Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
__ [४] से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ—'अत्थेगइया जाणंति ३, अत्थेगइया न जाणंति, न पासंति, आहारेंति ?'
गोयमा ! मणुस्सा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा—सण्णीभूया य असण्णीभूया य। तत्थ णं जे ते असण्णीभूया, ते न जाणंति, न पासंति, आहारेंति। तत्थ णं जे ते सण्णीभूया, ते दुविहा प० तं०उवउत्ता अणुवउत्ता य। तत्थ णं जे ते अणुवउत्ता, ते न जाणंति, न पासंति, आहारेंति। तत्थ णं जे ते उवउत्ता, ते जाणंति ३। से तेणढेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–अत्थेगइया ण जाणंति, ण पासंति, आहारेंति, अत्थेगइया जाणंति ३ ।
_ [९-४ प्र.] भगवन् ! आप यह किस कारण से कहते हैं कि कई मनुष्य जानते-देखते और ग्रहण करते हैं, जब कि कई मनुष्य जानते-देखते नहीं, किन्तु ग्रहण करते हैं ?
_ [९-४ उ.] गौतम! मनुष्य दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा—संज्ञीभूत और असंज्ञीभूत । उनमें जो असंज्ञीभूत हैं, वे (उन पुद्गलों को) नहीं जानते-देखते, किन्तु ग्रहण करते हैं। जो संज्ञीभूत मनुष्य हैं, बे दो प्रकार के हैं, यथा—उपयोगयुक्त और उपयोगरहित । उनमें जो उपयोगरहित हैं वे उन पुद्गलों को नहीं जानते-देखते, किन्तु ग्रहण करते हैं। मगर जो उपयोगयुक्त हैं, वे जानते-देखते हैं, और ग्रहण करते हैं। इस कारण से हे गौतम! ऐसा कहा गया है कि कई मनुष्य नहीं जानते-देखते, किन्तु आहाररूप से ग्रहण करते हैं, तथा कई जानते-देखते हैं और ग्रहण करते हैं।
[५] वाणमंतर-जोइसिया जहा णेरइया। [१-५] वाणव्यन्तर और ज्योतिष्कदेवों का कथन नैरयिकों के समान जानना चाहिए। [५] वेमाणिया णं भंते ! ते णिज्जरा पोग्गले किं जाणंति ३?
गोयमा ! जहा मणुस्सा, णवरं वेमाणिया दुविहा प० तं०–माइमिच्छदिट्ठि-उववण्णगा य अमाइसम्मदिट्ठी-उववण्णगा य। तत्थ णं जे ते माइमिच्छदिट्ठि-उववण्णगा ते णं ण जाणंति, ण पासंति, आहारेंति। तत्थ णं जे ते अमाइसम्मदिट्ठी-उववण्णगा ते दुविहा प० तं०-अणंतरोववण्णगा य, परंपरोववण्णगा य। तत्थ णं जे ते अणंतरोववण्णगा, ते णं ण जाणंति, ण पासंति, आहारेंति। तत्थ णं जे ते परंपरोववण्णगा ते दुविहा प० तं०—पजत्तगा य अपज्जत्तगा य। तत्थ णं जे ते अपज्जत्तगा ते णं ण जाणंति, ण पासंति, आहारेंति। तत्थ णं जे ते पज्जत्तगा ते दुविहा प०तं०-उवउत्ता य अणुवउत्ता य। तत्थ णं जे ते अणुवउत्तगा, ते ण जाणंति, ण पासंति, आहारेंति। [ तत्थ णं जे ते उवउत्ता, ते णं जाणंति, पासंति, आहारेंति य]।' १. यह पाठ प्रज्ञापनासूत्र का है, किन्तु कई प्रतियों में भगवतीसूत्र के मूलपाठ के रूप में माना गया है। इस सम्बन्ध में दो
अभिप्राय वृत्तिकार लिखते हैं कि यह पाठ प्रज्ञापनासूत्र से उद्धृत किया हुआ है, और प्रज्ञापनासूत्र की रचना-शैली प्रायः गौतमस्वामी के प्रश्न और उत्तररूप होने से यहाँ प्रश्नकर्ता माकन्दिकपुत्र होने पर भी श्री गौतमस्वामी को सम्बोधित करके उत्तर दिया गया है। अत: [ ] कोष्ठकान्तर्गत पाठ प्रज्ञापना के उस संलग्न पाठ का ग्रहण किया हुआ समझना चाहिए। दूसरा मत यह है कि प्रश्नकार माकन्दिकपुत्र है। अतएव 'गौतम' शब्द से यहाँ 'माकन्दिकपुत्र' का ही ग्रहण समझना चाहिए। - सं.