Book Title: Agam Sagar Kosh Part 04
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 69
________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-४) [Type text] कपालमध्य-वतिभेज्जकमित्येके। स्था० १७० मदनत्रयोदशी-तिथिविशेषः। भग० ४७६। प्रश्न. १४० भेज्जम्। तन्दु। मदनफल- वमनकारकं फलम्, आचा० ३१३॥ मत्थुलुंग- मस्तकभेज्जकम, भेदः मदनशलाका- शारिका, कोकिला वा। जीवा. १८८1 फिप्फिसादिमस्तुलुङ्गम्। भग० ८८1 मस्तुलिङ्ग- मदुग्ग- मद्गवो-जलवायसः। भग० ३०९। कपालभेज्जकम्। प्रश्न०८ मद्द- हठः। बृह. ३० आ। मत्यज्ञान- अविनष्टार्थग्राहकं साम्प्रतकालविषयम्। मद्दणा- मर्दना-ग्रामविशेषः। आव० २१० प्रज्ञा०५३० मद्दव- मार्दवं-अनुच्छ्रितता। दशवै० २३४। मार्दवं-अहङ्कमत्स्य- उदकाश्रितजीवविशेषः। आचा० ४६। पञ्चेन्द्रिय- तिजयः। भग० ८१। मृदवः-अलसतया कार्याकरणम्। जीवः। प्रज्ञा० २३। उत्त० ५४९। मार्दवं-माननिग्रहः। ज्ञाता०७१ मत्स्यण्डी- खण्डशर्करा। जीवा. २६८। मद्दवत्त- मार्दवत्वं-भावनम्रता। आव. २६४। मत्स्यबन्धपुत्र- शारिकदत्तः। स्था० ५०८। मद्दवय- मार्दवः। उत्त० ५९१। मत्सयाण्डक-नाट्यविशेषः। जम्बू०४१४। मद्दवया- अणुस्सितया। दशवै० १२४ आ। मत्स्याण्डकप्रविभक्ति- मकराण्डकप्रविभक्ति मद्दविया- मार्दवेन चरन्ति मार्दविका, शतकृत्त्वोऽपि जारप्रविभ-क्तिमारप्रविभक्त्यभिनयात्मको गुरुप्रेरिता न सम्यगनुष्ठानं प्रति प्रवर्तन्ते किन्त्वलसा मत्स्याण्डकमकराण्डक-जारमारप्रविभक्तिनामा एव। उत्त० १४९। चतुर्दशनाट्यविधिः। जीवा. २४६। मदुए- मट्कः-श्रमणोपासकः। भग० ७५० मथियं-मथितं-दधीव विलोडितम्। प्रश्न. १३४। मयं- मज्जानम्। व्यव० ४१६अ। मथुरा- ऋद्धिरससातगौरवदृष्टान्ते पुरीविशेषः। आव. मद्यव्यसनं- मद्यपानकेन मूर्ध्निम्। बृह० १५७ अ। १७९| निर्जलभूभागभावि स्थलपत्तनम्। उत्त०६७६| | मधु- मद्यविशेषः। जीवा० ३५१। खण्डं, शर्करा वा। जीवा० स्कंदिला-चार्यप्रमुखश्रमणसङ्घकृतवाचनास्थानम्। ર૬૮ नन्दी०५१। जउण-नीवनगरी। निशी० ४१ अ। मधुक- महावृक्षम्। जीवा० १३६] क्षपकातापनस्थानम्। व्यव० ११५आ। मधुकरवृत्ति-भ्रमरवृत्तिः। उत्त०११७ भण्डीरयक्षयात्रास्थानम्। निशी० ७८1 अ। बृह. १६० मधुकरवृत्त्या - भ्रमत इहमेव। उत्त०६६७ आ। अव्यक्तबालमुक्त्वा निष्क्रान्तवणिक्वास्तव्या मधुगुलिया- मधुगुटिका-क्षौद्रवटिका। स्था० २०९। नगरी। व्यव. १९९ अ। नगरीविशेषः। व्यव. १४६ अ। | मधुर- सुखावहः। निशी० १०९ अ। निशी. २७८ अ। सूत्र० ३४३। दक्षिणा उत्तरा च पुरीद्वयविशेषः। आव० पञ्चमरसः। प्रज्ञा० ४७३। मधरस्वरं, कोकि-लारुवत्। ३५६। मन्दश्रद्धाविषये नगरी, यत्र मङ्ग्राचार्यः। आव. स्था० ३९६। त्रिधा शब्दार्थाभिधानतः। स्था० ३९७ ५३९। यत्र साधुभगिनीदा-सीभूता। बृह. २४२आ। श्रवणमनोहरम्। अनुयो० २६२। तृणफलम्। अनुयो० मथुरापुरी- नगरीविशेषः। बृह० २७६ आ। १७२। मथुरावाणिओ- मथुरावणिक, रहस्याभ्याख्याने वणिग्- मधुरतृण- तृणविशेषः। दशवै. १८५१ विशेषः। आव० ८२१। मधुररसा- वनस्पतिविशेषः। भग०८०४। मद-मदः-हर्षमात्रम्। भग० ५७२। मधुरवचनता- मधुरं रसवत् यदर्थतो मदणा- बलीन्द्रस्य पञ्चमाऽग्रमहिषी। भग० ५०३। विशिष्टार्थवत्तयाऽर्थाव-गाढत्वेन सोममहा-राज्ञो द्वितीयाऽग्रमहिषी। भग० ५०५ शब्दतश्चापरूषत्वसौस्वर्यगाम्भीर्यादिगणोपेतत्वेन मदन-कामः। नन्दी० १५५१ श्रोतुरालादमुपजनयति तदेवंविधं वचनं यस्य स तथा मदनकामा- मोहनीयभेदवेदोदयात् प्रादुष्यन्ति। आचा. तद्भवो मधुरवचनता। उत्त० ३९| १३५ | मधुराकोंडइल्ला- भावसुण्णा, परपितिणिमित्तं मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [69] "आगम-सागर-कोषः" [४]

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