Book Title: Agam Sagar Kosh Part 04
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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(Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४)
[Type text] वसणविणास- वृषणविनाशः-वर्धितककरणम्। सम० | वसलग- वृषलः-अधमः शुद्रजातिस्त्रीवर्गप्रविचारकः। सूत्र १२६।
३२५ वसति- शय्या। प्रश्न० १२०| वसतिः-आलयः सुप्रमार्जितः | वसह- वृषभः-अहोरात्रे मुहूर्तेऽष्टविंशतितमः। जम्बू. स्त्रीपशुपण्डकविवर्जितश्च। आव० ५२९।
४९१। वृषभः-प्रधानः। जम्बू० ५२९। वृषभः ब्रह्मचर्यगुप्तेर्भेदः। आव० ५७२
समग्रसंयमभारोद्व-हनात्। आव० ५०२। वृषभंवसनं- वस्त्रम्। जीवा० २०६। आव० ८२८।
वैयावृत्यकरम्। ओघ०६४ वसन्तपुर- यत्र हस्तीतोलनाय प्रयोगोऽभूत्। नन्दी० १५३। | वसहवीही- शुक्रस्य चतुर्थी वीथिः। स्था० ४६८। वसन्तपुरं-इभ्यवधूदाहरणे पुरम्। दशवै० ९७। वसहाणुगत- जो एक्कस्मि कप्पे ठितो वाएइ चिट्ठइ वा। नगरविशेषः, आधासंवासदृष्टान्तेऽरिमर्दनराजधानी। निशी. १३६ अ। पिण्ड० ४८ आधायाः परावर्तितद्वारे नगरम्। पिण्ड. वसहि- वसति-निवासः। अन्यो० २२५। वसति-उपाश्रयः। १००| आच्छेदय-दवारविवरणे जिनदास वास्तव्यं दशवै. २१८ वसतिः-वासकः। ओघ ७६। वसतिनगरम्। पिण्ड० १११। सहसम्मत्यादिदृष्टान्ते
उपाश्रयः। जम्बू. १२१वसतिः। आव. २२५१ जितशत्राजधानी। आचा० २१। वसन्तपुरनगरं- वसहिपायरास- वसतिप्रातराशः-आवासस्थानः पातर्भाजजितशत्रुराजधानी। ओघ० १५८१
नकलश्च। ज्ञाता० १२३। वसभ- वृषभः। भग. ५८२ वृषभः-गीतार्थः। ओघ. २०६। वसहिसंबद्धा- वसहिए संबद्धा। निशी. १९९ आ। वृषणः गीतार्थः। व्यव० १९८ अ। वृषभः-उपाध्यायः। | वसही- वसतिः। आव० १८९, ६३६) बृह० ३। वृषभः-वैयावृत्यकरणसमर्थः। ओघ०६१।। वसा- अस्थिमध्यरसः-स्नेहविकृतिः। स्था० २०५। शरीरःगीतार्थः। ओघ० २३। वृषभः-साण्डगौ। विपा०४८। स्नेहविशेषः। प्रश्न शारीरः-स्नेहः। प्रश्न०१६ गीतार्थः। ओघ० २३। गच्छस्स सुभासुभकारणेसु भारू- वसा। प्रज्ञा० ८०, २९३। आव० ८२३। व्वहणसमत्थो। निशी० ३२८ अ। वृषभः-गच्छशुभा- वसाणुग- वशं-आयत्ततामनुगच्छतः। उत्त० २८३। शुभभारोद्वहनसमर्थः। बृह. ३९८ अ। गिहियचक्को वसामि-प्रभवामि। आव०५१५ भवति एरिसो वसभो। निशी० ३०१ आ। वृषभः- वसिट्ठ-वशिष्टः-उत्तरनिकाये षष्ठ इन्द्रः। भग. १५७ गीतार्थसाधुः। बृह. २४२ आ। वृषभः-गच्छशुभकार्य- | वसिडकूड- वशिष्ठकूट-सौमनसवक्षस्कारपर्वते कूटम्। चिन्तकः। बृह० ३१३ आ।
जम्बू० ३५३। वसभगाम- वृषभग्रामः-मूलक्षेत्रम्। बृह० ३०५ आ। वसिम-कमढकम्। ओघ०८२ वसिमम्। आचा. २६९। वसभपरिसा- वृषभपर्षद्। बृह. १०२ आ। निशी. ३८ आ। वसिया- वशिका-आयता। बृह. ६० अ। गीयावलंबतो वसभपरिसा। निशी. १९ अ।
वसीकरण- वश्यताहेतः। ज्ञाता० १८७ वशीकरण-वश्यवसभाणुजाए- वृषभानुजातः-वृषभस्यानुजातः-सदृशः ताकारकम्। विपा० ५४। अधार्मिकयोगे वशीकरणम्। वृषभा-कारेण चन्द्रसूर्यनक्षत्राणि यस्मिन्
आ०६६२ योगेऽवतिष्ठन्ते सः। सूर्य. २३३।
वसीय-अवसाव उषितः। उत्त. ३८७१ वसभानुग- वृषभानुगः यः पुनरेकस्मिन् कस्मिन् कल्पे वसुंधरा- वसुन्धरा-दक्षिणरुचकवास्तव्या दिक्कुमारी। स्थितः सन् वाचयति तिष्ठति वा स वृषभानगः। व्यव. आव० १२२। उत्कृष्टमालापहृते सुरदत्तगृहणी। पिण्ड० १२१॥
१०९। इशानेन्द्रस्याग्रमहिष्याः राजधानी। स्था० २३१| वसमाण- वैश्रमणः-नवकल्पविहारी। आव० ७९३।
चमरे-न्द्रस्य चतुर्थाऽग्रमहिषी। स्था० २०४। नवमचक्रेः वसन्तः-वास्तव्यः। आव० ३५५। तत्थ जंतं वसंते। स्त्रीर-त्नम्। सम० १५२। असुरेन्द्रस्य चतुर्थाऽग्रमहिषी। निशी० १२७ अ। वसमानः-मासल्पविहारी। आचा० भग. ५०३। इशानेन्द्रस्याष्टमाऽग्रमहिषी। भग० ५०५। ३३६। विहरंतो। निशी० १४६ अ।
उत्तर-पश्चिमरतिकरपर्वतस्य
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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"आगम-सागर-कोषः" [४]

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