Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सत्तरहवां शतक : उद्देशक-१
६१५ [१२ प्र.] भगवन् ! कोई पुरुष वृक्ष के कन्द को हिलाये तो कितनी क्रियाएँ लगती है?
[१२ उ.] गौतम! जब तक वह पुरुष कन्द को हिलाता है या नीचे गिराता है, तब तक उसे कायिकी आदि पांचों क्रियाएँ लगती हैं। जिन जीवों के शरीर से कन्द निष्पन्न हुआ है, वे जीव भी कायिकी आदि पांचों क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं।
१३. अहे णं भंते ! से कंदे अप्पणो जाव चउहिं. पुढें। जेसिं पि य णं जीवाणं सरीरेहिंतो मूले निव्वत्तिते, खंधे निवत्तिते जाव चउहिं० पुट्ठा। जेसिं पि य णं जीवाणं सरीरेहिंतो कंदे निव्वत्तिते ते विणं जाव पंचहिं० पुट्ठा। जे वि य से जीवा अहे वीससाए पच्चोवयमाणस्स जाव पंचहिं. पुट्ठा।
। [१३ प्र.] भगवन् ! यदि वह कन्द अपने भारीपन के कारण नीचे गिरे, यावत् जीवों का हनन करे तो उस पुरुष को कितनी क्रियाएँ लगती हैं ?
[१३ उ.] गौतम! उस पुरुष को कायिकी आदि चार क्रियाएँ लगती हैं। जिन जीवों के शरीर से मूल, स्कन्ध आदि निष्पन्न हुए हैं, उन जीवों को कायिकी आदि पांचों क्रियाएँ लगती हैं। जिन जीवों के शरीर से कन्द निष्पन्न हुए हैं, उन जीवों को कायिकी आदि पांचों क्रियाएँ लगती है। जो जीव नीचे गिरते हुए उस कन्द के स्वाभाविकरूप से उपकारक होते हैं, उन जीवों को भी पांच क्रियाएँ लगती हैं।
१४. जहा कंदो एवं जाव बीयं।
[१४] जिस प्रकार कन्द के विषय में आलापक कहा, उसी प्रकार (स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल) यावत् बीज के विषय में भी कहना चाहिए।
विवेचनप्रस्तुत पांचों सूत्रों (सू. १० से १४ तक) में वृक्ष के मूल और कन्द को हिलाते-गिराते समय हिलाने-गिराने वाले पुरुष को, तथा मूल एवं कन्द के जीव, वृक्ष, एवं उपकारक आदि को लगने वाली क्रियाओं का तथा इसी से सम्बन्धित स्कन्ध से बीज तक से सम्बन्धित क्रियाओं का अतिदेशपूर्वक निरूपण किया है।'
इस प्रकार प्रस्तुत प्रकरण में मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल और बीज के विषय में पूर्वोक्त छह क्रियास्थानों का निर्देश समझना चाहिए। शरीर, इन्द्रिय और योग : प्रकार तथा इनके निमित्त से लगने वाली क्रिया
१५. कति णं भंते! सरीरगा पन्नत्ता ? गोयमा ! पंच सरीरगा पन्नत्ता, तं जहा–ओरालिए जाव कम्मए। [१५ प्र.] भगवन् ! शरीर कितने कहे गए हैं ? [१५ उ.] गौतम! शरीर पांच कहे हैं, यथा-औदारिक यावत् कार्मण शरीर।
१. वियाहपण्णत्तिसुत्तं, भा. ३, (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. ७७४-७७५ २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७२१