Book Title: Agam Sagar Kosh Part 04
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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आगम-सागर-कोषः (भागः-४)
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१२
मज्झिमा- मध्यमा। आव० ८५५ मज्झिल्ले माणखे संजूह- गङ्गादिप्ररूपणतः
मडबप्रागुक्तस्वरूपे सरसि सरः प्रमाणायुष्कयुक्ते इत्यर्थः अर्द्धतृतीयगव्यूतमर्यादायामविदयमानग्रामादिकमिति 'संजूहे' त्त निकाय-विशेषे देवेः। भग०६७४।
भावः, पार्श्वतोऽर्द्धतृतीययोजनान्तर्ग्रामादिकं न प्राप्यते मज्झेलोगस्स-लोकस्य मध्यं अस्य सकललोक
तन् मडम्बम्। बृह. १८१ अ। मध्यवर्ति-त्वात् मेरूनाम। जम्बू. ३७५)
अर्द्धतृतीयगव्यूतान्तामरहितं मडम्बम्। आव. २८५ मज्झोवत्थिए- माध्यस्थ्यं-समतामभ्युगतो व्रतगुह्णत सर्वतोऽर्द्धयोजनात् परेण स्थितं ग्रामं मडम्बम्। स्था० इति भावः। ज्ञाता०२१३।।
२९४। मडम्ब-सर्वतोऽनासन्नसंनिवेशा-न्तरम्। प्रश्न. मज्झगडा- प्रथमतो गर्ताया मध्ये करीषः प्रक्षिप्यते ५। दूरस्थितसन्निवेशान्तरम्। प्रश्न०६९। तस्याश्च गर्तायाः पार्श्वेष्वपरा गर्ताः खन्यन्ते तास् च दूरस्थवसिमान्तरम्। ९२। मडम्बंगर्तास् तिन्द्का-दीनि फलानि प्रक्षिप्य मध्यमायां दूरवर्तिसन्निवेशान्त-रम्। ज्ञाता० १४०। अद्धाइज्ज करीषगायामग्निर्दीयते सा। बृह. १४२ आ।
जोयणमज्झंतरे जस्स गोउ-लादीणि णत्थितं तडंबं। मज्झिष्ठा- रागविशेषः। जम्बू. १०८
निशी. २२९ अ। मडम्बंमञ्जिल-कोमलः। सम० १५७
अविद्यमानासन्ननिवेशान्तरम्। औप०७४ मडम्बंमट्टि- मृत्तिका, पृथ्वीकायः। आव० ५७३।
अर्द्धतृ-तीयगव्यूतान्तर्यामरहितम्। जीवा० ४० मट्टिअ- मृद्गतः, कर्दमयुक्तः। दशवै० १७०|
अर्द्धतृतीयगव्यूता-न्तामरहितानि मट्टिआ- मार्तिका-| आव० ३५६।
ग्रामपञ्चशत्युपजीव्यानि वा। जम्बू० १२१। मडम्बंमट्टिओवलित्त- मृत्तिकोपलिप्तं-मृत्तिकाजंतु
सर्वतो दूरवर्तिसन्निवेशान्तरम्। भग० ३६। अर्द्धगोमयत्वादिना उपलिप्तं सत्। प्रश्न० १५५
तृतीयगव्यूतान्त मान्तररहितं मडम्बम्। प्रज्ञा० ४८१ मट्ठ- मृष्टानीव-मृष्टानि सुकुमारशाणया पाषाणप्रतिमेव यस्य सर्वादिश्वर्द्धतृतीययोजनान्तर्यामा नास्ति। उत्त. शोधि-तानि वा प्रमार्जनिकयेव। सम० १३८। मृष्ठा- ६०५१ स्था० ८६। सर्वतो दूरवर्तिसन्निवेशान्तरम्। शुद्धा। जम्बू० ११५। मृष्टः-तैलोदकादिना येषां केशाः अनुयो० १४२। मडम्बः । सूत्र० ३०९। शरीरं वा मृष्टम्। अनुयो० २६। मृष्टम्। जीवा० १६१। मडगगिह- मेच्छाणं घरब्भंतरे मतयं छोढ़ विज्झति न मृष्टं-मसृणम्। जीवा० २७३। मृष्टं-सुकुमारशाणया डज्झति तं मडगगिह। निशी. १९२अ। पाषाणप्रतिमेव। प्रज्ञा० ८७। मृष्टं-मसृणीकृतम्। सूर्य | मडप्फरो- गमनोत्साहः। व्यव० २० अ। २९३। मृष्टः सुधादिखरपिण्डेन। आचा० ३६१। मृष्टः- मडभ- तत्कुब्णस्थानम्। प्रज्ञा० ४१२। मडभः-कुब्जः। श्रलक्ष्णः शुद्धो वा वर्णः। सूत्र० १४७। मृष्टः सुकारशानया। व्यव० २३१ आ। कुब्जः कुष्टव्याध्युपहतः। व्यव० औप० १०। मृष्टः सुकुमारशानया पाषाणप्रतिमेव।
२८५ जीवा० २२९। मृष्टः-तुप्पोट्ठादि। ओघ०५५
मडम्ब- अर्द्धतृतीयगव्यूतान्तामरहितम्। जीवा० २७९। मट्ठकण्णेज्जणहिं-मृष्ठाभ्या-अचित्तवदभ्यां कर्णाभरण- उत्त० १०७ विशे-षाभ्याम्। उपा०३
मडयपूयणा- मृतकपूजना। आव० १२९। महगंड- मृष्टगण्डं-अल्लिखितकपोलम्। औप० ५० मडह- स्थूलत्वाल्पदीर्घत्वम्। उपा० २२॥
मष्टगण्डं-उल्लिखितकपोलम्। भग. १३२।। मडहकुटुं- मडभकोष्ठ, संस्थानविशेषः। आव० ३३७। महगंडतल- मृष्टगण्डतलं-घृष्टगण्डम्। उपा० २६।। | मडाई- मृतादी-प्रासुकभोजी- एषणीयादी च। भग० १११| महमगरा- मकरविशेषः। जीवा० ३६। प्रज्ञा० ४४। मडासयं- मडयं जत्थ मुच्चति तं मडासयं। निशी. १९२ मट्ठा- मृष्टा-शुद्धा। प्रश्न०८४मृष्टा-सुकुमारशाणया । पाषा-णप्रतिमावत्। जम्बू० २०। मृष्टा-मसृणा। ज्ञाता० । मडे- मरणे-आयुःपुद्गलानां क्षयः। भग० १६|
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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"आगम-सागर-कोषः" [४]

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