Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
भव्य-द्रव्य-पृथ्वीकायिक कहलाता है।
५. आउकाइय-वणस्सतिकाइयाणं एवं चेव। [५] इसी प्रकार अप्कायिक और वनस्पतिकायिक के विषय में समझना चाहिए। ६. तेउ-वाउ-बेंदिय-तेइंदिया चउरिदियाण य जे भविए तिरिक्खजोणिए वा मणुस्से वा।
[६] अग्निकाय, वायुकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय पर्याय में जो कोई तिर्यञ्च या मनुष्य उत्पन्न होने के योग्य हो, वह भव्य-द्रव्य-अग्निकायिकादि कहलाता है।
७. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं जे भविए नेरइए वा तिरिक्खजोणिए वा मणुस्से वा देवे वा पंचेदियतिरिक्खजोणिए वा।
- [७] जो कोई नैरयिक, तिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य या देव, अथवा पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जीव, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होने योग्य होता है, वह भव्य-द्रव्य-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक कहलाता है।
८. एवं मणुस्साण वि। [८] इसी प्रकार मनुष्यों के विषय में (समझ लेना चाहिए)। ९. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणियाणं जहा नेरइया। [९] वाणव्यन्तर, ज्योतिषिक और वैमानिकों के विषय में नैरयिकों के समान समझना चाहिए।
विवेचन—भव्य और द्रव्य का पारिभाषिक अर्थ—मुख्यतया भविष्यत्काल की पर्याय का जो कारण है, वह 'द्रव्य' कहलाता है। कभी-कभी भूतकाल की पर्याय वाला भी 'द्रव्य' कहलाता है। जैसे— भूतकाल में जो राजा था वर्तमान में नहीं है, फिर भी वह 'राजा' कहलाता है। वह द्रव्य राजा है। इसी प्रकार भविष्य में जो राजा होगा, वर्तमान में नहीं, वह भी 'राजा' के नाम से कहा जाता है। वह भी 'द्रव्य राजा' है। यहाँ मुख्यतया भविष्यकाल की पर्याय के कारण को 'भव्य-द्रव्य' कहा गया है। किन्तु 'भवितु योग्याः भव्याः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार भूतपर्याय वाले जीवों को भव्यद्रव्य नहीं कहा गया है। इसलिए भविष्यकाल में जो जीव नारक-पर्याय में उत्पन्न होने वाला है, चाहे वह पंचेन्द्रिय तिर्यंच हो, चाहे मनुष्य हो, वह जीव भव्य-द्रव्यनैरयिक कहलाता है। वर्तमान पर्याय में जो नैरयिक है, वह द्रव्यनैरयिक नहीं, भावनैरयिक है। भव्यद्रव्य तीन प्रकार के होते हैं—(१) एकभविक, (२) बद्धायुष्क और (३) अभिमुखनामगोत्र । जो जीव विवक्षित एकअमुक भव के अनन्तर ही अमुक दूसरे भव में उत्पन्न होने वाले हैं, वे 'एकभविक' हैं। जिन्होंने पूर्वभव की आयु का तीसरा भाग आदि के शेष रहते ही अमुक भव का आयुष्य बांध लिया है, वे 'बद्धायुष्क' हैं तथा जो पूर्वभव का त्याग करने के अनन्तर, अमुक भव के आयुष्य, नाम और गोत्र का साक्षात् वेदन करते हैं, वे 'अभिमुखनामगोत्र' कहलाते हैं।'
१. भगवती. (प्रमेयचन्द्रिका टीका) भा. १२, पृ. १९७-१९८