Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
[१-२ उ.] गौतम! जैसे, इस मनुष्यलोक में दो पुरुष हों, उनमें से एक पुरुष आभूषणों से अलंकृत और विभूषित हो और एक पुरुष अलंकृत और विभूषित न हो, तो हे गौतम ! (यह बताओ कि) उन दोनों पुरुषों में कौन-सा पुरुष प्रसन्नता उत्पन्न करने वाला, यावत् मनोरम्य लगता है और कौन-सा प्रसन्नता उत्पादक यावत् मनोरम्य नहीं लगता ? जो पुरुष अलंकृत और विभूषित है वह, अथवा जो पुरुष अलंकृत और विभूषित नहीं है
वह ?
(गौतम) भगवन् ! उन दोनों में से जो पुरुष अलंकृत और विभूषित है, वही प्रसन्नता उत्पन्न करने वाला यावत् मनोरम्य है, और जो पुरुष अलंकृत और विभूषित नहीं है, वह प्रसन्नता उत्पन्न करने वाला, यावत् मनोरम्य नहीं है।
(भगवान्-) हे गौतम! इसी कारण से ऐसा कहा गया है कि यावत् (जो अविभूषित शरीर वाले असुरकुमार हैं) वे प्रसन्नता उत्पन्न करने वाले यावत् मनोरम्य नहीं हैं।
२. दो भंते ! नागकुमारा देवा एगंसि नागकुमारावासंसि.? एवं चेव। [२ प्र.] भगवन् ! दो नागकुमारदेव एक नागकुमारावास में नागकुमाररूप में उत्पन्न हुए इत्यादि पूर्ववत्
प्रश्न।
[२ उ.] गौतम! पूर्वोक्तरूप से समझना चाहिए। ३. एवं जाव थणियकुमारा। [३] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक (जानना चाहिए)। ४. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया एवं चेव। [४] वाणव्यन्तर ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के विषय में भी इसी प्रकार (समझना चाहिए)।
विवेचन—एक ही निकाय के दो देवों में परस्पर अन्तर—प्रस्तुत चार सूत्रों (१-४) में चारों प्रकार के देवों में से एक ही आवास में उत्पन्न होने वाले दो देवों में प्रसन्नता, सुन्दरता और मनोरमता में अन्तर का कारण क्रमश: वैक्रियशरीर सम्पन्नता और अवैक्रियशरीरयुक्तता बताया गया है। वैसे तो प्रत्येक देव के वैक्रियशरीर भवधारणीय (जन्म से) होता है, किन्तु यहाँ अवैक्रियशरीरयुक्त कहने का तात्पर्य है—अविभूषित शरीरयुक्त और वैक्रियशरीरयुक्त कहने का अर्थ है—विभूषित शरीर वाला। आशय यह है कि कोई भी देव जब देवशय्या में उत्पन्न होता है, तब सर्वप्रथम वह अलंकार आदि विभूषा से रहित होता है। इसके पश्चात् क्रमशः वह अलंकार आदि धारण करके विभूषित होता है। अतः यहाँ वैक्रियशरीर का अर्थ विभूषित शरीर है और अवैक्रियशरीर का अर्थ है—अविभूषित शरीर।'
१. भगवतीसूत्र विवेचन (पं. घेवरचन्दजी), भा. ४, पृ. २७०२