां सेवते। आव० ६७० वरवरविग्गहिए- वरवज्रस्येव विग्रहः आकृतिर्यस्य स वरवज्रविग्रहिकः, मध्ये क्षामः । भग० १४५| वरवइरसिंग- वरवज्रशृङ्गः । आव० ४१३ । वरवण्ण- वरवर्णः-प्रधानचन्दनम् । औप० ६८ | वरवम्म- वरवर्मः प्रधानतनुत्राणविशेषः । प्रश्न. ४७ ॥ वरवरिया वरस्य इष्टार्थस्य वरणं यहणं वरवरिका । ज्ञाता० १५३ । वरवरिका- समयपरिभाषाया घोषणा । आव० १३६ । वरवारुणि- वरा चासौ वारुणी च वरवारुणी । जम्बू० १०० | वरवारुणी- वरा चासौ वारुणी च वरवारुणी सुराविशेषः । जीवा० ३५१ । वरा च वारुणी च । जीवा० २६५ | मदिरा | प्रश्न० १६३ | वरा चासौ वारुणी च । प्रज्ञा० ३६४ | प्रधानसुरा। उत्त० ६५४| वरसत्ति वरशक्तिः त्रिशूलम् । जम्बू. २१ वरसरक- चूर्णकोशकं रुढिगम्यम् । भग० १५३॥ वरसिट्ठ- इन्द्रलोकपालस्य यमस्य विमानम् । भग० १९४ । वरसीधु- वरं च तत्सीधु च जीवा• २६५॥ वरसिन्धुएकोरुकद्वीपे द्रुमविशेषः । जीवा० १४६ वरं च तत्सीधु च । जम्बू० १०० | वरसीधू- वरं च तत्सीधु च वरसीधु। प्रज्ञा॰ ३६४। वरसेणा वरसेना । विपा० ९५| वरहओ दवरकः । आव० ४१६| वरहिंग- लोमपक्षिविशेषः । जीवा० ४१ | वरांकुर वराङ्कुरोपेतम् जीवा० १८८१ वराङ्कुरः प्रथमोद्विद्यमानोऽकुरः । जीवा० २२९१ वरा- अर्वाग्भागवर्तिनः आयुष्कापेक्षयाडल्पायुष्काः । भग ४७६ | वराड- वराटः कपर्दः । जीवा० ३१ । वराडए वराटकः कपर्दकः अनुयो १२२ वराटक:कपर्दकः । ओघ० १२९| मुनि दीपरत्नसागरजी रचित वराडग- वराटकः-कपर्दकः । उत्त० ६९५| वराडय- वराटकः-कपर्दकः । आव० ७६७। वराडा- वराटाः-कपर्दकाः । प्रज्ञा० ४१। वरायंस- वरादर्शः- वरदर्पणः । प्रश्न० ८४ | [Type text] वराह-शूकरः । जम्बू० ३४ । वराहः - वनशूकरः । जम्बू० ११२ | वराहः- शूकर । औप. १८) द्विखुरश्चतुष्पदः । जीवा 1 ३८ वराहः- शूकर । जीवा० २७२ सुकरो निशी० १२९ आ। शूकरः-वराहः। प्रश्र्न० ८१| सुविधिनाथस्य प्रथमशिष्यः । सम० १५२ वराहरुहिर- वराहरुधिरम् । प्रज्ञा० ३६१ । वराहा विखुरविशेषः । प्रज्ञा० ४५| वराहि वराहि: दृष्टिविषाहिः, फणाकरणदक्षः प्रश्न. ७ वराही वराही विद्याविशेषः आक० ३१० वरि आगामिन्यामुत्सर्पिण्यां द्वादशमचक्री सम १५४| वरिता वृत्ता । आव० २५६ । वरिया दरिका । आव० ५५५ | निशी० २६५ अ वरिल्लग - लोमपक्षीविशेषः । प्रज्ञा ४९ वरिस वर्ष पानीयम्। जीवा० ३२२ ॥ वरिसकण्हा काश्यपगोत्रभेदः । स्था० ३९० | वरिसचडकरक- वर्षचटकरक वृष्टिविस्तारः । प्रश्न. ४८ वरिसधर- वृषणः | निशी० २७१ अ । वर्षधरः- वर्द्धितकप्रयोगेण नपुंसकीकृतः । राज० १४८) वर्धितककरणः। भग॰ ४६० वर्षधरः - वर्द्धितकः कञ्चुकी तदितरञ्च । औप० ९९१ | वरिसस ओवमा वर्षशतेनोपमा यस्याः सा वर्षशतोपमा, वर्षशतैः केशोद्धारहेतुभिरुपमा अर्थात्पल्यविषया यस्यां सा वर्षशतोपमा । उत्त० ४४५| वरिसारत्त अतिमेघवृष्टिः । बृह० २५९ आ वर्षारात्रःशरद् । सूर्य० २०९१ वर्षारात्रः आव० ९२३ वर्षारात्रो भाद्रपदाश्र्व युजौ जाता० ६३ | वरिसियव्वं वर्षणम् ओघ १३२ वरुट्टा- वरुट्टाः-शिल्पार्याः। प्रज्ञा० ५६। वरुडादि जातिजुइङ्गिकादिः । व्यव० २६९ आ । वरुण चतुर्थो लोकान्तिकदेवः । ज्ञाता० १५१। वरुणःप्रभाकरविमानवासी चतुर्थी लोकान्तिकदेवः। भग २७१। वरुणः पश्चिमदिक्पालः । जम्बू० ७५| वरुणः [175] *आगम - सागर- कोष" (४) Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] वैशाल्यां नागनप्ता। भग० ३३० वरुणःपञ्चदशममहतनाम। सूर्य. १४६। वरुणः-वरुणावरे द्वीपे देवविशेषः। जीवा० ३५१| चमरेन्द्रस्य तृतीयो लोकपालः। स्था० १९७। वरुणः-गणाभियोगविषये कञ्चिदव्यक्तिः । आव० ८१२ वरुणकाइय- वरुणकायिकः- वरुणस्य कायो-निकायो यस्य स वरुणकायिकः-वरुणपरिवारभूतौ देवः। भग. १९९| वरुणदेवयकाइय- वरुणदेवताकायिकः वरुणसामानिकादिप-रिवारभतः। भग. १९९। वरुणदेवा- मेतार्यमाता। आव. २५५ वरुणप्पभ- वरुणप्रभः-वरुणवरदद्वीपे देवः। जीवा० ३५१| वरुणवर- पुष्करवरसमुद्रानन्तरं द्वीपः, तदनन्तरं समुद्रोऽपि। प्रज्ञा० ३०७। दद्वीपविशेषः। अनुयो० ९० वरुणा- लोकान्तिकदेवविशेषः। स्था० ४३२।। वरुणोद- वरुणोदः-समुद्रविशेषः। जीवा० ३५१| वरुणोदए- वारुणोदकं-वारुणसमुद्रस्य जलम्। जीवा० २५ वरुणोपपात-स्था. ५१३। वरेल्लिया- वृत्ता। आव० ९४| वर्चस्वरः-दुन्दुभिस्वरः। सम० १५८ वर्ण- निकषः। सूर्य.४१ वर्तापक- प्रतिजागरकः। व्यव० ५३ । वर्तिका- चित्रकरणपिच्छिका। आव० ९६। वर्तित- सामान्यनिष्पन्नम्। स्था० ३८४। वर्तुल विजयाद्ध- पर्वतविशेषः। ज्ञाता० १२८१ वर्द्धकिरत्न- चक्रवर्तेरत्नम्। व्यव० ४०१ आ। वर्द्धक्यादि-दारुकर्मकरः। दशवै. २६० वर्द्धित-नंपुसके भेदः। उत्त०६८३। वर्द्धितकत्व- पुरुषः सन्यो नपुसंकवेदकः। भग० ८९३। वर्द्धमानक-आणंदं अपडिहयं करेति। निशी० २८५१ वर्धमानस्वामी-। आचा० २११ महावीरः। प्रज्ञा०६। अखिलश्रुतज्ञानार्थप्रदर्शकः। आव०६० वर्द्धमानस्वामी। व्यव. २६ आ। वर्धमानस्वामी। व्यव. १७४ अ। वर्द्ध- कषः। प्रश्न. १६४ वर्धनी- बहकारिका। निर० २६| वर्धितककरण-निर्लान्छनकर्म। उपा०९। वर्ध- बन्धनविशेषः। उत्त०५३ वर्षधर- वर्ष-क्षेत्र-विशेष धारयतः। स्था० ४०२। वर्षाकल्प-धर्मोपकरणविशेषः। उत्त० ५०३। कम्बलः। दशवै०१९९ वर्षारात्र-भाद्रपदाश्वयुग्मासदवयलक्षणः। व्यव० ५० अ। वर्षावग्रह- अवग्रहविशेषः। सम० २३। वल- वालंजुअवणिओ। निशी० १४८ अ २४७ आ। वलणम्। ओघ. १७७ वलइ-साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः। प्रज्ञा० ३४| वलए- वलयः-संसारवलयः कर्मबन्धनं वा। सूत्र. १९५४ वलयः-मध्यषिरो वृत्तविशेषः। जीवा. ९७। वलक्ख- वलक्षः-श्रृङ्खलादिरूपमवलम्बनम्। जीवा. २१३। वलाक्षं रूढिगम्यम्। औप० ५५। वलक्षभषणविधिविशेषः। जीवा. २६९| वलक्षम्। जम्बू. १०६| श्रृङ्खलादिरूपम-वम्बनम, वलक्षो नानामणिमयः। जम्बू०१७ वलतामुह- प्रथममहापातालकलशः। स्था० २२६) वलभी- गृहाणामाच्छादनम्। जीवा० २७९। वल्लभीछदिरा-धारत्तत्प्रधानं गृहम्। जम्बू. १०६। मध्यमद्वारे नगरम्। बृह० ६२ । वलभीगिह- वलभीगृहम्। जीवा. २६९। वलभीसंठिओ- गृहाच्छादनसंस्थितः। जीवा० २७९। वलभी-गृहसंस्थानसंस्थिः । जीवा० ३२५१ वलभीसंठिया- वलभीसंस्थितः-वलभ्या इवगृहाणामाच्छा-दनस्येव संस्थितं-संस्थानं यस्याः सा। सूर्य०६९। वलय- वलयम्। भग० ३०६। वलन्-संयमाद भंश्यन्। बभूक्षादिना वेल्लन। औप० ८७ वलयं-केतकीकदल्यादि। तथाहि-त्वचा वलयाकारेण व्यवस्थितः, प्रत्येकबादरवन-स्पतिकायिकः। प्रज्ञा० ३० पातालकलशविशेषः। प्रज्ञा०७३। वलयं-कङ्कणम्। जम्बु. १०६। यत्रोदकं वलया-कारेण व्यवस्थितम्, उदकरहितो वा गर्तो दुःखनिर्गमप्रवेशः। सूर्य. ८९। सूत्र० ३०७। कटकम्। स्था० १७७। वलयंवृत्ताकारनद्यादुदककुटिलगतियुक्तप्रदेशः। भग० ९२। वल-यमिव वलयं-वक्रत्वात्, अधर्मदवारस्यैकोनविंशतितमं नाम। प्रश्न. २६) कटकः। औप. ५५ केतकीकदल्यादि। जीवा. २६। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [176] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] भूषणविधिविशेषः। जीवा० २६९। वलयं घनोदधि- । निर्मीसत्वग्विकाराः। जम्बू. १७०| वली-उदरः। आव. घनवाततनुवातात्मकं धर्मादिसप्तपृथिवीपरिक्षेपि। ६७८1 आव०६०० अलत्-वलवलायमानम्। भग० १२०| वलयं- | | वल्क- त्वम्। स्था० ३२११ नदयादि वेष्टितभूमिभागः। आचा० ३८२। वल्कल-छल्ली। प्रज्ञा० ३६| वलयमरण- ववलतो-बुभुक्षापरिगतत्वेन वल्कलचीरि-बाह्यनिमित्तमदिश्य जात्सिमरणे वलवलायमानस्य संयमाद्वा भ्रश्यतो मरणं ___ दृष्टान्तः । बृह. १८७। तद्वलन्मरम्। भग० १२०| संजम-जोगेसु वलतो वल्कलचीरी- जातिस्मरणे दृष्टान्तः। आचा० २११ हीणसत्तपाए जो अकामतो मरइ एयं वलयमरणं जलं येनानुभूते क्रियाकलापे पित्रुपकरणं वा अप्पणो वलेइ। निशी० ५२ आ। प्रत्युपेक्षमाणेनावाप्तं सामायिकम्। आव० ३४७। वलयबाहा- दीर्घकाष्ठलक्षणबाहा-आवल्लका। ज्ञाता० वल्गितं- अहिणउपरस्स सिक्खावणा नृत्यविकार एव। १३३ निशी० ६१ आ। वलया- कटल्यानि तृणपल्यानि वा। बृह. १५७ अ। वल्गलि-पोतजः। भग० ३०३। प्रमाणाङ्गुलप्रमेयः। अनुयो० १७१। वल्गुली- पोतजपक्षीविशेषः। दशवै. १४१। वलयामरणं- वलन्मरणं मरणस्य चतुर्थो भेदः। उत्त. वल्ल- वल्लः-निष्पावः। पिण्ड. १६८ वल्लः-निष्पावः। २३० जम्बू० १२४ वलयामुख- पातालकलशः। प्रज्ञा०७४। कटात्मक वल्लकी- वाद्यविशेषः। ज्ञाता० २२९। आवतः। ओघ० १८१। पातालकलशविशेषः। स्था. वल्लभी- गृहाणामाच्छादनम्। सूर्य०६९। ४८०| पातालकलशः। प्रज्ञा०४२८१ वल्लयि- वल्लकी-वीणा-विपञ्ची च। प्रश्न. १५९। वलयामुह- वलयामुखम्। ओघ० १८०| वलयामुखम्। वल्लर-क्षेत्रम्। प्रश्न. १४१ क्षेत्रविशेषः। प्रश्न. ३९| आव० २९७। वेलामुखं-भ्राष्ट्ररूपम्। पिण्ड० १७१। तृणादि आव० ५७७ गहनम्। उत्त०४६२। वल्लभो वडवामुखः पातालकलशः। महाप० वडवाम्खाभिधानः जनस्य। सूर्य. २९२१ पूर्वदिग्व्यव-स्थितः पातालकलशः। सम० ८७। वल्लरी- वल्ली। भक्त० । वल्लरी-वल्ली। तन्दु वलयावलिप्रविभक्तिः - पञ्चम नाट्यभेदः। जम्बू. ४१६/ वल्लि- वल्लयः-वालुकीप्रभृतयः। भग० ३०६। वल्लीःवलायमरण- वलतां संयमान्निवर्तमानानां वालुक्यादिकाः। जम्बू० १६८। परीषहादिबाधित-त्वात् मरणं वलन्मरणम्। स्था० ९३ वल्लिकर- मंडलिविहाण। निशी० १२आ। वलाया- वलता-भग्नव्रतपरिणती। सम० ३४ वल्ली- कूष्माण्डीत्रपुषीप्रभृत्तिः। जीवा० २६। वलि- वलिः शैथिल्यसमुद्भवश्चर्मविकारः। जम्बू. ११६) वल्लीविशेषः। प्रज्ञा० ३२॥ वल्लयःवलिअ-वालितो-वलयः संजाता अस्येति वलितो-वलि- कूष्माण्डीत्रपुषीप्रभृतयः। प्रज्ञा० ३०| अनन्तरात्रयोतेपः। जम्बू० १११। वलितं-सजातवलम्। जम्बू. षड्जनाः-माता पिता भ्राता भगिनी पुत्रो दुहिता च। ११४ वलितं-वलनस्वभावम्। जम्बू० २३५ वलितम्। व्यव० ८४ आ। गुड्चीप्रभृतिः। ज्ञाता० १८११ ओघ० १०८वलितः-क्षामः। प्रश्न० ८० नागवल्यादि। ज्ञाता० ३३। वहमीः-त्रपुषीप्रभृतिः। वलिट्ठए- वरिष्ठम्। बृह० २८३। ज्ञाता०७८, ६५ वलिता- प्रपन्नः। सम० ११८ ववगय- व्यपगतं-स्वयं पृथग्भूतम्। भग० २९३। व्यपगतंवलीय- वलियम्। उत्त० ३०३। वलितः-वृत्तः। जीवा० ओघतश्चेतनापर्यायादपेतः। भग० २९३। व्यपगतः-परि१२१| वलयः संयाता अस्येति वलित्रयोपेतः। जीवा. भ्रष्टः। जीवा० १०३। व्यपगतः-परिभ्रष्टः। प्रज्ञा० ८० २७०| उवचियमंसो। निशी० २१२ आ। व्यपगतः-स्वयं पृथग्भूतः देयवस्तुसंभवः आगन्तुको वली- वलिः-मध्यवर्तिरेखारूपा। जम्बू. २५३। वलिः- वा। प्रश्न. १०८ व्यपगतं-ओघतया मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [177] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] चेतनापर्यापादचेतनत्वं प्राप्तम्। प्रश्न. १५५) ववगयसंजोग- व्यपगतः संयोगः- संयोजनादोषरहितः।। प्रश्न. ११२ ववत्था-व्यवस्था। आव. ९२२ ववदेश- व्यपदेशः-व्याजः। प्रश्न १२४| ववरोविअ-व्यपरोपितः-व्यापादितः। आव०५७४। ववरोविओ- व्यपरोपितः। आव. ९८१ ववरोविज्ज- व्यपरोपयेत्-प्रच्यावयेत्। आचा० ३६२१ ववरोविज्जसि-व्यपरोपयिष्यसि-अपेतो भविष्य।। ज्ञाता० १३४१ ववसइ- व्यपसति-कर्तृमभिलषति। जीवा० २५४। ववसाइ- व्यवस्यति। आव०६८८ ववसाओ- विशिष्टोऽवसयो-निश्चयो व्यवसायः, अहिंसायाश्चतुश्चत्त्वारिंशत्तमं नाम। प्रश्न. ९९। व्यवसयाःव्यापारः। उत्त.१४४। व्यवसायः। जीवा० २५४। ववसात- व्यवसायं-तत्त्वनिश्चयम्। स्था० ३५३। व्यवसायः-वस्तुनिर्णयः-पुरुषार्थसिद्ध्यर्थमनुष्ठानं वा। स्था.१५११ ववसातसभा- व्यवसायसभा यत्र पुस्तकवाचनतो व्यवसायं-तत्त्वनिश्चयं करोति। स्था० ३५२| ववसाय- व्यवसाय-अनुष्ठानोत्साहः। सम० ११७। ववसायसभा- व्यवसायसभा-व्यवसायनिबन्धनभूता सभा। राज०१०८५ ववहरति-व्यवहरतिः। आव०११० ववहरमाण- व्यवहरन्। उत्त० २७९। ववहार-व्यवहारं-प्रयश्चित्तदानादिकम्। भग० ३८५। व्यव-हारः-अन्योऽन्यदानग्रहणादिर्विवादः। स्था० १८३। व्यव-हारः-कथञ्चिदापन्नदोषव्यपोहाय प्रायश्चित्तलक्षणः। स्था० २११। व्यवहारःमिश्रकव्यवहारादिरनेकधा। स्था० २६३। व्यवहारःमुमुक्षुप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपः। स्था० ३१७। व्यवहारःक्रयविक्रयरूपो वणिग्धर्मः। उत्त० २७२। व्यवहारोनारकतिर्यग्नरामरपर्याप्तकापर्याप्तकबालकुमारादिसंसारिव्यपदेशः। आचा० १५६। कथञ्चिदापन्नदोषव्यपो-हाय प्रायश्चित्तलक्षणः। स्था० २१११ व्यवहरणं-व्यवह-रतीति वा व्यवह्रियते वा अपलेप्यते सामान्यनेन विशेषान् वाऽऽश्रित्य व्यवहारपरो व्यवहारः। स्था० ३९०। व्यवहारंविवादच्छेदनम्। प्रश्न. ९७। व्यवहारः। आव०६१| व्यवहारः-व्यवहारसत्यम्। स्था०४८९। व्यवहारःव्यवहारविषयः। उत्त० २७९। व्यवहारो-मुमुक्षु प्रवृत्तिनि-वृत्तिरूपः। भग० ३८४। व्यवहणरणं व्यवहारः-लोकस्यै-हिकामुष्मिकयोः कार्ययोः प्रवृत्तिनिवृत्तिक्षलणः। सूत्र० ३७२। श्रेणिव्यवहारादिर्व्यवहारः। स्था० ४९६। विविधं विधिवद्धाऽपवहरणं आचरणं व्यवहारः यतिकर्तव्यतारूपः। उत्त०६४। प्रमादात्खलितादौ प्रायश्चित्तदानरूपमाचरन् व्यवहारम्। उत्त०६४। व्यवहारः। दशवै. १०८ व्यवहारः विवादः। विपा०४० व्यवहारः-लोकविवक्षा। प्रज्ञा० ३५८ व्यवहारःनयविशेषः। प्रज्ञा० ३२७। व्यवहारः-विवादः। आव० ५०२, ६२७। व्यवहारः-प्रक्षेपः। आव० ८२३। राजकुलकरणभाषाप्रदानादिलक्षणो व्यवहारः। आव०१२९। व्यवहारः कथञ्चिदापन्नदोषव्यपोहाय प्रायश्चित्तलक्षणः। दशवै० ११० येन मुनिर्व्यवहरति स आगमा-दिव्यवहारो व्यवह्रियतेऽनेनेति व्यवहारः, यदपि च व्यवह-र्तव्यं मुनिर्व्यवहरति सोऽपि व्यवहारः। व्यव० ३६४ अ। व्यवहारः-विचित्र विधिना वसर्वज्ञोक्तेन प्रकारेण वपनं-तपःप्रभृत्यनष्ठानविशेषस्य दानं इति वचनात् हरणमती-चारदोषजातस्य, अथवा संभूय द्वित्रादिसाधूनां क्वचित्प्रयो-जने प्रवृतौ यत् यस्मिन्नाभवति तस्य तस्मिन् वपनमितरस्याव्यवहरणम्। व्यव० ३। व्यवहरणं व्यवह्रियते वा स। व्यवह्रियते वा तेन विशेषेण वा सामान्यमवह्रियते निरा-क्रियतेऽनेनेति लोकव्यवहारपरो वा। व्यवहारः विशेषमात्रा-भ्युपगमपरः। स्था० १५२। व्यवहारः भण्डनम्। व्यव० ३१| ववहारअक्खेवणी-आक्षेपिणीकथायाः तृतीयो भेदः। स्था० २१० ववहारग- व्यवहारकं चोर्यसाधनम्। आव०८२३। ववहारच्छेद-व्यवहारच्छेदः। आव० २९० ववहारनय- लोकव्यवहारप्रधानो नयो व्यवहारनयः। अनुयो० २६५ | ववहारव मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [178] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] आगमश्रुतादिपञ्चप्रकारव्यवहाराणामन्यतमयुक्तः। नगरम्। आव० ३९८। वसन्तपुरंभग. ९२०| पंचविहं आगमादिववहारं जो मणइ सम्म चक्षुरिन्द्रियान्तर्दृष्टान्ते नगरम्। आव० ३९९। सो ववहारवं। निशी० १२८ आ। आगमश्रुताज्ञाधारणा- वसन्तपुरं-स्पर्शेन्द्रियदृष्टान्ते जितशवाजधानी। आव० जीतलक्षणानां पञ्चानां उक्तरूपाणां व्यवहाराणां ४०२। वसन्तपुरं-औत्पत्तिकीद्धिदृष्टान्ते गजविषये ज्ञाता। स्था०४२४१ नगरम्। आव० ४१९। वसंतपुरं-यत्र ववहारसच्च- व्यवहारसत्य-यथा दह्यते गिरिः, गलति अगीतार्थसंविणविहारिगच्छः। आव० ५२ यत्र भाजनं, अनुदरा कन्या, अलोमा एडका इत्यादि। दशवै. जीर्णश्रेष्ठिदुहिता। आव. ९८ नगरविशेषः। आव० ११५१ २०९। एकपिण्डिकेन्द्रनागस्य जन्मभूमिः। आव० ३५२। ववहारसच्चा- व्यवहारो-लोकविवक्षा, व्यवहारतः सत्त्या | वसंतपरए- वसन्तपुरकः-ग्रामविशेषः यत्र सामायिकःव्यवहारसत्त्या, पर्याप्तिकसत्यभाषायाः सप्तमो भेदः। कुटुम्बी। सूत्र० ३८६। प्रज्ञा०२५६ वसंतमास- वसन्तमासः-नवममासः। जम्बू० ४९० ववहारिए- परूपणामात्रव्यवहारो योगित्त्वात् वसन्तमासः। आव०१७३। व्यावहारिकम्। अनुयो० १८१। व्यवहारिकः-यो वसंतमेंठ- वसन्तभेण्ठः-शिक्षायोगदृष्टान्ते प्रदयोतराज्ञोः निगोदावस्थादुद्धत्य पृथि-वीकायिकादिभेदेषु वर्तते स हस्थितकः। आव०६७४१ लोकेषु दृष्टिपथमागतः सन् वस- इन्द्रियपारन्त्र्यं विषयपारतन्त्र्यम्। ज्ञाता० २३३। पृथिवीकायिकादिव्यवहारमनुपतीति। प्रज्ञा० ३८० वशः-आत्मायत्तः। उत्त० ३१३ वशः-पारतन्त्र्यम्। प्ररूप-णामात्रव्यवहारोपयोगित्वाद् व्यावहारिकः। ज्ञाता० १३४ अनुयो. १८० वसइ- वसतिः-उपाश्रयः। जीवा० २७९) ववहारी- उपयोगः। ओघ. १३६। व्यवहारी-सायांत्रिकः। वसट्ट- वशातः-इन्द्रिवशेन पीडितः। विपा०४१। वशं सूत्र. १९९। व्यवहारी-व्यवहरतीत्येवंशीलो व्यवहारी विषयपारतन्त्र्यम्। प्रश्न. १७। वशेनव्यवहारक्रियाप्रवर्तकः प्रायश्चित्तदायी। व्यव० ३ अ। इन्द्रियपारतन्त्र्येण-ऋतः-पीडितो वशातः वशं वाववहिय- व्यवहितं-अन्तर्हितम्, सूत्रदोषविशेषः। आव. विषयपारतन्त्र्यं ऋतः- प्राप्तः वशातः। ज्ञाता० २३४। ३७४। प्रकृतमक्त्वाऽप्रकृत व्यासतोऽभाधाय पुनः- वशातः-वशः-इन्द्रियवि-षयकषायाणां तत आतः प्रकृतमुच्यते तत् व्यवहितम्। अनुयो० २६२। वशातः। आचा. २५३॥ वशीकरण- वशीकरणादियोगाभिधायकानि वसट्टमरण- इंदियविसएस् रागदोसकसायवसट्टो स मरंतो हरमेखलादिशा-स्त्राणि। सम०४९। वसट्टमरणं। निशी० ५२ आ। वशेन-इन्द्रियवशेन वशीकरणचूर्ण-अभियोगस्य प्रथमो भेदः। ओघ. १९३। ऋतस्य-पीडितस्य दीपकलिकारूपा क्षिप्तचक्षुषः वसंत- वसन्तो-निवसमानः। आव० ६४४। वसन्तः- शलभस्येव यन्मरणं तद् वशार्तमरणम्। भग० १२० चैत्रादिः। भग० ४६२। वस्नः-फाल्गुनचैत्रौ। ज्ञाता० ६३। वशातमरणं, मर-णस्य पञ्चमो भेदः। उत्त. २३० १६०| वसन्तः-नवममासः। सूर्य. १५३। वसन्तः पञ्चम वशेन-इन्द्रियविषयपार-तन्त्रेण ऋता-बाधिता ऋतुः। सूर्य २०९। वशार्ताः-स्निग्धदीपकलिकावलोकनात् शलभवत् वसंतपुर- वसन्तपुरं-इह लोके कायोत्सर्गफलमिति भियते। सम० ३३ दृष्टान्ते जितशत्रुराजधानी। आव० ७८९। नगरं यत्र वसण- वसे वट्टतीति-सुअभत्थो वा अब्भसो। निशी. १०२ जितशत्र राजा। आ० ३७२ नगरं यत्र जितशत्रुराजा। । व्यसनं-राजादिकृताऽऽपत्। प्रश्न०४३। वृषणःआव० ३७८। वसन्तपुरंद-नगरं यत्र धनाभियः अण्डः। विपा०४९। व्यसनं-शोककारणम्। बृह० १९८ सार्थवाहः। आव० ३८४। क्रोधदृष्टान्ते नगरम्। आव० अ। व्यसनं-दुखं यूतादि वा। आव० ६०१। व्यसनं३९१। यत्र जितशत्रुराजा। आव० ३९३। श्रोत्रेन्द्रियोदाहरणे | राज्यायुपप्लवः। ज्ञाता० ७९ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [179] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] वसणविणास- वृषणविनाशः-वर्धितककरणम्। सम० | वसलग- वृषलः-अधमः शुद्रजातिस्त्रीवर्गप्रविचारकः। सूत्र १२६। ३२५ वसति- शय्या। प्रश्न० १२०| वसतिः-आलयः सुप्रमार्जितः | वसह- वृषभः-अहोरात्रे मुहूर्तेऽष्टविंशतितमः। जम्बू. स्त्रीपशुपण्डकविवर्जितश्च। आव० ५२९। ४९१। वृषभः-प्रधानः। जम्बू० ५२९। वृषभः ब्रह्मचर्यगुप्तेर्भेदः। आव० ५७२ समग्रसंयमभारोद्व-हनात्। आव० ५०२। वृषभंवसनं- वस्त्रम्। जीवा० २०६। आव० ८२८। वैयावृत्यकरम्। ओघ०६४ वसन्तपुर- यत्र हस्तीतोलनाय प्रयोगोऽभूत्। नन्दी० १५३। | वसहवीही- शुक्रस्य चतुर्थी वीथिः। स्था० ४६८। वसन्तपुरं-इभ्यवधूदाहरणे पुरम्। दशवै० ९७। वसहाणुगत- जो एक्कस्मि कप्पे ठितो वाएइ चिट्ठइ वा। नगरविशेषः, आधासंवासदृष्टान्तेऽरिमर्दनराजधानी। निशी. १३६ अ। पिण्ड० ४८ आधायाः परावर्तितद्वारे नगरम्। पिण्ड. वसहि- वसति-निवासः। अन्यो० २२५। वसति-उपाश्रयः। १००| आच्छेदय-दवारविवरणे जिनदास वास्तव्यं दशवै. २१८ वसतिः-वासकः। ओघ ७६। वसतिनगरम्। पिण्ड० १११। सहसम्मत्यादिदृष्टान्ते उपाश्रयः। जम्बू. १२१वसतिः। आव. २२५१ जितशत्राजधानी। आचा० २१। वसन्तपुरनगरं- वसहिपायरास- वसतिप्रातराशः-आवासस्थानः पातर्भाजजितशत्रुराजधानी। ओघ० १५८१ नकलश्च। ज्ञाता० १२३। वसभ- वृषभः। भग. ५८२ वृषभः-गीतार्थः। ओघ. २०६। वसहिसंबद्धा- वसहिए संबद्धा। निशी. १९९ आ। वृषणः गीतार्थः। व्यव० १९८ अ। वृषभः-उपाध्यायः। | वसही- वसतिः। आव० १८९, ६३६) बृह० ३। वृषभः-वैयावृत्यकरणसमर्थः। ओघ०६१।। वसा- अस्थिमध्यरसः-स्नेहविकृतिः। स्था० २०५। शरीरःगीतार्थः। ओघ० २३। वृषभः-साण्डगौ। विपा०४८। स्नेहविशेषः। प्रश्न शारीरः-स्नेहः। प्रश्न०१६ गीतार्थः। ओघ० २३। गच्छस्स सुभासुभकारणेसु भारू- वसा। प्रज्ञा० ८०, २९३। आव० ८२३। व्वहणसमत्थो। निशी० ३२८ अ। वृषभः-गच्छशुभा- वसाणुग- वशं-आयत्ततामनुगच्छतः। उत्त० २८३। शुभभारोद्वहनसमर्थः। बृह. ३९८ अ। गिहियचक्को वसामि-प्रभवामि। आव०५१५ भवति एरिसो वसभो। निशी० ३०१ आ। वृषभः- वसिट्ठ-वशिष्टः-उत्तरनिकाये षष्ठ इन्द्रः। भग. १५७ गीतार्थसाधुः। बृह. २४२ आ। वृषभः-गच्छशुभकार्य- | वसिडकूड- वशिष्ठकूट-सौमनसवक्षस्कारपर्वते कूटम्। चिन्तकः। बृह० ३१३ आ। जम्बू० ३५३। वसभगाम- वृषभग्रामः-मूलक्षेत्रम्। बृह० ३०५ आ। वसिम-कमढकम्। ओघ०८२ वसिमम्। आचा. २६९। वसभपरिसा- वृषभपर्षद्। बृह. १०२ आ। निशी. ३८ आ। वसिया- वशिका-आयता। बृह. ६० अ। गीयावलंबतो वसभपरिसा। निशी. १९ अ। वसीकरण- वश्यताहेतः। ज्ञाता० १८७ वशीकरण-वश्यवसभाणुजाए- वृषभानुजातः-वृषभस्यानुजातः-सदृशः ताकारकम्। विपा० ५४। अधार्मिकयोगे वशीकरणम्। वृषभा-कारेण चन्द्रसूर्यनक्षत्राणि यस्मिन् आ०६६२ योगेऽवतिष्ठन्ते सः। सूर्य. २३३। वसीय-अवसाव उषितः। उत्त. ३८७१ वसभानुग- वृषभानुगः यः पुनरेकस्मिन् कस्मिन् कल्पे वसुंधरा- वसुन्धरा-दक्षिणरुचकवास्तव्या दिक्कुमारी। स्थितः सन् वाचयति तिष्ठति वा स वृषभानगः। व्यव. आव० १२२। उत्कृष्टमालापहृते सुरदत्तगृहणी। पिण्ड० १२१॥ १०९। इशानेन्द्रस्याग्रमहिष्याः राजधानी। स्था० २३१| वसमाण- वैश्रमणः-नवकल्पविहारी। आव० ७९३। चमरे-न्द्रस्य चतुर्थाऽग्रमहिषी। स्था० २०४। नवमचक्रेः वसन्तः-वास्तव्यः। आव० ३५५। तत्थ जंतं वसंते। स्त्रीर-त्नम्। सम० १५२। असुरेन्द्रस्य चतुर्थाऽग्रमहिषी। निशी० १२७ अ। वसमानः-मासल्पविहारी। आचा० भग. ५०३। इशानेन्द्रस्याष्टमाऽग्रमहिषी। भग० ५०५। ३३६। विहरंतो। निशी० १४६ अ। उत्तर-पश्चिमरतिकरपर्वतस्य मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [180] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] दक्षिणस्यामीशानदेवेन्द्रस्य सर्वरत्ना-राजधान्यां | वसुभूइ- वसुभूतिः-इन्द्राग्निवायुभूतिगणधराणां पिता। तुरीयाग्रमहिषी। जीवा० ३६५। दक्षिणरुचकवा आव० २५५। वसुभूतिः। प3 ० ३९, ४१। स्तव्याऽष्टमीदिक्कुमारीमहत्तरिका। जम्बू० ३९१। वसुभूती- वसुभूतिः-योगसंग्रहेऽविश्रितोपधानविषये धर्मक-थाया दशमवर्गेऽध्ययनम्। ज्ञाता० २५३। पाटलि-पुत्रनगरे श्रेष्ठी। आव०६६८१ वसु- द्रव्यं-तद्भूतः कषाकालिकादिमलापगमाद्वीतराग वसुमंति-भाववसहिं ताणि जस्स अत्थि सो वसुमंति, इत्यर्थः। वसुः साधुः। आचा० २४०। वसुः-उपरिचरो इंदि-याणि जस्स वसे वहृति सो, णाणदंसणचरित्तेसु राजा, सत्य-वादो। जीवा० १२१। द्रव्यम्। आव० १४५ जो वसति णिच्चकाल सो, व्युत्सृति पापंवसुः-चतुर्द-शपूर्व्याचार्यः। आव० ३१५। वस्ः-धनवस्ः- अन्यपदार्थाख्यानं चारित्रं वा। निशी० २३ आ। योगसङ्ग्रहे आपत्सु दृढधर्मदृष्टान्ते उज्जयिन्यां वसुमती- मालापहृतद्वारविवरणे यक्षदिन्नगृहिणी। वणिग्विशेषः। आव०६६७। वस्ः-अचलभ्रातृपिता। आव० पिण्ड० १०८भीमराक्षसेन्द्रस्य द्वितीयाग्रमहिषी। २५५। महाबलराज्ञो चतुर्थी मित्रः। ज्ञाता० १२१| स्था० २०४। दधिवाहनधारिणीस्ता। आव० २२३। धर्मकथाया दशमवर्गेऽध्यय-नम्। ज्ञाता० २५३। वसुः- धर्मधर्मकायाः पञ्चम वर्गेऽध्ययनम्। ज्ञाता०२५२। साधुः। आचा० २४०| वसुः-देवः। आव० ५०४। वसुमित्त- वसुमित्रः। उत्त० ३७९ असत्यान्नरकगामी। भक्तः। वस्ः-देवः। प्रश्न०५० | वसुमित्ता- इशानेन्द्रस्य सप्तमाऽग्रमहिषी। भग० ५०५) वसुगुत्ता- इशानेन्द्रस्याग्रमहिष्याः राजधानी। स्था० वसुमित्रा-उत्तरपश्चिमरतिकरपर्वतस्य २३१। धर्मकथायाः-दशमवर्गेऽध्ययनम्। ज्ञाता० २५३। दक्षिणस्यामीशानदे-वेन्द्रस्य सर्वत्नाराजधान्यां तृतीया इशानेन्द्र स्याग्रमहिषी। भग० ५०५। महिषी। जीवा० ३६५। धर्मकथाया दशमवर्गेऽध्ययनम्। वसुदत्ता- सोमदत्तपुरोहितभार्या। विपा०६८ ज्ञाता०२५३। इशाने-न्द्रस्याग्रमहिष्या राजधानि। स्था० वसुदेव- नवमवासुदेवबलदेवपिता। सम० १५३। वसुदेवः- २३१॥ द्वारवत्यधिपतिः। अन्त० ५। दशार्हकुलनंदनः, वसुल- वृषलः। आचा० ३८८ भूतत्थो। दशवै. १०९| वैयावृत्य उदाहरणम्। औघ० १७९। वासुदेवपिता। आव० ज्ञाता० १६५ २७२। वसुदेवः-सौर्यपुरनृपतिः। उत्त० ४८९। । | वसुलि-वसुलः-दुर्भगः नैष्ठूर्य्यवाचको नादः। दशवै० २१५) कामकथायां-रूपवर्णनदृष्टान्ते वसुदेवः। दशवै० १०९। | वसुहर- वसुधरः-द्रव्यधरः षट्खण्डवति द्रव्यपतिः। वासुदेवपिता। आव० ३५८। वसुदेवः-समुद्रविजयानुजः। | जम्बू० २४७। प्रश्न. ९०। वसुदेवः-वासुदेवपिता। आव० ४५५। वसुदेवः- | वसुहारा- वसुधारा-तीर्थकरजन्मादिष्वाकाशाद् कृष्णवासु-देवपिता आव० १६३। जराकुमारपिता। निशी० | द्रव्यवृष्टिः। भग० २००८ १९४१ वसू- इशानेन्द्रस्य पञ्चमाऽग्रमहिषी। भग० ५०५वसुःवसुनामिया- वसुनामिका-उत्तरश्चिमरपतिकरपर्वतस्य चतुर्दशपूर्वी आचार्यः। आव० ३१४। वसूः-चतुर्दशपूर्विण पूर्व-स्यामीशानदेवेन्द्रस्य रत्नराजधान्यां आचार्यः, तिष्यगुप्तगुरवः। उत्त० १५८१ प्रथमाग्रमहीषी। जीवा० ३६५ वसूते- इशानेन्द्रस्याग्रमहिष्या राजधानि। स्था० २३१। वसुपत्ता- वसप्राप्ता-उत्तरपश्चिमरतिकरपर्वतस्य वस्तु- वादकाले राजामामत्यादि। स्था० ४२३। दक्षिणस्या-मीशानदेवेन्द्रस्य रत्नोच्चयाराजधान्यां वस्तुविज्ञान- मिमिदं राजाऽमात्यादि सभासदादि वा द्वितीयाग्रमहीषी। जीवा० ३६५। वस्तु दारुणमदारुणं भद्रकमभद्रकंवेति निरूपणम्। वसपज्ज- वसनां पज्यो वसपज्यः, दवादशमतीर्थकत। उत्त० ३९ आव० ५०४। वासुपूज्यपिता। सम० १५१| वस्तुल- शाकविशेषः। सूर्य. २९३। हरितविशेषः। जीवा. वसुपूज्य- वसुपूज्यः-वासुपूज्यपिता। आव० १६१| २६) वसुबन्धु-सर्वतोऽग्निप्रदीपनकामात्यः। व्यव० ४३२ अ। | वस्तुसमूह- कार्यकारणात्मकः। स्था० ४९४| मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [181] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] वस्तू-स्थानम्। भग० ३४२। उत्त०४६१। वस्त्वन्तरन्यास- यथा गौरपि सन्नश्वोऽयमिति। स्था० वहितव्वग- वहनीयम्। आव० ८२२ २६। वहिनी- प्रवाहः। दशवै० २४७ अ। वस्सासणा- परिणामणा। निशी. २८८ अ। वहिय- पन्था-मार्गः। भग० १०६। विनाशितम्। आव. वहंत-योगवाहिनम्। बृह. २३२। ७१२। अवलोतः। उपा०४० वह- वधः-यष्ट्यादिताडनम्। सम० १२६। वधः-घात- विगलबहलानन्दाश्रदृष्टिभिः सहर्ष निरीक्षिता स्ताडनं वा। उत्त० ४१५ वधः-लक्टादिप्रहारः। उत्त. यथावस्थितानन्यसाधारणगुणोत्कीर्तनल-क्षणः। ४५६। निरयावल्यां पञ्चमवर्गस्य तृतीयमध्ययनम्। अनुयो. ३७। व्यथितः-प्रहारादितः। जम्बू. २३९। निर०३९। निरयावल्यां पञ्चमवर्गस्य वहिलगा- उट्टबलिद्दादी। निशी. ३७ अ। चतुर्थमध्ययनम्। निर० ३९। वधः-ताडनम्। आव० वहु-वधूः। आव० ७८९ ५८८१ वधो-हिंसा ज्ञाता० २३९। वहः-स्कन्धः। विपा० वहुगा- लघुकुलवधूः। व्यव० २४८१ ४९। वधः-हननं कशादि-भिस्ताडनम्। आव० ८१८ वध- वहेमि- हन्मि। ज्ञाता० १६५ पीडा। दशवै०७६| त्रयो-दशमपरीषहः। आव०६५६। वा-समुच्चये। सूर्य.६ प्रकारान्तरसचने। सूर्य०१६। वा वहई- वहनि-आसेवते। उत्त०६०९।। शब्दो विकल्पार्थो अवधारणार्थो वा। स्था० ४३ वइए- वधकः-स्वयं हन्ता व्यथको, चपेटादिना ताडकः। चकारार्थो दृष्टव्यः। स्था० ३८४। समुच्चये। भग. २० जम्बू० १२३ समुच्चये। जम्बू. ५११। समुच्चये। सूर्य० २६। वहगत्ता- व्यधकता-ताडकता। भग० ५८१| समुच्चये। विकल्पे वा। सूर्य० २८६। उपमार्थो वहण- वहनं-यानपात्रम्। प्रश्न. ८ वहनं-उह्यतेऽनेनेति भिन्नक्रमश्च। उत्त० ३३९। इवार्थो भिन्नक्रमश्च। वोढव्यमिति वहनं शकटादिः। उत्त० ५५०| हननं प्राण- उत्त० ३३६। पूरणे यद्वा वा शब्दोऽयं विकल्पार्थे। उत्त० वधस्याष्टमः पर्यायः। प्रश्न. ५। वहनम्। आव०७१। ३८८ औपम्ये-भिन्नक्रमश्च। उत्त०४०९। वहणी- वहनी-आयतं वृत्तं काष्ठं वणीति लोके। आव० अनुक्तपकारान्तरद्योतकः। बृह. १९६। पूरणे। उत्त. દરરા. ५२६। विकल्पार्थः। ज्ञाता०७६| वहती- परिभोगं करेति। निशी. २५३ अ। वाइंगण- इगपरकुणगो। निशी. १५७ अ। वहमाणं- वहमानं-नयादिश्रोतोऽधर्ति व्याप्रियमाणं वा। | वाइगणि- गुच्छाविशेषः। प्रज्ञा० ३२। कुसुम-वृन्ताकीकुसुऔप. ९४१ मम्। प्रज्ञा० ३६० वहमूलिया- वधः-प्राणिघातः वाइए- वातिकः-उच्छूनत्वभाजनः। स्था० १३८1 उपलक्षणान्महारम्भमहापरिग्र वाइओ- वाचिकः-वाचा निवृत्तः-वाक्कृतः। आव० ५७१, हानृतभाषणमायादयश्च मूलं-कारणं यस्याः सा ७७८ वधमूलिका। वधो वा विनाशस्ताडनं वा मूलं वाइगं-णाम मज्जंतं। निशी० १०२ अ। आदिर्यस्याः सा वधम्-लिका। उत्त० २८० वाइत- पीडितः। उत्त. २६२१ वहलप्पण- मूर्खः। निशी० २८९ आ। वाइद्ध- व्याविद्धं विपर्यस्तरत्नमालावद। आव० ७३१| वहस्सइ- बृहस्पतिर्दत्तनामा पुरोहितपुत्रः, दुःखविपाके व्याविग्धां-विशिष्टद्रव्योपदिग्धां वक्राम्। भग०७०५१ पञ्चममध्ययनम्। विपा० ३५ वाइम- वातव्यं-कविन्दैर्वस्त्रविनिर्मितिमश्वादिः। दशवै. वहस्सतिदत्त- सोमदत्तपुरोहितसुतः। विपा० ६८१ वहा- देवायुपसर्गजनितं भयं चलनं वा व्यथा। भग० वाइय- कलाविशेषः। ज्ञाता० ३८ वातिक-अनियन्त्रितः। ९२६। प्रश्न० ५९| वाद्यकला। सम० ८४। वहिए- व्यथितः कम्पमानसकलाङ्गोपाङ्गतया चलितः। | वाइया- वातिका। आव०४०५ اواک मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [182] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] वाइल- वातबलो वणिग्विशेषः। आव. २२५ १३ १३ वाई- वादी-वादिलब्धिमन्तः। परप्रवादुकानिग्रहसमर्थः। | वाउल-व्याकुलं असमञ्जसम्। भग० ३०६| व्याकुलः। जम्बू. १५४। वादी। आव. २६३। वादी आव० ५४२। व्यावृत्तः-व्यग्रः। आव०७२२१ व्याकुलः। वादलब्धिसम्पन्नः। ओघ. १९। आव०८२२ वाईए-वातीनं-वातोपहतं। वातेन पातितम्। राज०६। वाउलण- व्याकुलता। व्यव० ३। वाउ- वातः-उच्छवासादिलक्षणः। प्रश्न० ३२। वायुः। जम्बू | वाउला- व्याक्ला-व्यावृता। आव० ३५३| ४९१ | वाउलेति- व्यामोहमुत्पादयति। निशी. २८४ अ। वाउए- व्यावृत्तः-महामात्रः। औप०६२ वाउल्लग- पुरिसपुत्तगलो। निशी० ३९ आ। वाउकुमार- वायुकुमाराः वाउल्लेति- व्याकुलयति। आव० ३४३। सोमस्याज्ञोपपातवचननिर्देशवी देवः। भग. १९५१ | वाउवेग- वायुवेगः- शरीरान्तर्वर्तीवातजवः। जीवा० २७७। वायुकुमारः-भुवनपतिभेदविशेषः। प्रज्ञा०६९। वायुवेगः-शरीरान्तर्वर्तीवातजवः। जम्बू. ११७ वाउकुमारि- वायुकुमारी: वाऊ- वातः-वायुः। उत्त०६९३। वातीति वायुः-वातः। सोमस्याज्ञोपपातवचननिर्देशवर्ती देवी। भग० १९५५ उत्त०६९३। स्था० ३०२। वाउक्कलिया- समुद्रोत्कलिकावद् वातोत्कलिका। भग० वाऊलिअ- वातूलिकः-नास्तिकः। दशवै०४६। १९६। समुद्रस्येव वातोत्कलिका। प्रज्ञा० ३०। वातोत्क- | वाओली- वातोली-वातमण्डलिकाः। भग. १९६| लिकास्थित्वा २यो वातो वाति सा वातोत्कलिका। भग० वाकरण- व्याकरण-परेण प्रश्ने कृते उत्तरम्। ज्ञाता०६१| ६८३ व्याकरण-उत्तरसूत्रम्। सूर्य ९५५ वाउक्काएइ-वातमुद्गरति-शब्दं करोति-रटति। आव. वाकवासी- वत्कलवासी। औप. ९११ ११४| वाउडत्तण- प्रावृतत्वम्। आव०८५४| वाक्कोक्रुच्य- यत्तु तज्जल्पति येनान्यो हसति, तथा वाउत्तरवडिंसग- पञ्चसागरोपमस्थितिकं देवविमानम। नाना-विधजीवविरुतानि मुखातोदयवादितां च विधत्ते सम. १० तत्। उत्त०७०९। वाउद्धयविजयवेजयंतीपडागच्छत्तातिच्छत्तकलियं- वागतकणडए- वल्कतृणकटाः। मरण | वातोद्ध-तविजयवैजयन्तीपताकाछत्रातिछत्रकलितं- वागय- वाकजं-सनातस्यादिवाकेभ्यो यज्जायते, यथा वातोद्धतावा-युक-म्पिता विजयः सन-सूत्रम्। उत्त० १७१। अभ्युदयस्तत्संसूचिका वैजयन्त्य-भिधाना याः- वागरण- व्याक्रियमाणत्वाद्व्याकरणम्। भग० ११६) पताकाः, अथवा विजयः इति वैजयन्तीनां शब्दलक्षणशास्त्रम्। औप० ९३। शब्दलक्षणशास्त्रपार्श्वकर्णिका उच्यन्ते तत्प्रधाना वैजयन्त्यो अपृष्टो-त्तरूपम्। जम्बू. १४२ व्याकरणम्। आव० विजयवैजयन्त्यः पताकास्ता एव विजयवर्जिता ७९३। व्या-क्रियत इति व्याकरणः-प्रश्नार्थः। भग. २२१। वैजयन्तः छत्रातिछत्राणि-उपर्यपरि स्थितानि छत्राणि व्याकरणः-शब्दलक्षणः। ज्ञाता० ११०| व्याकरणंतैः कलितम्। जीवा० १७५। वाणारसी नगरविशेषः शब्दशास्त्रम्। भग० ११४। व्याकरणंकाशी। भग० १९३। पदार्थधर्मनिरूपणम्। बृह. २६ अ। व्याकरणंवाउपवेस- वायुप्रवेशः-गवाक्षः। ओघ. ५२ यथावस्थितार्थप्रज्ञापनम्। आचा० २२८१ व्या-करणःवाउप्पिया- वातोत्पत्तिका रूढ्यावसेया। प्रश्न. ८1 संस्कृतशब्दप्राकृतशब्दव्याकरणः। नन्दी. ५० वाउब्भाम-अनवस्थितवातः-वातोद्भामः। भग० १९६) वागरणं-व्याक्रियते-अभिधीयते इति व्याकरणं प्रश्ने वातोदभ्रमः- अनवस्थितोवातः। जीवा० २९। सति निर्वचनतयोच्यमानः पदार्थः। सम०७२। वाउमई- वायुभूतिः तृतीयगणधरः। आव. २४० वागरति-। ज्ञाता० १०६| वाउरिय- मृगबन्धनविशेषेण चरतीति वागुरिकः। प्रश्न | वागरिज्ज- व्यागृणीयात्-विविधमभिव्याप्याऽभिदध्यात् मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [183] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] व्याकुर्याद्वा प्रकटयेत्। उत्त० ५६। वागरित्तए व्याकर्तु उतरं दातुम्। भग० ७०७॥ वागल- वल्कल-तरुत्वक्। ज्ञाता० २१३| वागलवत्थनियत्थ- वल्कलं वल्कस्तस्येदं वाल्कलं तवस्त्रं निवसितं येन स वाल्कलवस्त्रनिवसितः । भग० ५१६] वल्कलं-वल्कः तस्येदं वाल्कल तद्वस्त्रं निवसितं येन स वाल्कलवस्त्रनिवसितः । निर० २६| वागली - वल्लीविशेषः । प्रज्ञा० ३२ | वागुत्ती आगम-सागर- कोषः ( भाग : - ४ ) वावल्लफस्सपिसुणसावज्जप्पणत्तणिग्गहकरणमाणे ण वासगोवणेण वासगोवणेण वयणगुत्ति निशी० १७ अ वागुरा अङ्गुलीच्छादयित्वा पादावप्फपरिच्छादयति सा वागुरा बृह. २२२ आ मृगबन्धनम्। अनुयो० १३०| वागुरिक व्याधः ओघ० २२३ | वारिय वागुरिक:- लब्धकः । सूत्र- ३२११ वागुरु-मि वागुरुहिं वहत्ता | निशी० ४३ आ । वाग्मी- कृतमुखः। निशी० २७७ आ । धृष्टतरः | निशी० १६४आ। वाग्मी-प्रष्ठः । जीवा० १२२| वाग्योग औदारिकवैक्रियाहारकशरीरव्यापाराहृतवाग्द्रव्यसमूहसाचिव्याज्जीवव्यापार वाग्योगः । आव० ५८३ | वाघाइम- व्याघातः-पर्वतादिस्खलनं तेन निर्वृतं व्याघातिमम्। सूर्य० २६६। व्याघातवत् अभिभूतः। औप० ३८८ वाघाइमपाहुडिया व्याघातिमप्राभृतिका-या सूत्रार्थपौरुषीवेलायां क्रियते व्यव० २६२ आ वाघाइय विशेषेणाघातो व्याघातः सिंहादिकृतः शरीरविनाशः तेन निर्वृत्तं तत्र वा भवं व्याघातिमम् । आव० २६२॥ वाघाए- व्याघातः-पर्वतादिस्खलनम्। सूर्य॰ २६६। वाघाओ- व्याघातो-अलोकाकाशेन प्रतिस्खलनम्। प्रज्ञा० १०५ व्याघातो. दीर्घदुःखोपनिपातरूपः । पिण्ड० १७२ व्याघातः- अलोकाकाशेन प्रतिस्खलनम्। जीवा० २०१ व्याघातः पर्वतादिस्खलनम्। जीवा० ३८४ व्याघातःगमनप्रतिबन्धः । ओघ० ४७। व्याघातः - न ग्रायः कालः । ओघ० २०११ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] वाघाडिया वग्घाडिका उद्घट्टकारिणो । बृह० २४७ आ । वाघाय- व्याघातः-यथा अच्छभल्लेन काला वोष्टौ च खादितः । व्यक० ४०७ अ व्याघातः सिंहव्याघ्रादिकृतः । आचा० २६२ वाघुण्णित व्याघूर्णितं दोलायमानम् । ज्ञाता० ३१ वाघुन्निय व्याघूर्णितम् । ज्ञाता० ३५॥ वाघ्रापत्य- गोत्रविशेषः । नन्दी० ४९ | वाचनाचार्य आचार्यविशेषः स्था० २२९| गुरुभूतः स्था• ३२४ | कल्पस्थितः । प्रज्ञा० ६४ | वाचनासम्पत्- विदित्वोद्देशनादिचतुर्भेदभिन्ना सम्पत् । उत्त० ३९| वाचालता- वाग्वीर्यम्। उत्त० २६७॥ वाचाला सन्निवेशविशेषः । दक्षिणोत्तरक्षणः । आव० १९५| वाचिक- मयेदृशी निरवद्या भाषा भाषितव्या, नेदृशी सावद्येति । बृह० २५६ अ । वाचिकः अभिनय - विशेषः । जम्बू० ४१४| वाजिकरण- कामशास्त्रविहितप्रयोगः । उपा० ८ वाजीकरण- वाजीकरणं-शुक्रवर्द्धनेनाश्वस्यैव करणं, आयुर्वेदस्याष्टमाइगम्। विपा० ७५% वाड- वाटकः । आव० ४२६ | वाटः- वाटकः । उत्त० ४९० | वाटः-पाटः। उत्त॰ ६०५ | गोस्थानम् । उपा० ४६ । पलायनम् । बृह० २१७ आ । वाडग- वाटः-वाटकः-वृत्तिः । प्रश्र्न० २२॥ वाटकम् । आव ० ७४४| वाटकः परिच्छिन्नः प्रतिनियतः सन्निवेशः। पिण्ड. १०३ | पाडगेति संज्ञा धरपंती निशी. १८७ अ निशी. १२७ आ गाविओ जत्थ दुज्झति । निशी. १५११ वाडगेपति- वाटकपतिः- वसत्यनुगतवाटकैक स्वामी । व्यव० २४३ आ। वाडहाणग- वाटहानकः । आव० ७१८। वाटधानाकः - वाटधानकवास्तव्यः । उत्त० ३०२ | वाडा- हरितविशेषः । प्रज्ञा० ३३ वाडीवाडी ओघ १३७। वाटिः वृत्तिः । बृह. १८ वाणं- पूरणार्थी निपातः आव० २५११ वाणक्कत- वेच्चम् । जीवा० २१० | वाणपत्या वने भवा वानी प्रस्थानं प्रस्था अवस्थितिर्वानी प्रस्था येषां ते वानप्रस्थाः । भग० ५१९| [184] "आगम- सागर-कोषः " (४) Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text]] वाणप्पत्थ- वने अटव्यां प्रस्था-प्रस्थानं गमनमवस्थानं । भग०६७। भद्रसार्थवाहवास्त-व्यानगरी। नन्दी. १६६। वा सा अस्ति यस्य स वानप्रस्थः-ब्रह्मचारी। औप. ९० नगरी। ज्ञाता०२५३। चुलणी-पितावास्तव्या नगरी। वाणमंतर- वैश्रमणस्याज्ञोपपातवचननिर्देशवर्ती देवः। उपा० ३१। सुरादेवगाथापतिवास्तव्या नगरी। उपा० ३४। भग० १९९| वनानामन्तरेषु भवाः। जम्बू०४६। व्यन्तरः शङ्खनृपतिराजधानि। ज्ञाता० १४१। अन्तरं नामावकाशः तच्चेहाश्रयरुपं दृष्टव्यं, विविधं मृदङ्गतीरद्रहस्थानम्। ज्ञाता० ९६| भवननग-रावासरूपमन्तरं यस्य स व्यन्तरः अथवा काममहावनचैत्यस्था-नम्। ज्ञाता०२५१। विगतमन्तरं मन-ष्येभ्यो यस्य स व्यन्तरः, यदि वा सोमिलवास्तव्यानगरी। निर०२३ विविधमन्तरं-शैलान्तरं कन्दरान्तरं वनान्तरं वा वाणिए- वाणिजः-वणिग्जातिः। उत्त० ४८२२ आश्रयरूपं यस्य स व्यन्तरः, यदि वा वानमन्तर इति वाणिज्ज- वाणिज्य-वाणिज्यकलोपजीवी। जीवा० २७९। पदसंस्कारः, तत्रेयं व्युत्पत्तिः-वनानाम-न्तराणि तेषु वाणिज्य-वणिग्व्यवहारम्। प्रश्न. ९७। वाणिज्यंभवा वानमन्तराः। प्रज्ञा०६९। वनान्तरेषु वन-विशेषेष व्यापारः। उत्त० २७९। भवो अवर्णागमनकरणात् वानमन्तरः, वने भवः वानः वाणिज्जेइ-वाणिज्यं-सत्यान्तमर्पग्रहणादिष स चासौ व्यन्तरः वामनन्तरः वानव्यन्तरः। भग० ३७ न्यूनाधिकाद्य-र्पणम्। जम्बू. १२२१ व्यन्तराः-विविधान्यन्तराणि उत्कर्षापकर्षात्मकविशे- | वाणिणी- वणिग्मार्या। आव० ८२६। षरूपाणि निवासभूतानि वा गिरिकन्दरविवरादीनि येषां | वाणिय- वाणिज्जा वालिजुकाः। बृह. २७३ आ। तेऽमी व्यन्तराः। उत्त०७०१| वनानामन्तरेषु भवाः वाणियग- वाणिजकः-वणिक्। प्रश्न. ३०| पृषोदरादि-त्वादागमे वानमन्तराः। जम्बू०४६। वाणियगाम- यत्र दूतिपलासचैत्यम्। भग० ४३९, ५०१, व्यन्तरायतनम्। आव. २९५१ ५३२, ७५८ वणिग्ग्रामः-नगरविशेषः। अन्त० २३॥ वाणमंतरीओ- वैश्रमणस्याज्ञोपपातवचननिर्देशवर्तिन्या वणिग्ग्रामः-मित्रराजधानी। विपा०४५ वणिग्ग्रामःदेव्यः। भग० १९९ विज-यमित्रसार्थवाहवास्तव्यनगरम्। विपा० ५१। वाणारसि- वाणारसी-श्रीपार्श्वजन्मभतिः। आव०१६० आन्दगाथाप-तिवास्तव्या नगरी। उपा०११ वाणारसी-महापद्मचक्रीराजधानी। आव० १६१। वाणार- | वाणियग्गाम- वाणिज्यग्रामम्। आव० २१५) सीदेवनिदानभूमिः। आव० १६३। वाणारसी-नगर- वाणिजग्रामः। आव. २१४ वणिग्ग्रामः-ग्रामविशेषः। विशेषः। काशी। भग. १९३| अनुत्त०८ वाणारसी- वाराणसी-संवरोदाहरणे पुरी। आव० ७१३ | वाणीरा- वानीरा-सिन्धुसेनसुता ब्रह्मदत्तराज्ञी। उत्त. वाराणसी-संवरोदाहरणे पुरी, ३७९ भद्रसेनजीर्णश्रेष्ठीवास्तव्या-पुरी। आव०७१३। वाराणसी | वात- मतमभ्युपगम्य पंचावयवेन वा उत्तरगुणप्रत्याख्याने नगरी। आव०७१६। वाराणसी पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहत् छलजातिविरहितो इहलोके कायोत्सर्गफलमिति दृष्टान्ते परी, यत्र भूतार्थान्वेषणपरो वादः। निशी. २४० अ। वातःसुभद्रया कायोत्सर्गकृतः। आव० ८०० यत्र भेरूण्डको सम्पातिं जीवविशेषः। आचा. ५५ दिव्यकः। उत्त० ३५६। वाराणसी। उत्त० ३७९। वातकरग- वातकरकः। जीवा० २३४। वाराणसी-ब्रह्मगणनिरूपणे जयघोषविजयघोषवा- वातकोण-क्षुरप्रः। आव० ३९६ स्तव्यानगरी। उत्त० ५२१। वारानसी वातजोगजुत्त- वातयोगयुक्त प्राणवायुना सर्वक्रिया श्रीपार्श्वजन्मभूमिः। आव० १६० आव. २२११ सुप्रवर्ति-तम्। प्रश्न. ३१॥ वारानसी-पारिणामिक्यां धर्मरुचिराजधानी आव०४३० | वातफलिह- वातस्य परिहननात् परिघः-अर्गला परिघ इव वाराणसी-प्रीविशेषः। आव० ३८९। काशीजनपदे परिघः, वातस्य परिघः वातपरिघः। स्था० २१७। स्था. राजधानी, आर्यक्षेत्रम्। प्रज्ञा० ५५ यत्र काममहावनम्। । ४३२ मनि दीपरत्नसागरजी रचित [185] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text]] वातफलिहखोभ-वातं परिघवत् क्षोभयति-हतमार्ग वामण- वामनं-यल्लक्षणयुक्तं कोष्ठं चतुश्रलक्षणोप्तं करोतीति वातपरिघक्षोभः। स्था० २१७५ ग्रीवा-द्यवयवहस्तपादं च तवामनम्। सम० १५० वातमंडलिया- वातमण्डलिका-मण्डलेनोलप्रवृत्तो वायः। वामनः-कालानौचित्युनातिहस्वदेहः। प्रश्न२५१ स्था० २१६। मडहकोष्ठं यत्र हि पाणिपादाशिरोग्रीवं यथोक्तं वाताइदं-सेप्पडयं। निशी० १२५ आ। तोप्पड्डयं प्रमाणोपेतं यत्पुनः शेष कोष्ठं तन्मडभंअनिष्पन्नमित्यर्थः। निशी० १२३ आ। न्यूनाधिकप्रमाणं तवामनम्। स्था० ३५८| वामनंवाताहड- मज्जणा। निशी. २७आ। लक्षणयुक्तमध्यं ग्रीवादौ वाति-दुरादागच्छति। भग० ७१३। वादिः-तीर्थिकः। स्था० हस्तपादयोरप्यादिलक्षणन्यून संस्थानम्। भग०६५०| ૨૬૮1. वामनं-चतुर्थं संस्थानम्। जीवा. ४२। वामनःवातिए- वातेन तत्प्रजनं मर्छनम्। ओघ. २१६। खर्वशरीरः। प्रश्न. १६०। यत्र पुनरुरुउदरावातिक- धूर्तः। सूत्र० ११३ दिप्रमाणलक्षणोपेतं हस्तपादादिकं हीनं वातिग- वातिकः-वातो निदानमस्येति। स्था० २६५। तवामनसंस्थानम्। प्रज्ञा०४१२वामनं-मडभकोष्ठं वातिण- वातीनं-वातोपहतं वातेन पातितम्। जीवा. १८७। संस्थानम्। आव० ३३७। यत्र हृदयोदरपृष्ठ वातोली- वातः। आचा। वातमण्डली। प्रज्ञा० ३० सर्वलक्षणोपेतं शेषं तु हीनलक्षणं तत् वामनम्। अनुयो. मण्डलीकवातः। उत्त० ६९४। १०॥ वात्तमानिक- अभूतपूर्व इत्यर्थः। स्था० ४९४१ वामणग- वामनकः-हीनहस्तपादाद्यवयवः। व्यव० २३१| वाद- जल्पः। स्था० ३६५) वादः-तत्रः-तत्र तमभ्युपगम्य वामणसंठाण- वामनसंस्थानम्। प्रज्ञा० ४७२। पञ्चावयवेन व्यवयवेन वा वाक्येन यत्तत्समर्थनं स वामणि- वामनिका-अत्यन्तहस्वदेहाः छलजा-तिविरहितो भूतार्थोऽन्वेषणपरो वादः। सम० ह्रस्वोन्नतर्हदयकोष्ठा। जम्बू. १९१। धात्रिविशेषा। २४ वादः- प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भः सिद्धान्ताविरुद्धः ज्ञाता० ३७ पञ्चावयवोपपन्नः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहः वादः। सूत्र वामणी- वामनी-अत्यन्तह्रस्वदेहा ह्रस्वोन्नतहृदयकोष्ठा २२६। वादं- विकल्पं-वातो वा। स्था० ३७२। वा। औप०७७ वादति- वातपूरिओ। निशी. ७७ आ। वामद्दण- वाममईनं-परस्परस्याङ्गमोटनम्। औप०६५ वादन- करयडिंडिमकिणिककंडयानां वादनम्। राज०५२ व्यामर्द्ध-परस्परस्याङ्गमोटनम् भग० ५४२॥ वादी- वादलब्धिसम्पन्नः। ओघ. १९| वामन-सर्वगात्रहीनम्। नि० ४२ आ। वादु-धावनम्। निशी० ७० अ। वामनका- हीनहस्तपादावयवा। व्यव० २८५ अ। वाधिउं- वर्धितुम् आव० ५३८१ वामना- ह्रस्वशरीरा धात्री। ज्ञाता०४१| वानमन्तर- भवनपतिविशेषः। जम्बू० ३८५ वामभुयंत- वामभुजान्तः-वामपार्श्वः। सूर्य० २८७) वानरअ- वानरकः। आव. २६२१ वामलोकवादी- वाम-प्रतीपं लोकं वदति यः वानरजूहवइ-साध्वनुकम्पा लब्धसम्यकत्वः। मरण| सतांलोकवस्तू-नामसत्वस्य प्रतिपादनात्स वानरविद्या- विद्याविशेषः। प्रश्न. ८९। वामलोकवादी। प्रश्न.३१| वान्ता- पतिता। दशवै० १०६। वामा- पार्श्वनाथस्य माता। सम० १५१| वापी-समवृता निशी० ७०आ। जीवा० २७६। वामावडे- वामं चीवट्टतिसि विवरीयकारी। निशी० ८० वाबाहा- व्याबाधा। ज्ञाता०९७। व्याबाधा। जम्बू० १२४१ वामावर्त- यथा भण्यते तथा अकुर्वाणः बृह. १२८ अ। वाम- कामस्तत्प्रवृत्तिः। निशी. २५२ अ। वामः वामीरा-मराकडणं| निशी. १६८ आ। वामपार्श्वव्यवस्थितत्वात् प्रतिकूलगुणत्वाद्वा। स्था० | वामुत्तग- वामोत्तकः। जम्बू० १०५१ २१६। प्रतीपम्। प्रश्न. ३१| | वामेति- वमति-वमनं करति। भग० १८९। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [186] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text]] १०| वामोत्तओ- वामोत्तकः-भूषणविधिविशेषः। जीवा० २६८1 प्रयोजकभावो वाचना-पठनम्। उत्त० ५८४। वाचनावायंतिउ- वाचा अन्तःपरिच्छेदो वागन्तस्तेन निर्वृत्तो पञ्चमा परिज्ञा। व्यव. ३९१ अ। वाचना-सूत्रग्रहणम्। वाग-न्तिकः-आभवनव्यवहारः। व्यव० ९४ अ। प्रश्न. १२९। वाचना-सूत्रप्रदानल-क्षणा। आव० २६४। वायंतिववहारं-स्वस्वकुलममत्वेन वागन्तिकव्यवहार वाचनं वाचना परतः श्रवणम्, अधि-गमः उपदेशश्च। वागो-वान्तः परिसमाप्ति वागंत सूत्रभवो वागन्तकः स आव० ३७७ वाचना शिष्यस्याध्यापनम्। दशवै. ३२१ चासौ व्यवहारश्च तं कुरुत। व्यव० ३० आ। पातना-जीवस्य भंसना। प्रश्न०६। वाय- पञ्चसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम.१० वायणाए- वाचनायै-वाचनार्थम्। ज्ञाता०६१। पाकः-स्विन्नतारूपः। अनुयो० १४३। वायणायरिय-वाचनाचार्यः-आचार्यविशेषः। दशवै. ३१| वायए- वाचकः-पूर्वगतश्रुतधारी बृह० २१७ अ। वायनिसग्ग- अपानेन पवननिर्गमः-वातनिसर्गः। आव. वायकंडग- वातकण्डयः-जङ्घायां वातकण्टकः। बृह० १२३ ७७९| आ। वायप्पभ- पञ्चसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम० वायकंत- पञ्चसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम० १०| वायफलिहा- वातोऽत्रापि वात्या तद्वद्वातमिश्रत्वात् वायकम्म- वातकर्म। ओघ. १९८१ परिघश्च दुर्लयत्वात् सा वातपरिघः, वायकरए- वातकरकः-जलशून्यः करकः। जीवा० २१५॥ कृष्णराजिनाम। भग० २७१। वायकरग- वातकरकः-जलशून्यःकरकः। राज०७१| वायमंडलिया- वातमण्डलिका- वातोली। भग० १९६| जलशून्यः करकः। जम्बू०५८| वातकरकः-जलशून्यः वातमण्डली-वातोली। प्रज्ञा० ३०| करकः। जीवा० २१४। वातकरकः। जम्बू०४१०। वायर-विहारः। निशी. १४६आ। वायकुंठ- परवादिमहणो। निशी० २८८ आ। वायालिय- व्यालैश्चतीति वैयालिकः। प्रश्न. ३७ वायकड- पञ्चसागरोपमस्थितिकं देवविमानम। सम. वायलेस- पञ्चसागरोपमस्थितिकं देवविमानम। सम० १०| वायग- वाचकः-पूर्वविद। प्रज्ञा० ५। विनेयान् वाचयतीति | वायवण्ण-पञ्चसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम. वाचकः। नन्दी० ५०| वाचकः-आचार्यः। बृह. २७९। आ। वाचकः-उपाध्यायः। आव०६१। वाचकः-पूर्वधरः। आव. वायविक्खलिअं- वाग्विस्खलितं- लिङ्गभेदादिस्खलितम्। ५३ दशवै०२३६| वायज्झय- पञ्चसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम० वायव्व- युर्देवता वायव्या दिग्। भग०४९३। वायव्यः१० वायुरस्यास्तीतिवायवो वातिकः। विपा० ३५ वायगत्त- वाचकत्वं-आचार्यत्वम्। आव २९३। वायव्वा- षष्ठी दिशा। स्था० १३३। वायवी। आव. २१५ वायडा- व्याकृता-स्पष्टा प्रकटार्था, असत्यामृषाभाषाभेदः। | वायस- वायसः-काकः-लोमपक्षिविशेषः। जीवा०४१। दशकं. २१०१ वायसः-चलचितः, काकः। आव०७९८। वायण- वचनं-प्रतिपादनम्। स्था०४२८। लोमपक्षिविशेषः। प्रज्ञा०४९। वायणपडिसणणा- वाचना-सूत्रप्रदानलक्षणा तस्याः प्रति- | वायसपरिमंडल- वायसादीनां पक्षिणां यत्र श्रवण-प्रतिश्रवणा वाचनाप्रतिश्रवणा। आव० २६४१ स्थानदिक्स्वराश्र-यणात् शुभाशुभफलं चिन्त्यते तत् वायणा- वाचनं वाचना विनेयाय निर्जरायै सूत्रदानादि। वायसपरिमण्डलम्। सूत्र० ३१९| स्था. १९०वाचना-सूत्रार्थप्रदानलक्षणा। सम.१०८ वायसयविहंग- वायसविहंगः-काकविहङ्गः। प्रश्न० ८1 वाचना-सूत्रार्थप्रदानम्। नन्दी. २१० वाचना- | वायसिंग- पञ्चसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम० शिष्याध्यापनलक्षणा। अनुयो०१६। शिष्यं प्रतिगुरोः | १०| १० १०१ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [187] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] वायसिट्ठ- पञ्चसागरोपमस्थितिकं देवविमानम। सम० | वारणा- वारणं-निषेधः, प्रतिक्रमणस्य चतुर्थं नाम। १० षड्भेद-भिन्न प्रतिक्रमणमेव। आव० ५५२। वारणावायस्सिओ- वागाश्रितः। आव०६७९। अनाचारस्य प्रतिषेधनम्। व्या० ७२ अ। वाया-वाचा-अभिलापः। आव०५२४। वारत्त-संवेग उदाहरणम्। आव० ७०९। वारत्रः-अन्तकृवायाइदं- अकालेनैव शुष्कं सङ्कुचितम् वलीभृतम्। दशानां षष्ठवर्गस्य नवममध्ययनम्। अन्त०१८ ओघ० २११। वारत्रकः-संवेगोदाहरणेऽभयसेनामात्यः। आव०७०९) वायाम- लगुडिभमाडणं, उवलयकट्ठणं। निशी. ९८ अ। वारत्तक- महर्षिविशेषः। बृह. ३०६ आ। छर्दितदोषदृष्टाव्यायामः-तिर्यक्पसारितोभयबाहप्रमाणो मानविशेषः। न्तेऽमात्यः। पिण्ड० १६९। जम्बू० २४२। व्यायामः-व्यापारः। स्था० २० वारत्तग- वारत्तपुरं नगरं, तत्थ य अभयसेणो राया तस्स वायमण- वायामनं-व्यायामकरणम्। जीवा. १२२ अमच्चगो। निशी० ५४ अ। वायावत्तं- पञ्चसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम. वारत्तथलीए-| निशी० १०९ आ। १०| वारत्तपुरं- वारत्रकपुरं-संवेगोदाहरणे नगरम्। आव० ७०९। वायाविद्ध- वाताद्विधं अर्वाक् शुष्कम्। बृह० २४४ आ। छर्दितदोषदृष्टान्ते नगरम्। पिण्ड. १६९। वायाविरिय- वाग्वीर्य-वाचिवीर्य-वाचालता। उत्त० २६७। अभयसेणराय-नगरं। निशी० ५४ आ। वायाहड- वाताहृतः-आकस्मिकः। बृह. १३३ अ। वारधोअण- वारकधावनं-गुडघटधावनम्। दशवै. १७७) वाताहृतः-आगन्तुकशैक्षः। बृह. ३६ आ। वारन्नक- रजोहरणमुखपोतिकादिलिङ्गघरः। ब्रह० २७६। वायाहयग- वाताहतं वायुनेषच्छोषमानीतम्। उपा०४२। वारवार- वारः वारः। आव०१४] वायु- वायुः-पञ्चममुहूर्त्तनाम। सूर्य. १४६। वारबाण- कञ्चूकः। भग०४६० वायुभक्खिणो- | निर०२५ वाराणसी- पुरीविशेषः। उत्त० ३७६) वायुभूति- वायुभूतिः-चमरस्य विकुर्वणाविषयकोद्देशके वाराह- पञ्चमबलदेवपूर्वभवनाम। सम० १५३। वाराहःअनगारः। भग० १५६। आन्दबलदेवपूर्वभवः। आव० १६३ । वार-पकप्रभायां महानारकः। स्था० ३५६। वारः। आव० | वारि- पानीयम्। उत्त० ५०६| ५५९। वेला। आव० ५१४| वारः-हस्तच्युतः। निर० १८१ वारिओ- वारितः। आव०४२०| वारितःवारकः। बृह० २१० आ। अहितान्निर्वतितः। आव० ७९३। वारए- वारकः-अशुद्धपाठनिषेधकः। भग० ११२। वारिप्पवेसण- वारिप्रवेशनं-जले क्षेपः। प्रश्न. २२१ वारकोऽशुद्ध पाठनिषेधकः। ज्ञाता० ११०| वाराकः- वारिबंध-हत्थिग्गहणी। निशी० २७५ अ। गडुकः। उपा० ४० वारिभद्दगा- वारिभद्रकाः-अब्भक्षाः सैवलासिनो नित्यं वारओ- वारकः। आव०६३। वारको-प्रश्रवणव्यत्सर्जनान्त- । स्नानपादादिधावनाभिरता वा । सूत्र. १५४१ रमुदकस्पर्शनार्थं भाजनम्। बृह. २५३ आ। वारिमज्झच्छूट- वारिमध्यक्षिप्तः। आव० ३४६। वारक- लघुघटः। नन्दी०६२। अनुयो० १५२। गण्डः। जम्बू० । | वारिसेण- | स्था० ४७९। ऐरवते तीर्थकृत्। सम० १५३। ५७ वारकः। आव० १०३। वारकः-लघुर्घटः। पिण्ड० ९०| वारिषेणः-अन्तकृद्दशानां चतुर्थवर्गस्य वारकः। बृह. ६१ । पञ्चममध्ययनम्। अन्त०१४। वारिषेण:वारग- परिवाडी। निशी० ७२ आ। वनस्पतिविशेषः। प्रज्ञा. अनुत्तरोपपातिकदशानां प्रथमवर्गस्य ३३। वारकः-मरुदेवप्रसिद्धनामा माङ्गल्यघटः। जम्बू. पञ्चममध्ययनम्। अनुत्त०१। १०१| वारिसेणा- वारिषेणा-वापीनाम। जम्बू. ३७० चतुथीं वारडिय-रंगयुक्तानाम्। गच्छा शाश्वतजिनप्रतिमा। स्था० २३० वारिषेणा-वारिषेणप्रवारण-दोषेभ्यो निवारणम्। ओघ० १५८ तिमा। जीवा. २३८ सप्तमी दिक्कमारी महात्तरिका। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [188] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] जम्बू. ३८८1 वारिषेणा-दिक्कुमारीनाम। जम्बू० ३५६। | वालग्गकोडो- वालाग्रकोटी-वालेषु विदेहनरवालाद्यपेक्षया वारी- राजबन्धनम्। मरण| हस्तिपाशविशेषः। ओघ. सूक्ष्मत्वादिलक्षणोपेततयाऽग्राणि-श्रेष्ठनि वालाग्राणि १५९ कुरुनर-रोमाणि तेषां कोट्यः-अनेकाः कोटाकोटीप्रमुखाः वारीवसभ- वारीवृषभो-प्रवहणम्। आव०७०८५ सङ्ख्याः । जम्बू० ९५ वारुण- वारेणः-वारुणसमुद्रः। जीवा० ११८ आर्द्रामूला- वालग्गपोइया- वालाग्रपोडिका-जलस्योपरिप्रासादः। दिन-क्षत्रप्रभवम्। अनुयो० २१६। वारुणः। जम्बू० ४९१| जम्बू. १२१। (देशीपदं) वलभीवाचकम्। उत्त० ३१२। वारुणि-सुविधिनाथस्य प्रथमशिष्या। सम० १५२सुरा। वालग्गपोतिआसंठिओ- वालाग्रपोतिकासंस्थितः स्था० २८८१ तडागोपरि-प्रासादसंस्थितः। जीवा. २७९। वारुणिवर- वरवारुणी। जीवा० ३५०। वालग्गपोतिया- वालाग्रपोतिका (देशी शब्दः) सूत्र०७० वारुणी- पञ्चमी दिशा। स्था० १३३। वरुणो-देवता, वारु- वालग्रपोतिकातडागादिजलस्वोपरि प्रासादः। जीवा. णीदिग्। भग० ४९३। वापीनाम। जम्ब० २७१। उत्तररु २७६। चकवास्तव्या चतुर्थी दिक्कुमारी महत्तरिका। जम्बू. वालग्गपोतियासंठिय- वालाग्रपोतिकाशब्दः ३९१। पश्चिमदिक्। आव० २१५) व्यक्तमाता। आव. आकाशतडागमध्ये व्यवस्थितं क्रीडास्थानं, लघुप्रासादः २५५। वारुणी-उत्तररुचकवास्तव्या दिक्कुमारी। आव. तस्या इव संस्थितं-संस्थानम्। सूत्र० ७० १२२। सुरा। आव०७९८१ वालचिय- बालचितः लोमशः। पिण्ड० १२० वारुणोद- वारुणीरसास्वादसमुद्रविशेषः। अनुयो० ९०। वालधि- पुच्छम्। उत्त०५५१ वारुणोदय- वारुणसमुद्रः। प्रज्ञा० २८१ वालपुच्छभ- चामरम्। जम्बू. ५३० वारेज्ज-विवाहः। अनुयो० १३८५ वालय- वल्कजं शणप्रभृतिः। अनुयो० ३५) वार्तिक- यदेकस्मिन् पदे यदर्थापन्नं यदर्थापन्नं तस्य वालरज्जुय- वालरज्जूकः-गवादिवालमयीरज्जुः। प्रश्न. सर्वस्यापि भाषणम्। बृह. ३२आ। ५६। वार्द्वानी- गलन्तिका। जीवा० २६६। वालवरिस- केसवरिसं। निशी. ७० अ। वालंभा- वागलोलइया। निशी० २५४ आ। वालवायज- वैडूर्यम्। जम्बू. १९३। वाल- व्यालः। निशी० ३२। पालः-श्वापदभुजगः। भग० | वालवी- व्यालपी-व्यालान्-भुजङ्गान् पान्तीति १२२ वालः-केशः। नन्दी० १६५ वालः-चमर्यादि-नाम। | व्यालपास्ते विद्यन्ते यस्य सः। प्रश्न० ३७। दशवै. १९३। व्यालः-श्वापदः। ज्ञाता०७८ व्यालः- वालवीअणी- वालव्यजनी-चामरम्। स्था० ३०४। श्वप्रभृतिका। व्यव० १५९ अ। दृष्टसर्पः। बृह. ५। वाला- कश्यपगोत्रे भेदः। स्था० ३९०१ व्यालः। आव० २७३। व्यालः-श्वापदभुजङ्गः। राज० २८1 | वालि-किकिन्धपुराधिपतिः। प्रश्न० ८९| व्यालः-श्वापदभुजङ्गः। ज्ञाता०१४। बवालः-केशः। | वालिय- पलोट्टतितं। निशी० १२५आ। प्रश्न० ८व्यालः-श्वापदभु-जङ्गलक्षणः। भग० ४७१। | वालिहा- वालधानो-शकपुच्छम्। ज्ञाता० ९२ व्यालः-शिरोजः। जीवा. २७४। उण्णियवासाकप्पेण | वालिहाण- वालिधानं-पुच्छम्। जम्बू० ५२९। वालिधानपाउतो अडति। निशी. ३५४ अ। पुच्छम्। उपा० ४४| वालधानं-पुच्छम्। भग० ४५९। वालगंड- वालगण्डं-चामरम्। जम्बू. ५२९। वालुं चिर्भटम्। अनुत्त०६, ९। वालग- व्यालः-श्वापदभजगः। जीवा. १९९। गवादिवाल लुङ्क-खादयविशेषः। पिण्ड० १७२ धिवालनिष्पन्नचालनकः। सुघरिकागृहको वा। आव० वालुंकि- वनस्पतिविशेषः। भग० ८०४। ३४७ | वालुंकी- गुच्छाविशेषः। प्रज्ञा० २३॥ वालग्ग- वालाग्रम्। भग० २७५। वालाग्रं-कुनररोमम्। वालंडयचम्मकोस- अन्त्यजचर्मकोत्थलः। तन्दु। जम्बू०९५ | वालु- वालुः-द्वादशमपरमाधार्मिकः। सूत्र० १२४। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [189] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] ३६) वालुअजल- वालुकाजलं-यद्वालुकाया उपरि वहति। ओघ० | वावन्न- व्यापन्नं-विनष्टम्। भग० ८८ રરા. वावन्नकुदंसणवज्जणा-दर्शनशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते वालुअप्पभा- वालुकाया वालिकाया वा व्यापन्न-विनष्टं दर्शनं येषां ते व्यापन्नदर्शनाःपुरुषांशूत्कररूपाया प्रभा स्वरूपावस्थितिर्यस्यां सा निनवादयः, तथा कुत्सितं दर्शनं येषां ते कदर्शना:वालुकप्रभा वालिकाप्रभा। अन्यो० ८९| शाक्यादयस्तेषां वर्जनं व्यापन्नकदर्शनवर्जनम्। प्रज्ञा. वालुए- यः कदम्बपुष्पाकारासु वज्राकारासु ५६ वैक्रियवालुकासु तप्तासु चणकानिव तान् पचति सा वावन्नदंसणा- व्यापन्नदर्शनः-विनष्टसम्यग्दर्शनः। वालुका। सम० २९ आव० ५३०| व्यापन्नं-विनष्ट-दर्शनं येषां ते वालुक- मूलविशेषः। जीवा० १३६। वालुकं-चिर्भटम्। प्रज्ञा० व्यापन्नदर्शनाः-निनवादयः। प्रज्ञा०६०। ३७ वालक-पालकं गजलक्षणप्रतिपादकं शास्त्रम्। उत्त. व्यापन्नदर्शनः-व्यापन्न-विनष्टं-दर्शनं येषां ते ४१७ व्यापन्नदर्शनाः-यैरवाप्यापि सम्यग्त्वं तथावालुकाजलं- यवुकायाः उपरि वहति। ओघ० ३२॥ विधकर्मोदयाद्वान्तम्। उत्त० ५६६) वालुगा- वालुका-पृथिवीभेदः। आचा० २९। वालुका-ग्रामः। वावन्नसोया- व्यापन्नं-विनष्टं रोगतः श्रोतोआव० २१८१ गर्भाशयश्लिद्र-लक्षणं यस्याः सा व्यापन्नश्रोता। स्था० वालुगावरहओ- वालुकादवरकः-औत्पत्तिकीदृष्टान्ते ३१३ मुख्य-वस्तुः। आव० ४१६ वावाड- व्यावृतः-आक्षणिकः। निशी० ३३३ आ। वालुङ्की- वल्लीविशेषः। आचा० ३०| वल्लीविशेषः। भग. वावार- व्यापारः-इन्द्रियव्यापारः। आव० ६५२। व्यापारं किंचिदिति कर्मयोग्यम्। ओघ. १९९। वालुञ्जकप्राय- वाणिज्यकः। ओघ० ८९। वावारित- व्यापारितो-नियुक्तः। उत्त० २८६) वालुयप्पभा- वालुकाप्रभा, तृतीयनारकः। प्रज्ञा०४३। वावि- वापिः-चतुरस्रोजलाशयविशेषः। भग० २३८ वापीवालुया- वालुका-सिकता। जीवा० २३। वालुकासिकता। । निष्पुष्करा वृत्ता वा। प्रश्न० ८। वापी-चतुरस्राकारा। जीवा० १४०। वालुका-सिकता। प्रज्ञा० २७, ९९। वालुका- जीवा० १८८। चतुरस्राकारा। जम्बू० ३०| वापी-चतुरस्रो सिकता। जीवा० १७५ जला-शयः। अनुयो० १५९। वालुयाकवल- वालुकाकवलः। उत्त० ३२७) वाविद्धसोया- व्यादिग्धं व्याविद्धं वा वातादिव्याप्तं वालू- वालकः-नरके द्वादशमपरमाधार्मिकः। आव०६५० विद्यमानम-प्यपहतशक्तिकं श्रोतः उक्तरूपं यस्याः द्वादशमपरमाधार्मिकः। उत्त०६१४। सा व्याविद्धश्रोता व्यादिग्धश्रोता। स्था० ३१३ वाल्हीका- देशविशेषः। आचा० (?) ५| वाविया- सकृद्धान्यवपनवती। स्था० २७६) वाव-इत्ययं निपातः। विशे०८३२२ वावी- वापी-चतुष्कोणा। प्रश्न० १६०। वापी-चतुरस्रा। वावट्ट-| निशी०६१ अ। औप. ८ वापी-चतुरस्रजलाशयः। औप. ९३। वापीवावण्ण- व्यापन्नं-शकुन्यादिभक्षणाद्विभत्सनां गतम्। चतुरस्राकारा। प्रज्ञा. २६७। वापी। प्रज्ञा०७२। वापी ज्ञाता० १७३। व्यापन्नं-विशरारुभूतम्। जीवा० १०७ चतुरस्राकारा। जम्बू०४१। वापी-चतुरस्रा। ज्ञाता०६३। वावत्त- व्यावृतं-अवगतम्। जीवा० १६| वासंति- वर्षति। उत्त०४९३| वावत्ति- व्यापत्तिः-गणानां भ्रंशः। अब्रह्मणः वासंतिआगुम्मा- वासन्तिकगुल्मा। जम्बू० ९८१ सप्तविंशतितमं नाम। प्रश्न०६६। वासंतियमउल- वासन्तिकामकुलं-वासन्तिकाकलिका। वावत्ती- व्यावर्तनं व्यावृत्तिः-कृतोऽपि जीवा० २७६। हिंसादयवधेर्निवृत्ति-रित्यर्थः। स्था० १७४। ज्ञाता० १५६। | वासंतिया- वासन्तिका-वनस्पतिविशेषः। प्रश्न. ८४॥ वावदूको- महाविद्वान्-क्रीकारः उपहासपूर्वकः। बृह० ५९| | वासंतियापुड- पुटविशेषः। ज्ञाता० २३२। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [190] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text) वासंतिलया- लताविशेषः । प्रज्ञा० ३२ | वासंती - गुल्मविशेषः प्रज्ञा• ३२॥ वास- वर्षाकालः | निशी० ३३४ आ । वासः - अव-स्थानम् । उत्त० ४३१ वर्ष भरतादिः । अनुयो० १२१। वासः रात्रौ शयनम् । भग० ३७ वर्ष अल्पतरं वर्षणम्। भग० २००१ वर्षा-प्रावृट्कालः । जम्बू. १५० वर्ष: क्षेत्रम्। ज्ञाता० ११। वर्षो-जलसमूहः। ज्ञाता० २५ वासः - शरीरादिवासनम् । प्रश्न० १३७। वर्षं भरतादिः । प्रज्ञा० ७१ । वासंवर्षाकल्पम्। ओघ० ६५ वर्ष पानीयमम् । सूर्य० १७२ ॥ वर्ष वर्षारूपश्र्चाप्कायः ओघ० ३१ वर्षः क्षेत्रः। निर० ४ वासए आवासगदारं निशी० ४८ आ आगम-सागर- कोषः ( भाग : - ४ ) वासग- आवासः -नीडः । व्यव० १४७ अ वासगणिया स्त्रीविशेषः । भग० ४६० | वासगा- वासन्तीति वासकाः भाषालब्धिसम्पन्ना वीन्द्रियादयः । आचा० २३७ | वासग्ग- वर्षाग्रः- वर्षलक्षणं कालपरिमाणम् । उत्त० ७८ | वासघर- वासगृहम्। आव० ११६, ३५० | वासगृहम् । दशवै० ९८ वासण रयणप्पदीवादिणा उज्झोवितं । निशी० २३२अ वासनं प्रति कवेलुकाद्याचारवत् सुखेन पाटलाकुसुमा दिभिर्वास्यमानत्वात्। दश० १००| वासत्ताण- वर्षात्राणं वर्षाकल्पम् । ओघ० ३१। वर्षात्राणंवर्षाकल्पम्। ओघ॰ १| वासत्ताणपणग- वर्षात्राणानां पञ्चकंवालसूत्रसूचीमयकुट-शीर्षक छत्रकरूपम्। वृह० २५३ अ निशी० १८० आ वासधर- वर्षधरः हिमवदादिः । अनुयो० १२१ । वासना भावना आव• ५९५ अविच्युत्याss हितः संस्कारः । नन्दी० १६८ । धारणाभेदः । दशकै० १२५ । वासन्तिकलिता- लताविशेषः । जीवा० १८२ | वासन्तीलता नाट्यविशेषः । जम्बू. ४१४ वासपडागा मुकुली अहिभेदविशेषः प्रज्ञा- ४६१ वासभवन- मैथुनसेवा तत्प्रधानं गृहकम्। जम्बू० ४५| वासव- वासवः- देवराजः । आव० ५०४ | वासवदत्त वासवदत्तः विजयपुरनगरनृपतिः। विपा० ९५| वासवदत्ता - शिक्षायोगदृष्टान्ते प्रयोतराज्ञः पुत्री आव० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] ६७३। चण्डप्रयोतदुहिता। उत्त० १४२ । वासवद्दल वर्षाद्वर्दलकम्। आव• ७९६| वासवद्दल वर्षप्रधानं वार्दलकं वर्षवार्दलकम् । राज० ५१| वाससए- वर्षाशतम्। भग० २१०| भग० ८८८| वाससयसहस्स वर्षाशतसहस्रम् । भग० २१० | वाससहस्स- वर्षासहस्रम् उत्त० १३ वाससी- आरससि । उत्त० २३८ | वासहर- वर्षधरः- वर्षे उभयपार्श्वस्थिते वे क्षेत्रे धरतीति वर्ष-धरः, क्षेत्रद्वयसीमाकारी गिरिः । जम्बू० २८२ वर्षधरः- हिमवादादिपर्वतः । प्रश्न. ९५ वर्ष क्षेत्रविशेषं धारयतो व्यवस्थापयत इति वर्षधरः । स्था० ७०% वर्षधरः । ज्ञाता० १२१ वासहरपव्वए वर्षधरः हिमवादादिपर्वतः। प्रज्ञा० ७१ । वासहरपव्वया वर्षधरपर्वता प्रमाणाङ्गुलप्रमेयाः । अनुयो० १७१। वासहरा वर्षधराः प्रमाणाइगुलप्रमेयाः । अनुयो० १७१ वासा- वर्षा ऋतुविशेषः ओघ० २१२१ वर्षा वर्षाकालः । सूर्य० १३३ वर्षपर्वताः। पिण्ड १२| निशी० २३९ अ वर्षाकालः | निशी० १८ अ । वर्षाकालः। ओघ० ११८ वर्षक्षेत्रम् स्था० ६८। वासाकप्प- वर्षाकल्पः - कम्बलः । आव ० ७३४ | वासारती विसारयति-विस्तारयति । उत्त० ४९३ । वासरत्त अस्सीओकत्तियओ, भद्दवओअस्सोओ वा बृह० ७७ आ । वर्षारात्रः । आव० ५१३ । वर्षारात्रः । आव ० १८९। वर्षारात्रः-भाद्रपदाश्र्वयुजौ । ज्ञाता० १६०| वासावास- वर्षावासम्। आव० ११५ । वर्षाकल्पम् । आव ० ६३०| वर्षावासम् आव• ७२१। पढमसमोसरणं । निशी० ३३६ वर्षासु वासः चातुर्मासिकमवस्थानं, वर्षावा-सम् । भग० ६६३ । वर्षायां वासो वर्षावासः तस्मिन् वा यो वासकल्पः ओघ• ६२१ वर्षमाने वर्षाकालनिवसनम्। निशी. ३३४ वर्षावर्षः वर्षासु वर्षाकाले वर्षो वृष्टिः वर्षासु वा आवासः- अवस्थानं वर्षावासस्तं, स च जघन्यतः आकार्त्तिक्याः दिनसप्ततिप्रमाणो मध्यवृत्त्या चातुर्मासप्रमाणः उत्कृष्टतः षण्मासमानः । स्था० ३१०| वासि - वासिः । आचा० ६१| वासिकी- वार्षिकी वर्षाकालभावी। सूर्य० २१९। [191] "आगम- सागर- कोषः " [४] Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] वासिंग- वार्षिकं-वर्षाकालः पानीयरक्षणार्थं यत् कृतम्। वासुपुज्ज- षष्ठीशतपुरुषसदीक्षाग्राहको तीर्थकृत्। सम. जम्बू० २६। १०३। वसूना-देवानां पूज्यः वासुपूज्यः, द्वादशो जिनः, वासिगभत्तं- पर्युसितभक्तम्। आव० १९५५ यस्मिन् गर्भगते वैश्रमणोऽभीक्ष्णं रतद्राजकुलं रत्नैः वासिट्ठ- वाशिष्ठं-पुनर्वसुगोत्रम्। जम्बू. ५००। मूलगोत्र- पूरयतीति, देवराजाऽभीक्ष्णं रजन्याः पूजां करोति वा। भेदः। स्था० ३९० आव०५०४। वासिहसगोत्त- वाशिष्ठसगोत्रं पुनर्वसुनक्षत्रगोत्रम्। सूर्य वासुपुज्जसामी- वासुपूज्यस्वामी, यस्य पादमूले १५० मिथिला-यास्तरुणधर्मपद्मरथो राजा चम्पायां वासित्ता- वर्षिता-प्रवर्षणकारी, प्रव्रजितुमागतः। आव० ३९११ वर्षकोऽभ्युपगतसम्पादकः। स्था० २७०। वासोग्गह-उउबद्धोग्गहो। निशी. २३९ अ। वासिय- वासितम्। दशवे. १०९। वास्तुल- हरितविशेषः। प्रज्ञा० ३१ वासियभत्त- वासिकभक्तं दोषान्नम्। ओघ. २३। वास्तुलक- पत्रशाकविशेषः। जम्बू० २४४। वास- अपकारिका। प्रश्न. १५७। वासी वाह-वाहः-वाहयतीति शाकटिकः। सूत्र०७२। व्याधःसुत्रधारशस्त्रविशेषः। जम्बू. १५०| वासी-शस्त्रविशेषः। लुब्धकः। प्रश्न. १४| व्याधः-लुब्धकः। व्यव० २८५। अ। आव०८३१| वाहः-अष्टाशताढकनिष्पन्नमाणः। अन्यो० १५१| वासीचंदणकप्प- छेदविलेपनसमविचारः। (मरण०|) वाहए- वाहकः अश्वन्दमः। उत्त०६२। वासीचन्दकल्पः-उपकार्यपकारिणोर्मध्यस्थः। आव. वाहडा-घ्राता। बृह० ७९ अ। ७९९। वास्यां चन्दनकल्पो यः स तथा। ज्ञाता०१०४। वाहणं-णावण्णतरणप्पगारेण नयणं वाहणं भण्णति। वासीचन्दनकल्पः-अनेन समत्वमेव विशेषत आह-वासी निशी० ६३। वाहनं-शकटादि। प्रश्न० ८। वाहनंचन्दनशब्दाभ्यां वच तद्व्यापारकपुरुषावुपलक्षितों, शकटादया-कर्षकर्षणम्। प्रश्न. ३८ वाहनं-यानपात्रम्। ततश्च यदि किलैको, वास्या तक्ष्णीति अन्यश्च प्रश्न. ९२ वाहनं-वेगसरादिकम। औप० २७। वाहनंगोशीर्षादिना चन्दने-नालिम्पति तथापि गजादि। औप० ५४। वाहनं-गवादि। औप०६०। वाहनंरागद्वेषाभावतो द्वयोरपि तुल्यः। उत्त०४६५। शिबिकादिः। जम्बू० ३९७। प्रवहणम्। आव० ३०४। वासीमुखा- वासीकारमुखा। उत्त०६९५ वाहनम्। आव० ३५४। वाहनं-वेगसरादि। स्था० १७३। वासुदेवो- वासुदेवः-द्वारिकायाः राजा। आव. २७२। यानपात्रम्। उपा०४। वाहनं-गिल्लिथिल्यादिरूपम् वासुदेवः-पूर्वभवे राजललितजीवः। आव० ३५८१ गजाश्वादि। उत्त० ४३८ वाहनं-अश्वादि। भग० १३५, वासुदेवः-वैनयिकीबुद्धिमान्। आव० ४२४। वासुदेवः- ११३ कृतिकर्मदृष्टान्ते कृष्णः भावकृतिकर्म। आव० ५१३। वाहणगमण- वाहनगमनं-शकटादयारोहणम्। ज्ञाता० वासुदेवः-यो अश्वापहृतः। उत्त० ११८ वैनयकीबुद्धौ १९१| दृष्टान्तः। नन्दी० १६१। दुष्टामधिकृत्य कामकथावर्णने | वाहन-यानम्। नन्दी० १५४१ रुक्मिणीपतिः। दशवै० ११०। भग० ३९। आगामीचतु- वाहमोक्ख- अश्रुविमोचनम्। ज्ञाता० २४० र्दशतीर्थकृन्नाम। सम०१५४| वासदेवः-सप्तरत्नाधिपः | वाहय- व्याहतं-यत्र पूर्वेण परं विहन्यते। अनुयो० २६५ अर्धभरतप्रभुः। आव० ४८॥ त्रिखण्डस्वामी। ज्ञाता० २० | व्याहतं यत्र पूर्वेण परं विहन्यते तत्, सूत्रदोषविशेषः। बलदेवानुजः-प्रव्रज्यां न निवारयामीत्यभिग्रहग्राहकः। आव० ३७४। पिण्ड० ९९। वाहयति- सुखशीलतयाssरोहति। उत्त०४३६) वासुदेवघर- वासुदेवग्रहम्। आव० २०५, २०९। वाहरइ-व्याहरति। आव० २११ वासुदेवता- ऋद्धिविशेषः। स्था० ३३२ वाहरह- व्याहर-कथय। ओघ० १०६| वासुदेवा- ऋद्धिप्राप्तार्या। प्रज्ञा० ५५) वाहा- वंसवरत्तारोहगा। निशी० ४३ आ। व्याधाः मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [192] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] १८० लुब्धकाः। व्यव० २३१ आ। विंझगिरि- विन्ध्यगिरिः। भग० १७११ यत्र वाहाड- प्रभूतम्। बृह० ७५अ। बिभेलकसन्निवेशः। भग०६८८,६०४| वाहाडा- वाहाडिता-न्यूनभाजनाः। बृह. १८ अ। विंटट्ठाई- वृन्तस्थायी। आव० १२२ वाहाडिया- गर्भिणी। बृह० २०८ अ। विंटलिया- कार्मणादीनि। गच्छा वाहिंत- व्याहृतः-शब्दितः। उत्त०५५ विटिया- विण्टिका। ओघ० ११८ विण्टिका। उत्त० ८७। वाहि- व्याधिः-स्थिरकृष्ठादिः। भग० ३०६। विशिष्टा वित- वृन्तं-अधोभागवतिः। जम्बू. ३९० आधिर्यस्मात् स व्याधिः-स्थिररोगः कष्ठादिः। ज्ञाता० विंद्ध- णातो। निशी. ९९ अ। विंधति- विन्ध्यति। आव. २१७। वाहिअ-व्याधिमान्-अत्यन्तमशक्तः। दशवै. २०५। विंधेज्जा- विन्ध्येत्-ताडयेत्। आचा० १५ वाहिओ-अप्रसूता धेनवः। बृह. ३१७ अ। वाहितः- विंशतिः- आव० ११८१ विप्रलब्धः। उत्त०४६८० विहणिज्ज- बृहणीयम्। औप०६५ वाहिग्घत्थ-व्याधिग्रस्तः। भक्त०। वि- कुत्सायाम्। ओघ. १८ विंट-विष्टा। प्रश्न. १०५ वाहिज्जंतु-व्याह्रियताम्। आव० ९९। विअंति- व्यन्तिः-अन्तिक्रिया। आचा० २७९। वाहिम- वाह्यः-सामान्येन रथयोग्यः। दशवै० २१७। | विअंतिकारए- विशेषेणान्तिय॑न्तिः-अन्तिक्रिया तस्याः वाहिम- व्याधितः। ज्ञाता० १७८१ व्याधितो रोगी। स्था० कारको व्यन्तिकारकः। आचा. २७९। व्यन्तिकारकः१६४। वाधितः-हतः। ज्ञाता० १६६। वाहितः-आहूतः। कर्मक्षयविधायी। आचा० २८२। जीवा.१६६॥ विअक्का-वितर्का। दशवै.५० वाहियकुल- वाहिककुलम्। आव०६७७ विअड- विकट-शुद्धोदकम्। दशवै. १८५। विकृतं-प्रासुकोवाहियालि-वाह्याली। आव० ३६१| दकम्। दशवै. २०६। वाहिरित्त- व्याहृतः। आव० ३१०| विअडा-विकटा-विशाला। जम्बू०१११| वाही- व्याधिः-कुष्ठादिः। प्रश्न. १६| व्याधिः-कुष्ठादिः। | विअडावई-विकटापाति। जम्बू. ३०२, ३०५१ प्रश्न० १६। विशिष्टा वा आधिः-मनःपीडा। प्रश्न० २५१ | विअणुसय- अनुशयवर्जितः। गच्छा०। व्याधिः-चिरस्थाता कुष्ठादिः। प्रश्नव ११७ व्याधिः- | विअत्त- व्यक्तः-द्रव्यभाववृद्धः। दशवै० १९५१ विशिष्टचित्तपीडा चिरस्थायी गदो वा। प्रश्न. १६२ विअरग- विदरकं-गा। जम्ब० ३९१] व्याधिः-चिरस्थायी कुष्ठादिरूपः। विपा० ७६। व्याधिः। | विअल-विजलं-सकर्दमम्। व्यव० ४७ आ। जीवा० २७६। व्याधिः। दशवै. २३४ व्याधिः-अतीव विआ- व्यक्ता-अलल्ल। दशवै. २३५ बाधाहेतुः कुष्ठादिः। उत्त०४५४। विआलए- विकालकः। जम्ब० ५३४। वाहीक- भारवहः। उत्त० ५८१| विआह- व्याख्या, विवाहः, विवाधः विविधा-जीवाजीवादिवाहेसिअ-आहितवान्, व्यसितवान्। उत्त० ३८० प्रचुरतरपदार्थविषयाः आ-अभिविधिना वाय- व्याहृतम्। औप०७७ कथञ्चिन्निखिलज्ञेय व्याप्ता मर्यादया वाविंचयकटए- वृश्चिककपण्टकः-वृश्चिकदंशः। जीवा. परस्पराकीर्णलक्षणाभिधानरूपया ख्यानं प्रश्नितपदार्थप्रतिपादनं, विविधतया विशेषेण वा विंछुया- चतुरिन्द्रियविशेषः। प्रज्ञा० ४२॥ आख्यायन्ते व्याख्या-अभिलाप्यपदार्थवृत्तिः, विंझ- विन्ध्यः -गच्छप्रधानः श्रावक। आव. ३०८। अर्थकथनं वा विवाहः-विविधः अर्थप्रवाहः नयप्रवाहः, विन्ध्यः -अष्टमे कर्मप्रवादपर्वे कर्मप्ररूपणम्। आव. विशिष्टवाहः-सन्तानो वा प्रमाणाबधितः। व्याख्या३२१। विन्ध्यः -पर्वतविशेषः। आव० ३४८ विन्ध्यः । अभिलाप्यपदार्थवृत्तिः। व्याख्या-अर्थकथनम्। उत्त० १७४१ व्याख्या-अर्थप्रतिपादनम्। भग. २ विवाहः-विशिष्ट اواهم मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [193] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] सन्तानः- भग० २ विविधः । भग० २ विआहपन्नत्ति व्याख्याप्रज्ञप्तिः - विविधा जीवाजीवादिप्रचुरतरपदार्थविषयाः आ अभिविधिना कथञ्चिन्निखिलज्ञेयव्याप्तया मर्यादया वा ख्यानानि - प्रश्नितपदार्थप्रतिपादनानि व्याख्या स्ताः प्रज्ञाप्यन्तेप्ररूप्यन्ते भगवता सुधर्मास्वामिना जम्बूनामानमभियस्यां सा । भग० २। व्याख्याप्रज्ञप्तिःव्याख्याप्रज्ञप्तिर्वा, व्याख्यानां अर्थप्रतिपादनानां प्रकृष्टा प्रज्ञाप्तयः- ज्ञानानि यस्यां सा । भग० २ व्याख्याप्रज्ञप्तिः व्याख्याप्रज्ञातिर्वा व्याख्याया अर्थकथनस्य प्रज्ञायाश्च तद्धेतु-भूतबोधस्य व्याख्यासु वा प्रज्ञाया आप्तिः प्राप्तिः आत्तिर्वा आदानं यस्याः सकाशादसों व्याख्याप्रज्ञाप्ति व्याख्या प्रज्ञातिर्वा । भग० २। व्याख्याप्रज्ञाप्तिः व्याख्या-प्रज्ञात्तिर्वा, व्याख्याप्रज्ञात् भगवतः सकाशादाप्तिरात्तिर्वागणधरस्य यस्याः सा भगः स विवाहप्रज्ञप्तिः- विविधा अर्थप्रवाहाः प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्ते प्रतिबोध्यन्ते यस्यां सा। भग० २। विवाहप्रज्ञाप्तिः-विवाहाः विशिष्टसन्तानाः प्रज्ञाः आप्यन्ते यस्याः सा । भग० २ विवाहप्रज्ञाप्तिः विवाधाः प्रमाणाऽबाधिताः प्रज्ञाः आप्यन्ते यस्याः सा । भग० २ विइंतेति विकृतन्तति छिनत्ती जाता० १८७ विइगिच्छा - विद्वज्जुगुप्सा-विद्वांसः साधवो विदितसंसा-रस्वभावाः परित्यक्तसमस्तमङ्गास्तेषां जुगुप्सा - निन्दा | आचा० २२१| विइण्ण- अनुज्ञातः । व्यव० २५७। विइण्णवियार- वितीर्णो-राजाऽनुज्ञातो विचार अवकाशः यस्य विश्वसनीयत्वात् असौ वितीर्णविचारः सर्वकार्यादिष्विति प्रकृतम् । ज्ञाता० ९२ ॥ विइन्न विकीर्ण व्याप्तम्। भग० ३७॥ आगम-सागर- कोषः ( भाग : - ४ ) विइय - विदितः प्रतीतः । उत्त० ५०८ । विरंजति- विविधं व्यापारयति । आव० २८६ | विउ- विद्वान्-संयमकरणैकनिपुणः । सूत्र० ४९ । विद्वान्सद्विद्योपेतः। सूत्र० २९८ । अनन्तकृद्द तृतीयवर्गस्य चतुर्थमध्ययनम् । अन्त० ३। विद्वान्गीतार्थः । प्रश्नव १५८ | विउकम्म- व्युत्क्रम्य-विशेषेणोल्लङ्घ्य। उत्तः २४७ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] विउक्कंति- व्युत्क्रान्ति-उत्पत्तिः। भग॰ ८६। व्यवक्रान्तिः- मरणम् । भग० ८६ । विउक्कमइ व्युत्क्रामति- उत्पद्यते । जीवा० ३०६ | विउक्कमति च्यवते । स्था० १२२ व्युत्क्रमतिविनश्यति । भग० १४२॥ व्युत्क्रामते गर्भतयोत्पद्यते । प्रज्ञा० २२८ व्युत्क्रामति- उत्पद्यते। जीवा० ११०। व्यवक्रामति- विनश्यति। स्था० १२२॥ विउक्कस- व्युत्कर्षयेयुः श्लाघां कुर्वते । आचा० २५२ विउक्कस्स विविधमुत्कर्षो- गर्वः व्युत्कर्षः मानः । सूब ३४| विउज्झाएमाण- व्युद्भ्राजमानः- शोभमानः । विजृम्भमाणो वा व्युद्भ्राजयन् वा। भग० १७५। विहण सल्लुधरणम् ओघ० २२५ विउति व्यावर्तयति व्यपरोपयति विकुदृति वा छिन्दति वा आचा० ४८ वर्त्तते समुत्पद्यते। सूत्र० ३५४| विट्टाहि - वित्रोटनं- अनुबन्धच्छेदनम् । ज्ञाता० २०६। विउट्टित्तए व्यतिवर्त्तयितुं वित्रोटयितुं विकुयितुं वा अचिरानुबन्ध विच्छेदयितुम् । स्था० १७ विउज्जा वित्रोटनं तदध्यवसायविच्छेदनम्। स्था. १३७ | विउट्ठ- विवृतं प्रसारितम् । जम्बू० २९१। विउडित व्युत्थितः परतीर्थको गृहस्थो वा । मिथ्यादृष्टिः। संयमाभ्रष्टो वा । सूत्र० २४५ । विउत्थाणं- उद्दुमरं । निशी० १९४ आ । विउरुव्विऊण-विकृत्य । उत्त० ३१८। विल- पुष्कलम्। भग० १२७| शरीरव्यापलम्। भग २३१] विपुलं - सिद्धगमनतीर्थम् अनुत्त० १। विपुलम्। अनुत्त० ७ विपुलं विपुलकालवेयम्। प्रश्न. १५६| विपुलं प्रचुरम् । भग. १३५। विपुलं विपुलाभिधानम् । भग० १२७ । विपुलं विस्तीर्णम्। भग० १२५ रोगविशेषः । भग ४८४ विस्तीर्ण ज्ञाता० ७४ निर० २० विपुलंबहु । स्था० ४२१ | विउलट्टाण- विपुलस्थानं संयमस्थानम् । दशवै० १९५| विलमई- विपुलमति मनोविशेग्राहिमनः पर्यायज्ञानी । प्रश्न १०५ विशेषग्राहिणी मतिः विपुलमतिः । नन्दी० १०८ विपुला मनः पर्यायज्ञानम् ऑफ २८१ [194] *आगम - सागर- कोष" (४) Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] विशेषग्राहिमतिमान्। नन्दी. १०८१ योगसंग्रहे पञ्चविंशतितमो योगः। आव०६६४। विउलमति- विपुला-विशेषग्राहिणी मतिः विपुलमतिः। | विउस्सग्गारिह-दशधा प्रायश्चित्ते पञ्चमम्। भग. स्था० ५०१ ९२० विउला- विपुला बहुदिनत्वात्। स्था० २४७। विपुला शरीर- | विउस्सति- विदवस्यते विदवानिवाचरति। सूत्र. ३७। व्यापकत्वात्। ज्ञाता०६४। विपुला-विशेषग्राहिणी विउस्सिय- विविध-अनेकप्रकारं उत् प्राबल्येन श्रितःमतिः। नन्दी. १०८ विपुला-सर्वशरीरावयव-व्यापिनी। सम्बद्धः। व्यसितो वा। संसारे वा उसितः प्रश्न. १७ विपुला-विस्तारवती संसारान्तर्वर्तीति। सूत्र० ३७ एकपदेनानेकपदानुसारिणी। मतिः आव० ४१४। विपुला- | | विउहित्ताण- व्यूह्य-प्रेर्य। दशवै० १६७। विशेषग्राहिणी। स्था. ५०१ विओ- विंदो विद्वांसः। बृह० ४२ अ। विउल्लेति- व्याकुलयति। उत्त० १४८ विओगपणिहाण-वियोगप्रणिधानं-वियोग विउवाय- व्यतिपातः-प्राणव्यपरोपणम्। सूत्र० ३६४। दृढाध्यवसायः। आव० ५८५ विउव्व- विकुर्व-इत्ययं धातुः सामायिकोऽस्ति विओसवित्तए- वितोषयितुं-उपशमयितुम्। व्यव० २२॥ विकुर्वणेत्यादि -प्रयोगदर्शनात्। भग० १५५। विओसियं- विविधमवसितं पर्यसितमुपशान्तम्। सूत्र० विउव्वण- विकुर्वणं-मंडनम्। बृह. ७३ आ। २३४१ विउव्वणय- विक्रिया नानारुपा। भग०६०४१ विकंथइज्जा-विकत्थयेत्-अत्यन्तं चमढयेत्। सूत्र. २५० विउव्वा- गुच्छाविशेषः। प्रज्ञा० ३३। विकंपई- विकम्प्य-विमुच्य। सूर्य ८४ विउव्वि- विक्रियामापन्नः। ओघ० १२१। विकंपण-विकम्पनंविउव्विय- विविध-विशिष्टं वा कुर्वन्ति तदिति स्वस्वमण्डलादबहिरवष्कणमभ्यन्तरप्रवेशनं वा। सूर्य वैकुर्विकम्। स्था० २९५ ३३ विउव्विया- वैक्रिया-उद्भतरूपा। आव. ९२ निशी. ८० विकट-विकृतं-प्राश्कीकृतम्। बृह. १७२ अ। व्यव० १९६ आ। विउसग्ग- अभ्यन्तरप्रायश्चित्ते षष्ठो भेदः। भग. ९२२१ | विकटति- विकर्षयति। आव०७०३। व्युत्सर्गो-निस्सङ्गतया देहोपधित्यागः। भग० ९२६। | विकटापातो- वर्तुलविजयार्द्धपर्वतः। प्रश्न. ९६। विउसग्गपडिमा- व्यत्सर्गप्रतिमा-कार्योत्सर्गकरणम्। | विकदु-विशेषण कटुकं विकटुकं औषधम्। बृह० १६८। स्था०६५ | विकटुभ- परिमन्थः-अनाचीर्णम्। बृह० १६४ ।। विउसग्गारिह- व्युत्सर्गार्हः-कायोत्सर्गः। औप० ४२॥ शालनकम्। बृह. १६५आ। वीडको सालणं वा। निशी. विउसमण- व्यवशमनं-पुंवेदविकारोपशमः। भग० ५७९। १४४ । विउसमणय- व्यवशमनता-परस्मिन् क्रोद्धान्निवतयति | विकड्ढणा- बाह्वो गृहीत्वाऽऽकर्षणम्। बृह. ११३| सति क्रोधोज्झनम्। भग०७२७। विकत्ता- विकरिता-विक्षेपकः। उत्त० ४७७। विउसवित्ता- अवशमय्य। बृह द्वि ६७ अ। विकत्थइ- विकत्थते-श्लाघीकरोति। दशवै० ३५३। विउस्सगपडिमा- व्यत्सर्गप्रतिमा-कायोत्सर्गकरणम्। विकत्थणा- विकत्थना-प्रशंसा। पिण्ड०५० औप. ३२ विकत्थन-परपीरवादः। स्था. २६) विउस्सग्ग- कायोत्सर्गः। स्था० १९५। व्युत्सर्गः। स्था० विकत्था-श्लाघा। दशवै० १३९। २००। व्यत्सर्गः-निःसङ्गतया देहोपधित्यागः। औप. | विकद-असंगप्तद्वारम्। व्यव० ४२० । ४५कायादीनां व्युत्सर्गः। अभिष्वङ्गता। भग० १०० विकप्प-विकल्पः-सस्यनिष्पत्तिः। व्युत्सर्गः-निःसङ्गतया देहोपधित्यगः। स्था० १९२ वप्रकूपादिदेवकुलभव-नादिविशेषः। स्था० २१०| व्यत्सर्गः-द्रव्य-भावभेदभिन्नो विविध उत्सर्गः, विकल्पः-प्रासादभेदः। प्रश्न० ८थेरकप्पिया जति । मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [195] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] बृह० ३१॥ तिण्णि अत्थुरंति णिक्कारणतो वा तणभोगं करेंति तो। | विकुस- विकुशः-बल्वजादयस्तृणविशेषः। जम्बू० ९८१ निशी. १६१ आ। यानि पुनस्त्रि-प्रभृतीनि संसारके | विकुशः-बल्व(ल)जादिकः। औप०९। विक्शः बल्वजादिः प्रस्तारयति एस विकल्पः, यच्च अकारणे तृणविशेषः। भग. २७८। जीवा० १४५ कारणमन्तरेण तृणाभांभोग क्रियते एषोऽपि विकल्पः, | विकूड-विकूटयेद्-प्रतिहन्यात्। विशे० ४३९। यत्पुनः कार्ये झुषिराणि अझुषिराणि वा गृह्णाति एष विकृतत्वक्-स्फूटितच्छविः। प्रश्न०४१। भवति विकल्पः। व्यव० २८७ अ। विकृतपिशाच- वेतालः। प्रश्न. ५२। विकप्पणा- कल्पना-विकल्पाः क्लृप्तिभेदाः। ज्ञाता० विकोए-विकोचः। भग०२३६। २१८ विशेषेण छेदनं विकल्पना। उत्त०६३८। विकोपण- विकोपनं-प्रकोपनं झटिति तत्तदर्थव्यापकतया विकप्पखित्तकट्ठा- विकम्पक्षेत्रकाष्ठा। सूर्य. १४० प्रसरीभवम्। पिण्ड० २७ विकोपनं-विपाकः। स्था० ४४७ विकया- विकृता-कृतव्रणा। जम्बू. १७०| विकोविद- जो वा भणिओ अज्जो जइ भज्जो रसेविहिसि विकरण- कलकस्य पार्श्वतः स्थापनं। ऊर्दध्वकरणं वा । तो ते छेदं मूलं वा दाहामो, एसी विकोविदो भण्णति। तृणेषु सहरणं एकत्रमीलन कम्बिकासु बन्धनछोटनम्। निशी० १२१ । विकोसंत-विक्रोशन-परानाक्रोशन विगतकोशान्तो वा। विकरणकरण- विक्षेपणकरणम्। ज्ञाता० १५२ विकरणं प्रश्न०८० करित-अणेगखडकरेत्ता। निशी. १४९ अ। विकोसियधारासि-विकोशितस्य-अपवीतकोशकस्य विकराल-भयानकः। उत्त० ३५८१ निराव-णस्य धारः-धाराप्रधानखड्गः। ज्ञाता० १३३| विकल-विकलं-असम्पूर्णम्। भग० ३०८। विक्कंतजोणि- व्युत्क्रान्ता-अपगता योनिः स्वयमेव यः विकहा- विरुद्धा-संयमबाधकत्वे कथा-वचनपद्धतिः पृथिवीकायो वा। ओघ० १३०| विकथा। स्था० २१० विकथा-विरुपाकथा, अथवा विक्कंति-विक्रन्तिं-विक्रमं कान्ति-प्रभाम्। ज्ञाता० २१११ स्त्रीभक्तचौर-जनपदकथा। ओघ. ५५ विक्क-वृकः। जीवा० २८२। कहाविवक्खभूता विकहा। निशी. १ आ। विकथा विक्कम-विक्रमः-चङ्क्रमणम्। जम्बू०११० विक्रमः। परिवादरूपा। प्रश्न १२० विरुद्धा विनष्टा वा कथा जीवा० १३७ विक्रमः-पराक्रमः। जीवा० २७०। विक्रमविकथा। आव० ५८१ विकथा-स्त्रीकथा पादविक्षेपः। जम्बू. ५२९। विक्रमः-चङ्क्रमणम्। प्रश्न. भक्तकथेत्यादिका। दशवै० ११४| विकथा-अनाराधना ७७ विक्रम-पुरुषकारविशेषः। प्रश्न. ४९। विक्रमःवाग्वृत्तिः । बृह० ४० । सञ्चरणम्। सम. १५८ विक्रमः-विशिष्ट क्रमणंविकहाणुओग- विकथानुयोगो-अर्थकामोपायप्रतिपादनपर क्षेत्रलङ्घनम्। भग०४८० कामन्दकवात्स्यायनादि। सम०४९। विक्कय- विक्रियः। आचा० ३२१ विकिंचणयाए- विवेचना निर्जरा। स्था० ४४१। विक्कवाय- विक्लवता-तच्छोकातिरेकेणाहारादिष्वपि विकिंचणिया- पारिष्ठापनिकी। आव० ८५३। निरपेक्षता, असम्प्राप्तकामभेदः। दशवै० १९४। विकिण्ण- विकीर्णः-व्याप्तः। जीवा० २२७१ विक्खंभ- विष्कम्भः-विस्तरः। भग० ११९। विष्कम्भः। विकिरिज्जमाण- इतस्ततो विप्रकीर्यमाणः। जम्बू. ३६।। अनयो० १८० विष्कम्भः-विस्तरः। प्रज्ञा०४९१| विकुज्जिय-विकुजानि कृत्वा। आचा० ३८१। विष्कम्भः-विस्तारः। स्था०६९। विष्कम्भः-द्वारशाविकुरुड- कुणालायां स्थितः द्वितीयो मुनिः। उत्त० २०४। खयोरन्तरं। स्था० २२७। विष्कम्भम्। नन्दी० ९१। विकुर्व- सिद्धान्तप्रसिद्धो धातुः। सूर्य. २६७। विकुर्व- विष्कम्भः-विस्तरः। स्था०४५०| विष्कम्भः-पृथत्वम्। विक्रिया। जीवा० ११९ स्था० ४७९। विष्कम्भः- पृथत्वम्। स्था०६८1 विष्कम्भोविकुर्वितं- वेण्टकाद्याभरणेवालङ्कृतम्। बृह. १७५अ। विस्तारः। सम० ११४। विष्कम्भो-विस्तारः। जम्बू. २७। विकुव्वणा- विकुर्वणा-भूषाकरणम्। स्था० १०४। विष्कम्भः-विस्तारः शरापरपर्यायः। जम्बू. ६७ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [196] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] व्यासः। जम्बू. १९। विष्कम्भः-विस्तारः। प्रज्ञा० ४८५ | विक्षेप- तस्यैवाभिधेयार्थ प्रत्यनासक्ता। सम० ६४१ विष्कम्भः-बाहल्यम्। सूर्य विष्कम्भः-विस्तारः। विखुड्डती- क्रीडति। आव०७१० जीवा० ४०| विष्कम्भः-उदरादिविस्तारः। प्रज्ञा० ४२७५ विगंचण- विकिंचणं-त्यागः। ओघ० १४२ विष्कम्भं-प्रमाणाङ्गुलप्रमेयः। अनुयो० १७१। विग- वृकम्। आचा० ३३८। वृकः-ईहामृगः नाखरविशेषः। विष्कम्भः-आक्रमणम्। बृह. २५७ आ। प्रश्न. ७ वृकः-नाखरविशेषः। प्रश्न ५३। वृकःविक्खंभइत्ता- विष्कम्भ्य। आव. २२२१ इहामृगः। जम्बू० १२४। वृकः-ईहामृगः। प्रश्न. १६२१ विक्खंभओ- विकम्भतः-विस्तारमधिकृत्य। प्रज्ञा० २७५) । | विगइ- विकृतिमं। दशवै० २८। विकृतिः-विकारः। भग. विक्खंभवुड्ढी- विष्कम्भवृद्धिः। सूर्य. ३८५ विक्खणं-विसूरणं-निशी० १२२ आ। विगइगय-विकृतिगतम्। दशवै० २८१ विक्खत्तं- | निशी. १८२।। विगइपडिवद्ध- विकृतिप्रतिबद्धो अनुपधानकारी। बृह. विक्खय-विकृतं-कृतव्रणम्। भग० ३०८ १०४ आ। विक्खरिज्जमाणं- विकीर्यमाणं-इतस्ततो विगइसहावा- विकृतस्वभावा। दशवै. २८१ विप्रकीर्यमाणम्। जीवा. १९२॥ विगई-विकृतिः। आव० ८५२ विक्खिणं-1 ओघ० १६६। विगईगओ-विगतिगतः-विगतिजातः। आव. ५३८1 विकिखत्त-धर्मकथनादिना वा व्याक्षिप्तः। ओघ० १७६] | विगईविवज्जियाहार- विगतिभिर्वर्जित आहारो यस्य सः। विकीर्ण गोखुरक्षुण्णतया विक्षिप्तं धान्यम्। स्था० २७७ | आव० ५३८1 विक्षिप्तम्। आव. २६ विगड- मृतः, देहः। जीवा० १०६। विकटं स्थूरम्। व्यव० विक्खित्ता- विक्षिप्ता-विक्षेपणम्। उत्त. १४१ १६७ आ। विक्षिप्ता। ओघ०१०९। विगडणा- आलोयणाणुपुव्वी। निशी० १३५आ। विक्खिन्न- विकीर्ण-प्रसारितम्। भग०६३१| विगत- विकृतः-उत्कलृप्तः-पृथक्कृतः। प्रश्न० २१| विक्खिरिज्जइ-विकीर्यते। आव० ६३५१ विगतमीसता- सत्यामृषायां द्वितीयो भेदः। स्था० ४९० विक्खिरेज्ज-विकीरेत्-प्रसारयेत्। भग० ६३१। विगतचरस-विरसं-पुराणधान्यौदनादि। स्था० २९८। विक्खिरेज्जा- विकिरेन-इतस्ततो विक्षिपेत्। उपा०४२। विगति-विकृतिः-विकारः। बृह. २१६ आ। विखुण- अक्षाणकः। निशी. १२२ अ। विगतिकय- वाति विगतीए कंतं। निशी. १९९ अ। विक्खेव- विक्षेपः-अप्रयत्नेन रचितो इत्यादि विगतिगत-विगती वा जंमि दव्वे गता तं। निशी. ३४२ सपादश्लोकच-तुष्टयोक्तलक्षणः। प्रश्न. १४० विक्षेपः- | अ। अधर्मदवारस्येकविंशतितमं नामः। प्रश्न. ४३ विगती- विगारो। निशी० २१२ अ। खीरातियं बीभच्छा विक्षेपः-यत्र वस्त्रस्यान्यत्र क्षेपणं वस्त्राञ्चलानां वा विकृता वा गती, विविधा गती संसारे, असंजमो। निशी यत्रो क्षेपणम्। ओघ० ११० ३४२ । विक्खेवणि- विक्षेपणी-विक्षिप्यतेऽनया सन्मार्गात् कुमार्गे | विगत्तग- विकतकः-प्राणीनामजिनापनेता। सूत्र० ३२९। कमार्गाद्वा सन्मार्गे श्रोतेति विक्षेपणी, धर्मकथाया विगत्ता- विकर्ता-विकतयिता। भग०७७७। द्वितीयो भेदः। दशवै. ११० विगदूमिय- वृकैः-शृगालैर्वा ईषद् भक्षितम्। आचा० ३४९। विक्खेवणी- विक्षिप्यते-कुमार्गविमुखो विधीयते श्रोता या | विगद्धया- ध्वजा। जीवा० २१५१ कथया सा विक्षेपणी। औप०४६। विक्षिप्यते-सन्मार्गात् । विगप्प- विकल्पः-देश-विकल्पः, देशसम्बन्धी कुमार्गे कुमार्गादवा सन्मार्गे श्रोताऽनयेति विक्षेपणी। शस्यनिष्प-त्त्यादिविचारः, देशकथायाः तृतीयो भेदः। स्था०२१०१ आव० ५८१ विक्रान्तभाट- शूरः। दशवै. २३८1 विगम- विगमः-विनाशः। आव. २८२ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [197] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] विगय-विगमः-वस्तुनोऽवस्यान्तरापेक्षया विनाशः। भग० | पारदारिकादिः। दशवै०२४८१ १८ विकृतं-बीभत्सम्। भग. ३०८१ विगतं-ओघतश्चेत- | विगहा- विकथाः परविस्मापकविविधोल्लापरूपा। उत्त. नापर्यायादचेतनत्वं प्रप्तः। प्रश्न. १०८ विकृतं ७१० विकथा। आव० १०२ बीभत्सम्। अनुत्त०६। विगतं-प्रनष्टम्। जीवा० १०७ | विगिंच-वेविक्ष्व-पृथक्कुरु त्यज। आचा० १२७ विकृतः। उपा० २०| वृकः-वरूक्षः। ज्ञाता०६५) त्यजापनय पृथक्कुरु। आव० १६० विगिञ्च-वेविग्धि विगयकप्पयनिभ- विकृतो योऽलजारादीनां कल्प एव पृथककुरु। उत्त० १८६) कल्पकः-छेदः खण्डं कर्परमिति तात्पर्य तिन्निभः- विगिचइ-त्यजति। ओघ०५३ तत्स-दृशमिति। उपा०२० विगिंचए- परित्यज्यते। ओघ. १९६| विगयगिद्ध-विगता गृद्धिर्विषयेष् यस्य सः विगतगृद्धिः- विगिंचण-विगिञ्चनं-परित्यागः। ओघ० ४८१ आशंसादोषरहितः। सूत्र. ११५ परिष्ठापनम्। ओघ. १९५१ परिष्ठापनम्। बृह. ९४ आ। विगयजीवकलेवर- समुच्छन्नमनुष्योत्त्पत्तिस्थानम्। त्यागः। आव०६२८१ प्रज्ञा०५० विगिंचणया- विवेचनिका-परिष्ठापनिका। बह ८० अ। विगयधूम- विगतधूम-द्वेषरहितम्। प्रश्न. ११२॥ विगिचणा- विवेकः। आव०६४१। विगयभया- विगतभया अज्ञातोदाहरणे विगिचतु- विवेचयतु। आव० ८५७) विनयमतिमहत्तरिका-शिष्या। आव०६९९) विगिंचन-सर्वपरिष्ठापनं परिष्ठापनस्पर्शनधावनानां विगयभुग्गभुमय- विकृते-विकारवत्यौ भुग्रे-भग्ने सकृत्करणं वा। बृह. १८३। इत्यर्थः। ज्ञाता०१३३|| विगिंचमाण-विवेचयन्-सर्वं परिष्ठापयत्। स्था० ३२९। विगयमिस्सिया- कस्मिंश्चिद ग्रामादिकं ऊनेष्वधिकेषु वा | विगिंचिअव्व- विकिञ्चितव्यं-परित्याज्यम्। दशवै०३९। मृतेषु मनुष्येषु दशमृता अस्मिन्नयेत्यादिकथन विगिंचिउं-परिष्ठापनार्थम्। ओघ० १९७ विगतमिश्रिता। प्रज्ञा० २५६| विगिंचिउणं-परिष्ठाप्य। पिण्ड० ९५१ विगयमोह- विगतमोहः-विगतवैचित्यः। उत्त०४८११ विगिंचिज्जइ-त्यज्यते। आव०६४० वियगविसया- विगतविषया-सत्यामषाभाषाभेदः। दशवै. | विगिंचिय-परित्यक्तः। व्यव० २१० अ। २०९। विगिंचेज्जा- विभागेन विभजेत-निरूपयेत्। ओघ. १६९। विगयसत्थ-विगतस्वास्थ्यम्। ज्ञाता० १६६) विगिट्ठ- अष्टवर्षपर्यायः। व्यव. २४० विंशतिवर्षाणि। विगरण- विकरणं-खण्डशः कृत्वा परिष्ठापनम्। बृह. | व्यव० २४१। पञ्चानां वर्षाणामपरिपर्यायः विकृष्टः। १५० आ। व्यव० ४५४ अ। विकृष्टम्। ओघ०८८1 विगरणरूव-विकरणरूपः-लिंगविवेकः। बृह. ९० अ। विगिहतव- विकृष्टतपः-यदष्टमादारभ्य जायते तत्। विगल-विकलः-निरुद्धेन्द्रियवृत्तिः। प्रश्न०४९। ओघ. १९११ विगलणा-आलोयणा। निशी. २२ अ। विगिट्ठा- विकृष्ठा-नगर्या दूर्वतिनी बहिर्वत्तिनी। राज. विगलिंदिए- एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियाणि येषां ते विकलेन्द्रियाः- एकदवित्रिचतरेन्द्रियाः। व्यव. ५आ। विगिन्न- विकीर्णः-व्याप्तम्। प्रज्ञा० ८७ विगलिंदियता- विकलानि रोगादिभिरुपहतानीन्द्रियाणि | वितीतगोत्र- अनगारः। सूर्य ४। येषां तद्भावो विकलेन्द्रियता। उत्त०३३७। हत्थपायाइहिं | विगत्ता- निर्लज्जः। निशी० ११०आ। छिण्णा उद्विय ण णयणाय। दशवै. १३५ | विगुरुव्विया- विकृर्विता-वस्त्रायलङ्कृता। बृह. ९ आ। विगलिंदिया- विकलेन्द्रिया-अपञ्चेन्द्रिया। स्था० १०७५ | विगुव्वणा- विकर्वणा-वैक्रियकरणम्। स्था० ३५९। विगलि-अरण्यम्। मरण | विगोविओ- विगोपितः-लघुकृतः। आव०७०३। विगलितेंदिअ-विगलितेन्द्रियः-अपनीतनासिकादीन्द्रियः, | विगोवित- विकोविदो-विशेषेण साधूसामाचारीकुशलः। श मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [198] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] बृह. १९४ आ। विचारः। स्था० १९१। विग्गह-विग्रहः-वक्रम। भग० ८५ विग्रहः आकृतिः। भग० | विचरित- इतस्ततः स्वेच्छया प्रवृत्तः। जीवा० १२३॥ १४५१ विग्रहः-शरीरं, आकारः। भग० २४९। विग्रहः-वर्क | विचर्चिका-क्षुद्रकृष्ठम्। आचा० २३५। क्षुद्रकुष्ठम्। प्रश्न. लघु सक्षिप्तम्। भग०६१६। विग्रहः। आव० १०२ ४१। सप्तमं क्षुद्रकुष्ठम्। प्रश्न. १६१। विग्रहः वक्रगमनः। स्था० १७७। विग्रहे-वक्रगतौ च तस्य | विचार-विचारः अवकाशः। राज०११६) सम्भ-वाद् गतिरेव विग्रहः, विशिष्टो वा ग्रहो विचारभूमि-विहारभूमी-पुरीषोत्सर्गभूमिः। व्यव० ९अ। विशिष्टस्थानप्राप्ति-हेतुभूता गतिर्विग्रहः। भग० ९५६। | विचारभूमिः-स्थण्डिलभूमिः। आव०७६५५ विग्रहः-क्रमरिव गन्तव्यक्षेत्रातिक्रमरूपः। जम्बू०४०२। | विचारित- परिभावितः। नन्दी. १५९। विग्गहकंडए-विग्रहो-वक्रं कण्डकं-अवयवो विग्रहरूपं विचाल- अन्तरालः। जम्बू. १८२। विग्र-हक्रण्डकं ब्रह्मलोकप्परः। भग०६१६) विचिंतिय-विचिन्तितं कृतम्। उत्त० ३८४१ विग्गहगइ-विग्रहगतिः वक्रगतिर्यदा विश्रेणि विचिकित्सा- चित्तविप्लतिः। आचा० २२१। विचिकित्साव्यवस्थितमत्प-त्तिस्थानं गन्तव्यं भवति तदा। स्था० शङ्का। आचा० २२३। विचिकित्सा-मिथ्यादुष्कृतम्। ५६। वक्रः तत् प्रधाना गतिः विग्रहगतिः। भग०८५ आव०७६५५ विग्रहगतिः-गतिभेदः। भग० २८७। विचिकित्सित- फलं प्रति शङकोपेतः। स्था० १७६। फलं विग्गहाति- | स्था० ८६। प्रति शङ्कमान्। स्था० २४७ विग्गहिय- वैग्रहिकः शरीरानुरुपः। प्रश्न० ८३ विचित्त- वेणुदालेवितीयो लोकपालः। स्था० १९७५ विग्गहिया- विग्रहिता-मुष्टिग्राह्या। जीवा० २७७। चतुरिन्द्रियजीवविशेषः। उत्त० ६९६। विचित्रः-विचित्रवविग्घ- व्याघ्रः-नाखरविशेषः। प्रश्न.७१ र्णोपेतः। जीवा० २६७ विचित्रः-विचित्रकूटः पर्वतविशेषः। विग्घमडे- व्याघ्रमृतः। जीवा० १०६। प्रश्न. ९६। विचित्रं आलेखः। जीवा० १९९। विचित्रकूटः। विग्घय- वैयाघ्रः-व्याघ्रपत्यम्। प्रश्न. २११ भग० ६५४। उत्सुत्तं पन्नवेंतो वि एस गुज्जमाणं। विग्घिय- बृहितः। बृह० ६५अ। निशी. २५ । नानावर्णः। निशी० २२९ । विदीप्तंविग्रह- विग्रहः। नन्दी. १०४ विग्रहः-शरीरम्। आव. विचित्रम्। उपा०२९। दोहिं तिहिं वासव्वेहिं। निशी. २४०१ २५३ ॥ विघाओ- विघातः गुणानां, अब्रह्मणस्त्रयोदशमं नाम। विचित्तकूड- विचित्रकूटपर्वतः। जम्बू०। प्रश्न०६६। विचित्तणेवत्थ- विचित्रनेपथ्यः। आव० २५८१ विघाटयति- विघाट्य। जीवा० २५४। विचित्तपक्ख- वेणुदेवस्य चतुर्थो लोकपालः। स्था० १९७५ विघरा- विगृहा। आव. २६२१ विचित्तपक्खो-विचित्रपक्षः चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः। विघुटुं- विघष्टं-विरुपघोषकरणम्। प्रश्न०४९। जीवा० ३२। विचित्रपक्षः। चतुरिन्द्रियविशेषः। प्रज्ञा० ४२॥ विघुट्ठपणिज्जणं- विघुष्टानां एते पापाः प्राप्नुवन्ति विचित्रपट्टक-भाजनविधिविशेषः। जीवा. २६६। स्वकृतं पापफलमित्यादि वाग्भिः संशब्दितानां, प्रणयनं | विचित्तमाला- विचित्रमाला-कुसमस्रक्। भग० १३२ व ध्यभ-मिप्रापण विघुष्टप्रणयनम्। प्रश्न. १७ विचित्तवत्थाभरण-विचित्राणि वस्त्राणि आभरणानि च विघ्नाः- राक्षसभेदविशेषः। प्रज्ञा०७० यस्य वस्त्राण्येव वाऽऽभरणानि-भूषणानि विचकिल-माल्ययोगविशेषः। आचा०६११ अवस्थाभरणानि-अव-स्थोचितानीत्यर्थो यस्य स तथा। विचच्ची- विचर्चिका-विपादिका। ब्रह. १०१ आ। स्था०४१८१ विचय- निर्णयः। स्था० ४९११ विचित्तवीणा- वादयविशेषः। ज्ञाता०२२९। विचरण-अर्थाद व्यजने व्यञ्जनादर्थे तथा विचित्ता-विचित्रा-षष्ठी दिक्कुमारी। जम्बू० ३८३ मनःप्रभृतीनां- योगानामन्यतरस्मादन्यतरस्मिन्निति | विचित्रा-विविधा विविक्ता। प्रश्न. १३९। विचित्रा मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [199] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] उर्दध्व-लोकवास्तव्या दिक्कुमारी। आव० १२२ | विच्छुभ- विक्षिप निष्काशय। प्रश्न० २० कप्पडिया। निशी० ४० आ। विच्छ्प- वृश्चिकः-चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः। जीवा० ३२॥ विचित्ताउसण्णकिण्ण-विचित्रा एकान्तसंविग्ना किन्तु | वृश्चिकः-वृश्चिकप्रधाना विद्या। आव० ३१८ अवस-न्तकीर्णोऽवसन्नव्यापूः। व्यव० १९ आ। विच्छुयडक- वृश्चिकडङ्कः-तत्पुच्छकण्टकः। प्रश्न. १६) विचित्रसूत्रता- स्वपरसमयविविधोत्सर्गापवादादिवेदिता। वृश्चिककण्टकः। ज्ञाता० २०४। उत्त० ३९ विच्छ्यलंगलसंठिए- वृश्चिकलाङ्गलसंस्थितंविच्च-मध्यम्। बृह. १४८ अ। औघ०१८२ मूलनक्षत्रसं-स्थानम्। सूर्य. १३०| विच्चामेलणा- (देसीभाषा) मरहट्ठविसये चोटि। निशी. | विच्छुरित-कनकखचिम्। जीवा० २५३। खचितम्। जम्बू. २९४ आ। २७५ विच्चामेलिय- व्यत्यामेडितं-यदस्थानेन पट्टघटनम्। ब्रहः | विच्छेद-विविधप्रकारो वा च्छेदः। निशी० २५६ आ। ४६॥ विजए- नमिनाथपिता। सम० १५१। तृतीयचक्रीपिता। विच्छए- विक्षितः विविध-अनेकप्रकारेण कुटपाशादिना सम० १५२। एकादशमचक्रीपिता। सम० १५२। क्षतः-परवशीकृतः, श्रमं वा ग्राहितः। सूत्र०७२। आगामीन्यामु-त्सर्पिण्यां तीर्थकृत्। सम० १५४। विच्छड्डइत्ता- विच्छर्दयित्वा- भावतः परित्यज्य। राज. बलदेववासुदेवपूर्वाभव-नाम। सम० १५४ विजयः१२१ मृगग्रामनगरे क्षत्रियो राजा। विपा०३५४ विजयःविच्छइडिय- विच्छतिः-त्यक्तः। राज०१४६। शालाऽटव्यां चौरपल्यां चौरसेनापतिः। विपा०५६। विछर्दित्तः-त्यक्तः। जम्बू. २३२। विच्छर्दितं विजयः-जय एव विशिष्टतरः प्रचण्डप्रतिपविविधमुज्झितं बलो-कभोजनत न्थादिविषयः। औप. २४ विजयः-परेषामसहमानानाउच्छिष्टावशेषसम्भवात् विच्छर्दितं वा विविधवि- मभिभवोत्वादः। जीवा. २४३। विजयः-अभ्युदयः। प्रज्ञा. च्छित्तिमत्। भग. १३५ ९९। विजयः-सप्तदशममुहर्तनाम। १४६। विजयःविच्छर्दित- परिशाटितम्। प्रश्न. १५४] समृद्धिः। स्था० ४९१। विजयः-अभ्युदयः। सूर्य २६३। विच्छवि- विच्छविः-विगतच्छायः। जीवा० ११४| जम्बूपू-र्वस्यां द्वारम्। जम्बू० ४७। विजयः-लोकोत्तरीविच्छाणी- वल्लीविशेषः। प्रज्ञा० ३२१ यतृतीयमासनाम। जम्बू. ४९०| विजयः-मुहूर्त्तनाम। विच्छिंदणं- बहुवारं सुदु वा छिंदणं। निशी० १८९ ।। जम्ब०४९। उद्ध्वलोके बादरपढवीकायस्थानम्। प्रज्ञा० विच्छिंदेज्जा-विच्छिन्द्याद्-विविधप्रकारैश्छेदं कुर्याद्। ७१। विजयः-द्वितीयो बलदेवः। आव० १५९| विजयःउपा० ४२१ अनन्त-जिनप्रथमभिक्षादाता। आव०१४७ विजयविच्छिए- वृश्चिकः-चतुरिन्द्रियभेदः। उत्त० ६९६। नमिपिता। आव० १६१। विजयः-जयचक्रिपिता। आव. विच्छित्ति-भक्तिः। जीवा० ३७९। १६२। राजगृहे तस्करः। ज्ञाता०७९| विजयःविच्छनत्ति- विच्छन्नं करोति दरे व्यवस्थापतीत्यर्थः। अभिभवत्पादः। राज०२३। सिंहगफायां चौरसेनापती। स्था० ३०५ ज्ञाता०२३६। विचीय-तेनिीयते। स्था० १९०| विजयःविच्छिन्न-विस्तीर्णं उर्दध्वाधोपेक्षया। आवा० २७१। दवितीयो बलदेवः। सम० ८४ विजयःविच्छिन्नतरा- विष्कम्भतः। भग०६०५ पृथिवीसाधनव्यापारः। सम० ९५। विच्छिन्नसंसारवेयणिज्ज विजओ-विजयः-चन्द्रसूर्ययोगादिविषयो निर्णयः। सूर्य. व्युच्छिन्नचतुर्गतिगमनवेद्यकर्म ९। विजयः-अभ्युदयः। वैजयन्तीनां पार्श्वकर्णिका। व्युच्छिन्नसंसारवेदनीयः। भग० १११॥ जीवा० १७५। विजयः-अभ्युदयः। जीवा० ३७९। विजयःविच्छिप्पमाण- विशेषेण स्पृश्यमानः। भग० ४८३। लवा-लवोदाहरणे आचार्यांशष्यः। आव०७२११ विच्छुओ- वृश्चिकः। आव० ४१७ विजयोस्त्रिंशतो मुहूर्तानां मध्ये मुहूर्तः। ज्ञाता० १३३। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [200] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text]] विजढ- परित्यक्तः। जीवा० ९७। रहितः। व्यव० ९७ । | विजयदेवसूरि- विजयसेनसूरिपट्टयुवराजः। जम्बू० ५४५१ परित्यक्तः। बृह. ४७ अ। परित्यक्तः। ओघ० १०३ | विजयवेदा- मण्डिकमौर्यपुत्रमाता। आव० २७५ विजणा- जनसम्पातरहितः। बृह. २६९।। विजयद्वार- जम्बूद्वीपसम्बन्धिनः पूर्वदिग्व्यवस्थितः विजत- विजयः-समृद्धिः। स्था० ४९१। द्वारः। सम० १६। स्था०७४। विजयंता- वैजयन्ती-अष्टमा रात्री। सूर्य. १४७ विजयपुर-कनकरथराजधानी। विपा० ७५ नगर विजय- अभ्युदयस्तत्संसूचिका वैजयत्न्यभिधाना या वासवदत्त-राजधानी। विपा० ९५ समतेः पताका। वैजयन्तीनां पार्श्वकर्णिका। जीवा० १९५। प्रथमपारणकस्थानम्। आव. १४६| पद्मावतीविजये शास्त्रीयतृतीय-मासनाम। सूर्य. १५३। राजधानी। जम्बू० ३५७। स्था०८० गाथापतिविशेषः। भग०६६२ विजयः विजयमित्त- विजयमित्रः-वणिग्ग्रामे सार्थवाहः। विपा. पोलाशपुराधिपतिः। अन्त०२३। जम्बूद्वीपविजय- ४६। विजयमित्रः-वर्द्धमानपरे नपतिः। विपा. ८८1 द्वाराधिपदेवः। जम्बू० २७३। जम्बूद्विपे प्रथम विजयमित्रः-वणिग्ग्रामे सार्थवाहः। विपा०४१। द्वारम्। सम० ८८ विजयः-अभ्युदयः। जीवा० २०९। । विजयवद्धमाण- विजयवर्द्धमानः-शतद्वारनगरे अभ्युदयः। जम्बू. ५४। विजयो नाम सर्वकार्यप्रसाधको | खेटविशेषः। विपा० ३९। विजयवर्द्धमानः-वर्द्धमानपुरे योगः। जम्बू. २७४। अभ्युदयः। राज०६९। उद्यानम्। विपा० ८८ जम्बूद्वीपस्य प्रथमं दवारम्। स्था० २२५१ विजयवेजइय- अतिशयेन विजयो विजयविजयः अनन्तनाथप्रथमभिक्षादाता। सम० १५११ विचयः- सप्रयोजनं यस्याः सा विजयवैजयिकी। भग० ५४५) निर्णयः। भग० ९२६। विचियते मृग्यते विचयः। सूत्र. विजयवेजयंति- विजयवैजयन्तीः-पताकाविशेषः। सूर्य ३१८चक्रवर्तिविजेतव्यः क्षेत्रखण्डः। ज्ञाता० १२११ २६३ गन्धहास्तिविशेषः। ज्ञाता० १०१। तालो विजयवेजयंती- विजयः-अभ्युदयस्तत्संसूचका द्घाटिन्यवस्वापिन्यादिभिरूपेतः चौरः। व्यव. २४० । वैजयन्त्य-भिधाना या पताकाः, अथवा विजय इति चौरविशेषः। व्यव. २४०| विजयः-चौरः। व्यव. २९४ वैजयन्तीनां पार्श्व-कर्णिका उच्यन्ते तत्प्रधाना आ। वैजयन्त्यो विजयवैजयन्ती पाताका। जीवा० १७१। विजयघोस- विजयघोषः-ब्रह्मगणनिरूपणे विजयवैजयन्ती-विजयः अभ्यद-यस्तसंचूसूचिका जयघोषविप्रभाता। उत्त०४२० वैजयन्त्यभिधाना पताका विजयः-वैज-यन्ती विजया विजयचोर- माकन्दीज्ञातौ चोरः। ज्ञाता० १५९। वैजयन्तीनां पार्श्वकर्णिका पताका एव प्रधाना वैजविजयढक्का- यस्याः शब्दः समस्तनगरव्यापी यन्ती विजयवैजयन्ती। जीवा० ३७९| पताकाः। जम्बू. समस्तष्क-न्धावारव्यापी च स। प्रज्ञा० ३०० १४॥ विजयते- विजयकः-पुण्डरीकिण्यां कोऽपि राजकुमारः। विजयसेनसरि-हीरविजयसूरिपट्टधरः। जम्बू. ५४४१ विपा०९४१ विजया- इङ्गालमहाग्रहस्य प्रथामाऽग्रमहिषी। स्था० विजयदशमी- ज्ञाताधर्मकथाटीकायाः पर्णता दर्शका २०४। अञ्जनकपर्वते पुष्करणी। स्था० २३१| तीथिः। ज्ञाता० २५४। पद्मप्रभोर्दीक्षाशि-बिका। सम० १५१। पञ्चमचक्रीणो विजयदानगुरु- आनन्दविमलसूरिपट्टभूषणः। जम्बू. स्त्रीरत्नम्। सम० १५२। खादयविशेषः। जीवा० २७८। ५४३ उत्तरदिग्भाव्यञ्जनपर्वतस्य पूर्वस्यां पुष्करिणी। विजयदूस- विजयदूष्यं-वितानकरूपं वस्त्रम्। स्था० २३२॥ जीवा० ३६४। वैजयन्तीनां पार्श्वक-र्णिका। जीवा० ३७९। विजयदूष्य-वस्त्रविशेषः। जीवा० २१० विजयदुष्यं अनुत्तरोपपातिके एकभेदः। प्रज्ञा०६९। वैजयन्तीनां विता-नकरूपां वस्त्रविशेषः। जम्ब०५५। विजयदुष्यं- पार्श्वकर्णिका। जम्बू. ५४। वप्रविजये राज-धानी। वस्त्रवि-शेषः। राज० ३८५ ___ जम्बू० ३५७। पौरस्त्यरुचकवास्तव्या पञ्चमा मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [201] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] दिक्कुमारी। जम्बू. ३९२ रात्रेर्नाम। जम्बू०४९१| कर्दमः। आव. २७४। विजल-विगतजल:-कर्दमः।। गाथापतिनामग्रमहिषी। जम्बू.५३२। सप्तमी रात्री। दशवै. १६४। सिढिलकमो। निशी० ११२ आ। उदगविसूर्य. १४७। वैजयन्तीनां पार्श्वकर्णिका। सूर्य २६३। लिप्पिलं। निशी. १२९ अ। विज्जलं-स्निग्धकर्दपूर्वादि-ग्रूचकवा-स्तव्या दिक्क्मारी। आव० १२२ माविलस्थानम्। जम्बू. १२४। विगतं जलं। निशी. ११४ पान्तेिवा-सिनी प्रवा-जिका। आव. २०७। अ। कर्दमाकुलम्। बृह०७१ अपंकिलम्। बृह. १४८ औषधिविशेषः। उत्त०४९०| विजयपर्वता । प्रमाणाङ्गुलप्रमेया। अनुयो० १७१। पञ्च विज्जा- विदया-तत्त्वपरिच्छेत्री। आचा. १५९। मबलदेवमाता। सम० १५२इङ्गालस्य विद्याश्रुतम्। भग०७९४। विदन्त्यनया तत्त्वमिति प्रथमाऽग्रमहिषी। भग. ५०५। वैजयन्तीनां विदया विचित्रमन्त्रा-त्मिका। उत्त. २६७। वेदनं विदयापार्श्वकर्णिका। जीवा० २०९। विजया-अजितमाता। तत्त्वज्ञानात्मिका। उत्त० २६२ विद्या आव० १६० विजया-सुदर्शनबल-देवमाता। आव० १६२१ सच्छास्त्रात्मिका। उत्त० ३६२ विद्यतेऽनया विजयः आश्रयः। दशवै. २०४। औषधिविशेषः। उत्त. तत्त्वमिति विद्या-श्रुतज्ञानम्। उत्त० ४४२। विद्या४९०| वैजयन्तीनां पार्श्वकर्णिका। राज० ३९| प्रज्ञ-प्त्यादिदेवताधिष्ठिता वण्र्णानुपूर्वी। ज्ञाता०७ विजयाइ-खाद्यविशेषः। जम्बू. १९८५ विद्या-प्रज्ञाप्त्यादिका। प्रश्न. ११६। विद्याविजयेण-। स्था०८० प्रज्ञाप्त्यादिका। औप० ३३। विदया, यत्र मन्त्रे देवता विजयेण-वियेनः परेषामसहमानानामभिभावकत्वरूपेण। स्त्री सा विद्या ससाधना। आव० ४११। विद्या-ज्ञानं जम्बू. १८७ अत्यन्तापकारिभावतमो-भेदकम्। दशवै० ११० विद्याविजल-विगयं जलं जत्थ चिक्खल्लो। दशवै.७४। स्त्रीरूपदेवताधिष्ठिता, ससाधनावाऽक्षरविशेषपद्धतिः। विजहणा- विहानं-परित्यागः। स्था० १४० पिण्ड०१२१। लेहादिया-सउणरू-यपज्झवसाणा विजिओ- विजितः-पराजितः। आचा० ८४। बावत्तरिकला तो विज्जा, इत्थि-परिसाभिहाणा विजितसमर- आधाप्रतिश्रवणदृष्टान्ते गणसमृद्धनगरे विज्जमंता, ससाहणा विज्जा। निशी० ४४ अ। विद्यामहाबल-राज्ञो जेष्ठकमारः। पिण्ड० ४७ सम्यक्शास्त्रावगमरूपा। उत्त० ३४४। ससाधना विजीयते- अधिगमद्वारेण परिचता क्रियते। स्था० १९०| स्त्रीरूपदेवताधिष्ठिता वाऽक्षरपद्धतिर्वा विदया। पिण्ड. विज्ज- वैद्यः-वैद्यशास्त्रै चिकित्सायां च कुशलः। विपा० १४१। विदित्वा। उत्त० ३३७। विद्वान्-जानन्। उत्त. ४०। वेदः-आगमो ४४६। लौकिकलोकोत्तरिक्कप्रावचनिकभेदभिन्नः। राज० विज्जाअणुप्पवाय- यत्रानेकविधा विदयातिशया वर्ण्यन्ते ११८, ११९ तद्वि-द्यानुप्रवादम्। सम० २६| विज्जई-विदयते घटते। दशवै.४० विज्जाइसय-विदयातिशयः। दशवै. १०५ विज्जए- विदयते। दशवै. १२५ विज्जाचारण- विद्याचारणः विज्जकुमारा- विद्युत्कुमाराः, विशिष्टकाशगमनलब्धियुक्तः। प्रश्न० १०६ सोमस्याज्ञोपपातवचननिर्देश-वतिना देवाः। भग. अतिशयचरणसमर्थः। प्रज्ञा० ४२५॥ १९५ विज्जाचारणविणिच्छओ- विद्याचरणविनिश्चयःविज्जणुवायं- दशमं पूर्वम्। स्था० १९९। ज्ञानचरित्र-फलविनिश्चयप्रतिपादको ग्रन्थः। नन्दी. विज्जपुत्त- वैद्यपुत्रः-वैद्यशास्त्रचिकित्साकुशलस्य २०५४ पुत्रः। विपा० ४० | विज्जाचारणा- विद्या-श्रुतं तच्च पूर्वगतं विज्जय- वैदयकम्। ओघ० १९८१ तत्कृतोपकाराश्चारणा विद्याचारणाः। भग० ७९३। विज्जल- कर्दमः। आचा० ३३८1 पिच्छलम्। आचा० ४११। | विज्जाणुप्पवाय- विद्या-अनेकातिशयसम्पन्ना मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [202] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] ३५५ ३७९ अनुप्रवदति-साधनानुकूल्येन सिद्धिप्रकर्षेण वदतीति ३५५। स्था०७१, २२६, ३२६। विदयुत्प्रभवक्षस्काविद्यानुप्रवादम्। नन्दी० २४१। रपर्वतः। जम्बू० ३०८१ विज्जापुरिसा- विद्यापुरुषाः-विद्याप्रधानाः पुरुषाः। | विज्जुपभकूड- विद्युत्प्रभवक्षस्कारनामकूटः। जम्बू. उत्त० २६३। विज्जामंतचिगिच्छगा- विदयामन्त्रचिकित्सकाः- विज्जुभवण-वियुद्धवनम्। आव०७३। विद्यामन्त्राभ्यां उक्तरूपाभ्यां व्याधिप्रतिकर्तारः। विज्जुमई-विद्युन्मती-गोष्ठीदासी। आव २०११ उत्त०४७५ विद्युन्मती चित्रस्य लघुदुहिता ब्रह्मदत्तपत्नी। उत्त० विज्जावलिओ-विद्याबली। आव० ३१८। विज्जासिद्ध-विद्यासिद्धः। आव०४०१। विद्यासिद्धः- विज्जुमाला- विद्युन्माला-चित्रस्य ज्येष्ठा हिता आर्य-खर्पटवत्। दशवै. १०३। विज्जापभावेण ब्रह्मदत्त-पत्नी। उत्त० ३७९। सावाणग्गहसमत्थो। निशी. १००। | विज्जुमाली- विद्युन्माली-पञ्चशैलाधिपतिय॑न्तरः। विज्जाहर-विद्याधरः। प्रज्ञप्त्यादिविविधविद्या आव० २९६। अक्खो । निशी० ३४५अ। विशेषधारी। औप० २९। विज्जुमुह- विद्युन्मुखनामाऽन्तरद्वीपः। प्रज्ञा० ५०| विज्जाहरजमलजुयल- विद्याधरयमलजुगलम्। जीवा० | विज्जुमेह- विद्युत्प्रधान एव जलवर्जित इत्यर्थः, १९९ विद्युन्निपात-वान् वावियुन्निपातकार्यकारी विज्जाहरसेढीओ- विद्याधरश्रेणी-विद्याधराणां जलनिपातवान् वा मेघः। भग० ३०६) आश्रयभूतः। जम्बू०७४। विज्जुय- विद्युत प्रसिद्धः। भग० १९५ विज्जाहरा-विद्याधरा-वैताढ्यादिवासिनः। स्था० ३५७ | विज्जुया- धर्मकथायाः तृतीयवर्गे अध्ययनम्। ज्ञाता० ऋद्धिप्राप्तविशेषः। प्रज्ञा० ५५ २५१ विज्जु-असुरेन्द्रस्य चतुर्थी अग्रमहिषी। भग. ५०३। | विज्जुयाइत्ता- विद्युत्कर्ता। स्था० २७०| विशेषेण द्योतते-दीप्यते इति विदयुत्। उत्त०४९०| विज्जुलयाचश्चल-विद्युल्लताचञ्चलः। उत्त० ३२९। विज्जुक- विद्युत्। ओघ० २०११ विज्जुलयाचञ्चलग्गजीहाल- विद्युल्लतेव विज्जुकुमारा- विद्युत्कुमारः-भेवनपतेर्भेदविशेषः। प्रज्ञा० चञ्चलाऽग्रजीह्वा यस्य सः विद्युल्लताचञ्चलाग्रजीह्वाकः। आव० १६६। विज्जुकुमारिओ- विद्युत्कुमार्यः विज्जुयारति- विद्युतं कोरोति। जीवा० २४८१ इशानस्याज्ञोपपातवचन-निर्देशवतिन्यो देव्यः। भग. | विज्जुसिरिभारिया- विज्जुगाथापतेर्भार्या। ज्ञाता० १५१। १९५१ विज्जू- ईशानेन्द्रस्य चतुर्था अग्रमहिषी। स्था० २०४। विज्जगाहावती- आमलकल्पायां गाथापतिविशेषः। सोम-देवेन्द्रस्य चतुर्थाऽग्रमहिषी। भग० ५०५) विद्युत्। ज्ञाता० २५१। जीवा० २९। विद्युत्। प्रज्ञा० २९ विज्जुता- वयरोयणेन्द्रस्य तृतीयाऽग्रमहिषी। स्था० २०४१ | विज्जूखाय-अगडो भण्णइ। निशी० ५२ अ। विज्जुदंतदीव- अन्तरद्वीपः। स्था० २२६। विज्झडिय- मिश्रितं-वयाप्तम्। जम्ब० १७० मिश्रितंविज्जुदंता- विद्युद्दन्तनामा अन्तरद्वीपः। प्रज्ञा० ५० | व्याप्तम्। भग० ३०८१ विज्जहारिया-विज्जगाथापतिदारिका। ज्ञाता०२५१। विज्झडियमच्छा- मत्स्यविशेषः। प्रज्ञा०४४। विज्जुदेव- विद्युद्देवः। आचा० २८९। विज्झल-विह्वलं-अर्दवितईम्। भग० ३०८। विज्जुपभ- विद्युत्प्रभः वक्षस्कारः। जम्बू० २५५) विज्झविज्जा- विध्यापयेत् उपशमयेत्। उत्त०६३। विदयुत्प्रभः- पर्वतविशेषः। प्रज्ञा० १५९। विद्युत्प्रभः- विज्झहिति- विद्राष्यति विनंक्ष्यति। बृह. ४४ अ। द्रहनाम। जम्बू० ३०२। विद्युत्प्रभः दहनाम। जम्बू० विज्झातिसया-विदयातिशयानाम विशेषा य ६९ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [203] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आकाशगमादीनि भमन्ति ते वा । व्य. ४अ विज्झाय विध्वासः अग्ने प्रथमो भेदः । पिण्ड० १५२१ विज्झायड़ विध्यायति ज्ञानदर्शनप्रकाशभावरूपं विध्यानमवाप्नोति । उत्त० ५१३। विज्झायते विध्यायति । आव० ३६६ । आगम-सागर- कोषः ( भाग : - ४ ) विज्झाविओ- विध्यातः । आव० २०५ | विज्झासिद्ध- विद्याग्रहणात् विद्यासिद्धः । व्यव० १९ अ विज्ञान- कौशलम् । नन्दी० १६४ | विटप विस्तारः । जीवा० १८७ विट्टिदाल- सुह दिवस कहति आवाहो निशी० ९२ आ । विट्टी - विण्टिका ओघ० १२७ वर्त्तिः एकरूपा। प्रज्ञा० ३३॥ विडया प्रतिष्ठिता । निशी. ३४६| बैठका बृह० ३०२१ विडिय - विस्थितं विशिष्टा स्थितिः । अग- ४६९१ विट्ठी - विष्टिः, करणविशेषः । जम्बू० ४९३ । विडंग- विटङ्कः-कपोतपाली प्रश्न० ८ । विटङ्कःकपोतपाली। जीवा० २६९| विटण्कः कपोतपाली । जम्बू० १०७ | विडंबग विडम्बकः विदूषकः नानावेषकारी जीवा० २८१। विडम्बः- विदूषकः । औप० ३। विडंबिय विडम्बितं शोभितम् । जम्बू. १२७| विडंबेड़ - विडम्बयति-विवृतं करोति । भग० १७५१ विडओलण- घाडि: । ओघ• ४४१ विडक विटकः कपोतपाली वरण्डिकाधोवर्ती अस्तरविशेषः । ज्ञाता० १२ विडरुव- विटरूपम्। आव० २१८ | विडस-विडस णाम आसादेतो थोवायोवं खायति । निशी. १४२ आ विडस - विविधेहिं पगारेहिं इसति विडसह निशी० १२३ आ। विडसण- विदशनं-विविधं दशनं भक्षणं लीला इत्यर्थः । बृह० १६३ आ । विडसणा नखपदानि ददतीत्यर्थः, एसा वा विडसणा । निशी० १२४अ आसादेतो थोवं थोवं खाया। बृह० १६२ • नि० २३अ विडसाविया विटश्राविका आव० ६८५ विडिअ विटप:- विस्तारः जम्बू. २९ विटप:- विस्तरः । औप० ५३३ विटपः प्रशाखावान् वृक्षः। दशवै० २१८ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] विटपः वृक्षमध्यभागो वृक्षविस्तारो वा औप० ७ ॥ विडिमा शाखा । जीवा० २७८ | शाखा । जीवा० ३६३ | बहुमध्यदेशभागे उद्धर्वविनिर्गता शाखा राज० ९१। बहुम ध्यदेशभागे उद्धव विनिर्गता शाखा जीवा. २२८ जे सालाहिंतो निग्गया । दशवै० १११ । विड्ड- व्रीडाऽस्यास्तीति व्रीडः लज्जाप्रकर्षवान्। भग० ६८१| ज्ञाता० २०२१ विड्डेर- उपद्वारं नक्षत्रम् । गणि० विड्ढर- गृहस्थप्रयोजनेषु कुण्टलविण्टलादिषु वा प्रवर्त्तनम् । व्यव० २४६ आ । विद्वत्तं उपार्जितम्। उत्त० २१०| विढपित्ते - अर्जिते । उत्त० ४४१ । विठवावेमि उपार्जयामि। आक ८२ विदविओ अर्जितः। दशकै ३५ विढविज्ज- उपार्जयामि। आव० ३४२ | विणअ- विनतं विनमनं वा। उत्त॰ १९| विणए विनयः कम्र्म्मापनयनोपायः भगः ९२५ विनयःपदधावनानुरागादिः । आव० ४६९१ विणओ- विनयः अञ्जलिप्रग्रहादिः । आव० ३६१ | विनयनं विनयः - कर्मापनयनं विनीयते वाऽनेनाष्टप्रकारं कर्मेति विनयः साधुजनासेवितः समाचारः विनयः । उत्त० १९ भग ९२२२ विनयः कर्मविनयनहेतुर्व्यापारविशेषः । औप० ४१ | विरुद्धो नयः विनयः - असमाचार इति । उत्त २०| विनयः-अभ्युत्थानाद्युपचारः । प्रश्न० १३२ | विनयः - अभिवन्दनादिलक्षणः । आव० १०० | विणओव विनयोपगः- विनयवान् न मानकारी। योगसंग्रहे पञ्चदशो योगः आव० ६६४ विण विनष्टं उच्छ्रनत्वादिविकारवत्। ज्ञाता० १७३१ विनष्ट-उच्छूनावस्थां प्राप्य स्फुटितः । जीवा० १०७ । विणतेय. विनष्टतेज: निःसत्ताकीभूततेजः । भग ६८४ | विणतं - एकोनविंशतिसागरोपमस्थितिकं देवविमानम् । सम० ३७॥ विनयनं विनयः प्रवर्त्तनम् । स्था० ४०९ विणमि- श्रीऋभस्वामिमहासामन्तमहाकच्छसुतः। जम्बू. २५२| विनमि:- महाकच्छपुत्रः आव० १५१। विणमिय- विशेषेण पुष्पफलभरेण नमितमितिकृत्वा विनमितम् । भग० ३७ [204] "आगम- सागर-कोषः " (४) Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] विजय- विनयः । भग० १२२ विनयः-ओमित्वादिरूपः ॥ जम्बू. १६९| विनयः- अभ्युत्थादनादि आव• ६०४ अभ्युत्थानपदधावनादिः दशकै १०४१ विनयःआचारः । सूर्य० २९७ विणयणं निशी. १४ अ विशिष्टो नयः विनयः प्रतिपत्तिविशेषफ । स्था० १५४ | विनयः- भक्त्यादिकरणम् । स्था० ४०८] विनयःज्ञानादिविषयः । दशमं स्थानकम् । ज्ञाता० १२२ ॥ विनयः । आव ० ७९३ । विणयणं विणयो । निशी० १४अ । विनयः-विनय-शुद्धि। प्रत्याख्यानशुद्ध्या-स्तृतीयो भेदः। आव॰ ८४७। विनयः-शुद्धोयोगः। दशवै० २१३। विनयः- अभ्युत्थानादिरूपः। दशकै० २३५१ विनयःआसेवनाशिक्षाभेदभिन्नः । दश- २४२| विनयः- शिक्षा | आगम - सागर - कोषः ( भाग : - ४) व्यव० १३३ आ । विणयन्न- विनयो- ज्ञानदर्शनचारित्रॉपचारिकरूपस्तं जानातीति । आचा० १३२ | विणयपडिवत्ति- विनयप्रतिपत्तिः उचितकर्त्तव्यकरणाङ्गी काररूपाः । उत्त० ५७८ विणसभंसी- विनयभंशी आव. १०२ विणयया विनयता अर्हदादीनां नमस्कारार्हत्वे हेतुविशेषः आव• ३८३३ विनयता- उपाध्यायानां नमस्कारार्हत्वे विनयहेतुः । आव० ३८३ । विणयवई - विनयमतिः । अज्ञातोदाहरणे महत्तरिका । आव० ६९९| विणयसमाही- विनये विनयाद्वा समाधिः विनयसमाधिः परमार्थतः आत्मनो हितं सुख-स्वास्थ्यम् प्रथमं विनयसमाधिस्थानम् । दशवै० २५५| विणयसुद्ध- विनयशुद्धं-कृतिकर्मणो विशुद्ध योऽहीनातिरक्तं प्रयुञ्जीत मनोवचनकायगुप्तस्तत् विनयशुद्ध स्था० ३४९| विणयसुय उत्तराध्ययने प्रथममध्ययनम् । समहम विनयश्रुतं - उत्तराध्ययनेषु प्रथममध्ययनम् । उत्त० ९ विणस्सई- विनश्यति इतस्ततः पर्यटनेन मुक्तिमार्गाद्विशेषेण दूरीभवति । उत्त०५९२ विणस्स - विनश्यतु क्वथितत्वादिना स्वरूपहानिमाप्नोतु । उत्त० ३६३। विणास विनाशः प्राणानां विनाशः प्राणवधस्य सप्तविंशतितमः पर्यायः । प्रश्न० ७ | मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] विणासण- विनाशनं शैलेश्यवस्थायां सामस्त्येन कर्माभावापादनम्। आचा० २९८१ विनाशनम्। दश- ५३| विणासियं विनाशितं भस्मीभूतपवनविकीर्णदाविव निस्सत्ताकर्ती गतम् प्रश्न. १३४ जिज्ञासितम्। आव० ४१९ | परीक्षितम् । आव ०७२३| विणिति विनयन्ति अपनयन्तीत्यर्थः । ज्ञाता० २८८ विणिआ विनीता-अभिनन्दनस्वामिजन्मभूमिः आक १६०| विणिउत्त- विनिर्युक्तः-कर्णयोर्निवेशितः । ज्ञाता० ३५| व्यापारितम् । व्यव० ६६ आ । विणिउत्तग- विनिर्युक्तकः- कट्यां निवेशितः । ज्ञाता० ३१ | विणिउत्तभांडि- सेसभंडवकरणो । निशी० १०३अ । विणिगृहई विनिगूहते आच्छादयति । दशवे. १८७ विणिग्गयजीह- विनिर्गतजिह्वः । उत्त० २७४ | विणिघात - विनिघातं धर्मभ्रंशम् । स्था० २४७। विणिघाय- विनिघातं मरणं मृगादिवत् । स्था० २९२ विनिधात: स्रोतसि प्रतिस्खलनम्। अनुयो० १६२१ विणिच्छओ विनिश्चयः । आव. ५०रा विणिच्छय- विनिश्र्चयः- निर्वाहः । बृह० २४८ अ । विगतसामान्यानां विशेषाणां निश्चयो विनिश्चयः । विणिच्छि विगतो निश्चयः विनिश्चयः विशेषः । निश्चयो वा अनुयो० २६५ विणिच्छिय निः- आधिक्येन चयनं चयः अधिकोश्र्चयो निश्चयः सामान्यं, विगतो निश्चयो विनिश्चय-नि:सामान्यभावः । आव० २८३ | विणिच्छिय ऐदम्पर्योपलभ्यात्। ज्ञाता० १०९ | विणिच्छिपड्डा प्रश्नानन्तरं अत एवाभिगतार्थः । भग० १४३॥ एदम्पर्यार्थस्योपलम्भात्। भग० १३५| विणिज्ज उच्चिनुयात् । आव• ३४२१ विणि विनष्टं उच्छूनत्वाभिर्विकारैः। ज्ञाता० १२९ । विणियति विनयति अपनयतीत्यर्थः । ज्ञाता० २५ विणिवट्टणा विनिवर्त्तना-विषयेभ्यः मनःपराङ्मुखीकरणम्। उत्त॰ ५८७। विणिवाय विनिपात- दुःखः ओघ० ४७ विणिविचित्त विनिविष्टं चित्तं यस्याऽसौ विनिविष्टचित्तः-गाद्धर्यमुपगतः । आचा० २३४ | विविधं [205] "आगम- सागर- कोषः " [४] Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] अनेकधा निविष्टं स्थितमवगाढमर्थोपार्जनोपाये स्था० १५६। विशिष्टं ज्ञानं विज्ञानं मातापित्रादयभिस्वङ्गे वा शब्दा-दिविषयोपभोगे वा क्षयोपशमविशेषादेवावधारिता-र्थविषये एव चित्तं-अन्तःकरणं यस्य स तथा। आचा० १०२ तीव्रतरधारणाहेतुबोधविशेषः। नन्दी. १७६। चित्तं विणिहय-विनिहतः-विनिहतचक्षुः। प्रश्न० १६२१ मनश्च। अनुयो० ३९। विविधं ज्ञानं विज्ञानम्। दशवै. विणीअभूमी- विनीताभूमिः। आव० ११४१ १२५। गुरुवदेसेण जामतीतं, मति चेव। निशी० ८१ आ। विणिअविणओ-अनेकधाप्रापितविनयः विनीतविनयः। विज्ञानम्। दशवै० ५३ आव० २६११ विण्णाय- विविधप्रकारैः-देशकालादिविभागरूपैर्जातं विणीआ- विनीता-ऋषभप्रभूतेर्निगमनपुरी। आव. १३७) विज्ञातम। भग०६५। विशेषतः ज्ञातं विज्ञातम। भग. विनीता-बृहत्पुरुषविनयकरणशीला, विजितेन्द्रिया वा। ३१६। विज्ञात तत्त्वभेदपर्यायैरस्माभिरस्मात्तीर्थकरेण जम्बू. ११८ विनीता-अयोध्या। जम्बू. १७९। वा। आचा.१८६। विणीए- गुरुसेवागुणात् विनीतः, रोहनामाणगारपुंगवः, विण्णास-विन्यासः-जिज्ञासा। दशवै. ९३। गुणः। भग०८१। विनीतः-विशेषेण नीतः-प्रापितः विण्णासउ- जिज्ञासतु-परीक्षताम्। आव० ७०४। मेरकचित्तानु-वर्तनादिभिः श्लाघादिति विनीतः। विण्णासण- विन्यासनम्। आव० २९३। उत्त० ४९। विनीतः-यथेष्टकटकादिप्रकारसम्पादनेन विण्णासणत्थ- परिक्षा। निशी० ३४८ अ। विनीतः। दशवै. २६३।। विण्णासिउं-परीक्ष्य। आव० ८०० विणीय- विनीतः-अवाप्तः विनयो येन स। ज्ञाता० २३२ | विण्णासिओ- विन्यासितः। आव. २१४। विज्ञासितःविनीतः-विनयवान्। उत्त०४४२ विनीतः-आत्मनि परिक्षितः। आव० ३९४१ प्रापितः। प्रश्न. १०७ विनीतः विण्हावणय- विविधैर्मन्त्रमूलादिभिः संस्कृतजलैः अभ्युत्थानादिबाह्यविनय-वान्। बृह. २४९ आ। स्नापकं विस्नापनकम्। प्रश्न० ३९ विनीतः-विशेषतः प्रापितः। जीवा० २७५। विनीतः- | विण्हुपुंगव-वृष्णिपुङ्गवः-यदुपुङ्गवः-यदुप्रधानः। ज्ञाता० बृहत्पुरुषविनयकरणशीला। जीवा० २७८। २१११ विणीयनयरी- विनीतनगरी। आव. १२८ विण्हू- श्रेयांसनाथपिता। सम० १५१। विष्णुः-श्रेयांसमाता। विणीयविगए- विनीतविनयः आव० १६०। सम० १५१। विष्णुः-श्रेयांसपिता। आव. स्वभयस्तगुर्वायुचितप्रतिपत्तिः। उत्त०६५६। १६१। अन्तकृद्दशानां प्रथमवर्गस्य दशममध्ययनम्। विणीया- विनीता-भरतराजधानी। आव० १६१। विनीता- | अन्त० १। विष्णुकुमारः। व्यव० २८२आ। विण्हुः। आराधनाविषये भरतराजधानी। आव०७३४ निशी० २७६ । वणेउण- (देशीवचनमेतत्) साम्प्रतकालीनपुरुषयोग्यं वितंजित- व्यजितः-व्यक्तिकृतः। स्था० ३०८। विनयित्वेत्यर्थः। प्रज्ञा०५ वितक्क-वितर्कः-विकल्पः पूर्वगतश्रुतालम्बनो नानानयाविणेति-विनयति-प्रेरयति-अतिवाहयति। प्रश्न०६४। नुसारलक्षणः। स्था० १९११ विण्णए- विनयितः-शिक्षा ग्राहितः। स्था० ५१६। वितक्का- एगमत्थं अणेगेहिं पगारेहिं तक्कयतिविण्णत्ति- विशेषेण जपनं विज्ञप्तिः, विज्ञानं वा संभावयति। दशवै.५४ विज्ञप्तिः-परिच्छित्तिः। आव०४९। वितण्डा- जल्प एव प्रतिपक्षस्थापनाहीनः। सूत्र. २२६। विण्णवणा- पडिसेवणा-पच्छणा वा। निशी. ३ अ। यत्रैकस्य पक्षपरिग्रहोऽस्ति नापरस्य सा विण्णवयति- विज्ञपयति। बृह. १४३ अ। दूषणमात्रप्रवृत्ता वितण्डा। सम० २४१ विण्णवियार-विज्ञापिता-राज्ञो लोकप्रयोजनानां विततं- मृदङ्गनन्दीझल्लर्यादि। आचा० ४१२। निवेदयिता। ज्ञाता० १२ ततविलक्षणं-तन्त्र्यादिरहितम्। स्था०६३। विततंविण्णाण-विज्ञानं-अर्थादीनां हेयोपादेयत्वविनिश्चयः। पटहादि। प्रश्न विततीकृतम्। जीवा. १८९। विततं मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [206] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] वादिन्त्रविशेषः । जम्बू० ४१२ । विततीकृतं ताडितम् । जम्बू० ३१। विततं-वीणादिकम् । जीवा० २४७। विततंपटहादिकम्। जीवा० २६६। विततः महाग्रहः । जम्बू• 9341 विततं-पटहादिकम्। जम्बू. १०२१ आउज्झविसेस | निशी० १ अ विस्तारितम् । ज्ञाता० आगम - सागर - कोषः ( भाग : - ४) १३४| विततपक्खी- विततपक्षी - मनुष्यक्षेत्रबहिर्वर्ती पक्षिविशेषः। प्रश्र्न॰ ८। वितती - नित्यमनाकुञ्चित पाक्षौ यस्य सः वितत पक्षी । जीवा० ४१| विततपक्षी खचरे चतुर्थी भेदः । सम. १३५ विततबंधण- विततबन्धनं-प्रमर्दितबाहुजङ्घाशिरसः संयन्त्रणम्। प्रश्न. ५६ वितत्थ अष्टसप्ततितममहाग्रहः स्था० ७९। वितथ- अनृतम्। स्था० ५००। वितथः वेदः । उत्त० ५२५| वितथमुणी द्रव्यमुनिः । भावश्रावकः । मरण० । वितप्प - विकल्पम् । आव० ६९२ | वितय- विततं-पटहादिकम्। भग० २१६ | वितरण- दानम् । आव० ८४६ । वितरति अनुजानाति। बृह• ५२ आ वितरेयुः अनुजानीयुः व्यव• १२८ अ वितक्क संदेहः व्यव० २४ अ वितह- वितथ-अन्यथा आव० २६३ । वितथं अतथ्यम् । दश० २१४ वितथं आगन्तुकतदुत्थजन्तुरहितम्। आचा० २९३ | वितहापपडिवत्ती- वितथाप्रतिपत्तिः परस्याभाव्यमपि शैक्षा-दिकमनाभाव्यतया प्रतिपद्यते। बृह० ७० आ । वितहायरण वितथाचरणं अन्यसामाचार्या आचरणं । ओध० १२०१ वितारयति प्रतारयति वञ्चयति । स्था० ४३| विताल - तालाभावः । जीवा ० १९३ । वितिमिच्छड़ विचिकित्सति-विमर्षति मिमांसते । मुनि दीपरत्नसागरजी रचित सूत्र ३२४| वितिगिंछा - विचिकित्सा-जुगुप्सा आचा० ३३२ वितिगिंच्छा विमर्शः। निशी. ३०८आ। वितिमिच्छा - विचिकित्सा मतिविभ्रमः फलं प्रति संशयः। प्रज्ञा॰ ६७। विचिकित्सा-विद्वज्जुगुप्सा साधुनिन्दा । आव० ८११ | साधुनिन्दा आक० ८१५ विचिकित्सा [Type text] मतिविभ्रमः । दशवै० १०२ विचिकित्सा-फलं प्रति संदेहः । उत्त० ५६७। विचिकित्सा आशङ्का परस्परतो भयं लज्जा वा आचा० १६५। विचिकित्सा संशयात् सा निमित्तनिमित्ति-नोरभेदा‌द्विचिकित्सा स्था० ९७४ विचिकित्सा-मतिविभ्रमः। व्यव० १८ आ विचिकित्सा-फलं प्रति शङ्का। ज्ञाता० ९४ | विचिकित्सा-चित्तविप्लुतिर्विद्धजुगुप्सा वा सूत्र० १८९। विचिकित्सा-मतिविभ्रमः फलं प्रति सम्मोहः । आव ० ८१५ | वितिमिच्छामित्तगा वीति विशेषण विविधप्रकारैर्वा चिकित्सामि-प्रतिकरोमि निराकरोमि गर्हणीयान् दोषानिती-त्येवंविकल्पात्मिका एकाऽन्या गह। स्था० २१५| वितिमिच्छासण्णा विचिकित्सासंज्ञा-चित्तविप्लुतिरूपा । आचा० १२ वितिगिच्छि - विचिकित्सितः । भग० ११२ वितित्थं सारणी संधी निशी० १३३ आ वितिपरिक्खित्त- वृत्तिपरिक्षिप्तः परेषामनाल्लोकवत इत्यर्थः। ज्ञाता० २०४ | वितिमिर- ब्रह्मलोक विमानप्रस्तटः स्था० ३६७१ वितिमिरं- आहार्यान्धकाररहितम् । सम० १४० | वितिमिरं- अपगताज्ञानतिमिरपटलम् । ज्ञाता० ५५| वितिमिरः कर्मति- मिरवासनापगमात् । प्रज्ञा० ६१०| वितिमिरः-तीर्थकरगर्भा-धानानुभावेन गतान्धकारः। ज्ञाता० १२४ | वितिमिरकर वितिमिरकरः- निरन्धकारकिरणः। जम्बू. १०२ वितिमिरतर- विगतं तिमिरं तिमिरसम्पादयो भ्रमो यत्र तत् वितिमिरं । इदं वितिमिरमिदं वितिमिरमनयोरतिशयेन विति-मिरं वितिमिरतरम् । प्रज्ञा० ३५६ । वितुडयेत् प्रतिधयेत्। बृह• ४३ अ वितोयपोत- वितोयपोतः विगतजलयानपात्रः, वियोगपोतः विगतसम्बन्धनबोधिस्थः प्रश्न० ५०| वित्त वृत्तम् । आव० ९२ विनीतविनयतयैव । सकलगुणाश्रयतया प्रतीतः प्रसिद्धः । उत्त० ६४ वृत्तंकाव्यं चरित्रं वा । जम्बू• ४२९| वेत्रः जलजवंशात्मकः । [207] "आगम- सागर-कोषः " (४) Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] ३९) उत्त० ३६४। वेत्रः-जलवंशः। जम्बू. २३५। स्था० ३९४। । ४६० विदंशतीति विदंशकः श्येनादिः। प्रश्न. १३ वित्तल-वित्रलं विचित्ररेखोपेतम। व्यव. २३४ अ। विदब्भ- सुपार्श्वनाथप्रथमशिष्यः। सम० १५२१ विदर्भः। वित्तस-वित्तसति। ओघ. १४२१ भग०६२११ वित्तासण-वित्रासणं-विकरालरूपादिदर्शनमा आव. विदरिसण-विदर्शन विकृतं रूपं दर्शयति विदर्शनं६३४१ अलग्नमेव लोको लग्नं पश्यति। बृह० ४४ । वित्ति-वृत्तिः-जीविका। ज्ञाता०३७ वृत्तिः-निवाहः। विदर्भकनगर- सिन्धुसौवीरजनपदे उदायनराजधानी। ज्ञाता०१७। वृत्तिः-भक्तग्रहणंयात्रामात्रा वृत्तिः। औप | प्रश्न०८९ ३७ | विदलकड-वंशशकलकृतः। स्था० २७३। विदलकटः। आव० वित्तिए- वित्तिक-वित्तं द्रव्यं तदस्ति यस्य तत् वृत्तिकं, । २८९। वृत्तं वाऽऽश्रितलोकानां ददाति यत्तत् वृत्तिदम्। औप० | विदारिका- मूलविशेषः। दशवै. १७६| विदालणं- विदारण- विविधप्रकारैर्दारणम्। प्रश्न. १७ वित्तिकंतार-वृत्तिः-जीविका तस्याः कान्तारं-अरण्यं विदित- प्रतीतः। ज्ञाता०२३६। तदिव कान्तारं-क्षेत्रं कालो वा वृत्तिकान्तारम्। उपा० विदितत्थकाया- विदितोऽर्थकायः-अर्थशाशिः श्रुताभिधेयो १३ यया सा विदितार्थकाया। प्रश्न. १०७ वित्ती- वृत्तिः-भिक्षावृत्तिः। व्यव०। विदित्वासमुद्देशन- ज्ञात्वा परिणामिकत्वादिगुणोपेतं द्वातिंशत्कवलपरिमाणल-क्षणा वृत्ति० २६४। वृत्तिः- शिष्यं यद्यस्य योग्यं तस्य तदेव समुद्दिशति। उत्त. जीवनम्। अनुयो० १३० वित्तीकंतार- वृत्तिकान्तारः। आव० ८१११ विदित्वोद्देशनं- विदित्वा-ज्ञात्वा परिणामिकत्वादिगणोपेतं वित्तकप्प- पूर्णप्रायः। तन्दु। शिष्यं यस्य योग्यं तस्य तदेवोद्दिशति इति वित्तीसंखेव-वृत्तिसक्षेपः-गोचर्याभिग्रहरूपः। दशवै. विदित्वोद्देशनम्। उत्त० ३९। ૨૮૦૧ विदिन्न- वितीर्णम्। भग० ६२११ वित्थडबल-विस्तारबलम्। आव० ३३७) विदिसप्पइन्न- विदिक्प्रतीर्णः मोक्षसंयमाभिसुखा दिक् वित्थार- विस्तारः-व्यासः सकलद्वादशाङ्गस्य नयैः ततोऽन्या विदिक, तां प्रकर्षण तीर्णो विदिक्प्रतीर्णः। पर्यालो-चनम्। प्रज्ञा० ५८। विस्तारः-पृथुत्वम्। स्था० आचा० २१२ १८७ विदिसिवाए- विदिग्वातः-यो विदिग्भ्यो वाति। जीवा. २९। वित्थाररुई-विस्ताररुचिः-विस्तारो-व्यासस्तेन रुचिर्यस्य | विदिसीवाए- विदिग्वातो-यो विदिग्भ्यो वाति। प्रज्ञा० ३०| स। उत्त० १६३| द्रव्याणां पर्याया यथायोगं विदु- विदित्वा। बृह० २८०आ। प्रत्यक्षादिभिः सर्वश्च नैगमादिप्रकारैः उपलब्धा स | विदुग्ग- बहुएहिं पव्वतेहिं विदुग्गं। निशी० ७० आ। विस्ताररुचिः। प्रज्ञा० ५६| विदुर्ग-समुदायः। भग० ९२ विस्थाररुती- विस्तारो-व्यासस्ततो रुचिर्यस्य स तथेति, | विदुपक्ख- साहुपक्खो साहुणीपक्खो। निशी• तू० ४७ आ। येन हि धर्मास्तिकायादिद्रव्याणां सर्वपर्यायाः। विदुर- जंजत्थ मगणकम्पसमारंभादिसु अणभिहियं तं सवैर्नयप्रमाणैर्शाता भवन्ति स विस्ताररुचिः। स्था. विदुरं-विगद्द्वारम्। निशी. ९९। ज्ञाता० २०८। ५०३ विदू-विदूः-ज्ञायकः। आव० ८४९। साहू। निशी० १२ वित्थिण्ण-विस्तीर्णम्। ओघ. १२३॥ विदूषक- विडम्बकः। औप० ३। विदूषकः। स्था० २०३। वित्थिया- विस्तृता-अमूढा। जम्बू० २०९। विदेशः-स्वकीयदेशापेक्षया। ज्ञाता०४११ विदंडओ- विदण्डकः-कथाप्रभृतिः। ओघ. २१८ विदेसत्थ- विदेशस्थः-विदेशं गत्वा तत्रैव स्थितः। ज्ञाता० विदंसग-विदंसकः-विशेषेण दशतीति श्येनादिः। उत्त० । ११५ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [208] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] ३१३ विदेसपरिमंडिय-धात्रिविशेषः। ज्ञाता० ३७। विदया- विवक्षितः कोऽप्यागमः। स्था० २५४ विदेह- महावीरप्रभोरपरनाम। आचा०४२ विदेहः- विद्याधर- कुलविशेषः। आव०५१० क्षत्रिय-परिव्राजके भेदः। औप. ९१। विदेहः विदयुज्जीवः- अन्तरद्वीपविशेषः। जीवा० १४४। ब्राह्मणस्त्रीवै-श्याभ्यां जातः। आचा० ८। विदयुत्प्रभ- वक्षस्कारपर्वतः। स्था०६८, ७४१ विदयुत्प्रभःमिथिलानगरीजनपदः। ज्ञाता० १२६। विदेहः वक्षस्कारपर्वतनाम। प्रज्ञा०७३। विद्युत्प्रभःद्रव्योपसर्गे देशविशेषः। आव०७१६। जनपदविशेषः। कर्दमाभिधान-वैलन्धरनागराजस्यावासपर्वतः। जीवा० प्रज्ञा०५५। विदेहः-जनपदविशेषः। उत्त० २९६, ३०३। विदेहजंबू-जम्ब्वाः -सुदर्शनायाः नवमं नाम। जीवा. २९९| | विद्युद्दन्त-अन्तरद्वीपविशेषः। जीवा० १४४॥ विदेहेषु जम्बूः विदेहजम्बूः । विद्रुम- शिलारूपं प्रवालम्। जीवा० २७२। विद्रुमः-प्रवालः। विदेहान्तरगतोत्तरकुरुकृतनिवा-सत्वात्। जम्बू. ३३६| प्रज्ञा. २७ विदेहजच्च- महावीरप्रभोरपरनाम। आचा० ४२२ | विद्वान्- साधुर्विदितसंसारस्वभावःविदेहदिन्ना- त्रिशलाया अपरनाम। आचा० ४२२ परित्यक्तसमस्तसङ्गः। आव०८१५) विदेहपुत्त- विदेहपुत्रः-कोणिकः, चम्पानगर्यां राजा। भग० | विधइ-विध्यति-प्राजनकारया तुदति। उत्त० ५५१। ३१५ विधम्मणा-विधातःविदेहरायवरकन्ना- विदेहजनपदराजस्य वरकन्या औदीच्यपणपन्निकव्यन्तराणामिन्द्रः। प्रज्ञा० ९८१ विदेहरा-जवरकन्या। स्था०४०१| विधारए- विधारयेत्-प्रतिस्खलयेत्। आचा० २४७। विदेहसुमाले-महावीरप्रभोरपरनाम। आचा० ४२२। विधारेउं- विधारयितुं-निवारयित्म्। पिण्ड० ४१। विदेहा- पिशाचभेदविशेषः। प्रज्ञा०७० विधिः- प्रतिविधानम्। आव०७४ विधानं-प्रकारः। आव. विदेही- वैदेही-विदेही नाम जनपदस्तत्र भवा वैदेहाः ६०१। विधिः-मर्यादा सीमा, आचरणा। आव०६३। तन्निवा-सिनो लोकास्तेऽस्य सन्तीति नमीराजा। सूत्र. | विधिः-भेदः। व्यव० १३६अ। ୧୨ विधसुत्त-बंभचेरा। निशी० ५। निशी० ३५ अ। निशी. विद्दव- विद्रव-विलयम्। ज्ञाता० १५७ १३४ अ॥ विद्दाया- विद्रुता। आव०६६। विधुवण- वीतणगो। निशी० १०५आ। विद्देस- विद्वेषः-मत्सरः। प्रश्न. २७। विधूम- विधूमः-अग्निः । सूत्र० १३७। विद्देसगरहणिज्ज-विदवेषो-मत्सरः तस्मात् गर्हते- विध्यापन- निर्वापणम्। दशवै०१५४ निन्दति विद्वेषाद् गद्यते साधुभिर्वा यत्तत् विध्वंसन-क्षयः। ज्ञाता० १४९। विदवेषगर्हणीयम्। अधर्मदवारे मषावादस्याष्टमं नाम। । विनमि- महाकच्छस्तः। आव० १४३। प्रश्न.२६ विनय- गुरुसुश्रूषा। आव० ४१५१ विद्धसंति- अधःपातात्। भग० २५४। विनयति- प्रव्राजयति। व्यव० ३९७ अ। विद्धसण- विध्वंसनं सर्वगर्भपरिशाटनम्। निर० २१। विनायक-राक्षसभेदः। प्रज्ञा०७० विध्वं-सनं-क्षयः। भग० ४६९। विध्वंसनम्। आव०७८८। । विनिज्झाए- विनिध्यायेत् विशेषेण पश्येत्। दशवै० १६६। विलंसमो- उत्क्रमिष्यामः। व्यव. २०४। | विनीतसंसार- नष्टसंसारः। आव० ४५६। विद्ध- वृद्धः-श्रुतपर्यायादिवृद्धः। उत्त० ६२२। विनेय-शिष्यः। नन्दी०६३। गरोनिवेदितात्मा यो विद्धत्थ-विध्यस्ता-अप्ररोहसमर्था योनिः। दशवै. १४० 5: मुक्त्यर्थं चेष्टते सो विनेयः। प्रज्ञा. विद्धी- वृद्धिः-कुटुम्बीनां वितीर्णस्य धान्यस्य १६३। द्विगुणादेर्ग्रहणम्। विपा० ३९। वृद्धिः-वृद्धिहेतुत्वात्। | विन्ध्य- विन्ध्यम्। पिण्ड० ३२॥ अहिंसाया एकविंशतितम नाम। प्रश्न. ९९। विन्नवण-विज्ञापनम्। आव. ११०| गुरुभाव मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [209] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text ) विन्नवणा- विज्ञापना। सूत्र० ७०| प्रार्थना प्रतिसेवना वा । बृह• ४५ अ विज्ञापना- विज्ञप्तिका सप्रणयनप्रार्थना । ज्ञाता० ४९ | ज्ञाता० १०१ | विन्नाए विज्ञातम्। भग• ७७५1 विन्नाण विज्ञानं हिताहितप्राप्तिपरिहराध्यवसायो विज्ञानम्। आचा० १८३ | विन्नाणखंध विज्ञानस्कन्धः- रूपादिविज्ञानलक्षणः । प्रश्न० ३१ । रूपविज्ञानं रसविज्ञानमित्यादिविज्ञानं विज्ञानस्कन्धः। सूत्र० २५| विन्नाणेमो परीक्षामहे। दशकै १०bl विन्नाय विज्ञातः । दशवै० १४१। विन्नासणा विविदिषा आव. २२५ विन्नासिय जिज्ञासितं परीक्षितम् आव० ६६५ आगम - सागर - कोषः ( भाग : - ४) परीक्षितम् । उत्त० १९२ विन्दु - विद्वान्-जिनागमगृहीतसार आचा० ४२९ | विद्वान् । आव० ४२९। विद्वान् विज्ञो वा तुल्यबोधत्वादेकः । स्था० २१ विपंचि विपञ्चीवाद्यविशेषः प्रश्नः ७०| विपंची विपञ्ची प्रश्नः १५९। विपञ्ची-तन्त्री जीवा० २६६। विपक्क- सुपरिनिष्ठितं प्रकर्षपर्यन्तमुपगतमित्यर्थः । उदयागतम् । स्था० ३२१ | विपच्चत विप्रत्ययः अप्रतीतिः । उत्त० १९५ विपज्जहसेणियापरिकम्म- परिकम्मै षष्ठो भेदः । सम० १२८ विपडिकुवाई विपृष्टतः करोति परित्यजति दशवं. ९२२ विपणि रथेन गच्छत्याम् । व्यव० १३८ आ विपरामुसइ विपरामृशसि पृथिवीकायादिसमारम्भं करोति । आचा० १४९ विपरिणामइत्ता- विपरिणामयित्वा - विनाशयित्वा । प्रज्ञा ५०३ | विपरिणामिय विपरिणामं नीतं स्थितिघातरसघातादिभिः विपरिणामितम्। भग० २५१| विपरिणामेति विगतपरिणामं करोति विविधैः प्रकारैरात्मानं परिणामयति । निशी० २८७ आ विपरिणामेत्तर- विपरीताध्यवसायोत्पादनतः । विपरिणामयि तुम्। ज्ञाता० १३४ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] विपरीयपरूवणा विपरीतप्ररूपणा अन्यथा पदार्थकथना | आव० ५७३ | विपरिवसावेमाण- विपर्यासाभिमानः ज्ञाता० १७५| विपलिउंचियं विपलिकुञ्चितं यद् अर्द्धवन्दित एव देशादि कथा करोति । कृतिकर्मणि द्वाविंशतितमो दोषः । आव ० ५४४ | विपाक- विपचनं विपाकः- आयुषो पीरहाणीत्यर्थः। निशी० २८ आ । अनुभावः । विशे० ५६५ | विपादिका- स्फुटितच्छविः । प्रश्र्न० ४१ । विपुल विसालं, मोक्खो दशकै ८९| विशालः। उत्तः २७३॥ अनेकभेदतया विस्तीर्णः उत्त० ५१०१ विपलुमनःपर्यायज्ञानी- मनोज्ञानी । आव० ४८ । विपुललोहदण्डक- विपुललोहदण्डकः वरवजम्। जम्बू० २३८| विपुलवाहण आगामिन्यामुत्सर्पिण्यां एकादशमः चक्री सम० १५४॥ विप्प- विड्-उच्चारः। आव० ४७ । विप्रुट प्रश्रवणादिबिन्दुः, वि' इति विष्टा 'प्र' इति प्रश्नवणमिति वा । औप- २८ विप्पइरमाण- विप्रकिरन्तः क्षरन्तः । ज्ञाता० १५७ | विप्पओग- विप्रयोगः- वियोगः । औप० ४३ | विप्प ओगस्यतिसमन्नागए विप्रयोगस्मृतिसमन्वागतःवियोगचिन्तानुगतः । औप. ४३३ विप्पकिड विप्रकृष्टं बृहदन्तरालम् जीवा० २६८त विप्पच्चइय- सूत्रे चतुर्थो भेदः । सम० १२८ विप्पजहणा विप्रहानम् आक० ६४९। विशेषेण विविधं वा प्रकर्षतो हानि-त्यागः विग्रहाणिः । उत्तः ५१७ विप्पज्जहे- विप्रजह्यात् परित्यज्येत् । उत्त० २९१ | विप्पडिवण्णा विप्रतिपन्ना। आव० ३१३| विप्पडिवन्न- अनार्यकर्मकारित्वादार्यान्मार्गाविरुद्वं मार्गं प्रतिपन्नः विप्रतिपन्नः । सूत्र० २८३ । विप्पडिवेएइ- विप्रतिवेदयति-पर्यालोचयति । आचा० २१८ | विप्यमुक्क- विविधैः परीषहासहनगुरुनियोगासहिष्णुत्वात्य-स्यादिभिः प्रकारैः प्रकर्षेण मुक्तः विप्रमुक्तः । उत्तः २०१ विप्परिकम्माड विपरिक्रमिष्यामि परिस्पन्दं करिष्यामि । आचा० ४०८ | विप्परिणामणा- गिरिसरिदुपलन्यायेन द्रव्यक्षेत्रादिभिर्वा [210] "आगम- सागर-कोषः " (४) Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] करण-विशेषेण वावस्थान्तरापादनं विपरिणामना। २७३। स्था० २२११ विप्फालेइ- (देशीवचनम्) पृच्छति। व्यव० ५१ अ। विप्परिणामधम्म- विविधः परिणामः-अन्यथाभावात्मको | विप्फुलिंग-विस्फुलिङ्गः-उल्का। आव० ५४२॥ धर्मः-स्वभावो यस्य तत् विपरिणामधर्मम्। आचा० विप्रतारण- प्रपञ्चनम्। प्रश्न०१७ २०६। विप्रयोग-विविधव्यापारः। उत्त०५८२ विप्परिणामाणुप्पेहा- विविधेन प्रकारेण परिणमनं विपुडोषधि- ऋद्विविशेषः। स्था० ३३२ विपरिणामो वस्तुनामन्प्रेक्षा। स्था० १८८। विप्लुत- मूढः। दशवै० २६६। विप्परियास- विपर्यासं-पर्यायान्तरम्। भग० ६४४| विफालिय-पाटयित्वा। आचा० ३८११ विप्परियासियभूए- विपर्यासीभूतः-अध्युपपन्नः। आचा० विफालेति-पृच्छति। निशी. ९२आ। ३३१ विबाहा-विशिष्टबाधा। भग० २१८ विप्पलाइत्थ-विपलायितवन्तः। विपा. ५०| विबुद्ध- विबुद्धः-विकस्वरः। जम्बू. १८३। विप्पलाव- प्रलापो-निरर्थकं वचनं, विविधो प्रलापः विबुद्धपंकओ- विबुद्धपङ्कजम्। आव० १९२। विप्रलापः। स्था० ४०८ विब्बोअण- उपधानकं-उच्छीर्षकम्। जम्बू० २८५) विप्पवसिय- विप्रोषितः-देशान्तरं गन्तुं प्रवृत्तः। ज्ञाता० विब्बोय-स्त्रीचेष्टाविशेषः। ज्ञाता० १६५ ७९। विप्रोषितः-स्वस्थानविनिर्गतः। ज्ञाता० ११५ विब्बोयण- उपधानकः। भग० ५४० विप्पवास-विशेषेण प्रवासोऽन्यत्रगमनं विप्रवासः। व्यव० | विब्भम-विभ्रमो-भूसमुद्भवो विकारः। ज्ञाता० १४४ ५३। भूयुगान्तयोयोर्विभ्रमः। प्रश्न. १४०। विभ्रमःविप्पसण्ण- विशेषेण विविधैर्वा भावनादिभिः-प्रकारैः धातूपचयेन मोहोदयान्मनसाधर्मेप्रत्यस्थिरत्वम्। प्रसन्ना, मरणेऽप्यहतमोहरेण्तयाऽनाक्लचेतसः प्रश्न. १४१। विभ्रमः भ्रान्तत्वं विभ्रमाणं वा विप्रसन्नः। उत्त. २४४। मदनविकाराणां आश्रयत्वात्। अब्रह्मणः पञ्चदशम विप्पसरित्था- विप्रासरत्। ज्ञाता०१०११ नाम। प्रश्न०६६। विप्पसायए- विप्रसादयेद् विब्भल-विह्विलो-जडप्रकृतिः। आव. ५०९। विह्वलःविविधैरुपायैरिन्द्रियप्रणिधानाप्रमो-दादिभिः प्रसन्नं । अर्दवितर्दः। विदध्याद्। आचा० १६६। विभंग-विरुद्धा भङ्गाः-वस्तुविकल्पा यस्मिस्तद्विभङ्गं विप्पह- विपथः-विरूपमार्गः। उत्त०५४८1 तच्च तज्ज्ञानं च, अथवा विरूपो भगः अवधिभेदो विप्रारद्ध-विविधं खरपरूषवचनैर्निवारितः विप्रारद्धः। ब्रह. विभङ्गः। भग. ३४४। विभङ्गः-गणानां विराधना। ११४ । अब्रह्मणश्चतुर्दशं नाम। प्रश्न०६६। विविधो भङ्गो विप्पास- विपुषः मूत्रपुरीषावयवा अथवा वित्ति विट्विष्टा विभङ्गः विभागो-विचारः। सूत्र० ३०६। विभङ्गःपत्ति-प्रस्रवणं-मूत्रम्। प्रश्न० १०५१ ज्ञानविशेषः। सूत्र० ३१८ विभङ्गः-विभागः स्वरूपम्। विप्पित- नाम जस्स जायमेत्तस्सेव अंगुष्ठापादसेणी सूत्र० ३२७। वस्तुभङ्गो वस्तुविकल्पो यस्मिंस्तद् मज्झि-माहिं च मडिज्जंति। निशी० ३४ अ। विभङ्गः। स्था० ३८३। विभङ्गः-मिथ्या-दृष्टेरवधिः। विप्पुस- विप्रड्-लवः। पिण्ड०७२। स्था० १५४। विभङ्गः-विपरीतो भङ्गो-परिच्छिति विप्पेक्खित- विप्रेक्षितं-निरीक्षितम्। प्रश्न० १३९। प्रकारो यस्य तत्। प्रज्ञा० ५२७। विप्पोसिय-विप्रोषितः देशान्तरे प्रवासं कृतवान्। सूर्य विभंगन्नाण- विभड़गो मिथ्यादृष्टेरवधिः स एव ज्ञानं विभङ्ग-ज्ञानम्। स्था०५४। विप्फालणा-वियडणा। निशी. २९३ अ। विभंग- वनस्पतिविशेषः। भग०८०२१ विप्फालिय- विस्फारितं-रविकिरणैर्विकाशितम्। जीवा० । विभंगू- तृणविशेषः। प्रज्ञा० ३३ २९ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [211] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text) विभज्जवाओ विभज्यवादः पृथगर्थनिर्णयवादः स्याद्वदो वा सूत्र. २५० विभत्त विभक्तं दृश्यमानान्तरालम्। भगः ३०८1 विभक्त:- भोजनविशेषरहितः। जम्बू० १७० विभक्तःविभागः । उत्त० ३०५ विभक्तः भोजनविशेषरहितः । भग० ३०८१ विभक्तं पृथग्भूतम्। आचा० २६५ विभत्ति विभक्तिः विजनं विविक्ता ज्ञाता० १२ | विभजनं पार्थक्येन स्वरूपप्रकटनम् । नन्दी० २०५१ विभक्तिः-तत्तद्भेदादिदर्शनतोऽपि विभागेनावस्थापनं जीवाजीव विभक्तिः उत्त• ६७१। विभत्तिभाव विभक्तिभावं विभागरूपं भावं - आगम-सागर- कोषः ( भाग : - ४ ) नारकतिर्यग्-मनुष्यामरभवेषु नानारूपं परिणाममित्यर्थः । भग० १७४ विभत्ती-विभज्यते प्रकटीक्रियतेऽर्थोनयेति विभक्तिः । अनुयो० १३४॥ विभजनं भक्तिःएवंभूतमनवद्यमित्थंभूतं च साव-यमित्यर्थः । दशवै० १४। विभजनं विभत्तिः- विषयविभाग- कथनम्। दशवै० ७५/ विभयति विभजते-विलुम्पति । आचा० १२३| विभयनं दानम् | निशी० १३० आ । विभाग- विभागः- विभजन उचितस्थाने तदवयवनिवेशनम्। जम्बू० २०७| विभागः - विशेषः । दशवे. १९२१ विभाग:- भेदः। ओध. १२० अणुवादी अत्थो । निशी० १४६ अ | वित्थरो । निशी० १४६ अ । विभागः प्रकारः । व्यव० २१३ आ । विभागनिष्पन्न द्रव्यप्रमाणे द्वितीयो भेदः स्था० १९८ विभागरइय विभागरचितः विभक्तिपूर्वकं क्लृप्तः । जम्बू० १०४ | विभागौदेशिक विभागाख्यो औद्देशिक द्वितीयभेदः । पिण्ड० ७७ | विभातिया जामेहिं निशी० २८३ आ विभाव-विभाओ । आव० ३८६ | विभावए विभाव्य- निरुप्य ओघ १६५ विभावणा विभावना विस्तरतः प्रकाशना प्रज्ञा० ५०० | सविभागः पदच्छेदः । बृह० २५अ विभासए विभासकः-सामायिकस्य अनेकधाऽर्थमभिधत्ते । आव० ९६| मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] विभासा- महानदीविशेषः । स्था० ४७७ । विविधा भाषा विभाषा पर्यायशब्दैः तत्स्वरूपकथनम्। आव-८६ विविधा भाषा विभाषा विषयविभागव्यवस्थापनेन व्याख्या। आव० ५०८ | विभाषा व्याख्या । पिण्ड० १७२। विभाषा - विकल्पः । दशवै० १३० | विभाषा-भावना । पिण्ड० ९८। विभाषा- विविधं भाषणम् । पिण्ड० १२९ | विभाषा - आदेशानादेशादिभेदादनेकभेदा भाषा । उत्त ४३ | विभाषा व्याख्या- विविधैर्वा प्रकारैर्भाषणं विभाषाभेदाभिधानम् । उत्त० २३७ । विभाषा-विकल्पना । ओघ० ४२, ५३ | वक्खाण | निशी० ९७ आ । विभाषा । विशे० ५९३| विभासितं विविधं भाषितुं विभाषितुम् । आव• ६७ विभासियव्वा विभाषितव्या विशेषेण व्यक्तं वक्तव्याः । उत्त० ६७७ | विभिन्न- विविधप्रकारैरुवं तिर्यक्च अवतीर्णः । उत्तः ४६०| विभुल्ल भ्रष्टः आव० १०८८ विभूई- विभूती- परसम्पत् । आव० ५८७ । विभूती- विच्छई एवंविधविस्तारः । जम्बू. १९२ विभूती विभूतिः सर्वविभूतिनिबन्धनत्वात्, अहिंसायाः द्वाविंशत्तमं नाम प्रश्न० ९९| विभूसा विभूषा उपकरणगता उत्कृष्टवस्त्राद्यात्मिका । उत्त० ४२११ विभूषा करचरणपायूपस्थमुखप्रक्षालनादिका वस्त्रभाण्डकादिप्रक्षालनात्मिका वा आचा० ४७ विभूषा राढिः। दशवै० २०६। विभूषा वस्त्रादिराढा । दशवै० २३७ | ण्हाणुव्वलणउज्जलवेसादी । दशवै० १२७ । विभूसावत्तिए विभूषां वर्त्तयितुं विधातुं शीलमस्येति विभूषावती उत्त० ४२६ विभूसावत्तिय विभूषाप्रत्ययं विभूषानिमित्तम् । दशकै २०६। विभूसिय- आभरणालङ्कारेण विभूषितम् । जम्बू० ४२० विभ्रमविक्षेपकिलिकिञ्चितादिविमुक्तत्वं विभ्रमोवक्तृमनसो मान्तता विक्षेपः तस्यैवाभिधेयार्थ प्रयत्नासक्तता किलि-किञ्चित्वं [212] रोषभयाभिलाषादिभावानां युगपवा सकृत्करणमादिशब्दान्मनोदोषान्तरपरिग्रहस्तैर्विमुक्तं यत्तत्तथा *आगम - सागर- कोष" (४) Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] तद्भावस्त-त्त्वम्। एकोनत्रिंशत्तमवाणिगुणः। समः । तीर्थकृत्। सम० १५४। विमलः-स्वाभाविकागन्तु६३ कमलरहितः। जम्बू. १०२ विमलकूट-सौमनसवविमंस-विमर्श:-शिक्षकादिपरीक्षणम। भग० ९१९। चित्तो- क्षस्कारकूटनाम। जम्बू. ३५३। विमलः-सम्यग्दृष्टौ दध्वं क्षयोपशमविशेषात्स्पष्टतरं महाबलस्य राज्ञश्चित्रकारः। आव०७०६। विन्ध्यगिसदभूतार्थविशेषाभिमुखमेव रिपादमूले सन्निवेसः। निर० ३३। विमलः-चतुः प्ततिव्यतिरेकधर्मपरित्यागतोऽन्वयधर्मापरित्यागतोऽन्वय तममहाग्रहः। जम्बू. ५३५ क्षीरो-दसमुद्रपूर्वार्धाधिपधर्मविम-र्शनं विमर्शः। नन्दी. १७६) तिर्देवः। जीवा० ३५३ विमण-विमना-विगतं-भोगकषायादिष्वरतौ वा मनो विमलघोस- जम्बौ अतीतयामुत्सर्पिण्यां पञ्चमकलकरः। यस्य स। आचा. १९३। विमनस्कः-अन्यचितः। दशवै. स्था० ३९८। भरते भूतकाले पञ्चमकुलकरः। सम० १७७। अण्वउतो। दशवै० ८१। विमनः-शोकाकुलमनः। १५० जम्बु. १६० विमनः-विगतं मनः-चित्तमस्येति विमलप्पभ-विमलप्रभःविमनः। उत्त० ३६७। क्षीरोदसमुद्रस्यापरार्द्धाधिपतिर्देवः। जीवा० ३५३। विमणोवन्नग-ग्रैवेयकानुत्तरलक्षणविमानोत्पन्नः- विमलवरचिह्नपट्ट- वीरातिवीरतासूचकवस्त्रविशेषः। कल्पातीतः। स्था० ५७ जम्बू. २१९ विमत्तग- मत्तगपमाणाओ हीणो। निशी. १११ आ। विमलवाहण-अस्यामवसर्पिण्यां प्रथमकलकरः। स्था० विमत्तोय-विमात्रको-मात्रकान्मनाक् समधिक उनतरो ३७९। प्रथमकुलकरः। सम० १५०| विमलवाहनःवा। व्यव. ३२४१ आ। प्रथमकुलकरः। आव० १११। विमलवाहनः-सप्तमक्विमल- गोशालकभवः। भग० ३८९। लकरः। जम्बू. १३ देवसेनराज्ञोः हस्तिरत्नम्। स्था० षट्सप्ततितममहाग्रहः। स्था०७९। ४५९। भरते आगामिन्यामुत्सर्पिण्यां पञ्चमकलकरः। अजीतनाथपूर्वभवनाम। सम० १५१। ऐरवते सम० १०४१ स्था० ५१२। तृतीयतीर्थकृत्पूर्वभवनाम। भावीतीर्थकृत्। सम० १५४। त्रयोदशम तीर्थकृत्। भग० सम० १५१। ऐरवते भावी प्रथम कुलकरः। सम० १५३। ६८९। विमलः प्रभा सा तन्निवबन्धनत्वात्। अहिंसायाः भरत भावी दशमचक्री। सम० १५४| गोशालकभवः। अष्टपञ्चाशत्तमं नाम। प्रश्न. ९९। विमलः भग०६८८ विमलवाहनः-शतद्वारनगरे नृपतिः। विपा० देवविशेषः। जम्ब० ४०५। विमलः-विमानविशेषः। औप० । ९५ विमलवाहनः-नामविशेषः। आव० ११० ४। विमलः-स्वाभाविकागन्तुकम-लरहितः। जीवा. विमलवाहन-कुलकरः। भग० ८४८ लकरविशेषः। नन्दी. २६७। विमलः-क्षीरोदसमुद्रस्य पूर्वार्द्धा-धिपतिर्देवः। २४ जीवा० ३५३। विमलः-आगन्तुकमलरहितः। जीवा. विमला- नवमी दिशा। स्था० १३३| धरणेन्द्रस्य दवितीया२७ सप्तसा-गरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम० ग्रमहिषी। स्था० २०४१ नवमी दिशा। स्था० ४७८१ सम १३विंशतिसागरो-पमस्थितिकं देवविमानम्। सम० १५१ नवमी दिशा। भग० ४९३। कालवाललोकपालस्य ४१। विगतागन्तुकमलम्। भग० ६७२। प्रथमाऽग्रमहिषी। भग० ५०४। गीतरतिस्य आगन्तुकमलरहितम्। जीवा० १२३। विमलं-रजसा द्वितीयाऽग्रम-हिषी। भग० ५०५। उर्द्धदिक्। आव० २१५। रहितं कलङ्कविकलं वा। जीवा० १६४। विमलं संशयविपर्ययानध्यवसायमलरहिता मतिः। आव. आगन्तुकमलरहितम्। जीवा० १९८१ विगतमलो विमलः | ४१४। धर्मकथायाः पञ्चमवर्गेऽध्ययनम्। ज्ञाता० २५२। विमलं वा ज्ञानादीनि यस्य स, यस्मिन् गर्भगते मात्ः | विमाण- प्रस्तरैकदेशः। भग० २२११ विमानं-वैमानिकनिशरीरं बुद्धिश्वातीव विमला जाता तेन विमलः, वासः। प्रश्न ७०| एकादशमं स्वप्नम्। ज्ञाता०२० त्रयोदशमजिनः। आव. ५०४ रजसा रहितं, विमानं-ज्योतिष्कवैमानिकदेवसम्बन्धिगृहम्। प्रश्न कलङ्कविकलं वा। प्रज्ञा० ९१। आगमिन्यामुत्सर्पिण्यां | ९| विमानम्। जम्बू० ३९६। विमानं मनि दीपरत्नसागरजी रचित [213] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] १६१ प्रमाणागुलप्रमेयः। अनुयो० १७१। विमुकुल- विकसितम्। प्रश्न. ५९। विमाणछिद्द-विमानछिद्दः। प्रज्ञा० ७७। विमुकुलितं- विकसितम्। जीवा० २६७। विमाणण- विमाननं-कदर्थनम्। प्रश्न. ५७। विमुक्ख-विमोक्षः-परित्यागः। आचा. २६० विमाणणा- विमानना-कदर्थना। प्रश्न. ९७। | विमुत्तया- विमुक्तता धर्मोपकरणेष्वप्यमूर्छा। दशवै. विमाणनिक्खुड- विमाननिष्क्टः । प्रज्ञा० ७७) २६३। विमाणपत्थड- विमानप्रस्तरः। सम० ७७। विमानप्रस्तटः | विमुत्ति- विमूर्तिः-विकृतनयनवदनादित्वेन उत्त-रार्धव्यवस्थितः। सम० २६। विमानप्रस्तटः। स्था० | विकृतिशरीरा-कृतिः। प्रश्न. १२१| २६७। विमानप्रस्तरः विमानभूमिरूपः। प्रज्ञा०७१। विमुत्ती- विमुक्तिः-आचाराओं विमा-नप्रस्तटः प्रमाणाङ्गुलप्रमेयः। अनुयो० १७१। पञ्चविंशतितममध्ययनम्। उत्त० ६१७ आचाराओं विमाणपविभत्ती- आवलिकाप्रविष्टानामितरेषां वा पञ्चविंशतितममध्ययनम्। सम०४४। विमुच्यते प्राणी विमानानां वा प्रविभक्तिः-प्रविभजनं यस्यां ग्रन्थपद्धतौ सकलबन्धनेभ्यो यया सा विमुक्तिः। अहिंसाया सा विमानप्रवि-भक्तिः । नन्दी . ५५ द्वादशमनाम। प्रश्न. ९९। विमुक्तिः -आचारप्रकविमाणभवण- एकमेव यत्र विमानाकारं भवनं ल्पद्वितीयश्रुतस्कन्धस्य षोडशममध्ययनम्। प्रश्न विमानभवनम्। अथवा देवलोकादयोऽवतरति तन्माता १४५ विमुक्तिः-आचारप्रकल्पस्य पञ्चविंशतितमो विमानं पश्यति यस्तु नरकात् तन्माता भवनमिति। भेदः। आव०६६० भग. ५४३। विमान-भवनं-वैमानं-देवनिवासः। आव. | विमृश्यकारी-विनयपरायणो गुरुशिष्यः। नन्दी० १६०, १७८ विमाणवरपुंडरीय- विमानानां मध्ये उत्तमत्वात् विमोइय- विमोचितं-स्वस्थानाच्चालितम्। ब्रह. २१९। विमानवरपु-ण्डरीकम्। ज्ञाता० ३१| विमोयणा- विमोचना-क्षपणा। उत्त० ५९४१ विमाणवास- विमानवासः-सरलोकः। आव० ५४३ विमोह- मोहसमुत्थेषु परिसहोपसर्गेषु पादुर्भूतेषु विमोहो विमाणा- विमानानि भवेत् तान् सम्यक् सहेतेति यत्राभिधीयते स विमोहः। ज्योतिष्कादिसम्बन्धीन्यनत्तरविमाना-न्तानि। आव. स्था० ४४५। विमोहः-आचारप्रकल्पे प्रथमश्रुतस्कन्धस्य ६०० सप्तम-मध्ययनम्। प्रश्न. १४५१ विमोहः-विमोह विमाणावलिया-विमानावलिका-आवलिकाप्रविष्टः- इवाऽल्पवेदा-दिमोहनीयोदयतया विमोहः अथवा मोहो ग्रैवेयकादिविमानानि। प्रज्ञा०७१। विधा द्रव्यतो भावतञ्च, द्रव्यतोऽन्धकारो भावतश्च विमाणावली- विमानावलिः-विमानपक्तिः । अनयो. मिथ्यादर्शनादिः, स विविधोऽपि १७१] सततरत्नोद्योतित्वेन सम्यग्दर्शनस्यैव च तच्च विमाणोववण्णगा- विमानेषु-सामान्येषूपपन्नः सम्भवेन विगतो येषु ते विमोहः। उत्त० २५२। विमोहःविमानोपपन्नाः। सूर्य २८११ आचाराङ्गस्य सप्तममध्यनम्। उत्त०६१६। सम०४४। विमाणोववन्ना- विमानोपपन्नः-विमानेषु सामान्यरूपेषु | विमोहाइ- विमोहानि-विगतो मोहो येषु येषां वा येभ्यो वा उपपन्नः। जीवा० ३४६। विमानेषु-सामान्येषूपपन्ना तानि। आचा० १८९ विमानोपपन्नाः । सूर्य. २८१। | विमोहानि- विगतो मोहो येषु तानि विमोहानि, विमान- विविधं मान्यते-उपभुज्यते पुण्वद्भिर्जीवैरिति भक्तपरिजेगि-तमरणपादपोपगमनानि। आचा० ९६| विमानम्। प्रज्ञा० ७०। विशेषेण-मानयति उपभञ्जति | विम्हावण-विस्मयकरणम्। निशी. ७ आ। सुकृतिन एनमिति। उत्त० ७०१। वियंगिया- व्यङ्गयति। आव० २७२। विमाया-विमात्रा-विविधामात्रा-विचित्रपरिमाणाः। उत्त. वियंगेति- व्यङ्गयति-विगतकर्णनाशाहस्तायङ्गान् २८१ करोति। ज्ञाता० १८५ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [214] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text) वियंभिय- विजृम्भितः प्रबलीभूतः । ज्ञाता० ६५ वियंभिया विजृम्भिता । ज्ञाता० १५७| विय व्ययो विगमः मानुषत्वादिपर्यायः स्था० ३४६ । विच्च विज्ञानम् । स्था० ४६५% विद्वान् विदितवेदयः । सूत्र० ४० वियइ विगतिर्विगमः । स्था० २०१ वियक्क वितर्कः पूर्वगतश्रुताश्रयो व्यञ्जनरूपोऽर्थरूपो वा। स्था॰ १९१। वितर्कः-पूर्वगतश्रुताश्रयो व्यञ्जनरूपोऽर्थरूपो वा यस्य तद् भग० ९२६ ॥ वितर्कःविकल्पः औप. ४४ वितर्कः पूर्वगतश्रुताश्रयी व्यञ्जनरूपोऽर्थरूपो वा विकल्पः । औप० ४४॥ वितर्क:मीमांसा सूत्र ३९५ स्था० १९१ वियक्का वितर्का मीमांसा स्वोत्प्रेक्षितासत्कल्पना । सूत्र० ३६| वियक्खण- विचक्षणः चरणपरिणामवान् । दशकै० ९९| वियक्खणा- विज्जभीरूणो । दशवै० ४१ | वियक्खमाण- विविधं सर्वासु दिक्षु पश्यत् । ओघ० १२७१ वियच्चा विगतेः प्रागुक्तत्वादिह विगतस्य विगमवतो जीवस्य मृतस्येर्त्यः अर्चा-शरीरं विगताच विवर्चाविशिष्टोपपत्ति-पद्धतिर्विशिष्ट भूषा वा स्था० २०१ विग्रह व्यावृत्तं निवृतमपगतम् । सम० ४। मत्तः । आव ० ७१६ | निकलः । आव० ६७६ । वियदृइ- व्यवर्त्तते-रुष्यति वा । आव० ५६७ । प्रमाद्यति - स्खलति । आव० ७०१ | वियहछउम व्यावृत्तं निवृत्तमपगतं छद्म-शठत्वमावरणं वा यस्यासौ व्यावृत्तउद्मा भग०७ वियदृच्छउम व्यावृत्तच्छद्या व्यावृत्तं निवृत्तमपगतं छद्रांशठत्वमावरणं वा यस्य स तथा तेन आगम - सागर - कोषः ( भाग : - ४) व्यावृत्तछद्मः । सम० अ वियट्टमाण- विवर्तमानो- विचरन् । ज्ञाता० ६९ | वियट्टितए विवर्तितुं आसितुम्। आचा० ३६५ वियट्ठ- विकृष्टं दूरम्। ज्ञाता० १| वियड- विकटं प्रासुकम्। आचा० ३०५| विकटं प्रकटम् । सूत्र. ६७। विकटं प्रासुकोदकम्। सूत्र• १६२१ विकटंविगतजीवम्। सूत्र० १८१ । विकटं प्रभूतम् । सूत्र० ३१२ विवृत्तं - अनावृतम् । स्था. १५७ समयभाषया जलम् । स्था० ३१३ | विकटम् । आव ३५४१ मदयम् आक• ८५४ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] विकृतं - वहन्यादिना विकारं प्रापितम्। उत्त॰ ८६। विकटः- विस्तीर्णः । ज्ञाता० १६० एकपञ्चाशत्तममहाग्रहः । स्था० ७९ | विकटःपञ्चाशत्तममहाग्रहः । जम्बू• ५३५१ विकटं- जालम् । भग० ६६८| विकटो-विस्तीर्णः । भग० ६७३ | पानकाहारः । स्था. १३९। ववगयजीवियं निशी. १९६अ। निशी. १०१ आ। व्यपगतजी-वम्। निशी० ११८ आ । मज्झतं । निशी० ३५ अ । व्यपगतजीवम् । निशी. १८८अ मंडवो । निशी० ६९ आ । विकटो- विस्तीर्णः । उपा० २५ ॥ विकटं-सूक्ष्ममतिगम्यतया दुर्भेदम्। पिण्ड- ८१। विकटः शीतोदकलक्षणं विकट जलम्। सम० ४०% विकटं-मध्यम् । उत्त० २१११। विकटं-मध्यम् । पिण्ड ८२ विकटं विस्तीर्णः । जीवा० २७१। वियडगिह- विवृतगृहं- अनावृत्तं गृहम् । बृह० १७९ अ वियडघड- चित्रघटम् । उत्त० २६३ ॥ वियडजाण- विवृतयानं-तल्लटकवर्जितशकटम्। भग० ५४७ | वियडण विकटनं आलोचना। बृह० १४ अ वियडणा आलोयणा । निशी० ५१ अ विकटना आलोचना आव० ७६५१ विकटना-आलोचना। ओघ० १७५१ विकटना-आलोचना ओघ० २२५| विकटनाआलोचना । पिण्ड० १२६ । [215] वियडत- विकटयन्- सम्यगालोचनम् । पिण्ड० १४८ | वियडपाओ - विकटपादः परस्परबह्वन्तरालपादः । पिण्ड० १२५| वियडभाव विकटभावः प्रकटभावः। दशवे. २३३| वियडभावा शुद्धभावाः । मरणः । वियडभोड़ विकटे प्रकटप्रकाशे दिवा न रात्रावित्यर्थः, दिवाऽपि चाप्रकाशदेशे न भुङ्क्तेअशनाद्यभ्यवहरतीति विकटभोजी । सम० २० | व्यावृत्ते सूर्ये भुङ्क्ते इत्येवंशीलो व्यावृत्तभोजी प्रतिदिन भोजीत्यर्थः । भग० ११८ । अरात्री भोजी उपा० १६। विकटभोजी प्रकाशभोजी। आव० ६४७ | वियडा विवृता विपरीता । स्था० १२२ ॥ विवडावाइ विकटापाती वृत्तवैताढ्यः पर्वतः जीवा० ३२६| वियडित्ता प्रावृत्य आव० ६८६ । - "आगम- सागर-कोषः " (४) Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] ७३ वियडी-अटवी। ज्ञाता०६३ ओघ०८६) वियडीकरण-विकटीकरणं, वियरइ- ददाति। ओघ० १६११ विकसितमुकुलितार्द्धमुकुलितानां भेदेन विभजनम्। | वियरई- अनुजानाति। ज्ञाता० १४०। आव०६५२। वियरग- कविया। निशी० १७१ आ। विदरको गर्ता वियडि- (देशीवचनं) तडागिका। उत्त. १३८1 व्याघातः। बृह. १७ । वियड्ढगिरिविभत्त- विजयार्द्धगिरिविभक्तम्। प्रश्न. | वियरय- जलाशयः, स च षोडशहस्तविस्तारः। व्यव० २७५ अ। वियरयः-षोडशहस्तविस्तारो नदयां वियण-व्यञ्जनं-वायूदीरकम्। प्रश्न०८। महागर्तायां वा। व्यव० २२२ आ। वियरयः-लघुश्रोतः। युवत्त्यादिव्यतिरिक्त-शेषजनापेक्षया विगतजनं व्यव. २२२ आ। वियरयं-वितरकम्। आव० ३८८ वियतजनं विजनम्। आव० ५९२ व्यञ्जनविषया वियरिज्जइ- वितीर्यते-दीयते। उत्त० ३६० विद्या यया व्यञ्जनमभिमन्त्र्यि तेनातरोऽपम- वियरिय-विचरितं-इतस्ततो गतम्। जीवा. १८८1 ज्यमानः स्वस्थो भवति सा व्यञ्जनविदया। व्यव० वियल-विदलः-वंशार्द्धः। भग० ६२८१ १३३ आ। वियलकिल-वंशाद्धानं कटम्। भग०६२८१ वियणाविभाणियव्व- सूचितवचनान्यप्युक्तन्यायेन वियवासी- म्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा०५५ सर्वाणि भावनीयानि। सम० १४४। वियसिय- विकसितम्। आव० ६८६। वियती- विगतिर्विगमः। स्था० १९| वियाइया- प्रसूता। आव० ३०७ वियत्त- व्यक्तः-बालभावान्निष्क्रान्तः। परिणतबुद्धिः। | वियाण-विशिष्टविबोधः। आचा० ३५। अणेगाणं संघातं, सूत्र. २७३। व्यक्तः-भावतो गीतार्थः। स्था० २०० अहवा वल्लिरेव वियाणं वितण्णत इति वियाणं। निशी. विशेषेण-अवस्थाद्यौचित्येन विशेषानभिहितमपि ९८ । दत्तं-वितीर्णमभ्य-नुज्ञातम्। स्था० २०० व्यक्तः- वियाणाइ- विजानाति-गमयतः। बृह. २२५ अ। चतुर्थो गणधरः। आव० २४०। अन्नपाणे अप्पडिबद्धो। वियाया- प्रजनितवती। आव० ६८२ विजाता। उत्त० ३०१। दशवैचू ८३ वियार- चालनेत्यर्थः। स्था०६। विचारः-अर्थव्यञ्जनयोगवियत्तकिच्च- व्यक्तस्य-भावतो गीतार्थस्य कृत्यं- सङ्क्रमः। आव०६०७। उच्चारपासवणं। निशी० १८ अ। करणीयं व्यक्तकृत्यं-प्रायश्चित्तम्। विचारः-प्रश्रवणम्। बृह० ३०६। संज्ञाभूमिः। बृह. २ अ। यत्किञ्चिन्मध्यस्थगीतार्थेन कृत्यं अनुष्ठानं तद् विचारणीयं-शोभनतया निरूपणीयं पर्यालो-चनीयं वा। विदत्तकृत्यं प्रायश्चित्तम्। स्था० २००| त्यक्तचारित्रः। सूत्र. ३६१। विचारः-परीषोत्सर्गः। आव०७९८१ विचारःनिशी. ९८ आ। अवकाशः। ज्ञाता० १११ विचारः-अर्था-व्यञ्जने वियत्ता- व्यक्ताः-वयःश्रुताभ्यां परिणताः। सम० ३६| व्यञ्जनादर्थे मनःप्रभृतियोगानां चान्यस्मादन्यस्मिन। वियत्ताए- वस्त्रा। आव. २०९। विचरणं विचारः। भग. ९२६। विचार:वियत्थि-वितस्तिः द्वादशाङ्गुलप्रमाणा। प्रज्ञा० ४८१ उच्चारादिपरिष्ठा-पनम्। व्यव० २५ । विचारःवियद्द-विविध-तईतीति-वितर्दः-हिंसकः। आचा० २५२ गमनशक्तिः । पिण्ड० १६३ वियत्पाण-विदात्मा। मरण। वियारक्खमत्तं-विचारक्षमत्वम्। आव० ३९४१ विययपक्खी- विततौ-नित्यमनाकञ्चितौ पक्षौ येषां (तौ) | वियारजोग्गं-बहि मिगमनयोग्यः। ओघ०४१। विततपक्षौ तदवन्तो विततपक्षिणः। प्रज्ञा०४९। वियारणा- विचारणा। ओघ. १६५ वियर-विदरो-नदीपलिनादौ जलार्थो गतः। स्था० २८३। वियारणिया- तानेव विदारयतः। स्था० ३१७ विदारणी क्षुद्रनद्याकारो नदीपुलिनस्पन्दजलगतिरूपः। ज्ञाता० | विंशतिक्रिया मध्ये त्रयोदशमी। आव० ६१२। ६३| विवरम्। ज्ञाता० ९९। ज्ञाता० २२९। प्रयच्छना। | वियारभूमि-विचारभूमिः-संज्ञाव्युत्सर्गभूमिः। आचा० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [216] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text) ३२४| विचारभूमिः विष्ठोत्सर्गभूमिः । आचा० ३३३ विचारभूमिः सञ्ज्ञाकायिकाभूमिः | ओघ ८२ विचारभूमिः बहिर्गमनभूमिः । आचा० ३७६ | सण्णावोसिरणं निशी. १४८ आ विचारभूमि:पुरीषोत्सर्गभूमिः । व्यक ९अ । वियारिओ कण्णचवेडयं निशी. २९९ अ वियारी विभक्तीपरिणामेन चन्द्रादिभिः सह सामानाधिकरण्येन योजनीयम् । सूर्य० २७२१ वियारेइ- जीवं विचारयति असन्तगुणैः । आव० ६१४। वियाल- विकालः । आचा० ३६१ व्यालं दृप्तं दुष्टमित्यर्थः आचा० ३३८ | व्यालं दर्पितम्। आचा० ३८४ सन्ध्या । ज्ञाता० ९७| विकालः सन्ध्या । विपा० ६९| संज्ञावगयो। निशी० १९३ | बीए विगमो वियामलो, अथवा संझावगमे, संज्ञे अथवा जंसि काले चोरदिया रज्झन्ति सा राती संज्झावगमो निशी० २६५ आ । विगतः सन्ध्याकालोऽत्रेति कृत्वा विकालः । सन्ध्या-विकालः । सन्ध्यावियुता रात्रिः विकालः । व्यव० ९२आ। विकालम् । आव. १९६, २०३। विकाल अपराह्णः । दशवे. १२ विकालः | आव० ४२६ | विकालः । दश० ५८१ विकालः । आव० ६१७ | आगम - सागर - कोषः ( भाग : - ४) विद्यालए दवितीयो महाग्रहः । स्था० ७८| विकालक:द्वितीयमहाग्रहः । सूर्य • २९४| वियालचारी- सन्ध्यायां चरत इत्येवंशीलः । ज्ञाता० ९७ । वियालणा- विचारयति । ओघ० ६८ । विचारयति । ओघ० ६९ | वियालीभूय विकालीभूतम् । आव ४८५ वियावड- व्यातृतः आकुलः | ओघ० १३८ व्यापृतः । आव० २५९। वियावण निध्यापनम्। निशी ११ आ वियावत्त- घोषस्य द्वितीयो लोगपालः स्था० ८९८८ सूत्रे । पञ्चदशमो भेदः समः १२८१ वेयावृत्त्यं अव्यक्तम् । आव० २२७ वियाहिए - व्याख्याता । उत्त० २७०१ विवाहिता - व्याख्याता। आचा० १९१ । वियित्त-विचित्रः कर्बुरः । जाता० १६० वियोगचित्तण- वियोगचिन्तनं विप्रयोगचिन्ता आव ५८४ | मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] विरग- चित्रवर्णकरत्वम् । बृह० १२० आ । विरंचति विभजति ओघ० ८६| विरइयउचिय- विरचित उचितः । भग० ४५१ विरए विरजः सप्ततितममहाग्रहः । जम्बू. १३५१ वियरओ लघुश्रोतरूपो जलाशयः, षोडशहस्तविस्तारः । व्यक २२२ आ विरग विदरकः कूपिका । बृह० १०अ । विरज्जं- पूर्वपुरुषपरम्परागतं वैरं तत्त्वैराज्यम्। तात्कालिकवैरं परग्रामादिदाहजवैरं, अमात्यादिकं मृतप्रोषितनृपं वा राज्यम् । बृह० ८१आ। विरत ब्रह्मलोके तृतीयः प्रस्तरः स्था० ३६७| विरति विरति विवृत्तिः पापात् । अहिंसायाः अष्टमं नाम । प्रश्न ० ९९| विरत्त- विरक्तं विगतरागम्। आचा० १२१ | विरक्तःसर्वथाऽनाच्छादितत्त्वात् । भग० ५७७ । विरक्तः । सूर्य० २३४५ विरक्तः रतिं क्वचिदप्यप्राप्तः प्रश्न- ४११ विरक्त:- अनावृत्तः सूर्य० २३४१ वित्तकाम विरक्तः पराङ्गमुखीभूतः कामः अभिलाषोऽस्येति विरक्तकामः । उत्त० ३९३ | विरमण- अनर्थदण्डविरतिप्रकार:-रागादिविरतिः स्था० २३६ ॥ रागादिविरतिः । सम० १२० अतीतस्थूलप्राणातिपातादर्विरतिः । प्रज्ञा० २९६ । विरय- विरतः-वधादेर्निवृत्तः । भग० २९५ | विरतः-अतीतस्यैषस्य च निन्दासंवरणद्वारेण निवृत्तः आव• ७६२ विविध अनेकधा द्वादशविधे तपसि रतः विरतः । दशक १५२ विरतं-अग्निसमारम्भादेर्निवृत्त विगतरतं वा उत्त० ८८१ यतो निवृत्तः हिंसादिभ्यः । तपसि वा विशेषेण रतः विरतः, विरयो वा निरौत्सुक्यः विरजसो वा अपापः । औप० ४८। विरयण विरचनं निरुहात्मिकमधोविरेको वा । सूत्र• १८०१ विरयति विरमति । ज्ञाता० १६९| विरयाविरइ- विरताविरतिः- देशविरतिः । आव० ७७ | विरयाविरए विरताविरतः श्रावकग्रामः भूतग्रामस्य पञ्चमं गुणस्थानम्। आव० ६५० विरयाविरय विरताविरतः श्रावकः। आव० ४९३ | विरलए विस्तारयेत्। अग. ५३1 विरली - विरलिका - द्विसरसूत्रपटी बृह० २२०अ [217] "आगम- सागर- कोषः " [४] Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] विरलीकृता- प्रसारिता। उत्त० ३६७। प्रश्न ७ विराधना-स्खलना। ओघ० २२५। विराधना विरल्ल-विस्तारणः। व्यव. १० आ। गुणानां। अब्रह्मणोऽष्टाविंशतितमं नाम। प्रश्न०६६। विरल्लयति- विस्तारयति। बृह. २९ आ। विराधना-ज्ञानादीनां सम्यगननुपालना। प्रश्न. १४३। विरल्लिअ-विरल्लितं-विरलीकृतम्। जम्बू. १०४। विराध्यन्ते दुःखे स्थाप्यन्ते प्राणिनोऽनयेति विराधना। विरल्लिआ-विस्तारिता। आवव ४४१। आव० ५७३। विराधना-विदारणा। उत्त० १२१| विरल्लिए- विरलितः-विरलीकृतः। प्रज्ञा. ३०६। विराहिअं-विराधितम्। आव० ७७८1 विरल्लित-विरलीकृतम्। जीवा० २६७। बृह. ९० आ। विराहिओ- विराधितः-दुःखेन स्थापितः। आव. ५७३। विरवण- आक्रन्दनम्। आव० ५८७। विराधितः-देशभग्नः। आव०७७९। विराहित्ति-न्यक्ष्यति। आव. २६२ विरस-विरसः-विगतरसः। ज्ञाता० १११। विगतरसः। विराहिय-विराधितः-सर्वात्मना खण्डितः। प्रज्ञा० ४०५१ भग० ४८४। पुराणादि। प्रश्न०६३। प्राणत्वाद् विराधितं-सुतरां भग्नम्। आव० ६७२। गतरसम्। प्रश्न. १०६। पुराणत्वेन विगतरसम्। प्रश्न. विराहेज्जा- विराधयेत्-विनाशयेत्। पिण्ड० १६० १६३। विरसं-विगत-रसमतिपराणौदनादि। दशवै०१८१| विरिचइ-विभजति। मरण | सब्भावओ विगतरसं। दशवै. ८३। विरसं-विगतरसं विरिचिति-विरिञ्चिति विभजति। ओघ०७५ शीतौदनादि। दशवै. १८७ विरिअं- वीर्य-वीर्यान्तरायक्षयोपशमसमुत्था शक्तिः। विरसाहार-विरसाहारः-विगतरसः पुराणधान्यौदनादिः।। उत्त.१४४१ औप०४० विरिक्क- विरिक्तो गृहीतरिक्तादिभागः। व्यव० २७८ अ। विरसिंग- षटसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम. १२ विरिक्कओ- विरिक्तः। आव० ५५५। विरह-विजनत्वम्। विपा०७३| विरहः। दशवै. ९० विरिक्का- परस्परं विरक्तौ घनं विरिच्य पृथक पृथक् विजणं। निशी० ७८ अ। एगंतं। निशी० २०६अ। जातावित्यर्थः। व्यव० २२७ अ। विरिच्य पृथक् पृथक् एकान्तम्। बृह. ७ अ। विजनम्। ज्ञाता० ७९। जाता। व्यव० २८० अ। विराएमि- विद्रावयामि। आव. १००। विरितोवग्गहिए- विर्योपगृहीतं-जीववीर्योपस्थापितम्। विराओ- विद्रुतः। आव० १०१।। प्रज्ञा०३५७ विरागया-विरागता-अभिष्वङ्गमात्रस्याभावः। सम० ४६। विरिय-वीर्यं जीवप्रभवः। प्रज्ञा०४६३। विरतःविरागता-लोभनिग्रहः। पञ्चदशोऽनगारगणः। आव० आत्मशक्तिः । उत्त. २६७। ६६० विरियलद्धी- वीर्यलब्धिः । भग० ८९। विराडनगर- कृतकराजधानी। ज्ञाता० २०९। विरिली- चतुरिन्द्रियजीवभेदः। उत्त०६९६। विरात-विलीनः। आव० ३०४। विरुंगण-व्यङ्गनम्। बृह. ३०८ अ। व्यङ्गनम्। बृह. विराम-विरामः-अवसानम्। दशवै०८८1 १५१ आ। विराल- बिडालः। आव० ३९९. विरुंगिओ- उपद्रुतः। निशी०५८ अ। विरालिय-पलासक। दशवै०८६ विरुंगिते- छिन्ने। निशी. १३२ । विराली-साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः। प्रज्ञा० ३४॥ विरज्झई-विरुध्यतेअन सम्यक् सम्पद्यते। आव० ४९२। विराविय- बद्धम्। मरण। विरुद्ध-यथा नित्यः शब्दः, कृतकत्वाद् घटवद्। स्था० विरावेमि-भक्षयामि। आव० ३६६। ४९३। विरुद्धो-अक्रियावादी परलोकानभ्यगमात् सर्ववाविरावेहिति-विद्रवयिष्यति। भग० ३०७ दिभ्यो विरुद्धः। ज्ञाता० १९३१ विरुद्धः-अक्रियावादी। विराहण-विराधनं-खण्डनम्। आव. ५८० विराधनं औप० ९०| विरुद्धः-अक्रियावादी। अनुयो० २५) परितापनम्। प्रश्न. २४१ विरुद्धकारणानुपलम्भानुमान- अनुमानविशेषः। स्था० विराहणा- विराधना-खण्डना। सम. ९। विराधना-खण्डना। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [218] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] २६३ विलइत-विलगितम्। आव० ३५०। विरुद्धरज्ज- परस्परवणिग्गमनागमनरहितं राज्यम्। विलइय-विलगितः। आव० ३४३। बृह० ८२आ। आचा० ३७७। निशी० १० अ। विलउलीकारक- विटपोल्लककर्ता-विलोकनाकारको वा। विरुद्धरज्जाइक्कमण- विरुद्धनपयोर्यद राज्य प्रश्न.५८ तस्यातिक्रमः-अतिलङ्घनं विरुद्धराज्यातिक्रमः। आव० | विलएत्ति-आरोहयति। आव०४०८। ૮રરા विलओल- (देशी) लुंटाकः। बृह० १०५अ। विरुद्धानुपलम्भानुमान- अनुमानविशेषः। स्था० २६२ | विलओलगा- लुंटागा। निशी० २१ अ। विरुवरुव- विरुपरुपः-नानाप्रकारः। आव० ३६। विरुप-रुपः- विलक्ख-विलक्षः। आव०६९६) विविधस्वभावः। अन्त०१८ विरूपं-बिभत्सं विलक्खीकओ- विलक्षीकृतः। दशवै० ९८१ मनोऽनालादि विविधं वा मन्दादि भेदाद रुपं-स्वरूपं | विलग-विलगं गण्डः। बृह. २९३ अ। येषां ते विरूपरूपः। आचा० २४५ अनेकप्रकारम्। ओघ. | विलग्ग-विलग्नः-आरूढः। आव० ४३७५ १६०१ विलट्ठी- वियष्टिः-आत्मप्रमाणाच्चतुरगुलन्यूना। आघ. विरुवा- विविधरूपा। निशी० ४३। २१७ विरेग-विरेक:-क्षणिकः। उत्त० १२९। विरेगः-विभजनम। | | विलपितशब्द- प्रलापरूपम्। उत्त० ४२५ ओघ०८६ विलम्बित- त्रयोवंशतितमं नाट्यम्। जम्बू.