Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सोलहवां शतक : उद्देशक-५
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निसीहियं वा चेइत्तए वा ६, एवं विउव्वित्तए वा ७, एवं परियारेत्तए वा ८?
जाव हंता, पभू।
[६ प्र.] भगवन् ! महर्द्धिक यावत् महासुख वाला देव क्या बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके (१) गमन करने, (२) बोलने, या (३) उत्तर देने अथवा (४) आँखें खोलने और बन्द करने, (५) शरीर के अवयवों को सिकोड़ने और पसारने में, अथवा (६) स्थान, शय्या (वसति) निषद्या (स्वाध्याय भूमि) को भोगने में, तथा (७) विक्रिया (विकुर्वणा) करने अथवा (८) परिचारणा (विषयभोग) करने में समर्थ है?
[६ उ.] हाँ शक्र ! वह गमन यावत् परिचारणा करने में समर्थ है।
७. इमाइं अट्ठ उक्खित्तपसिणवागरणाई पुच्छति, इमाइं० २ संभंतियवंदणएणं वंदति, संभंतिय०२ तमेव दिव्वं जाणविमाणं दुरूहति, २ जामेव दिसं पाउब्भूए तामेव दिसं पडिगते। _ [७] देवेन्द्र देवराज शक्र ने इन (पूर्वोक्त) उत्क्षिप्त (अविस्तृत-संक्षिप्त) आठ प्रश्नों के उत्तर पूछे,
और फिर भगवान् को उत्सुकतापूर्वक (अथवा सम्भ्रमपूर्वक) वन्दन करके उसी दिव्य यान-विमान पर चढ़ कर जिस दिशा से आया था. उसी दिशा में लौट गया।
विवेचन शक्रेन्द्र द्वारा आठ प्रश्न पूछने का आशय—कोई भी सांसारिक प्राणी बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किये बिना कोई भी क्रिया कर नहीं सकता, किन्तु देव तो महर्द्धिक होता है, इसलिए कदाचित् बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किये बिना ही गमनादि क्रिया कर सकता हो, इस सम्भावना से शक्रेन्द्र ने ये आठ प्रश्न पूछे थे।'
कठिन शब्दार्थ—आगमित्तए—आने में। वागरित्तए-उत्तर देने में । उम्मिसावेत्तए निमिसावेत्तएआँखें खोलने और बंद करने में। आउंटावेत्तए पसारेत्तए-अवयव सिकोड़ने और फैलाने में । ठाणं-पर्यंकादि आसन, कायोत्सर्ग या स्थित रहना। सेजं—शय्या या वसति (उपाश्रय), निसीहियं निषद्या-स्वाध्याय भूमि। चेइत्तए—उपभोग करने में। परियारेत्तए-परिचारणा करने में । उक्खित्तपसिणवागरणाइं—संक्षिप्त प्रश्नों के उत्तर । संभंतिय—उत्सुकता से अथवा संभ्रमपूर्वक-शीघ्रता से। शक्रेन्द्र के शीघ्र चले जाने का कारण : महाशुक्रसम्यग्दृष्टिदेव के तेज आदि की असहनशीलताभगवत्कथन
८. भंते ! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति, २ एवं वयासी—अन्नदा णं भंते ! सक्के देविंदे देवराया देवाणुप्पियं वंदति नमंसति, वंदति० २ सक्कारेति जाव पज्जुवासति, किं णं भंते ! अज्ज सक्के देविंद देवराया देवाणुप्पियं अट्ठ उक्खित्तपसिणवागरणाई पुच्छइ, २
१. भगवती. अ. वृत्ति ७०७ २. (क) वही, पत्र ७०७
(ख) भगवती, (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २५३९