Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
५७८
व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
७. मणुस्सा जहा जीवा। [७] मनुष्यों के सम्बन्ध में सामान्य जीवों के समान (तीनों) जानना चाहिए। ८. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया जहा नेरइया। [८] वाणव्यंन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों का कथन नैरयिक जीवों के समान (सुप्त) जानना चाहिए।
विवेचन—प्रस्तुत छह सूत्रों (सू. ३ से ८ तक) में सामान्य जीवों और चौबीस दण्डकों में भावत: सुप्त, जागृत एवं सुप्तजागृत की दृष्टि से निरूपण किया गया है।
द्रव्य और भाव से सुप्त आदि का आशय सुप्त और जागृत दो प्रकार से कहा जाता है—द्रव्य की अपेक्षा से और भाव की अपेक्षा से। निद्रा लेना द्रव्य से सोना है और विरति-रहित अवस्था भाव से सोना है। स्वप्न सम्बन्धी प्रश्न द्रव्यसुप्त की अपेक्षा से है। प्रस्तुत में सुप्त, जागृत एवं सुप्त-जागृत-सम्बन्धी प्रश्न विरति (भाव) की अपेक्षा से है। जो जीव सर्वविरति से रहित हैं, वे भावतः सुप्त हैं । जो जीव सर्वविरत हैं, वे भाव से जागृत हैं और जो जीव देशविरत हैं, वे सुप्त-जागृत (भावतः सोते-जागते) हैं। संवृत आदि में तथारूप स्वप्न-दर्शन की तथा इनमें सुप्त आदि की प्ररूपणा
९. संवुडे णं भंते! सुविणं पासति, असंवुडे सुविणं पासति, संवुडासंवुडे सुविणं पासति?
गोयमा ! संवुडे वि सुविणं पासति, असंवुडे वि सुविणं पासित, संवुडासंवुडे वि सुविणं पासति। संवुडे सुविणं पासति—अहातच्चं पासति। असंवुडे सुविणं पासति–तहा तं होजा, अन्नहा वा तं होज्जा। संवुडासंवुडे सुविणं पासति—एवं चेव।
[९ प्र] भगवन् ! संवृत जीव स्वप्न देखता है, असंवृत जीव स्वप्न देखता है अथवा संवृतासंवृत जीव स्वप्न देखता है ? .
_ [९ उ] गौतम! संवृत जीव भी स्वप्न देखता है, असंवृत भी स्वप्न देखता है और संवृतासंवृत भी स्वप्न देखता है। संवृत जीव जो स्वप्न देखता है, वह यथातथ्य देखता है। असंवृत जीव जो स्वप्न देखता है, वह सत्य (तथ्य) भी हो सकता है और असत्य (अतथ्य) भी हो सकता है। संवृतासंवृत जीव जो स्वप्न देखता है, वह भी असंवृत के समान (सत्य-असत्य दोनों प्रकार का) होता है।
१०. जीवा णं भंते ! किं संवुडा, असंवुडा, संवुडासंवुडा ? गोयमा ! जीवा संवुडा वि, असंवुडा वि, संवुडासंवुडा वि।
[१० प्र.] भगवन् ! जीव संवृत हैं, असंवृत हैं अथवा संवृतासंवृत हैं ? १. (क) सर्वविरतिरूपनैश्चयिकप्रबोधाऽभावात् सुप्तः, सर्वविरतिरूपप्रवरजागरण-सद्भावात् जाग्रत, तथा अविरति
विरतिरूपप्रसुप्ति-प्रबुद्धतासद्भावात् सुप्त-जाग्रत् इति। -भगवती अ. वृत्ति, पत्र ७११ (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. ५, पृ. २५५५