४१७। विरेडिय- विरक्तः । बृह. २०० अ। त्रयोविंशतितमो नाट्यविधिः। जीवा० २४७ विरेयण- विरेचनं-अधोविरेकः। ज्ञाता०१८१। विरेचनं- विलय- वलकः-दीर्घदारुः, वलयः-वलयाकारः। ज्ञाता० विरेकः। आव०६१० विरेचनं-कोष्ठशुद्धिरूपम्। उत्त० १५७ ४१७ विलवणया-अतिसगातिभूमिभूयत्तणेण विवित्त विरेल्लिओ- प्रसारितः-क्षिप्तः। ज्ञाता० २३२ चेतसोणाय फिट्टाणि विविधाणि विलवइ। दशवै. १५ विरेल्लित-विसारितं-वायुना पुनरपुजीकृतं धान्यम्। | विलवमाण- विलपत्-आर्तं जल्पन्। ज्ञाता० १५७। ज्ञाता० स्था० २७७ २४० विरोध- परस्परपरिहारलक्षणः। नन्दी. २१| विलविय- विलपितः आतस्वरूपम्। प्रश्न० १६०| विरोहति- जन्मान्तरोपस्थानतः प्रादुर्भवति। उत्त० ३६१ | विलसिय-विलसितं-नेत्रविकारलक्षणम्। ज्ञाता० १६५ विलंक- शालनकम्। निशी. १४४| बृह. १६५ विलसितं-द्रुतगतिः। जम्बू०४१६| विलंब-विलम्बः-नवमो दक्षिणनिकायेन्द्रः। भग० १५७ | विलाव- विलापः-आतस्वरकरणम्। प्रश्न० २० विलापः विलम्बः-वायुकुमाराणामधिपतिः। प्रज्ञा० ९४| विलम्बं- शब्दविशेषः। प्रश्न. ४९। परिम-न्थरम्। स्था० ३९७ विलास-स्थानासनगमनादीनां श्लिष्टो यो विशेषोऽसौ विलंबति-विलम्बति-धारयति। सूत्र. १५७। विलासः। भग० ४७८ विलासः-नेत्र-विकारः। भग०४७८। विलंबणा-विलंबना-विलम्बनम। ओघ. २३॥ विलासो-नेत्रचेष्टा। ज्ञाता०१३। नेत्रविकारः। ज्ञाता० विलंबना-विडम्बना-निवर्तना। अनयो० १३९। ५७ नेत्रजो विकारः। ज्ञाता० १४४॥ विलासः-नेत्रचेष्टा। विलंबि-यत् सूर्येण परिभज्य मुक्तम्। व्यव० ६१ अ। औप०१३। विलासः-कान्तिः । औप. ५६। विलासःविलंबिअ-विलम्बितं-परिमन्थरम्। अन्यो० १३३। नेत्रविकारः गतिविलासः। भग० ४६९। शृङ्गारः। उत्त० विलंबिय-विलम्बितः। आव. ९५०। ४२९। नेत्रचेष्टा। जम्बू. ११६विलासः-स्त्रीणां विलबी- जं पुण पिट्ठतो सूरगतातो तं तितं विलंबी, सूरस्स चेष्टाविशेषः। जम्बू. ११६। विलासः-नेत्रविकारः। जीवा. पिट्ठतो अणतरं तं विलंबी। निशी. ९९ अ। २७६। विलासः-नेत्रजो रसविशेषः। प्रश्न. १३९। विल-भगः। बृह. २०३ आ। | विलासः-शुभलीला। सूर्य. २९४१ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [219] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] विशिष्टनैपथ्यरचनादिः। उत्त० ६२६। विल्लहला- स्फीता। आव० ५६६। विलासिता- विलाससञ्जातः अस्येति विलासिता। जीवा० | विवंचि-विपंची-तन्त्री। जम्बू. १०१। २७० विवक्ख- विपक्षः वैधर्म्यम्। स्था० १३। सत्यस्य सुकृतस्य विलासिय-विलासितः-जातविलासः। ज्ञाता०२३२२ च विपक्षः। अधर्मदवारस्य सप्तविंशतितमं नाम। विलिंपइ-अनेकशो लिंपइ। निशी. ७६ आ। प्रश्न. २७ विलिअ- व्यलीकं-वैलक्ष्यं दैन्यम्। जम्बू. २४५ विवक्खापूव्व-विवक्षापूर्वः-विवक्षाकारणं-इच्छाहेतुः। विलिए- व्यलीकृतः-सजातव्यलीकः। भग०६८१| दशवै.४६। विलिखन्- लेखन्या मृष्ट कृष्णः । अनुयो० २२३। विवच्चास-विपर्यासः-मिथ्या। भग. १९३। विलिज्जति- विलीयते-विनाशम्पयाति। आव०६११| विवच्छा- महानदीविशेषः। स्था० ४७७ विलिया- विनिर्जगामः। पिण्ड० ९३। वीडिता-अकस्मा- विवज्जय-विपर्ययः-अतस्मिंस्तदध्यवसायः। आव. त्तद्दर्शनाल्लज्जिताः। बृह. २०५आ। ३६४। विलिहमाणे- विलिखन्। भग. ३६५ विवज्जयइ-विवर्जयति-मोक्षप्रापकतया व्यवच्छेदयति। विलीण- विलीनं-जुगुप्सितम्। प्रश्न०१६। विलीनः। आव. | प्रश्न. १०२ २७४। विलीनः-मनसः कलिमलपरिणामहेत्ः। जीवा. | विवज्जित्ता- विवयं-तदनध्यवसानतः परिहृत्य। उत्त. १९७। जुगुप्सितं संज्ञाकायिकादिकम्। बृह. २८९ आ। ५१६) विलीनसंसार-क्षीणसंसारः। आव० ५४६। विवट्टइ-विवर्तते-सम्पदयते। सूतह० २५८१ विलौय-व्यलीकम्। आव० १७८। विवणि-विपणिः-वणिक्पथः। हट्टमार्गः। राज०३। विलुंगयाम- निर्ग्रन्थः। अकिञ्चनः। आचा० ३२९। विपणिः-वणिक्पथः हट्टमार्गः। औप० ४। दरिद्रापणास्ते विलुंचण- विलुञ्चन-लोमाद्यपनयनम्। प्रश्न० २५॥ विपण्यः आपणस्थिता व्यवहरन्ति ते वा वणिजः। बृह. विलुंगति- विलुम्पति-अविच्छिन्दति। आचा० १२३। विलुक्क- विलुञ्चनं-विच्छित्या विशबरं वा लुञ्चनम्। विवणी-विपणिः-हट्टम्। आव० २२३। जे विणा आवणेण पिण्ड ७६ अब्भडिगा वाणिज्जं करेंति, अवाणियगा। निशी०४५ विलुतिते- लुंटिते। निशी० १९ । विलेपिका- रन्धितवस्तुविशेषः। उत्त०६१। विवण्णं- खदिरकक्कसमाण रसगादिगं च। निशी० ७२ विलेव-विशिष्ट-अतिसूक्ष्मरन्ध्राणामपि स्थगनात् लेपनं- | आ। विपन्नम्। आव० ४२५। विवर्णम्। आव० ७४२, लेपः जत्वादिकृतं विधानमुपरिवर्तते येन स तथा ७४३। विवर्ण-विगतवर्णमाम्लखलादि। दशवै. १८७ विलेपः। प्रज्ञा०६०० विवत्ति-विपत्तिः-कार्यस्यासिद्धिः। बृह. १५८ आ। विलेवी- रब्बा। आव० ४३,। विवत्ती-व्यापत्तिः-विसंवादः। बृह. ४६अ। विलेवीया- विलेपिका काजिका, उदकविलेपिका। बृह. विवत्थ- विवस्त्रः-षट्सप्ततितममहाग्रहः। जम्बू. ५३५। २६७आ। विवधन- विनाशः। ज्ञाता०६९) विलेहण-अनेकशो घट्टनं विलेखनम्। दशवै. १५२। विवन्नओ- रुक्खो। बृह. ३७ आ। विलोल- व्याप्त। मरण। विवन्नच्छंद- व्यापन्नच्छन्दाः-अपेतस्वाभिप्रायः। दशवै. विलोलति-विललति-लठती। प्रश्न. २११ २४८१ विलोलनयण-विलोलनयनः। उत्त० २७४। विवर- विगतवरणतया विवरम्। भग० ७७६। गृहः। जम्बू. विलोलिओ-विलोलितः-मथितः। आव०६६७। १४४। शेषजनविरहः। विपा.५३ विवरं-अप्रकाशः। विलोवए-विलोपकः-यः पथि गच्छतो जनान् वृक्षरहितभूभागः। जम्बू. ११७ सर्वस्वहरणतो लुण्टति। उत्त० २७४। | विवरकुहर- गुहा-पर्वतान्तरम्। भग० ४८३। १५४१ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [220] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] १२७ विवरत्त-जलस्थानविशेषः। ज्ञाता० ३३ प्रबोध्यन्ते यस्यां सा विवाहप्रज्ञप्तिः। भग। विवरय-विवरम्। आव० १२३॥ विविक्तशय्या- सामान्येनैकान्तशय्या। उत्त०६२८। विवरीउप्पाय- विपरीतोत्पातः-अशुभसूचकः विविच्चमाण- विविच्यमानः। मुष्यमाणः। बृह. ११८ अ। प्रकृतिविकारः। प्रश्न०४० विविच्य-त्यक्ता। आचा० ३३२। विवरीतो सुविण्णो- सुइ सुगंधे मेज्झं मेज्झे दिवे विवित- विविक्तः-विकृत्यादिरहितः। उत्त० ५८७) सुविणेफलं मिज्झं भवति अमेज्झे दिढे फलं से मेज्झं विविक्तं-शोभनं प्रचुरम्। आचा० १०० कार्पटिकः। ब्रह. भवति एस विवरीतो सुविणो। निशी० ८६ आ। १३१ अ। विविक्तं-दोषविमुक्तं लोकान्तरासकीर्णम्। विवरीयभासए- विपरीतभाषकः। अनुयो० १४२। भग. ५४३। विविक्तं-परिष्ठापितम्। आव०७३९। विवासमि- व्यवस्यामि-नाशयामि। उत्त० २१९। विविक्तस्त्र्यादिदोषरहितम्। प्रश्न. १२७। विविक्तंविवाइओ- विपादितः-व्यापादितः। उत्त० ४६०। इतरव्यवच्छिन्नम। जीवा० १९। विविक्तंविवइतो- विपादितो-विनाशितः। उत्त०४६० स्त्र्याद्यसंसक्तम्। उत्त० ५८७) विवाओ-विवादः-विप्रतिपत्तिः। प्रश्न. ११६) विवित्तकूड- देवकुरौ विचित्रकूटपर्वतः। जम्बू० ३५४। विवाग- विपाकः-उदयः। सूत्र. १४१। विपाकः- पुण्यपाप- विवित्तवास- विविक्तवासः-विविक्तो रूपकर्मफलम्। विपा० ३३। विपाकः-परिणामः। आव. लोकद्वयाश्रितदोष-वर्जितो विविक्तानां वा-निर्दोषाणां ५८८ विपाकः अनुभावः। आव० ५९८ विपाकः-कर्मणां वासो-निवासो यस्यां सा विविक्तवासः-वसतिः। प्रश्न. फलम्। स्था० १९०। विपाकः-शुभाशुभकर्मपरिणामः। । सम० १२६। विपाकः-विपच्यमानता रसप्रकर्षावस्था। विवित्ता- विविक्ता-ज्ञानोपष्टम्भादिकारणवर्जा। प्रश्न. भग० ४५६। विपाकः-उदयः। उत्त० ३३५। १३९। विविक्ता। आव०१८९। मुषिता। निशी० ५२ आ। विवागपत्त-विपाकप्राप्तः-विशिष्टपाकमुपगतः। प्रज्ञा० । | विवित्ताचरिया- विविक्ताचर्या-आरामुज्जाणादिसु यो ४५९। पसुपं-डगविवजिएस् जं ठाणं| फलगादीण य गहणं तह विवागसूय- विपाकः-पूण्यपापरूपकर्मफलं भणिय एसणिज्जाणं। भग० २९। तत्प्रतिपादनपरं श्रुतं-आगमः विपाकश्रुतम्। विपा० ३३। विविह-विविध-अनेकधा। ज्ञाता०६९। विविध-विचित्रम। विवाद- विप्रतिपत्तिसमुत्थवचनम्। भग० ५७२। वादः- | आव० ५६७। जल्पो विवादः। स्था० ३६५ भंडणं। निशी. ३५ | विविहगुण-विविधगुणः-बहविधप्रभावः। सम० १२५ विवाय- विरुद्धो वादो विवादोः। आचा. १८५ विवादः- विविहत्था- विविधार्थाः-भाषागम्भीराः। सम० १२४ वाक्कलहः। उत्त०४३४। | विविहमुत्तंतरोचिया- विविधा-विविधविच्छित्तिकालता विवाह- व्याख्या-भगवती। स्था० ५१३| व्याख्यायन्ते मुक्ता-मुक्ताफलानि अन्तरा २ ओचिया-आरोपिता यत्र अर्था यस्यां सा व्याख्या। सम० ११५ व्याख्या तत् विवि-धमक्तान्तरोचियम्। जीवा० १९९) भगवती। नन्दी० २०६। विवहः-पाणिग्रहणम्। प्रश्न. विविवाहिसयसन्निकेय-विविधव्याधिशतसन्निकेतम। १३९। विवाहविषये मूलकर्मे दवितीयो भेदः। पिण्ड. उत्त० ३२९ १४२ विवृतरूपा- योनिभेदः। आचा० २४१ विवाहचूलिया- व्याख्या-भगवती तस्याञ्चूलिका विवृताङ्गी- नग्नाङ्गी। नन्दी० १३२॥ व्याख्याचू-लिका। नन्दी० २०६। विवेएज्झा- गच्छेयः। व्यव० १२७ आ। विवाहपन्न- व्याख्याप्रज्ञः-भगवान्। भग० २१ विवेक- देहादात्मनः आत्मनो वा सर्वं संयोगानां विवेचनंविवाहपन्नति- विवाहप्रज्ञप्तिः-पञ्चमाङ्गम्। भग०१॥ बुद्ध्या पृथक्करणम्। प्रत्यपेक्षणम्। स्था० १९२१ विवाह-प्रज्ञप्तिः-विशिष्ट। विवाहा-विविधा विशिष्टा विवेकप्रतिमा- पञ्चप्रतिमायां तृतीया प्रतिमा। सम. ९६| वाऽर्थ-प्रवाहा नयप्रवाहा वा प्रज्ञाप्यन्ते-प्ररूप्यन्ते | विवेग- विवेकः-अशुद्धातिरिक्तभक्तपानवस्त्रशरीर मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [221] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text]] तन्मला-दित्यागः। स्था० १९५। विवेकः-प्रायश्चिते विशेषसामान्यार्थावगह- औपचारिकः। अवग्रहे तृतीयो चतुर्थो भेदः। स्था० २००। ब्राह्यग्रन्थित्यागम्। उपा० भेदः। नन्दी० १७४। ३० विवेकः-परित्यागः। सम०४५। विवेकः विशोधनं- उच्चारादिस्वरहितोपकरणादेः प्रक्षालनम्। बृह. अशुद्धभक्तादित्यागः। भग. ९२०| विवेकः-पृथग्भावः। १५६ आ। उत्त०६२२। विवेचनं विवेकः परित्यागः। ओघ०१५) | विशोधिकोटी- । बृह. १८० । दशवै० २३११ देहादात्मनः आत्मनो वा सर्वसंयो-गानां विवेचनं- विश्रसा- जरा। उत्त० ३९० बुद्ध्या पृथक्करणं-विवेकः। भग. ९२६। विवेकं- विश्रोतसिकः-सन्देहा। उत्त०४९६) विवेचनं-त्यागः। स्था०६५। विवेकः-विशि-ष्टबोधः। विश्रोतसिकः- सन्देहा। उत्त० ४९६। भग० १००| विवेकः-नरकपातनाद्यपायहेत्त्वात् विश्वकर्मा- मायापिण्डदृष्टान्ते नटः। पिण्ड० १३७ परित्यागः। दशवै. ३९। देहादात्मन आत्मनो वा विश्वावसवा- गन्धर्वभेदविशेषः। प्रज्ञा०७० सर्वसंयो-गानां विवेचनं-बुद्ध्या पृथक्करणं विवेकः। | विषमवेलापत्तनस्थ- ग्लानो। दशवै०१८२ औप०४४। विविच्यतेऽनेनेति विवेकः-प्रायश्चित्तम्, | विषयः- | ओघ० १५७ विवेकः-अभावः। आचा० २१७। विवेकः-अनेषणीयस्य | विषयगिद्ध- विषयगृद्धः-शब्दादिविषयानुरक्तः। आव० भक्तादेः। कथश्चित् गृहतस्य परित्यागः। आव०७६४| ५३१| विवेकः-परित्यागः। बृह. १४१ अ। विषयराग-शब्दादिविषयगोचरः विवेगढ़-विवेकार्थः-त्याज्यत्यागादिकः। भग० १०० अप्रशस्तपरिणामविशेषः। आव० ३८७। विवेगपडिमा- विवेचनं विवेकः-त्यागः, स चान्तराणां विषाण- गजदन्तः। जम्बू० २६५५ कषायाणां बाह्यानां च गणशरीराचितभक्तपानादीनां | विष्टर- आसनम्। सम०१५ तत्प्रतिपत्तिर्विवेकप्रतिमा। औप. ३२ विष्ठर-भाजनविधिविशेषः। जीवा. २६६। विवेगभासी- विवेकभाषी-भाषासमित्युपेतः। आचा० ३९२१ | विष्णुकुमार- योजनलक्षप्रमाणशरीरविकृर्वको विवेगारिह- विवेकः-अशुद्धभक्तादित्यागः। तदर्हः। भग० महर्षिविशेषः। उत्त. २०५। वैक्रियलब्धौ दृष्टान्तः। बृह. ९२०| विवेकार्ह-अशुद्धभक्तादिविवेचनम्। औप०४१। १३३। नृपशिक्षायां दृष्टान्तः। बृह. १३४ अ। विवेयग- विवेचकः-परिष्ठापकः। ओघ. १९१| विष्णुमित्र- मानपिण्डोदाहरणे गृही। पिण्ड० १३४। विव्योयण-स्त्रीणामनादरकृतो विकारः। ज्ञाता०१४४ विसंति-विसंकटकेन विध्येते। बृह. १४८ अ। विशालशङ्ग- ग्रहणैषणादृष्टान्ते पर्वतः। पिण्ड. १४६| विसंधिकप्प- विसन्धिकल्पः-एकपञ्चाशत्तममहाग्रहः। विशाला- वापीनाम्। जम्बू. ३७०। कुलवालकभङ्गना जंप,र०५३५१ पुरी। नन्दी . १६७। विसंधी- द्वापञ्चशत्तममहाग्रहः। स्था० ७९। विशालापुरी- यत्र मुनिसुव्रतस्वामिपादुके। नन्दी० १६७। विसंभ- विश्रम्मः। दशवै०६११ विशिष्टवर्णादिगुणोपेत- अभिनवः। जीवा० १२१। विसंभघाती- विश्रम्भघाती-विश्वाघातकः। ज्ञाता० ७९। विशिष्टा-तीक्ष्णा। जम्बू० ५२७। विसंभेत्ता- विश्रम्भयित्वा-केनाप्युपायेनातुलां प्रीति विशेष- भेदः। स्था० ४९३। विशेषः-पर्यवः। भग० ८८९। कृत्वा । आव० ६६२१ एकोनत्रिंशद्विशेषाः। विपा०४५। विशेषः-पर्यायो गणो | विसंभोग-विसम्भोगः-दानादिभिरसंव्यवहारः। स्था० धर्मश्च। प्रज्ञा० १६९ १३९। विशेषतः- अपनर्भावरूपतया। प्रज्ञा० ३। विशेषापगमेन।। विसंभोतित-विसाम्भोगिकं-मण्डलीबाह्यम्। स्था० ३००। प्रज्ञा० ११३| विसंवइया- विसंवदिता। आव०६४। विशेषयति-नैयत्येन स्थापयति। अनयो. २६६। विंसवायण-विसंवादनं-अन्यथा विशेषवचनं- करणं अपवादश्च। जम्बू. ५४११ प्रतिपन्नस्यान्यथाकरणम्। भग०४१२ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [222] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] विसंवायणाजोग - विसंवादनयोगो - व्यभिचारदर्शनाय व्यापारः । भग० ४११। विसंसिज्जड़ विशस्यते आव० ६२४१ विस विश्रः- आमगन्धिः कुथित इति । प्रश्न० १६। विपका लकूटम् प्रश्न० 1 विषं वेवेष्टि व्याप्नोतीति तालपुटादि। उत्त ३१८ विषं गरलम् । उत्त० ४२११ विषम्। आचा० ३३ वेवेष्टि-व्याप्नोति आगम - सागर - कोषः ( भाग : - ४) ज्झगित्यात्मानमिति-विषं तालपुटादि । उत्त० ७११ | विसए विषय:- गोचरो विषस्येतिगम्यते । स्था० २६५ गोचरो ग्राहयोऽर्थः । भग. ६५७| पर्गगविशेषः । प्रज्ञा० ३३ विषदः स्पष्टतया प्रतिभासमानम् । जम्बू. १४४ विसओ विषयः । आव० १७५ । विषयः । आव० ३५५ | विषयः- गोचरः । आव० ५८९ । विषयः । आव० ८५७ | विषयः - मोहः । व्यव० १६७ अ विसकर विषकरः । आव० ४२५ विसकुंभ- लूता निशी ४८ अ विषकुम्भः । व्यक. १३२ अ। विसग्ग विसर्गः आचा० २७११ विसज्जण विसर्जन अनुज्ञा क्रियते व्यव. १५१ अ विसज्जणा विसर्जना प्रायश्चित्तमुक्तलम् । व्यव. १९७ | विसज्जावग नेतुम् आव० ३९५६ विसट्ट- विसर्पत्। भक्त० । विसङ्गति- विकसति । जीवा० २६६| विकसति । जम्बू• १००| विसट्टमाणि विकसन्ति-विदलन्ती । स्था० २६५| विकसन्ती विदलन्ती भग० ३४२ विसण्णा- विविधं अनेकप्रकारं सन्ना- भग्नाः विषण्णाः । उत्त० २६७ | विसत- विषयः- देशः । उत्त० ३०१ | विसतुंड उपद्रवः। निशी० ८७अ विसनंदी- प्रथमबलदेवपूर्वनाम | ०१५३ विसनिग्घायणहेउ- विषनिर्घातनहेतुः । विषनिर्घातननिमित्तम् आव० ४६७। विसनेत्त वृषसागारिकम् । व्यव० २५५१ विसन्न- विषण्णः-असयमः । सूत्र० ११४ । विषण्णःकथममी प्रवणीभविष्यन्तीति चित्तया व्याकुलितः । मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] उत्त० ३६७ | विसपरिणत विसपरिणतः विषरूपापन्नः विषपरिगतः । स्था० २६५ | विसप्प पञ्चमं क्षुद्रं कुष्ठम्। प्रश्न. १६१। विसर्पस्वल्पमपि बहु भवति। उत्त॰ ६६६। विसर्प विसर्पः:- क्षुद्रकुष्ठम्। आचा० २३५॥ विसर्पद्विस्तारयामीति हृदयम् । ज्ञाता० १३ | विसप्पमाणं विसर्पन् विशिष्टस्वप्रमाणः, संचरन् वा । प्रश्न॰ ८३। विसर्पद्-उल्लसत् । जम्बू० १८६ | विसर्पःविस्तारयायि जीवा० २१३| विसभक्खण मरणविशेषः । स्था० ९३ । विसमक्खी विषभक्षी-पर्यन्तदारुणतया विषोपमं फलम्। उत्त० ५०६ । विसमं भूमी भूमीविसमं गर्ता पाषाणाद्याकुलो भूभागः । बृह० २२९ आ । । विसम विषमः - असंयमः । सूत्र. ६० विषयः गर्तपाषाणायाकुलः पर्वतः स्था० ३२८ विषमःविषमभूमिप्रतिष्ठितम्। भग. ३०७/ गर्तपाषाणादिव्याकुलम्। भग० ६८३ विषमं पर्वतादिदुर्गम्। प्रश्न. ४२॥ दुर्गमत्वाद्विषम्। भग ७७६ । विषमं प्रतिकूलम् । सूत्र० ६५| विषमं गतवार्तताद्याकुलं भूमिरूपम्। भग. १७४ विषमंनिम्नं दुःसञ्चरम् । आव ० ५९४ । विषमं - निम्नोन्नतम् । दशकै १६४ विषमं उन्नतम् ओघ० १२७। विषमंसर्वपादेष्वेव विषमाक्षरम् । दशवै० ८८ विषमंदुरारोहस्थानम् । जीवा २८२ विषमं विसमका लम् । सूर्य. १७२ | विषमं निम्नोन्नतम्। आचा० ३३८० विषमं दुर्गमत्वम् । भग• ७७६। विषमं अतिदुर्लक्षतया - तिगहनं विसदृशं वा । उत्त० २४९ ॥ णिण्णोण्णतंनिम्नोन्नतम् | निशी० ३०) णिण्णुण्णतं । निशी. १२९ ॥ विषमं-निम्नोन्नतम्। जम्बू० ३० अ । णिण्णुण्णतं । निशी० १२९ अ । विषमं - निम्नोन्नतम्। जम्बू० ६६। विषमं दुरारोहावरो-हस्थानम् । जम्बू. १२४) विषमःउट्टङ्कादिः । आव० ७९७ । निण्णोण्णतं । निशी० ८८अ । तिव्ररोहादिज-नितातुरत्वं विषमम् । ज्ञाता० ७९ ॥ विसमचक्कोणसंठिए- विषमचतुष्कोणसंस्थितः सूर्य ३६, ६९ [223] "आगम- सागर-कोषः " (४) Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text]] ६९ विसमचउरंससंठाण-विसमचत्रस्रसंस्थानम्। सूर्य भग. २९०| विश्रसा- निर्व्याघातः। प्रज्ञा० ३२९। विश्रसाविसमचक्कवालसंठिए-विषमचक्रवालसंस्थितः। सूर्य स्वभावः। जीवा. २६५। विश्रसा-स्वभावः। आव० ४५७। ३६| विश्रसा-स्वभावः। जम्बू. १००| विसमचक्कवालसंठिया-विषमचक्रवालसंस्थिता। सर्य. विससाबंध-स्वभावसम्पन्नः। भग० ३९४| विससेण-विश्वसेनः-शान्तिपिता। आव० १६१। विसमचारि-विषमचारि-मासविसदृशं नाम। सूर्य. १७२। विश्वसेनः-शान्तिनाथचक्रिपिता। आव. १६२ विसमति- विश्राम्यति। आव०८३२१ विसहनंदी-विशाखानन्दी। विश्वनंदीराज्ञः पुत्रः। आव. विसमपव्वा- एक पर्वलघु पुनर्बहत्प्रमाणमित्येवं या १७ विषमपर्वा। ओघ. २१८ विसा-विषा-परलोकफलविषये सागरपोतदुहिता। आव० विसमेह- विसभेघः-जनमरणहेतुजलमेघाः-मेघः। भग० ८६३ ३०६। विसाएमाण- विशेषेण स्वादयन्। भग०८६३। विसयंगण- विषयो-गृहं-तस्याङ्गणं विषयङ्गणम्। उत्त । | विसाओ- विषादः-दैन्यम्। प्रश्न०६२। विषादः-स्नैहादिसરાકરણ मुत्थः। सम्मोहः। आव० ६२९। विसय- विषयः-मण्डलम्। प्रश्न. ४६। विषदः-निर्मलः। | विसाण- विषाणं-शृङ्गम्। ज्ञाता० १०४| विषाणः-शुकर जीवा. २०७। विषयः-विषीदत्ति-अवबुध्यते येषु प्राणी दन्तः। उपा०४७। विषाणं-हस्तिदन्तः। प्रश्न० ८। इति विषयः शब्दादि। दशवै ८६। विषयः-गृहम्। उत्त. विषाण-शृङ्गः। अनुयो० २१२ २७२। विषयं-रसलक्षणम्। उत्त० २७२| विषदः-निर्मलः। | विसामे- विश्रमयेत्-स्थापयेत्। पिण्ड० १३। जीवा. २७४। विशदः-स्पष्टः। जम्बू.५२७| विषयः- विसामणा- विश्रामणा। आव० १२० शब्दादिः। आव. १६८१ विषदः-निर्मलः। जम्बू. ५२ विसाय-विंशतिसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम. विषयः-देशः। आव०६७३। ३८। विषादः-दैन्यमात्रम्। सम० १२७| विषादः-खेदः। विसयट्ठा- मैथनाध्यासेवनार्थम्। ओघ. १८३। अनुयो० १३७। विषादः-वैक्लव्यम्। आव० ६११। विसयट्ट- विसयासेवी। निशी० ४० अ। विषयष्टः- विसायण- विशायनः-मद्यविशेषः। प्रश्न. १६३। साध्वीकामकः। स्था० १६३। विसारए- विशारदः-अर्थग्रहणमसमर्थः विसयप्पसिद्ध-विषयप्रसिद्धः। आव०७३८५ बहुप्रकारार्थकथनस-मर्थो वा। सूत्र. २३७। विशारदःविसयमेत्त- विषयमात्रं-क्रियाशून्यम्। भग० १५५१ पण्डितः। ज्ञाता० १११ विसयलोलुओ- विषयलोल्पः। आव०४१२। विसारतो- विनिश्चितः-जानेकः। निशी. ९६अ। विसया- विषीदन्ति एतेष सक्ताः प्राणिनः इति विषयाः । विसारय-विशारदः-विपश्चितः। नन्दी. २५० इन्द्रियगोचरा वा। आव०५८४विषीदन्ति धर्म प्रति । विसाल- एकोनविंशतितममहाग्रहः। स्था० ७९। नोत्सहन्ते एतेष्विति विषयाः आसेवनकाले मधुरत्वेन दवितीयक-मिन्द्रः। स्था०८५ विशालःपरिणामे चातिकट्कत्वेन विषस्योपमा यान्तीति औदीच्यक्रन्दित-व्यन्तरा-णामिन्द्रः। प्रज्ञा० ९८१ विषयाः। उत्त. १९० विशालः-पितामहपितृव्या-द्यनेक-समाकुलः। आव० विसरंत-विशीर्यमाणम्। ज्ञाता० १५७ २४०। त्रयोविंशतितमतीर्थकृत्शीविका-नाम। सम० १५१| विसल्लीकरण-विगतानि शल्यानि-मायादीनि यस्यासौ विशालः-सप्तसप्ततितममहाग्रहः। जम्बू. ५३५ विशल्यस्तस्य कारणं विशल्यकरणम्। आव०७७९। अष्टादशसागरोपमस्थितिकं देवविमानम। सम० ३५१ विसवाणिज्ज-विषवाणिज्ज-विषव्यापारः। आव० ८२९। | विशालः-समुद्रः सूत्र०४१। विसवेग-विषवेगः। आव० ३६७५ | विशालकुच्छि- विशालकुक्षी-विस्तीर्णोदरदेशः। ज्ञाता० विससा- विश्रसा-स्वभावः। स्था० १५२ विश्रसा-स्व-भावः। | १३३ मनि दीपरत्नसागरजी रचित [224] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] विशालवच्छ विशालवक्षो विस्तीर्णोौर स्थलम् जाता १३३| विशाला - विशाला - महावीरजननी। भग० ११४ विशालाविस्तीर्णा, सुदर्शनायाः षष्ठं नामः । जीवा० २९९ । विशाला-पश्चिमदिग्भाव्यञ्जनपर्वतस्य दक्षिणस्यां पुष्करिणी । जीवा ३६४१ विशाला विस्तीर्णा । जम्बू३३६ | अञ्जनकपर्वते पुष्करणी स्था० २३०१ विसालिस - मागधदेशीयभाषया विसदृशं स्वस्वचारित्रमोह-नीयकर्म्मक्षयोपशमापेक्षया विभिन्नम्। उत्त० १८७ | विसाहदत्ता वैशाखदत्ता । उत्त० ३८० | विसाहभूई- विशाखभूति:राजगृहाधिपतिविश्वनन्दीराजी-भ्राता, युवराजा आव० आगम - सागर - कोषः ( भाग : - ४) १७२ विसाहा- चतुर्दशं नक्षत्रम् । स्था० ७७। विशाखाविशाखापर्यन्तं नक्षत्रम् । सूर्य ११४ विशाखानक्षत्रम् सूर्य. १३०| यत्र बहुपुत्रिकाचैत्यम् । भग० ७३७। विसि द्वितीयो द्वीपकुमारेन्द्रः । स्था० ८४ | विशिष्टः । जीवा० १७१ | विशिष्टः द्वीपकुमाराणामधिपतिः । प्रज्ञा० ९४ विसिद्वदिट्ठी विशिष्टदृष्टिः प्रधानदर्शनं मतम् । अहिंसाया अष्टविंशतितमं नाम । प्रश्न० ९९| विसिसिक्खाभाव विशिष्टशिक्षाभावः । उत्त० २२३३ विसिर- मत्स्यबन्धविशेषः । विपा० ८१ विसीभति- विषीदत्ति-अवध्यन्ते । दशवै० ८९ | विसील- विशीलः- विरूपशील:- अतीचारकलुषितार्तः। उत्त० ३४५| विसुंभिय- विष्कम्भितः मृतः । व्यव० ३०२ आ विसुअवण शोषणम्। निशी० १३१ अ विसुज्झई- विशुध्यति अपगच्छति । आचा० ४३१ विसुज्झमाण क्षपकश्रेणि उपशमश्रेणिं वा समारोहतः विशुध्यमानकम्। प्रज्ञा० ६८ | विसुणीय- विशेषेण श्रुतः- विज्ञातः विश्रुतः। प्रश्न० ८६ विसुत्तिया विस्रोतसिका स्त्रीरूपादिस्मरणजनिता चित्तविलुप्तिः । बृह० ४० अ विसुद्ध विशुद्ध रजोमलकल्पवालाद्यविगमकृतशुद्धत्वापेक्षया मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] लेपकल्पवालाग्रापहारेण विशेषतः शुद्धः विशुद्धः । भग० २७७ विशुद्धं वियुक्तम्। दश ॥ विशुद्ध मुक्तः । दशवै० २१२| ब्रह्मलोके षष्ठप्रस्तरः । स्था० ३६७ | विशुद्ध:-त्रिविधसम्यग्दर्शनादिमार्गप्रतिपत्त्या अत्यन्तशुद्धीभूतः प्रज्ञा० ६१०) विशुद्धः निर्मलः। जीवा० २१५ विशुद्ध-सूचिः। ओध. १२८८ स्वाभाविकतमोविरहात् सकलदोषविगमात् विशुद्धः । सम० १४० | जिणकप्पियो पाउरणवज्जियो । निशी० १०९अ। विशुद्धः-यथावस्थितः। आव॰ ४१५। स्पष्टः । निशी २३३ अ विशुद्धः - अरजस्वलत्वादि ज्ञाता० १२४ विशुद्ध-रहितम् । राज० ५ विसुद्धपण्ण विशुद्धप्रज्ञः निर्मलावबोधः । उत्त० २९८ विसुद्धसिद्धिगत विशुद्धा रागादिदोषरहितत्वेन निर्मला या सिद्धिः-कृतकृत्यता सैव गम्यमानत्वाद् गतिः विशुद्धसिद्विगती जीवस्य स्वरूपम् प्रश्न. १४४ विसुद्धी- पापक्षयोपायत्वेन जीवनिर्मलतास्वरूपत्वात् विशुद्धिः। अहिंसायाः षड्विंशतितमं नाम । प्रश्र्न० ९९| विशुद्धिः-विषयविभाषाव्यवस्थापनम्। दशवै॰ ६४। विसुद्ध्यमानकं सूक्ष्मसम्पराये प्रथमो भेदः स्था० ३२४१ विसुमरियं विस्मृतम् । आव• ८२८ विसुयाविए विशोधितः । व्यव० १६३ आ । विसुयावेऊ शोषयितुम् । बृह ३१२अ विसूइया विशुचिका । आचा० ३६२॥ विशुचिका आव० ६२९| विसूचिका आव० ३५३1 विसूचिका अतीसारः । उत्त० १६० विसूईया विध्यतीव शरीरं सूचिभिरिति विसूचिका. अजीर्ण-विशेषः । उत्त० ३३८ विसूणियंग- उत्कृताङ्गः अपगतत्वक्। सूय० १३७। विसूणियंगमंग- जातस्वपथुकाङ्गोपाङ्गः । प्रश्न. २१ विसूरण अप्राप्तो मनः खेदः परस्य वा मनः पीड़ा प्रश्न. ९७ । विस्मरणम्। निशी० १२२आ । विसूरणा- चित्तखेदः प्रश्न. ९२२ विसूहिय- द्वाविंशतिसागरोपमस्थितिकं देवविमानम् । सम० ४१| विसेस विशेष: प्रज्ञापनायाः पञ्चमं पदम्। प्रज्ञा० ६। विशेषः-विशिष्टत्व माहात्म्यम् । उत्त० ३६९ | विशेषःप्रकारः । प्रश्न० ६३] विश्लेषे कृते योऽवशिष्टिः सो [225] *आगम - सागर- कोष" (४) Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] विश्लेषः । जम्बू० ४८७ विशेषः गुणः । सूर्य० ५०| विश्लेषः | सूर्य. १991 विसेसण विशेष्यते परस्परं पर्यायजातं भिन्नतया व्यव स्थाप्यते अनेनेति विशेषणम्। व्यव. १३ आ विसेसदिट्ठे- विशेषतो-दृष्टार्थयोगाद् विशेषदृष्टम्। अनुयो० २९६| विसेसलुंढण- विशेषणलुण्ठनं निर्मर्यादम् । उत्त० १४९| विसेसिय- विशेषितं- निर्धारितम् । पिण्ड० ५३ | विसोत्तिया - विस्रोतसिका शङ्का । आचा० ४३ | विस्रोतसिका अपध्यानम् आव. ६०२१ विसोद्धि - विशुद्धि - दोषाणामभावः । उत्त० १८३ | विसोधेमाण- विशोधयन् पादादिलग्नस्य निरवयवत्वं कुर्वन् शौचभावेन वेति । अथवा सकृद्विवेचन बहुशो विशोधनम् । स्था• ३.३० विसोसण - विषोषण- अभोजनम् । आव० ६१ | विसोसणविरेयणोसहविही- विशोधणविरेचनौषधिः आगम-सागर- कोषः ( भाग : - ४ ) अभोजन- विरेकॉषधप्रकारः । आव० ६१०| विसोहण स्पर्शनधावनकरणं पुनः पुनः परिष्ठापनस्पर्शनधाव नविधानं वा बृह० १८३अ । विसोहिकोडी- विशोधिकोटि :- विशोधिः। दशव- १६२॥ विसोहिजुत्त- विशोधियुक्तः विशुद्धभावः । जम्बू० २२२ विसोहिज्ज - विशोधयेत्-त्यजेत्। आचा० ३८० | विसोहित्तए– विशोधयितुं-अतिचारपङ्कापेक्षयाऽऽत्मानं विम-लीकर्तुमिति। स्था० ५७ । विशोधितुं - पूयाद्यपनेतुम्। विपा॰ ८१ विसोही क्रीतत्रित्रये क्रयणक्रापणानुमतिरुपे विशोधि विशो-धिकोटी दशकै १६२२ विशोधनं विशुद्धिःअपराधमलिन-स्यात्मनः प्रक्षालनम्। आव ७७९१ विशुद्धिः कर्ममलिन- स्यात्मनो विशुद्धिः अनुयो० ३१ विशुद्धि:- सावद्यपरिहारेणे-तरस्वरूपकथनम्। दशकै १४ | विसोहीकरणं विशोधीकरणं- अपराधमलिनस्यात्मनः प्रक्षा-लनकरणम्। आव० ७७९ | विसोहीकोडी- अप्पतरदोषदुष्टा । निशी. ९३ अ । विसोहेज्जा- विशोधनं आत्मनः चारित्रस्य वा अतिचार मलक्षालनम् । स्था० १३७ | विसोहेहि विशोधनं व्रतानां पुनर्नवीकरणम्। ज्ञाता० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित २०६। विस्तरानं विशालम् सम• १४ विस्तीर्ण- प्रफुल्लहृदयः । जम्बू० २११। परग्रामदूतीत्वदोष-विवरणे धनदत्तस्य ग्रामम् । पिण्ड [Type text ) १२७ | विस्पन्दन अर्द्धनिर्दग्धघृतमध्यक्षिप्ततन्दुलनिष्पन्नम् । बृह० २६७ आ। विस्मापक - इन्द्रजालीकः । स्था० २९५ | विस्त्रोल्लोलितं- लुंटितं । निशी० ११ आ । विस्संत विश्रान्तः- उपशान्तकचवरः जीवा. ३५५ विस्संदण विगतो वा गता जम्मि दव्वे तं दव्वं । निशी० १९९ अ विस्संभड़- विश्रम्भति । आव० ५५९१ विस्संभणया विस्रम्भणता-विश्वासापदम्। आचा० २८६। विस्संभर- विश्र्वम्भरः-भुजपरिसर्पः तिर्यग्योनिकः । जीवा. ४०। विश्वम्भरः जीवविशेषः ओघ० १२६ । विस्संभिय- विश्वं जगाद् बिभर्त्ति क्वचित्कदाचिदुत्पत्त्या सर्वजगाद् व्यापनेन पूरयन्ति विश्वभृतः । उत्त० १८९ विस्सओमुहं विश्वतोमुखं प्रतिसूत्र, चरणानुयोगाद्यनुयोग-चतुष्टयव्याख्याक्षमम्। अनुयो० २६३| विस्सनंदी - विश्र्वनन्दी - अचलबलदेवपूर्वभवः । आव ० १६३। विश्र्वनन्दी-राजगृहनगरे राजा । आव० १७२ विस्सभूई- प्रथमवासुदेवपूर्वभवनाम । सम० १५३ ॥ विश्वभूतिः - विशाखभूतियुवराजपुत्रः आव. १७२१ द्वेषान्निदानकृत् । भक्त विस्सरिय विस्मृतः आव० ३७०१ विस्सबातितगण - श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य षष्ठो गणः । स्था० ४५१ | विस्ससण- शान्तिनाथपिता समः १५१1 विस्ससेण - मल्लीनाथस्य प्रथमभिक्षादाता । सम० १५१ । षष्ठचक्रीपिता। सम० १५२ विश्वसेनःमल्लिजिनस्यप्रथम- भिक्षादाता आव० १४७१ विस्सहोमुह - विश्वतोमुखं अनेकमुखम् । आव० ३७६ ॥ विस्सायणिज्जं विशेषतः विश्वादनीयम्। जीवा० २७८८ विस्सुवकित्तिए विश्रुतकीर्त्तिकं प्रतीतख्यातिकम् । [226] *आगम - सागर- कोष" (४) Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] ज्ञाता०४। जम्बू. ९४१ विस्सयजस-विश्रुतयशाः-ख्यातकीर्तिः। ज्ञाता० २१३॥ विहम्मसि-विहन्यसे-विविधं बाध्यसे। उत्त० ३१७। विस्सोय-विश्रोतः। आचा० ४३। विहम्मिया-विधर्मिता-च्याविता। बृह. २५५आ। विस्सोयसिगा-विस्रोतसिका। प्रज्ञा०६६। विहम्मेमाण-विधर्मयन्-स्वाचारभ्रष्टान् कुर्वन्। विपा० विहग-विभागः-खण्डशः कृतः। प्रश्न०६० ४० विहंगम-विहे-नभसि गतो-गच्छति गमिष्यति चेति विहरइ-आस्ते। सम० ८६। विहरति-आत्मानं वासं विहङ्गमः। विहंगमः-विहं गच्छन्त्यवतिष्ठन्ते यस्ति-ष्ठति। भग०१३। विहरति-आस्ते। भग० १२३। स्वसत्ता बिभर्ति इति विहङ्गमः। विहंगमः-विहं विहरति-अवतिष्ठते। सूर्य. २९२। विहरति-आस्ते। गच्छन्ति-चलन्ति सर्वैरात्मप्रदेशै-रिति विहङ्गमः। विपा० ३३। विहरति-अवतिष्ठति। जीवा. ११९ विहरतिदशवै० ७०। विहङ्गमः-पुद्गलस्तु विहं गच्छतीति आस्ते। जीवा० १६३। तिष्ठति। जम्बू. १६) विहङ्गमः। दशवै०७१। विहरति- यथायोगं पर्यटति। आचा० ३५८। यतन्तः। विहंमाणो-विशेषेण घ्नन्-ताडयन्। उत्त. ५५१। आचा० ३५८१ आसते। जम्ब०४७ विहरति-तिष्ठति। विहंसणा-विहंसना-विघर्षणा। उत्त० १६० स्था० २३७ विह-अनेकाहगमनीयः पन्थाः। आचा० ३७८। अटवी विहरसि- वर्तसे। ज्ञाता०२०४। प्रायो दीघोऽध्वा भवेत्। आचा० ३८४अटवीप्रायः । | विहरिज्जा-विहरेत्-सामाचारीपालनं कुर्यात्। दशवै. पन्थाः। आचा० ३९ विभुजति जीवपुद्गलाविति १९०१ विहं-आकाशः। दशवै०६९। विहः-पन्थाः। ओघ० १९७१ | विहरित्तए-विहर्तु-स्थातुम्। स्था० ५७। विहर्तु-वर्तितुम्। विशेषेण हीयते-विधीयते-क्रियते। भग० ७७६। अखाणं। ज्ञाता० ११२ निशी. १३७ आ। अद्धाणं अणेगेहिं अहेहिं जंगमइ तं। । | विहरित्ता-विहर्ता-अवस्थाता। उत्त०४२४ निशी० ३५ निशी. ५५ अध्वा। बृह. ५६। अध्वा। बृहः | विहरिय-विहृतः-क्षुण्णः-आसेवितः। ओघ०८५ २०६। विधः-भेदः प्रकारो वा। अन्यो. २ विहरे-विहरेत्-अवतिष्ठेत्। सूर्य. २९४। व्यहार्षीत्। उत्त. विहग- पक्षी। जीवा० २७० ९०१ विहगगई-विहगगत्या-पक्षिन्यायेन विहलावीओ-उन्मत्तः। निशी० ३४५ अ। परिवारादिवियोगेनैकाकिनो देशान्तरगमनेन च या सा | विहलियग-भ्रष्टराज्यः। घाटितो वा। उत्त० २२११ विहगगतिप्रव्रज्या। स्था० २७६। विहायसि-आकाशे विहल्ल-विहल्लः शिक्षायोगदृष्टान्ते गतिर्विहायोगतिः। दशवै. ७०० श्रेणिकचेल्लणापुत्रः। आव० ६७९। विहल्लः-चम्पायां विहगपवज्जे-विहगस्येवेति दृश्यमिति, विहतस्य वा कुणिकराज्ञोऽनुजः। भग० ३१६| दारि- द्रयादिभिररिभिर्वेति प्रव्रज्या। स्था० २७६) विहव-विभवः-सम्पत्तिः। जम्ब०४०३| विहडइ- पृथग्भवति। आव. ३२१। विपतति-विशेषेण विहवा-रंडा। निशी. २६७ अ। बलापचयादपैति। उत्त० ३३८१ विहसियं-विहसितं-अर्द्धहसितादि। ज्ञाता० १६५ विहडई-विध्वस्यते-जीवविप्रमुक्तं च विशेषेणाधः पतति । | विहा-विहगा-भारंडा। बृह. १०८ आ। द्विधा। आव. ते शरीरम्। उत्त० ३३८१ ६४१ विहणिज्जा-विहन्यात्-उलङ्घयेत्। उत्त०११० विहाए-द्वितीयः प्रज्ञापनेन्द्रः। स्था० ८५। विहत्थि-वितस्तिः -द्वादशाङ्गुलप्रमाणा। अनुयो० १५६। | विहाडिया-उद्घाटिता। आव० ५५९। विहत्थी- द्वादशाङ्ग्लप्रमाणा। भग० २७५) विहाडेइ-उत्घाटयति। राज० १०८ चत्वार्यगुलानि वितस्तिः । ओघ. २१४१ विहाडेहि-विघाटय-सम्बन्धौवियोज्य उदघाट्य। जम्बु. द्वादशाङ्गुलानि वितस्तिः, दवौ पादौ वितस्तिः। २२३ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [227] "आगम-सागर-कोषः” [४] Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] विहाडेत्तुं-विघाट्य-विदार्य। प्रश्न. १९।। ११३ विहाण-विधान-स्वरूपस्य करणम्। भग० २८२। भेदः। | विहारकप्प-विहरणं विहारः तस्य कल्पो-व्यवस्था भग० ८७४ विधान-विशेषः कालादिरिति। भग०२०।। स्थविर-कल्पादिरूपा यत्र वर्ण्यते ग्रन्थे स विहारकल्पः। विधानं-विशेषः। जीवा० १९ विधानं-भेदप्रकारः। ओघ. नन्दी . २०६| २६। विविक्तं-इतरव्यवच्छिन्नं धानं-पोषणं स्वरूपस्य विहारकल्पिकं- । बृह. १११ आ। यत् तत् विधानं-विशेषः। प्रज्ञा० ५०१। विधीयते- विहारगमणं-विहरणं-क्रीडनं विहारस्तेन गमनंविशेषाभि-व्यक्तये कियन्त इति विधानं भेदः। उत्त. | उद्यानादौ क्रीडया गमनं विहारगमनम्। सूत्र० ८७ २३१ विहारगेह-विहारगृहम्। आव० १३७ विहाणसंगणिय-विधानेन-भेदप्रकारेण संगुणितः। ओघ. | विहारजत्ता-विहारयात्रा-क्रीडार्थमश्ववाहनिकादिरूपा। २६। विधानेन-भेदप्रकारेण संगुणितः। जम्बू. २६। उत्त०४७२। विहाणसहाण- वेहानसंस्थानं मानुषोल्लम्बनस्थानम्। विहारठाण-विहारस्थानं-आश्रयस्थानम्। व्यव० १६६ अ। आचा०४१११ विहारभूमि-विहारभूमिः-स्वाध्यायभूमिः। आचा० ३२४। विहाणादेस-विधानादेशी विहारभूमी-विहारभूमिः-स्वाध्यायभूमिः। आचा० ३७६। यत्समुदितानामप्येकैकस्यादेशनम्। भग० ८६३। असज्झाए सज्झायभूमी जा सा। निशी. १४८ आ। भेदप्रकारेणैकैकशः। भग० ८७४। भिक्षापरिभ्रमणभूमिः। व्यव० ३६५अ। विहायंती-विभाता। आव० ३६६) विहारालोचना-आलोचनाविशेषः। व्यव० ४८ आ। विहायगई-विहायगतिस्तु स्पृशदगतिः। भग. ३८१| विहारिण-मासमासेन विहरन्तः। बृह. १८४ आ। विहायगति-विहायसा गतिः गमनं विहायोगतिः। प्रज्ञा. विहिंसण-विहिंसनं-विविधव्यापादनम्। प्रश्न. २२ ४७४। विहिंसा-विविध-अनेकधा हिंसा-हिंसनशीला, वीतिविश्रविहायगती-आकाशेन विहायोगति विहायोगति स्पृशद ब्धावान् स्वेषु स्वेषुत्पत्तिस्थानेष्वनाक्लभवस्थितान् गत्यादि, सप्तदशभेदभिन्नागतिः। प्रज्ञा० ३२७। जन्तून् हिंसन्तीति विहिंसा। उत्त० १९४। विघातः। विहायोगति- गतेः पञ्चदशमो भेदः। प्रज्ञा० ३२७) प्रश्न०६। विहार-विहारः-विहरणं-क्रीडनं वा। सूत्र. ८७ विहारः- विहिंसिय-विहिंसितं-न सम्यग् निर्जीवकृतमिति। सूत्र० बौद्धाध्याश्रयः। प्रश्न.1 मासकल्पादिविहारः। आव० ३०११ ५२९। नगरम्। सम.