Book Title: Agam Sagar Kosh Part 04
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-४)
[Type text]
२३०१
५७३।
लोइय-असंजयमिच्छादिढिलोगो धेप्पति। निशी०६३ लेसिज्ज- लेषयेत्-संश्लेषं कुर्यात्। आचा० ३४४।
अ। असारम्। निशी. २७३ आ। लौकिकी-असंविलेसेइ- श्लेषयति-आत्मनि श्लिष्टान्। करोति। भग. ग्नलोकसम्बन्धिनी। प्रश्न. १३९
लोइया- लोलिकाः-इतिहासादिकर्तारः। दशवै. १२७। लेसेति-लेशयति-मनाक् स्पृशति। प्रज्ञा० ५९३।
लोउत्तर- लोकोत्तरः-जैनः जम्बू०४९१। लेसेह- लषयथ। भग० ३८१|
लोए- लोकः-पाखण्डिलोकः। दशवै० १०६। लोकः-जनः। लेस्सा लेश्याः-कृष्णादिभेदा अशुभाः शुभाश्च
दशवै. १०६। लोक-रामायणादिकम्। दशवै० ११४। कषाययोगप-रिणामविशेषसमत्थाः। आचा०६८ लेश्या- लोकः-मनुष्यलोकः। दशवै० १९८1 लोकःलेशनात् संश्लेषणात् लेश्या। भग०४६। लेश्या
प्राणिसङ्घातः। दशवै० २२२। लोक्यते-दृश्यते आत्मपरिणामवि-शेषः। भग० ८९। लेश्या-मनोवृत्तिः। केवलालोकेनेति लोकः-धर्मास्ति-कायादिद्रव्याधारभूत भग० १२३। लेश्या किरणरूपा। ज्ञाता० १७०| लेश्या- आकाशविशेषः। ठाण०१४। लौकः- लौकिकशास्त्रम्। प्रज्ञापनायाः सप्तदश पदम्। प्रज्ञा०६। लेश्या
प्रथमः कुडङ्गः। आव०८५६। लोकःदेहवर्णसुन्दरता। प्रज्ञा०८८ लेश्या-लिष्यते आत्मा अर्द्धतृतीयद्वीपरसमुद्रपरिमाणः। दशवै०६८ कर्मणा सहानयेतिलेश्या-कृष्णादि
जीवलोकः- भग०६७३। लोकःद्रव्यसाचिव्यादात्मनः परिणामविशेषः। प्रज्ञा० ३३०| रूपरसगन्धस्पर्शशब्दविषयाख्याः- आचा० ६४| आचा० जीवपरिणतिः। भग०६३१। लेश्या-योगपरिणामः। ६४। रूक्षः। आचा० ३५५। लोकः- पञ्चास्तिकाययम। प्रज्ञा०६०७। लेश्या-पौरुषाच्छाया। सूर्य. ९६। लेश्या- औप०७९। लोकः-जीवलोकः। ज्ञाता०६१। प्रकाश्यं वस्तु। सूर्य. ९६। लेश्या। सूर्य०७३।
लोओ-लोकःलेस्सापए- लेश्यापद-प्रज्ञापनायाः सप्तदशमं पदम्। भग० | क्षितिजलानलानिलवननरनरकनाकितिर्यग-रूपः।
प्रश्न. ३३॥ लोकः-प्रवचनबायो जनः। जम्बू. ४९१ लेस्सापद- लेश्यापदं- प्रज्ञापनायाः सप्तदशमं पदम्। लोकधर्म-"आपच्छिऊण गम्मइ क्लं सीलं च मणिअं भग. २०५
होइ। अभिजाओति अ भणणइ सो वि जणो माणिओ लेस्सापय- प्रज्ञापनायां लेश्यापदस्य दवितीयोद्देशकः। होइ।” बृह० २४० आ। भग०४६।
लोकपडिपूरणा- इषत्प्रागभारस्यैकादशमनाम। सम० २२ लेह- लेखनं लेखः-अक्षरविन्यासस्तविषया कला-विज्ञानं । | लोकपाला- सोमादयः दिग्नियुक्तकाः। स्था० ११७। लेखः। जम्ब०१३७ लेखः-लिपिविषयभेदात्। दविधा। | कबिंदसार- लोके-जगति श्रुतलोके च अक्षरस्योपरिबि
सम० ८३। रेखास्थं परिपूर्णम्। व्यव० ४५३ आ। न्दुरिव सारं-सर्वोत्तमं सर्वाक्षरसन्निपातलब्धिहेतुत्वात् लेहचेड- लेखदारकः। आव० ३५४।
लोकबिन्दुसारम। नन्दी० २४१।। लेहत्थ- रेखा-पादपर्यन्तवर्तिनी सीमा तत्स्थम्। रेखास्थं | लोकविजओ- भावलोकस्य रागद्वेषलक्षणस्य विजयो सूर्य. १३३
निराक-रणं यत्राभिधीयते स लोकविजयः। स्था० ४४४। लेहसाला- लेखशाला-शिशुशिक्षणशाला। आव० ४२९। लोकसन्ना- शब्दाद्यर्थगोचरा विशेषावबोधक्रियैव लेहा- प्रथमाकला। ज्ञाता० ३८१
सज्ञायते अनयेति लोकसज्ञा-ज्ञानोपयोगः, अन्ये लेहाइया- द्वासप्ततिकलायां आदिमा। ज्ञाता० ३८
पुनः लोक-दृष्टि-लॊकस त्याहः। भग० ३१४। लेहायरिओ-लेखाचार्यः-उपाध्यायः। आव० १८२ लोकसार- अज्ञानाद्यसारत्यागेन लेहारिय- लेखहारकः। आव०७१०
लोकसाररत्नत्रयोदयुक्तेन भाव्यमित्येवमर्थ लोकसारः। लोआययमय-लोकायतमतं-नास्तिकाभिप्रायः। दशवै. स्था० ४४४१ १२५
| लोकाग्र- मुक्तिपदम्। उत्त० ५८९।
२०४।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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"आगम-सागर-कोषः" [४]

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