Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
ग्यारहवाँ शतक : उद्देशक - १०
विवेचन — तीनों लोकों, एवं अलोक का आकार — प्रस्तुत ५ सूत्रों (सू. ७ से ११) में अधोलोक, मध्यलोक, ऊर्ध्वलोक, लोक एवं अलोक के आकार का निरूपण किया गया है।
ऊर्ध्वलोक का आकार- -खड़ी मृदंग के समान है।
लोक का आकार —शराव ( सकोरे ) जैसा है । अर्थात् — नीचे एक उलटा शराव रखा जाए, उसके ऊपर का एक शराव सीधा रखा जाए, फिर उसके ऊपर एक शराव उलटा रखा जाए, इस प्रकार का जो आकार बनता है, वह लोक का आकार है ।
५३
लोक का प्रमाण - सुमेरु पर्वत के नीचे अष्टप्रदेशी रुचय है, उसके निचले प्रतर के नीचे नौ सौ योजन तक तिर्यग्लोक है, उसके आगे अधः स्थित होने से अधोलोक है, जो सात रज्जू से कुछ अधिक है तथा रुचकापेक्षया नीचे और ऊपर ९०० - ९०० योजन तिरछा होने से तिर्यग्लोक है । तिर्यग्लोक के ऊपर देशोन सप्तरज्जू प्रमाण ऊर्ध्वभागवर्ती होने से ऊर्ध्वलोक कहलाता है । ऊर्ध्व और अधोदिशा में कुल ऊँचाई १४ रज्जू है । ऊपर क्रमशः घटते हुए ७ रज्जू की ऊँचाई पर विस्तार १ रज्जू है । फिर क्रमशः बढ़कर ९३ से १०३ रज्जू तक की ऊँचाई पर विस्तार ५ रज्जू है। फिर क्रमशः घट कर मूल से १४ रज्जू की ऊँचाई पर विस्तार १ रज्जू का है । यों कुल ऊंचाई १४ रज्जू होती है ।
तीनों लोकों के नाम, परिणामों की अपेक्षा से—क्षेत्र के प्रभाव से जिस लोक में द्रव्यों के प्रायः अशुभ (अधः) परिणाम होते हैं, इसलिए वह अधोलोक कहलाता है। मध्यम (न अतिशुभ, न अति-अशुभ) परिणाम होने से मध्य या तिर्यग्लोग कहलाता है तथा द्रव्यों का ऊर्ध्व — ऊँचे शुभ परिणामों का बाहुल्य होने से ऊर्ध्वलोक कहलाता है ।
कठिन शब्दों का अर्थ — तप्पागारसंठिए – तिपाई के आकार का । झल्लरिसंठिए — झालर के आकार का । उड्ढमुइंग — ऊर्ध्व मृदंग सुपइट्ठ सुप्रतिष्ठक—सिकोरा, वित्थिपणे — विस्तीर्ण । संखित्ते— संक्षिप्त । झुसिर — पोला ।
अधोलोकादि में जीव- अजीवादि की प्ररूपणा
१२. अहेलोगखेत्तलोए णं भंते! किं जीवा, जीवादेसा, जीवपदेसा० ? एवं जहा इंदा दिसा (स० १० उ० १ सु० ८ ) तहेव निरवसेसं भाणियव्वं जाव अद्धासमए ।
[ १२ प्र.] भगवन् ! अधोलोक - क्षेत्रलोक में क्या जीव हैं, जीव के देश हैं, जीव के प्रदेश हैं ? अजीव हैं, अजीव के प्रदेश हैं ?
[ १२ उ. ] गौतम ! जिस प्रकार दसवें शतक के प्रथम उद्देशक (सू. ८) में ऐन्द्री दिशा के विषय में कहा,
C.
(क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ५२३
(ख) भगवती विवेचन (पं. घेवरचन्दजी), भा. ४, पृ. १९०२