Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [३ प्र.] भगवान् ! कषाय कितने प्रकार का कहा गया है ? __ [३ उ.] गौतम! कषाय चार प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार—इत्यादि प्रज्ञापनासूत्र का चौदहवाँ समग्र कषाय पद, लोभ के वेदन द्वारा अष्टविध कर्मप्रकृतियों की निर्जरा करेंगे, यहाँ तक कहना चाहिए।
विवेचन-नैरयिकों आदि की चार कषायों से निर्जरा—प्रस्तुत सूत्र ३ में प्रज्ञापनासूत्र के चौदहवें कषाय पद का अतिदेश किया गया है। इसमें सारभूत तथ्य यह है कि नैरयिकादि जीवों के आठों ही कर्मप्रकृतियों की निर्जरा क्रोधादि चार कषायों के वेदन द्वारा होती है. क्योंकि नैरयिकादि जीवों के आठों ही कर्म उदय में रहते हैं और उदय में आए हुए कर्मों की निर्जरा अवश्य होती है। नैरयिकादि कषाय के उदय वाले हैं । कषाय का उदय होने पर उसके वेदन के पश्चात् कर्मों की निर्जरा होती है। जैसा कि प्रज्ञापनासूत्र में कहा है—क्रोधादि के द्वारा वैमानिकों आदि के आठों कर्मों की निर्जरा होती है।' युग्म : कृतयुग्मादि चार और स्वरूप
४[१] कति णं भंते ! जुम्मा पन्नत्ता ? गोयमा ! चत्तारि जुम्मा पन्नता, तं जहा—कडजुम्मे तेयोए दावरजुम्मे कलिओए। [४-१ प्र.] भगवन् ! युग्म (राशियाँ) कितने कहे गए हैं ? [४-१ उ.] गौतम! युग्म चार कहे गए हैं, यथा—कृतयुग्म, त्र्योज, द्वारपयुग्म और कल्योज। [२] से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चति—जाव कलिओए?
गोयमा ! जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे चउपज्जवसिए से तं कडजुम्मे। जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे तिपज्जवसिए से त्तं तेयोए। जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे दुपज्जवसिए से त्तं दावरजुम्मे।जेणं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे एगपज्जवसिए से त्तं कलिओये, से तेणठेणं गोतमा ! एवं वुच्चति जाव कलिओए।
[४-२ प्र] भगवन् ! आप किस कारण से कहते हैं कि यावत् कल्योज-पर्यन्त चार राशियाँ कही गई हैं ?
[४-२ उ.] गौतम! जिस राशि में से चार-चार निकालने पर, अन्त में चार शेष रहें, वह राशि है 'कृतयुग्म'। जिस राशि में से चार-चार निकालते हुए अन्त में तीन शेष रहें, वह राशि योज' कहलाती है। जिस राशि में से चार-चार निकालने पर अन्त में दो शेष रहे, वह राशि ‘द्वापरयुग्म' कहलाती है और जिस राशि में से
१. (क) भगवती. सूत्र अ. वृत्ति, पत्र ७४५
(ख) 'वेमाणिया णं भंते ! कइहिं ठाणेहिं अट्ठ कम्मपयडीओ निजरिस्संति?' 'गोयमा! चउहिं ठाणेहिं, तं जहा–कोहेणं जाव लोभेणं ति।।
-प्रज्ञापना, पद १४, भा. १, पृ. २३४-२३६