Book Title: Agam Sagar Kosh Part 04
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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आगम-सागर-कोषः (भागः-४)
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रीयमाणः-संयमानुष्ठाने गच्छन्। आचा० २४२। | रुदितयोनिकम्। अन्यो० १३१॥ रीयमाणः- विहरन्। उत्त०४९८ रीयन्ते-गच्छन्ति, रुइयसद्द-रुदितशब्द-मानिनीकृतं रतिकलहादिकं। उत्त. वर्तन्ते। दशवै०७२।
४२५ रीय-रीतं-गमनम्। भग० ३८१, ७५४|
रुइल-रुचिः-दीप्तिस्तां लाति-आददाति रुचिलं रीयओ-रीयमाणः-सम्यगनुष्ठानवान्। आचा० २१७। सद्दीप्तिमत्। सूत्र. २७२। आरणकल्पे विमानविशेषः। कुर्वन्। भग०७५४।
सम० ३८ रुचिरं-संस्थानविशेषभावतो रमणीयम। रीयते- विजहार। आचा० ३०१।
जीवा० २७३। रुचिलः-स्निग्धतया रीयमाण- रीयमाणः-संयमानुष्ठाने पराक्रममाणः सन्। । देदीप्यमानच्छविमानम। जीवा१८७। आचा० २५११
रुई- रुचिः-चेतोऽभिप्रायः। सूत्र. २९० रुचिः-जिनप्रणीरुंचण- रुञ्चनम्-पिजनम्। पिण्ड० १६१]
ततत्त्वाभिलाषरूपा। प्रज्ञा० ५८ रुचिः-प्रतिभासः। रुंचती- रुञ्चती-कर्पासं लोठिन्या लोठयती। पिण्ड० १५७१ उत्त०६६। रुचिः-परमश्रद्धानुगतोऽभिप्रायः। राज० १३३ रुचिज्जमाण- लक्ष्णखण्डीक्रियमाणः। जम्बू. ३६) | रुक्-पृथवी। निशी० २२२ अ। रुंजग- रुजकः वृक्षविशेषः। दशवै०१७
रुक्क- वृषभादिब्दकरणम्। अनुयो० २९। रुंटण- रुदनं-रुदितप्रायः। ज्ञाता० २३५
रुक्ख- वृक्षः। आचा० ३८२। वृक्षः-चूतादिः। आचा० ३० रुंद- रुन्दः-विस्तीर्णः। प्रश्न. १६। सम० ११५ औप०६७। वृक्षः-तरुः। भग० २७८। सङ्ख्यातजीवादिवृक्षविषयः।
नन्दी०४५। रुद्रं-विस्तीर्णम्। प्रश्न.७५ निर्देशः। भगवत्त्याः अष्टमशतके तृतीय उद्देशकः। भग० ३२८१ विस्तारः। जम्बू०४५६।
वृक्षाः-रूक्षा वा सहकारादयः। जम्बू०६५) वृक्षःरुंदा-दीहा। निशी० १२१ आ। विस्तीर्णा घंघलादिः। ब्रह. चिञ्चिणिकादिः। दशवै. १८५। वृक्षः-कदम्बादिः। दशवै. २९० आ। रुन्दा-विस्तीर्णा। उत्त०४५२।
२२९। वृक्षः- सहकारादयः। ज्ञाता० ३३, ६५ पृथ्व्यारुंदाइ- दीर्घा दृष्टिर्दिक्षु। भग० ६७९।
काशयोर्यथास्थितः, रुं-पृथिवीं खायतीति वा। दशवै०६। रुंदाए- यदयसौ वसतिर्विस्तीर्णा भवति। ओघ०८२ रुक्-पृथवी तं खातीति रुक्खो। निशी. २२२। रुंपण-रोपणं-वपनम्। पिण्ड०६३।
रुक्खखेड्ड- वृक्षक्रीडः। आव० १८१। रुंभंत- रुन्धानः-सञ्चरिष्णूनां मार्ग स्खलयन्। प्रश्न. रुक्खगिह- रुक्खोच्चिय गिहागारो रुक्खगिह, रुक्खो वा ५१
घरं कड। निशी. ६९ आ। रुंभणं- रोधणम्। प्रश्न० २४१
रुक्खमह- वृक्षमहः-वृक्षसत्क उत्सवः। जीवा० २८१। रुंभह- रुन्छ। आव० ३६९।
ज्ञाता० ३९। आचा० ३२८ रु-त्ति-पुहवी। दशवै० ५
रुक्खमूल- वृक्षमूलं-वृश्च्यत इति वृक्षस्तस्य मूल-अधोभूरुअग- रुचकं-ग्रीवाभरणभेदः। जम्बू०७३। रुचकः-रुचिः। भागः। उत्त० १०९। वृक्षमूलम्। आचा० ३०७ जम्बू० ११११ रुचकः। जम्बू० २०९।
रुक्खा- वृक्षाः-प्रतयेकबादरवनस्पतिकायिकः चूतादयः। रुअगकूड- रुचकः
प्रज्ञा० ३० भग० ३०६| चक्रवालगिरिविशेषस्तदधिपतिकूटम्।जम्बू. ३०८। रुक्मि-पर्वतविशेषः। स्था०६८ रुचककूट-नन्दनवने षष्ठं कूटनाम। जम्बू० २६७।
। रुक्मिवर्षधरेदवितीयकूटम्। स्था० ७२१ रुअगवर- त्रयोदशे रुचकवराख्ये द्वीपे
रुक्मिणी- भीष्मराजपुत्री। प्रश्न० ८८1 दृष्टमधिकृत्य कुण्डलाकृतीरुचकः। स्था० १६६|
कामक-थायां वासुदेवपत्नी। दशवै० ११० रुअगिंदे- । सम० ३३
आधाकर्मणऽभोज्यतायां उग्रतेजः स्त्री। पिण्ड०७१। रुइ- रुचिः-रुचिः-प्रतिभासः, अभिलाषः। उत्त०६६। आच्छेदयदवारविवरणे जिनदास-पत्नी। पिण्ड० १११ रुइयजोणी- रुदितं योनिः समानरूपतया जातिर्यस्य तद | रुक्मी- पर्वतविशेषः। स्था० ७०| कुण्डिन्यधिपतिभीष्मरा
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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"आगम-सागर-कोषः" [४]

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