Book Title: Agam Sagar Kosh Part 04
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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आगम-सागर-कोषः (भागः-४)
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तन्मला-दित्यागः। स्था० १९५। विवेकः-प्रायश्चिते विशेषसामान्यार्थावगह- औपचारिकः। अवग्रहे तृतीयो चतुर्थो भेदः। स्था० २००। ब्राह्यग्रन्थित्यागम्। उपा० भेदः। नन्दी० १७४। ३० विवेकः-परित्यागः। सम०४५। विवेकः
विशोधनं- उच्चारादिस्वरहितोपकरणादेः प्रक्षालनम्। बृह. अशुद्धभक्तादित्यागः। भग. ९२०| विवेकः-पृथग्भावः। १५६ आ। उत्त०६२२। विवेचनं विवेकः परित्यागः। ओघ०१५) | विशोधिकोटी- । बृह. १८० । दशवै० २३११ देहादात्मनः आत्मनो वा सर्वसंयो-गानां विवेचनं- विश्रसा- जरा। उत्त० ३९० बुद्ध्या पृथक्करणं-विवेकः। भग. ९२६। विवेकं- विश्रोतसिकः-सन्देहा। उत्त०४९६) विवेचनं-त्यागः। स्था०६५। विवेकः-विशि-ष्टबोधः। विश्रोतसिकः- सन्देहा। उत्त० ४९६। भग० १००| विवेकः-नरकपातनाद्यपायहेत्त्वात् विश्वकर्मा- मायापिण्डदृष्टान्ते नटः। पिण्ड० १३७ परित्यागः। दशवै. ३९। देहादात्मन आत्मनो वा विश्वावसवा- गन्धर्वभेदविशेषः। प्रज्ञा०७० सर्वसंयो-गानां विवेचनं-बुद्ध्या पृथक्करणं विवेकः। | विषमवेलापत्तनस्थ- ग्लानो। दशवै०१८२
औप०४४। विविच्यतेऽनेनेति विवेकः-प्रायश्चित्तम्, | विषयः- | ओघ० १५७ विवेकः-अभावः। आचा० २१७। विवेकः-अनेषणीयस्य | विषयगिद्ध- विषयगृद्धः-शब्दादिविषयानुरक्तः। आव० भक्तादेः। कथश्चित् गृहतस्य परित्यागः। आव०७६४| ५३१| विवेकः-परित्यागः। बृह. १४१ अ।
विषयराग-शब्दादिविषयगोचरः विवेगढ़-विवेकार्थः-त्याज्यत्यागादिकः। भग० १०० अप्रशस्तपरिणामविशेषः। आव० ३८७। विवेगपडिमा- विवेचनं विवेकः-त्यागः, स चान्तराणां विषाण- गजदन्तः। जम्बू० २६५५ कषायाणां बाह्यानां च गणशरीराचितभक्तपानादीनां | विष्टर- आसनम्। सम०१५ तत्प्रतिपत्तिर्विवेकप्रतिमा। औप. ३२
विष्ठर-भाजनविधिविशेषः। जीवा. २६६। विवेगभासी- विवेकभाषी-भाषासमित्युपेतः। आचा० ३९२१ | विष्णुकुमार- योजनलक्षप्रमाणशरीरविकृर्वको विवेगारिह- विवेकः-अशुद्धभक्तादित्यागः। तदर्हः। भग० महर्षिविशेषः। उत्त. २०५। वैक्रियलब्धौ दृष्टान्तः। बृह.
९२०| विवेकार्ह-अशुद्धभक्तादिविवेचनम्। औप०४१। १३३। नृपशिक्षायां दृष्टान्तः। बृह. १३४ अ। विवेयग- विवेचकः-परिष्ठापकः। ओघ. १९१|
विष्णुमित्र- मानपिण्डोदाहरणे गृही। पिण्ड० १३४। विव्योयण-स्त्रीणामनादरकृतो विकारः। ज्ञाता०१४४ विसंति-विसंकटकेन विध्येते। बृह. १४८ अ। विशालशङ्ग- ग्रहणैषणादृष्टान्ते पर्वतः। पिण्ड. १४६| विसंधिकप्प- विसन्धिकल्पः-एकपञ्चाशत्तममहाग्रहः। विशाला- वापीनाम्। जम्बू. ३७०। कुलवालकभङ्गना जंप,र०५३५१ पुरी। नन्दी . १६७।
विसंधी- द्वापञ्चशत्तममहाग्रहः। स्था० ७९। विशालापुरी- यत्र मुनिसुव्रतस्वामिपादुके। नन्दी० १६७। विसंभ- विश्रम्मः। दशवै०६११ विशिष्टवर्णादिगुणोपेत- अभिनवः। जीवा० १२१। विसंभघाती- विश्रम्भघाती-विश्वाघातकः। ज्ञाता० ७९। विशिष्टा-तीक्ष्णा। जम्बू० ५२७।
विसंभेत्ता- विश्रम्भयित्वा-केनाप्युपायेनातुलां प्रीति विशेष- भेदः। स्था० ४९३। विशेषः-पर्यवः। भग० ८८९। कृत्वा । आव० ६६२१
एकोनत्रिंशद्विशेषाः। विपा०४५। विशेषः-पर्यायो गणो | विसंभोग-विसम्भोगः-दानादिभिरसंव्यवहारः। स्था० धर्मश्च। प्रज्ञा० १६९
१३९। विशेषतः- अपनर्भावरूपतया। प्रज्ञा० ३। विशेषापगमेन।। विसंभोतित-विसाम्भोगिकं-मण्डलीबाह्यम्। स्था० ३००। प्रज्ञा० ११३|
विसंवइया- विसंवदिता। आव०६४। विशेषयति-नैयत्येन स्थापयति। अनयो. २६६। विंसवायण-विसंवादनं-अन्यथा विशेषवचनं- करणं अपवादश्च। जम्बू. ५४११
प्रतिपन्नस्यान्यथाकरणम्। भग०४१२
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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"आगम-सागर-कोषः" [४]

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