Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सत्तरहवाँ शतक : उद्देशक-२
६२५ जैनसिद्धान्त का मन्तव्य जीव अर्थात्—जीव विशिष्ट शरीर और जीवात्मा (जीव), ये कथंचित् एक हैं, इन दोनों में अत्यन्त भेद नहीं है। अत्यन्त भेद मानने पर देह स्पृष्ट वस्तु का ज्ञान जीव को नहीं हो सकेगा तथा शरीर द्वारा किये हुए कर्मों का वेदन भी आत्मा को नहीं हो सकेगा। दूसरे के द्वारा किये हुए कर्मों का संवेदन दूसरे के द्वारा मानने पर अकृताभ्यागमदोष आएगा तथा अत्यन्त अभेद मानने पर परलोक का अभाव हो जाएगा। इसलिए जीव और आत्मा में कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद है। रूपी अरूपी नहीं हो सकता, न अरूपी रूपी हो सकता है
१८.[१] देवेणं भंते ! महिड्डीए जाव महेसक्खे पुव्वामेव रूवी भवित्ता पभू अरूविं विउब्वित्ताणं चिट्ठित्तए ?
णो इणढे समढे।
[१८-१ प्र.] भगवन् ! क्या महर्द्धिक यावत् महासुख-सम्पन्न देव, पहले रूपी होकर (मूर्तरूप धारण करके) बाद में अरूपी (अमूर्तरूप) की विक्रिया करने में समर्थ है ?
[१८-१ उ.] गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है। ' [२] से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ–देवे णं जाव नो पभू अरूविं विउव्वित्ताणं चिट्ठित्तिए?
गोयमा ! अहमेयं जाणामि, अहमेयं पासामि, अहमेयं बुज्झामि, अहमेयं अभिसमन्नागच्छामि मए एयं नायं, मए एयं दिटुं, मए एयं बुद्धं, मए एयं अभिसमन्नागयं जंणं तहागयस्स जीवस्स सरूविस्स सकम्मस्स सरागस्स सवेयगस्स समोहस्स सलेसस्स ससरीरस्स ताओ सरीराओ अविष्पमुक्कस्स एवं पण्णायति, तं जहा–कालत्ते वा जाव सुक्किलत्ते वा, सुब्भिगंधत्ते वा, दुब्भिगंधत्ते वा, तित्तत्ते वा जाव महुरत्ते वा, कक्खडत्ते वा जाव लुक्खत्ते वा, से तेणढेणं गोयमा ! जाव चिट्ठित्तए।
[१८-२ प्र.] भगवन् ! ऐसा क्यों कहते हैं कि देव (पहले रूपी होकर) ......... यावत् अरूपीपन की विक्रिया करने में समर्थ नहीं है?
[१८-२ उ.] गौतम! मैं यह जानता हूँ, मैं यह देखता हूँ, मैं यह निश्चित जानता हूँ, मैं यह सर्वथा जानता हूँ, मैंने यह जाना है, मैंने यह देखा है, मैंने यह निश्चित समझ लिया है और मैंने यह पूरी तरह से जाना है कि तथा प्रकार के सरूपी (रूप वाले), सकर्म (कर्म वाले) सराग, सवेद (वेद वाले), समोह (मोहयुक्त) सलेश्य (लेश्या वाले), सशरीर (शरीर वाले) और उस शरीर से अविमुक्त जीव के विषय में ऐसा सम्प्रज्ञात होता है, यथा—उस शरीरयुक्त जीव में कालापन यावत् श्वेतपन, सुगन्धित्व या दुर्गन्धित्व, कटुत्व यावत् मधुरत्व, कर्कशत्व यावत् रूक्षत्व होता है। इस कारण, हे गौतम ! वह देव पूर्वोक्त प्रकार से यावत् विक्रिया करके रहने में समर्थ नहीं है।
१९. सच्चेव णं भंते ! से जीवे पुव्वामेव अरूवी भवित्ता पभू रूविं विउव्वित्ताणं चिट्ठित्तए ?
णो तिणठे। जाव चिट्ठित्तए ? १. भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २६१२