Book Title: Agam Sagar Kosh Part 04
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 164
________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text]] ४॥ १५ आयुधविशेषः। ज्ञाता० १२८। गुरुस्पर्शपरिणतः। वज्जरूव- त्रयोदशसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम. प्रज्ञा० १० २५ वज़कन्दः- वनस्पतिकायिकभेदः। जीवा. २७) वज्जलाढ-वज्रलाढः-म्लेच्छजातिविशेषः। आव० २११। वज़तन्दुल-अत्यन्तदेर्भेदतन्दुलम्। उत्त० ३९२। वज्जलेस- त्रयोदशसागरोपमस्थितिकं देवविमानम। वज्रतन्दुलकल्प-यो न वासयितुं शक्यः। स्था०४८१ सम०२५ वज्रपाणि- वज्राभिधानमायुधं पाणावस्येति। उत्त० ३५०| वज्जवण्ण-त्रयोदशसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। वज्रमपि लक्षणं पाणौ सम्भवतीति वज्रपाणिः। उत्त. सम०२५ ३५१। वज्जवित्ती- वर्यवृत्तिः-प्रधानजीविकः। अन्यो० १३० । वजमध्य-प्रकीर्णतपोविशेषः। उत्त०६०१ वज्जविराइय- वज्रस्येव विराजितं वज्रविराजितम्। जीवा. वजमध्या- वज्रमध्योपमितमध्यभागा वज्रमध्या। व्यव० २७५ ३५६अ। वज्जसिह-त्रयोदशसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। वज़स्वामी- वचनप्रभावे दृष्टान्तः। व्यव० १९ अ। बालस्य सम०२५ सूत्रार्थनिष्पन्नतायां दृष्टान्तः। व्यव० १४३ अ। बालत्वे वज्जा-विदयते-ज्ञायते-आभिस्तत्त्वमिति विदया निष्पन्नः। बृह. २२ अ। बालोऽपि निष्पन्नः। ब्रह. आरण्यकब्र-हमाण्डपुराणात्मिका। उत्त० ५२६। वा- २८४ । नवविधशय्या-प्रकारे पञ्चमः। बृह. ९३ अ। वज्रा- वज्रान्त- श्रुयते च वज्रान्तं गणितम्। स्था० ४७८१ पारिणामिकीबुद्धिदृष्टान्ते काष्ठश्रेष्ठिपत्नी। आव. वटभा- मडहकोष्ठः। निर०७ महत्कोष्ठा। ज्ञाता०४१। ૪ર૮1. वटिका- गुटिका। उत्त०१४३| वज्जवत्त-त्रयोदशसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। वढ्त- वर्तमानाः-ये तपोऽहप्रायश्चित्ते वर्तन्ते। व्यव० सम० २५४ ९७ आ। जे तवे चेव वढूति। निशी. १२२ । वज्जी- वज्री-इन्द्रः। भग० ३१७ वट्ट- वर्त्म। औप०६४| वृत्तम्। ओघ० २१०वृत्तं वज्जत्तरवडिंसग-त्रयोदशसागरोपमस्थितिकं वर्तुलम्। जीवा० २२९। वृत्त-सूत्रावलनकम्। जीवा० देवविमानम्। सम० २५ २७०| वृत्त-सूत्रावलनकम्। प्रश्न० ८० घनतीमनम्। वज्झं- वध्यः। आव० ३६९। वध्यः। आव०६४। ज्ञाता० प्रश्न. १५३॥ वृत्तं-वर्तुलम्। ओघ० २११। वेष्टनकः १४३। वर्धः-चर्मपञ्चके तृतीयो भेदः। आव०६५२ श्रीदेवताध्यासितः पट्टः। बृह. २५५ अ। निशी. ७१ अ। वज्झकत्तण- वर्द्धकर्तनं-त्वगत्रोटनम्। सम० १२६। समचउरंस। निशी. १४ आ। द्वितीयं संस्थानम्। भग० वज्झकार- वध्यकारः शिल्पविशेषः। अन्यो० १४९। ८५८। वृत्तः-चक्रवालतया परिवलः । जीवा० ९७। वज्झपाणपीय-वध्याप्राणप्रीतः-वध्यप्राणपीतो वा, वृत्तः-द्वितीयं संस्थानम्। प्रज्ञा० २४२। छात्रः। आव. वध्यश्च हन्तव्याः प्राणपीताश्च-उच्छवासादिप्राणप्रियाः ५६१। वृत्त-समचतुरस्रम्। बृह० २४९ अ। वृत्तं प्रणतीतो वा-भक्षितप्राणा यः स तथा। प्रश्न. ५९। वर्तुलम्। जीवा० २७०। वज्झयाणभीय- वधकेभ्यो भीतिः। प्रश्न. ५९। वट्टइ- वर्तते। ओघ० १५९। वर्तते-युज्यते। आव० ७०८। वज्झा- हत्या। निशी. ३५१| निशी. १२११ वर्तते। आव० ४१५ वज्झार-शिल्पार्यविशेषः। प्रज्ञा०५६) वट्टए- वर्तकान्-जत्वादिमयगोलकान्। ज्ञाता० २३५) वज्झियायण- वाभ्रव्यायनं-पूर्वाषाढागोत्रम्। जम्बू. ५०० | वट्टक- वर्तकः-पक्षिविशेषः। प्रश्न ८ वट्टकःवज्झियायणसगोत्त- पूर्वाषाढानक्षगोत्रम्। सूर्य० १५०। । रक्तपादपः। निशी० ७१ अ। वज्झुक्का- बाह्यक्रीडा। आव०८१६ वट्टकन्दुका- क्रीडाविशेषः। सूत्र. १८४| वज़- रत्नविशेषः। आव० २५९। गुरुस्पर्शपरिणतः। जीवा० | वट्टक्खुर- वृत्तखुरः-प्रधानाश्वः। ओघ० १५६| मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [164] "आगम-सागर-कोषः" [४]

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