Book Title: Agam Sagar Kosh Part 04
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 208
________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] ३९) उत्त० ३६४। वेत्रः-जलवंशः। जम्बू. २३५। स्था० ३९४। । ४६० विदंशतीति विदंशकः श्येनादिः। प्रश्न. १३ वित्तल-वित्रलं विचित्ररेखोपेतम। व्यव. २३४ अ। विदब्भ- सुपार्श्वनाथप्रथमशिष्यः। सम० १५२१ विदर्भः। वित्तस-वित्तसति। ओघ. १४२१ भग०६२११ वित्तासण-वित्रासणं-विकरालरूपादिदर्शनमा आव. विदरिसण-विदर्शन विकृतं रूपं दर्शयति विदर्शनं६३४१ अलग्नमेव लोको लग्नं पश्यति। बृह० ४४ । वित्ति-वृत्तिः-जीविका। ज्ञाता०३७ वृत्तिः-निवाहः। विदर्भकनगर- सिन्धुसौवीरजनपदे उदायनराजधानी। ज्ञाता०१७। वृत्तिः-भक्तग्रहणंयात्रामात्रा वृत्तिः। औप | प्रश्न०८९ ३७ | विदलकड-वंशशकलकृतः। स्था० २७३। विदलकटः। आव० वित्तिए- वित्तिक-वित्तं द्रव्यं तदस्ति यस्य तत् वृत्तिकं, । २८९। वृत्तं वाऽऽश्रितलोकानां ददाति यत्तत् वृत्तिदम्। औप० | विदारिका- मूलविशेषः। दशवै. १७६| विदालणं- विदारण- विविधप्रकारैर्दारणम्। प्रश्न. १७ वित्तिकंतार-वृत्तिः-जीविका तस्याः कान्तारं-अरण्यं विदित- प्रतीतः। ज्ञाता०२३६। तदिव कान्तारं-क्षेत्रं कालो वा वृत्तिकान्तारम्। उपा० विदितत्थकाया- विदितोऽर्थकायः-अर्थशाशिः श्रुताभिधेयो १३ यया सा विदितार्थकाया। प्रश्न. १०७ वित्ती- वृत्तिः-भिक्षावृत्तिः। व्यव०। विदित्वासमुद्देशन- ज्ञात्वा परिणामिकत्वादिगुणोपेतं द्वातिंशत्कवलपरिमाणल-क्षणा वृत्ति० २६४। वृत्तिः- शिष्यं यद्यस्य योग्यं तस्य तदेव समुद्दिशति। उत्त. जीवनम्। अनुयो० १३० वित्तीकंतार- वृत्तिकान्तारः। आव० ८१११ विदित्वोद्देशनं- विदित्वा-ज्ञात्वा परिणामिकत्वादिगणोपेतं वित्तकप्प- पूर्णप्रायः। तन्दु। शिष्यं यस्य योग्यं तस्य तदेवोद्दिशति इति वित्तीसंखेव-वृत्तिसक्षेपः-गोचर्याभिग्रहरूपः। दशवै. विदित्वोद्देशनम्। उत्त० ३९। ૨૮૦૧ विदिन्न- वितीर्णम्। भग० ६२११ वित्थडबल-विस्तारबलम्। आव० ३३७) विदिसप्पइन्न- विदिक्प्रतीर्णः मोक्षसंयमाभिसुखा दिक् वित्थार- विस्तारः-व्यासः सकलद्वादशाङ्गस्य नयैः ततोऽन्या विदिक, तां प्रकर्षण तीर्णो विदिक्प्रतीर्णः। पर्यालो-चनम्। प्रज्ञा० ५८। विस्तारः-पृथुत्वम्। स्था० आचा० २१२ १८७ विदिसिवाए- विदिग्वातः-यो विदिग्भ्यो वाति। जीवा. २९। वित्थाररुई-विस्ताररुचिः-विस्तारो-व्यासस्तेन रुचिर्यस्य | विदिसीवाए- विदिग्वातो-यो विदिग्भ्यो वाति। प्रज्ञा० ३०| स। उत्त० १६३| द्रव्याणां पर्याया यथायोगं विदु- विदित्वा। बृह० २८०आ। प्रत्यक्षादिभिः सर्वश्च नैगमादिप्रकारैः उपलब्धा स | विदुग्ग- बहुएहिं पव्वतेहिं विदुग्गं। निशी० ७० आ। विस्ताररुचिः। प्रज्ञा० ५६| विदुर्ग-समुदायः। भग० ९२ विस्थाररुती- विस्तारो-व्यासस्ततो रुचिर्यस्य स तथेति, | विदुपक्ख- साहुपक्खो साहुणीपक्खो। निशी• तू० ४७ आ। येन हि धर्मास्तिकायादिद्रव्याणां सर्वपर्यायाः। विदुर- जंजत्थ मगणकम्पसमारंभादिसु अणभिहियं तं सवैर्नयप्रमाणैर्शाता भवन्ति स विस्ताररुचिः। स्था. विदुरं-विगद्द्वारम्। निशी. ९९। ज्ञाता० २०८। ५०३ विदू-विदूः-ज्ञायकः। आव० ८४९। साहू। निशी० १२ वित्थिण्ण-विस्तीर्णम्। ओघ. १२३॥ विदूषक- विडम्बकः। औप० ३। विदूषकः। स्था० २०३। वित्थिया- विस्तृता-अमूढा। जम्बू० २०९। विदेशः-स्वकीयदेशापेक्षया। ज्ञाता०४११ विदंडओ- विदण्डकः-कथाप्रभृतिः। ओघ. २१८ विदेसत्थ- विदेशस्थः-विदेशं गत्वा तत्रैव स्थितः। ज्ञाता० विदंसग-विदंसकः-विशेषेण दशतीति श्येनादिः। उत्त० । ११५ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [208] "आगम-सागर-कोषः" [४]

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