Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सोलहवां शतक : उद्देशक-१
५४१ पृथ्वीकायादि पांच स्थावरों के साथ जब विजातीय जीवों का तथा विजातीय स्पर्श वाले पदार्थों का संघर्ष होता है, तब उनके शरीर का घात होता है या बिना स्पर्श आदि से ही होता है? इसी आशय से अन्तः प्रश्न किया गया है। उत्तर में कहा गया है कि किसी दूसरे पदार्थ (अचित्त वायु आदि का)स्पर्श होने पर ही वायुकाय के जीव मरते हैं, बिना स्पर्श हुए नहीं। यह कथन सोपक्रम-आयुष्य की अपेक्षा से है। तीसरा प्रश्न है--जीव परभव से सशरीर जाता है, या शरीररहित होकर? इसका उत्तर यह है कि जीव तैजस-कार्मण शरीर की अपेक्षा से शरीरसहित जाता है और औदारिक शरीर आदि की अपेक्षा से शरीररहित होकर जाता है।
कठिन शब्दों का भावार्थ अधिकरणंसि—लोहादि कूटने के लिए जो नीचे रखा जाता है, वह (एहरन) अर्थात् एहरन पर हथौड़े से चोट मारते समय। पुढें—स्वकाय-शस्त्र आदि से स्पृष्ट होने पर। निक्खमइ–निकलता है। अंगारकारिका में अग्निकाय की स्थिति का निरूपण
६. इंगालकारियाए णं भंते ! अगणिकाए केवतियं कालं संचिट्ठइ ?
गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं तिन्नि रातिंदियाइं। अन्ने वि तत्थ वाउयाए वक्कमति, न विणा वाउकाएणं अगणिकाए उज्जलति।
[६. प्र] भगवन् ! अगारकारिका (सिगड़ी) में अग्निकाय कितने काल तक (सचित्त) रहता है ?
[६ उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन रात-दिन तक सचित्त रहता है। वहाँ अन्य वायुकायिक जीव भी उत्पन्न होते हैं, क्योंकि वायुकाय के बिना अग्निकाय प्रज्वलित नहीं होता।
_ विवेचन अग्निकाय की स्थिति—अग्निकाय चाहे सिगड़ी में हो या अन्य चूल्हे आदि में, उसकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन अहोरात्र की है।
इंगालकारियाए : अर्थ—जो अंगारों को करती है, वह अंगारकारिका—अग्निकारिका—अग्निशकटिका है। उसे देशीभाषा में "सिगड़ी" कहते हैं।
अग्नि और वायु का सम्बन्ध “यत्राग्निस्तत्र वायुः" इस नियमानुसार जहाँ अग्नि होती है, वहाँ वायु अवश्य होती है। अर्थात्-अग्निकाय के साथ वायुकाय के जीव भी उत्पन्न होते हैं।' तप्त लोहे को पकड़ने में क्रियासम्बन्धी प्ररूपणा.
७. पुरिसे णं भंते ! अयं अयकोठेंसि अयोमयेणं संडासएणं उबिहमाणे वा पब्विहमाणे वा कतिकिरिए ?
१. (क )भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६९७
(ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. ५, २५०५ २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६९७-६९८ ३. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६९८