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________________ ७०० व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र उसके प्रयत्न की विशेषता से भेद होता है, इसी प्रकार जीव द्वारा किये हुए भूत, भविष्य एवं वर्तमान काल के कर्मों में भी तीव्र-मन्दादि परिणामों के भेद से तदनुरूप कार्यकारित्व रूप नानात्व-विभिन्नता समझ लेना चाहिए।' __कठिन शब्दार्थ-धणु-धनुष । उसु-बाण। परामुसइ-ग्रहण करता है। ठाणं ठाइ–अमुक स्थिति (आकृति) में खड़ा होता है। उड्ढं वेहासं—ऊपर आकाश में। उव्विहइ-फेंकता है। णाणत्तंनानात्व-विभिन्नत्व, भेद। एयति—कम्पन होता है। चौवीस दण्डकों द्वारा आहार रूप में गृहीत पुद्गलों में से भविष्य में ग्रहण एवं त्याग का प्रमाण-निरूपण २४. नेरतिया ण भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए गेण्हंति तेसि णं भंते ! पोग्गलाणं सेयकालंसि कतिभागं आहारेंति, कतिभागं निजरेंति? मागंदियपुत्ता ! असंखेजइभागं आहारेंति, अणंतभागं निजरेंति। _[२४ प्र.] भगवन् ! नैरयिक, जिन पुद्गलों को आहार रूप से ग्रहण करते हैं, भगवन् ! उन पुद्गलों का कितना भाग भविष्यकाल में आहार रूप से गृहीत होता है और कितना भाग निर्जरता (त्यागा जाता) है? [२४ उ.] माकन्दिकपुत्र ! (उनके द्वारा आहार रूप से गृहीत पुद्गलों के) असंख्यातवें भाग का आहार रूप से ग्रहण होता है और अनन्तवें भाग का निर्जरण होता है। २५. चक्किया णं भंते ! केयि तेसु निजरापोग्गलेसु आसइत्तए वा जाव तुयट्टित्तए वा? नो इणढे समढे, अणाहरणमेयं बुइयं समणाउसो! [२५ प्र.] भगवन् ! क्या कोई जीव (उन निर्जरा पुद्गलों पर बैठने, यावत् सोने—करवट बदलने) में समर्थ है ? _ [२५ उ.] माकन्दिकपुत्र! यह अर्थ समर्थ (शक्य) नहीं है। आयुष्मन् श्रमण ! ये निर्जरा पुद्गल अनाधार रूप कहे गए हैं (अर्थात् ये कुछ भी धारण करने में असमर्थ हैं।) २६. एवं जाव वेमाणियाणं। सेवं भंते ! सेवं भंते ! तिः । ॥अट्ठारसमे सए : तइओ उद्देसओ समत्तो॥१८-३॥ ५. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७४३ २. (क) वही, पत्र ७४३ (ख) भगवती, (विवेचन—पं. घेवरचन्दजी) भा. ६, पृ. २६८९
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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