Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पन्द्रहवाँ शतक
४५५ ते० उ० २ कोल्लाए सन्निवेसे उच्च-नीय जाव अडमाणे बहुलस्स माहणस्स गिहं अणुप्पवितु।
[३८] तभी मैं चतुर्थ मासक्षमण के पारणे के लिए तन्तुवायशाला से निकला और नालन्दा के बाहरी भाग के मध्य में से होकर कोल्लाक सन्निवेश आया। वहाँ उच्च, नीच, मध्यम कुलों में भिक्षार्थ पर्यटन करता हुआ मैं बहुल ब्राह्मण के घर में प्रविष्ट हुआ।
३९. तए णं से बहुले माहणे ममं एजमाणं तहेव जाव ममं विउलेणं महु-घयसंजुत्तेणं परमन्त्रेणं 'पडिलाभेस्सामी' ति तुटे। सेसं जहा विजयस्स जाव बहुलस्स माहणस्स, बहुलस्स माहणस्स।
[३९] उस समय बहुल ब्राह्मण ने मुझे आते देखा; इत्यादि समग्र वर्णन पूवर्वत् यावत्—'मैं (आज भ. महावीर स्वामी को) मधु (खांड) और घी से संयुक्त परमान से प्रतिलाभित करूंगा; ऐसा विचार कर वह (बहल ब्राह्मण) सन्तुष्ट हुआ। शेष सब वर्णन विजय गाथापति के समान यावत् 'बहुल ब्राह्मण का मनुष्यजन्म और जीवनफल प्रशंसनीय है,' (यहाँ तक कहना चाहिए)।
४०. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं तंतुवायसालाए अपासमाणे रायगिहे नगरे सम्भंतरबाहिरिए ममं सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेइ। ममं कत्थति सुतिं वा खुतिं वा पवत्तिं वा अलभामाणे जेणेव तंतुवायसाला तेणेव उवागच्छति, उवा० २ साडियाओ य पाडियाओ य कुंडियाओ य पाहणाओ य चित्तफलगं च माहणे आयामेति, आ० २ सउत्तरोटुं मुंडं कारेति, स० का० २ तंतुवायसालाओ पडिनिक्खत्ति, तं० प० २ णालंदं बाहिरियं मझमझेणं निग्गच्छति, नि० २ जेणेव कोल्लागसन्निवेसे तेणेव उवागच्छइ।
[४०] उस समय मंखलिपुत्र गोशालक ने मुझे तन्तुवायशाला में नहीं देखा तो, राजगृह नगर के बाहर और भीतर सब ओर मेरी खोज की; परन्तु कहीं भी मेरी श्रुति (आवाज), क्षुति (छींक) और प्रवृत्ति न पा कर पुनः तन्तुवायशाला में लौट गया। वहाँ उसने शाटिकाएँ (अन्दर पहनने के वस्त्र), पाटिकाएँ (उत्तरीय—ऊपर पहनने के वस्त्र), कुण्डिकाएँ (भोजनादि के बर्तन), उपानत् (पगरखी) एवं चित्रपट (चित्रांकित फलक) आदि ब्राह्मणों को दे दिये। फिर (मस्तक से लेकर) दाढ़ी-मूंछ (उत्तरोष्ठ) सहित मुंडन करवाया।
इसके पश्चात् वह तन्तुवायशाला से बाहर निकला और नालन्दा से बाहरी भाग के मध्य में से चलता हुआ कोल्लाकसनिवेश में आया।
४१. तए णं तस्स कोल्लागस्स सन्निवेसस्स बहिया बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खति जाव परूवेति-धन्ने णं देवाणुप्पिया ! बहुले माहणे, तं चेव जाव जीवियफले बहुलस्स माहणस्स, बहुलस्स माहणस्स।
[४१] उस समय उस कोल्लाक सन्निवेश के बाहर बहुत से लोग परस्पर एक दूसरे से इस प्रकार कह रहे थे, यावत् प्ररूपणा कर रहे थे—'देवानुप्रियो ! धन्य है बहुल ब्राह्मण !' इत्यादि कथन पूर्ववत्, यावत्-बहुल ब्राह्मण का मानवजन्म और जीवनरूप फल प्रशंसनीय है; (यहाँ तक जानना चाहिए)।
४२. तए णं तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स बहुजणस्स अंतियं एयमटुं सोच्चा निसम्म अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था—जारिसिया णं ममं धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स समणस्स भगवतो