Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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अठारहवां शतक : उद्देशक-५
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के आयुष्य का वेदन करता है, किन्तु वह मर कर जहाँ उत्पन्न होने के योग्य है उसके आयुष्य को उदयाभिमुख करता है तथा उस शरीर को छोड़ देने के बाद ही वह जहाँ उत्पन्न होता है, वहाँ के आयुष्य का वेदन करता है। जैसे एक नैरयिक जब तक नैरयिक का शरीर धारण किये हुए है, तब तक वह नरक के आयुष्य का वेदन करता है, किन्तु वह मरकर यदि अन्तर रहित पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिकों में उत्पन्न होने योग्य है तो उसके आयुष्य को उदयाभिमुख कर रहता है, किन्तु नैरयिक शरीर को छोड़ देने के बाद जब वह तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय में उत्पन्न होता है तो वहाँ के आयुष्य का वेदन करता है। चतुर्विध देवनिकायों में देवों की स्वेच्छानुसार विकुर्वणाकरण-अकरण-सामर्थ्य के कारणों का निरूपण
१२. दो भंते ! असुरकुमारा एगंसि असुरकुमारावासंसि असुरकुमारदेवत्ताए उववन्ना। तत्थ णं एगे असुरकुमारे देवे 'उज्जुयं विउव्विस्सामी' ति उज्जुयं विउव्वइ, 'वंकं विउव्विस्सामी' ति वंकं विउव्वइ, जं जहा इच्छति, तं तहा विउव्वइ। एगे असुरकुमारे देवे 'उज्जुयं विउव्विस्सामी' ति वंकं विउव्वति, 'वंकं विउव्विस्सामो' ति उज्जुयं विउव्वति, जं जहा इच्छति णो तं तहा विउव्वति। से कहमेयं भंते ! एवं?
गोयमा ! असुरकुमारा देवा दुविहा पन्नत्ता, तं जहा—मायिमिच्छद्दिट्ठिउववन्नगा य अमायिसम्मद्दिट्ठिउववन्नगा य। तत्थ णं जे से मायिमिच्छद्दिट्ठिउववन्नए असुरकुमारे देवे से णं 'उज्जुयं विउव्विस्सामी' ति वंकं विउव्वति जाव णो तं तहा विउव्वइ, तत्थ णं जे से अमायिसम्मद्दिट्ठिउववन्नए असुरकुमारे देवे से 'उज्जुयं विउव्विस्सामी' ति उज्जुयं विउव्वति जाव तं तहा विउव्वइत्ति।
[१२ प्र.] भगवन् ! दो असुरकुमार, एक ही असुरकुमारावास में असुरकुमार रूप में उत्पन्न हुए, उनमें से एक असुरकुमार देव यदि वह चाहे कि मैं ऋजु (सरल) रूप से विकुर्वणा करूंगा, तो वह ऋजु-विकुर्वणा कर सकता है और यदि वह चाहे कि मैं वक्र (टेढे) रूप में विकुर्वणा करूंगा, तो वह वक्र-विकुर्वणा कर सकता है। अर्थात् वह जिस रूप की, जिस प्रकार से विकुर्वणा करना चाहता है, उसी रूप की, उसी प्रकार से विकुर्वणा कर सकता है, जब कि एक असुरकुमारदेव चाहता है कि मैं ऋजु-विकुर्वणा करूं, परन्तु वक्ररूप की विकुर्वणा हो जाती है और वक्ररूप की विकुर्वणा करना चाहता है, तो ऋजुरूप की विकुर्वणा हो जाती है। अर्थात् वह जिस रूप की, जिस प्रकार से विकुर्वणा करना चाहता है, वह उस रूप की उस प्रकार से विकुर्वणा नहीं कर पाता, तो भगवन् ! ऐसा क्यों होता है ?
[१२ उ.] गौतम! असुरकुमार देव दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा—मायिमिथ्यादृष्टिउपपन्नक और अमायिसम्यग्दृष्टि-उपपन्नक। इनमें से जो मायिमिथ्यादृष्टि-उपपन्नक असुरकुमार देव है, वह ऋजुरूप की विकुर्वणा करना चाहे तो वक्ररूप की विकुर्वणा हो जाती है, यावत् जिस रूप की, जिस प्रकार से विकुर्वणा करना चाहता है, उस रूप की उस प्रकार से विकुर्वणा नहीं कर पाता किन्तु जो अमायिसम्यग्दृष्टि-उपपन्नक असुरकुमारदेव
१. भगवती. विवेचन (पं. घेवरचन्दजी) भा. ६, पृ. २७०५