Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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अठारहवां शतक : उद्देशक-१
६६५ [२९ उ.] गौतम! (सू. ९ में उल्लिखित) आहारकजीव के समान (वह अप्रथम है)। ३०. एवं पुहत्तेण वि। [३०] बहुवचन की वक्तव्यता भी इसी प्रकार समझनी चाहिए। ३१. कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा एवं चेव, नवरं जस्स जा लेस्सा अत्थि।
[३६] कृष्णलेश्यी से लेकर शुक्ललेश्यी तक के विषय में भी इसी प्रकार जानना चाहिए। विशेषता यह है कि जिस जीव के जो लेश्या हो, वही कहनी चाहिए।
३२. अलेसे णं जीव-मणुस्स-सिद्धे जहा नोसण्णीनोअसण्णी (सु. २७)।।
[३२] अलेश्यीजीव, मनुष्य और सिद्ध के सम्बन्ध में (सू. २७ में उल्लिखित) नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी के समान (प्रथम) कहना चाहिए। - विवेचन (५) लेश्याद्वार–प्रस्तुतद्वार में (सू. २९ से ३२ तक में) सलेश्यी, कृष्णलेश्यी से लेकर शुक्ललेश्यी तक तथा अलेश्यी जीव, मनुष्य सिद्ध आदि के विषय में क्रमशः सलेश्यभाव एवं अलेश्यभाव की अपेक्षा से अतिदेशपूर्वक कथन किया गया है। सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि एवं मिश्रदृष्टि जीवों के विषय में एक-बहुवचन से सम्यग्दृष्टि भावादि की अपेक्षा से प्रथमत्व-अप्रथमत्व निरूपण .
३३. सम्मदिट्ठीए णं भंते ! जीवे सम्मदिट्ठिभावेणं किं पढमे० पुच्छा। गोयमा! सिय पढमे, सिय अपढमे। [३३ प्र.] भगवन् ! सम्यग्दृष्टि जीव, सम्यग्दृष्टिभाव की अपेक्षा से प्रथम है या अप्रथम है ? [३३ उ.] गौतम! वह कदाचित् प्रथम होता है और कदाचित् अप्रथम होता है। ३४. एवं एगिंदियवजं जाव वेमाणिए। [३४] इसी प्रकार एकेन्द्रियजीवों के सिवाय (नैरयिक से लेकर) वैमानिक तक समझना चाहिए। ३५ सिद्धे पढमे, नो अपढमे। [३५] सिद्धजीव प्रथम है, अप्रथम नहीं। ३६. पुहत्तिया जीवा पढमा वि, अपढमा वि। [३६] बहुवचन से सम्यग्दृष्टिजीव (सम्यग्दृष्टित्व की अपेक्षा से) प्रथम भी हैं, अप्रथम भी हैं। ३७. एवं जाव वेमाणिया। [३७] इसी प्रकार (बहुवचन सम्बन्धी) वैमानिकों तक कहना चाहिए। ३८. सिद्धा पढमा, नो अपढमा।