Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 805
________________ ७७२ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र णो तिट्ठे समट्ठे, आहारेंति पुण ते । [१० प्र.] भगवन् ! उन जीवों को- 'हम आहार करते हैं, ऐसी संज्ञा, प्रज्ञा, मन और वचन होते हैं। [१० उ. ] हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है । अर्थात्—उन जीवों को हम आहार करते हैं, ऐसी संज्ञा, प्रज्ञा आदि नहीं होते। फिर भी वे आहार तो करते हैं । ११. तेसि णं भंते ! जीवाणं एवं सन्ना ति वा जाव वयी ति वा अम्हे णं इट्ठाणिट्टे फासे पडिसंवेदेमो ? नो तिट्ठे समट्ठे, पडिसंवेदेंति पुण ते । [११ प्र.] भगवन् ! क्या उन जीवों को यह संज्ञा यावत् वचन होता है कि हम इष्ट या अनिष्ट स्पर्श का अनुभव करते हैं ? [११ उ.] गौतम! यह अर्थ समर्थ (शक्य) नहीं है, फिर भी वे वेदन (अनुभव ) तो करते ही हैं। १२. ते णं भंते ! जीवा किं पाणातिवाए उवक्खाइज्जंति, मुसावाए अदिण्णा० जाव मिच्छादंसणसल्ले उवक्खाइज्जंति ? गोयमा ! पाणातिवाए वि उवक्खाइज्जंति जाव मिच्छादंसणसल्ले वि उवक्खाइज्जंति, जेसिं णं जीवाणं ते जीवा 'एवमाहिज्जंति' तेसिं पि णं जीवाणं नो विण्णाए नाणत्ते । [१२ प्र.] भगवन्! क्या वे (पृथ्वीकायिक) जीव प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, यावत् मिथ्यादर्शनशल्य में रहे हुए हैं ? [१२ उ.] गौतम! वे जीव प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य में रहे हुए हैं तथा वे जीव, दूसरे जिन पृथ्वीकायिकादि जीवों की हिंसादि करते हैं, उन्हें भी, ये जीव हमारी हिंसादि करने वाले हैं, ऐसा भेद ज्ञात नहीं होता । १३. ते णं भंते ! जीवा कओहिंतो उववज्जंति ? किं नेरइएहिंतो उववज्जंति ? एवं जहा वक्कंती पुढविकाइयाणं उववातो तहा भाणितव्वो । [१३ प्र.] भगवन्! ये पृथ्वीकायिक जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? क्या ये नैरयिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, इत्यादि प्रश्न ? [१३ उ.] गौतम! जिस प्रकार प्रज्ञापनासूत्र के छठे व्युत्क्रान्तिपद में पृथ्वीकायिक जीवों का उत्पाद कहा है, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए। १४. तेसिं णं भंते! जीवाणं केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साइं ।

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