१०३ विचित्रक्रीडा। प्रश्न०६९। | विहि-विधिः-चक्रवाललक्षणः प्रकारः। भग. २८२। विधिःविहारः-भिक्षुनिवासो देवगृहं वा तत्प्रधानो ग्रामादेरपि। । कौशल्यम्। आव० ५०३। विधिः-कार्यसाध्यम्। प्रश्न उत्त० ६०५। विहारः। आव० २९५) विहारः-विचरणम्। ९२। विधिः-प्रवचनोक्तः प्रकारः। दशवै. २ विधिःजम्बू० १२४। विहारः-वसतावस्वाध्यायिके समुत्पन्ने विधिविशेषः भेदः। सम. ११४१ विधिः-विरचनम्। सति स्वा-ध्यायनिमित्तमन्यत्र गमनम्। बृह. २६१ अ। अनुयो० १४०। विधिः-अनुष्ठानमासेवनम्। उत्त. सज्झाय-भूमी। निशी. १४३ अ। विहारः-चंकमणम्। ६११। विधिः-कल्पे-कल्पा-ध्ययने बृह. २०४ आ। विहारार्थम्। ओघ० ६० द्वितीयतृतीययोरूद्देशयोर्विधिः। व्यव० ४२०/ गोचरचर्यादिहिण्डन-लक्षणः। जम्ब० १५११ | विहगहिय-विधिगृहीतं-अलुब्धेनोद्गमितम्। आव. विहरन्त्यस्मिन्प्रदेश इति विहारः-प्रदेशः। उत्त० ५४४। ८५९। विधिनोदगमदोषादिरहितं सारासारविभागेन च विहारः-भिक्षुनिवासः, देवगृहम्। उत्त०६०५ विहारः- यन्न कृतं पात्रके तत् विधिगृहीतम्। ओघ० १९२ ग्रामादिचर्या। स्था० ४१६। विहारः विहिण्णू-विधिज्ञं-पञ्चचत्वारिंशतो देवतानां अवस्थानशयनादिरूपः। जम्ब० १०७। विशेषा उचितस्थानानि-वेशनार्चनादिविधिज्ञम्। जम्बु. २०७। नुष्ठानरूपः। बृह० २२१ आ। साधु-वर्तनः। ज्ञाता० विहिन्न-विधिज्ञः-न्यायमार्गप्रवेदः। दशवे. १९५) मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [228] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] विहिप्पगारः- विधिप्रकारः-प्रवृत्तिप्रकारः-विधिभिः-भेदैः | विहूयकप्प-विधूतः-क्षुण्णः सम्यग्स्पृष्टः कल्पः-आचारो प्रचारः। प्रवृत्तिर्यस्याः सा। ज्ञाता० ३८॥ येन स तथा। आचा. २४३। विहिभुत्त-कटकच्छेदेन प्रतरच्छेदादिना वा यद्भक्तं तत् | विहूर- शुष्कः। महाप्र०। विधि-भुक्तम्। ओघ० १९२। विधिक्तं विहेडयंत-विहेड्यमानः-बाध्यमानः। प्रश्न. ५६। विधिनाकटप्रतरकसिंह-खादितेन भुक्तम्। आव० ८५९। | विहेडयति-विहेठयतो-विशेषेण विविधं वा बाध्यमानः विहिय-विहितं-अनुष्ठानम्। ओघ०४। विहितं विनाशयतः। उत्त० ३७० अनुष्ठानम्। आव०६१९। व्रीहिः। आव० ८५५। विहितं- | विहेडिओ-अपहृतः। भक्त। चेष्टितम्। ज्ञाता०१३|| वीइंगाल-वीतः-गतः अङ्गारः-रागः यस्मात्तत् विही-विधानं विधिः वीताङ्गारम्। भग० २९२ सम्यग्ज्ञानदर्शनयोयौगपद्यनावाप्तिः। सूत्र० १९७ | वीइ-वीचिः-हस्वकल्लोलः। भग०७१११ वीचिः-विच्छेदः। नाम वित्थारो। निशी० ३४ अ। विकप्पो। निशी. २१० । भग० ६२५। अन्तरार्थो रूढः, लघः। स्था० ५०२। वीचिः - आ। विथिः-चतुष्पथः। आव० ६७३। प्रकारः। आव० ६१०| प्रतिसमयमनुभवमानायुषोऽपरापरायुर्दलिकोदयात्पूर्वायु मर्यादा। आव०६३९। अनुज्ञा। आव०७१३। विथी। आव० र्द-लिकविच्युतिलक्षणा। भग० ६२५। विविक्तस्वभावात् ४२१। विथिः। उत्त० २७९। विधिः-प्रकारः। प्रश्न. ३८१ वीचिः। भग०७७६। वीचिः-तरङ्गाकाररेखा। प्रश्न०८३। विधिः। आव०४०१। विधिः। आव. ५८१। वीचिः-उर्मिः। आव०६०११ विहीए-विधिना-यतनया। ओघ०६२ वीइक्कमइ-व्युत्क्रामति-उत्पद्यते। जीवा० ४००। व्यतिविहीकरणमूल-वीथीकरणमूलं-मण्डपिका। आव० ७६७| क्रामति-मुच्यति। जीवा० ३३९। विहअणा-विधुवणा-वीयणओ। निशी० ५४ आ। वीइज्ज-वीजयेत्। आचा० ३४५ विह धूवनं-व्यजनम्। दशवै. १५४। विधूवनं- वीइत्था-वीजितवान्। भग० १७६| व्यजनम्। दशवै० २२९। वीइदव्वा-पृथग्भावः -एकादिप्रदेशन्यूनम्। भग० ६४४। विहुणमाण-विधूनयन्। मरण | वीइवयइ-व्यतिव्रजति-व्यतिक्रामति। भग. ३५१ विहुय- विविध-अनेकधा धूतं अपनीतमष्टप्रकारं कर्म | वीइवयति-व्यतिव्रजति-व्यतिक्रामति। भग० ९५५ येन स विधूतः। आचा० १६८१ वीईक्कमति- व्युत्क्रामति-उत्पद्यते। जीवा० ३२२। विहुयकप्प-विधूतः कल्पो यस्य साधोः स विधूतकल्पः। वीईपंथठच्चा-कषायाणां जीवस्य च सम्बन्धो आचा०१६८1 वीचिशब्द-वाच्यः, वीचिमतः कषायतः, अथवा वियरयमला- विधूतरजमलाः-तत्र रजश्च मलश्च विविच्य-पृथग्भूय यथाऽऽख्यातसंयमात् रजमलौ विधूतौ-प्रकम्पितौ अनेकार्थत्वात् वा अपनीतौ कषायदमनपर्यायेत्यर्थः, विचिन्त्य रजमलौ यैस्ते तथाविधाः, तत्र बध्यमानं कर्म रजो रागादिविकल्पादित्यर्थः, विरूपा कृतिः-क्रिया भण्यते पूर्वबद्धं तु मलं इति, अथवा बद्धं रजः निकाचितं सरागत्वात् यस्मिन्नवस्थाने तद्विकृति यथा मलः, अथवेर्पापथं रजः साम्परायिकं मलं इति। आव. भवतीत्येवं स्थित्वा, पंथेत्ति मार्गे। भग० ४९६। ५०७ वीईभए- विगता ईतयो भयानि च यतस्तद्वीतिभयम्। विहुर- विधूरः-इष्टजनवियोगः। ज्ञाता० ७९। विधुरः- भग०६२११ आत्य-न्तिकायामापदि। बृह. २५० अ। वीएवइज्जा- व्यतिव्रजेत्, अतिक्रामेत् पारं लभेदवा। विहुरया-विधुरता-वैधूर्य-विसदृशता। ओघ० ३६। जीवा० १३८१ विहवण-वीजनकम्। बृह. ६८आ। वीचिदव्वाई-वीचिप्रधानानि द्रव्याणि वीचिद्रव्याणि विहय-विधूतः-क्षुण्णः-सम्यग् स्पृष्टः। आचा० २४४। एकादिप्र-देशन्यूनानीत्यर्थः। भग० ६४४। विधूतः-प्रकम्पितः-अपनीतो वा। आव० ५०७ | वीजणकं-विधुवनम्। बृह० ६८ आ। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [229] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] ८९ वीडक- विकभं। निशी. १४४ आ। अपायार्वागीहायाः परिणामः। नन्दी. १८७। विमर्शनंवीडिए-वीडितः-लज्जितः। ज्ञाता० १४३। विमर्शः -यथावस्थितवस्तुस्वरूपनिर्णयः। नन्दी. १९०| वीणति- गवेशयति। निशी० २०९ आ। विमर्श-परीक्षा। बृह. १७१ आ। परीक्षा। निशी. १०० वीणा-वीणा-तन्त्रीसङ्ख्यादिकृतो विशेषः। ज्ञाता० २२९। | विमंसिय-प्रज्ञापितः विचरितः। आव०६८१। वादयविशेषः। ततः। स्था०६३। वैतालिकी। जीवा. १९३। | वीय- मं| निशी. ७० आ। प्रश्न. १५९। आतोद्यविशेषः। प्रज्ञा० ८७। तन्त्री। प्रज्ञा० | वीयइ-विकृतिः-क्षीरादिका। स्था० २४७) वीयकम्हा-वत्सगोत्रे भेदः। स्था० ३९०| वीणावायण-वीणावादनम्। आव. २९८१ वीयण-व्यञ्जनं वंशादिमयम। प्रश्न. १५२| वीतभए-वीतभयं-नगरविशेषः। आव. २९८ वीतभयं- वीयणग- व्यजनकम्। आव०६८८ वीजनकं-वंशादिमयविगतिद्वारे उदायनराजधानी। आव० ५३७५ मेवान्ताह्यदण्डम्। भग० ४६८१ वीतभय-सिन्धुसौवीरदेशे नगरम्। बृह. १६६अ। वीयणय- व्यजनम्। आव० ३१७। वीतरागसुय-वीतरागश्रुतं-सम्यक् वीयत्ता- प्रीतिकरा। बृह. १७४ आ। त्वपराक्रमाध्ययनस्यापर-नाम, उत्तराध्ययनस्य वीयदुहिय-भृतम्। निशी. १२० आ। एकोनत्रिंशतममध्ययनम्। उत्त० ५७० वीयभय-वीतभयं-सिन्धुसौवीरेषु आर्यक्षेत्रम्। प्रज्ञा० ५५ वीतसोग-वीतशोकः-अरुणदवीपे महर्द्धिको देवविशेषः।। वीतभयं-उदयनदेवदत्तागन्धारश्राद्धवास्तव्यं नगरम्। जीवा० ३६७। उत्त०९६| वीति-विगतेतिकः घुणाद्यक्षरतः। जम्बू. ११४१ वीयरागसंजय-वीतरागसंयतः- उपशान्तकषायः वीतिभए-सिन्धुसौवीरे नगरम्, यत्र उदायणो राजा। भग० | क्षीणकषा-यश्च। प्रज्ञा० ३४१। ६१८ वीयरागसुय-वीतरागश्रुतं-सरागव्यपोहेन वीतिभय-उद्दायणरण्णो णगरं। निशी. १४५। णगरं। वीतरागस्वरूपं। प्रतिपाद्यते यत्राध्ययने निशी० ३४६ आ। तद्वीतरागश्रुतम्। नन्दी० २०५१ वीतिवएज्जा- व्यतिव्रजेत्-उल्लङ्घ्य परतो गच्छेत्। वीयरेइ-वीणयति-शोधयति। आव० ७१४। जीवा. १०९। वीयसोग-पञ्चसप्ततितममहाग्रहः। ठाज्ञा०७९| वीतिवतिता- व्यतिव्रज्य-अतिक्रम्य। जीवा. २१८१ वीतशोकः-त्रिसप्ततितममहाग्रहः। जम्बू०५३५ वीतिवयइ-व्यतिव्रजति। आव. २१४। वीयसोगा-सलीलावतीविजये नगरी। ज्ञाता० १२११ वीतवीथीसंठिओ-वीथिसंस्थितः-मार्गसंस्थितः। जीवा. २७९। | शोकाराजधानी। जम्बू. ३५७। वीभावनं- एहिकपारत्रिकभयोत्पादनम्। निशी० ४आ। वीयार-विचारः चेष्टात्मकः। उत्त०६०११ वीमंसणा-मीमांसा। व्यव० १७० अ। वीयीपंथे- वीयिः-कषायाणं जीवस्य च सम्बन्धः ततः वीमंसा-विमर्श:-पर्यालोचनात्मको मीमांसा वा विचिमतः। अथवा विविच्य-पृथग्भूय मातुंपरिच्छे-तुमिच्छा सा। सूत्र० ३५) मीमांसा यथाऽऽख्यातसंयमात् कषायोदयमनपवार्येत्यर्थः। शिष्याभिप्रायविचारणा। बृह. २३९ अ। विमर्शः। आव. अथवा विचिन्त्य रागादिविक-ल्पादित्यर्थः। विरूपा ७०२ विमर्शः-शिक्ष-कादिपरीक्षणः। दशमा प्रतिसेवा। कृतिः-क्रिया सरागत्वात् यस्मिन्न-वस्थाने तद्विकृति भग. ९१९। विमर्शः- शिष्यादीनां परीक्षा। दशमा यथा भवतीत्येवं स्थित्वा पंथे' त्रिमार्गेः। भग०४९५/ प्रतिसेवना। स्था०४८४॥ विमर्शः-शिक्षकादिपरीक्षा। वीरंगओ-वीराङ्गदः-श्रेणिकराज्ञो रथिकः। आव०६७७। स्था० ४८५। विमर्शः-विमर्शनं विमर्शः, ईहाया उत्तरः, वीरंगत- पद्मावतीपत्रः। निर०४० प्रायः शिरः कण्ड्यनादयः पुरुषधर्मा घटन्त इति वीरसंप्रत्ययो विमर्शः। आव०१८ विमर्शनं-विमर्शः घनघातिकर्मसङ्घातविदारणान्तरप्राप्तात्लकेवलश्रिया मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [230] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text]] १ -विराजन्त इति वीराः-तीर्थकराः। आचा. ५३ वीरगत-षट्सागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम० १२ वीरवति-विक्रामयति त्यागतपोवैरिनिग्रहेषु प्रेरयति वीरघोस-वीरघोषः कर्मकरः। आव. १९४। प्राणिनमित्युत्तम वीरज्झय-षट्सागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम० प्रकृतिपुरुषचरितश्रवणादिहेतुसमुद्भूतो दानायुत्साहप्रकर्षा-त्मकः वीरः। अनुयो० १३५ वीरण- पर्वगभेदः। आचा. ५७, २८५तृणविशेषः। भग. कषायादिशत्रुजयादिक्रान्तः अत्यन्तानिरक्तः ३०६। तृणविशेषः। उत्त० ३७० वनस्पतिविशेषः। भग. केवलामलश्रिया विराजत इति “विदारयति यत्कर्म, ८०२। तृणविशेषः। बृह. २६८ आ। तपसा च विराजते तपोवीर्येण युक्तश्च तस्माद्वीर इति | वीरत्थओ- वीरस्तवः-सूत्रकृताङ्गाद्यश्रुतष्कन्धे स्मृतः"। आव०६० षट्सागरोपमस्थितिकं देवविमानम् | षष्ठममध्यय-नम्। आव०६५११ वीरस्तवः। सम० १२॥ यः शुनको, द्वितीयशस्त्राद्यपेक्षया रहितो | सूत्रकृताङ्गस्य षष्ठममध्यय-नम्। उत्त० ६१४। वीरदेवबबुध-नामविशेषः। अनयो० २७१। संसारभयस्तीर्थकृद। आचा० १२ वीरः-फरसबलवान्। | वीरपुर- वीरकृष्णमित्रराजधानी। विपा० ९५नमिजिनस्य व्यव० २३० अ। वीरः-कर्मविदारणात्, पञ्चमहाव्रतभा- प्रथमपारणकस्थानम्। आव० १४६। रारोहणोन्नामितस्कन्धः। आचा० १२८। विशेषेणेरयति- वीरप्पभ-षट्सागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम० १२ प्रेरयति अष्टप्रकारं कर्मोरिषड़वर्ग वेति वीरः वीरभद्द-वीरभद्रः-कनकपुरनगरस्य श्वेताशोकोदयाने शक्तिमान्। आव० १४३, १४७। विशेषेणेरयति-मोक्षं प्रति | यक्षः। विपा. ९५ गच्छति गमयति वा प्राणिनः प्रेरयति वा-कर्माणि वीरभद्र-भौतिपरिगृहीताऽर्हत्प्रतिमा। आव० ८१११ निराकरोति वीर-यति वा रागादिशत्रून् प्रति पराक्रमयति | वीरय-वीर्यं जीवप्रभवम्। ज्ञाता०२१११ वीर्यइति वीरः निरुक्तितो वा वीरः। स्था० ३६। ऊरसबलवान, | मानसोऽवष्ट-म्भः। भग०४६९। तेनाक्लेशेन परबलं जयति। व्यव. २८३ आ। विशेषण वीरलेस-षट्सागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम० १२ ईरयति-गमयति स्फेटयति कम प्रापयति वा | वीरल्ल-उलजायग। निशी० १५५ आ। शिवमिति वीरः। ईरि गतौ विशेषेण-अपनर्भावेन वीरल्लओ-लावकपक्षी। बृह. १८६ आ। इयंति स्म-याति शिवमिति वीरः। नन्दी० २३। वीरं-सद् | वीरल्लग- वीरल्लकः श्येनाभिधानः शानि व्यवहारकाचार्यः। व्यव० २५६। सत्योदाहरणे वीरः। । शनिविनाशाय। प्रश्न. १३।। आव० ७०५। विशेषेण ईरयति-कर्म गमयति याति वा | वीरल्लसउण- हुलायिकः। बृह० २०५आ। शिवमिति वीरः। आव०७९० तगराया-माचार्यस्य वीरल्लसेण-वीरल्लश्येनः-श्येना एव, पक्षिविशेषः। शिष्यः। व्यव० ३१७ अ। वीरः-साधुः। आचा० १४४। प्रश्न1 वीरः-अप्रमत्तयतिः। आचा. १९३। धीर-पुरुषः। ज्ञाता० | वीरवण्ण- षट्सागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम० १००| वीरः-तगरायामाचार्यशिष्यः। व्यव० २५६ आ। । १२ वीरकंत-षट्सागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम० १२ वीरवलए- वीरवलयम्। जम्बू. १९० वीरकण्ह-निरयावलिकायां प्रथमवर्गस्य वीरसिट्ठ-षट्सागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम० १२ सप्तममध्ययनम्। निर० ३। वीरसुणिय-वीरशुनिकः। ओघ० ९६। वीरकण्हमित्त-वीरकृष्णमित्रः-वीरपुरनगरनृपतिः।। | वीरसेण-द्वारामत्यां वीरेषु मुख्यः। ज्ञाता० १०० विपा. ९५ द्वारावत्यां वीरमुख्यः। ज्ञाता० २०७। वीरसेनःवीरकण्हा- वीरकृष्णा-अन्तकृद्दशानामष्टमवर्गस्य वीरमुख्यः। अन्त० सप्तममध्य-यनम्। अन्त०२५ वीरसेणि- षट्सागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम० वीरकूड- षट्सागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम० १२ | १२| विप/०९ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [231] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] वीरा-वीराः परीषहोपसर्गकषायसेनाविजयात। आचा. यौवनिकाया-मपि वर्तमानोऽल्पप्राणो भवति, यद्वा ४४| बलवत्यपि शरीरे साध्येऽपि प्रयोजने हीनसत्वतया न वीरायमाण-वीरमिवात्मानमाचरन्तः वीरायमाणा। प्रवर्तते तद्वीर्यान्तरायम्। प्रज्ञा० ४७५) आचा. २५३ वीरिय-वीर्य-जीवप्रभवम्। स्था० २३। वीर्य-जीवप्रभवम्। वीरावत्त-षट्सागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम. स्था० ११६। वीर्ययोगात् वीर्यः-प्राणी। भग०६४। वीर्य१२ वीर्यान्तरायक्षयप्रभवाशक्तिः । भग० २२४। वीर्य, तृतीयं वीरासण-वीरासनं-सिंहासननिर्विष्टस्य भून्यस्तपादस्य पूर्वम्। स्था० १९९। वीर्य-आन्तरोत्साहः। जीवा. २६८। सिंहासनेऽपनीते यादृशमवस्थानं तत्। भग. ९२४। शक्तः। निशी. १८ अ। वीर्य, सूत्रकृतागाद्यश्रुतस्कन्धे सिंहा-सनोपविष्टस्य अष्टममध्ययनम्। आव०६५१। वीर्यभन्यस्तपादस्यापनीतसिंहासनस्येव यदव-स्थानं तद सूत्रकृताङ्गस्याष्टमम-ध्ययनम्। उत्त०६१४। वीर्यवीरासनम्। भग० १२५ सिंहासनम्। औप०४०। जीवप्रभवम्। ज्ञाता० १४०| वीर्य-आन्तरोत्साहः। सूर्य. वीरासनम्। आव०६४८ वीरासनं भन्यस्तपादस्य २८६। वीर्य-अनुप्रेक्षयां सूक्ष्मसूक्ष्मार्थोहनशक्तिः । सूर्य सिंहासनोपवेशनमिव। प्रश्न. १०७। वीरासनं-यत् २९६। वीर्यलक्षणं सामर्थ्य-लक्षणम्। वीर्य-सामर्थ्य सिंहास-नस्थितस्य तदपनयने तथैवावस्थानम्। उत्त. यद्यस्य वस्तुनः तदेव लक्षणं वीर्य-लक्षणम्। आव. ६०७। सिंहासनोपविष्टः। ज्ञाता०७२। २८२। वीर्य-वीर्यान्तरायक्षयोपशमक्षयज वीरासणिए- वीरासनं-सिंहासननिविष्टस्य खल्वात्मपरिणामः। आव० ७८३। वीर्य-तृतीयं पूर्वम्। भून्यस्तपादस्य सिंहासनापनोदे यादृशमवस्थानं सम० २६| तद्यस्यास्ति स वीरास-निकः। औप०४०। वीरियत्ता-वीर्यता-परिणतिविशेषः। भग०६३। वीर्यता वीरासणिते-वीरासनिको-यः सिंहासननिविष्टमिवास्ते। । वीर्य-योगात् वीर्यः-प्राणी तद्भावो वीर्यता, अथवा वीर्यमेव स्था० ३९७ स्वार्थि-कप्रत्ययात वीर्यता, वीर्याणां वा भावो वीर्यता। वीरासन-भून्यस्तपादस्य सिंहासने उपविष्टस्य भग०६४। तदपनयेन या कायावस्था तद्रूपं, वीरस्य वीरियविउव्वणिड्ढी-वीर्यवैक्रियर्द्धिः-तपःसामोद्भवा साहसिकस्यासनमिति वीरास-नम्। स्था० २९९। आव. आकाशगमनजङ्घाचरणादिवीर्यवैक्रियनिर्माणलक्षणा। २६६। दशवै. ११२ वीरिअ-वीर्य-आन्तरोत्साहः। जम्बू. १०५ वीर्य-जीवो- वीरियसजोगसद्दव्वया-वीर्य-वीर्यान्तरायक्षयप्रभवा त्साहः। जम्ब० १३०| वीर्य-मानसोत्साहः। जम्बू. १५१ शक्तिः तत्प्रधानं सयोग-मानसादिव्यापारयुक्तं यत् सम०५५ सद-विदयमानं द्रव्यं-जीवद्रव्यं तत्तथा, वीर्यसद्भावेऽपि वीरिअप्पवाय-सकर्मेतराणां जीवानामजीवानां च वीर्य जीवद्रव्यस्य योगा-दिना चलनं न स्यादिति प्रव-दन्तीति वीर्यप्रवादम्। नन्दी. २४१। सयोगशब्देन सद्रव्य विशेषितं, सदिति विशेषणं च, वीरिए- सूत्रकृताङ्गप्रथमश्रुतस्कंधे अष्टममध्ययनम्। तस्य सदा सत्तावधारणार्थ, अथवा-स्वं-आत्मा तद्रपं सम० ३१| वीर्य-जीवोत्साहः। भग० ५७। वीर्य-जीवबलम्। द्रव्यं स्वद्रव्यं ततः कर्मधारयः, अथवा वीर्य-प्रधानः भग० ३११। विशेषेण इर्यते-चेष्टतेऽनेनेति वीर्यम्। सयोगो-योगवान् वीर्यसयोगः स चासौ सद्रव्यश्चउत्त०६४५ मनःप्रभृतिवर्गणायुक्तो वीर्यसयोगसद्रव्यस्तस्य वीरिओ- वीरकः कृतिकर्मदृष्टान्ते द्वारिकायां भावस्तत्ता वीर्यसयोगसदद्रव्यता। भग० २२४। वासुदेवभक्तः कोलिकः। आव० ५१३॥ वीरियायार-वीर्याचारः-ज्ञानादिष्वेव शक्तेर्गोपनं वीरित-वीर्य-जीवप्रभवम्। स्था० ३०४। तदनतिक्रम-श्चेति। स्था०६५ वीर्यागोपनम्। स्था० वीरियंतराइय- यद्दयात् सत्यपि नीरुजि शरीरे ३२७। ज्ञानादि-प्रयोजनेष वीर्यस्यागोपनमिति मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [232] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] वीर्याचारः। सम० १०८ वीसुंभेज्जा-विश्वरु-शरीरात् पृथग् भवे-जायेत् वीरूणी- पर्वगविशेषः। प्रज्ञा० ३३। नियेतेत्यर्थः। स्था० ३१० वीरुत्तरवडिंसग- षट्सागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। वीसु-विष्वक्-पृथक्। आचा०४०| विष्वग-भेदः। ओघ. सम. १२॥ १५ विष्वग्-पृथग्। ओघ० १९५ विष्वक्। स्था० ३३१| वीवाह-परिणयनम्। जीवा. २८१ वधूपक्षिणां विवाहः। एकाकिनो निद्रावशे सति। ओघ०७६। पृथग्-अन्यत्र व्यव० ३४२ आ। विवाहः परिणयनम्। जम्बू० १२३। वसतौ अवस्थानम्। आव० ३१०| विष्वक्-पृथग्। बृह. पाणिग्रहणम्। बृह. ४३ आ। २०२१ वीसंदति-विष्यन्दति-श्रवति। जम्ब०१००|विष्यन्दति- वीहि-वीथिः-पन्थाः। आव०४४| व्रीहिः। ओघ० १६० स्रवति। जीवा. २६६। वीथिः। उत्त. २२व्रीहिः-धान्यविशेषः। दशवै० १९३। वीसंभो- विश्रम्भः-विश्वासः। आव० ५६८१ उभयोरपि पार्श्वयोरेकैकश्रेणिभावेन यत् श्रेणिदवयं सा वीसंभघायग- | ज्ञाता० २३६) वीथी। जम्बू. २४। वीस-लोमपक्षिविशेषः। जीवा०४१। वीहिती-वीथिका-मार्गः। स्था० ३६६। वीसइम-विंशतितमः। सम० १५११ वीही-व्रीहिः-धान्यविशेषः, तृणपञ्चके द्वितीयो भेदः। वीसत्थ- विश्वस्तः-निर्भयः अन्त्स्को वा। औप० २ आव०६५२। वीथि-उभयोरपि पार्श्वयोरेकैकश्रेणिभावेन विश्वस्तः। आव० ३९४| विश्वस्तः-अप्रावृतशरीरः। बृह. यच्छ्रेणिद्वयं सा। जीवा० १८१। वीथी-मार्गः। जीवा० २०५ अ। विश्वस्तः-निरुदविग्नः। ब्रह. २९० आ। २७९| वीथ्या। आव० ३९७। व्रीहिः। सूत्र० ३०९। वीसत्था-जीतारीरायभारिया। निशी० ४२ अ। तणविशेषः। स्था० २३४। सामान्यशालिः। भग० २७४। वीसभई-विश्वभूतिः-त्रिपृष्ठवासुदेवपूर्वभवः। आव. औषधिविशेषः। प्रज्ञा० ३३ वीथी-क्षेत्रमार्गः। स्था० ४६९। १६३ वीहयण-वीजनः। आचा० ३४५) वीसरणालु-विस्मरणालुः। ओघ० १५४| वुइयं-उदितम्। आव० ३७० वीसरस्सर-अच्चायामेण रूवं तं। निशी० ७७ अ। वुक्कत-व्युत्क्रान्तः। दशवै० २०५१ वीससां-विश्रसा-स्वभावः, जरापर्यायः। भग० ५५। स्व- | वुक्कंति-व्युत्क्रान्तिः। निष्क्रमणम्। प्रज्ञा० ४४। भावः। भग. १७४| विश्रसा-स्वभावः। ज्ञाता० १७४। | वुक्कंती- व्युत्क्रान्तिः-प्रज्ञापनायां षष्ठं पदम्। जीवा. वीससेण-विश्वा-हस्तश्वरथपदातिचत्रङ्गः बलसमेता | ४०० सेना यस्य स चक्रवर्ती विश्वसेनः। सूत्र. १५०| वुक्कारेति-मुखेन बुक्कारशब्दं करोति। जीवा० २४८१ विश्वसेनः-अष्टा-दशममुहूर्त्तनाम। सूर्य १४६। | वुगाहिज्जइ- व्युद्ग्राह्यते। आव० ४३६। विश्वसेनः-अष्टादशममुहूर्त-नाम। जम्बू० ४९१। वग्गह-व्यग्रहः-मिथ्याभिनिवेशः। स्था० ३५१। विग्गहो वीसा- विस्रा। आमगन्धिका-परमदुरभिगन्धा विग्रहो वा-कलहः। अब्रह्मणो दवादशमं नाम। प्रश्न. मृतगवादिकले-वरेभ्योऽप्यतीवानिष्टदूरभिगन्धा। ६६। व्यग्रहः-विपरीतोऽभिनिवेशः। अब्रह्मणो प्रज्ञा०८० द्वादशमं नाम। प्रश्न०६६। व्यग्रहः-सङ्ग्रामः। आव० वीसास-विश्वासः-विश्रंभः। अहिंसाया एकपञ्चाशततमं ७३१। व्यग्रहः-दण्डा-दिघातजनितो विरोधः। उत्त. नाम। प्रश्र०९९ ४३५व्युद्ग्रहः-सङ्ग्रामः। दशवै २२२। विग्रहः-कलहः। वीसंकरेति-वीसंभोगं| निशी० २१८ अ। ओघ० ५६। व्यग्रहः-सङ्ग्रामः। व्यव० ६२ अ। व्य वीसुंभण्णति-वासासु अण्णं खेत्तं गच्छे वी भण्णति। ग्रहः-मिथ्याभिनिवेशः, विप्रतिपत्तिः। स्था० ३७५ निशी० ३३५आ। निशी० ७१। कलहो। निशी० ८४ अ। दंडिकः दविजो वीसुंभत-मृतः। निशी० २०९आ। वा। बृह. २४ आ। कलहो। निशी. ३५। सङ्ग्रामः। वीसुंभिओ-विष्वग्भूतः। बृह० २१२ आ। स्था० ४७७। व्युद्ग्रहः-परस्पर विग्रहः, मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [233] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] दण्डीकादीनामादिशब्दा-त्सेनापत्यादीनां च परस्परं चन्द्र-मसो वृद्धिप्रतिमासः। जीवा० ३४५। वृद्धिःविग्रहः। व्यव० २४३ अ। व्यग्रहः-संग्रामः। व्यव०६२ चन्द्रमसः प्रकटताया उपचयः। सूर्य. २४३। वृष्टिः-महद् । वर्षणम्। भग० २००१ वुग्गाहणमूढी-| निशी० ४३ अ। बूढ- व्यूहः-सगरादिसाङ्ग्रामिकव्युहः। स्था० २१७। दुग्गाहणया-वि कुत्सायां उत् प्राबल्येन ग्राहणता व्युद् वुणाविया- वायितम्। आव० ३०७ ग्रहणता। ओघ० १८१ वुण्ण-खुभियं। निशी. २०४ आ। वुग्गाहिए-कुप्रज्ञापकदृढीकृतविपरीतावबोधः। ब्रह. वुत्तत्थ- उक्तार्थः-स्पष्टार्थः। आव० ८५३ १०६| वुत्तपडिवुत्तया- उक्तप्रत्युक्तिका। भग० ५४८१ वुग्गाहित-व्युद्ग्राहितः-कुप्रज्ञापकदृढीकृतविपर्यासः। वुत्तुं- वक्तुं-उक्त्वा । आव०१३४ स्था० १६५ वुत्था-उषिता। ज्ञाता०१४८ वुग्गाहिय-विशब्दः-कुत्सायामुतः-प्राबल्येन वुप्पइ-उप्यते। आव० १५०| केनचित्प्रत्यनी-केन व्युद्ग्राहितः। ओघ० १८१ वुप्पाएमाण- व्युत्पादयन् दुर्विदग्धीकुर्वन्। भग० ४८९। वुग्गाहेइ- व्युग्राहयति। आव० ३११| व्युत्पादयन्। आव० ३१४| वुग्गाहेमाण- व्युद्ग्राहयन् विरुद्धग्रहवन्तं कुर्वन्तीत्यर्थः। । | वुसीमंत-वसन्ति वा साह् गुणाहि ते। उत्त० २४९। भग० ४८९। व्युद्ग्राहयन्। आव० ३१४। व्युद्ग्राहयन्।। | वुसीमउ- वस्तुमान, वस्तूनि-ज्ञानादिनि तद्वतो उत्त०१५७ ज्ञानादिमा-निति वश्यः आत्मवशगः-वश्येन्द्रिय इति। वुच्चमाण- उच्यमानः-पृच्छमानः। भग० ११४१ सूत्र. १७३ वुच्चू- गुच्छाविशेषः। प्रज्ञा० ३२१ वुसीमओ-वश्य इत्यायत्तः, स चेहात्मा इन्द्रियाणि वा, वुच्छ- देशीपदत्वादवदग्धं-विनष्टम्। बृह० २०८ आ। वश्यानि विदयन्ते येषां वश्यवन्तः। उत्त. २४९। उषितः। ओघ० १२४। उषितः। मरण | व्युषितः। स्था० | वुसीमत-वुशीमतो वश्यवताम्। उत्त० २४९। ४०३। वच्छः -उषितः। उत्त० ३८७१ वुसीमा- वशीमानः-सविग्नाः। उत्त० २४९। वुच्छेए- व्युच्छेदः-निरोधोऽदानं च। आव० ८१९। वूह- प्रतिक्षेपम्। सम० १११। युयुत्सूना-सैन्यरचनां वुच्छेय-व्युच्छेदः-विशेषेण पनरसम्भवलक्षणेनोच्छेदः। चक्रव्यूहे -चक्राकृतौ तुम्बारकप्रध्यादिषु अभावः-व्युच्छेदः। उत्त० ५७८५ राजन्यकस्थापना व्यूहम्। जम्बू० १३९। व्यूहःवुज्झइ-उह्यते-ह्रियते। आव० ५२८१ इदमित्थमेवं रूपोनिश्चयः। औप. ९९। कलाविशेषः। विट्ठ-वृष्टः वर्षणम्। दशवै० २२२॥ ज्ञाता० ३८ व्यूहः-प्रतिक्षेपः। नन्दी० २१३। वुड्ढ-वृद्धः-बादरशरीरी। सूत्र. २२३। वृद्धः तापसः। औप० । वृत्तिः -वतनम्। आचा० ३३४ वाटकविशेषः। उत्त. ९०। वृद्धः-तापसः प्रथममुत्पन्नत्वात्। ज्ञाता० १९३। । ४९०| आजीविका। नन्दी०१५३। आजीविका नन्दी. वृद्धः-तापसः। अनुयो० २५१ १६१। विविधाभिग्रहवर्तनम्। नन्दी. २१० वृत्तिः। वुड्ढसावग-वृद्धश्रावकः। ज्ञाता० १९३। वृद्धश्रावकः सम.११११ ब्राह्मणः। औप० ९०१ वृत्तिदानं- यद्भगवत्किंवदन्तीनिवेदनवृत्तिकल्पं वुड्ढसावय- वृद्धश्रावकः ब्राह्मणः इत्यन्ये। अनुयो० २५। परिभाषितं संवत्सरनियतं दानं दीयते तत्। बृह. १९९ वुड्ढावासो- | निशी. २३९ अ। अ। वृत्ति-दानम्। आव० २३० वुढिकाए-वृष्टिकायं-प्रवर्षणतो जलसमुहं प्रकरोति- वथाभागी-कापालिकः। आव० ६२८। प्रवर्षति। भग०६३४१ वृद्धवाद-आचार्यपारम्पर्यश्रुत्यायातो वृद्धवादः। आचा० वुढिपडत्तं-वृद्धिप्रयुक्तम्। आव० ३५७। ર૬રા. वुड्ढी-वृद्धिः-वृद्धिप्रतिमासः। सूर्य०७। वृद्धिशुक्लपक्षे | वृद्धवासावग्रह-अवग्रहविशेषः। सम २३। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [234] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] वृद्धशीलता- वपुर्मनसो निर्विकारता। स्था० ४२३। वषि २७९ मनषि च निभत्तस्वभावता निर्विकारतेति। उत्त० ३९। वेडआ-वेदिका-उपवेशनयोग्या भूमिः। जम्बू. १२११ वृद्धिः- औषधिविशेषः। उत्त० ४९० नन्दी. १५९) वेइए-वेदनं-कर्मणो भोगः। भग०१६। वेदिताः स्वेन वृन्त-मूलनालः। बृह. १६३ अ। रसवि-पाकेन प्रतिसमयमनुभूयमानाः वृन्तक-पत्रबन्धनम्। उत्त० ३३४। अपरिसमाप्ताशेषानुभावाः। भग. २४वेदितः-कथितःवृन्तस्थायिना-उर्ध्वमुखेन। सम० ६१| प्रतिपादितः। आव० ११६| वृन्ताकी- गुच्छविशेषः। आचा० ३०| गुच्छभेदः। भग. वेइज्जति-वेद्यते-क्षिप्यते अप्रमादेन। स्था० १३५ ३०६। उत्त०६९२ वेइज्जमाण-व्येजमानं कम्पमानम्। भग०१८ वृन्दं-पटलम्। आव० ७८८ वेइज्जमाणा- वेदयमाना-ईर्यापथिकीक्रियाया दवितीयो वृश्चिक-पृथिव्याश्रितो जीवभेदः। आचा० ५५ भेदः। आव०६१५ वृषभग्रामः- विवक्षितस्य स्थानस्य समन्ततः सन्ति वेइज्जमाणे वेइए- व्येजमानं-कम्पमानं व्येजितंवृषभ-ग्रामः। व्यव० ३७२ आ। कम्पितम्। सम०२१ वृषभवाहण- वृषभवाहनः-शङ्करः। जीवा० ३९१। वेइय-वेदितं-कथितम्। आचा० १२३। चपलम्। ज्ञाता० वेंगल-विह्वलः-निस्सहाङ्गः। प्रश्न०४९। २९। वेदितः-अनुभूतः। भग० २४१ वेंट-त्रिहस्तविस्तरः। व्यव० २७५ अ। वेड्या- वेदिका-पार्श्वतः परिकररूपा। प्रश्न. १५२। वेंटिल-वेण्टलं निमित्तादि। ओघ. १५४। वेविका-प्रमाणाङ्गुलप्रमेयः। अनुयो० १७१। वैदिकाःवेंटिया- विण्टिका। आव. २९११ विदयवृद्धाः। दशवै. १२७। वेदिका। ओघ. १०९। वेअच्छगसुत्तग-वैकक्ष्यसूत्रकं-उत्तरासङ्गम्। जम्बू० वेदिका-उपवेसन-योग्यमत्तवारणरूपा। जीवा० १८२। २७५ वेदिका-उपवेशन-योग्याभूमिः। जीवा० २७९| वेअड्ढ-वैताढ्यः-पर्वतविशेषः। जम्बू०६७। उपवेशनयोग्यमत्तवारणरूपा। जम्बू. २५१ वेदिकावेअड्ढकूड- वैताढ्यनाम्नो देवस्य निवासभूतं कूटं जम्बूद्वीपजगत्यादिसम्बन्धी। प्रज्ञा० ७१। वेदिकावैताढ्य-कूटम्। जम्बू०७७। उपवेशनयोग्यमत्तवारणरूपा। राज० ८४॥ वेअड्ढगिरिकुमार-क्रीडाकारित्वात् वेताढ्यगिरिकुमारः। | वेइपुडंतर-वे वेदिके वेदिकापुटं तेषामन्तरं जम्बू० २१६| वेदिकापुटान्तरम्। जम्बू० २५द्वे वेदिके वेदिकापुटं वेअणअ-वेतनकं-कविन्दादीनां तेषामन्तरं वेदिकापुटा-न्तरम्। जीवा० १८२। व्यूतवस्त्रव्यतिकरेऽर्थप्रदानम्। अनुयो० १५४। वेइयाबद्ध- वेदिकाबद्ध-यत् जाननोरुपरि हस्तौ निवेश्याधो वेअद्ध-वैताढ्यकूटनाम। जम्बू. ३४१। वा पार्श्वयोर्वा उत्सङ्गे वा एकं वा जान करद्वयान्तः वेअरणीत्ति- वैतरणीति परमाधार्मिकः, स च कृत्वा वदन्ते तत्। कृतिकर्मणि दशमो दोषः। आव. प्यरुधिरप्रपता-म्रादिभिरतितापात्कलकलायमानैर्भूतां ୨୫ विरूपं तरणं प्रयोजन-मस्या इति वैतरणीति। सम० २९| | वेइयाबाहा-वेदिकापार्श्वम्। राज०८४| वेदिकाबाहावेआलिया-विताले-तालाभावे भवतीति वैतालिकी। वेदिका-पार्श्वम्। जीवा. १८२१ वेदिकापार्श्वम्। जम्ब० जम्बू० ३८५ वेआवच्चं- व्यापृतभावे वैयावृत्त्यम्। दशवै० ३१| | वेउट्ठिय- व्यावृत्य व्यावृत्य प्रतिदिवसं अनुज्ञापनम्। वैयावृत्त्यं-भक्तपानादिभिरुपष्टम्भः। औप० ४३। व्यव०७२। वेआवडिय-व्यावृत्तभावः वैयावृत्त्यं गृहस्थं | वेउव्वि- विकृतम्। स्था० १३८ विकतम्। ओघ० ५२ प्रत्यन्नादिसम्पा-दनम्। दशवै० ११७ वेउव्विइ-वैक्रिय-विकृतम्। ओघ० २१६। वेइअसंठाणसंठिओ- वैदिकासंस्थानसंस्थितः। जीवा० | विउव्विए- विविधं विशिष्टं वा कुर्वन्ति तदिति वैकुर्विकम् २५ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [235] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] । सम० १४३। वैक्रिय-विविधा विशिष्टा या क्रिया वेगित- ग्रासस्य गिलने वेगवत। प्रश्न.१२९। ज्ञाता० विक्रिया तस्यां भवं वैर्विकं, विक्र्वणं-विक्र्वः विविधा | ९७ क्रिया तेन निर्वतं वा। प्रज्ञा० २६८, २६९। वैक्रिय-विविधां | वेच्च- व्यूतं-वानम्। जीवा० २१० तज्जातः। राज० ३७ विशिष्टा वा क्रिया विक्रिया तस्यां भवं वैक्रियम। सम० वेच्छासत्त-वैकक्षिकासूत्रं-उत्तरासङ्गपरिधानीयम्। १४३। विविधा विशिष्टा वा क्रिया विक्रिया तस्यां भवं भग०४७७ वैक्रियम्। जीवा० १४१ वेच्छु- पर्वगविशेषः। प्रज्ञा० ३३ वेउव्विय-विविधा विशिष्टा वा क्रिया विक्रिया तस्यां भवं | वेजयंत-वैजयन्तः-प्रधानः। सूत्र. १४९। जम्बूदवीपे विक्रियम्। स्था० २९५ विभूषितः। भग०७४६। महत्प्र- | दवितीय-दवारम्। स्था० २२५। माणम्। निशी. १०८ आ। वातादिवशान्महत्सागारिकं | वेजयंता-वैजयन्ता-उत्तरदिग्भाव्यञ्जपर्वतस्य विकुर्वितं सविंटकं वा। बृह. १५ आ। विशिष्टं कुर्वन्ति | दक्षिणस्यां पुक्करिणी। जीवा० ३६४। वेजयन्तातदिति वैकुर्विकम्। अनुयो. १९६। विविधा विशिष्टा वा अनुत्तरोपपातिक-भेदविशेषः। प्रज्ञा०६९। क्रिया विक्रिया तस्यां भव वैक्रियम्। अनुयो० १९६। वेजयंति-वैजयन्ती-विजयंतसूचिका पताका। प्रश्न. ४८१ वैक्रियं-दवितीयं शरीरम्। प्रज्ञा० ४६९। वैजयन्ती-पार्श्वतो लघुपतादिकाद्वययुक्ता पताका। वेउव्वियलद्धी-वैक्रियलब्धिः । भग० ८९| जम्बू० २०५१ वेउव्वियसमुग्घाए- वैक्रियसमुद्घातः-वैक्रियकरणाय वेजयंतिय- पर्यायेणोपभुज्यमानम्। आचा० ४००। प्रयत्न-विशेषः। जीवा० २४३। वेजयंतो-वेजयन्ती-पौरस्त्यरुचकवास्तव्या षष्ठी वेउव्वियसमुग्घाय- वैक्रियसमुद्घातो-वैक्रियकरणार्थो दिक्कुमारी। जम्बू० ३९१। वैजयन्ती-रात्रेर्नाम। जम्बू. जीव-व्यापारविशेषः। ज्ञाता० ३१ वैक्रियसमुदघातः- ४९१। वैज-यन्ती-ग्रहाणामग्रमहीषि। जम्बू. ५३२ उत्तरवैक्रि-यार्थकप्रयत्नविशेषः। जम्बू. २४१। वैजयन्ती-विजयः-अभ्युदयस्तत्संसूचिका या पताका, वेउव्वियसरीर-विभूषितशरीरः। भग० ७४६। वेठव्विया- विजयः-वैजयन्तीनां पार्श्वकर्णिका तत्प्रधाना वा पताका वैकुर्विका-विकुर्वितनानारूपधारिणी। जीवा० ३४६। वैजयन्ती। प्रज्ञा० ९९। वैजयन्ती। सूर्य. २६३। वैकुर्विका-विकुर्वितनानारूपधारिणी। सूर्य २८१। वैजयन्ती-पूर्वरुचकवास्तव्या दिक्कुमारी। आव० १२२। वेउव्वियोवंग- वैक्रियाङ्गोपाङ्गः। प्रश्न० ४७०। विजयः-अभ्युदयः-तत्सूचका वैजयन्त्यभिधाना वा वेए- वेदः-यज्ञक्रियादिः। दशवै. ११४१ पताका, अथवा विजय इति वैजय-न्तीनां वेएंति-वेद्यते-आत्मनां ज्ञायते। स्था० २५३। पार्श्वकर्णिकोच्यते, तत्प्रधाना वैजयन्तस्यः पताकास्ता वेओ- वेदः-विदन्त्यस्माद्धेयोपादेयपदार्थानिति वेदः- एव विजयवर्जिता वैजयन्त्यः प्रज्ञा. ९९। वैजयन्तीक्षायो-पशमिकभाववर्त्ययमाचारः। आचा०६। आनन्दबलदेवमाता। आव० १६२। सम० २५२। वेग-वेगः-रयः। उत्त० ५०८ वेगः-रयः। आव०६०२ इङ्गालस्य द्वितीयाग्रमहिषी। स्था० २०४। वेगच्छ- वैकक्ष-उत्तरासङ्गः। उपा० २२१ अञ्जनपर्वते नंदापुष्करिणी। स्था० २३१। इङ्गालग्रहस्य वेगच्छिया-वैकक्षिकी-संयतीनामपकरणविशेषः। ब्रह. द्वितीयाग्रमहिषी। भग० ५०५वैजयन्ती-पार्श्वतो १७७| लघुपताकिकाद्वययुतः पताकाविशेषः। औप०६९। वेगपक्क-वेगपक्वं-रूढिगम्यम। विपा०८० वैजयन्ती-विजयवर्जिता पताका। जीवा० १७५, २०९, वेगल-पृथक्। बृह. २८६ आ। ३७९। विजयवर्जिता पताका। जम्बू. ५४। वैजयन्तीवेगवती-नदीविशेषः। आचा. १७९। नदीविशेषः। सूत्र० पार्श्वतो लघुपताकिकाद्वययुक्ता पताकाविशेषः। भग. १९६। ४७९ वेगविघाओ-वेगविघातः। आव०६१७) वेज्जपाठ-स्वरवर्जितः पाठः। बृह. १६ आ। वेगसरादि-हस्त्यादिवाहनम्। स्था० २१११ वेज्जसत्थ- वैदयकशास्त्रम्। आव० ३४७५ ४७९ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [236] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] ६९३३ वेज्जा-विद्याः भिषग्वरः। ज्ञाता० १७९। एव वा वैनयिकं तदेव ये स्वर्गादिहेतुतया वेडसरुक्ख-नेमिनाथचैत्यवृक्षः। सम० १५२। वदन्तीत्येवंशीलाश्च ते वैनयिकवादिनः। भग. ९४४। वेडुंबग- वेडुम्बगः-नरेन्द्रादिविशिष्टकुलोद्गतः। आव. वेणइया-लिपिविशेषः। प्रज्ञा० ५६। विनयः-गुरुशुश्रुषा ૨૮. सकारणमस्यास्तत्प्रधाना वा वैनयिकी वृद्धिः। वेड्ढा- व्याः -लज्जाप्रकर्षवन्तः। जम्बू. १३४| चतुर्विधबु-द्ध्यौ द्वितीया। आव.