Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 788
________________ अठारहवाँ शतक : उद्देशक - १० कठिन शब्दार्थ – अन्नमन्नबद्धाई – परस्पर गाढ आश्लेष से बद्ध । अन्नमन्न - पुट्ठाई – एक दूसरे से स्पृष्ट अर्थात्——चारों ओर से गाढ रूप से श्लिष्ट । अन्नमन्न ओगाढाई — एक क्षेत्राश्रित रहे हुए । अन्नमन्नघडत्ता — परस्पर सामूहिक रूप से घटित — जुड़े हुए।' वाणिज्यग्राम नगरवासी सोमिल ब्राह्मण द्वारा पूछे गए यात्रादि सम्बन्धित चार प्रश्नों का भगवान् द्वारा सामधान १३. तए णं समणे भगवं महावीरे जाव बहिया जणवयविहारं विहरइ । [१३] तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने यावत् बाहर के जनपदों में विचरण किया। १४. तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियग्गामे नामं नगरे होत्था । वण्णओ । दूतिपलासए चेतिए । aurओ । ७५५ [१४] उस काल उस समय में वाणिज्यग्राम नामक नगर था । उसका वर्णन करना चाहिए। वहाँ तिपलाश नाम का उद्यान (चैत्य) था। उसका वर्णन करना चाहिए। १५. तत्थ णं वाणियग्गामे नगरे सोमिले नामं माहणे परिवसति अड्ढे जाव अपरिभूए रिव्वेद जाव सुपरिनिट्ठए पंचहं खंडियसयाणं सयस्स य कुडुंबस्स आहेवच्चं जाव विहरइ । [१५] उस वाणिज्यग्राम नगर में सोमिल नामक ब्राह्मण (माहन) रहता था, जो आढ्य यावत् अपराभूत था तथा ऋग्वेद यावत् अथर्ववेद, तथा शिक्षा, कल्प आदि वेदांगों में निष्णात था। वह पांच सौ शिष्यों (खण्डिकों) और अपने कुटुम्ब पर आधिपत्य करता हुआ यावत् सुखपूर्वक जीवनयापन करता था। १६. तए णं समणे भगवं महावीरे जाव समोसढे । जाव परिसा पज्जुवासइ । [१६] उन्हीं दिनों में (वाणिज्यग्राम के द्युतिपलाश नामक उद्यान में ) श्रमण भगवान् महावीर स्वामी यावत् पधारे। यावत् परिषद् भगवान् की पर्युपासना करने लगी। १७. तए णं तस्स सोमिलस्स माहणस्स इमीसे कहाए लद्धट्ठस्स समाणस्स अयमेयारूवे जाव समुपज्जित्था - ' एवं खलु समणे णायपुत्ते पुव्वाणुपुव्वि चरमाणे गामाणुगामं दूइज्माणे सुहंसुहेणं इहमा जाव दूतिपलासए चेतिए अहापडिरूवं जाव विहरति । तं गच्छामि णं समणस्स नायपुत्तस्स अंतियं पाउब्भवामि, इमाई च णं एयारूवाई अट्ठाई जाव वागरणाई पुच्छिस्सामि, तं जड़ मे से इमाई एयारूवाइं अट्ठाई जाव वागरणाई वागरेहिति तो णं वंदीहामि नमसीहामि जाव पज्जुवासीहामि । अह मे से इमाई अट्ठाई जाव वागरणाइं नो वागरेहिति तो णं एतेहिं चेव अट्ठेहि य जाव वागरणेहि य निष्पट्ठपसिणवागरणं करिस्सामि' त्ति कट्टु एवं संपेहेइ, ए० सं० २ ण्हाए जाव सरीरे साओ गिहाओ पडिनिक्खमति, पडि० २ पादविहारचारेणं एगेणं खंडियसएणं सद्धिं संपरिवुडे वाणियग्गामं नगरं १. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७५८

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