Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सोलहवाँ शतक : उद्देशक - ६
२९. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं सरथंभं वा वीरणथंभं वा वंसीमूलथंभं वा वल्लीमूलथंभं वा पासमाणे पासति, उम्मूलेमाणे उम्मूलेइ, उम्मूलितमिति अप्पाणं मन्नति तक्खणामेव बुज्झति, तेणेव जाव अंतं करेति ।
[२९] कोई स्त्री या पुरुष, स्वप्न के अन्त में एक महान् सर-स्तम्भ, वीरण-स्तम्भ, वंशीमूल-स्तम्भ अथवा वल्लीमूल-स्तम्भ को देखता हुआ देखे, उसे उखाड़ता हुआ उखाड़ फेंके तथा ऐसा माने कि मैंने इनको उखाड़ फेंका है, ऐसा स्वप्न देखकर तत्काल जाग्रत हो तो वह उसी भव में सिद्ध होता है, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करता है।
३०. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं खीरकुंभं वा दधिकुंभं वा घयकुंभं वा मधुकुंभ वा पासमाणे पासति, उप्पाडेमाणे' उप्पाडेति, उप्पाडितमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति तेणेव जाव अंतं करेति ।
[३०] कोई स्त्री या पुरुष, स्वप्न के अन्त में, एक महान् क्षीरकुम्भ, दधिकुम्भ, घृतकुम्भ, अथवा मधुकुम्भ देखता हुआ देखे और उसे उठाता हुआ उठाए तथा ऐसा माने कि स्वयं ने उसे उठा लिया है, ऐसा स्वप्न देखकर तत्काल जाग्रत हो तो वह व्यक्ति उसी भव में सिद्ध हो जाता है, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करता है ।
३१. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं सुरावियडकुंभं वा सोवीरगवियडकुंभं वा तेल्लकुंभं वा वसाकुंभं वा पासमाणे पासति, भिंदमाणे भिंदति, भिन्नमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति, दोच्छेणं भव० जाव अंतं करेति ।
[३१] कोई स्त्री या पुरुष, स्वप्न के अन्त में, एक महान् सुरारूप जल का कुम्भ, सौवीर (कांजी) रूप कुम्भ, तेलकुम्भ अथवा वसा (चर्बी ) का कुम्भ देखता हुआ देखे, फोड़ता हुआ उसे फोड़ डाले तथा मैंने उसे स्वयं फोड़ डाला है, ऐसा माने, ऐसा स्वप्न देखकर शीघ्र जाग्रत हो तो वह दो भव में मोक्ष जाता है, यावत् सब दुःखों का अन्त कर डालता है।
३२. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं पउमसरं कुसुमियं पासमाणे पासति, ओगाहमाणे ओगाहति, ओगाढमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव० तेणेव जाव अंतं करेति ।
[३२] कोई स्त्री या पुरुष, स्वप्न के अन्त में, एक महान् कुसुमित पद्मसरोवर को देखता हुए देखे, उसमें अवगाहन (प्रवेश) करता हुआ अवगाहन करे तथा स्वयं मैंने इसमें अवगाहन किया है, ऐसा अनुभव करे तथा इस प्रकार का स्वप्न देखकर तत्काल जाग्रत हो तो वह उसी भव में सिद्ध होता है, यावत् सब दुःखों का अन्त करता है।
३३. इत्थी वा जाव सुविणंते एगं महं सागरं उम्मी - वीयी जाव कलियं पासमाणे पासति, तरमाणे, तरति, तिण्णमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव० तेणेव जाव अंतं करेति ।
१. पाठान्तर — ' उग्घाडेमाणे, उग्घाडेति, उग्घाडित' (ढकना खोलता हुआ, खोलता है, खोल दिया ...)