Book Title: Agam Sagar Kosh Part 04
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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आगम-सागर-कोषः (भागः-४)
[Type text]
वस्तू-स्थानम्। भग० ३४२।
उत्त०४६१। वस्त्वन्तरन्यास- यथा गौरपि सन्नश्वोऽयमिति। स्था० वहितव्वग- वहनीयम्। आव० ८२२ २६।
वहिनी- प्रवाहः। दशवै० २४७ अ। वस्सासणा- परिणामणा। निशी. २८८ अ।
वहिय- पन्था-मार्गः। भग० १०६। विनाशितम्। आव. वहंत-योगवाहिनम्। बृह. २३२।
७१२। अवलोतः। उपा०४० वह- वधः-यष्ट्यादिताडनम्। सम० १२६। वधः-घात- विगलबहलानन्दाश्रदृष्टिभिः सहर्ष निरीक्षिता स्ताडनं वा। उत्त० ४१५ वधः-लक्टादिप्रहारः। उत्त. यथावस्थितानन्यसाधारणगुणोत्कीर्तनल-क्षणः। ४५६। निरयावल्यां पञ्चमवर्गस्य तृतीयमध्ययनम्। अनुयो. ३७। व्यथितः-प्रहारादितः। जम्बू. २३९। निर०३९। निरयावल्यां पञ्चमवर्गस्य
वहिलगा- उट्टबलिद्दादी। निशी. ३७ अ। चतुर्थमध्ययनम्। निर० ३९। वधः-ताडनम्। आव० वहु-वधूः। आव० ७८९ ५८८१ वधो-हिंसा ज्ञाता० २३९। वहः-स्कन्धः। विपा० वहुगा- लघुकुलवधूः। व्यव० २४८१ ४९। वधः-हननं कशादि-भिस्ताडनम्। आव० ८१८ वध- वहेमि- हन्मि। ज्ञाता० १६५ पीडा। दशवै०७६| त्रयो-दशमपरीषहः। आव०६५६। वा-समुच्चये। सूर्य.६ प्रकारान्तरसचने। सूर्य०१६। वा वहई- वहनि-आसेवते। उत्त०६०९।।
शब्दो विकल्पार्थो अवधारणार्थो वा। स्था० ४३ वइए- वधकः-स्वयं हन्ता व्यथको, चपेटादिना ताडकः। चकारार्थो दृष्टव्यः। स्था० ३८४। समुच्चये। भग. २० जम्बू० १२३
समुच्चये। जम्बू. ५११। समुच्चये। सूर्य० २६। वहगत्ता- व्यधकता-ताडकता। भग० ५८१|
समुच्चये। विकल्पे वा। सूर्य० २८६। उपमार्थो वहण- वहनं-यानपात्रम्। प्रश्न. ८ वहनं-उह्यतेऽनेनेति भिन्नक्रमश्च। उत्त० ३३९। इवार्थो भिन्नक्रमश्च। वोढव्यमिति वहनं शकटादिः। उत्त० ५५०| हननं प्राण- उत्त० ३३६। पूरणे यद्वा वा शब्दोऽयं विकल्पार्थे। उत्त० वधस्याष्टमः पर्यायः। प्रश्न. ५। वहनम्। आव०७१। ३८८ औपम्ये-भिन्नक्रमश्च। उत्त०४०९। वहणी- वहनी-आयतं वृत्तं काष्ठं वणीति लोके। आव० अनुक्तपकारान्तरद्योतकः। बृह. १९६। पूरणे। उत्त. દરરા.
५२६। विकल्पार्थः। ज्ञाता०७६| वहती- परिभोगं करेति। निशी. २५३ अ।
वाइंगण- इगपरकुणगो। निशी. १५७ अ। वहमाणं- वहमानं-नयादिश्रोतोऽधर्ति व्याप्रियमाणं वा। | वाइगणि- गुच्छाविशेषः। प्रज्ञा० ३२। कुसुम-वृन्ताकीकुसुऔप. ९४१
मम्। प्रज्ञा० ३६० वहमूलिया- वधः-प्राणिघातः
वाइए- वातिकः-उच्छूनत्वभाजनः। स्था० १३८1 उपलक्षणान्महारम्भमहापरिग्र
वाइओ- वाचिकः-वाचा निवृत्तः-वाक्कृतः। आव० ५७१, हानृतभाषणमायादयश्च मूलं-कारणं यस्याः सा
७७८ वधमूलिका। वधो वा विनाशस्ताडनं वा मूलं
वाइगं-णाम मज्जंतं। निशी० १०२ अ। आदिर्यस्याः सा वधम्-लिका। उत्त० २८०
वाइत- पीडितः। उत्त. २६२१ वहलप्पण- मूर्खः। निशी० २८९ आ।
वाइद्ध- व्याविद्धं विपर्यस्तरत्नमालावद। आव० ७३१| वहस्सइ- बृहस्पतिर्दत्तनामा पुरोहितपुत्रः, दुःखविपाके व्याविग्धां-विशिष्टद्रव्योपदिग्धां वक्राम्। भग०७०५१ पञ्चममध्ययनम्। विपा० ३५
वाइम- वातव्यं-कविन्दैर्वस्त्रविनिर्मितिमश्वादिः। दशवै. वहस्सतिदत्त- सोमदत्तपुरोहितसुतः। विपा० ६८१ वहा- देवायुपसर्गजनितं भयं चलनं वा व्यथा। भग० वाइय- कलाविशेषः। ज्ञाता० ३८ वातिक-अनियन्त्रितः। ९२६।
प्रश्न० ५९| वाद्यकला। सम० ८४। वहिए- व्यथितः कम्पमानसकलाङ्गोपाङ्गतया चलितः। | वाइया- वातिका। आव०४०५
اواک
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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"आगम-सागर-कोषः" [४]

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