Book Title: Agam Sagar Kosh Part 04
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
View full book text
________________
(Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-४)
[Type text]
विगय-विगमः-वस्तुनोऽवस्यान्तरापेक्षया विनाशः। भग० | पारदारिकादिः। दशवै०२४८१ १८ विकृतं-बीभत्सम्। भग. ३०८१ विगतं-ओघतश्चेत- | विगहा- विकथाः परविस्मापकविविधोल्लापरूपा। उत्त. नापर्यायादचेतनत्वं प्रप्तः। प्रश्न. १०८ विकृतं
७१० विकथा। आव० १०२ बीभत्सम्। अनुत्त०६। विगतं-प्रनष्टम्। जीवा० १०७ | विगिंच-वेविक्ष्व-पृथक्कुरु त्यज। आचा० १२७ विकृतः। उपा० २०| वृकः-वरूक्षः। ज्ञाता०६५)
त्यजापनय पृथक्कुरु। आव० १६० विगिञ्च-वेविग्धि विगयकप्पयनिभ- विकृतो योऽलजारादीनां कल्प एव पृथककुरु। उत्त० १८६) कल्पकः-छेदः खण्डं कर्परमिति तात्पर्य तिन्निभः- विगिचइ-त्यजति। ओघ०५३ तत्स-दृशमिति। उपा०२०
विगिंचए- परित्यज्यते। ओघ. १९६| विगयगिद्ध-विगता गृद्धिर्विषयेष् यस्य सः विगतगृद्धिः- विगिंचण-विगिञ्चनं-परित्यागः। ओघ० ४८१ आशंसादोषरहितः। सूत्र. ११५
परिष्ठापनम्। ओघ. १९५१ परिष्ठापनम्। बृह. ९४ आ। विगयजीवकलेवर- समुच्छन्नमनुष्योत्त्पत्तिस्थानम्। त्यागः। आव०६२८१ प्रज्ञा०५०
विगिंचणया- विवेचनिका-परिष्ठापनिका। बह ८० अ। विगयधूम- विगतधूम-द्वेषरहितम्। प्रश्न. ११२॥ विगिचणा- विवेकः। आव०६४१। विगयभया- विगतभया अज्ञातोदाहरणे
विगिचतु- विवेचयतु। आव० ८५७) विनयमतिमहत्तरिका-शिष्या। आव०६९९)
विगिंचन-सर्वपरिष्ठापनं परिष्ठापनस्पर्शनधावनानां विगयभुग्गभुमय- विकृते-विकारवत्यौ भुग्रे-भग्ने सकृत्करणं वा। बृह. १८३। इत्यर्थः। ज्ञाता०१३३||
विगिंचमाण-विवेचयन्-सर्वं परिष्ठापयत्। स्था० ३२९। विगयमिस्सिया- कस्मिंश्चिद ग्रामादिकं ऊनेष्वधिकेषु वा | विगिंचिअव्व- विकिञ्चितव्यं-परित्याज्यम्। दशवै०३९।
मृतेषु मनुष्येषु दशमृता अस्मिन्नयेत्यादिकथन विगिंचिउं-परिष्ठापनार्थम्। ओघ० १९७ विगतमिश्रिता। प्रज्ञा० २५६|
विगिंचिउणं-परिष्ठाप्य। पिण्ड० ९५१ विगयमोह- विगतमोहः-विगतवैचित्यः। उत्त०४८११ विगिंचिज्जइ-त्यज्यते। आव०६४० वियगविसया- विगतविषया-सत्यामषाभाषाभेदः। दशवै. | विगिंचिय-परित्यक्तः। व्यव० २१० अ। २०९।
विगिंचेज्जा- विभागेन विभजेत-निरूपयेत्। ओघ. १६९। विगयसत्थ-विगतस्वास्थ्यम्। ज्ञाता० १६६)
विगिट्ठ- अष्टवर्षपर्यायः। व्यव. २४० विंशतिवर्षाणि। विगरण- विकरणं-खण्डशः कृत्वा परिष्ठापनम्। बृह. | व्यव० २४१। पञ्चानां वर्षाणामपरिपर्यायः विकृष्टः। १५० आ।
व्यव० ४५४ अ। विकृष्टम्। ओघ०८८1 विगरणरूव-विकरणरूपः-लिंगविवेकः। बृह. ९० अ। विगिहतव- विकृष्टतपः-यदष्टमादारभ्य जायते तत्। विगल-विकलः-निरुद्धेन्द्रियवृत्तिः। प्रश्न०४९।
ओघ. १९११ विगलणा-आलोयणा। निशी. २२ अ।
विगिट्ठा- विकृष्ठा-नगर्या दूर्वतिनी बहिर्वत्तिनी। राज. विगलिंदिए- एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियाणि येषां ते
विकलेन्द्रियाः- एकदवित्रिचतरेन्द्रियाः। व्यव. ५आ। विगिन्न- विकीर्णः-व्याप्तम्। प्रज्ञा० ८७ विगलिंदियता- विकलानि रोगादिभिरुपहतानीन्द्रियाणि | वितीतगोत्र- अनगारः। सूर्य ४। येषां तद्भावो विकलेन्द्रियता। उत्त०३३७। हत्थपायाइहिं | विगत्ता- निर्लज्जः। निशी० ११०आ। छिण्णा उद्विय ण णयणाय। दशवै. १३५
| विगुरुव्विया- विकृर्विता-वस्त्रायलङ्कृता। बृह. ९ आ। विगलिंदिया- विकलेन्द्रिया-अपञ्चेन्द्रिया। स्था० १०७५ | विगुव्वणा- विकर्वणा-वैक्रियकरणम्। स्था० ३५९। विगलि-अरण्यम्। मरण |
विगोविओ- विगोपितः-लघुकृतः। आव०७०३। विगलितेंदिअ-विगलितेन्द्रियः-अपनीतनासिकादीन्द्रियः, | विगोवित- विकोविदो-विशेषेण साधूसामाचारीकुशलः।
श
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[198]
"आगम-सागर-कोषः" [४]

Page Navigation
1 ... 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246