४१४। विनयेन चरति वेइढिकरण-परं परिणयणं। निशी० ८९आ। तत्प्रयोजनो वा वैनयिका। सूत्र० २०८। वैनयिक वेढिया-वेट्टिका राजकन्यका। बृह. ६९ अ। विनयफलं कर्मक्षयादि। भग० १२२। आचार्यादयः। व्यव० वेडढेति-वर्धयति-प्रमार्जयती। निर०२६। २४११ वेढ-वेढः-छन्दो विशेषः। नन्दी. २१०। ज्ञाता०२१८, वेणतिया-वैनयिकी-विनयलभ्यशास्त्रार्थसंस्कारजन्या। २२८ वेष्टः-ग्रन्थिः । उत्त. १४८ वेष्टकः-वर्णकः। राज०११६ जम्बू. २४३। वेष्टकः-वस्तुविषयवर्णकः। जम्बू० २३४। | वेणतियावादी-विनय एव वैनयिकं तदेव वेष्टकः-छन्दो विशेषः। अनुयो० २३३। वेष्टकः- निःश्रेयसायेत्येवं-वादिनो इति वैनयिकवादिनः। स्था० छन्दोविशेषः। सम० १०८ ર૬૮. वेढओ-वेष्टकः-वर्णकः। जम्बू. १७३| निशी. १३ वेणय-विनयः। ज्ञाता०६१| वेढग- ग्राहविशेषः। जीवा० ३६। ग्राहविशेषः। प्रज्ञा०४४। । वेणा-कल्पकवंशप्रसूतशकटालस्य षष्ठी पुत्री। आव. वेढणय-वेष्टनकः-कर्णाभरणविशेषः। जम्बू. १०५ वेढिम- वेष्टनं वेष्टस्तेन, निर्वत्तं वेष्टिमं-मकटादि। । वेणि-वेणी-बृहत्तरा आपणाः। आपणस्थितव्यवहारिणो स्था० २८६। वेष्टिमं-वेष्टितनिष्पन्नं पुष्पलम्बूसकादि। | वा। बृह. १५४ आ। भग० ४७७ वेष्टिमं-वेष्टनतो निष्पाद्यन्ते। ज्ञाता० | वेणिभूए- वनिताशरिसः। ज्ञाता० १६० १७९। वेष्टिमं-यत् पुष्पमुकुटमिवोपर्यपरिशिखराकृत्या वेणीबंधो-वेणीबन्धः। आव० ३५५ मालास्थापनम्। जम्बू. १०४। वेष्टिमं वेण- वनस्पतिविशेषः। भग० ८०२ आचा०४१२। वेणःपुष्पमयमुकुटरुपम्। दशवै ८७। वेष्टिमं-वेष्टनेन वंशः। प्रज्ञा० ३७। वेणुः-वंशविशेषः। जम्बू० १०१। वंशः। निवृत्तं पुष्पगेन्दुकवत्। प्रश्न० १६०| वेष्टिम-उपर्यु- सूर्य० २३३॥ वंशविशेषः। जीवा० २६६। वेणुःपरिशिखराकृत्या मालास्थानम्। जीवा० २६७। वेष्टिमं- | आतोद्यविशेषः। प्रज्ञा० ८७। यद्यस्थितं सद्वेष्ट्यते। ज्ञाता०५३। वेष्टिमं- | वेणुओ- वाद्यविशेषः। स्था० ३३१| पुष्पवेष्टनक्रमेण निष्पन्नमानन्दपुरादिप्रतितरूपम्, | वेणुग्गह-वंशग्राहः। जं० उत्त० ४९६। अथवा एकं द्रव्यादीनि वा वस्त्राणि वेष्टयन रूपकं वेणुदालि-लोकपालः। स्था० २०५। उत्तरनिकाये तृतीय उत्थापयति तद्वेष्टिमम्। अनुयो० १२। वेष्टिमं- इन्द्रः। भग. १५७। जीवा० १७० लोकपालः-स्वर्णवस्त्रादिनिर्वृत्तित्तपुतलिकादि। आचा० ४१४। कुमाराणामधिपतिः। प्रज्ञा. ९४१ वेढेतुं-वेष्टयित्वा। आव० ३५१| वेणुदाली-सुवर्णकुमारेन्द्रः। स्था० ८४। वेणइय-विनयेन चरतीति वैनयिकः शिष्यः। दशवै. वेणुदेव- वेणुदेवः-प्रवरसुवर्णकुमारविशेषः। प्रश्न० १३५१ ११३। वैनयिकं-विनयफलम्। नन्दी. २१० विनयेन वेणुदेवः-सुवर्णकुमाराणामधिपतिः। प्रज्ञा० ९४। वेणुदेवःचरति विनयो वा प्रयोजनमस्येति वैनयिकः। आव. नागकुमारराजव्यतिरिक्तो देवराजः। जीवा० १७०। देव८१७। वैनयिकं तत्फलं कर्मक्षयादि। ज्ञाता०६१। मूल्यम् विशेषः। स्था०६९| लोकपालः। स्था० २०५। देवकुरः | निशी०६९। गरुडजातीयो देवः। सम० १४। वेणुदेवः-सुवर्णकुमाराणावेणइयवाइ-विनयेन चरन्ति स वा प्रयोजनमेषामिति मिन्द्रः। स्था० ८४| वेणुदेवः-दक्षिणनिकाये तृतीयो वैनयि-कास्ते च ते वादिनश्चेति वैनयिकवादिनः विनय | इन्द्रः। भग० १५७। वेणुदेवः। जीवा० १७०। देवविशेषः। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [237] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] जम्बू० ३५६ मेहनं वृषणदवयं च शूस्यते यस्य। बृह. १०० अ। वेणुपलासिय-वंशात्मिका लक्ष्णत्वक् काष्ठिका। सूत्र० वेदणय-वेतनकम्। बृह. २१७ आ। ११७ वेदन-गमनम्। स्था० ३४८ अनुभवः। स्था० १०१। वेणुयाणुजात-वेणुः-वंशस्तदनुजातः-तत्सदृशो योगो अनुभव उदय इत्यर्थः। स्था०४१७ अनुक्रमोदितस्योदीवेणु-कानुजातः। सूर्य० २३३। रणोदीरितस्य वा कर्मणोऽनुभवः। भग० ५१२। वेणुसिलागिगी- वेणुः-वंशस्तस्य शलाका ताभिर्निर्वृत्ता स्थितिक्ष-यादुदयप्राप्तस्य कर्मण उदीरणाकरणेन वेणु-शलाकिकी-वेणुशलाकामयी सम्मानी। राज० २३। | वोदयभावमुपनीत-स्यानुभवनं वेदनम्। स्था० १९५ वंश-शलाकानिवृत्ता सम्मार्जनी वेणुशलाकिकी। । वेदना-उदय विपाकः। स्था० ५८१ दुःखासिका। स्था. जम्बू० ३८८१ १८११ वेणेमाणी-दोहलं विनयन्ती। ज्ञाता० ३३। वेदपुरिसं- वेदः-पुरुषवेदः तदनुभवनप्रधानः। पुरुषो-वेदवेण्णतउ-णगरविसेसो। निशी. १०२ आ। पुरुष। स्था० ११३॥ वेतंत-व्येजमान-विशेषेण कम्पमानम्। स्था० ३८५ वेदमूढो- भयमूढः। निशी० ४२ आ। वेतरणी-वैतरणी-नरके नदी। उत्त०४७६। वैतरणिः- वेदयिता- विज्ञः। भग० १०२ कृष्णवासुदेवस्य वैद्यो भव्यः। आव० ३४७) वेदस-यागः। उत्त० ५२५ वेतिता-वेदिका-मुण्डप्रकारलक्षणा। स्था० १४६। वेदसा-प्रमाणाबाधितत्त्वलक्षणं ज्ञानम्। भग० ३२५ वेतियं-वेदितं-अनुभूतस्वरूपम्। भग० १८४। वेदिः- वेदा- यज्ञो-अध्वरः। उत्त. ५२५१ वितर्दिका। वेदिका। प्रश्न. ८१ वेदावेउ-वेदे-वेदने कर्मप्रकृतेः एकस्याः वेदोवेतिया- षष्ठी प्रमादप्रत्यपेक्षणा। स्था० ३६१। वेदनमन्यासां प्रकृतिनां यत्रोद्देशकेऽभिधीयते स वेतुलिय-नास्तित्वादी। निशी. १० अ। वेदावेदः। भग०७०२ वेत्त- वेत्रम्। सूत्र० ३१२। वेत्रम्। प्रज्ञा० २६६। वेत्रः। वेदिकादि-वधूपरादिकं तत्स्थानम्। आचा०४१३। जलवंशः। प्रश्न. ५७ निशी. १२११ अ। वेत्रः-जलवंशः। | वेदिवढेइ-वेदिकां-देवार्चनस्थानं वर्द्धनी-बहकारिका तां प्रश्न. ५७। वेत्रः-जलवंशः। जम्ब० १४७। वेत्रलता- प्रयुक्त इति वर्द्धयति-प्रमार्जयतीत्यर्थः। भग. ५२० जलवंशकम्बा। भग० ३९८ वेत्रः-पर्वगविशेषः। प्रज्ञा० वेदितवन्तः- अनभवन्तः। स्था० १७९| वेदिय-वेदितम्। भग० १८५ वेत्तग्ग-वेत्राग्रम्। आचा० ३४९। वेदिस- वैदिश-विदिशा समीपं नगरम्। अन्यो० १४९। वेत्तदण्ड- वेत्रदण्डः। प्रश्न. ५८ दशवै. २४८। वेद-विवारं-यदा अपरस्यां दिशां गच्छति तदा तत् वेत्तपीढग-वेत्तासणगं| निशी० ६२ आ। विद्वारं-विगतद्वारम्। व्यव० ६अ। वेद-बन्धः-वेदबन्धकः। प्रज्ञा०६। वेदयते-अनुभवतीति- | वेदेति- वेदयति अनुभवति, देशेन हस्तादिना अवयवेन वेदस्तस्य बन्धः एव, कति प्रकृत्तिर्वेदयमानस्य कति सर्वेण सर्वावयवैराहारसत्कान् परिणमित्तपुद्गलान् प्रकृतीनां बन्धो भवन्तीति तन्निरूपकं प्रज्ञापनायाः । इष्टानिष्टपरि-णामतः। स्था० ६२ षवि-शतितमं पदम्। प्रज्ञा० ६। वेदः-वेदेषु चतुर्यु वेधः- यज्ञः-अध्वरः वेषः मखः वेदः वितथः। उत्त० ५२५१ साङ्गोपाङ्गेषु नास्त्याचामाम्लं द्वितीयः कुडङ्गः वेधः-वेधकालः। दशवै० २५३। वेधः-कुन्तादिना शस्त्रेण शास्त्रम्। आव० ८५६। सिद्धान्तः। उत्त० ४१४१ भेदनम्। सम० १२६। समस्तदर्शनिनां सिद्धान्तः। व्यव० १६९ आ। वेधनक-शस्त्रविशेषः। अनयो० २२३॥ वेदक- वेयति-निर्जरयति-उपभजतीति-वेदकः। दशवै. | वेभार-वैभारः-एतन्नामा राजगृहनगरे क्रीडापर्वतः। भग० १४१॥ वैभारः-क्रीडापर्वतः। भग० ३०६। वेदकुंभी- यस्योत्कटमोहतया प्रतिसेवनमलभमानस्य वेभारगिरि-वैभाराभिधानः गिरिः। ज्ञाता० २५४ ३३ पा ७० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [238] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] वैभारगिरिगुहा- वैभारगिरिगुफा-यत्र चतुर्मुनिभिः कर्मणोऽनुभवः। भग० १८२। वेदना-सुखदुःखरूपं वेदनं शीतपरीष-होढः। उत्त० ८९। वा संवेदनम्। भग० ३१२। वेतन-मूल्यम्। ज्ञाता० १५० वेभारपव्वय-पर्वतविशेषः। ज्ञाता० १७८। वेयणासमुग्घाए-वेदनायाः समुद्घातोः वेभारपव्वयकडग-वैभारपर्वतकटकम्। उत्त०२५१ वेदनासमुद्घातः। जीवा० १६) वेमनस्स-वैमनस्यं दैन्यम्। प्रश्न.५ वेयणाखंध- वेदनाष्कन्धः-सुखं दुःखं सुखदुःखेति त्रिविधवेमाणिआ-वैमानिकाः-विविधं मन्यन्ते-उपभूज्यन्ते वेदनास्वभावः। प्रश्न. ३१| सुखा दुःखा अदुःखसुखा पुण्य-वद्भिर्जीवैरिति विमानानि तेषु भवाः वैमानिकाः। चेति वेदना वेदनाष्कन्धः । सूत्र. २५ प्रज्ञा०६९। वेयणापय-प्रज्ञापनायां पञ्चविंशत्तमं पदम्। भग०४९७) वेमाद्यन्यद्रव्यकारण-तन्त्वादैविपरीतं कारणम्। आव० वेयणासय-वेदनाशतं-अपरिमिताः वेदनाः। जीवा० १३० ર૭૮\ वेयरणि-वैतरणि-नरके नदीविशेषः। प्रश्न. २०| वैतरणिवेमाया-विमात्रा-विविधमात्रा। भग० १८४| विषमा नरकनदी। आव०६५११ वैतरणी-नरके विविधा वा मात्रा-कालविभागो विमात्रा। भग० २९। त्रयोदशमपरमाधा-र्मिकः। आव०६५० विमात्रा-विविधमात्रा। भग० २५२ विमात्रा-विविधा वेयरणी-वैतरणिः त्रयोदशपरमाधार्मिकः। उत्त०६१४| मात्रा। भग० २८६। विषमा मात्रा विमात्रा वैतरणी-क्षारोष्णरूधिराकारजलवाहिनी नदी। सूत्र अनियतविरहकालप्रमाणेति। प्रज्ञा. २२११ १२९ वेयंत-विदन्-जानानः। उत्त० १२३। वेयणाऽहियासणया- वेदनाभिसहनता, षड़ वेय-वेदनं-वेदः विपाकः तत्तत्कर्मफलानुभवः। उत्त० । विंशतितमोऽनगार-गणः। आव० ६६० २०९। वेद्यतऽनेनेति वेदः-श्रुतज्ञानम्। दशवै. २५६ | वेयवी- वेदवित्-तीर्थकरः वेदविद्वा-आगमविद् वेद्यते-जीवा-दिस्वरूपं अनेनेति वेदः-आचाराद्यागमः। गणधरचतुर्द-शपूर्वविदवेति। आचा० २१७। आचा० १५४१ वेयवेयए- वेदवेदकः-कां प्रकृतिं वेद्यमानः कति वेयइ-व्येजते-विविधं कम्पते। भग० १८३। प्रकृतिर्वेदयति इत्यर्थप्रतिपादकं प्रज्ञापनायाः वेयछिया-उक्कच्छियं प्रति विपरीते। निशी० १८० सप्तविंशतितमं पदम्। प्रज्ञा०६। वेयड्ढ-वैताढ्यः-पर्वतविशेषः। आव० ११६। वेयसि-वेदेन-हेतुनाऽस्यति-अशभानि कर्माणि क्षीपतीति वेयड्ढगिरि- पर्वतविशेषः। ज्ञाता० १००| निशी. ३४८१ | निरुक्तविधिना वेदसो-योगः। उत्त० ५२५१ वेयड्ढगिरिकुमार-वैताढ्यगिरिकुमारः। आव० १५०| वेया-वेदाः-आगमाः ऋग्वेदादयो वा। औप० ३३ वेयण- वेदनं-अनुभवनम्। भग० ५३। वेदनं वेयारणा- विचारणा-प्रतारणम्। आव०६१६। शुभाशुभकर्मवे-दना पीडा वा। भग० १०४। वेतनं-मूल्यम् वेयारणिया-विदारणं विचारणं वितारणं वा । औप०१४। वेदनम्। दशवै. २७४१ वेदनं स्वार्थिकप्रत्य-योपादानात् वैदारिणीत्यादिवाच्यम्। क्षुद्रवेदनोपशमनम्। पिण्ड० १७६| वेदनं-क्षुदवेदना। जीवाज्ञापनी जीवा-नायनी। अजीवाऽऽज्ञापनी ओघ. १८९। वेतनं मूल्यम्। उपा० ४० अजीवानायनी। स्था०४३। वेयणकाल- वेतनकालः। आव० ४२४। वेयारिया-विप्रतारिता। बृह. २४७ अ। वेयणभत-वेदना-पीडा-तद्भयं वेदनाभयम्। आव० ३८९।। वेयाल-वेतालः-विकृतपिशाचः। प्रश्न० ५२। सुवर्णसिद्धौ वेयणय-वेतनकं-मूल्यम्। आव० ७३३॥ वैतालः-व्यन्तरविशेषः। आव०४५२ वेयणा-वेदगा, प्रज्ञापनायाः पञ्चत्रिंशत्तमं पदम्। प्रज्ञा० | वेयालि-वैताली। अन्त०१५ ६। वेदना-स्वस्वाबाधाकालक्षयाद्दयप्राप्तस्य उदीरणा | वेयालिए- वैक्रियः। सूत्र. १३९। सूत्रकृतांगे द्वितीयमध्यकरणेन वा उदयम्पनीतस्य कर्मणः उपभोगः। प्रज्ञा० यनम्। सम० ३११ २९२१ वेदना-कर्मानुभवलक्षणा। सत्र. ३७९। वेदना- वेयालिय-वैतालियं-छन्दोविशेषरूपं वृत्तम्। सूत्र. ५३| मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [239] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] विकालः। आव. ९५। विकाले-वेलायां परिसमाप्तं वैका- | १५१ अ। लिकम, विकाले पठ्यते इति वैकालिकम्, विकालेन वेरग्गपडिओ- वैराग्यपतितः-प्राप्तवैराग्यः। दशवै० ९५ निर्वृत्त वा। दशवै० ३। विकालः। आव०६६९। वेरग्गित-विरागो अग्गं जस्स विगतरागो वा। निशी. वैकालिकम्। आव० ६९०। वेलातटः। ज्ञाता० २२५१ २५॥ वेयालियवक्क-विचारितवाक्यम्। आव० ७७३। वेरज्ज-यत्र राज्ये पूर्वपुरुषपरम्परागतं वैरं तद् वैराज्यम् वेयाली-वैतालिः-नियताक्षरप्रतिबद्धा विद्या, या । न पूर्वपुरुषपरम्परागतं परं सम्प्रति ययो राज्ययो वैरं कतिभिर्ज-पैर्दण्डमत्थापयति। सूत्र. ३१९| वैतालिकी । जातम्। परकीयग्रामनगरदाहादीनि कुर्वन् यत्र वीणा। जीवा. १९३| राजादिर्वैर-विरोधं रज्यते। वेयालीय-वैतालिक-सूत्रकृताङ्गस्य द्वितीयमध्ययनम्। आमात्यादिप्रधानपुरुषसमूहरूपं रज्येणंति। विवक्षि-तेन उत्त०६१४। वैतालिकं, सूत्रकृताङ्गाद्यश्रुतस्कन्धे राज्ञा सह विरज्यते। विरक्ति भवति। विगतराजकम्। द्वितीयममध्यय-नम्। आव०६५१| बह. ८१आ। एव करेंतो वेरुप्पायणे रज्जति एवं वा, वेयावच्च- व्यावृत्तस्य भावः कर्म वा वैयावृत्त्यं सव्वे-सरा विरज्जति भृत्याः, जस्स संपदं राइणो वेरं भक्तादिभिरु-पष्टम्भः। स्था० १५५ व्यावृतस्य जातं तं वेरज्ज। जत्थ रज्जे पव्वतरिसपरंपरागयं शुभव्यापारवतो भावः कर्म वा वैयावृत्त्य वेरमत्थितं भनत्ति। विगतो रायामतो पविसतो वा। भक्तादिभिर्धर्मोपग्रहकारिवस्तुभिरुपग्रह निशी. १०, ११। परचक्रकृतोपद्रवं दायादविग्रहयुतं वा करणमाचार्यवैयावृत्त्यं तत्कुर्वाणः विदधत्। स्था० २९९। राज्यम्। बृह. ८२। वैयावृत्यं-भक्तपानादिभिरुपष्टम्भः। भग. ९२२॥ वेरडिय-विरेचितः-विभक्तिकृतः। व्यव० ३४१ अ। वैयावृत्त्यं-व्यावृतकर्मरूपमुपष्टम्भनमिति। प्रश्न. वेरत्तिय-वैरात्रिकं-तृतीयं कालम्। उत्त० ५३९। २२६। व्यावृत्तभावो वैयावृत्त्यम्। आव० ११९। वेरनिज्जायण- वैरनिर्यातनम्। आव० ६९२। वैयावृत्त्यः। पञ्चदशमं स्थानकम्। ज्ञाता० १२२॥ वेरमण-विरमण-सम्यग्ज्ञानश्रद्धानपूर्वकं निर्वतनम्। वैयावृत्त्यं-उचिताहारादिसम्पादनम्। उत्त०६०९। स्था० २९०। विरमणं-रागादिविरतिप्रकारः। ज्ञाता० १३४॥ वेयावत्त-चैत्यविशेषः। आचा० ४२४। मनोनिवृत्तिम्। उपा० ३०| मनसो निवृत्तिः। औप० ८३। वेयावडिय-वैयावृत्य-प्रत्यनिकप्रतिघातरूपम्। उत्त. विरमणं-सम्यग्ज्ञानश्रद्धानपूर्वकं सर्वथा निर्वतनम्। ३६८ वैयावृत्त्यम्। भग० २१९। आदरकरणम्। दशवै. दशवै० १४४। विरमणं-औचित्येन रागादिनिवृत्तिः। १६३। ज्ञाता० ११२ भग० १३६। विरमणं-सामान्येन रागादिविरतिः। भग. वेर-वैरं-वैरहेतृत्वात्। अब्रह्मणो द्वाविंशतितमं नाम। ३२३ प्रश्न० ६६। वैर-अनुशयानुबन्धः । प्रश्न० ९९, १२०। वैरं- | वेरसेण-वज्रसेनः-पुण्डरीकिण्यां राजा। आव० ११७ परस्प-रानुशयः। प्रश्न. १३६। वैरः-वज्रः। आव० १२३। वेरस्स-वैरस्यम्। जीवा० २४५। वैरं-वधः पापं वा। भग. ९३। वैरं-कर्मजीववधजनितं वा। | वेरिय- वैरिणः-सानुबन्धशत्रुभावः। ज्ञाता० ८७। ओघ. १९५१ वैरं-परस्परमसहनतया हिंस्यहिंसकभावा- वेरी-वैरी-जातिनिबद्धवैरोपेतः। जीवा० २८० ध्यवसायः। जीवा० २८३। वैरः-कर्मः-जीववधजनितम्। वेरुलिए- पृथिवीभेदः। आचा० २९। वैडूर्यः-मणिभेदः। ओघ. १९५। अभिमानसमत्थोऽमर्षावेशः-परापकाराध्य- उत्त० ६८९। वैडूर्यकाण्ड-तृतीयं वैडूर्याणां विशिष्टो वसायो वैरम्। आचा. १५५१ वैरं-प्रदवेषः। उत्त. २६५ भूभागः। जीवा० ८९। वैडूर्यः। प्रज्ञा० २७।। वैरं-वजं, कर्म विरोधलक्षणं वा वैरं तत्। सूत्र. ३७४। | वेरुलिय- वैडूर्य-रत्नविशेषः। प्रश्न० १३४। वैडूर्यः-मणिवैरम्। आव० ९८१ विशेषः। आव० ५२१। वैडूर्यः-रत्नविशेषः। ज्ञाता० ३१| वेरग्ग-वैराग्यं-कषायनिग्रहः। औप० ४८ वैराग्यं- वेलंधर- वेलां-शिखोपरिजलं शिखां च अर्वाक् पतन्ती रागनिग्र-हणम्पलक्षणमेतत् दवेषनिग्रहणं च। व्यव. धरति धारयतीति वेलन्धरः। जीवा० ३०९। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [240] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] वेलंधरनागराया- वेलन्धरनागराजः। जीवा० ३११| | वेणु-शलाकादि। उत्त० १९५१ वेलंब-वायुकुमारेन्द्रः। स्था० ८५ वायुक्मारः। स्था० | वेलुग-वेलुयं-बिल्वम्। आचा० ३४९। १९८१ पातालकलशे देवः। स्था० २२६। वेलम्ब-परेषां वेलुग्गाह-वेलुग्राहः। दशवै० ९९। क्न्त ग्राहः। आव० ३५०| विडम्बनकारि। प्रश्न. ११६) वेलोइय- वेलोचितं-ग्रहणकालोचितम्। दशवै.२१९ वेलंबक- वेलम्बकः-विडम्बकः, विदूषकः। प्रश्न. १३७ वेलोचितं-पाकातिशयतो ग्रहणकालोचितम्। आचा० वेलंबग-विडम्बकः-विदूषकः-नानावेषादिकारीत्यर्थः। ३९११ अनुयो० ४६। विडम्बकः-विदूषकः। प्रश्न. १४१| वेल्ल-पर्वगविशेषः। प्रज्ञा० ३३ विडम्बकः-विदूषकः। राज०२ विडम्बकः-विदूषकः- वेव-वेपमानम्। व्यव० १०६अ। मुखविकारादि-भिर्जनानां हास्योत्पादकः। जम्बू. ३१२ वेवई-वातसमुत्थः-शरीरावयवानां कम्पः। आचा० २३३। वेलंबगलिंग-विडम्बकलिङ्ग भाण्डादिकृतम्। आव. वेवेष्टि- व्याप्नोति। उत्त. ३१८१ ५२६ वेषः- यज्ञः। उत्त० ५२५ वेल-भोजनं। निशी. १०४ अ। वेष्टक- ग्राहविशेषः। सम० १३५१ वेलणओ- लज्जनीयवस्तुदर्शनादिप्रभवो वेष्टन-भूषणविधिविशेषः। जीवा. २६८। मनोव्यलीकतादि-स्वरूपो रसः वीडनकः। अन्यो० १३५ वेष्टिम-मुकुटादि। स्था० २८६) वेलमट्टिया- वेलेण सह मट्टिया कट्टिया वेलमट्टिया। वेस-वैष्यं वेषोचितम्। भग० १३७। वेषः-नेपथ्यम्। जीवा० निशी०६४ । २०७। वेषः-नेपथ्यमाकारश्च। प्रश्न. ७६। दवेष्यः। वेलम्ब-देवविशेषः। स्था० २०५। वेलम्बः-पूर्वाभिधपाता- अनुयो० २१६। द्वेष्यः। आव० ३६६। वेषःलकलशे देवविशेषः। जीवा० ३०६। वस्त्रालंकाररूपः। जम्बू० २६४। वेलम्बसुखद-रत्नोच्चयकूटस्यापरनाम। स्था० २४४॥ वेसणं- डेरगादि। निशी. २०२ आ। वेषनं-वेसानाङ्गावेलवणविहि-कलाविशेषः। ज्ञाता० ३८1 रधूमः। पिण्ड० ८५। वेसनं-जीरकलवणादि। पिण्ड० २२ वेलवासी-समुद्रवेलासन्निधिवासी। भग०५१९ वेसणया-प्रवेशनीय। बृह० ७२ आ। समुद्रवेला-सन्निधिवासी। औप० ९१। वेसत्ता-द्वेष्यता। भग० ५८१। वेलविय-विडम्बितः। आव० ४३०| वेसदारपसंगी-वेश्याप्रसङ्गी कलत्रप्रसङ्गी। विपा० ५२ वेला-लवणसमुद्रशिखामन्तर्विशन्ती वेसमण- चमरेन्द्रस्य चतुर्थो लोकपालः। स्था० १९७) बहिर्वाऽऽयान्तीमग्रशिखा। स्था० २२८१ वैश्रमणः-प्रियचन्द्रराजस्य सुतो युवराजः। विपा० ९५ षोडससहस्रप्रमाणामत्सेधतो निष्कम्भतश्च वेश्रमणकूटः-वैताढ्यकूटनाम। जम्बू० ३४१। वैश्रमणःदशसहस्रमानां लवणजलधिशिखा। सम०८३। जलवृद्धि- मुहूर्त्तनाम। जम्बू. ४९१। वैश्रमणः-चतुर्दशमुहूर्तशास्त्रीलक्षणा। औप०४८ सामान्यत एव तदेकदेशो यनाम्। सूर्य. १४६। वैश्रमणः-उत्तरदिक्लोकपालः। मुहूर्तादिः। आव० ५९३ जीवा. २८१। वैश्रमणः। आव० १२४१ वैश्रमणः-रोहकोक्तो जलधिवेलाविषयभूमीनामुद्वेधो भूमिमध्येऽ-वगाहः। राज्ञो द्वितीयपिता। आव० ४१७ वैश्रमणःअनुयो० १७१। गुर्विणी-वेलमासः। ओघ० १६५। वेला- उत्तरदिग्पालः। भग० १६४। वैश्रमणः-उत्तरदिक्पालः। समयः। पिण्ड० १६४। जलवृद्धिः। ज्ञाता० १६०| वेला- जम्बू०७५ वैश्रमणः-उत्तरदिक्पालः। आव० १८० समुद्रादिपानीयरमणभूमी। प्रज्ञा० ७१। वैश्रमणः-यक्षना-यकः। अन्यो० २५ वैश्रमणःवेलागय–वेलागतः-लोमपक्षिविशेषः। जीवा० ४१। उत्तरराज्ञालोकपालः। स्था०२३८ महाबलराज्ञोः वेली-धूणा। निशी० ८३ आ। पञ्चममित्रः। ज्ञाता० १३१, १५०| वैश्रमणो-यक्षनायकः। गुकं वंशकरिल्लम्। दशवै. १८५ ज्ञाता० १३४१ वेलुकरण- वेलुकरणं-रुतपूणिकानिर्वतकं चित्राकारमयं | वेसमणकाइय- वैश्रमणकायिकः। भग० १९९। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [241] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] ८२ वेसमणकूड- वक्षस्कारपर्वतः। स्था० ३२६। वैश्रमण- भगवान्महावीरः। भग० ५५८। वैशाली। आव० २१४। लोकपालकूटम्। जम्बू० २९६। वैश्रमणकूटो नाम वक्ष- | वेसालीमुह-विशालमुखः। आव० २०८। स्काराद्रिः। जम्बू. ३५२ वैश्रमणलोकपालनिवासभूतं वेसालीय-विशालाः-शिष्याः तीर्थयशः प्रभृतयो वा गुणा कूटं वैश्रमणकूटम्। जम्बू०७७ विद्यन्ते यस्येति विशालिकः, विशालेभ्यःवेसमणदत्तो- वैश्रमणदत्तः-रोहीटकनगरनृपतिः। विपा० उक्तस्वरूपेभ्यः हित इति हितार्थे ठन्प्रत्ययः, ततः विशालीयः विशालिकः। उत्त० २७० वेसमणदेवकाइय-वैश्रमणदेवताकायिकः। भग. १९९। | वेसावाडय-वैश्यापाटकः। आव. २१३॥ वेसमणभद्द-वैश्रमणभद्रः-अनगारविशेषः। विपा. ९५ वेसासिय-विश्वासनीयः। ज्ञाता०१४। विश्वासनीयः। वेसमणमह-देवविशेषमहोत्सवः। ज्ञाता०२९। विपा०४२ वैश्रमणमहः वेसाह- वैशाखं-पाणी अभ्यन्तराभिमुखे कृत्वा समश्रेण्या उत्तरदिग्लोकपालस्यप्रतिनियतदिवसभावी उत्सवः। करोति अग्निमनले च बहिर्मुखे ततो युध्यते तत् जीवा. २८१। वैशाखम्। व्यव० ४६ आ। वेसर-वेसरः। प्रश्न वेसिताकरंडत-वैष्याकरण्डकःवेसवार-रसवतीसम्बन्धिनीसामग्री। पिण्ड०७१। निशी. | जतुपुरितस्वर्णाभणादिस्था-नम्। स्था० २७२। १८५अ। उत्त ३६० वेसिय-वैश्यः-वणिम्। आचा० ३२७। केवलरजोहरणादिवेवेससामंत- वेश्यसामन्तं-गणिकागृहसमीपम्। दशवै. षाल्लब्धमुत्पादनादिदोषरहितम्। आचा० ३३१। वैषिकं१६५ केवलवेषावाप्तं, धात्रीदूतनिमित्तादिपिण्डदोषरहितम्। वेसा-अनिष्टा। बृह. २३८ अ। वेषो-नेपथ्यम्। ज्ञाता० आचा० ३३६। वैशिकः-वणिग् माया प्रधानः, १३ कलोपजीवी। सूत्र. १७७। व्येषितंवेसागार- वेश्यागारं-वैश्याभवनम्। ज्ञाता०७९। ग्रहणैषणाग्रासैषणाविशोधितम्। वेषः-मनि-नेपथ्यं स वेसाणर- वैश्वानरः-श्राद्धः। आव० ३९१| हेतुर्लाभे यस्य तदवैषिकम्। भग. २९३| निशी. १४० वेसाणरवीही- शुक्रमहाग्रस्थ दशमी वीथी। स्था० ४६८। आ। वेसाणितदीव- अन्तरदवीपविशेषः। स्था० २२५) वेसियाथेरी-वेश्यास्थविरा। आव. २१३। वेसाणिता- वेश्यानितद्विपे मन्ष्यः । स्था० २२५५ | वेस्स- वेष्यं-वेसोचितम्। सूर्य. २९२। द्वेष्यः। आव० वेसाणिय-वैषाणिकः अन्तरदवीपविशेषः। जीवा० १४४। वेसाणिया-वैषाणिकनामा अन्तरदवीपः। प्रज्ञा० ५० वेह-वेधः-धर्मानवेद्यः, वेधः-वस्त्रवेधः-द्युतविशेषः। वेसायण- वैश्यायनः-बालतपस्वी। आव० २१२। सूत्र० १८१। बेधः-अनुशयः। प्रश्न० ४३॥ वेधः वेसाला-विशालाः-शिष्याः-तीर्थयशः प्रभृतयो वा गुणाः। कीलिकादिभिः-नासिकादिवेधनम्। आव० ५८८ वेधःउत्त०२७० भक्षणम्। ओघ० १२६। वेसालि-विशालानगरी। आव २२११ वेहम्मोवणीए-वैधय॒णोपनीतं वै धोपनीतम्। वेसालिओ-वैशालिकः। आव०६७६) अनुयो० २२७। वेसालिए- गोशालकचरित्रे नगरम्। भग०६७५ | वेहल्ल-अनुत्तरोपपातिकदशानां तृतीयवर्गस्य वेसालिय-वैशालिकः-विशालः-सम्द्रस्तत्र भवं-विशाला- दशममध्ययनम्। अनुत्त० २। अनुत्तरोपपातिकदशानां ख्यविशिष्टजात्युद्भवा वा विशाला एव वा वैशालिकः- प्रथमवर्गस्याष्टममध्य-यनम्। अनुत्त०१। बृह-च्छरीर इति। सूत्र०४१ वेहाणस-विहायसि-नभसि भवं वैहायसं प्राकतत्वेन वेसाली-वैशाली-चेटकराज्ञो राजधानी। भग. ३१६) वेहाण-सम्। स्था० ९३। विहायसि-आकाशे भवं वैशाली-नगरी यत्र वरूणो वसति। भग० ३२०। वैशालिको | वृक्षशाखायुद्ब-न्धनेन यत्तन्निरुक्तिवशाद्वैहासनम् ४२० मनि दीपरत्नसागरजी रचित [242] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] । भग० १२०| वेहाणसं-वैहायसमरणं, त्रयोदशममरणम्। | पताकाविशेषः। जम्बू. २६३। उत्त. २३०| वेदोपयोगेन जनरहिते वैडूर्य- रत्नविशेषः। आव० २५९। जीवा० २३॥ वैडूर्यःहस्तकरमादिकरणेन संयमे भेदो भवति। स्था० ३३१| जम्बूमहाहिमवति कूटम्। स्था०७२। ज्ञाता० २०२। उद्बन्धनम्। बृह० १४४ अ। बेहानसं- वैताली-समुद्रतीरम्। प्रज्ञा० ३३०/ उद्बन्धनम्। आव० २६० वैदिक- वेदाश्रितः। स्था० १५१। मूढः। ओघ० २२२ वेहाणसम-वैहायसः। स्था० ३३१| वैभार-पर्वतविशेषः। जम्बू० १६८1 वेहाणसमरण-विहायसि-व्योम्नि भवं वैहायसं विहायो | वैयावृत्त्योपसम्पत्- | आव० २७१। भवत्वं च तस्य वृक्षशाखादयवद्धत्वे सति भावात्। वैरस्वामी- मुनिः। सूत्र०७२। कामानभिलाषुकः। सूत्र० मरणस्य त्रयोदशमो भेदः। सम० ३४। १८४। त्रिवर्षप्रव्रजितो मुनिः। भग० ५८६। वैक्रियादिलवेहाणसिय-विहायसि-आकाशे तरुशाखादावात्मन ब्धिमान्। भग०६५४। वैरिस्वामी-उत्सारकल्पिकः। ब्रह. उल्लम्बनेन यन्मरणं भवति तदवैहायसं तदस्ति येषां १२२ अ। वैरस्वामी-रथावर्ते अनशनकारक-। आचा. ते। औप. ८८ ४१९| वेहायस-वेहायसं उद्ध्वंलंबनम्। व्यव० २२३ आ। वैरा- शाखाविशेषः। आचा०८१| वेहारियवाअओ-विहारिकवातकः-यथार्ह वैहारिकः। उत्त. वैरिक-जातिनिबद्धवैरोपपेतः। जम्बू. १२३। १३९ वैशाख- योधस्थानम्। आचा० ८९। योधानां स्थानम्। वेहारुअ-जल्लेण मइलिय अगं दीसति चोलपट्टो य जहा स्था० ३१ वैशाख-यत्र पाणी अभ्यन्तरतः कृत्वा सव्वेसिं एगं पादं दीसति तेण कारणेण ते धुवं वेहारुआ समश्रेण्या व्यवस्थापयति, अग्रिमतलौ बहिर्भूतौ कार्यों, इत्यर्थः। निशी. १०८ आ। तत्स्थानम्। उत्त० २०५४ वेहास-अन्तरालः। सूत्र. ५६। भग० १७३। विहायः- वैशाखस्थान-कटिस्थकरयुग्मपुरुषाकारः। प्रज्ञा. २७३। आकाशः। भग०६२७। वैहायसम्। उत्त० २३४| निशी वैशिकादिक-स्त्रीस्वभावाविर्भावकं शास्त्रम्। सूत्र० ११२। ११९ आ। अनुत्तरोपपातिकदशानां प्रथमवर्गस्य नवम- वैश्रमण-कूटविशेषः। स्था०७१। मध्ययनम्। अनुत्त०१। वैश्रसिकः-सन्ध्याभरागादिः। आव० ३८७ वेहिम- दैधिकं-पेशीसम्पादनेन-द्वैधीभावकरणयोग्यम् | वोक्कते- यद् ज्वालाः पिठरकर्णाभ्यामूर्ध्वमपि गच्छति । दशवै० २१९। स व्युत्क्रान्तः। पिण्ड० १५२| वेहिय-दवैधिकं-पेशीसम्पादनेन दवैधीभावकरणयोग्यम् वोक्कसिज्जमाण- व्यवकृष्यमाणः अपकर्ष गच्छन्। | आचा० ३९१। भग. २२९। व्यवकृष्यमाणं-हीयमानम्। भग० ८८1 वैकटिका-सुरागन्धा। व्यव० १७४ आ। वोक्काण- म्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा० ५५० वैक्रियबन्धन-द्वितीयबन्धनम्। प्रज्ञा० ४७० वोगडा- व्याकृता या प्रकटाएँ भाषा। प्रज्ञा० २५६) वैक्रियसंघात-द्वितीयसन्घातः। प्रज्ञा० ४७०० वोगसित्ता- व्यवकलस्य। आव० २५६। वैक्रियसमुद्घात- वैक्रिये प्रारभ्यमानो समुद्घातः। जीवा. | वोच्छिज्जंतग- व्यच्छेत्स्यति। आव. ३०३। १७ वोच्छिण्ण- व्यछिन्न-व्यवच्छिन्नम्। भग० १००। वैजयन्त-जम्बूजगत्यां द्वितीयं द्वारम्। सम० ८८1 व्यवच्छिन्न-विभक्तममिलिताक्षरम्। व्यव० २० अ। वैजयन्ति- पताकाविशेषः। सम० १३९। पृथक् स्थापितम्। निशी० ७९ । वैजयन्तिक-यस्मिन् दिवसे यद्वाह्यते वोच्छित्तिणयट्ठया- व्यवच्छित्तिप्रधानो यो नयस्तस्य तत्संगतिकमभिधीयते इतरत् वैजयन्तिकम्। बृह. योऽर्थः-पर्यायलक्षणस्तस्य भावः सा १०६ आ। व्यवच्छित्तिनयार्थता। भग० ३०२। वैजयन्ती- पार्श्वतो लघुपताका व्ययुक्ता वोच्छित्तिनय- व्यवच्छित्तिनयः मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [243] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] व्यवच्छित्तिप्रतिपादनपरो नयः पर्यायास्तिकनयः । नन्दी. १९५ वोच्छिन्नघर व्यवच्छिन्नगृहं असंबद्ध उपाश्रयः । व्यव १८६ अ वोऋच्छन्नसंसार व्युच्छिन्नसंसार:त्रुटितचतुर्गतिगमनानु-बन्धः । भग० १११। वोच्छेय- व्यवच्छेदः - पानोत्तरकालम् । जीवा० ३५१ | वोज्झ- बाह्यं-दूरापनेयं श्लक्ष्णतरम्। जम्बू० २७५ वोज्झिहि वक्ष्यति वहमानं भविष्यति। बृह० १६अ। वोण तृणकाष्ठहारादिकमधमकर्म सूत्र- ३२५| वाण व्यवदानं पूर्वकृतकर्मवनलवनं कर्मकचवरशोधनं वा। स्था० १५७। व्यवदानं पूर्वकृतकर्मवनगहनस्य लबनं प्राक्कृतकर्मकचवरशोधनं वा भग० १३८१ व्यवदानं कर्मनिर्जरणम्। भग. १४९ कर्मनिर्जरा। आव० २८० व्यवदानं पूर्वबद्धकर्मापगम् । उत्त० ५८६। वोदाणफल- व्यवदानफलं व्यवदानंपूर्वकृतकर्मवनगहनस्य लवनं प्राक्कृतकर्मकचवरशोधनं वा फल यस्य तद्व्यवदान फलम्। भग० १३८ वोदाणफलः व्यवदानफलं तपोवि शेषः अग० १४०| वोद्दो- निशी० ४३ अ । व्यव० ६८ अ वोद्रः । आच० २६| - वोप्पालया- छिड्डा । निशी० ५३अ । वोमाण | निशी० ७१ आ आगम - सागर - कोषः ( भाग : - ४) वोयड व्याकृतो लोकप्रतितशब्दार्थः । भग. ५००| वोयाण वनस्पतिशिवेषः । भग० ८०स वोर फलविशेषः। प्रज्ञा० ३२८८ वोरमण- व्युपरमण प्राणेभ्यो जीवस्य व्युपरतिः। प्राणवधस्य षोडशमपर्यायः । प्रश्न० ६ । वोल रोल | निशी० र० २१० अ वोलट्टमाण- व्यपलोड्यन् छद्यमान् जलः । भग० ८३ | विशेषेण उल्लुडुन् । जीवा० ३२२ वोलति- व्यतिक्रामति । आव० ८५३ | वोलयतिक्रामति । बृह० २४१ आ वोलित्ता- उल्लङ्घ्य। आवा ० ३८४ | वोलिही व्यतिव्रजति । गच्छा० । वोलेंत व्यतिक्राम्यन्तः आव० २९१ वोलेड़ व्रजति । आव ०६८५ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित वोलेहाम पुरतो गमिष्यामः । बृह० ६४ अ । वोल्लंत व्युतिव्रजन् । आक• ३७०१ वोल्लग वत्थाभावे बवाहाहिं उरं पाउणति । निशी० ३० [Type text] आ। वोसहमाण विकसन स्फारीभवन वर्धमानः । भग० ८३ | परिपूर्णभृततया उल्लुठन् । जीवा• ३२२ ॥ वोस- व्युत्सृष्टः । भगः ४९१ व्युत्सृष्टःनिष्प्रतिकर्मशरीरता। सूर्य० २६३। व्युत्कृष्टःकायोत्सर्गस्थः। दशकै० १७९ | जं आउग्गहातो परेण । निशी० २४६ अ । अणसणं पव्वक्खा । निशी० २०७ आ । वोसडकाए- व्युत्सृष्टकायः परिकर्म्मवर्जनतः त्यक्तदेहः । स्था० ४६४ | । वोसडतचत्तदेह व्युत्सृष्टत्यक्तदेहः आव० १४२१ व्युत्सृष्ट- त्यक्तदेहः । आव ०६४८८ व्युत्सृष्टत्त्यक्तदेहः व्युत्सृष्टो भाव प्रतिबन्धाभावेन त्यक्तं विभूषाकरणेन देहः शरीरं येन स दश- २६७॥ वोसइदेह व्युत्सृष्टदेहः प्रलम्बितबाहुस्त्यक्तहेदः। यो दिव्योपसर्गेष्वपि न कायोत्सर्गभङ्ग करोति । ओघ० १७५१ व्युत्सृष्टदेहः त्यक्तदेहः ओघ० १७५ | वोसविय- अनेकधा मनसा व्युत्सृष्टम् । बृह० २२१ अ वोसि वृत्सृज्य ओघ० १७४॥ । वोसियायणे - बालतपस्वी । भग० ६६५ | वोसिरण- व्युत्सर्जनं परिष्ठापनम्। आव० ६३४ अणसण-पच्क्खाणकालो। निशी० २०७ आ । व्युत्सर्जनंपरि-त्यागः। ओघ॰ १९३। व्युत्सर्जनं-परित्यागः। ओघ० - [244] १९३| वोसिरामि विविधं विशेषेण वा मृशं त्यजामि व्युत्सृजामि। आव• ४५६ | व्युत्सृजामि विविधार्थी विशेषार्थो वा विशब्दः, उच्छब्दो मृशार्थः सृजामित्यजामि ओघ० ७९॥ व्युत्सृष्टम् । आव० ४१९ वोहिगतेण जे मेच्छा माणुसाणि हरति । निशी० ६३ अ । वोहिगामेच्छा - | निशी० ६३अ । व्यंस्यते । ओघ० १८१ | व्यक्तिः- भेदः । स्था० ४९३ | व्यङ्गः विरुद्धमङ्गं व्यङ्गः, विकारवानवयवः। जम्बू० ११६ | जीवा० २७६ | व्यजन- चमरादिना वायुकरणम्। दशकै १५४१ "आगम- सागर- कोषः " [४] Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] उपकरणभेदः। आचा०६० सामान्यतो वातोपकरणम्।। व्याधः- लुब्धकः। प्रश्न.१५ वागरिकः। ओघ. २२३॥ जम्बू.४११। व्यजनं-तालवृन्तम्। दशवै०१५४ व्यापार- व्यापारः-उपयोगः। दशवै० ८६ व्यञ्जकः-कारको हेतुर्वा। आव० ५९७ व्यापारोपेक्षा- उपेक्षायाः प्रथमो भेदः। स्था० ३५३ व्यञ्जन- व्यज्यतेऽनोनार्थः प्रदीपेनेव घट इति व्यञ्जनं। | व्याप्त-तिर्यग्बाहदवयप्रसारणप्रमाणः। जीवा. १८७ उपकरणेन्द्रियं शब्दादिपरिणतद्रव्यसंघातो वा। आव. तिर्यग्बाहुद्वयप्रसारणप्रमाणः। जम्बू. २९। १०|| व्यायामिका- तृतीया नृत्यकला। सम०८४ व्यञ्जनाक्षर- व्यज्यतेऽनेनार्थः प्रदीपेनेव घट इति व्यावहारिकमुद्धारपल्योपम- यावता कालेन योजनायामव्यञ्जनम्। व्यञ्जनं च तदक्षरं चेति व्यञ्जनाक्षरम्।। विष्कम्भोच्चत्वः पल्यो आव० २४१ मुण्डनानन्तरमेकादिसप्तान्ताहोरा-त्रप्ररूढानां व्यञ्जनावग्रह- व्यञ्जनेन-उपकरणेन्द्रियेण वालाग्राणां भृतः प्रति समयं वालाग्रोद्धारे सति निर्लेपो शब्दादिपरिणतद्र-व्याणां च व्यञ्जनानामवग्रहः। आव. भवति स कालो व्यावहारिकमुद्धारपल्योपममुच्यते। स्था० ९१ व्यतिपातिकभद्र- यक्षे भेदविशेषः। प्रज्ञा०७० व्यावृत- कुलादिकार्येषुः व्यापारवान्। उत्त० ५९० व्यतिरिष्ट- अदात्। नन्दी०६१। व्यासः-विष्कम्भः। जम्बू. १९| व्यत्कर्षयिष्यामि-दीर्घ वा सत खण्डापनयनतो व्युत्क्रमण- निष्क्रमणम्। नन्दी० १०२। व्यक्तर्षयि-ष्यामि। आचा० २४४। व्युत्क्रान्ति- उत्त्पत्तिः। नन्दी. १०३ व्यथित- पीडितः-भीतः। आचा० ३५ व्युत्क्रान्तिपद-प्रज्ञापनायां पदम्। जीवा० १३४। व्यपलाप- निह्नवः। आव. ५८० व्युपरतक्रियाऽप्रतिपाती- प्रधानशक्लध्यानभेदः। आव. व्यवच्छिन्नक्रिय- शैलेश्यवस्थायां ध्यानम्। प्रज्ञा०६०९। | ६०३ व्यवसायसभा-विमानभाविनी सभा० प्रश्न.१३५) व्यूतं- चेच्चम्। जम्बू. ५५ व्यवस्था- संस्थितिः। सूर्य०६। समाचारः। स्था० ५१५। व्रतेश्वरयाग- यणविशेषः। सूत्र०४०२। नन्दी० १५०। मर्यादा। नन्दी०४९। व्रीयुदक- तुषोदकम्। स्था० १४७ व्यवहार- व्यवहारः-लौकिकप्रवृत्तिरूपः। अन्यो० १८१ -x-x-x-xनन्दी० १५४, १५५, १५८। व्यवहारः-विवादः। बृह. २७८१ | । इति चतुर्थ: विभागः समाप्तः | व्यवह्रियते- अपलप्यते। स्था० ३९१। व्याक्षिप्त- हलकुलिशवृक्षच्छेदादिव्यग्रः। ओघ० २३ व्याख्याङ्ग-द्वारं उपायः। आचा० ८२ व्याख्यान-सूत्रार्थकथना। आव. २६५। व्याख्यानविधि- शिष्याचार्यपरीक्षाविधानम्। आव०८६| आचार्यशिष्यदोषगुणकथनलक्षणः। आव० १०४। व्याघात-संहरणम्। नन्दी०११४ स्था० ९५ व्याघातकाल-परस्परेण वैदिशिकैर्वा स्तम्भैर्वा सह निर्गच्छतः प्रतिशतो वा कालः श्राद्धाकादौ य आचार्यः धर्मकथां करोति। आव. २२१। व्याघातवत्- पादपोपगमनस्य प्रथमो भेदः। यत्सिंहायुपद्रव्य-व्याघाते सति क्रियते। दशवै. २६) व्याज- मिषम्। ओघ. ५१ व्याजम्। ओघ । मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [245] "आगम-सागर-कोषः" [४] Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनन्द-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागरगूरुभ्यो नमः आगम-सागर-कोष: 4 [मूल शब्दसंकलनकर्ताः- पूज्य आगमोद्धारक आचार्यश्री आनन्दसागरसूरीश्वरजी महाराज (प्राकृत-संस्कृत-शब्द एवं तेषाम् ससंदर्भ-व्याख्या सह) कोष-रचयिता मुनिश्रीदीपरत्नसागरजी महाराज [M.com._M.Ed._Ph.D. श्रुतमहर्षि]