Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
उसके प्रयत्न की विशेषता से भेद होता है, इसी प्रकार जीव द्वारा किये हुए भूत, भविष्य एवं वर्तमान काल के कर्मों में भी तीव्र-मन्दादि परिणामों के भेद से तदनुरूप कार्यकारित्व रूप नानात्व-विभिन्नता समझ लेना चाहिए।'
__कठिन शब्दार्थ-धणु-धनुष । उसु-बाण। परामुसइ-ग्रहण करता है। ठाणं ठाइ–अमुक स्थिति (आकृति) में खड़ा होता है। उड्ढं वेहासं—ऊपर आकाश में। उव्विहइ-फेंकता है। णाणत्तंनानात्व-विभिन्नत्व, भेद। एयति—कम्पन होता है। चौवीस दण्डकों द्वारा आहार रूप में गृहीत पुद्गलों में से भविष्य में ग्रहण एवं त्याग का प्रमाण-निरूपण
२४. नेरतिया ण भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए गेण्हंति तेसि णं भंते ! पोग्गलाणं सेयकालंसि कतिभागं आहारेंति, कतिभागं निजरेंति?
मागंदियपुत्ता ! असंखेजइभागं आहारेंति, अणंतभागं निजरेंति। _[२४ प्र.] भगवन् ! नैरयिक, जिन पुद्गलों को आहार रूप से ग्रहण करते हैं, भगवन् ! उन पुद्गलों का कितना भाग भविष्यकाल में आहार रूप से गृहीत होता है और कितना भाग निर्जरता (त्यागा जाता) है?
[२४ उ.] माकन्दिकपुत्र ! (उनके द्वारा आहार रूप से गृहीत पुद्गलों के) असंख्यातवें भाग का आहार रूप से ग्रहण होता है और अनन्तवें भाग का निर्जरण होता है।
२५. चक्किया णं भंते ! केयि तेसु निजरापोग्गलेसु आसइत्तए वा जाव तुयट्टित्तए वा? नो इणढे समढे, अणाहरणमेयं बुइयं समणाउसो!
[२५ प्र.] भगवन् ! क्या कोई जीव (उन निर्जरा पुद्गलों पर बैठने, यावत् सोने—करवट बदलने) में समर्थ है ?
_ [२५ उ.] माकन्दिकपुत्र! यह अर्थ समर्थ (शक्य) नहीं है। आयुष्मन् श्रमण ! ये निर्जरा पुद्गल अनाधार रूप कहे गए हैं (अर्थात् ये कुछ भी धारण करने में असमर्थ हैं।)
२६. एवं जाव वेमाणियाणं। सेवं भंते ! सेवं भंते ! तिः ।
॥अट्ठारसमे सए : तइओ उद्देसओ समत्तो॥१८-३॥
५. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७४३ २. (क) वही, पत्र ७४३
(ख) भगवती, (विवेचन—पं. घेवरचन्दजी) भा. ६, पृ. २६८९