Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
५६८
व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
संभंतियवंदणएणं वंदति, २ जाव पडिगए ?
'गोयमा !' दि समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वदासि
" एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं महासुक्के कप्पे महासामाणे विमाणे दो देवा महिड्डीया जाव महेसक्खा एगविमाणंसि देवत्ताए उववन्ना, तं जहा—मायिमिच्छादिट्ठिउववन्नए, अमायिसम्मद्दिट्ठिउववन्नए य।"
"तए णं से मायिमिच्छादिट्ठिउववन्नए देवे तं अमायिसम्मद्दिट्ठिउववन्नगं देवं एवं वदासिपरिणममाणा पोग्गला नो परिणया, अपरिणया, परिणमंतीति पोग्गला नो परिणया, अपरिणया।
"तए णं से अमायिसम्मद्दिट्ठीउववन्नए देवे तं मायिमिच्छद्दिट्ठिउववन्नगं देवं एवं वयासीपरिणममाणा पोग्गला परिणया, नो अपरिणया, परिणमंतीति पोग्गला परिणया, नो अपरिणया।
"तं मायिमिच्छद्दिट्ठीउववन्नगं देवं एवं पडिहणइ, एवं पडिहणित्ता ओहिं पउंजति, ओहिं०२ ममं ओहिणा आभोएति, ममं०२ अयमेयारूवे जाव समुप्पजित्था—'एवं खलु समणे भगवं महावीरे जंबुद्दीवे दीवे जेणेव भारहे वासे उल्लुयतीरस्स नगरस्स बहिया एगजंबुए चेइए अहापडिरूवं जाव विहरित, तं सेयं खलु मे समणं भगवं महावीरं वंदित्ता जाव पज्जुवासित्ता इमं एयारूवं वागरणं पुच्छित्तए त्ति कटु एवं संपेहेति, एवं संपेहित्ता चउहि वि सामाणियसाहस्सीहिं, परिवारो जहा सूरियाभस्स' जाव निग्घोसनाइतरवेणं जेणेव जंबुद्दीवे दीवे जेणेव भारहे वासे जेणेव उल्लुयतीरे नगरे जेणेव एगजंबुए चेतिए जेणेव ममं अंतियं तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तए णं से सक्के देविंदे देवराया तस्स देवस्स तं दिव्वं देविड् िदिव्वं देवजुतिं दिव्वं देवाणुभावं दिव्वं तेयलेस्सं असहमाणे ममं अट्ठ उक्खित्तपसिणवागरणाई पुच्छति, पु० २ संभंतिय जाव पडिगए।"
[८ प्र.] भगवन् ! इस प्रकार सम्बोधन करके भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दननमस्कार करके इस प्रकार पूछा- भगवन् ! अन्य दिनों में (जब कभी) देवेन्द्र देवराज शक्र (आता है, तब) आप देवानुप्रिय को वन्दन-नमस्कार करता है, आपका सत्कार-सन्मान करता है, यावत् आपकी पर्युपासना करता है, किन्तु भगवन् ! आज तो देवेन्द्र देवराज शक्र आप देवानुप्रिय से संक्षेप में आठ प्रश्नों के उत्तर पूछकर और उत्सुकतापूर्वक वन्दन-नमस्कार करके शीघ्र ही चला गया, इसका क्या कारण है ?
[८ उ.] 'गौतम! ' इस प्रकार सम्बोधन करके श्रमण भगवान् महावीर ने गौतम स्वामी से इस प्रकार कहा –गौतम ! उस काल उस समय में महाशुक्र कल्प के 'महासामान्य' नामक विमान में महर्द्धिक यावत् महासुखसम्पन्न दो देव, एक ही विमान में देवरूप से उत्पन्न हुए। इनमें से एक मायीमिथ्यादृष्टि उत्पन्न हुआ और दूसरा अमायीसम्यग्दृष्टि उत्पन्न हुआ।
एक दिन उस मायीमिथ्यादृष्टि देव ने अमायीसम्यग्दृष्टि देव से इस प्रकार कहा—'परिणमते' हुए पुद्गल 'परिणत' नहीं कहलाते, 'अपरिणत' कहलाते हैं, क्योंकि वे पुद्गल अभी परिणत हो रहे हैं, इसलिए वे परिणत नहीं, अपरिणत हैं।'