Book Title: Agam Sagar Kosh Part 04
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 221
________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] १२७ विवरत्त-जलस्थानविशेषः। ज्ञाता० ३३ प्रबोध्यन्ते यस्यां सा विवाहप्रज्ञप्तिः। भग। विवरय-विवरम्। आव० १२३॥ विविक्तशय्या- सामान्येनैकान्तशय्या। उत्त०६२८। विवरीउप्पाय- विपरीतोत्पातः-अशुभसूचकः विविच्चमाण- विविच्यमानः। मुष्यमाणः। बृह. ११८ अ। प्रकृतिविकारः। प्रश्न०४० विविच्य-त्यक्ता। आचा० ३३२। विवरीतो सुविण्णो- सुइ सुगंधे मेज्झं मेज्झे दिवे विवित- विविक्तः-विकृत्यादिरहितः। उत्त० ५८७) सुविणेफलं मिज्झं भवति अमेज्झे दिढे फलं से मेज्झं विविक्तं-शोभनं प्रचुरम्। आचा० १०० कार्पटिकः। ब्रह. भवति एस विवरीतो सुविणो। निशी० ८६ आ। १३१ अ। विविक्तं-दोषविमुक्तं लोकान्तरासकीर्णम्। विवरीयभासए- विपरीतभाषकः। अनुयो० १४२। भग. ५४३। विविक्तं-परिष्ठापितम्। आव०७३९। विवासमि- व्यवस्यामि-नाशयामि। उत्त० २१९। विविक्तस्त्र्यादिदोषरहितम्। प्रश्न. १२७। विविक्तंविवाइओ- विपादितः-व्यापादितः। उत्त० ४६०। इतरव्यवच्छिन्नम। जीवा० १९। विविक्तंविवइतो- विपादितो-विनाशितः। उत्त०४६० स्त्र्याद्यसंसक्तम्। उत्त० ५८७) विवाओ-विवादः-विप्रतिपत्तिः। प्रश्न. ११६) विवित्तकूड- देवकुरौ विचित्रकूटपर्वतः। जम्बू० ३५४। विवाग- विपाकः-उदयः। सूत्र. १४१। विपाकः- पुण्यपाप- विवित्तवास- विविक्तवासः-विविक्तो रूपकर्मफलम्। विपा० ३३। विपाकः-परिणामः। आव. लोकद्वयाश्रितदोष-वर्जितो विविक्तानां वा-निर्दोषाणां ५८८ विपाकः अनुभावः। आव० ५९८ विपाकः-कर्मणां वासो-निवासो यस्यां सा विविक्तवासः-वसतिः। प्रश्न. फलम्। स्था० १९०। विपाकः-शुभाशुभकर्मपरिणामः। । सम० १२६। विपाकः-विपच्यमानता रसप्रकर्षावस्था। विवित्ता- विविक्ता-ज्ञानोपष्टम्भादिकारणवर्जा। प्रश्न. भग० ४५६। विपाकः-उदयः। उत्त० ३३५। १३९। विविक्ता। आव०१८९। मुषिता। निशी० ५२ आ। विवागपत्त-विपाकप्राप्तः-विशिष्टपाकमुपगतः। प्रज्ञा० । | विवित्ताचरिया- विविक्ताचर्या-आरामुज्जाणादिसु यो ४५९। पसुपं-डगविवजिएस् जं ठाणं| फलगादीण य गहणं तह विवागसूय- विपाकः-पूण्यपापरूपकर्मफलं भणिय एसणिज्जाणं। भग० २९। तत्प्रतिपादनपरं श्रुतं-आगमः विपाकश्रुतम्। विपा० ३३। विविह-विविध-अनेकधा। ज्ञाता०६९। विविध-विचित्रम। विवाद- विप्रतिपत्तिसमुत्थवचनम्। भग० ५७२। वादः- | आव० ५६७। जल्पो विवादः। स्था० ३६५ भंडणं। निशी. ३५ | विविहगुण-विविधगुणः-बहविधप्रभावः। सम० १२५ विवाय- विरुद्धो वादो विवादोः। आचा. १८५ विवादः- विविहत्था- विविधार्थाः-भाषागम्भीराः। सम० १२४ वाक्कलहः। उत्त०४३४। | विविहमुत्तंतरोचिया- विविधा-विविधविच्छित्तिकालता विवाह- व्याख्या-भगवती। स्था० ५१३| व्याख्यायन्ते मुक्ता-मुक्ताफलानि अन्तरा २ ओचिया-आरोपिता यत्र अर्था यस्यां सा व्याख्या। सम० ११५ व्याख्या तत् विवि-धमक्तान्तरोचियम्। जीवा० १९९) भगवती। नन्दी० २०६। विवहः-पाणिग्रहणम्। प्रश्न. विविवाहिसयसन्निकेय-विविधव्याधिशतसन्निकेतम। १३९। विवाहविषये मूलकर्मे दवितीयो भेदः। पिण्ड. उत्त० ३२९ १४२ विवृतरूपा- योनिभेदः। आचा० २४१ विवाहचूलिया- व्याख्या-भगवती तस्याञ्चूलिका विवृताङ्गी- नग्नाङ्गी। नन्दी० १३२॥ व्याख्याचू-लिका। नन्दी० २०६। विवेएज्झा- गच्छेयः। व्यव० १२७ आ। विवाहपन्न- व्याख्याप्रज्ञः-भगवान्। भग० २१ विवेक- देहादात्मनः आत्मनो वा सर्वं संयोगानां विवेचनंविवाहपन्नति- विवाहप्रज्ञप्तिः-पञ्चमाङ्गम्। भग०१॥ बुद्ध्या पृथक्करणम्। प्रत्यपेक्षणम्। स्था० १९२१ विवाह-प्रज्ञप्तिः-विशिष्ट। विवाहा-विविधा विशिष्टा विवेकप्रतिमा- पञ्चप्रतिमायां तृतीया प्रतिमा। सम. ९६| वाऽर्थ-प्रवाहा नयप्रवाहा वा प्रज्ञाप्यन्ते-प्ररूप्यन्ते | विवेग- विवेकः-अशुद्धातिरिक्तभक्तपानवस्त्रशरीर मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [221] "आगम-सागर-कोषः" [४]

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