Book Title: Agam Sagar Kosh Part 04
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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आगम-सागर-कोषः (भागः-४)
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सम्बन्धिः । उत्त०६९५१
मामिया- मामिका मातुलभार्या। विपा० ५८१ मातृस्थान- मायागारवम्। दशवै० २२६। कपटम्। पिण्ड० | मायंकटु-मायां कृत्वा-मायां पुरस्कृत्य माययेत्यर्थः। १४४। अनुयो० १४०| आव० ८३८॥
स्था० १३७ मात्रः- कास्यभाजनायुपकरणमात्राया आधार विशेषः। मायंग- मातङ्गः-हस्तौ। जीवा० १२२ अनुयो० १५९
मायंगी-मातङ्गी-योगसंग्रहे शिक्षादृष्टान्ते श्रेणिकदौहित्री मात्रा- तुल्यवाची। निशी. १०८ आ।
अभयपत्नी विदयाधरपुत्री। आव०६७३। मात्रापुत्रीय- सङ्ग्रामे परानीकसुभटेन जेत्रा। सूत्र० ८० मायंजण- तृतीयो वक्षस्कारः। स्था० ३२६। मातजनोमात्सिकमल्ल-मल्लविशेषः। व्यव० ३५७ अ।
वक्षस्कारादिः। जम्बू० ३५२ माथुरकोट्टइल्ल- उदायिनृपमारकः। आव० ५२९। मायंदी- माकन्दी-षष्ठाङ्गे नवमं ज्ञातम्। उत्त०६१४। माथुरखभार- आक्रोशसहः। मरण।
ज्ञाताधर्मकथायाः प्रथमश्रुतस्कन्धे नवममध्ययनम्, माथुरी- मथुरापरिसङ्घटितमत इयं वाचना माथरी। माकन्दीनाम वणिक् तत्पुत्रो माकन्दीशब्देनेह गृहीतः। नन्दी० ५१। मथुरापुर्यां पुनरनुयोगः प्रवर्तित इति ज्ञाता०९। वाचना माथुरी। नन्दी० ५१
माय- गुप्तत्वेन मायाप्रधानोऽतिचारः। स्था० ४१९। मातंमादिमिस्सगा- मातृमिश्रका। आव० ६७६)
अन्तःप्राप्तावस्थिति तद्रव्यम्। अन्तरवस्थितम्। मान-धान्यमान-सेतिकाकुडवादि। जम्बू० २२७। मान- उत्त० ५१३। माया-परमञ्चनाध्यवसायः। आचा० १७०| जलद्रोणमानता। भग. ११९।
माया-दशविधमृषायां तृतीया मृषाभाषा। स्था०४८९। मानकर-कथमहमनभ्यर्थितः कथयिस्यामीति मानकरः। मायन्ने- यावद् द्रव्योपयोगिता मात्रा तो जानातीति स्था० २४११
तज्ज्ञः । आचा० १३२ मानक्रिया- यज्जात्यादिमदमत्तस्य परेषां
माया- मीतये वाऽनयेति माया। स्था० १९३। माया-सर्वत्र हीलनादिकरणम्। स्था० ३१६]
स्ववीर्य निगूहनम्। आव० ४३। माया-वञ्चनबुद्धिः। मानमूरण- मानमर्दनः। जम्बू० ४२१|
सूर्य. ३२९। मात्रा-आहारमात्रा। भग० १२२१ मात्रामानवत्तिए- मानप्रत्ययः-जात्यादिमदहेतुकः। सम० २५। । आलम्बन-समूहांशः। भग. २९४। मातामानसं- एकस्मिन् वस्तुनि चित्तस्यैकाग्रता। बृह. २५६। व्युत्पत्तिभूमिः। प्रश्न. १७ मर्यादा-मात्राशब्दस्य मानससरः-दिव्यसरोवरविशेषः। प्रज्ञा. १५९।
मर्यादावाचित्वेनापि रूडत्वात्। उत्त. २६९। मानुष- मनुजः। नन्दी० १६११ |
परिमाणार्थोऽयं मात्राशब्दः। उत्त० २६९। ज्ञाता०७१। मानुषोत्तर- लब्धिमतामेकोत्पातस्थानम्। आव० ४७ परवञ्चनबुद्धिः। ज्ञाता० २३८। परवञ्चनाभिप्रायः। मामए- मामकः-ममेदमहमस्य स्वामीत्येवं परिग्रहाग्रही। व्यव. २९ मात्रशब्दः। आकारभावव्यतिरिक्तप्रति
सूत्र०६९। मामकः-मा मम समणा घरमइंत् ओघ० १५६) बिम्बादिधर्मान्तरप्रतिषेधचाचकः, निशी० २९२ ।
वास्तव्यपरिणामप्रति-षेधवाचकः। आव० ३३८५ मामग- मामकं-यत्राहं गृहपतिः मा कश्चिद् गृहमागच्छेत् स्वपरव्यामोहोत्पादकं शाठ्यम्। उत्त० २६१। एतादृशं गृहम्। दशवै० १६६। य एवं वक्ति -मा मम प्रतारणबुद्धिः। प्रश्न० ५८माया। पिण्ड० १२१। समणा घरमइंत्। ओघ० ९३
मायाक्रिया, क्रियाया एकादशमोभेदः। आव०६४८। मामणा- ममीकारार्थे (देशीवचनम)। आव० १२८।
निकृतिः। आव० ७८९। मायान्गता। आव० ५४८५ मामाओ- आहारादिएस् चेव सव्वेस् ममत्तं करेति मायनिर्वत्तितं यत्कर्म मिथ्यात्वादिकं तदपि माया। मामाओ। विविधदेसगुणेहिं पडिबद्धो मामाओ। निन्चू प्रज्ञा० ५५८ अनार्जवम्। प्रज्ञा० ३३५। निकृतिरूपा। ९२ आ।
जीवा. १५ मायाविषयं गोपनीयं, प्रच्छन्नमकार्य कृत्वा मामाक- ईर्ष्यालुः। बृह. २४६अ।
नो आलोचयेत् मायाम्। स्था० १३७। परवञ्चनबुद्धिः।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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"आगम-सागर-कोषः" [४]

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