Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
(सू. ९-११ में उल्लिखित) आहारक जीव के समान हैं। विशेष यह है कि जिसके जो पर्याप्ति हो, वह कहनी चाहिए। इस प्रकार नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक जानना चाहिए। अर्थात् —ये सब प्रथम नहीं, अप्रथम हैं।
विवेचन (१४) पर्याप्तिद्वार—इस द्वार में (सू. ६२ में) चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में पर्याप्तभावअपर्याप्तभाव की अपेक्षा से एकवचन-बहुवचन में आहारकजीवों के अतिदेशपूर्वक प्रथमत्व अप्रथमत्व का यथायोग्य निरूपण किया गया है। अर्थात् —पर्याप्तक और अपर्याप्तक सभी जीव अप्रथम हैं, प्रथम नहीं हैं। प्रथम-अप्रथम-लक्षण निरूपण ६३. इमा लक्खणगाहा
जो जेण पत्तपुव्वो भावो सो तेणऽपढमओ होति॥
सेसेसु होइ पढमो अपत्तपुव्वेसु भावेसु॥१॥ [६३] यह लक्षण गाथा है___ (गाथार्थ-) जिस जीव को जो भाव (अवस्था) पूर्व (पहले) से प्राप्त है, (तथा जो अनादिकाल से है,) उस भाव की अपेक्षा से वह जीव 'अप्रथम' है, किन्तु जिन्हें जो भाव पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ है, अर्थात् - जो भाव प्रथम बार ही प्राप्त हुआ है, उस भाव की अपेक्षा से वह जीव प्रथम कहलाता है।
विवेचन–सेसेसु : भावार्थ—यहाँ 'शेषेषु' का भावार्थ है—जिन्हें जो भाव पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ है, अर्थात् —जो भाव जिन्हें प्रथम बार ही प्राप्त हुआ है।' जीव, चौवीस दण्डक और सिद्धों में, पूर्वोक्त चौदह द्वारों के माध्यम से जीवभावादि की अपेक्षा से, एकवचन-बहुवचन से यथायोग्य चरमत्व-अचरमत्व निरूपण
६४. जीवे णं भंते ! जीवभावेणं किं चरिमे, अचरिमे ? गोयमा ! नो चरिमे, अचरिमे। [६४ प्र.] भगवन् ! जीव, जीवभाव (जीवत्व) की अपेक्षा से चरम है या अचरम है ? [६४ उ.] गौतम! चरम नहीं, अचरम है। ६५. नेरतिए णं भंते ! नेरतियभावेणं. पुच्छा। गोयमा ! सिय चरिमे, सिय अचरिमे। [६५ प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीव, नैरयिकभाव की अपेक्षा से चरम है या अचरम है ?
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७३५ २. भगवती. अ. वृत्ति पत्र ७३५