Book Title: Agam Sagar Kosh Part 04
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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आगम-सागर-कोषः (भागः-४)
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भेदः। स्था० २९२। भद्रोत्तरप्रतिमाया द्वितीयो भेदः। | महहुमे- पदानीकाधिपतिः। स्था० ३०२ स्था० २९३। अति सूक्ष्मा। भग०७६७। शततन्त्रिका महपरिण्णा- महापरिज्ञा-आचारङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धस्य वीणा। जीवा० २६६। राज० ५००
नवम-मध्ययनम्। प्रश्न०१४५ आचारङ्गस्य महत्तर- गणसम्पतः। दशवै० १०३। महत्तरः
नवममध्ययमन्। सम०४४। उत्त०६१६) अन्तःपुररक्षकः। औप० ७७ अन्तःपुरकार्यचिन्तकः। महप्प- महासावया। बृह. ९३ । भग० ५४७। ग्राम-प्रधानपुरुषः। बृह० ३३ अ। सव्येसु महब्बल- महाबलः-विपाकदशानां द्वितीयश्रुतस्कन्धे उप्पज्जमाणेसु गोढिकज्जेसु पुच्छणिज्जो
सप्त-ममध्ययनम्। विपा० ८९। महाबलः-बलराजस्य गोद्वित्तभोयणकाले जस्स जेट्ठ-मासणं धुरे ठविज्जति पुत्रः। विपा. ९५। महाबलः-महाविदेहे अधिपतिः। आव. सो महत्तरो। निशी. १५८ आ, १७६ आ। महत्तरिकः, ११५। महाबलः शारीरप्राणापेक्षया। भग० ८६। कुमारः। ग्रामप्रधानः, वाटकोपेतः। व्यव० २४३ आ। महत्तरः- भग. १७८१ महाबलः-भगवत्यामतिदिष्टः। अनुत्त०३। कन्थान्तःपुरपालकः। व्यव० १३३ आ। गम्भीरः। व्यव० महा-बलः-पुरिमतालनगराधिपतिः। विपा० ५५० १६९। आ। महत्तरः-अग्रेसरः। नन्दी०६२
भगवत्यामुक्तो महाबलातिदेशः। अन्त०४१ महत्तरगतं- महत्तरकत्म्। जम्बू०६३।
बलधारण्योः पुत्रः। ज्ञाता० १२११ रोहीतकनगरे राजा। महत्तरय- महत्तरकः-अन्तःपुरकार्यचिन्तकः। भग. निर०३९। ४६०१
महब्भयं- महद्भयं-महतां भयमस्मादिति महद्भयम्। भग. महत्तरागार- महत्तराकारः। आव० ८५३।
१७५१ महत्तरिया- महत्तरिका-दिक्कुमारिका तुल्यविभवाः। महमरुय- महामरुत्-अन्तकृद्दशानां सप्तमवर्गस्य जम्बू० ३८४१
सप्तमम-ध्ययनम्। अन्त०२५) महत्थ-भाषाभिधेय अर्थः-विभाषावार्तिकाभिधेयः महय- महत्-अपरिमितम्। आचा० १०० महत्-दिव्यमहार्थः। नन्दी० ५३। महान्-प्रधानार्थो यस्याः सा भावेन यद् वयवस्थितम्। आचा० १६६। महत्महार्थाः, महान्-सम्यग्दृष्टिः भव्यस्तेष् स्थितः स्फूर्तिमान्। जीवा० २४५१ महत्स्थः पूजास्थः। आव० ५९६। महान् अर्थो
महयण-महाजनः-विशिष्टपरिषत्। दशवै०१४। मणिकनकरत्नादिक उपयुज्यनो यस्मिन् सो महार्थः। | महयरग- महत्तरकः-अन्तःपुरकार्यचिन्तकः। ज्ञाता० जीवा० २४३। महान् अर्थो मणिकन-करत्नादिक उपयुज्यमानो यस्मिन् स महार्थः तम्। राज० १०२। महया-अन्तकृद्दशानां सप्तमवर्गस्य पञ्चमाध्ययनम्। महग्घं-महान् अर्घः-पूजा यत्र स महाघः। राज० १०२ अन्त०२५। महया-अतिशयेन महान्। जीवा० २०५१ महान अर्थो-मणिकनकरत्नादिकः। जम्बू. २७३। महयाभड- महता-बृहता प्रकारेणेति गम्यते महाभटः। महत्थरूवा- महान्
भग०४६४। अपरिमितोऽनन्तद्रव्यपर्यायात्मकतया-ऽर्थः-अभिधेयं महया महया- अतिशयेन महान। जीवा० ३६० यस्य-तन्महार्थं रूपं-स्वरूपं न तु चक्षुर्ग्राह्यो गुणः ततो महरिह- महाघु-बहुमूल्यं, अथवा महान्-चक्रवर्ती तस्य महार्थं रूपं यस्याः सा तथा, महतो वाऽर्थान्
अर्ह-योग्यम्। जम्बू० २४१। महं-उत्सवमर्हतीतिमहार्हः। जीवादितत्त्वरूपान् रूपयति दर्शयतीति महार्थरूपाः। जम्बू० २७३। महार्हः-महाघम्। जम्बू० ८२। महार्हाःउत्त०३८५
महोत्सवार्हाः। जम्बू. १०२। महं उत्सवमर्हतीति महार्हः। महथणी- अथत्थणी। निशी. ९४ ।
जीवा० २४३। महार्हः-महोत्सवाहः। जीवा० २६७। महंमहद्दी- महती-ज्ञानोपष्टम्भादिकारण
उत्सवमर्हतीति महार्हः। राज० १०२। महतां योग्यः। विकलत्वादपरिमाणा ऋद्धितर्महार्द्धि याञ्चा, परिग्रहस्य ज्ञाता०५६। चतुर्दशमं नाम। प्रश्न० ९२।
महलयसीहणिक्कीलियं- महासिंहनिक्रीडितं तपोविशेषः।
३७।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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"आगम-सागर-कोषः" [४]

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