Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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अठारहवां शतक : उद्देशक-१
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अपेक्षा से प्रथम है या अप्रथम है ?
[२१ उ.] पूर्ववत् समझना चाहिए। २२. एवं पुहत्तेण वि दोण्ह वि। [२२] इसी प्रकार (जीव और सिद्ध) दोनों के बहुवचन-सम्बन्धी प्रश्नोत्तर भी समझ लेने चाहिए।
विवेचन (३) भवसिद्धिकद्वार—इसमें ५ सूत्रों (सू. १८ से २२ तक) में एक या अनेक भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक जीव तथा एक-अनेक नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक जीव और सिद्ध के विषय में क्रमश: भवसिद्धिकभाव अभवसिद्धिकभाव तथा नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिकभाव की अपेक्षा से प्रथमत्व-अप्रथमत्व की चर्चा की गई है।
परिभाषा— भवसिद्धिक का अर्थ है— भवान्त (संसार का अन्त) करके सिद्धत्व प्राप्त करने के स्वभाव वाला, भव्यजीव। अभवसिद्धिक का अर्थ है—अभव्य जो कदापि संसार का अन्त करके सिद्धत्व प्राप्त नहीं करेगा। नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक का अर्थ है—जो न तो भव्य रहे हैं, न अभव्य, अर्थात् जो सिद्धत्व प्राप्त कर चुके हैं—सिद्ध जीव। - भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक अप्रथम क्यों ?—भवसिद्धिक का भव्यत्व और अभवसिद्धिक का अभव्यत्व अनादिसिद्ध पारिणामिक भाव है, इसलिए दोनों क्रमश: भव्यत्व व अभव्यत्व की अपेक्षा से प्रथम नहीं, अप्रथम हैं।
दो सूत्र क्यों?—जब नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक से सिद्ध जीव का ही कथन है, तब एक ही सूत्र से काम चल जाता, दो सूत्रों में उल्लेख क्यों ? वृत्तिकार इसका समाधान करते हैं कि यहाँ पहला सूत्र केवल समुच्चय जीव की अपेक्षा से है, नारकादि की अपेक्षा से नहीं, और दूसरा सूत्र सिद्ध की अपेक्षा से। इसलिए दोनों पृच्छा-सूत्रों के उत्तर के रूप में इनको प्रथम बताया गया है। जीव, चौवीस दण्डक एवं सिद्धों में संज्ञी-असंज्ञी-नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी भाव की अपेक्षा से प्रथमत्व-अप्रथमत्व निरूपण
२३. सण्णी णं भंते! जीवे सण्णिभावेणं किं० पुच्छा। गोयमा ! नो पढमे, अपढमे। [२३ प्र.] भगवन् ! संज्ञीजीव, संज्ञीभाव की अपेक्षा से प्रथम है या अप्रथम ? [२३ उ.] गौतम ! (वह) प्रथम नहीं, अप्रथम है। २४. एवं विगलिंदियवजं जाव वेमाणिए।
१. भगवतीसूत्र. अ. वृत्ति, पत्र ७३४